Sunday, November 22, 2009

किसान, बेरोजगार सभी- लिब्रहान मसले पर हुए हिंदू और मुसलमान

कब्र में से लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट का जिन्न निकला और एक बार फिर किसान, मजदूर, गरीब, महंगाई से पीड़ित शहरी निम्न मध्य वर्ग हिंदू या मुसलमान हो गए। अब संसद में गन्ना किसान कोई मसला नहीं रह गए। बढ़ती महंगाई कोई मसला नहीं रह गई। किसानों को उनके उत्पादन का उचित दाम और जमाखोरी कोई मसला नहीं रह गया। करोड़ो का घपला करने वाले नेता पीछे छूट गए। अब मसला है तो सिर्फ लिब्रहान आयोग।
इंडियन एक्सप्रेस में लिब्रहान आयोग की रिपोर्ट प्रकाशित हो गई। इसमें अटल, आडवाणी, जोशी और कल्याण सिंह को दोषी ठहराया गया। जो रिपोर्ट संसद में पेश की जानी थी, अखबार में पेश हो गई। सही कहें तो यह मसला इस समय कोई मसला ही नहीं था।
असल मसला तो यह था कि चीनी लाबी के खिलाफ तैयार हो रहे जनमत को भ्रमित करना था। प्रदर्शनकारी किसानों का उत्पात, दारू पीते लोगों की फोटो, दारू की खाली बोतलें दिखाए जाने पर भी मुद्दे से भटकाव नहीं हुआ था। आम जनता लूट के खिलाफ एकजुट हो रही थी और वह कुछ भी सुनने को तैयार नहीं थी। ऐसे में कांग्रेस ने लिब्रहान आयोग का पासा फेंक दिया। पुराने सत्ताधारी हैं। बाजी कैसे खाली जाती। संसद ठप। अब हर गली- चौराहे पर सिर्फ एक ही चर्चा। बाबरी किसने ढहाई? कुछ कहेंगे भाजपा दोषी, कुछ कहेंगे कांग्रेस दोषी। हालांकि इस मसले से किसी के पेट में रोटी नहीं जानी है। किसी किसान का पेट नहीं भरना है। किसी बेरोजगार को रोजगार भी इस मसले से नहीं मिलने वाला है। लेकिन यह सही है कि यह पीड़ित तबका लिब्रहान आयोग और बाबरी पर चर्चा करके अपना पेट भर लेगा। किसानों का गेहूं १० रुपये किलो खरीदकर उन्हीं को २० रुपये किलो आटा देने और २० रुपये किलो अरहर खरीदकर १०० रुपये किलो अरहर का दाल देने वाले लोग फिर बचकर निकल जाएंगे। देश की जनता अब या तो हिंदू हो जाएगी, या मुसलमान। गरीब, किसान, शोषित, पीड़ित, दलित औऱ बेरोजगार कोई नहीं रहेगा।
हां इससे कांग्रेस को फायदा जरूर हो जाएगा। उन्हें पता है कि ये मुद्दा मर चुका है, जिससे भाजपा लाभ नहीं उठा सकती। इसकी प्रतिक्रिया में कांग्रेस को जरूर थोड़ा फायदा हो जाएगा। मसले की प्रतिक्रिया से कम, असल मुद्दों से भटकाव और आक्रोश की दिशा बदलने का फायदा कांग्रेस को जरूर मिलेगा। भाजपा एक बार फिर गलत मसला उठाकर जनता की नजर में कमजोर साबित हो जाएगी।

Friday, November 20, 2009

तोड़फोड़ और हंगामा करके सारी व्यवस्था न ठप करें तो क्या करें किसान?

किसान अपना अनाज बहुत सस्ते में बेचता है। गेहूं अगर १००० रुपये क्विंटल के हिसाब बेच देता है तो उसे आटा २००० रुपये क्विंटल मिलता है। अगर उसने अरहर २० रुपये किलो बेचा तो उसे दाल ९० रुपये किलो मिल रही है। आखिर कौन खा रहा है मुनाफा? जिंसों की कमी दिखाकर मुनाफाखोरी चरम पर है और सरकार इस मसले पर विकलांग बनी हुई है। जिंसों के उत्पादों के खरीदारों को भी नुकसान और किसान अगल तबाह है।
तर्क दिया जा रहा है कि किसानों ने बहुत उत्पात मचाया। दिल्ली में प्रदर्शन के दौरान। आखिर बेचारा किसान अपनी बाद किस ढंग से रखे। क्या अगर वह अपने घरों में शांत बैठकर सब दुख झेलता रहता है तो यह कथित सभ्य समाज और मीडिया उसकी बात को उठाता है? दिल्ली के अखबार किसानों के उत्पात के विरोध से पटे पड़े हैं। आखिर में इसके पहले इन मुनाफाखोरों और नेताओं के समर्थक कहां सोए रहते हैं?
पिछले पांच महीनों महीनों के दौरान कृषि के गौण उत्पादों की कीमतों में भारी उछाल आयी है, लेकिन उसका कोई लाभ कृषि के प्राथमिक उत्पादकों को नहीं मिला है।
किसानों को इसी बात की आशंका सता रही है कि आने वाले समय में भी उनके प्राथमिक उत्पाद न्यूनतम समर्थन मूल्य या उसके आसपास की कीमत पर खरीद लिए जाएंगे और उससे जुड़े उत्पाद चार या पांच गुने दाम पर बिकेंगे। एक आम उपभोक्ता के नाते उन्हें भी उसी बढ़ी कीमत पर गौण उत्पादों की खरीदारी करनी पड़ती है।
किसानों के मुताबिक पिछले सीजन में उन्होंने मंडी में दलहन (अरहर) की बिक्री 2000 रुपये प्रति क्विंटल तो मसूर की बिक्री 1700 रुपये प्रति क्विंटल की दर से की थी। नए दलहनों के लिए सरकार ने कीमतों में प्रति क्विंटल 30-60 रुपये की बढ़ोतरी की है।
इस साल भी वे अधिकतम 1800-2200 रुपये प्रति क्विंटल के हिसाब से दलहन की बिक्री करेंगे। जबकि नए सीजन में भी दालों के भाव में कोई खास गिरावट की संभावना नहीं है। किसान बताते हैं कि किसी दलहन को दाल बनाने एवं उस पर पॉलिश वगैरह करने में प्रति किलोग्राम अधिकतम 6 रुपये की लागत आती है।
मांग के मुकाबले आपूर्ति में कमी आते ही बाजार में भाव चढ़ने लगते हैं, लेकिन उस अनुपात में उन्हें उसका लाभ नहीं मिलता है। किसान कहते हैं कि उनके लिए मांग एवं पूर्ति का कोई सिध्दांत काम नहीं करता। गन्ने के भुगतान मूल्य के मामले में भी किसानों की यही शिकायत है।
दिल्ली स्थित जंतर-मंतर पर अपनी मांगों को लेकर धरने पर बैठे किसान पूछते हैं, 'क्या केवल चीनी बनाने की लागत बढ़ती है? चीनी की कमी होते ही 140-145 रुपये प्रति क्विंटल की दर से खरीदे गए गन्ने से बनी चीनी की कीमत 3600-3700 रुपये प्रति क्विंटल हो गयी तो क्या इसका लाभ गन्ना किसानों को नहीं मिलना चाहिए?'
गेहूं किसान रुआंसे मन से कहते हैं, 'पिछले साल उन्होंने अधिकतम 1000 रुपये प्रति क्विंटल की दर से गेहूं की बिक्री की, लेकिन धान के उत्पादन में कमी को देखते हुए बाजार में गेहूं की कीमत 1400 रुपये प्रति क्विंटल तक पहुंच चुकी है। उन्हें इसका कोई लाभ नहीं मिला। उल्टा उन्हें अब 20 रुपये प्रति किलोग्राम के भाव से खाने के लिए आटा खरीदना पड़ रहा है।'


प्राथमिक उत्पादक को नहीं मुनाफा
कृषि जिंस कीमत जुड़े उत्पाद कीमत
दलहन अरहर 2000 अरहर दाल 9000
दलहन मसूर 1700 मसूर दाल 6000
सरसों 1600 सरसों तेल 6000
धान 950 चावल 2200
बासमती धान 1300 चावल 6500
गेहूं 1000 आटा 1900
चीनी 1800 चीनी 3700


सभी कीमत रुपये प्रति क्विंटल में

Thursday, November 19, 2009

आखिर क्यों न मिले गन्ने का उचित दाम...क्या कंपनियां और सरकार जवाबदेह नहीं?

दिल्ली में आज गन्ना किसानों ने जोरदार प्रदर्शन किया। उनकी सिर्फ एक मांग है कि गन्ने का उचित दाम मिलना चाहिए। बेशर्म सरकार ने ऐसे समय में गन्ने का कथित रूप से उचित और लाभकारी मूल्य १२९ रुपये क्विंटल तय कर दिया, जब गुड़ बनाने वाली खांडसारी इकाइयां किसानों को २०० रुपये क्विंटल गन्ने का दाम दे रही थीं। चीनी कंपनियों और सरकार का पेट इतना बड़ा है कि भरने का नाम ही नहीं ले रहा है, चाहे जितना उसमें गन्ना किसानों का खून और पसीना डाला जाए।
जन्तर मंतर पर ४ दिन से प्रदर्शन चल रहा है। किसानों के चेहरे पर बेबसी साफ झलकती है। राजनीति करने वाले राजनीति कर रहे हैं, करना भी चाहिए। कंपनियों ने चीनी की कमी दिखाकर करोड़ो कमाए और अब चीनी के दाम ३६ रुपये किलो के करीब तय जो चुके हैं। शीरे का दाम कंपनियां बढ़ाकर २६ रुपये लीटर करने की तैयारी कर रही हैं, ऐसे में किसानों को क्यों बेबस बनाए रखना चाहती है सरकार।
किसानों के पास इसका तर्क भी है कि क्यों उन्हें ज्यादा दाम मिलना चाहिए। बागपत शुगर फैक्ट्री (सहकारी) के अध्यक्ष एवं उत्तर प्रदेश के तमाम सहकारी मिलों के अध्यक्षों के संगठन के चेयरमैन प्रताप सिंह गुर्जर किसानों की इस मांग को सही ठहराते हुए कहते हैं, 'थोक बाजार में चीनी की मौजूदा कीमत 3,600 रुपये प्रति क्विंटल है। पेराई से निकले बगास 280 रुपये प्रति क्विंटल, शीरा 1,600 रुपये प्रति क्विंटल और प्रेस मड 126 रुपये प्रति क्विंटल की दर से बिकते हैं। एक क्विंटल गन्ने से करीब 10 किलोग्राम चीनी का उत्पादन होता है। यानी अन्य सह उत्पादों को छोड़ भी दिया जाए तो एक क्विंटल गन्ने से केवल 360 रुपये की चीनी बनती है। ऐसे में 165-170 रुपये प्रति क्विंटल गन्ने की कीमत को कतई उचित नहीं ठहराया जा सकता।'
आखिर सरकार को ये क्यों समझ में नहीं आता? क्या चुनाव के पहले चीनी कंपनियों से इतना ब्लैक मनी वसूल लिया गया था कि १५ रुपये किलो लागत वाली चीनी ६ महीने तक ३० रुपये किलो बेचवाने के बाद भी कंपनियों का सरकार पर चढ़ा एहसान नहीं उतर रहा है?

Friday, November 6, 2009

मोंटेक सिंह ही बताएं कि क्या किसानों को मिल रहा है कृषि जिंसों की कीमतों में बढ़ोतरी का मुनाफा

देश की आर्थिक रणनीति तैयार करने में लंबे समय से जुड़े मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने कहा कि समझ में नहीं आता कि खाद्यान्न के दाम बढ़ने पर इतना हो हल्ला क्यों है, इसका फायदा तो किसानों को ही मिलेगा। मोंटेक सिंह जी, कहीं यह झूठ राजनेताओं ने मतदान के पहले जनता के सामने बोला होता, तो शायद कांग्रेस धूल चाटती नजर आती।

बिचौलिए मुनाफा खा रहे हैं, हो सकता है कि प्रसंस्करण इकाइयों को फायदा हो, साथ ही बड़े आयातकों को भी आयात कराकर मुनाफा कराया जा रहा हो, लेकिन किसानों को तो कहीं से फायदा नहीं हो रहा है। उन्हें तो फायदा तब होता, जब अनाज खेतों से उपजने के बाद भी रेट महंगे रहते, न्यूनतम समर्थन मूल्य मूल्य उनके उत्पादन लागत से ५० प्रतिशत ज्यादा होता और सारा खाद्यान्न सरकार खरीद लेती और उसके बाद उसे बाजार में उतारती।

