Saturday, September 29, 2007

बड़े पत्रकारों की यौन कुंठा का आिखर दवा क्या है


सत्येन्द्र प्रताप

एक राष्ट्रीय अखबार केस्थानीय संपादक के बारे में खबर आई िक वे लड़की के साथ रंगरेिलयां बनाते हुए देखे गए।कहा जा रहा है िक क्लाउन टाइम्स नाम से िनकलने वाले एक स्थानीय अखबार के रिपोर्टर ने खबर भी फाइल कर दी थी। हालांिक इस तरह की खबरें अखबार और चैनल की दुनिया में आम है और आए िदन आती रही हैं। लेिकन िदल्ली और बड़े महानगरों से जाकर छोटे शहरों में पत्रकािरता का गुर िसखाने वाले स्थानीय संपादकों ने ये खेल शुरु कर दिया है । राष्ट्रीय चैनलों के कुछ नामी िगरामी हस्तियों के तो अपने जूिनयर और ट्रेनी लड़कियों के तो एबार्शन कराए जाने तक की कनफुसकी होती रहती है।
खबर की दुिनया में जब अखबार में किसी लड़के और लड़की के बारे में रंगरेिलयां मनाते हुए धरे गए, खबर लगती है तो उन्हें बहुत हेय दृष्टि से देखा जाता है।लेिकन उन िविद्वानों का क्या िकया जाए जो नौकरी देने की स्थिति में रहते हैं और जब कोई लड़की उनसे नौकरी मांगने आती है तो उसके सौन्दर्य को योग्यता का मानदंड बनाया जाता है और अगर वह लड़की समझौता करने को तैयार हो जाती है तो उसे प्रोन्नति मिलने और बड़ी पत्रकार बनने में देर नहीं लगती।
एक नामी िगरामी तेज - तर्रार और युवा स्थानीय संपादक के बारे में सभी पत्रकार कहते हैं िक वह ले-आउट डिजाइन के निर्विवाद रुप से िवशेषग्य हैं, हरिवंश जी के प्रभात खबर की ले आउट उन्होंने ही तैयार की थी लेिकन साथ ही यह भी जोड़ा जाता है िक वह बहुत ही रंगीन िमजाज थे, पुरबिया अंदाज में कहा जाए तो, लंगोट के कच्चे थे।
महिलाओं के प्रति यौन िंहसा की खबर तमाम प्राइवेट और सरकारी सेक्टर से आती है। न्यायालय से लेकर संसद तक इस मुद्दे पर बहस भी होती है। लेिकन नतीजा कुछ भी नहीं । अगर कुंिठत व्यक्ति उच्च पदासीन है तो मामले दब जाते हैं और अगर कोई छोटा आदमी है तो उसे पुिलस भी पकड़ती है और अपमािनत भी होना पड़ता है।
अगर पत्रकारिता की बात करें तो जैसे ही हम िदल्ली मुंबई जैसे महानगरों से बाहर िनकलते हैं तो खबरों के प्रति लोगों का नजरिया बहुत ही पवित्र होता है। लोग अखबार में भी खबरें ही पढ़ना चाहते हैं जो उनके जीवन और उनके िहतों से जुड़ी हों, सनसनी फैलाने वाली सामग्री कोई भी पसंद नहीं करता। पत्रकारों के प्रति लोगों का नजिरया भी अच्छा है और अखबार के माध्यम से वे अपनी समस्याओं का समाधान चाहते हैं। अगर रंगरेिलयां जैसी खबरें वे अपने पूज्य संपादकों या पत्रकारों के बारे में सुनते या पढ़ते हैं तो उनका नजरिया भी बदल जाता है। हालांिक महानगरों में िहक्की गजट टाइप के ही अखबार छपते हैं जिसमें फिल्मी नायक नायिकाओं के प्रसंग छपते हैं।
यौनकुंिठत उच्चपदों पर बैठे पत्रकारों वरिष्ठ पत्रकारों की कुंठा का कोई हल नजर नहीं ता। बार बार कहा जा रहा है कि प्रतिस्पर्धा बढ़ रही है , योग्य लोगों की जरुरत है, लेकिन वहीं बड़े पदों पर शराब और शबाब के शौकीन वृद्ध रंगीलों के िकस्से बढ़ते ही जा रहे हैं।

Wednesday, September 26, 2007

ये क्या क्रिकेट-क्रिकेट लगा रखा है?


