Monday, June 30, 2008

यकीन नहीं होता ये वही बिहार है

बिहार में विकास का पहिया चला तो देश भर में बदलने लगी आबोहवा

सत्येन्द्र प्रताप सिंह

बिहार के भभुआ जिले के संतोष कुमार ने काशी हिंदू विश्वविद्यालय में उच्च शिक्षा प्राप्त की। बीए और एमए की पढ़ाई पूरा करने के बाद उन्हें समझ में नहीं आया कि क्या काम करें। दिल्ली आकर सिविल सेवा की तैयारी भी की, लेकिन सफलता नहीं मिली। दिल्ली में भी मन माफिक काम नहीं मिला, तो वे घर वापस लौट गए।

शुक्र है कि अब वे शिक्षा मित्र के रूप में अपने गांव सातो अवंती के ही प्राथमिक विद्यालय में पढ़ा रहे हैं और उनकी रोजी-रोटी का संकट दूर हो गया। प्राथमिक स्कूलों के निर्माण के साथ ही करीब 1 लाख शिक्षकों की नियुक्तियां इस सरकार के कार्यकाल के दौरान हुई हैं। बेरोजगार नौजवान शिक्षा मित्र के रूप में बच्चों को पढ़ा रहे हैं। किसानों को बाजार से जोड़ने की कोशिश के साथ ही वर्ष 2008 को कृषि वर्ष घोषित किया है।

मुख्यमंत्री तीव्र बीज विस्तार कार्यक्रम के तहत कुल 3491.471 लाख रुपये की लागत से योजना कार्यान्वित की जाएगी। बिहार के स्थानिक आयुक्त चंद्र किशोर मिश्र ने कहा कि ऐसा पहली बार हुआ है कि प्रदेश के प्रमुख ने किसानों को बुलाकर बातचीत की और उनकी समस्याओं और जरूरतों को सुनने के बाद कृषि क्षेत्र के विकास के लिए रोडमैप तैयार किया गया है। बिहार मूल के आलोक कुमार दिल्ली में विभिन्न सामाजिक मुद्दों पर डॉक्यूमेंट्री फिल्मों का निर्माण करते हैं।

पटना में डॉक्यूमेंट्री फिल्म के निर्माण के दौरान उन्होंने पाया कि वहां कुछ सकारात्मक बदलाव आए हैं। उन्होंने कहा, 'ऐसा नहीं है कि राज्य में विकास की आंधी आई है और हमें यह उम्मीद भी नहीं करना चाहिए कि रातों रात कोई क्रांतिकारी बदलाव आ जाएगा। लेकिन इतना जरूर है कि गांवों में सड़कें बन रही हैं। हाईवे की स्थिति में सुधार आया है। हां, इतना जरूर है कि नई सरकार के सत्ता में आने के बाद सकारात्मक माहौल बना है और लोगों की उम्मीदें जगी हैं।'

वैशाली जिले के लालगंज इलाके के निवासी शांतनु पटना उच्च न्यायालय में प्रैक्टिस करते हैं। उन्होंने कहा कि कानून व्यवस्था पटरी पर आ रही है। अधिकारी आम लोगों की बात सुनते हैं। उन्होंने कहा कि सबसे ज्यादा बदलाव स्वास्थ्य के क्षेत्र में आया है। गांवों में कांट्रैक्ट पर चिकित्सकों की नियुक्तियां हुईं हैं और वे सही ढंग से इलाज कर रहे हैं। हालांकि उन्हें रोजगार को लेकर निराशा है। उन्होंने कहा, 'सड़कों, स्कूलों के निर्माण में लोगों को काम तो मिल रहा है, लेकिन यह रोजगार का स्थाई समाधान नहीं है।

सरकार को राज्य में छोटे उद्योगों के विकास पर भी ध्यान देने की जरूरत है।' शिक्षा के क्षेत्र के साथ ही स्वास्थ्य क्षेत्र में भी बड़े पैमाने पर नियुक्तियां हुईं हैं। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने नवंबर 2007 में अपनी सरकार के 2 साल के कार्यकाल पूरा होने के अवसर पर दिल्ली में आयोजित प्रेस वार्ता में कहा था, 'रोजगार और बेहतरी के लिए राज्य से बाहर जाने वालों को रोका नहीं जा सकता।

हमारा लक्ष्य है कि उन लोगों को बिहार में ही काम मिल जाए, जो दो जून की रोटी के लिए अपना घर छोड़कर दूसरे राज्यों में मजदूरी करने जाते हैं।' अब इंफ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में हो रहे विकास ने मुख्यमंत्री का साथ दिया है और लोग मजबूरी के चलते बिहार नहीं छोड़ रहे हैं। जनता दरबार के माध्यम से नीतीश रोजगार और गृह और कुटीर उद्योग विकसित करने में आम लोगों को आ रही दिक्कतें भी सुनी जाती हैं।
साभार : bshindi.com