आइए देखते हैं कि क्या है आंटे दाल का भाव। चावल और गेहूं के अलावा कमोबेश सभी कृषि जिंसों के भाव पिछले महीने भर में 20 फीसदी से ज्यादा उछल गए हैं। देश में होने वाले कुल कृषि उत्पादन में 20 फीसदी हिस्सेदारी खरीफ के अनाज, दालों और तिलहनों की होती है। रबी की फसलें भी इसमें 20 फीसदी योगदान करती हैं। बाकी 60 फीसदी बागवानी, मांस और मछली उद्योग से मिलता है।
हालांकि योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने इस साल के आखिर तक सरकारी कवायद की वजह से खाने पीने की वस्तुओं के दाम कम हो जाने की उम्मीद जताई है, लेकिन यह बहुत दूर की कौड़ी लग रही है।
17 अक्टूबर को थोक मूल्य सूचकांक पिछले साल 17 अकटूबर के मुकाबले 1.51 फीसदी बढ़ा, लेकिन खाद्य मूल्य सूचकांक में 12.85 फीसदी की उछाल देखी गई। कृषि उत्पादों के वायदा कारोबार की देश की सबसे बड़ी संस्था नैशनल कमोडिटी ऐंड डेरिवेटिव्स एक्सचेंज (एनसीडीईएक्स) मुख्य अर्थशास्त्री और ज्ञान प्रबंधन प्रमुख मदन सबनवीस अहलूवालिया की बात से सहमत नहीं हैं।
उन्होंने कहा, 'देश के हरेक क्षेत्र में अलग-अलग वस्तुओं की खपत कम-ज्यादा रहती है और इस मामले में उपभोक्ताओं का जायका बदल नहीं सकता। चने की दाल सस्ती और आसानी से उपलब्ध है, केवल यही सोचकर अरहर की जगह कोई चने की दाल खाना शुरू नहीं करेगा। इसी तरह कुछ खास राज्यों में चावल कभी गेहूं की जगह नहीं ले सकता। इसलिए सरकार लाख चाहे, कीमतों में तेजी रुक नहीं सकती।'

इस साल मॉनसून की लुकाछिपी की वजह से खरीफ की फसल में 18 फीसदी कमी का अंदेशा जताया जा रहा है। इसी तरह रबी की फसल में गेहूं भी पिछले साल से कम होने की बात कही जा रही है। पिछले कुछ वर्षों में कुल खाद्यान्न उत्पादन में रबी का योगदान बढ़ा है और पिछले वित्त वर्ष में यह हिस्सेदारी 50 फीसदी रही थी।
हालांकि प्रमुख अनाज गेहूं और चावल के दाम कम बढ़े हैं क्योंकि कारोबारियों को डर है कि सरकार दाम काबू करने के लिए पिछले रबी और इस बार के खरीफ सत्र में बनाए गए बफर स्टॉक का इस्तेमाल कर लेगी। लेकिन दालों, चीनी और मसालों के ऐसे भंडार मौजूद नहीं हैं और फसल भी कमजोर हुई है, जिसकी वजह से इनके दाम बेलगाम हो रहे हैं।

सबनवीस कहते हैं कि घरेलू उत्पादन पर बहुत कुछ निर्भर करता है। चीनी को ही लीजिए। विदेशों में भी कीमत ज्यादा है, इसलिए सरकार कच्ची चीनी का आयात नहीं कर सकती। हल्दी का न तो बफर स्टॉक है और न ही उसके आयात की कोई गुंजाइश है, इसलिए घरेलू उपज पर ही ये निर्भर हैं।

आखिर कैसे भरें पेट

उत्पाद 4 अक्टूबर 4 नवंबर
चावल 33 34
गेहूं 18 20
आटा 20 24
सूजी 20 24
मैदा 20 26
चीनी 32 38
तुअर 90 110
हल्दी 120 160
अंडे* 30 38

सभी भाव रुपये प्रति किलोग्राम
* अंडे के भाव रुपये प्रति दर्ज़न

Wednesday, November 4, 2009

सरकार की गन्ना किसानों से बेइमानी और मिलों से गन्ने की कीमत ज्यादा देने के घड़ियाली आंसू

चीनी ३५ रुपये प्रति किलो पर पहुंच गई। सरकार ने चीनी मिलों को करोड़ो रुपये कमवा दिया। अब जब किसानों को गन्ने का भुगतान देने की बाद आई जो सरकार को जम्हाई आ रही है और मिल मालिक मौन हैं।
इसी बीच केंद्र सरकार उचित और लाभकारी मूल्य (एफआरपी) ले आई। इसके मुताबिक मिलों को सिर्फ १२९ रुपये प्रति क्विंटल ही किसानों को गन्ना मूल्य देना होगा। अगर किसी राज्य सरकार ने गन्ने के ज्यादा दाम किसानों को दिलाने की कोशिश की, तो उसकी भरपाई उस संबंधित राज्य को करनी होगी। कहने का मतलब यह है कि एफआरपी अगर १३० रुपये क्विंटल तय हो गया और किसी राज्य सरकार ने अपने राज्य के लिए गन्ने का राज्य समर्थित मूल्य १६० रुपये प्रति क्विंटल तय कर दिया तो उस राज्य सरकार को ही किसानों को ३० रुपये क्विंटल किसानों को देना होगा। मिलें सिर्फ १३० रुपये क्विंटल भुगतान करके निकल जाएंगी।
कृषि मंत्री शरद पवार ने कहा कि उत्तर प्रदेश की चीनी मिलों से वे उम्मीद करते हैं कि वे एफआरपी से ज्यादा गन्ने का दाम देंगी। समझ से परे है कि वे किस आधार पर उम्मीद कर रहे हैं कि अधिक दाम देंगी मिलें। अगर गन्ने का अधिक दाम देना उचित है, तो वही दाम केंद्र सरकार ने क्यों नहीं फिक्स कर दिया, उचित औऱ लाभकारी मूल्य के रूप में।
साफ है कि कांग्रेस सरकार बेइमानी और भ्रष्टाचार को बढ़ावा देना चाहती है, न कि किसानों को मुनाफा कराना चाहती है। योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया कहते हैं कि खाद्यान्न के दाम बढ़ने से किसानों को फायदा होगा। शायद वे जमीनी हकीकत से रूबरू नहीं होना चाहते। चीनी मिलों ने वही चीनी ३० रुपये प्रति किलो बेची, जो वे फरवरी तक १५ रुपये किलो बेचा करते थे। और यह ८ महीने से चल रहा है। इस बीच नई चीनी बाजार में नहीं आई है। आयातित चीनी भी अभी बाजार में कम ही आई है (आंकड़े सामने आए तो इस पर एक बार फिर लिखेंगे कि चीनी मिलों ने इस लूट से पिछले आठ महीने में कितने हजार करोड़ रुपये कमाए हैं)। अब मोंटेक सिंह ही बताएं कि इससे गन्ना किसानों को कितना फायदा मिला है और उपभोक्ताओं को कितना फायदा मिला है?

Sunday, November 1, 2009

आखिर लोग इतने पाशविक क्यों हो जाते हैं कि भावनाओं में बहकर निर्दोष लोगों की जान लेते है?

यह सवाल अक्सर जेहन में कौंधता है। हर दंगे में निर्दोष मारे जाते हैं।
स्वतंत्रता के बाद भीषण दंगे हुए। विभाजन का दंगा। उसके बाद सबसे वीभत्स रहा १९८४ में सिखों पर हमला। प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या के बाद सामूहिक नरसंहार शुरू हुए और यह तीन दिन तक चला। देश भर में हजारों की संख्या में लोगों को जिंदा जलाया गया। अभी मैं दैनिक जागरण के पूर्व पत्रकार और चिदंबरम पर जूता फेंकने वाले जरनैल सिंह की पुस्तक पढ़ रहा था। रात को पढ़ना शुरू किया। हालात के वर्णन कुछ इस तरह थे कि रात भर नींद नहीं आई। इसमें सबसे दुखद यह रहा कि आज भी पीड़ितों का उत्पीड़न जारी है। मानसिक, शारीरिक, आर्थिक हर तरह का। न्याय मिलना तो दूर की बात है।
दिल्ली में ८४ के दंगों में भी देखा गया था कि जिन इलाकों के अधिकारी चुस्त दुरुस्त थे, उन इलाकों में दंगे का प्रभाव कम रहा। जहां नेताओं ने दंगाइयों को नेतृत्व दिया, वहीं संकट गहरा रहा। लेकिन इन दंगाई नेताओं को किसी तरह की सजा नहीं मिली।
यही स्थिति गुजरात में हुई, जब नरेंद्र मोदी सरकार कुछ नहीं कर पाई और पूरा राज्य जलता रहा।आखिर इस तरह के दंगों में प्रशासन भी भावनात्मक रूप से पागल हुए लोगों के साथ पागल क्यों हो जाता है? बार बार जेहन में यही सवाल कौंधता है।
कश्मीर के बारे में तो अब शायद कोई याद भी नहीं करता, जहां स्वतंत्रता मांगने के नाम पर आए दिन हत्याएं होती हैं। लंबे समय से वहां चल रहे आतंकी अपराध के बाद कश्मीरी पंडितों का वही हाल है, जो ८४ में दंगे से पीडित सिखों का है। अपने ही देश में निर्वासित जीवन जीने को विवश हैं कश्मीरी पंडित।राजनीति से जु़ड़े लोग इनकी लाशों पर राजनीति करते हैं। समझ में नहीं आता कि आखिर कब तक चलेंगे इस तरह के दंगे और प्रशासन इनका कब तक साथ देता रहेगा।
जब कभी भी प्रशासन चुस्त होता है, इस तरह की घटनाएं तत्काल रुक जाती हैं। कई ऐसे मामले उत्तर प्रदेश में हुए हैं। प्रशासन ने जब कर्फ्यू लगाया, लोग अपने घरों में दुबक गए। एकाध बाहर निकले दंगा करने तो उन्हें सेना ने गोली मार दी। और अगर इस तरह के ऐक्शन ज्यादा नहीं एक बड़े शहर में इक्के दुक्के होते हैं और पूरा शहर खामोश हो जाता है। लेकिन अगर आम आदमी की भावनाओं के साथ प्रशासन और नेता दंगाई हो जाते हैं, तभी लाशों की ढेर जमा होती है।

Wednesday, October 28, 2009

ये कैसे माओवादी हैं जो राजधानी एक्सप्रेस में रोटी और कंबल लूटते हैं


-माओवादियों ने पहले सबको ट्रेन से उतर जाने को कहा
-वे ट्रेन को जलाना चाहते थे
-बाद में कुछ बच्चे और महिलाएं डर के मारे रोने लगे तो उन्होंने ट्रेन जलाने का विचार त्याग दिया
-उन्होंने पूरी ट्रेन में नारे लिखे और लिखा कि छत्रधर महतो संथालियों के मित्र हैं
-ट्रेन छोड़ने से पहले वे अपने साथ पेंट्री कार से खाना और कंबल लूट के ले गए



यह सब पढ़कर थोड़ा अफसोस हुआ। ब्लागों पर पढ़ते आ रहे थे कि ये बहुत धनी, अमीर लोग हैं। लेवी वसूलते हैं। करोडो़ की संपत्ति रखते हैं। ऐय्याशियां करते हैं। लेकिन खबरें कुछ ऐसी आईं कि दिल में दर्द हुआ। ये तो रोटी लूटते हैं। ओढ़ने के लिए कंबल लूटते हैं। यात्रियों और उनके सामान को सुरक्षित छोड़ देते हैं और अपनी बात कहकर जंगल में चले जाते हैं।
स्वतंत्रता के समय संथालों ने भी अंग्रेजों के शोषण के खिलाफ आवाज उठाई थी। मैनै अयोध्या सिंह की अंग्रेजों के समय हुए आदिवासी विद्रोह पर लिखी गई किताब में यह सब पढ़ा। उनके पास गोला बारूद नहीं था। जान देकर अपने तीर धनुष से लड़े थे। स्वतंत्र भारत में भी वे वैसे ही हैं। रोटी लूटते हैं, तीर धनुष, फरसा लेकर क्रांति लाने और शोषण के खिलाफ आवाज उठाने की कोशिश मात्र करते हैं। उनकी जिंदगी में आज भी सब कुछ वैसा ही है, जैसा १०० साल पहले था। उनकी जमीन अंग्रेजों और जमींदारों ने मिलकर छीनी। वहां से खनिजों का दोहन हुआ। आदिवासियों को जंगल में जाने के अधिकार से भी वंचित कर दिया गया।
मजे की बात है कि अखबार भी उनकी दयनीय हालत के बारे में लिखते-लिखते थक गए। पढ़ने वाले भी थक गए। अखबारों ने लिखना बंद कर दिया.. और सरकार ने उनके बारे में सोचना। अब जब उन्होंने राजधानी एक्सप्रेस को कब्जे में लिया, तब जाकर खबर बने। लेकिन उनकी समस्या पर कुछ नहीं लिखा गया। क्या उन्हें स्वतंत्र भारत में रोटी और कंबल लूटते और पुलिस की गोलियां खाते ही जिंदगी काटनी है??
बुधवार की सुबह से ही खबरें आ रही हैं कि दिल्ली की केंद्र सरकार उच्च स्तरीय बैठक कर रही है। चिदंबरम साब पहले ही सेना और अर्धसैनिक बलों के माध्यम से लड़ाई लड़ने की तैयारी कर चुके हैं।
अब यह देखना दिलचस्प होगा कि किस तरह से सरकार गरीबों पर गोलियां चलाकर गरीबी खत्म कर पाती है। और किस हद तक। सवाल यह भी है कि जिन आदिवासी इलाकों में आजतक सड़कें, रेल, पेयजल, स्वास्थ्य सुविधाएं, पुलिस व्यवस्था बहाल नहीं की जा सकी, वहां अब सरकार सेना को कैसे पहुंचाती है और इन इलाकों के लोगों के ऊपर गोलियां चलवाकर किस तरह से हिंसक आंदोलन को खत्म करती है।