सत्येन्द्र प्रताप
पहले टेस्ट मैच बहुत ही झेलाऊ था, फिर पचास ओवर का मैच शुरु हुआ, वह भी झेलाऊ सािबत हुआ तो २०-२० आ गया। क्या खेल है भाई। भारत पािकस्तान का मैच जोहान्सबर्ग में और सन्नाटा िदल्ली की सड़कों पर । मुझे तो इस बत की खुशी हुई िक आिफस से िनकला तो खाली बस िमल गई, सड़क पर सन्नाटा पसरा था।मोहल्ले में पहुंचा तो पटाखों के कागज से सड़कें पट गईं थीं और लोग पटाखे पर पटाखे दागे जा रहे थे।
अरे भाई कोई मुझे भी तो बताए िक आिखर इस खेल में क्या मजा है? कहने को तो इस खेल में २२ िखलाड़ी होते हैं , लेिकन खेलते दो ही हैं। उसमें भी एक लड़का जो गेंद फेकता है वह कुछ मेहनत करता है,दूसरा पटरा नुमा एक उपकरण लेकर खड़ा रहता है। फील्ड में ग्यारह िखलाड़ी बल्लेबाजी कर रहे िखलाड़ी का मुंह ताकते रहते हैं कि कुछ तो रोजगार दो ।
खेल का टाइम भी क्या खाक कम िकया गया है? हाकी और फुटबाल एक से डेढ़ घंटे में निपट जाता है और उसपर भी जो खेलता है उसका एंड़ी का पसीना माथे पर आ जाता है यहां तो भाई लोग मौज करते हैं। हां, धूप मेंखड़े होकर पसीना जरुर बहाते हैं। वैसे अगर जाड़े का वक्त हुआ तो धूप में खड़े होना भी मजेदार अनुभव हो जाता है। बस खड़े रहो और लोगों का मुंह िनहारते रहो। हालांिक िरकी पांिटग जैसे िखलाड़ी जब खड़े-खड़े बोर हो जाते हैं तो वहीं अपनी जगह पर कूदने लगते हैं।
िखलाड़ी भी अजीब-अजीब होते हैं। पहले वाल्श और एंब्रोज थे, दोनों िमलकर बारह ओवर फेंक देते थे और रोजगार देते थे िवकेट कीपर को , बैिटंग करने वाला बंदा तो अपना मुंह हाथ पैर बचाने में ही लगा रहता था। रािबन भाई को कैसे भुलाया जा सकता था, अगर कभी गलती से पचास रन बना िदया मुंह से झाग फेंक देते थे, लगता था कि बेचारे ने मेहनत की है। पािकस्तान के एक भाई साहब थे इंजमाम, क्या कहने , उन्हें तो दौड़ने में भी आलस आता था। ज्यादातर वे आधी िपच तक पहुंचते और उन्हें मुआ अंपायर उंगली कर देता था। वो भी समझ नहीं पाते कि आिखर क्या दुश्मनी है उनसे।
अब तो िवग्यापन कंपनियों की बांछें िखल गई हैं क्योंिक तीन घंटे के क्रिकेट का बुखार भारत के युवकों पर चढ़ गया है। िवश्वकप में भारत पािकस्तान की दुर्दशा से तो उनका दिवाला िनकल गया था। अब आर्थिक अखबारों में सर्वे पर सर्वे आ रहा है िक बड़ा मजा है इस क्रिकेट में। कंपनियों की भी बल्ले-बल्ले है.
हालांिक अगर क्रिकेट को २०-२० की जगह पर दो िखलाड़ियों का मैच कर दिया जाए तो मजा दुगुना हो जाए। अगर सामने लांग आन और लांगआफ पर गेंद जाए तो गेंदवाज उसे पकड़ कर लाए और अगर लेग आन लेग आफ और पीछे की ओर गेंद जाए तो बल्लेबाज उसे पकड़ कर लाए। ये मैच पांच ओवर में ही िनपट जाएगा और िखलाड़ी खेलते हुए भी लगेंगे। दस बीस हजार का टिकट लगाकर क्रिकेट के दीवानों को फील्ड के बाहरी िहस्से पर फील्डिंग के लिए भी लगाया जा सकता है।साथ ही िनयमों में भी बदलाव की जरुरत है। पीछे गेंद जाने पर बालर को रन िमले और आगे की ओर गेंद जाने पर बैट्समैन को ... वगैरा वगैरा। अगर इस तरह का क्रिकेट होने लगे तो सही बताएं गुरु मुझे भी देखने में मजा आ जाए।