Sunday, June 29, 2008

'याद बहुत आएंगे जब छूट जाएगा साथ'


सत्येन्द्र प्रताप सिंह

नोबेल पुरस्कार से सम्मानित लेखक विद्याधर सूरजप्रसाद नायपॉल ने अपनी पुस्तक 'एरिया आफ डार्कनेस' में बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में आम आदमी की दयनीय दशा का वर्णन किया है और साथ ही उन्होंने एक अवसर पर बिहार के बारे में कहा कि वहां 'सभ्यता खत्म हो गई है।'
अब बिहार की वह हालत नहीं है। रोजगार के अवसर इस कदर पैदा हुए हैं कि मजदूरों का पलायन रुका है। साथ ही बिहारी मजदूरों पर निर्भर पंजाब जैसे विकसित राज्य में कृषि पर संकट के बादल मंडराने लगे हैं। इसके पीछे खास वजह है कि बिहार के ग्रामीण इलाकों में सड़कों, स्कूलों और अस्पताल जैसी बुनियादी सुविधाओं में चल रहे काम से मजदूरों को स्थानीय स्तर पर काम मिलने लगा है।
बिहार की 90 प्रतिशत आबादी गावों में रहती है। 2004-05 में एनएसएसओ के एक सर्वे के मुताबिक बिहार में 42.1 प्रतिशत जनसंख्या गरीबी रेखा के नीचे जीवन यापन करती है, जो करीब वर्तमान जनसंख्या के 80-90 लाख परिवारों के समतुल्य है। बिहार में प्रवासन दर भी सबसे अधिक है। आंकड़ों के मुताबिक प्रति 1000 जनसंख्या पर 39 पुरुष और 17 महिलाएं बिहार छोड़कर दूसरे राज्यों का रुख करते हैं। 2001 में यहां 42.2 लाख परिवार बेघर थे, लेकिन 2008 के ताजा आंकड़ों के मुताबिक 16 लाख आवासों का निर्माण इंदिरा आवास योजना के तहत कराया जा चुका है। बिहार में सत्ता परिवर्तन के बाद बुनियादी सुविधाओं पर शुरू हुए काम से ऐसी स्थितियां पैदा हुईं हैं। केंद्र सरकार की राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (बिहार के लोगों के शब्दों में कहें तो नरेगा) का लाभ लोगों को मिलने लगा है।यह योजना केंद्र सरकार ने पहले 38 जिलों में से 23 जिलों में ही लागू किया था, लेकिन बिहार सरकार ने इसका विस्तार सभी जिलों में कर दिया। सरकारी आंकड़ों पर गौर करें तो नई सड़कों और पुल, नाबार्ड, एमएमजीएसवाई, बीएडीपी, एससीपी और एएसएडी की परियोजनाओं में वित्त वर्ष 2007-08 में कुल 1155.26 करोड़ रुपये का लक्ष्य रखा गया, जिसमें 1034.89 करोड़ रुपये का कुल काम हुआ है।मुख्यमंत्री ग्राम सड़क योजना, जिसमें 500 से 999 की जनसंख्या वाले गावों को सड़क से जोड़ा जाना है, में मार्च 2008 तक कुल 566.12 करोड़ रुपये खर्च करके 1744.11 किलोमीटर सब बेस कार्य, 1235.74 किलोमीटर बेस कार्य 473.38 किलोमीटर कालीकरण कार्य किया जा चुका है। इसके साथ ही वित्त वर्ष 2008-09 में 403.02 करोड़ रुपये का बजटीय लक्ष्य रखा गया है। प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत पहले और दूसरे चरण में 31 मार्च 2008 तक कुल 362.52 करोड़ रुपये व्यय करते हुए 749 पथों, जिनकी कुल लंबाई 1723.59 किमी है, का काम पूरा कर लिया गया है। बिहार सरकार के स्थानिक आयुक्त चंद्र किशोर मिश्र कहते हैं, 'बुनियादी सुविधाओं पर चल रहे काम से न केवल रोजगार के नए अवसर सृजित हुए हैं, बल्कि गांवों और खेतों को बाजार से जोड़ा जा रहा है, जिससे किसानों को उनकी मेहनत का उचित मूल्य मिल सके। विकास कार्यों से प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप से रोजगार के अवसर बढ़े हैं।'
कुल मिलाकर देखा जाए तो बिहार में काम करने के अवसर बढ़े हैं। इसके साथ ही सकारात्मक माहौल बना है। पंजाब के बड़े किसान भले ही मजदूरों की समस्या से जूझ रहे हैं, लेकिन बिहारी मजदूरों और स्थानीय लोगों को अपने गांव घर में काम मिलने से उनके भीतर उम्मीद जगी है, कि पेट के लिए उन्हें दूसरे राज्यों के अवसरवादी लोगों की गालियां नहीं सुननी पडेंग़ी।