Tuesday, October 20, 2009

काऊ बेल्ट वालों को आईआईटी में नहीं घुसने देना चाहते कपिल सिब्बल


आज कपिल सिब्बल की खबर पढ़कर काऊ बेल्ट (यह तथाकथित अंग्रेजी दां लोगों का शब्द है, जिसे हिंदी भाषी बड़े राज्यों के लिए प्रयोग किया जाता है। इसी अंग्रेजी दां पीढ़ी के प्रतिनिधि कपिल सिब्बल भी हैं) वाले निश्चित रूप से दुखी होंगे। बिहार और झारखंड से तो प्रतिक्रिया भी आ गई। हालांकि उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री इस मसले पर या तो सो रही थीं, या वे अपने मतदाताओं को आईआईटी परीक्षा के योग्य नहीं समझती, इसलिए उनकी प्रतिक्रिया पढ़ने को नहीं मिली।
अब उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखंड, मध्यप्रदेश, राजस्थान, उत्तराखंड आदि राज्यों में अध्यापकों के नंबर देने का ट्रेंड देखिए। आज ही मेरे एक मित्र से मेरी बातचीत हो रही थी। उसके पिता अध्यापक हैं। उन्होंने बताया कि उसके भाई ने झारखंड बोर्ड से परीक्षा दी थी। सभी पेपरों की कापियां संबंधित विषयों के अध्यापकों ने लिखीं, लेकिन उसे ७९ प्रतिशत अंक मिले। (बात मैं नकल की नहीं कर रहा हूं, क्योंकि यह तो हर राज्य और हर बोर्ड में होता है, चाहे वह दिल्ली हो या हरियाणा। जहां भी निजी संस्थानों का बोलबाला है, १० कापियां अध्यापक लिखते हैं, जिससे स्कूल का नाम मेरिट सूची में चमक सके।) दरअसल इससे इन राज्यों में अध्यापकों के अंक देने की प्रवृत्ति का पता चलता है। वे पूर्णांक नहीं देते, इस आस में कि और बेहतर देने के लिए भी छात्र मिलेंगे। वहीं सीबीएसई और आईसीएसई बोर्ड के छात्रों को खुले हाथ से नंबर बांटा जाता है। इसका उदाहरण भी मेरे पास है। मेरा एक सहपाठी हाई स्कूल में यूपी बोर्ड से फेल होने के बाद निजी स्कूल में सीबीएसई बोर्ड में एडमिशन लेने में सफल हो पाया, क्योंकि फेल होने में उसका इतना कम अंक था कि स्कूल ने दूसरी जगह एडमिशन कराने के लिए दबाव डाला। वहां से छात्र ७० प्रतिशत अंक लेकर पास होने में सफल हुआ।

कोचिंग रोकने का बेमानी तर्क


सिब्बल साहब का तर्क है कि इससे कोचिंग संस्थानों पर लगाम लगेगी। अरे जनाब, कोचिंग भी तो आईसीएसई और सीबीएसई वाले ही पढ़ पाते हैं? ग्रामीण इलाकों के छात्र तो पैसे और सुविधा के मामले में बेचारे साबित होते हैं। रहा सवाल आईआईटी कोचिंग का तो कोई भी छात्र केवल आईआईटी के लिए कोचिंग नहीं पढ़ता। उसके अलावा तमाम राज्य सरकारों के इंजीनियरिंग कॉलेज हैं, जिसमें प्रवेश पाने की छात्रों की इच्छा होती है। अब अगर कोचिंग बंद ही करना है, तो क्या मानव संसाधन विभाग के अधिकार खत्म हो गए? वह ताकत के मामले में हिजडा़ हो गया है कि सीधे कोचिंग संस्थानों को बंद नहीं करा सकता?

Tuesday, October 13, 2009

आदमी की पूंछ और पूंछ हिलाने की आदत

अकबर इलाहाबादी ने एक शायरी में व्यंग्य करते हुए डार्विन के पुरखों के लंगूर होने पर सवाल उठाया था। हालांकि वैग्यानिक तथ्यों को मानें तो बहुत पहले आदमी को भी पूंछ हुआ करती थी। तब भगवान ने पूंछ की जरूरत महसूस की थी और सबको पूंछ दिया। बाद में भगवान को लगा होगा कि अब आदतें बदल गईं आदमी सभ्य हो गया, इसे पूंछ की जरूरत नहीं है और आदमी से पूंछ छीन ली।


हालांकि आदमी पूंछ का साथ छोड़ने को तैयार नहीं है। स्वाभाविक है कि पूंछ गायब होने में अगर सदियों लगे हैं तो उसकी पूंछ हिलाने की आदत इतनी जल्दी कैसे छूट जाएगी।


एक बार मेरे एक सहकर्मी ने सवाल किया कि इतनी तत्परता से काम करने के बावजूद मेरे काम पर सवाल क्यों उठाया जाता है? बार-बार ड्यूटी क्यों बदली जाती है? काम में बाधा डालने के लिए तरह-तरह के हथकंडे क्यों अपनाए जाते हैं?


हालांकि कोई भी पुराना आदमी (मेरा मतलब है लंबे समय से नौकरी कर रहे व्यक्ति से ) लक्षण सुनकर बीमारी पहले ही जान लेगा। उसे मैने समझाने की कोशिश की। देखिये- जो काम करता है उसी के काम पर सवाल उठता है। अगर काम न करिए तो कोई सवाल ही नहीं उठेगा। कभी कभी काम करिए तो सभी कहेंगे भी कि आपने काम किया। उसने फिर सवाल कर दिया कि काम नहीं करेंगे तो नौकरी कैसे बचेगी। उत्तर साफ था- पूंछ हिलानी शुरू करो बॉस, दूसरा और कौन सा रास्ता है।


लोग हमेशा ढोंग करते हैं कि हमें चमचागीरी पसंद नहीं है। खासकर उच्च पदों पर बैठे लोग। लेकिन आंकड़े और तथ्य स्पष्ट कर देते हैं कि भइये चमचागीरी तो सभी को पसंद है। अब अगर आपका कोई बॉस कोई खबर लिखता है और पूछता है कि कैसी है--- अगर आप उसकी आलोचना करने की कोशिश करते हैं और अपनी बुद्धिमत्ता दिखाते हैं तो गए काम से। तत्काल कह दीजिए कि बहुत बेहतरीन सर... इससे बेहतर तो कुछ हो ही नहीं सकता। अगर वह फिर सवाल उठाता है कि यह लाइनें या पैराग्राफ कुछ कमजोर लग रहे हैं... तपाक से बोलिए, हां सर यही तो मुझे भी खटक रहा था। और पूंछ हिलाने में दक्ष तो आप तब माने जाएंगे, जब बॉस किसी खबर का शीर्षक लगाए (यह कोई और काम भी हो सकता है) और आपकी तरफ मुंह करके हल्का सा मुस्कराए.. आप अपनी स्वाभाविक प्रतिक्रिया देना न भूलें कि वाह सर... इससे बढ़िया शीर्षक तो कोई दे ही नहीं सकता, यहां तक तो किसी की सोच पहुंचती ही नहीं।


बहरहाल, मेरे उस मित्र ने सही फार्मूला अपनाया और पूंछ हिलाने की शुरुआत कर दी। अब पता नहीं वह संतुष्ट हुआ या नहीं लेकिन मुझसे बातचीत बंद है, बॉस से ही ज्यादा बात होती है इन दिनों उसकी।

Wednesday, October 7, 2009

क्या सरकारों में नक्सलवाद रोकने के लिए नैतिक बल है?


"झारखंड की राजधानी रांची के पुलिस इंसपेक्टर फ्रांसिस इंडवर का शव। इस इंसपेक्टर की हत्या ६ अक्टूबर को नक्सलवादियों ने कर दी, जो ३० सितंबर से लापता था। इंसपेक्टर की रिहाई के बदले नक्सलवादी कोबड गांधी, छत्रधर महतो और भूषण यादव की रिहाई की मांग कर रहे थे।"

झारखंड के पुलिस निरीक्षक फ्रांसिस इंदुवर की माओवादिओं द्वारा हत्या कर दी गई। कोबड गांधी समेत तीन बड़े माओवादी नेता गिरफ्तार हुए। खबरें आईं कि माओवादिओं ने अपने तीन बड़े नेताओं को इंसपेक्टर के बदले छुड़ाने की मांग रखी थी। इसके पहले बिहार के खगडिया जिले में सामूहिक नरसंहार
हुआ। यह घटनाएं लगातार हो रही हैं और केंद्रीय गृह मंत्री ने भी स्वीकार कर लिया है कि पिछले १० साल में नक्सलवादी हिंसा बढ़ी है और देश के करीब २०० जिले हिंसा की चपेट में आ गए हैं।
तमाम तर्क दिए जाते हैं इस नक्सलवाद के लिए। लोगों को कानून हाथ में लेने का अधिकार नहीं है। लोकतांत्रिक देश है, राजतंत्र नहीं- जो विक्षुब्ध हैं वे चुनाव का सहारा लें बदलाव के लिए। विदेश से नक्सलवादियों को मदद मिल रही है। नक्सलवादी नेता पैसे वसूली के लिए गरीबों को बरगला रहे हैं आदि आदि....
सवाल यह है कि स्वतंत्रता के ५० साल बाद भी आदिवासी समस्या का समाधान क्यों नहीं निकला। उस पर भी तुर्रा ये कि उदारीकरण के बाद रोजगार का केंद्रीकरण दिल्ली, मुंबई, गुजरात के कुछ शहरों, बेंगलुरु आदि बड़े शहरों में केंद्रित कर दिया गया। युवक रोजगार के लिए भटक रहे हैं। आदिवासी इलाकों में महिलाओं का यौन शोषण, भूमिहीन विचरण और आर्थिक संसाधनों और कमाई के अभाव में भटकाव जारी है।
भूख से बिलबिला रहे आदिवासियों, कुछ अनुसूचित जातियों की जिंदगी में आखिर रखा क्या है खोने के लिए, जो हथियार उठा लेने से डरें। आदिवासी इलाकों में दूसरे इलाकों के तथाकथित सभ्य लोग मोटी कमाई कर रहे हैं, उन्हें कानून का पालन करने वाला कहा जाता है। जो एक रोटी के लिए मर रहा है, उसे कानून हाथ में लेने वाला। पुलिस गरीबों पर कहर ढाती है, नक्सलवादी कहकर उन्हें मारती है। पैसे वालों के लिए बने कानून के मुताबिक काम करती है। बंधुआ मजदूरी करीब खत्म हो गई है, लेकिन गरीब इलाकों से जो लोग बाल बच्चे सहित महज कुछ रुपयों के लिए महानगरों में मजदूरी करते हैं, बच्चे सड़कों पर खड़े होकर भीख मांगते हैं, उनके लिए क्या इंतजाम है? दिल्ली में ऐसा दृष्य आम है। मां बाप देवी देवताओं की खूबसूरत मूर्तियां बनाते हैं और सड़कों के किनारे पॉलिथीन डालकर रहते है और बच्चे भीख मांगते हैं।
शायद यही गरीब हैं, जो कुछ इलाकों में संगठित हो गए हैं और किन्हीं साधनों से उन्हें हथियार मिल गए हैं। वे अपने अधिकारों के लिए लड़ रहे हैं।
ये लोग राजनीति में भी कुछ नहीं कर सकते। जिन लोगों ने भूख के चलते मौत से लड़ने की बजाय हथियार उठाकर लड़ना शुरू किया है, उनकी संख्या भी कम है और उनके पास इतने पैसे भी नहीं हैं कि वे चुनाव में जीत हासिल कर सकें। चुनाव भी वही जीतते हैं, जो खानदानी हैं। स्वतंत्रता के पहले भी अमीर थे, अंग्रेजों की दलाली के माध्यम से। उनमें से कुछ ने स्वतंत्रता की लड़ाई भी लड़ ली। गरीब, पिछड़े वहीं के वहीं रह गए और उनके शोषण का दौर जारी रहा।
स्वाभाविक रूप से वर्तमान में न तो कांग्रेस के पास नक्सलवाद को रोकने का कोई विकल्प, विजन या नैतिक साहस है और न ही जाति और धर्म के नाम पर राजनीति करने वाली भाजपा के पास। सत्ताधारी लोग इन १० प्रतिशत गरीब आदिवासी और पिछड़े लोगों को गुलाम ही बनाए रखना चाहते हैं। हां अब ऐसा लगने लगा है कि उदारीकरण और पूंजीवाद के बाद इन १० प्रतिशत की संख्या और बढ़ जाएगी और अगर हथियार उठाने वाले लोगों की संख्या यूं ही बढ़ती गई तो सेना या पुलिस द्वारा इन्हें रोक पाना संभव नहीं होगा।

Thursday, October 1, 2009

जब कोई सोच और तैयारी ही नहीं तो भारत कैसे रखे दुनिया के सामने अपनी बात

ए. के. भट्टाचार्य

वित्त मंत्रालय के संयुक्त सचिव स्तर का एक ही अधिकारी वहां मौजूद था, जो इनपुट व
सुझाव देने के लिए एक कमरे से दूसरे कमरे का चक्कर लगा रहा था। पिट्सबर्ग
कॉन्फ्रेंस सेंटर में तब एक साथ कई बैठकें हो रही थी और यह अधिकारी अकेले ही हर जगह
इनपुट व सुझाव मुहैया करा रहा था।