Wednesday, September 19, 2007

दमन का दौर और ईरान में मानवाधिकार


सत्येन्द्र प्रताप
नोबेल
शांति पुरस्कार से सम्मानित शीरीन ऐबादी ने आजदेह मोआवेनी के साथ मिलकर "आज का इरान - क्रान्ति और आशा की दास्तान" नामक पुस्तक मे इरान के चार शाशन कालों का वर्णन किया है . शीरीन ने ईरान में शासन के विभिन्न दौर देखे हैं।वास्तव में यह पुस्तव उनकी आत्मकथा है, जिसने महिला स्वतंत्रता के साथ ईरान के शाशकों द्वारा थोपे गए इस्लामी कानून के दंश को झेला है। विद्रोह का दौर और जनता की आशा के विपरीत चल रही सरकार औऱ ईराकी हमले के साथ-साथ पश्चिमी देशों के हस्तक्षेप का खेल, ईरान में चलता रहा है। कभी जिंदा रहने की घुटन तो कभी इस्लामी कानूनों के माध्यम से ही मानवाधिकारों के लिए संघर्ष का एक लंबा दौर देखा और विश्व के विभिन्न देशों के मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का सम्मान पाते हुए एबादी को विश्व का सबसे सम्मानपूर्ण ...नोबेल शान्ति पुरस्कार... मिला।

किताब की शुरुआत उन्नीस अगस्त १९५३ से हुई है जब लोकप्रिय मुसादेघ की जनवादी सरकार का तख्ता पलट कर शाह के समर्थकों ने राष्ट्रीय रेडियो नेटवर्क पर कब्जा जमा लिया। एबादी का कहना है कि इसके पीछे अमेरिका की तेल राजनीति का हाथ था।एबादी ने धनी माता पिता और उनके खुले विचारों का लाभ उठाया और मात्र तेइस साल की उम्र में कानून की डिग्री पूरी करके जज बनने में सफल रहीं। उस दौर में शाह की सरकार के विरोध चल रहे थे और खुफिया पुलिस ...सावाक... का जनता के आम जीवन में जबर्दस्त हस्तक्षेप था। हर आदमी खुफिया पुलिस की नज़र में महसूस करता था।

सन उन्नीस सौ सत्तर के बाद शाह के शाशन का विरोध बढ़ता जा रहा था और लोग खुलकर सत्ता के विरोध में आने लगे थे । १९७८ की गर्मियों में शाह का विरोध इतना बढ़ा कि रमजान के अंत तक दस लाख लोग सड़कों पर उतर आए। विरोधियों का नेतृत्व करने वाले अयातु्ल्ला खोमैनी ने बयान दिया कि लोग सरकारी मंत्रालय में जाकर मंत्रियों को खदेड़ दें। एबादी कहती हैं कि एक जज होने के बावजूद जब वे विरोधियों के पक्ष में आईं तो कानून मंत्री ने गुस्से से कहा कि तुम्हे मालूम है कि आज तुम जिनका साथ दे रही हो वे कल अगर सत्ता में आते हैं तो तुम्हारी नौकरी छीन लेंगे? शीरीन ने कहा था कि ... मैं एक मुक्त ईरानी जिन्दगी जीना चाहूंगी, गुलाम बनाए वकील की नहीं...। हालात खराब होते देखकर १६ जनवरी १९७९ की सुबह शाह देश के बाहर चले गए औऱ साथ में एक छोटे से बक्से में ईरान की मिट्टी भी ले गए। खुशियां मनाते ईरानियों के बीच शाह के चले जाने के सोलह दिन बाद १ फरवरी १९७९ को अयातुल्ला खोमैनी ने एयर फ्रांस से चलकर ईरान की धरती पर पांव रखा। क्रांति का पहला कड़वा स्वाद ईरान की महिलाओं ने उस समय चखा जब नए सत्ताधारियों ने स्कार्फ से सिर ढ़कने का आह्वान किया। यह चेतावनी थी कि क्रांति अपनी बहनों को खा सकती है(क्रांति के दौर में औरतें एक दूसरे को बहन कहकर पुकारती थीं)। शीरीन को भी कुछ ही दिनों में क्रांति का दंश झेलना पड़ा, क्योंकि सत्तासीन सरकार ईरान में महिला जजों को बर्दाश्त नहीं कर सकती थी। उन्हें न्याय की कुर्सी से हटाकर मंत्रालय में क्लर्क की भांति बैठा दिया गया। खोमैनी के शाशन में ही ईराक ने साम्राज्यवादी विस्तार का उद्देश्य लेकर इरान पर हमला किया और ईरान ने बचाव करने के लिए जंग छेड़ी। लंबे चले इस युद्ध में धर्म के नाम पर छोटे-छोटे बच्चों को भी युद्ध में झोंका गया। विदेशी हमला तो एक तरफ था, अपनी ही सरकार ने मुजाहिदीन ए खलग आरगेनाइजेशन(एम के ओ) के नाम से खोमैनी सरकार का विरोध कर रहे लोगों को कुचलने में अपनी पूरी ताकत झोंक दी। सरकार द्वारा एम के ओ के सदस्यों के संदेह में हजारों लोगों को मौत के घाट उतार दिया, हर तरह से कानून की धज्जियां उड़ाई जाती रहीं। शीरीन कहती हैं कि उस दौर में भी उन्होंने इस्लामी कानून के हवाले से ही ईरान की खोमैनी सरकार का विरोध किया। बिना मुकदमा चलाए शीरीन के नाबालिग भतीजे को एमकेओ का सदस्य बताकर फांसी पर चढ़ा दिया गया।जजों की कुर्सियों पर अनपढ़ धर्माधिकारियों का कब्जा हो चुका था।