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Saturday, June 28, 2008

महंगाई के जिन्न को मारने के लिए सरकार कर रही है हर जतन

सत्येन्द्र प्रताप सिंह



एक साल 6 महीने और 17 दिन में रिजर्व बैंक ने नकद सुरक्षित अनुपात (सीआरआर) में 3.25 प्रतिशत की बढ़ोतरी की है। आंकड़े देखें तो 08 दिसंबर 2006 को सीआरआर 5.50 प्रतिशत था। इसमें बढ़ोतरी शुरू हुई तो थमने का नाम ही नहीं ले रही है। वर्तमान बढ़ोतरी के बाद यह 8.75 प्रतिशत हो जाएगा। इसी तरह से रेपो रेट (अल्पकालिक ऋण दर) में भी बढ़ोतरी हुई है और यह अब 8.50 प्रतिशत पर पहुंच गई है।

भारतीय रिजर्व बैंक यह हथकंडे तब अपनाता है, जब उसे बाजार से पैसा खींचना होता है। सीआरआर में बढ़ोतरी करने से बैंकों को केंद्रीय बैंक के पास ज्यादा प्रतिभूति जमा करनी पड़ती है। इसका परिणाम यह होता है कि बैंकों को अपना कोष बढ़ाने के लिए जनता से पैसा लेना पड़ता है। इसका तरीका सामान्यत: यह होता है कि वे लोगों के जमा पर अधिक ब्याज दर देते हैं।

जब अधिक ब्याज दर देकर बैंक पैसा उठाएंगे तो स्वाभाविक है कि उन्हें कर्ज पर भी अधिक ब्याज लेना पड़ेगा। रेपो रेट वह दर होती है, जिस पर रिजर्व बैंक, अन्य व्यावसायिक बैंकों को कर्ज देता है। स्वाभाविक है कि अगर रिजर्व बैंक से भी अधिक ब्याज दर पर बैंकों को कर्ज मिलेगा, तो वे अन्य लोगों को भी कर्ज देने पर अधिक ब्याज लेंगे।

महंगाई पर प्रभाव

सामान्य सिध्दांत है कि बाजार में पैसा कम रहेगा तो आम आदमी की क्रय शक्ति कम होगी। ऐसे में बाजार में विभिन्न सामान की कमी होने के बावजूद दाम नहीं बढ़ेंगे। सामान्यत: कीमतों में बढ़ोतरी तभी होती है, जब मांग बढ़ जाती है और आपूर्ति कम रहती है। सीआरआर और रेपो दर बढ़ने से बाजार में धन का प्रवाह कम होना स्वाभाविक है।

उद्योगों पर प्रभाव

उद्योग जगत तो कर्ज पर कुछ ज्यादा ही निर्भर रहता है। नई इकाइयां स्थापित करनी हो, क्षमता में विस्तार करना हो या कोई भी नया काम शुरू करना हो, वे बैंकों की ओर ही देखते हैं। विशेषज्ञों का अनुमान है कि वर्तमान बढ़ोतरी के बाद व्यावसायिक बैंक, ब्याज दरों में 0.5 से लेकर 1 प्रतिशत तक बढ़ोतरी करने को मजबूर हो जाएंगे। इसकी मार सीधे सीधे उद्योगों पर पड़ेगी और उनकी विकास योजनाएं खटाई में पड़ सकती हैं।

साथ ही मांग कम होने के कारण बढ़ती प्रतिस्पर्धा और बिक्री बढ़ाने के लिए कंपनियों को अपना माल कम लाभ पर बेचना पड़ेगा। इसके अलावा बाजार में आने वाले उन उत्पादों पर ज्यादा असर पड़ेगा, जिन्हें ग्राहक बैंकों से कर्ज लेकर खरीदते हैं। इसके साथ ही बैंकों के कारोबार पर भी असर होगा। इस असर का अनुमान लगते ही शेयर बाजार में बैंकों के शेयर बुधवार को धराशायी हो गए।

हालांकि कुछ आर्थिक विशेषज्ञों का मानना है कि ब्याज दरें बढ़ाने और जनता से बैंकों में पैसे जमा कराने का महंगाई पर ज्यादा असर नहीं पड़ता। एक तो विनिर्माण की लागत बढ़ने से कीमतें बढ़ जाती हैं, दूसरे उदारीकरण की अर्थव्यवस्था में सुविधाओं की आदत डाल चुके लोग बैंक में पैसा जमा करने के बजाय शेयर बाजार या अन्य साधनों से तेजी से पैसा कमाने की इच्छा रखते हैं। वे बैंकों में पैसा जमा करना पसंद नहीं करते।