भारत सरकार पिट्सबर्ग सम्मेलन से कई सबक ले सकती है। जी-20 समूह के नेताओं की बैठक पिछले हफ्ते समाप्त हुई और भारत को इस बात का अहसास हो गया कि वैश्विक परिदृश्य में उसे और बडी भूमिका निभानी होगी।
जिस तरह से जी-20 द्वारा नीतिगत प्रारूप तैयार किया जाना है, उसे देखते हुए कहा जा सकता है कि वैश्विक आर्थिक मुद्दों की बाबत अब जी-20 प्रमुख निकाय बन चुका है। एक और सबक है जिसे भारत ने पिट्सबर्ग बैठक से अवश्य सीखा होगा।
वह यह कि जब वैश्विक संस्था में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने की बात आती है तब किस तरह से सूचना के प्रसार की बाबत भारत सरकार के पास लोगों और विचार दोनों की कमी देखी गई। लोगों की कमी तब और स्पष्ट हो गई जब जी-20 में पहुंचे चीनी प्रतिनिधिमंडल या फिर दक्षिण कोरिया के प्रतिनिधिमंडल से इसकी तुलना की गई।
वित्त मंत्रालय के संयुक्त सचिव स्तर का एक ही अधिकारी वहां मौजूद था, जो इनपुट व सुझाव देने के लिए एक कमरे से दूसरे कमरे का चक्कर लगा रहा था। पिट्सबर्ग कॉन्फ्रेंस सेंटर में तब एक साथ कई बैठकें हो रही थी और यह अधिकारी अकेले ही हर जगह इनपुट व सुझाव मुहैया करा रहा था। इसकी तुलना हम चीनियों से करते हैं कि उन्होंने क्या किया।
उन्होंने कई वरिष्ठ अधिकारियों को अलग-अलग बैठक का कार्यभार सौंपा था। एक ने जी-20 की बैठक के साथ-साथ सदस्य देशों की सरकारों के विशेष दूतों के साथ बैठक की जबकि दूसरे को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) व विश्व बैंक के साथ बैठक की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। ये दोनों संगठन भी पिट्सबर्ग में उस समय शुरुआती बैठक आयोजित किए हुए थे।
चीन ने स्पष्ट तौर पर अहसास कर लिया था कि वैश्विक बैठक में संपर्क के दौरान वे निश्चित रूप से अधिकारियों की मजबूत टीम को काम पर लगाएंगे। ऐसे में उन्होंने विशेषज्ञ अधिकारियों की टीम तैयार की और उन्हें अलग-अलग जिम्मेदारी सौंपी गई, ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि चीनी राजनेताओं को जी-20 फोरम में पर्याप्त इनपुट मिल जाए।
भारत में वित्त मंत्रालय की इंटरनैशनल कोऑपरेटिव डिवीजन मुख्य रूप से विश्व बैंक व आईएमएफ की गतिविधियों में शामिल रही थी। विश्व बैंक व आईएमएफ के साथ काम कर रही वही टीम अब जी-20 के साथ भारत की तरफ से संपर्क अभियान में जुटी रही। साफ तौर पर वित्त मंत्रालय में अलग-अलग टीम बनाए जाने की दरकार है जो विश्व बैंक, आईएमएफ व जी-20 के साथ भारत के संबंधों का नियंत्रण व प्रबंधन कर सके।
वास्तव में, अब वित्त मंत्रालय व विदेश मंत्रालय के बीच विस्तृत स्तर पर सहयोग व समन्वय की दरकार है। 1990 में शुरू हुए आर्थिक सुधार के शुरुआती दिनों में विदेश मंत्रालय का नामकरण आर्थिक मंत्रालय करने का प्रस्ताव था। यह कोशिश वैसे देश में आर्थिक कूटनीति के महत्त्व की बाबत थी जिसका विकास तेजी से हो रहा था और इस तरह से विश्व की अर्थव्यवस्था में बड़ी भूमिका निभा सके।
यह विचार उस समय शायद परिपक्व नहीं था। लेकिन जी-20 का सदस्य होने के नाते अब समय आ गया है कि भारत सरकार या तो वित्त मंत्रालय के इंटरनैशनल कोऑपरेशन डिवीजन का विस्तार करे या विदेश मंत्रालय में मौजूद अधिकारियों का इस्तेमाल करते हुए आर्थिक सहयोग के लिए अलग से डिवीजन बनाए।
विचारों की किल्लत उस समय स्पष्ट हो गई जिस तरह से पिट्सबर्ग में भारत सरकार ने जी-20 के अन्य नेताओं के साथ बातचीत में सूचनाओं का प्रसार किया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह पिट्सबर्ग गए थे और उनके साथ मीडिया प्रतिनिधियों का दल भी गया था। उनके हिसाब से जी-20 के नेताओं के साथ उनकी बैठक सकारात्मक रही।
बैठक की समाप्ति पर प्रधानमंत्री के संवाददाता सम्मेलन के अलावा भारत सरकार ने इस बाबत एक भी संवाददाता सम्मेलन आयोजित नहीं किया कि पिट्सबर्ग में बहस के लिए आए आर्थिक मुद्दों से भारत ने किस तरह अपना रुख स्पष्ट किया।
हां, भारतीय सुरक्षा सलाहकार ने संवाददाता सम्मेलन आयोजित किया था। दूसरा सम्मेलन
प्रधानमंत्री केविशेष दूत ने जलवायु परिवर्तन पर आयोजित किया था। लेकिन क्या जी-20
सुरक्षा या जलवायु परिवर्तन केसंबंध में था? या फिर यह वैश्विक आर्थिक मुद्दों की
बाबत था? प्रधानमंत्री की टीम में योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया,
वित्त सचिव अशोक चावला जैसे लोग थे।

क्या प्रधानमंत्री की टीम ने उनका और पिट्सबर्ग में मौजूद मीडिया प्रतिनिधिमंडल का पूरा इस्तेमाल किया? सच्चाई यह है कि उनमें से कोई भी प्रेस कॉन्फ्रेंस के लिए नहीं आए। सभी महत्त्वपूर्ण सदस्य देशों ने अपने मीडिया प्रतिनिधिमंडल को बताया कि उनके नेताओं ने जी-20 की बहस में किस तरह से महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। लेकिन भारत की तरफ से लोगों की कमी और विचारों का अभाव नजर आया, जिसे कि प्रसारित किया जा सके।
http://hindi.business-standard.com/hin/storypage.php?autono=24738

Sunday, September 27, 2009

सुखी दांपत्य जीवन की बचत योजना

विवाह के बाद जिम्मेदारियां तो बढ़ती ही हैं, साथ ही भविष्य को बेहतर बनाने के बारे में भी सोचना होता है


मनीष कुमार मिश्र




प्रत्येक व्यक्ति इस बात से सहमत होगा कि विवाह के बाद चाहे स्त्री हो या पुरुष दोनों के जीवन में महत्वपूर्ण परिवर्तन आते हैं। यह परिवर्तन आर्थिक, सामाजिक और भावनात्मक होते हैं।
विवाह के बाद स्त्री-पुरुष परस्पर एक दूसरे के सुखों और खुशियों की जिमेदारी उठाते हैं और उनकी पूरी कोशिश होती है कि इसमें कोई कमी न रह जाए। हम केवल इसके आर्थिक पक्ष की बात करेंगे। सफल विवाह का एक महत्वपूर्ण तत्व, मिल-जुलकर धन का प्रबंधन करना है।
यह मायने नहीं रखता कि आप उम्र के किस पड़ाव में हैं। कोई भी महत्वपूर्ण वित्तीय निर्णय अगर आपस में बातचीत करने के बाद लें तो जीवन सुखमय रहेगा और एक दूसरे के प्रति प्यार और आदर का भाव भी जीवंत बना रहेगा।


विवाह से पहले यदि आप अपने माता-पिता के साथ रहते थे तो आपको केवल फोन के बिल और अपने खर्चों की व्यवस्था करनी पड़ती रही होगी। अब आपके ऊपर ही परिवार की पूरी जिम्मेदारी है।

छुट्टियां मनाने जाना चाहते हैं? उससे पहले आपको यह सुनिश्चित करना होगा कि क्या आपके बैंक के जमा खाते में इसके लिए पर्याप्त पैसे हैं। विवाह के बाद वित्तीय जिम्मेदारियां बढ़ जाती हैं और ऐसी परिस्थिति में पैसे बचाना उतना आसान नहीं होता है। न ही यह स्वयमेव शुरु होने वाली चीज है। इसके लिए आपको दृढ़ निश्चय करने की जरूरत है। अगर आप शुरु से ही बचत-प्रेमी हैं तो शादी के बाद भी नियमित बचत के अनुशासन को मत छोड़ें। इसकी एक युक्ति है। आप खुद को थोड़ा अधिक व्यवस्थित करते हुए वास्तविक वित्तीय योजना बनाने की शुरूआत करें।


जहां पहले आपकी बचत का लक्ष्य केवल बचत और निवेश करना था, वहीं अब परिवार के भविष्य को देखते हुए वित्तीय योजना बनाने का समय है। इसलिए पति-पत्नी दोनों को मिलकर निवेश की योजना बनानी चाहिए। योजना ऐसी हो जिससे दोनों को ही फायदा भी हो और राहत भी मिले।


कैसी हो वित्तीय योजना
सर्वप्रथम आपको यह देखने की जरूरत है कि आपका पर्याप्त बीमा है या नहीं, खासतौर पर तब जब आपकी पत्नी (या पति) आप पर आर्थिक रूप से निर्भर है। पति या पत्नी के नौकरीपेशा होने के बावजूद यह न भूलें की आपकी कमाई का एक महत्वपूर्ण हिस्सा घरेलू खर्चों और ऋण की अदाएगी के लिए है।
आपको यह सुनिश्चित करने की जरूरत है कि आपने पर्याप्त बीमा लिया हुआ है, ताकि आपके साथ किसी प्रकार का हादसा (मृत्यु) हो जाने की दशा में आपके पति या पत्नी को आर्थिक कष्ट न झेलना पड़े और घर के मासिक खर्च के अलावा अन्य आर्थिक जिम्मेदारियों का निर्वाह करने में भी उसे कोई बाधा न आए। इसके लिए आप समय-समय पर अपने बीमा की जरूरतों का पुनर्आंकलन भी करते रहें।
उदाहरण के लिए मान लेते हैं कि आपका जीवन बीमा 10 लाख रुपये का है और आपकी पत्नी भी नौकरी करती हैं। जब आप पिता बनते हैं तो कुछ वर्षों के लिए उन्हें ऑफिस से छुट्टी लेनी पड़ेगी। अब घर के कमाऊ सदस्य केवल आप हैं।


मां और बच्चा दोनों की जिम्मेदारी आपके ऊपर है। ऐसे में आपको अपनी बीमा जरूरतों का फिर से आकलन करने की जरूरत है। अपने बचत करने के लक्ष्यों की एक सूची बनाएं और प्रत्येक लक्ष्य के लिए एक समय-सीमा का निर्धारण करें। इससे आपको अपने निवेश को सार्थक तरीके से आवंटित करने में मदद मिलेगी। यह मत भूलिए कि इन सबमें आपके परिवार की भलाई छिपी है।


लक्ष्य का निर्धारण जरूरी
मान लीजिए कि खास समय सीमा में आपने अपने लिए तीन लक्ष्य निर्धारित किए हैं-
आप कुछ महीनों के अंदर अपना घर खरीदना चाहते हैं जिसके लिए डाउन पेमेंट की व्यवस्था करनी है। यह आपकी तात्कालिक जरूरत है जिसकी पूर्ति आप अपने बचत खाते में जमा की गई राशि से या नकदी-कोष से कर सकते हैं।


आपकी इच्छा है कि आप जीवन-साथी के संग छुट्टियां मनाने जाएं - इसके लिए की जाने वाली बचत को अल्पावधि के ऋण फंड में डाल देना चाहिए। अगर आप दो-तीन वर्षों में छुट्टियां मनाने जाना चाहते हैं तो बैंक की सावधि जमा या इनकम फंड में पैसे डाल सकते हैं।


रिटायरमेंट फंड - रिटायरमेंट के लिए धन-कोष इकट्ठा करने के लिए सबसे बढ़िया विकल्प है इक्विटी में निवेश, अगर आप 20 या 30 के दशक में हैं।
आपके पोर्टफोलियो में ऋण और इक्विटी संतुलित रूप में होने चाहिए। अगर आपका लक्ष्य 7 वर्ष या उससे अधिक समय सीमा का है तो इक्विटी में निवेश करना ज्यादा तर्कसंगत है। लेकिन पोर्टफोलियो को संतुलित रखने के लिए ऋण का एक छोटा हिस्सा भी होना आवश्यक है।


अगर आप विशुद्ध ऋण फंड में निवेश नहीं करना चाहते हैं तो 10-15 प्रतिशत निवेश की जाने वाली राशि का आवंटन बैलेंस्ड फंड में कर सकते है। आपको ऋण इक्विटी संतुलन पर तब ज्यादा गौर फरमाने की जरूरत है जब आपने पब्लिक प्रोविडेंट फंड, कर्मचारी भविष्य निधि, राष्ट्रीय बचत प्रमाण-पत्र या किसान विकास पत्र में निवेश पहले से किया हुआ है।
विवाह के बाद जिम्मेदारियां तो बढ़ती ही हैं साथ ही भविष्य के बारे में भी सोचना होता है। बचत अचानक नहीं शुरू हो सकती, इसके लिए दृढ़प्रतिज्ञ होना जरूरी है।