इस बीच शीरीन, अपने खिलाफ चल रहे षड़यंत्रों और फंसाने की कोशिशों का भी जिक्र करती हैं जो पुस्तक को जीवंत औऱ पठनीय बनाता है। मानवाधिकारों की रक्षा करने की कोशिशों के दौरान उनके पास इस्लामी गणतंत्र के एजेंट भेजे जाते रहे। घुटन के माहौल और दमन के दौर के बीच तेईस मई १९९७ को इस्लामी गणतंत्र को दूसरा मौका देने के लिए इरानी जनता ने मतदान किया।राष्ट्रपति के चुनाव में मोहम्मद खातमी को चुनाव लड़ने के लिए किसी तरह मुल्लाओं ने स्वीकृति दे दी।ईरान की जनता ने शान्ति से इसे उत्सव के रुप में लिया औऱ अस्सी फीसदी लोगों ने खातमी के पक्ष में मतदान कर सुधारों की जरुऱत पर मुहर लगा दी। हालांकि खातमी सुधारवादी हैं लेकिन इसके बावजूद आम लोगों की आशाओं के मुताबिक सुधार कर पाने में सक्षम नहीं हैं।शीरीन का कहना है कि पहले की तुलना में आम लोगों का दमन कुछ कम जरुर हुआ है लेकिन तानाशाह परम्परावादी विभिन्न षड़यंत्रों के माध्यम सुधार की रफ्तार को पीछे ढ़केलने से नहीं चूकते। इस पुस्तक में बड़ी साफगोई से शीरीन ने न केवल निजी जीवन, बल्कि सत्ता के परिवर्तनों को नज़दीक से देखते हुए साफगोई से देश की हालात पेश करने की कोशिश की है। मीडिया के स्थानीयकरण के इस दौर में निकट पड़ोसी ईरान के बदलते दौर को देखने में ये किताब पाठकों के लिए सहायक साबित होगी। साथ ही आतंकवाद औऱ स्वतंत्रता पर इस्लामी रवैये और मुस्लिम कानूनों में मानवाधिकारों की रक्षा के अध्याय की पूरी जानकारी देती है।