अर्थशास्त्र के विशेषज्ञ ए. वी. राजवाडे ने अपने एक लेख में एक बैंक के आंतरिक सर्वेक्षण का हवाला देते हुए लिखा है कि 'बैंक में जमा पैसों का बाजार में चल रही ब्याज दरों से काफी कम वास्ता होता है।' आगे उन्होंने लिखा है, 'मुल्क में महंगाई की दर को एक फीसदी कम करने के लिए करीब एक लाख करोड़ के कुल उत्पादन को कम करना होता है। इस मतलब शायद महंगाई दर में केवल फीसदी की कमी करने के लिए हमें 6000 रुपये प्रति माह की तनख्वाह वाले करीब 50 लाख नौकरियों की कुर्बानी देनी पडेग़ी।'

केंद्र सरकार को चुनावी मौसम साफ नजर आ रहा है। चार साल तो ठीक-ठाक चला लेकिन अंतिम साल में महंगाई के भूत ने दबोच लिया। ऐसे में वह हर जतन करना चाहती है, जिससे महंगाई के दबाव को कम किया जा सके। अकबर इलाहाबादी ने शायद सत्तासीन संप्रग सरकार की ऐसी ही हालत के लिए लिखा था-
खूब उम्मीदें बढ़ीं लेकिन हुईं हिरमाँनसीब,
बदलियां उट्ठीं, मगर बिजली गिराने के लिए।

Thursday, June 19, 2008

झमाझम मानसूनी बारिश से ही खिलते हैं किसानों के मुरझाए चेहरे



सत्येन्द्र प्रताप सिंह / June 18, 2008
झांसी के एक गांव में रहने वाले मेहरबान सिंह की खुशी का ठिकाना नहीं है। उन्हें उम्मीद जागी है कि एक बार फिर फसल लहलहाएगी।
बुंदेलखंड इलाके में 5 साल बाद पिछले सोमवार को पूरे दिन झमाझम बारिश हुई। उन्हें उम्मीद है कि बारिश का सिलसिला कुछ दिन तक जारी रहेगा, और पटरी से उतर चुकी बुंदेलखंड की खेती उन्हें खुशहाल कर देगी।यह खुशी केवल एक आदमी की नहीं है। जब भी पानी नहीं बरसता, न केवल विभिन्न इलाकों में बल्कि वहां रहने वाले किसानों की जिंदगी में सूखा पड़ जाता है।
दुनिया में मानसून के अलावा कोई ऐसी जलवायु नहीं है, जिससे हर साल बहुतायत में लोग प्रभावित होते हैं। भारत उन 20 एशियाई देशों में से एक है, जहां कृषि और उस पर आधारित अर्थव्यवस्था मानसून पर निर्भर है। इसके अलावा चीन, जापान, इंडोनेशिया, उत्तरी और दक्षिणी कोरिया तथा भारत के पड़ोसी देश आते हैं। बहरहाल जापान, सिंगापुर, दक्षिण कोरिया और ताइवान जैसे देशों ने तो औद्योगिक विकास कर लिया है, लेकिन बाकी देशों की अब भी मानसून पर निर्भरता बनी हुई है। इन देशों में धान का उत्पादन मानसून पर ही निर्भर करता है। हालत यह है कि धान का उत्पादन भिन्न-भिन्न इलाकों में होता है, इसलिए इसका क्षेत्रवार निर्धारण करना भी कठिन है कि किन इलाकों में कितने पानी की जरूरत होती है। भारत ने
स्वतंत्रता के बाद से ही मानसून पर निर्भरता कम करने के लिए कोशिशें शुरू कीं। इसमें अंतरराष्ट्रीय सहयोग भी लिया, जिससे कम समय और लंबे समय के लिए मानसून की भविष्यवाणी की जा सके। लेकिन आज भी यह नहीं कहा जाता है कि मानसून पर निर्भरता कम हुई है। भारत में मानसून का सीधा असर कृषि पर तो पड़ता ही है, सकल घरेलू उत्पाद पर भी सीधा प्रभाव पड़ता है। सकल घरेलू उत्पाद में कृषि क्षेत्र का हिस्सा करीब 20 प्रतिशत है, जो उद्योगों को कच्चा माल भी उपलब्ध कराता है। देश की 60 प्रतिशत जनसंख्या कृषि पर निर्भर है, जो उद्योगों के उत्पादों के लिए बहुत बड़ा उपभोक्ता है। इस तरह से विनिर्मित वस्तुओं का बाजार भी ग्रामीण बाजार से जुड़ा हुआ है। अगर खेती की हालत अच्छी नहीं रहती है, तो स्वाभाविक है कि ग्रामीण इलाकों में मांग कम हो जाती है और परोक्ष रूप से इसका प्रभाव उद्योगों पर पड़ता है।