Wednesday, September 23, 2009

समाजवाद से आएगी समानता

सत्येन्द्र प्रताप सिंह

यह किताब उस दौर के विभिन्न पहलुओं की मार्क्सवादी सोच को दिखाती है, जब भारतीय जनता पार्टी का शासन था।
गुजरात से लाल कृष्ण आडवाणी की शुरू हुई रथयात्रा और उसके बाद हुए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के बाद भाजपा के उभार और केंद्रीय सत्ता में पहुंच जाने के बाद संसद से लेकर सड़क तक जो बदलाव हुए, उसका क्रमवार विवरण और जनमानस द्वारा भाजपा को नकारे जाने तक के मार्क्सवादी नजरिए को पुस्तक में पेश किया गया है।
मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी पोलित ब्यूरो के सदस्य सीताराम येचुरी ने इस दौरान विभिन्न लेखों से अपनी पार्टी की विचारधारा और पूंजीवादी मुहिम के खिलाफ विभिन्न लेखों में अपने विचार लिखे, उन्हीं लेखों को 22 अध्याय में प्रकाशित कर पुस्तक का रूप दिया गया है।
पुस्तक की शुरुआत भारतीय गणतंत्र : चुनौतियां और समाधान नामक अध्याय से शुरू होता है, जो इस पुस्तक का नाम भी है। लेखक के विचार से भारतीय गणतंत्र की 53वीं सालगिरह के अवसर पर राष्ट्रपति के अभिभाषण में शहरी सुविधाओं को ग्रामीण भारत तक पहुंचाने के विजन 2020 को पेश करना एक ऊंचे मंसूबे की घोषणा मात्र है।
तीव्र विकास के हसीन सपने दिखाए जा रहे हैं और जनता की शिक्षा स्वास्थ्य और खाद्य सुरक्षा जैसे क्षेत्रों में अपनी जिम्मेदारियों से शासन हाथ खींच रहा है। लेखक ने जनता से इन नीतियों के खिलाफ एकजुट होने का आह्वान किया है।
इसके बाद के 13 अध्यायों में केंद्र में उस दौरान सत्तासीन राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन सरकार के चाल-चरित्र के बारे में चर्चा की गई है कि किस तरह से सरकार ने गुजरात में हुए दंगों के बाद नरेंद्र मोदी सरकार का साथ दिया और देश को दो धार्मिक ध्रुवों में बांट देने की कोशिश की।
गोलवरकर की पुस्तक 'मिलिटेंट हिंदुइज्म इन इंडिया- ए स्टडी आफ द आरएसएस' का जिक्र करते हुए लेखक ने यह समझाने की कोशिश की है कि किस तरह से केंद्र की राजग सरकार फासीवादी तरीके से सरकार चलाने और जनता के बुनियादी अधिकारों को छीनने की कोशिश कर रही थी।
पुस्तक में विनिवेश के माध्यम से सरकारी उपक्रमों का निजीकरण किए जाने का पुरजोर विरोध किया गया है। तत्कालीन रक्षामंत्री और राजग संयोजक जॉर्ज फर्नांडिस तथा आरएसएस और स्वदेशी जागरण मंच के विनिवेश के विरोध को लेखक ने नौटंकी करार देते हुए कहा है कि सत्ता में बैठे लोग फासीवादी तरकश का ही तीर छोड़ रहे हैं, जिससे विनिवेश से उपजे जनता के विरोध को कम किया जा सके।
पुस्तक के कुछ अध्यायों में स्पष्ट रूप से मार्क्सवादी विचारधारा को सरल शब्दों में समझाने की भी कोशिश की गई है कि किस तरह से पूंजीवादी व्यवस्था शोषण में जुटी है और उसका एक मात्र समाधान मजदूरों की एकता और पूंजीवाद का विरोध है। पुस्तक के आखिरी 6 अध्यायों में कम्युनिज्म के वैश्विक विरोध और पूंजीवाद को स्थापित करने की चर्चा की गई है।
साथ ही भारत में विभिन्न अखबारों द्वारा पूंजीवाद के समर्थन में लिखे गए लेखों की चर्चा है। अपनी पार्टी की विचारधारा के अनुरूप लेखक ने अमेरिकी प्रभुत्ववादी साजिशों का जिक्र किया है, जिसमें आतंकवाद के नाम पर सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिका द्वारा विभिन्न देशों में आंतरिक हस्तक्षेप किया गया।
साथ ही पूंजीवाद के बेहतर होने और कम्युनिज्म के खत्म होने के प्रचार को झूठा साबित करने की कोशिशों के विरुध्द दलील दी गई है। 'क्रांतिकारी संभावना को उन्मुक्त करो' शीर्षक से प्रकाशित अध्याय में लेखक ने एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए लिखा है, 'पूंजीवादी वैश्वीकरण के दौर में असमानता और बढ़ गई है।
अमेरिकी प्रभुत्ववादी साजिशों की काट के बारे में लिखते हुए येचुरी ने यह बताने की कोशिश की है कि आतंकवाद पूरी तरह से पूंजीवाद से जुड़ा हुआ मामला है। उनका कहना है कि समाजवादी आंदोलन के खिलाफ अमेरिका ने तमाम देशों में गुट खड़े किए जो सोवियत संघ के विघटन के बाद अमेरिका के लिए ही सिरदर्द बने।
'द्विध्रुवीय शीतयुध्द के बाद अंतरराष्ट्रीय स्थिति के विकास में स्वाभाविक प्रक्रिया यह होती कि यह स्थिति बहुधु्रवीयता की ओर बढ़ती। अमेरिका ने इस स्वाभाविक प्रक्रिया को पलट दिया ताकि अपने प्रभुत्व के तहत एकध्रुवीय व्यवस्था कायम की जा सके।'
लेखक का मानना है कि ऐसी स्थिति में अमेरिका सिर्फ विश्व दारोगा की ही तरह काम नहीं करना चाहता है, बल्कि साथ साथ वह न्यायाधीश की भी भूमिका निभाना चाहता है। इसका एकमात्र समाधान समाजवाद बताया गया है, जिससे समाज में गरीबी और असमानता दूर होगी और कोई भी हथियार उठाने को विवश नहीं होगा।
विकासशील देशों में गरीबी रेखा के नीचे रहने वालों की संख्या बढ़कर 1.1 अरब हो गई है.... दुनिया के 50 बड़े अरबपतियों की दौलत मिलकर सहारा और अफ्रीकी देशों के सकल घरेलू उत्पाद के बराबर हो गई है, जहां 68 करोड़ 80 लाख जनता जिंदा रहने के लिए संघर्ष कर रही है। संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के मुताबिक हर साल भूख से 3 करोड़ 60 लाख से ज्यादा लोग मर जाते हैं।'
पुस्तक में ऐतिहासिक तथ्यों का भी जिक्र किया गया है कि द्वितीय विश्वयुध्द के दौरान किस तरह से फासीवाद के खिलाफ एकजुट होने में पूंजीवादी देशों ने हीला-हवाली की। मानव अधिकारों को बचाने के लिए सोवियत संघ ने कुर्बानियां दी।
बहरहाल, इस पुस्तक में पूंजीवादी व्यवस्था में बेरोजगारों की बढ़ती फौज, अस्थायी नौकरियां, आउटसोर्सिंग के माध्यम से पूंजीवाद को बढ़ावा देने का जिक्र तो है, लेकिन इसका स्पष्ट जवाब नहीं मिलता कि समाधान क्या है। 'भारतीय गणतंत्र : चुनौतियां और समाधान' पुस्तक का शीर्षक तो है, लेकिन इसमें चुनौतियों पर ही ज्यादा बल है, समाधान की राहें स्पष्ट नहीं हैं- खासकर भारत के परिप्रेक्ष्य में।

पुस्तक समीक्षा
भारतीय गणतंत्र चुनौतियां और समाधान
लेखन: सीताराम येचुरी
प्रकाशक: सामयिक प्रकाशन
कीमत: 200 रुपये
पृष्ठ: 159

Monday, September 14, 2009

ब्लॉग वार्ता : कोसी खा गई मुरलीगंज


रवीश कुमार

200 साल पुराना है मधेपुरा का मुरलीगंज बाजार। बाढ़ के कारण बड़ी संख्या में व्यापारी इलाके को छोड़ कर चले गए हैं। मुरलीगंज के काशीपुर रोड से करोड़ों रुपये का माल कोलकाता जाता था। कोसी की तबाही की कहानी फिर से इस ब्लॉग पर पसर रही है। क्लिक कीजिए http:// satyendrapratap. blogspot. com
सत्येंद्र प्रताप लिखते हैं कि ट्रक, ट्रैक्टर और बैलगाड़ियों से जाम रहने वाला काशीपुर रोड बाढ़ के एक साल बाद भी अपनी रौनक नहीं पा सकी है। वार्ड नंबर सात के किराना व्यापारी शिव कुमार भगत अपनी बर्बादी की कहानी कहना चाहते हैं।
लेकिन अब कौन सुनता है। कोसी से विस्थापित लाखों लोगों की कहानियां उनके निजी क्षणों में दफन कर दी गई हैं। सरकार के कुछेक प्रयासों की कामयाबी के बाद भी ऐसी कहानियों के लिए जगह नहीं बन पाई। नीतीश कुमार ने अपने राहत के प्रयासों से लोगों का विश्वास भले ही जीत लिया हो, लेकिन एक साल बाद भी लोगों के जहन में कोसी का पानी हिलोर मारता होगा। शायद त्रासदी की उन्हीं लहरों को पकड़ कर कथाओं में बदलने की कोशिश कर रहे हैं सत्येंद्र प्रताप।
ब्लॉग बेहतर जगह है ऐसी कहानियों को दर्ज करने के लिए। मधेपुरा से बीरपुर पहुंचते हैं तो पता चलता है कि जिन किसानों ने बैंक से कैश क्रेडिट अकाउंट लोन लिया था, उनका इस आधार पर बीमा ही नहीं हुआ। बीरपुर बाजार के 100 व्यापारी इस संकट से परेशान हैं। नियम है कि जब बैंक से लोन लेंगे तो बदले में बीमा मिलेगा। जब जयसवाल इंटरप्राइजेज के संतोष जायसवाल ने पिछले चार साल से बैंक उनकी दुकान का बीमा करा रहा था लेकिन जिस साल बाढ़ आई बीमा नहीं कराया। उस साल का नुकसान हो गया। गनीमत है कि बैंक ने इस साल का बीमा करा दिया है।
जाहिर है राज्य सरकार को अपनी नीतिगत कामयाबी के बाद व्यक्तिगत समस्याओं की तरफ भी ध्यान देना चाहिए। मुझे भी बीरपुर से फोन आते हैं कि डाक बाबू अकाउंट खोलने के पैसे मांगता है। एक डाकबाबू की इतनी हिम्मत और लोग कैसे सह लेते हैं, समझ में नहीं आता। सरकारी कर्मचारियों के साथ अपने दैनिक झंझटों को भी हर दिन मुद्दा बनाना चाहिए। ऐसे भ्रष्ट अधिकारियों की कीमत मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठा व्यक्ति ही चुकाता है। लिहाजा उसे ऐसे अधिकारियों को तुरंत चलता कर देने में कोई संकोच नहीं करना चाहिए।
बिहार की जनता ने यह तो बताया ही है कि भ्रष्ट रहते हुए लंबे राजनीतिक भविष्य की कामना न करें। पहली बार हो रहा है कि बिहार की नीतियों की नकल केंद्र सरकार कर रही है। अब इन नीतियों को लागू करने में भी लोगों और अफसरों को पहल करनी चाहिए। सत्येंद्र प्रताप के अलावा भी कई ब्लॉगर कोसी की कहानी लिख रहे हैं। बता रहे हैं कि राहत कार्य लूट-पाट से मुक्त नहीं है। अगर ऐसा होता तो फिर इन इलाकों में सत्तारूढ़ दल को बढ़त कैसे मिलती। जाहिर है कुछ अफसर और कर्मचारी इस तरह की हरकत कर रहे हैं।
कोसी से उजड़ें लोगों का वृतांत आगे बढ़ रहा है। बीरपुर बाजार के वीरेंद्र कुमार मिश्रा की कहानी। घड़ी की पूरी दुकान नष्ट हो गई है। टाइटन कंपनी से तीन लाख का लोन लेकर काम चला रहे हैं। अभी तक उनकी दो कारें मिट्टी में धंसी हैं। दुकान का बीमा नहीं हो सका तो पैसा मिला ही नहीं। पढ़ कर बीमा के मामले में घपला लगता है।
उनकी भी कहानी है जिन्हें सरकारी राहत से फायदा हुआ है। बलुआ बाजार के दिल्ली चौक से 15 किमी दूर एक गांव में पवन पासवान को चार हजार नगद और एक क्िवंटल अनाज मिला है। गांव में कई लोगों को मिला है। जोगी पासवान कहते हैं कि सब कुछ उजड़ जाने के बाद भी लोग गांव छोड़ कर नहीं गए। कहते हैं कि इससे पहले सरकारी मदद नहीं मिलती थी इसलिए लोग बाढ़ के बाद दूसरे शहरों में चले जाते थे। जोगी पासवान को शिकायत है तो स्थानीय जनप्रतिनिधि से। जिसने जोगी पासवान को पशु मुआवजा नहीं मिलने दिया।
सहरसा के शिवशंकर झा की कहानी डराती है। कहते हैं कि पिछली पंद्रह साल से बाढ़ की आशंका से रात की नींद टूट जाती है। इस डर के कारण शिवशंकर झा रोज तटबंध की तरफ घूमने निकलते हैं। वो खुद चेक करना चाहते हैं कि आज कोई दरार तो नहीं आई। शिवशंकर झा का डर बताता है कि सरकारों को और जागना होगा। बाढ़ का कोई हल निकालना होगा। सबकुछ केंद्र पर मढ़े जाने वाले आरोपों के सहारे नहीं छोड़ा जा सकता। बांध समाधान नहीं है। कोसी ने साबित किया है। इलाके को फिर से बसाना होगा।