पुस्तक परिचय
किताब- आज का ईरान , लेखिकाः शीरीन एबादी


Friday, September 14, 2007

पाकिस्तान में खुफिया एजेंसी आई एस आई की समानान्तर सरकार चलती है- नवाज


सत्येन्द्र प्रताप
पाकिस्तान के अखबार दैनिक जंग के राजनीतिक संपादक सुहैल वड़ाएच ने.. गद्दार कौन - नवाज शरीफ की कहानी उनकी जुबानी.. पुस्तक में पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ और उनके करीबियों के साक्षात्कारों को संकलित किया है. इस पुस्तक में नवाज शरीफ ,उनके छोटे भाई और पंजाब के मुख्यमंत्री रहे शहबाज शरीफ, नवाज की बेगम कुलसुम नवाज ,पुत्र हुसैन नवाज छोटे बेटे हसन नवाज, नवाज के करीबी सेनाधिकारी- सेना सचिव ब्रिगेडियर जावेद मलिक और दामाद कैप्टन सफदर के साछात्कार शामिल हैं.
पुस्तक में बड़ी बेबाकी से पाकिस्तान की आंतरिक स्थिति और विदेशी संबंधों में झांकने की कोशिश की गई है. साथ ही भारत से अलग होने और पाकिस्तान के निर्माण से लेकर आज तक, सत्ता और विदेशनीति में आई एस आई की भूमिका के बारे में पूर्व प्रधानमंत्री की राय जानने की कोशिश है. नवाज पर संपत्ति अर्जित करने और सत्ता के दुरुपयोग पर भी उनकी राय जानने की स्पस्ट कोशिश की गई है । ये साछात्कार उस समय लिए गए हैं जब नवाज, जद्दा और लंदन में निर्वासित जीवन बिता रहे थे.
पुस्तक के पहले अध्याय में नवाज शरीफ द्वारा पाकिस्तान में परमाणु परीक्षण किए जाने के फैसले पर सवाल किए गए हैं. उस समय सेना के चीफ आफ आर्मी स्टाफ जनरल जहांगीर करामत थे. नवाज ने परमाणु विस्फोट करने से पहले उनसे राय मांगी थी. नवाज का कहना है कि जनरल जहांगीर इस मामले में काफी उहापोह की हालत में थे और प्रतिबंधों को लेकर खासे चिंतित थे. वावजूद इसके, नवाज ने धमाके करने का निर्णय लिया.
भारत- पाक संबंधों पर नवाज का कहना है कि उन्होंने भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से बैकडोर चैनल बनाकर बातचीत शुरु की थी और वातचीत के सकारात्मक परिणाम थे लेकिन इसमें भी सेना और आई एस आई ने खासी अडंगेबाजी की ।उनका मानना है कि युद्ध से भारत और पाकिस्तान के बीच चल रहा कश्मीर विवाद कभी नहीं सुलझ सकता है.
परमाणु विस्फोटों के बाद जनरल जहांगीर करामत को हटाकर परवेज मुशर्रफ को चीफ आफ आर्मी स्टाफ बनाने का फैसला भी नवाज का ही था. सत्ता से हटाए जाने के बाद नवाज स्वीकार करते हैं कि परवेज मुशर्रफ को सेना प्रमुख बनाया जाना जल्दबाजी में किया गया फैसला था, जिसमें तीन सेनाधिकारियों की वरिष्ठता का ध्यान न रखते हुए उन्होने मुशर्रफ को सेना प्रमुख बना दिया था.
नवाज शरीफ का कहना है कि मुशर्रफ को सेना प्रमुख पद से हटाए जाने के समय स्थितियां बेहद प्रतिकूल थीं। सेना ने उन्हें जानकारी दिए बिना कश्मीर में सेनाएं भेज दीं और करगिल की चोटियों पर सेना ने कब्जा जमा लिया. नवाज का कहना है कि कारिगल में सेना के भारतीय सेना से लड़ाई के बारे में सूचना उन्हें भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी से मिली थी।इसके पहले हमें यही बताया जाता रहा कि वहां मुजाहिदीन लड़ रहे हैं. जब भारतीय सेनाओ ने बमबारी शुरु की तो मुशर्रफ भागे-भागे आए और कहा कि हमें बचा लीजिए। इसके बाद ही उन्हें प्रोत्साहन देने के लिए मोर्चे पर जाना पड़ा और युद्ध को रोकने के लिए अमेरिका के राष्टपति के पास जाना पड़ा। पाकिस्तानी सेना लगातार चौकियां खो रही थी और उनके पास कोई संसाधन नहीं थे. इस हालात में भी भारत को युद्ध रोकना पड़ा. हमने उस समय अटल बिहारी वाजपेयी को नीचा दिखाया ( इसी साक्षात्कार के बाद भारत में विपक्षी दलों ने तत्कालीन प्रधानमंत्री का कड़ा विरोध किया था).