किसानों ने इस समय देश भर में विकसित हो रहे विशेष आर्थिक क्षेत्रों का जोरदार विरोध करना शुरू कर दिया है। महज चार दिन पहले गोवा में रिलायंस के प्रस्तावित सेज के विरोध में किसानों ने गोवा-मुंबई हाईवे जाम कर दिया। किसानों का कहना है कि सरकार उनकी बात नहीं सुनती। सिंचित क्षेत्र में सेज बनाया जा रहा है, जबकि ऐसा नहीं होना चाहिए। किसानों का आरोप है कि उन्हें केवल राजनेताओं से आश्वासन मिलता है, जबकि अंतिम रूप से सरकार उद्योगपतियों की ही बात सुनती है। ऐसा ही कुछ पश्चिम बंगाल के सिंगूर इलाके में हुआ। देश में अभी भी सिंचित कृषि भूमि एक तिहाई ही है। ऐसे में सिंचित भूमि पर सेज का विकास कहां से जायज है?11वीं पंचवर्षीय योजना (2007-11) के लिए कृषि प्रसार पर बने कार्य समूह का मानना है कि 60 प्रतिशत किसान कृषि के लिए विकसित नई तकनीकों से वाकिफ नहीं हैं। समिति का कहना है कि कृषि के विस्तार के लिए सूचना का प्रसार किसानों तक करना बेहद जरूरी है। उसका कहना है कि कृषि उत्पाद को 2010 तक 247.8 टन और 2020 तक 296.6 टन तक बढ़ाए जाने की जरूरत है जो 2004-05 के आंकड़ों के मुताबिक 206.39 टन है। साथ ही यह भी कहा गया है कि सकल घरेलू उत्पाद की विकास दर 10 प्रतिशत बरकरार रखने के लिए जरूरी है कि कृषि क्षेत्र की विकास दर वर्तमान के 1.7 प्रतिशत की तुलना में बढ़ाकर 4.1 प्रतिशत करनी होगी।
काशी हिंदू विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो. पंजाब सिंह की अध्यक्षता में बनी योजना आयोग की समिति की 8 जून 2006 की रिपोर्ट में कहा गया है कि यह असंभव सा लगता है, लेकिन सही है कि दुर्भाग्य से देश में कोई नेशनल एग्रीकल्चल एक्स्टेंशन सिस्टम नहीं बना। रिपोर्ट में इस बात की सिफारिश की गई है कि देश में दूसरे देशों की कृषि योजनाओं की नकल के बजाय अपनी जरूरतों के मुताबिक योजना बनाए जाने की जरूरत है, जिससे क्षेत्रवार कृषि के विकास और उनकी जरूरतों को पूरा किया जा सके। रिपोर्ट में इस तरफ भी ध्यान दिलाया गया है कि जनसंख्या तेजी से बढ़ रही है, उसी के मुताबिक अनाज की जरूरतें भी बढ़ेंगी। घरेलू मांगों को पूरा करने के लिए 1949-50 से 1089-90 के बीच रहे अनाजों के उत्पाद की वृध्दि दर को बढाकर 3.5 से 4 प्रतिशत करना होगा।
बहरहाल जमीनी हकीकत यह है कि किसान आत्महत्या करने को मजबूर हैं। एक गैर सरकारी संगठन विदर्भ जन आंदोलन समिति के अध्यक्ष किशोर तिवारी ने कहा कि पिछले एक हफ्ते में कर्ज से दबे विदर्भ के छह किसानों ने आत्महत्या कर ली। कृषि के विकास और मानसून पर निर्भरता कम होने के दावों के बीच किसानों पर मानसून की हल्की सी मार भी उन्हें कर्ज के जाल में फंसा देती है। प्रकृति के सामने सभी शोध और आंकड़े कागजी ही साबित होते हैं। किसी शायर ने सच ही कहा है और यह भारत के किसानों पर सटीक बैठता है:
हस्ती अपनी हबाब (बुलबुला) की-सी है,
ये नुमाइश सराब (रेगिस्तान) की- सी है।