साभार- http://www.livehindustan.com/news/editorial/guestcolumn/57-62-70205.html

Tuesday, September 1, 2009

जिन्ना और बंटवारे के गुनहगार

टीसीए रंगचारी
यह किताब लेखक के उस सफर का नतीजा है, जो उन्होंने भारत के बंटवारे को समझने के लिए अतीत के गलियारों में की थी। उन्होंने देखा कि जिन्ना किस तरह 'हिंदू-मुस्लिम एकता के हरकारे से 'पाकिस्तान के कायदे-आजम बन गए। लेखक को लगा कि महज सपाटबयानी के साथ तथ्यों को कागज पर उतारना ठीक नहीं, इसलिए उनके जज्बात से लबरेज है यह किताब।
जिन्ना को इतिहास की कसौटी पर कसने के बाद लेखक को लगा कि 'दो राष्टïरों का सिद्घांत देकर जिन्ना ने बुनियादी भूल कर दी और उस पर अडिय़ल रुख अपनाते हुए मुसलमानों के लिए आजाद भारत में ज्यादा से ज्यादा हिस्सा मांगकर अपनी तस्वीर पर खुद ही कालिख पोत ली।
लेखक का खयाल है कि जिन्ना ने जीतकर पाकिस्तान नहीं बनाया, बल्कि नेहरू और पटेल ने अंग्रेज बिचौलियों के झांसे में आकर पाकिस्तान का तोहफा जिन्ना के हाथों में थमा दिया। क्या वाकई जिन्ना की तस्वीर के अनछुए पहलू छूने की कोशिश है यह? क्या इससे जिन्ना की वह शैतानी तस्वीर मिट जाएगी, जिसे देखने की हसरत में ही पाठकों ने यह किताब खरीदी क्योंकि सार्वजनिक भाषणों में जिन्ना को इसी तरह से पेश किया जाता है? इसी तरह सरदार पटेल के बारे में भी इस किताब में कुछ ऐसा है, जो पहले कभी नहीं कहा और सुना गया। फिर भी तीखी प्रतिक्रियाओं की बौछार जारी है और राजनीतिक उठापटक भी।भारत और पाकिस्तान ने अपनी आजादी के 62 साल इसी महीने पूरे किए। हमारे वर्तमान की इमारत अतीत की बुनियाद पर खड़ी होती है। अतीत को समझकर हम यह तय कर पाते हैं कि वर्तमान में उसकी कितनी अहमियत है। लेकिन इससे वर्तमान की हमारी समस्याएं सुलझाने में मदद मिलती है या यह उनमें रुकावट बन जाता है?
राष्टï्रीय आंदोलन में बंटवारे के बीज बोने का काम उस विचार ने किया, जो बहुसंख्यकों और अल्पसंख्यकों के बीच समानता की बात करता था। इस विचार ने लोकतंत्र के एक बुनियादी सिद्घांत को नजरअंदाज कर दिया। इस विचार के हिमायती तबके ने नागरिक को धर्म का चोंगा पहना दिया। 19वीं सदी के अंत में भारत के लिए फैसलों में भारतीयों की अधिक हिस्सेदारी की बात जोर पकड़ रही थी और उसी वक्त मुसलमान नेताओं के बीच यह डर सिर उठाने लगा कि हिंदुओं की आबादी ज्यादा होने से मुसलमानों के हित खतरे में पड़ जाएंगे। इसी डर ने मुस्लिम लीग के बीज बो दिए और 1906 में बनी इस पार्टी ने आखिरकार पाकिस्तान की मांग कर डाली।लेखक बताते हैं कि जिन्ना ने पहले-पहल कहा कि आजादी के आंदोलन में दो पक्ष नहीं हैं, तीन पक्ष हैं - अंग्रेज, कांग्रेस और मुस्लिम लीग। अंग्रेजों को कोई रोक नहीं सकता था, इसलिए उन्होंने मुस्मि लीग को कांग्रेस के समांतर राजनीतिक संगठन बनाने में पुरजोर मदद की। इसकी वजह भारत पर हमेशा राज करते रहने की उनकी इच्छा ही थी, जिसके लिए उन्हें हिंदुओं और मुसलमानों के बीच खाई को बढ़ाना था।एक संवैधानिक राष्टï्र के लिए जरूरी है कि कानून की सत्ता की गारंटी भी मिले और विभिन्न नागरिक तथा राजनीतिक अधिकार और आजादी भी दी जाए। इतना ही नहीं इसकी अनिवार्य शर्त यह भी है जनता का बड़ा तबका नियमित अंतराल पर विभिन्न पार्टियों के बीच से पसंदीदा प्रतिनिधि चुने। अगर आजाद होने के बाद भारत में यही होना था तो देश में अपने व्यापक आधार और राष्टï्रीय सूरत के साथ सभी को प्रिय होने की वजह से क्या बंटवारे की मांग से लडऩा कांग्रेस का काम नहीं था? मुस्लिम लीग का आधार बहुत छोटा था और ऐसी सूरत में तो कांग्रेस को ऐसा करना ही चाहिए था। तो क्या सिद्घांतों के साथ समझौते की राह पकड़कर कांग्रेस ने ही ऐसी मांगों को बुलंद होने दिया?भविष्य के पाकिस्तान में हिंदुओं और मुसलमानों की हालत के बारे में जिन्ना क्या सोचते थे, इसका ब्योरा इस किताब में किया गया है। नई दिल्ली में 14 नवंबर 1946 को एक प्रेस कांफ्रेंस के दौरान एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा था, 'अल्पसंख्यक हमेशा अल्पसंख्यक के तौर पर ही रह सकते हैं, असरदार नहीं बन सकते।Ó पाकिस्तान बन जाने के बाद जिन्ना ने अल्पसंख्यकों की हिफाजत के सवाल पर काफी सोचा। धर्मनिरपेक्ष राष्टï्र में जिन्ना के विश्वास के पक्ष और विपक्ष में तमाम प्रमाण हैं। पाकिस्तान की संविधान सभा में 11 अगस्त 1947 को अपने भाषण में वह एक राह पकड़ते हैं और कराची में 25 जनवरी 1948 को दूसरी राह पकड़कर साफ ऐलान कर देते हैं कि संविधान शरिया कानून के मुताबिक गढ़ा जाएगा, ताकि पाकिस्तान इस्लामिक मुल्क बन सके। उनके मुताबिक मजहब अल्ला के साथ रिश्ते पर रोशनी ही नहीं डालेगा बल्कि रोजमर्रा की ङ्क्षजदगी के तमाम पहलू भी उससे अनछुए नहीं रह पाएंगे।फरजाना शेख ने भी हाल ही में अपनी किताब 'मेकिंग सेंस ऑफ पाकिस्तानÓ में कहा है कि इस्लाम और राष्टï्रप्रेम के बीच रिश्ते की वजह से पाकिस्तान आज वैचारिक अनिश्चितता का शिकार हो गया है। उन्हें भी लगता है कि धार्मिक सम्मति ही इस समस्या का हल है। 1947 में अगर भारत का बंटवारा नहीं होता, तो इस हल की पूरी गुंजाइश थी और शायद आगे भी ऐसा हो सके।

समीक्षाकार भारतीय विदेश सेवा के पूर्व सदस्य हैं और फिलहाल नई दिल्ली के जामिया मिल्लिया विश्वविद्यालय के एकेडमी ऑफ थर्ड वल्र्ड स्टडीज में अतिथि प्रोफेसर हैं।)

पुस्तक : जिन्ना इंडिया-पार्टिशन-इंडिपेंडेंस
लेखक : जसवंत सिंह
प्रकाशक : रूपा ऐंड कंपनी
पृष्ठï : 669
मूल्य : 695 रुपये

Friday, August 28, 2009

डूब गया कारोबार, नहीं कोई पुरसाहाल

सत्येंद्र प्रताप सिंह / मुरलीगंज (मधेपुरा)

बिहार में मधेपुरा जिले का मुरलीगंज बाजार कोसी क्षेत्र का ऐसा बाजार है जहां कोलकाता, दिल्ली सहित अन्य शहरों से सीधे कारोबार होता है। बाढ़ के बाद यहां सन्नाटे जैसा है।
कारोबारियों के चेहरे पर बाढ़ का दर्द साफ पढ़ा जा सकता है। वहीं जूट मंडी के 85 फीसदी कारोबारी, इलाका छोड़कर चले गए हैं। बचे कारोबारियों को भी पूछने वाला यहां कोई नहीं है।
मुरलीगंज बाजार में 22 अगस्त 2008 की रात को पानी घुसा। तबाही का मंजर ऐसा था कि मुख्यमंत्री ने अखबारों के माध्यम से अपील की कि सभी लोग इलाका खाली कर दें और संपत्ति का मोह छोड़कर इलाका खाली कर अपनी जान बचाएं। इस कवायद के तहत यहां का बाजार पूरी तरह से खाली करा लिया गया था।
मुरलीगंज बाजार में कुल 1,734 कारोबारी हैं। वहीं करीब 100 कारोबारियों की पूंजी एक करोड़ रुपये से ज्यादा की है। आकलन के मुताबिक इस बाजार में बाढ़ से कुल 19,96,79,587 रुपये का नुकसान हुआ है। यहां रोजाना औसतन 50 करोड़ रुपये का कारोबार होता था।
मुरलीगंज के काशीपुर रोड की ही मिसाल लें तो यहां से रोजाना 2 से 3 करोड़ रुपये का जूट कोलकाता भेजा था। बाद में किसानों की जूट की खेती चौपट हो गई और बाजार भी उजड़ गया। ट्रक, ट्रैक्टर और बैलगाड़ियों से जाम रहने वाली काशीपुर रोड की रोनक ही सूनी पड़ गई।
मुरलीगंज वार्ड नंबर-7 के किराना कारोबारी शिव कुमार भगत ने बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया,'इस बाजार से गेहूं, मूंग, मक्का, गुलाब बाग मंडी भेजा जाता है, जहां से माल दिल्ली, कोलकाता, कटक और बांग्लादेश सीमा तक भेजा जाता है। कांग्रेस के दिग्गज नेता प्रियरंजन दासमुंशी के इलाके-कलियागंज में माल यहीं से जाता है।'
भगत ने कहा कि उन्हें तो दोहरी मार झेलनी पड़ी। पहले नेपाल के माओवादियों के डर से नेपाल से कारोबार छोड़कर भागना पड़ा, रिश्तेदारों की कोशिश से मुरलीगंज में कारोबार शुरू किया, उसे भी बाढ़ खा गई।
मुरलीगंज बाजार 200 साल पुराना है। स्थानीय कारोबारियों का कहना है बुनियादी सुविधाओं के अभाव में बाजार पिछड़ता गया और बदहाल कानून व्यवस्था ने भी इसे प्रभावित किया। 3 साल से स्थिति में सुधार हो रहा था, लेकिन बाढ़ ने सब पर पानी फेर डाला।


कितना नुकसान हुआ मुरलीगंज में-

कारोबारियों की संख्या 1,734
क्षति राशि 19,96,79,587 रुपये
कर्ज़

कैश क्रेडिट अकाउंट 42,03,6,000 रुपये
प्रधानमंत्री रोज़गार योजना 1,16,84,400 रुपये
अन्य स्रोतों से 2,99,60,283
रुपये

मासिक आय 78,28,833 रुपये
बीमा राशि 5,34,49,000 रुपये
दावा राशि 4,46,19,449 रुपए


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Thursday, August 27, 2009

डूबते को नहीं बैंक का सहारा

सत्येन्द्र प्रताप सिंह / बीरपुर/सुपौल
"बाढ़ में 2,75,000 रुपये का माल डूब गया। 9 बीघा खेत बालू से भरा पड़ा है। बाढ़ में 4 गायें भी डूबकर मर गई। उम्मीद थी कि बीमा राशि से दुकान चल जाएगी, लेकिन बैंक से जानकारी मिली की वर्ष 2008-09 के दौरान बीमा ही नहीं कराया गया है।''