नवाज शरीफ ने अपने एक साछात्कार में बड़ी बेबाकी से कहा है कि पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आई एस आई बेलगाम हो गई है और राजनीतिक नेतृत्व से किसी तरह का राय नहीं लेती. पाकिस्तान में गलत काम तो खुफिया एजेंसियां करती हैं और उसका जबाब सरकार को देना पड़ता है. जिस भी देश में पाकिस्तान का नेता जाता है, उससे यही कहा जाता है कि आई एस आई विभिन्न हरकतें कर रही है. आई एस आई की मीटिंग में तो एक वरिष्ठ अधिकारी ने ये भी राय दे डाली कि देश की आर्थिक हालात को सुधारने के लिए सरकार की सरपरस्ती में ड्रग्स विदेशों में भेजी जाएं. सैनिक सत्ताओं के बार-बार सत्ता हथियाने के चलते ऐसा हुआ है. इस प्रवृत्ति को खत्म करने की जरुरत है.
नवाज के छोटे भाईशहबाज शरीफ ने बातचीत के दौरान पाकिस्तान से बाहर जाने,सउदी अरब से डील और पंजाब प्रांत का मुख्यमंत्री बनाए जाने सहित विभिन्न मुद्दों पर बातचीत हुई. इसमें पंजाब प्रांत के नेता और नवाज के पारिवारिक मित्र चौधरी सुजात हुसेन से मतभेदों का मुद्दा शामिल रहा. साथ ही मुस्लिम कानूनों और उसपर मौलवियों से मतभेदों के बारे में भी बेबाकी से बातचीत हुई है.
इस किताब में बेगम कुलसुम नवाज से लिए गए वे इंटरव्यू शामिल हैं जो २००० में लाहौर,२००१ में जद्दा और २००६ में लंदन प्रवास के दौरान किए गए. कुलसुम ने उस समय मोर्चा संभाला था जब नवाज शरीफ को जेल में बंद कर दिया गया। कुलसुम का राजनीति में कभी हस्तछेप नहीं रहा और आज भी वे इस पर कायम हैं कि वे राजनीति में नहीं आएंगी. हालांकि सेना के दमन के दौर में उन्होंने अपनी पार्टी की कमान संभाली और जनता को बखूबी समझाया कि सेना ने टेकओवर कर के गलत किया है.
नवाज शरीफ के पुत्र हुसेन नवाज ने अपने साक्षात्कार के दौरान कहा है कि वे सेना द्वारा टेकओवर किए जाने के समय अपने पिता के साथ मौजूद थे. उन्होने मुशर्रफ को हटाए जाने वाले पत्र के मसौदे में भी अपनी राय दी थी. छोटे भाई हसन नवाज उन दिनों लंदन में पढ़ाई कर रहा था. जब उसे टेकओवर की सूचना मिली कि टेकओवर हो गया है और नवाज को बंदी बना लिया गया है जो सउदी अरब सहित नवाज के सभी मित्र देशों में तत्काल संपकर्क किया और पूरे मामले को मीजिया के सामने ले आए.
ब्रिगेडियर जावेद मलिक, नवाज सरकार में सेना सचिव के पद पर काम कर रहे थे। वे भी नवाज सरकार की जर नीतियों का बचाव करते नजर आते हैं।। कारिगल के बारे में उन्होने कहा कि जबनवाज शरीफ नेवाजपेयी के साथ लाहौर घोषणापत्र पर हस्ताछर किया तो पाकिस्तान की सेना ने दराज और कारिगल पर कब्जा जमा लिया था या कब्जे की तैयारी में थे. उनके मुताबिक सेना का ये फैसला मूर्खतापूर्ण था।पाकिस्तान की सेना का मानना है कि अगर वे दराज कारगिल का रास्ता रोक देंगे तो भारत को दबाव में लेना आसान हो जाएगा लेकिन ये तर्क मूर्खतापूर्ण था. साथ ही उन्होंने कहा कि सेना, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री की जासूसी भी करती रहती है. नवाज के सुर में सुर मिलाते हुए उन्होंने कहाकि कारगिल में जांच के डर से सेना प्रमुख ने टेकओवर कर लिया. इस किताब में दामाद कैप्टन सफदर का भी साक्षात्कार दर्ज है जिसमें उन्होंने नवाज को बेद नरमदिल और देश की चिंता करने वाला प्रधानमंत्री बताया है.
कुल मिलाकर इस किताब में साछात्कारों के माध्यम से नवाज ने सेना सरकार के आरोपों से खुद का जोरदार बचाव तो किया ही है। सेना के स्टेबलिशमेंट सेल की तानाशाही, बेलगाम आई एस आई, और विदेश नीति पर खुलकर चर्चा की है. पाकिस्तान की राजनीति का एक पहलू जानने के लिए ये किताब बेहद उपयोगी है जिसमें नवाज शरीफ की ओर से शासन में सेना के हस्तछेप और उससे होने वाली हानियों कीबेबाक चर्चा की गई है. पुस्तक से सुहैल वडाएच की पत्रकारीय छमता भी उभरकर सामने आई है और उन्होंने सैकड़ों सवालों के माध्यम से हर पहलू को छूने की कोशिश की है.

