Thursday, July 17, 2008

बद से बदतर होती देश की आर्थिक हालत और धूमिल पड़ती सुधार की संभावनाएं

सत्येन्द्र प्रताप सिंह


अभी 6 महीने पहले तक भारतीय अर्थव्यवस्था चमक रही थी। अचानक हालात बदल गए। अर्थव्यवस्था मंदी की ओर जा रही है। महंगाई दर 12 प्रतिशत के करीब है।

औद्योगिक मंदी चल रही है। राजकोषीय घाटा बढ़ रहा है। शेयर बाजार आए दिन निम्नतम स्तर के नए कीर्तिमान बना रहा है। बड़े व्यवसायियों, छोटे कारोबारियों, निवेशकों और उपभोक्ताओं में हताशा है।

ऐसे में राजनीतिक अस्थिरता ने हताशा और बढ़ा दी है। वाम दलों के समर्थन वापस लेने के बाद यह सवाल उठ रहा है कि क्या सुधारों का नया दौर फिर शुरू होगा, जैसा कि 1991 में आए आर्थिक दिवालियेपन के संकट के बाद सुधारों का दौर शुरू किया गया था?

वर्तमान स्थिति

अगर औद्योगिक वृध्दि दर पर गौर करें जो न केवल शेयर बाजार बल्कि रोजगार पर असर डालता है, तो मई 2008 में औद्योगिक वृध्दि दर 3.8 प्रतिशत पर पहुंच गई है, जो मई 2007 में करीब 10 प्रतिशत थी। ऐसा ही कुछ हाल शेयर बाजार का है। 21,000 के आंकड़े छूने के बाद सेंसेक्स 12,000 के आसपास घूम रहा है।

अंतरराष्ट्रीय बाजार में पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतें पिछले एक साल में दोगुनी से ज्यादा हो चुकी हैं, उर्वरकों का भी वही हाल है, लेकिन घरेलू बाजार में सब्सिडी देकर सरकार उसकी कीमतें करीब स्थिर बनाए हुए है। रुपये का लगातार अवमूल्यन हो रहा है। पेट्रोलियम, उर्वरक बॉन्ड, कर्जमाफी के गैर बजटीय खर्च से बजट घाटा जीडीपी के 10 प्रतिशत पर पहुंचने का अनुमान लगाया जा रहा है।

घाटा करीब उस स्तर पर पहुंच रहा है, जो 1991 में था। ऐसे में अर्थशास्त्री एक बार फिर सुधार के कदम उठाए जाने की जरूरत महसूस कर रहे हैं। प्रमुख अर्थशास्त्री सुबीर गोकर्ण ने बिजनेस स्टैंडर्ड में लिखे एक लेख में कहा था कि सरकार को निश्चित रूप से सब्सिडी खत्म करने पर गंभीरता से विचार करना चाहिए।

क्या है लटका

केंद्र में वामपंथियों के विरोध के चलते तमाम विधेयक लटके पड़े हैं, जिन्हें आर्थिक सुधारों के लिए जरूरी समझा जा रहा है। पेंशन फंड रेगुलेटरी ऐंड एथॉरिटी बिल पिछले 3 साल से लंबित है। इस बिल के पास होने के बाद से पेंशन फंड का प्रयोग पूंजी बाजार में किया जा सकता था। इसमें पेंशनर के एक एकाउंट का प्रावधान था, जिसके माध्यम से वह अपनी इच्छा के मुताबिक फंड मैनेजर का चुनाव कर सकता था।

स्टेट बैंक आफ इंडिया अमेंडमेंट बिल जिसमें सरकार की हिस्सेदारी 55 प्रतिशत से घटाकर 51 प्रतिशत किए जाने की बात कही गई है, जिसके लागू होने से विदेशी निवेश को अनुमति मिल जाएगी। इसके साथ ही बैंकिंग रिफार्म बिल 2005 में संसद में पेश किया गया। इसमें निवेशकों को मत देने के अधिकार की बात थी, लेकिन वामपंथियों ने इस प्रावधान का कड़ा विरोध किया।

इंश्योरेंस रिफार्म बिल में विदेशी हिस्सेदारी 26 प्रतिशत से बढ़ाकर 49 प्रतिशत किए जाने का प्रावधान है। फॉरेन एजूकेशन प्रोवाइडर बिल तो वामपंथियों के विरोध के चलते पेश ही नहीं हो सका। इसके अलावा कांग्रेस सरकार सुधार के अगले चरण में टेलीकॉम और इंश्योरेंस में विदेशी हिस्सेदारी बढ़ाने, फारवर्ड कांट्रैक्ट (रेगुलेशन) अमेंडमेंट बिल और सीड बिल भी ला सकती है। इन पर वामपंथियों की नाराजगी है। पिछले साल संसद में असंगठित क्षेत्र सामाजिक सुरक्षा विधेयक पेश किया गया। इसका विरोध वामपंथी ट्रेड यूनियनों सीआईटीयू और एआईटीयूसी ने किया।

मजबूरियां अब भी हैं

अब सबकी निगाहें 22 जुलाई के संसद के सत्र पर टिक गई हैं। अर्थशास्त्रियों का कहना है कि लंबित विधेयकों को स्वीकृति मिलने के बाद अर्थव्यवस्था की स्थितियां बदलेंगी और सकारात्मक माहौल बनेगा, लेकिन सरकार की प्राथमिकताएं क्या हैं? अभी तो सत्तासीन सरकार की प्राथमिकता एकमात्र यही है कि सरकार को बचाया जाए।

अगर सरकार बच जाती है तो अगली प्राथमिकता निश्चित रूप से मई 2008 में होने वाले कुछ राज्यों और लोक सभा के चुनाव ही होंगे। चुनावी मौसम को देखते हुए सरकार किसी पचड़े में नहीं पड़ना चाहेगी। हालांकि सरकार के संकटमोचक नजर आ रहे समाजवादी पार्टी के महासचिव अमर सिंह का कहना है, 'अभी तक तो हम आर्थिक मामलों में कमोवेश वामपंथियों के रास्ते पर ही चल रहे थे, लेकिन सरकार बचाने के बाद हम विभिन्न मुद्दों पर फिर से विचार करेंगे। हालांकि उन्होंने कहा कि रिटेल सेक्टर का निश्चित रूप से विरोध किया जाएगा।'

अब आर्थिक सुधारों पर विपक्ष और सहयोगी दल कितना सहयोग देते हैं, यह भविष्य के गर्भ में है। एक शायर के शब्दों में इतना ही कहा जा सकता है-
हरेक से सुना नया फसाना हमने,
देखा दुनिया में एक जमाना हमने।
अव्वल ये था कि वाकफियत पे था नाज,
आखिर ये खुला कि कुछ न जाना हमने॥


courtesy: bshindi.com

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