बिहार के सुपौल जिले के बीरपुर बाजार के कारोबारी इस समय अजब संकट में हैं। यहां करीब 100 कारोबारी हैं जो अपनी दुकाने चलाते हैं और इन्होंने भारतीय स्टेट बैंक से कैश क्रेडिट अकाउंट लोन ले रखा है। बैंक हर साल इस कर्ज के आधार पर बीमा करता था, लेकिन वर्ष 2008 में बैंक ने इन बीमा कारोबारियों का बीमा ही नहीं कराया।
बीरपुर बाजार में जायसवाल इंटरप्राइजेज नाम से दुकान चलाने वाले संतोष जायसवाल ने बताया कि 'सीसी अकाउंट से 1 लाख रुपये का कर्ज लिया था। पिछले 4 साल से बैंक हमारी दुकान का बीमा करता था लेकिन वर्ष 2008-09 के दौरान इसने बीमा नहीं कराया। हालांकि बैंक ने इस साल फिर करा दिया है।
बाढ़ में 2,75,000 रुपये का माल डूब गया। 9 बीघा खेत बालू से भरा पड़ा है। बाढ़ में 4 गायें भी डूबकर मर गई। उम्मीद थी कि बीमा राशि से दुकान चल जाएगी, लेकिन बैंक से जानकारी मिली की वर्ष 2008-09 के दौरान बीमा ही नहीं कराया गया है।'
यही स्थिति बाजार के हर कारोबारी की है। 25 कारोबारियों ने अपने कैश क्रेडिट अकाउंट नंबरों के साथ बैंक को आवेदन भी किया लेकिन बैंक से एक ही जवाब मिलता है कि बड़े अधिकारियों को इसके बारे में सूचित कर दिया गया है।
जय स्पेयर केंद्र के संजय कुमार घोष ने कहा कि उन्होंने बैंक से 4 लाख रुपये का कर्ज लिया था। बीमा न होने की क्षतिपूर्ति नहीं मिली और अब उधारी पर काम चल रहा है। बाजार में टाइम सेंटर के नाम से घड़ी की दुकान चलाने वाले वीरेंद्र कुमार मिश्र की तो पूरी दुकान ही नष्ट हो गई है।
टाइटन कंपनी से 3 लाख रुपये का क्रेडिट पर माल लेकर दुकान चला रहे हैं। पुरानी दुकान के किनारे ही उनकी 2 कारें अभी तक मिट्टी में धंसी है, लेकिन दुकान का बीमा ही नहीं हुआ था तो पैसा कैसे मिले।
वीरेंद्र कुमार मिश्र ने कहा कि उनकी दुकान का बीमा फरवरी 09 में करा दिया है, लेकिन बीमा उस दुकान का है जो नष्ट हो चुकी है। मिश्र को डर है कि अगर नई दुकान में कोई हादसा हो जाए तो बीमा कंपनी पैसा नहीं देगी। यही हाल यहां के 25 बीमित कारोबारियों का है।
स्थानीय कारोबारियों ने बताया कि 20 कारोबारी तो ऐसे हैं जिनका सब कुछ खत्म हो गया है और वे अब भी इधर-उधर रिश्तेदारों के यहां दिन काटने को मजबूर हैं। इस सिलसिले में पूछे जाने पर भारतीय स्टेट बैंक के बीरपुर शाखा के प्रबंधक मनोज कुमार मिश्र ने कहा, 'बीमा न होने के बारे में कंट्रोलर को सूचित कर दिया गया है और इस मामले की जांच चल रही है।'
हालांकि उन्होंने इस बारे में कुछ भी कहने से इनकार कर दिया कि इसका कोई समाधान निकल पाएगा या नहीं।

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कुछ आसरा मिला...और रुक गया मजदूरों का पलायन

सत्येन्द्र प्रताप सिंह


मजदूरी करके जीवन गुजारने वाले मजदूरों का बस यही सपना है कि सरकार की ओर से 10,000
रुपये मिल जाएं, जिससे वे बांस की दीवार बनाकर टिन शेड डाल लें। साथ ही जब तक खेत
में मजदूरी नहीं मिलती, सरकार उन्हें गेहूं-चावल और नमक मुहैया कराती रहे।

आज तक मैं यह नहीं समझ पाया
कि हर साल बाढ़ में पडऩे के बाद भी
लोग दियारा छोड़कर कोई दूसरी जगह क्यों नहीं जाते?




अरुण कमल की इस कविता में बाढ़ से हर साल पीडि़त होने वाले लोगों को दर्द छिपा है। लेकिन पिछले साल कोसी नदी का तटबंध टूटने पर उन इलाकों में पानी घुसा था, जहां लोगों ने स्वतंत्रता के बाद से बाढ़ देखी ही नहीं। बलुआ बाजार के दिल्ली चौक (इसे दिल्ली चौक इसलिए कहते हैं कि पूर्व रेल मंत्री ललित नारायण मिश्र के जमाने से लंबे समय तक यहां से दिल्ली की राजनीति तय होती थी) से करीब 15 किलोमीटर दूर गुलामी बिसनपुर वार्ड नं. 1 के युवक पवन पासवान को उम्मीद है कि सरकार उनकी मदद के लिए हाथ बढ़ाएगी और उनकी जिंदगी एक बार फिर पटरी पर आ जाएगी।
इस इलाके में छोटे-छोटे सैकड़ों टोलों में ऐसे परिवार रहते हैं, जिनके पास न तो पक्का मकान है न अपनी जमीन। पहले घास-फूस की झोपड़ी, कुछ बर्तन, कुछ कपड़े और बिस्तर, थोड़ा बहुत अनाज था- जो बाढ़ आने के बाद रेत में दब गया। राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की अपील पर गांव के लोग लौटे। उम्मीद थी कि सरकार मदद देगी। उम्मीद पूरी हुई और हर परिवार को दो किश्तों में 4000 रुपये और 1 क्विंटल अनाज मिला, जिसके चलते ग्रामीण नीतीश सरकार से खुश हैं। 74 साल के जोगी पासवान कहते हैं कि इससे पहले उन्होंने कई बाढ़ झेली है, उसके बाद इस इलाके में आकर बसे। उम्मीद थी कि बाढ़ नहीं आएगी, लेकिन ऐसी बाढ़ आई कि इसके पहले उन्होंने जिंदगी में ऐसा नहीं देखा था। जोगी ने कहा, 'बाढ़ में सब कुछ गंवाने के बाद लोग अपनी पुरानी जगह छोड़ देते और ऊंची जगह देखकर चले जाते। वहां की यादें भूल जाते थे। लेकिन इस बार किसी ने अपना स्थान नहीं छोड़ा है। क्योंकि इसी आधार पर पहचान कर सरकार मदद कर रही है।Ó जोगी कहते हैं कि इसके पहले कभी सरकारी मदद मिली ही नहीं, जिसका जहां मन होता था, चला जाता था। कोई दूसरे जिले में चला गया तो कोई दिल्ली-मुंबई। लेकिन इस बार इतनी बड़ी त्रासदी के बाद भी कोई अपना स्थान नहीं छोड़ रहा है।
पास के ही गांव के कांता लाल ने कहा, 'पहले कटान होती थी, तो कोई वापस नहीं आता था। लेकिन सरकार से उम्मीद बंधी तो सब वापस आ गए।Ó गुलामी बिसनपुर में गांव के नाम के सामने 'गुलामीÓ लिखे जाने के बारे में ग्रामीणों ने बताया कि किसी जमाने में यहां लोगों को गुलाम के रूप में लाया गया होगा, जिसके चलते यह नाम पड़ा। गुलामी बिसनपुर के पवन पासवान को सरकार से कोई शिकायत नहीं है। उसे शिकायत है तो स्थानीय जनप्रतिनिधि से, जिसने पशुओं के मरने का 1000 रुपये मुआवजा नहीं मिलने दिया। साथ ही उसने कहा, 'घास-फूस का मकान हम सब लोगों ने मिल-जुलकर बनाया है। अगर सरकार की ओर से अन्य गांवों की तरह हमें भी मदद मिल जाती तो बांस का मकान बनाकर उस पर टिन शेड डाल लेते।
स्थानीय लोगों ने बताया कि ज्यादातर खेतों में बालू आ जाने और स्थानीय लोगों के छोड़कर चले जाने से धान की रोपाई नहीं हुई। बारिश भी इस साल नहीं हुई। इसके चलते मजदूरी करके जीवन यापन करने वालों को भी काम नहीं मिल पाया। किसान से लेकर मजदूर तक सभी सरकार के सहारे हैं। मजदूरी करके जीवन गुजारने वाले मजदूरों का बस यही सपना है कि सरकार की ओर से 10,000 रुपये मिल जाएं, जिससे वे बांस की दीवार बनाकर टिन शेड डाल लें। साथ ही जब तक खेत में मजदूरी नहीं मिलती, सरकार उन्हें गेहूं-चावल और नमक मुहैया कराती रहे।
बातों बातों में अरुण कमल की कविता का जवाब भी जोगी पासवान ने दे दिया... एक भरोसा राम का, एक आस विश्वास।

बारिश में डर-डरकर जिंदगी बिताते हैं कोसी इलाके के लोग


सत्येन्द्र प्रताप सिंह
सहरसा जिले के नवहट्टा क्षेत्र स्थित झंगहा गांव में रहने वाले शिवशंकर झा अपनी उम्र का पैंसठवां पड़ाव पार कर चुके हैं। पिछले 15 साल से कोसी नदी के तटबंध उन्हें हर साल डराते हैं। कोसी तटबंध पर मिले झा ने कहा, 'कोसी इलाके में ही जन्म हुआ और इसी की माटी पर पला, बढ़ा हूं। अब पिछले 15 साल से हालत यह है कि बारिश शुरू होते ही रात की नींद गायब हो जाती है। जैसे ही सुनते हैं कि नदी में पानी बढ़ रहा है तो रात को नींद नहीं आती है। तटबंध पर घूमने निकल जाता हूं और देखता हूं कि कहीं तटबंध टूट न जाए।Ó ऐसी स्थिति केवल उन्हीं की नहीं है। नहर के किनारे बसे हजारों गावों के लोग बरसात के मौसम में तटबंध पर घूमते मिलते हैं। उनके बीच केवल एक ही चर्चा रहती है कि कहां-कहां पर तटबंध की कटान हो रही है। नवहट्टा से सटे मल्लाह जाति की फुलिया देवी भी तटबंध पर ही मिलीं। वे शाहपुर की मुखिया हैं। बुजुर्ग होने के साथ-साथ ही उन्होंने कोसी में हो रहे बदलाव को देखा है। बताती हैं, 'अगर किसी भी चीज की देखभाल बंद कर दी जाए, तो आखिर वह कब तक टिकेगी। तटबंध तो मिट्टी की दीवार भर है। पिछले बीस साल से देख रही हूं कि इस पर कभी मिट्टी नहीं पड़ी है।Ó दरअसल कोसी नदी के तटबंध की क्षमता लगातार कम हो रही है। बीरपुर से कोपरिया तक पूर्वी तटबंध की लंबाई 125 किलोमीटर है जो पूरी तरह से जर्जर हो चुकी है। कुछ ऐसा ही हाल 120 किलोमीटर लंबे पश्चिमी तटबंध का भी है। जर्जर हो चुके पूर्वी तटबंध पर सुरंगनुमा रेनकट बन गए हैं। हालत यह है कि पानी बढ़ते ही सिंचाई विभाग के इंजिनियरों को इसे बचाने के लिए नाकों चने चबाने पड़ते हैं। सिंचाई विभाग के इंजिनियरों का कहना है कि कोसी नदी को नियंत्रित करने के लिए 1955 में तटबंध का निर्माण शुरू किया गया था, जो 1964 में पूरा कर लिया गया। तटबंध बनने के बाद नदी की जलग्रहण क्षमता बहुत ज्यादा थी। 1969 में अधिकतम प्रवाह 9 लाख क्यूसेक मापा गया था। 1990 के बाद नदी में अधिकतम जल प्रवाह 5 से 5।5 लाख क्यूसेक ही रहा है। दोनों तटबंधों के बीच की चौड़ाई 11 किलोमीटर है। शाहपुर गांव के शंकर यादव बताते हैं कि बिहार में जब कांग्रेस का राज था, तो यहां पर चौकी बनाई गई थी। चौकी में हमेशा यहां चौकीदार तैनात रहता था, लेकिन अब ऐसा नहीं है। तटबंध पर जब पानी का दबाव बढ़ता है, उसे रोकने के लिए बांस के खंभे गाड़े जाते हैं, उसके सहारे बालू की बोरियां रखी जाती हैं। गांव के लोग बताते हैं कि सरकार ने इस साल बोल्डर भी गिराए हैं, जिन्हें तटबंध पर बने स्पर के नोज पर रखा गया है। ऐसा पहली बार हुआ है। नवहट्टा स्थित तटबंध पर तैनात सिंचाई विभाग के कर्मचारियों ने कहा कि कटान बढऩे पर ये बोल्डर स्पर के नोज पर रख दिए जाएं, ऐसी व्यवस्था की गई है। गांव वाले सवाल उठाते हैं कि आखिर में जर्जर हो चुके तटबंध कोसी की धार को कब तक थामेंगे? जैसे-जैसे बारिश तेज होती है, बांध के बाहर रह रहे गावों के लोगों की धड़कने तेज होने लगती हैं। तटबंध पर मिले राम सुंदर की उम्र 70 साल हो चुकी है। उन्होंने कहा कि हर साल जब पानी बढ़ता है तो हम लोगों को तटबंध पर आना पड़ता है। तटबंध की मरम्मत के बारे में पूछे जाने पर उनका कहना है कि याद नहीं है कि कभी इस पर मिट्टी भी पड़ी हो। उनका कहना है कि जहां बारिश से कटान ज्यादा हो जाती है, तो उसे मिट्टी डालकर पाट दिया जाता है, बाकी तो आप देख ही रहे हैं कि क्या हालत है।तटबंध के रास्ते बीरपुर से सुपौल आने पर तमाम जगह ऐसी है, जहां तटबंध करीब-करीब खेत के बराबर पहुंच गया है। हालांकि कुछ जगहों पर पिच रोड भी है, लेकिन अधिकांश रास्ता जर्जर हालत में ही है। करीब 45 साल की उम्र पार कर चुके तटबंध को अब किसी उद्धारक की प्रतीक्षा है। भारी मात्रा में सिल्ट जमा हो जाने के कारण तटबंधों की क्षमता घट गई है, वहीं अपना आकार खो चुके तटबंध जलस्तर बढ़ते ही ग्रामीणों को डराने लगते हैं। डर पिछले साल से और ज्यादा बढ़ गया है, क्योंकि केवल 1,67000 क्यूसेक पानी में ही कुसहा में तटबंध टूट गया था। ऐसे में 27 अगस्त की रात तटबंध के किनारे रहने वाले ग्रामीणों ने रतजगा करके काटा था, जब उन्हें रेडियो पर खबर मिली कि 3,12,780 क्यूसेक पानी आ गया है। साथ ही राज्य सरकार भी इलाके के लोगों को पहली बार चुस्त नजर आई, जब ज्यादा पानी आने पर जल संसाधन विभाग के अभियंता प्रमुख (उत्तर) राजेश्वर दयाल बीरपुर पहुंच गए और उन्होंने दो दिन तक कैंप किया। कोसी नदी में इस समय इतना बालू भर गया है कि पूरे बारिश में तटबंध के बाहर के गांवों में कच्चे मकानों में खुद-ब-खुद पानी भर जाता है। हैंडपंप से चौबीसों घंटे अपने आप पानी निकलता रहता है। रात को सोने के बाद खटिया के नीचे से पानी बाहर निकालना पड़ता है। तमाम इलाके तो ऐसे हैं, जहां तटबंध के रेनकट भरने का जिम्मा भी ग्रामीणों ने ले रखा है। बलवा गांव के मदन मोहन मिश्र ने बताया कि तटबंधों पर काम होता ही नहीं है, बारिश होती है तो रातभर नींद नहीं आती। उन्होंंने कहा कि गांव के लोग ही चंदा लगाकर खुद रेनकट भरते हैं। नौलखा गांव में पहुंचने पर तटबंध की हालत और भी खस्ता नजर आती है। हालांकि इस पर लोगों के आने जाने के लिए मिनी बस भी चलती नजर आई। सड़क ऐसी है कि बस कब पलट जाए, कोई भरोसा नहीं। मजाल क्या है कि इस सड़क पर कोई चार पहिया वाहन 15 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार पार कर ले। लेकिन ग्रामीण तो इसे ही अपनी नियति मान चुके हैं। सभी निराश हैं- उन्हें बदलाव की कोई राह नजर नहीं आती।