किताबः गद्दार कौन-नवाज शरीफ की कहानी, उनकी जुबानी
लेखकः सुहैल वड़ाएच

Saturday, September 8, 2007

ये कैसा प्यार?


और भी सुंदरता है इस दुनियां में कुत्ते के सिवा

Thursday, September 6, 2007

हीनभावना कर रही है हिंदी की दुर्दशा


सत्येन्द्र प्रताप

आजकल अखबारनवीसों की ये सोच बन गई है कि सभी लोग अंग्रेजी ही जानते हैं, हिंदी के हर शब्द कठिन होते हैं और वे आम लोगों की समझ से परे है. दिल्ली के हिंदी पत्रकारों में ये भावना सिर चढ़कर बोल रही है. हिंदी लिखने में वे हिंदी और अन्ग्रेज़ी की खिचड़ी तैयार करते हैं और हिंदी पाठकों को परोस देते हैं. नगर निगम को एम सी डी, झुग्गी झोपड़ी को जे जे घोटाले को स्कैम , और जाने क्या क्या.यह सही है कि देश के ढाई िजलों में ही खड़ी बाली प्रचलित थी और वह भी दिल्ली के आसपास के इलाकों में. उससे आगे बढने पर कौरवी, ब्रज,अवधी, भोजपुरी, मैथिली सहित कोस कोस पर बानी और पानी बदलता रहता है. लम्बी कोशिश के बाद भारतेंदु बाबू, मुंशी प्रेमचंद,आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, जयशंकर प्रसाद जैसे गैर हिंदी भाषियों ने हिंदी को नया आयाम दिया और उम्मीद थी कि पूरा देश उसे स्वीकार कर लेगा. जब भाषाविद् कहते थे कि हिंदी के पास शब्द नहीं है, कोई निबंध नहीं है , उन दिनों आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने क्लिष्ट निबंध लिखे, जयशंकर प्रसाद ने उद्देश्यपरक कविताएं लिखीं, निराला ने राम की शक्ति पूजा जैसी कविता लिखी, आज अखबार के संपादक शिवप्रसाद गुप्त के नेत्रित्व में काम करने वाली टीम ने नये शब्द ढूंढे, प्रेसीडेंट के लिए राष्ट्रपति शब्द का प्रयोग उनमे से एक है. अगर हिंदी के पत्रकार , उर्दू सहित अन्य देशी भाषाओं का प्रयोग कर हिंदी को आसान बनाने की कोशिश करते तो बात कुछ समझ में आने वाली थी, लेकिन अंग्रेजी का प्रयोग कर हिंदी को आसान बनाने का तरीका कहीं से गले नहीं उतरता. एक बात जरूर है कि स्वतंत्रता के बाद भी शासकों की भाषा रही अंग्रेजी को आम भारतीयों में जो सीखने की ललक है, उसे जरूर भुनाया जा रहा है. डेढ़ सौ साल की लंबी कोशिश के बाद हिंदी, एक संपन्न भाषा के रूप में िबकसित हो सकी है लेिकन अब इसी की कमाई खाने वाले हिंदी के पत्रकार इसे नष्ट करने की कोिशश में लगे हैं। आने वाले दिनों में अखबार का पंजीकरण करने वाली संस्था, किसी अखबार का हिंदी भाषा में पंजीकरण भी नहीं करेगी.हिंदी भाषा के पत्रकारों के लिए राष्ट्रपति शब्द वेरी टिपिकल एन्ड हार्ड है, इसके प्लेस पर वन्स अगेन प्रेसीडेंट लिखना स्टार्ट कर दें, हिंदी के रीडर्स को सुविधा होगी