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Thursday, June 12, 2008

आखिर पेट्रोलियम पदार्थो की बढ़ी कीमतों पर हंगामा है क्यों बरपा




सत्येन्द्र प्रताप सिंह
तेल की ऊंची कीमतों की उपभोक्ता पर दोहरी मार पड़ती है। इनका अन्य जिंसों की कीमतों पर भी असर पड़ता है। हाल ही में पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें बढ़ने से राजनीतिक दलों में हलचल मच गई।
मुख्य विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी ही नहीं बल्कि कांग्रेस के सहयोगी दल भी इन कीमतों को बढ़ाए जाने से काफी खफा हैं। पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें बढ़ने से जिंसों के दाम बढ़ने तय हैं। पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों का राजनीतिक अर्थशास्त्र पर सबसे ज्यादा प्रभाव पड़ता है। महंगाई का असर हाल के कर्नाटक चुनावों पर भी पड़ा और दक्षिण भारत में पहली बार अपने दम पर कमल खिल गया। केंद्र सरकार को आगामी लोकसभा और विधान सभा चुनावों की चिंता सता रही है, वहीं विपक्ष इस मसले पर कोई भी मौका गंवाना नहीं चाहता है।

रुला चुकी है महंगाई
अगर हम इतिहास में जाएं तो स्वतंत्रता के बाद से ही इसका साफ प्रभाव नजर आने लगा था। हार्वर्ड और मैरीलैंड विश्वविद्यालय के विद्वानों द्वारा हाल में किए गए एक शोध के मुताबिक भारत में सर्वाधिक महंगाई दर 1943 में रही, जो 53।8 प्रतिशत थी। ध्यान रहे कि अंग्रेजों के शासनकाल में उस साल बंगाल में भयंकर अकाल पड़ा था। 10 जनवरी 1942 से थोक मूल्य सूचकांक के आंकड़े दिए जा रहे हैं। उन दिनों 23 जिंसों को इसमें शामिल किया गया था और इनके दामों का केवल एक नमूना लिया जाता था। वर्तमान में सूचकांक में जिंसों की संख्या बढ़कर 435 हो गई है और दामों के 1918 नमूने लिए जाते हैं जो विभिन्न जगहों से आते हैं। वैसे अगर देखें तो कीमतों में वृध्दि स्वाभाविक नजर आती है और इसका राजनीति, राजनीतिक दलों या प्रधानमंत्री से कोई लेना देना नहीं होता है। भारत के स्वतंत्र होने के बाद से हर दस या पांच साल बाद कीमतों में जोरदार उछाल आता है। उस समय चाहे कांग्रेस सत्ता में रहे, भाजपा रही हो या कम समय के लिए कोई भी सरकार रही हो, इस पर किसी का नियंत्रण नहीं होता। 1956-57 जवाहर लाल नेहरू के प्रधानमंत्रित्व काल में महंगाई दर 13.6 प्रतिशत रही। लाल बहादुर शास्त्री के कार्यकाल में 1964-65 में यह 11.5 प्रतिशत थी। इंदिरा गांधी के कार्यकाल में 1974-75 में यह दर सबसे ऊपर 24.9 प्रतिशत पर पहुंच गई। जनता पार्टी सत्ता में आई तो महंगाई ने चौधरी चरण सिंह को भी त्रस्त किया और यह 17.3 प्रतिशत रही। चंद्रशेखर का कार्यकाल तो बहुत कम, महज 7 माह रहा, लेकिन महंगाई दर 10.2 प्रतिशत बनी रही। नरसिंह राव के कार्यकाल 1991-96 के बीच महंगाई दल 8.0 से 13.8 प्रतिशत के बीच बनी रही।

बड़ा चुनावी मुद्दा
भाजपा ने इस समय बढ़ती महंगाई को लेकर मुहिम छेड़ दी है। पेट्रोल की कीमतें बढ़ने के बाद वरिष्ठ नेता लाल कृष्ण आडवाणी ने कहा कि पेट्रोलियम उत्पादों की कीमतों में बढ़ोतरी केंद्र में सत्तारूढ़ कांग्रेस के नेतृत्व वाली संप्रग सरकार की मौत का फरमान है। यह कदम केंद्र में अवसरवादी गठबंधन और संप्रग सरकार के आर्थिक कुप्रबंधन का नतीजा है। याद रहे कि यह वही भाजपा है जिसके शासनकाल में महंगाई दर 7.2 प्रतिशत थी और इसका इस कदर राजनीतिकरण हुआ कि केवल प्याज की कीमतों ने दिल्ली में भाजपा को खून के आंसू रुला दिया था। इस बार कांग्रेस की बारी है।

विभिन्न क्षेत्रों पर असर
पेट्रोलिम पदार्थों की कीमतों के बढ़ने पर आम उपभोग की वस्तुओं और खाद्य पदार्थों पर सर्वाधिक प्रभाव पड़ेगा। ट्रकों के मालभाड़े में बढ़ोतरी से आवक पर असर होगा। इसके साथ ही मंदी की मार झेल रहे आटोमोबाइल सेक्टर पर भी इसका असर नजर आने लगा है। हालांकि चार पहिया वाहनों की बिक्री पिछले माह की तुलना में घटी है। इसके साथ साथ कंपनियों को चार पहिया वाहनों की कीमतों को घटाने पर भी मजबूर होना पड़ा है। किसानों पर इसकी जोरदार मार पड़ेगी। देश के ज्यादातर हिस्सों में किसान फसलों की सिंचाई के लिए डीजल का इस्तेमाल करते हैं। इससे उनकी खेती का खर्च बढ़ जाएगा। साथ ही मंडियों के निकट के किसानों को भी तैयार फसलों को मंडियों में पहुंचाने के लिए अधिक खर्च वहन करना पड़ेगा। अधिक पैदावार की हालत में भी वे कच्चे माल के खराब होने के डर से औने-पौने दामों पर बेचने को मजबूर होंगे।

प्रधानमंत्री की सफाई
ऐसा पहली बार हुआ है कि पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में बढ़ोतरी के लिए प्रधानमंत्री को सफाई देनी पड़ी। चार जून को प्रधानमंत्री टेलीविजन स्क्रीन पर नजर आए और उन्होंने अपनी मजबूरियां गिनाईं। उन्होंने स्वीकार किया कि सरकार द्वारा डीजल, पेट्रोल और एलपीजी के दाम बढ़ाना अलोकप्रिय कदम है, लेकिन ईंधन की निर्बाध आपूर्ति के लिए यह जरूरी था। साथ ही अमेरिका के साथ परमाणु करार का विरोध कर रहे लोगों पर निशाना साधते हुए उन्होंने कहा कि अमेरिका के साथ परमाणु करार अटका हुआ है। ऐसे में परमाणु ऊर्जा का विकल्प अपनाने के लिए उन्होंने समर्थन मांगा। इसके दूसरे दिन ही प्रधानमंत्री ने विदेशी दौरों और सरकारी खर्चों में कटौती करने के लिए विभागों को पत्र लिखा।

विरोध का दौर
भाजपा ने पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस की कीमतों में बढ़ोतरी को संप्रग सरकार का आर्थिक आतंकवाद क हा है। साथ ही इसके खिलाफ देशव्यापी प्रदर्शन भी किया गया। कांग्रेस के सहयोगी वाम शासित प्रदेशों पश्चिम बंगाल, केरल और त्रिपुरा में मूल्य वृध्दि के खिलाफ प्रदर्शन हुए। हर जगह विरोध का मोर्चा बड़े कम्युनिस्ट नेताओं ने संभाल रखा था। उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती ने केंद्र सरकार से समर्थन वापसी की चेतावनी तक दे डाली।महंगाई उफान पर है। 24 मई को समाप्त सप्ताह में अनाज, कागजों और खाद्य तेल की कीमतों में बढ़ोतरी से महंगाई दर पिछले साढ़े तीन साल के उच्चतम स्तर 8.24 प्रतिशत पर पहुंच गई है। अर्थशास्त्रियों का अनुमान है कि यह अभी 9 प्रतिशत के आंकड़े को पार करेगी।

भले ही महंगाई हर सरकार के कार्यकाल में बढ़ती है, राजनीति का तकाजा है कि सत्तापक्ष बढ़ोतरी के कारणों को गिनाता है और विपक्ष उसका राजनीतिक फायदा उठाने को सोचता है। इसके बीच में खड़ी रहती है मूकदर्शक जनता। किसी शायर ने ठीक ही कहा है:

फुगां कि मुझ गरीब को, ये हुक्म है हयात का। समझ हर एक राज को, मगर फरेब खाए जा।

साभारः बिजनेस स्टैंडर्ड

Monday, June 9, 2008

संभव है पूंजी की सुरक्षा और निश्चित रिटर्न

मनीश कुमार मिश्र


म्युचुअल फंड उद्योग में एक योजना है कैपिटल प्रोटेक्शन ओरियेंटेड स्कीम। जैसा कि नाम से जाहिर है, इसका मकसद पूंजी को सुरक्षित रखना है।
संरचना के लिहाज से देखें तो यह म्युचुअल फंडों की दूसरी फिक्स्ड मैच्योरिटी योजना की जैसी ही है। निवेशकों के लिए संरचना की दृष्टि से समान लेकिनअलग-अलग नाम वाले ये दोनों फंड उलझन भरे हो सकते हैं। यह जानना आवश्यक है कि इन दो फंडों में किस प्रकार की समानताएं और असमानताएं हैं। आइए हम दोनों फंडों की पेशकश का अलग-अलग विश्लेषण करके देखें।

फिक्स्ड मैच्योरिटी प्लान
फिक्स्ड मैच्योरिटी प्लान (एफएमपी) एक नियत कालिक ऋण फंड है जिसके परिपक्वता की एक निश्चित अवधि होती है। इनमें निवेश केवल नए फंड ऑफर के दौरान ही किया जा सकता है। एफएमपी कोष का एक छोटा हिस्सा इक्विटी में भी निवेश कर सकते हैं। इनका लक्ष्य होता है कि वे एक निश्चित रिटर्न दें। निवेश के समय से लेकर परिपक्वता तक इनकी लॉक-इन अवधि होती है। यह बात तो स्पष्ट है कि बाजार से जुडे निवेश की वजह से प्रतिफल की न तो गारंटी दी जा सकती है और न ही निश्चित प्रतिफल की आशा की जा सकती है। इसलिए तय प्रतिफल में कमी या बढ़ोतरी, जो बाजार के उतार-चढ़ावों से होती है, की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता है।

कैपिटल प्रोटेक्शन ओरियेंटेड स्कीम (सीपीओएस)
कैपिटल प्रोटेक्शन ओरियेंटेड स्कीम (सीपीओएस) नियत कालिक ऋण फंड (डेट फंड)है। इसका मुख्य उद्देश्य निवेश की गई पूंजी को सुरक्षित रखने का है। सबसे बड़ी बात तो यह कि इसमें पूंजी की सुरक्षा की कोई गारंटी नहीं होती है। इसकी पोर्टफोलियो रचना कुछ इस तरह की होती है कि निवेशकों को परिपक्वता के समय कम से कम निवेश की गई राशि वापस जरूर मिल जाए।

सीपीओएस एवं एफएमपी में समानताएं
एफएमपी और सीपीओएस संरचना की दृष्टि से एक-दूसरे के बराबर होते हैं। दोनों ही योजनाएं में यह कोशिश की जाती है कि ऋण (डेट) में निवेश कर स्थिरता बरकरार रखी जाए और इसमें इक्विटी की भी भूमिका हो। आम तौर पर ये फंड कोष का एक बड़ा हिस्सा (लगभग 80 प्रतिशत) डेट योजनाओं (ऋण उपकरणों) में एवं शेष (लगभग 20 प्रतिशत) इक्विटी में निवेश करते हैं।पोर्टफोलियो इस प्रकार बनाया जाता है कि ऋण उपकरणों में निवेश की गई राशि, परिपक्वता के समय शुरूआती निवेश की राशि के लगभग बराबर होती है। उदाहरण के लिए 100 रुपये की राशि में से 80 रुपए कंपनी ऋण योजनाओं में निवेश करती है जो परिपक्वता के समय 100 रुपये के बराबर हो जाती है। इस प्रकार ऋण पोर्टफोलियो में किसी निवेशक द्वारा शुरू-शुरू में लगाए गए पैसे को सुरक्षित रखा जाता है वहीं इक्विटी पोर्टफोलियो (इस मामले में 20 रुपए ) का उपयोग मुनाफा देने के लिए किया जाता है।

एफएमपी और सीपीओएस में भिन्नताएं
एफएमपी एवं सीपीओएस में कुछ भिन्नताएं भी हैं। सीपीओएस पूंजी संरक्षण की तरफ ज्यादा ध्यान देते हैं। इसलिए इस योजना को परिभाषित करने वाली विशेषताएं भी पूंजी संरक्षण के लिए होती हैं।जबकि एफएमपी रिटर्न देने वाले निवेश का विकल्प है और यह पूंजी सुरक्षित रखने की तरफ ज्यादा ध्यान नहीं देता है। ऐसे फंड का प्राथमिक लक्ष्य होता है ज्यादा रिटर्न देने का प्रयास करना।सेबी के दिशानिर्देशों के मुताबिक सभी परिसंपत्ति प्रबंधन कंपनियों के लिए यह अनिवार्य है कि वे सीपीओएस के प्रस्तावित पोर्टफोलियो की रेटिंग सेबी द्वारा पंजीकृत के्रडिट रेटिंग एजेंसी से करवाएं। इसके अलावा इस रेटिंग की तिमाही समीक्षा की जाती है और परिसंपत्ति प्रबंधन कंपनी यह सुनिश्चित करती है कि पोर्टफोलियो में शामिल ऋण योजनाओं की निवेश रेटिंग सबसे ऊंची यानी एएए या पी 1 + जैसी जरूर हो। एफएमपी शुरूआत में ही सबसे ऊंची रेटिंग वाली ऋण योजनाओं में निवेश करते हैं, हालांकि किन डेट योजनाओं में निवेश किया जाए, इसकी उन्हें इसका चुनाव करने की खुली छूट होती है। सीपीओएस की तरह ही एफएमपी के लिए भी यह आवश्यक है कि वे अपने पोर्टफोलियो की किसी क्रेडिट रेटिंग एजेंसी से रेटिंग कराएं। सीपीओएस तय अवधि के होते हैं। इसमें से निवेशक बीच में ही अपना पैसा नहीं निकाल सकते। इसलिए निवेशकों को सलाह दी जाती है कि सीपीओएस में तभी निवेश करें जब उनके पास फालतू पैसा हो और जिसे वे लंबे समय के लिए लगा सकते हों। दूसरी तरफ एफएमपी के निवेशकों को यह विकल्प होता है कि वे चाहें तो परिपक्वता से पहले ही वे अपना निवेश वापस ले सकते हैं। हालांकि परिपक्वता से पहले योजना से बाहर होने पर निकासी प्रभार लगाया जा सकता है। यह प्रभार फंड हाउस लगाते हैं। निवेशक यह समझकर ज्यादा बेहतर निर्णय कर सकते हैं कि सीपीओएस एवं एफएमपी दोनों अलग-अलग प्रकार के निवेशकों के लिए है। वैसे निवेशक जो पूंजी की सुरक्षा को पूंजी वृद्धि की अपेक्षा ज्यादा तरजीह देते हैं सीपीओएस का चयन कर सकते हैं। दूसरी तरफ वैसे निवेशक जो एक निश्चित आय चाहते हैं, एफएमपी का चुनाव कर सकते हैं। निवेशकों के लिए यह जरूरी है कि वे दोनों ही निवेश विकल्पों को ठीक से जान लें और उसके बाद अपनी जरूरत के अनुसार निवेश करें।