इनकी भी जिंदगी है
नवहट्टा के पास तटबंध पर मिले अनूप शर्मा और धनिक शर्मा झरबा गांव से आए हैं। उन्हें घर जाने के लिए नाव की प्रतीक्षा है। झरबा गांव कोसी नदी के दोनों तटबंधों के बीच में बसा है। हर साल बाढ़ का पानी इनके घरों को डुबोता है। घरों का डूबना, सामान लेकर बाहर निकल आना और पानी कम होने पर फिर से वहीं आशियाना बसा लेना इनकी जिंदगी है। भेलाही गांव के ललन पासवान बताते हैं कि 40-45 गांव के लोग हैं, तो इसी स्थान से नाव पकड़कर अपने घरों को जाते हैं। कोसी तटबंध के भीतर बीरपुर से लेकर कुशेश्वर स्थान तक करीब 800 छोटे-छोटे टोले और गांव हैं, जो हर साल पानी में डूबते हैं और बाहर निकलकर अपने रिश्तेदारों और तटबंधों पर तीन महीने के लिए आशियाना बसा लेते हैं। इन गावों के ज्यादातर लोग पलायन कर चुके हैं। हर परिवार के लोग कहीं न कहीं दूसरे राज्य में जाकर नौकरी करता है और परिवार के कुछ लोग तटबंध के भीतर रहते हैं। यहां बाकायदा पंचायतें हैं, वोटिंग होती है और ये लोग अपने विधायक और सांसद भी चुनते हैं। लेकिन इनके दर्द की कोई दवा पिछले 45 साल से नहीं बनी। ललन पासवान से यह पूछने पर कि आखिर आप लोग यहां क्यों रहते हैं- वे उल्टा सवाल दाग देते हैं कि आप ही बता दीजिए कि क्या करें? इन इलाकों में एक फसल हो जाती है, जब बाढ़ का पानी नहीं रहता। इलाके के लोग बताते हैं कि यहां झींगा खाना सस्ता है, आलू महंगा है।

Wednesday, August 26, 2009

बाढ़ से फिर पहुंचे दर्द के उसी मुकाम पर

सत्येन्द्र प्रताप सिंह / मुरलीगंज-मधेपुरा

अगर कहीं और कारोबार शुरू करने का अवसर मिले तो इलाके को छोड़ना पसंद करेंगे- उनका चेहरा खिल जाता है और कहते हैं, 'तत्काल छोड़ देंगे'।


अपनी उम्र के 90 पड़ाव पार कर चुके मुरलीगंज बाजार के कारोबारी फूलचंद अग्रवाल के दर्द का अंत नहीं। स्थानीय लोगों के बताने पर कि दिल्ली से कुछ पत्रकार आए हैं, उनका चेहरा सूख जाता है।
उन्होंने कहा, 'गंजी पहनकर आए थे, गंजी पर आ गए। पाकिस्तान (बांग्लादेश) में तूफान देखे थे। कभी ऐसी हालत नहीं देखी। यह विनाश था, बाढ़ नहीं।' दरअसल भारत के विभाजन के वक्त फूलचंद अग्रवाल पाकिस्तान छोड़कर मुरलीगंज आ गए थे और यहां पर फिर से जिंदगी शुरू की थी, लेकिन कुसहा में तटबंध टूटने से आई बाढ़ ने उन्हें फिर उसी मुकाम पर खड़ा कर दिया है, जैसे वे आए थे।
बाढ़ ने अग्रवाल परिवार का पूरा कारोबार लील लिया। करीब 30 लाख का नुकसान हुआ। 24 लाख के करीब का तो खाद और बीज नष्ट हो गया। फूलचंद अग्रवाल के पुत्र रामगोपाल अग्रवाल बताते हैं कि बीमा कंपनी के सर्वेयर कहते हैं कि आप लोग माल निकालकर कहीं और लेकर चले गए हैं।
इस इलाके का एक भी आदमी ऐसा नहीं कह सकता कि नुकसान नहीं हुआ, लेकिन बीमा कंपनियों को लगता है कि कुछ हुआ ही नहीं। हालांकि उनके यहां नैशनल फर्टिलाइजर, कृभको श्याम फर्टिलाइजर्स लिमिटेड (केएसएफएल) नागार्जुन फर्टिलाइजर्स ऐंड केमिकल्स लिमिटेड (एनएफसीएल) इंडियन पोटाश लिमिटेड (आईपीएल) जैसी सरकारी कंपनियों से माल आता है और माल आने और बिकने सहित गोदाम में बचे माल का लेखा जोखा दर्ज होता है।
सारे काजगात दिए जाने के बाद भी सिर्फ फोन आते हैं कि फलां कागज को फिर से भेज दीजिए- इसके अलावा कुछ नहीं हुआ। राम गोपाल अग्रवाल बताते हैं कि 22 अगस्त को बाजार में पानी आया। 23 अगस्त को सब कुछ छोड़कर चल पड़े। पहली बार तो करीब 8 किलोमीटर पैदल चलकर गोशाला पहुंचे, जहां नाव मिलती थी, लेकिन नाव ही नहीं मिली।
दूसरी बार जाने पर नाव मिली तो भागकर कटिहार में अपने रिश्तेदार के यहां पहुंचे। अपना दर्द बयान करते हुए वे कहते हैं कि पिछले साल दशहरा की पूजा भी विस्थापित के रूप में ही हुई थी। उस समय तो ऐसा लगा था कि सब कुछ छोड़कर जाना पड़ेगा। वापस लौटे तो सब कुछ बर्बाद हो चुका था।
अब रिश्तेदारों से पैसा लेकर कारोबार फिर से शुरू किया है, 10 लाख रुपये का माल भी है- लेकिन अब नहीं लगता कि कारोबार को अपनी जिंदगी में उस मुकाम पर पहुंचा पाएंगे, जहां बाढ़ के पहले था। दरअसल खेती पर निर्भर कारोबार ही इस इलाके का बड़ा कारोबार है। खेतों में बालू भर जाने और कोसी से निकली नहर के क्षत-विक्षत हो जाने से कृषि कार्य पूरी तरह से ठप है। कारोबार चले भी तो कैसे।
कारोबार घटकर 15-20 प्रतिशत रह गया है। इलाके के पेड़ पौधे नष्ट हो गए हैं। जो आम 10 रुपये किलो मिलता था, इस साल 30 रुपये किलो बिका। यह पूछे जाने पर कि अगर कहीं और कारोबार शुरू करने का अवसर मिले तो इलाके को छोड़ना पसंद करेंगे- उनका चेहरा खिल जाता है और कहते हैं, 'तत्काल छोड़ देंगे'।

बाढ़ के ज़ख्म पर बीमा बना नमक

सत्येन्द्र प्रताप सिंह / मुरलीगंज-मधेपुरा

बीमा सामान्यतया इसलिए कराया जाता है कि नुकसान होने पर मदद मिले, लेकिन बीमा अपने आप में मुसीबत है। बिहार के मधेपुरा जिले के मुरलीगंज के कारोबारियों के साथ कुछ ऐसा ही हो रहा है। कुछ कारोबारियों ने तो स्पस्ट कह दिया है कि वे अब अपने कारोबार का बीमा नहीं कराएंगे।
पिछले साल कोसी नदी का तटबंध टूटने से आई बाढ़ के बाद बाजार का कारोबार पूरी तरह से चौपट हो गया था। कोई ऐसा नहीं बचा, जिसे नुकसान न हुआ हो।
कारोबारी अपने व्यवसाय का बीमा भी कराते आ रहे हैं, लेकिन 15 साल से भारी भरकम बीमा प्रीमियम दे रहे कारोबारियों ने सपने में भी नहीं सोचा था कि अगर उनका कारोबार चौपट हो जाए, तो बीमा कंपनियां बीमित राशि के भुगतान करने में रुला देंगी।
कारोबारियों का कहना है कि अभी करीब 90 प्रतिशत बीमा राशि का भुगतान नहीं हुआ है। मुरलीगंज बाजार में श्री राजहंस इंडस्ट्रीज के मालिक विनोद बाफना बताते हैं कि मुख्यमंत्री के इलाका खाली करने के अपील के बाद जायदाद के कागजात के अलावा वे सब कुछ छोड़कर चले गए थे।
3 महीने शरणार्थी की तरह कटिहार में दिन काटने के बाद वापस लौटे तो सब कुछ बर्बाद हो चुका था। खाद, बीज और कीटनाशकों की बोरियां भी नहीं बची थीं, सारा माल पानी में बह गया। बोरियों का प्रयोग शायद बालू भरकर कटान रोकने में प्रयोग कर लिया गया। बाफना ने बैंक से 51 लाख रुपये कर्ज ले रखा है और उसका मासिक ब्याज 65 हजार रुपये आता है।
15 साल से लगातार बीमा करा रहे बाफना ने पिछले साल भी 47,000 रु. सालाना प्रीमियम देकर 70,00,000 रु. का बीमा कराया था। कारोबार में हुए नुकसान को देखते हुए उन्होंने महज 30,53,825.30 रुपये का बीमा दावा किया, लेकिन उन्हें आज तक बीमा की राशि नहीं मिली। यही हाल कृषि विकास केंद्र के राम गोपाल अग्रवाल का है, जिनका बाढ़ में कुल 30 लाख रुपये का नुकसान हुआ।
उन्होंने दुकान में हुई क्षति के लिए 24 लाख क्लेम किया, लेकिन अभी तक बीमा राशि का भुगतान नहीं हुआ। छोटे कारोबारियों में रवि इलेक्ट्रॉनिक्स के नाम से दुकान चलाने वाले शिवशंकर भगत को 4 लाख रुपये का नुकसान हुआ, लेकिन उन्होंने बीमा दावे के मुताबिक 2 लाख का क्लेम किया, लेकिन एक ढेला भी नहीं मिला।
क्षेत्रीय खाद बीज भंडार के संतोष कुमार ने 11 लाख रुपये बीमा क्लेम किया, लेकिन अब तक बीमा राशि का भुगतान नहीं हुआ। ओरियंटल इंश्योरेंश के चीफ रीजनल मैनेजर सुशील कुमार ने कहा, 'यह इलाका हमारी प्राथमिकता में है और तेजी से बीमा राशि का भुगतान किया जा रहा है।'
उन्होंने यह भी दावा किया कि 2 महीने के भीतर सभी क्लेम क्लीयर कर दिए जाएंगे। विनोद बाफना ने तो बीमा से तौबा कर लिया है। उन्होंने बैंक में लिखकर दे दिया है कि अब बीमा नहीं कराएंगे। वे कहते हैं कि आखिर क्या फायदा है बीमा का कारोबार शुरू करने के लिए पैसा नहीं मिला, बैंक में कर्ज का ब्याज अलग बढ़ रहा है।

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Friday, August 7, 2009

.... कोसी की अजब कहानी


पूर्वी नहर तटबंध टूटने से बिगड़ी सिंचाई व्यवस्था
खेतों में भरी है बालू
पानी की जबरदस्त किल्लत
मॉनसून में देरी से बिगड़ गई बुआई



सत्येंद्र प्रताप सिंह / चैनपुर/सुपौल
बिहार में सुपौल, मधेपुरा, सहरसा, अररिया, कटिहार और पूर्णिया जिलों के खेत इस साल सूखे पड़े हैं। बाढ़ ने पिछले साल इन इलाकों को डुबाया ही था, नहर की व्यवस्था ध्वस्त होने से खेतों में पानी नहीं पहुंच रहा है। मानसूनी बारिश न होना भी कोढ़ में खाज बन गया है।
कोसी नदी से सिंचाई के लिए निकाली गई पूर्र्वी नहर से इन सभी जिलों में सिंचाई होती थी। लेकिन कुसहा में तटबंध टूटने के बाद सिंचाई की व्यवस्था पूरी तरह से चरमरा गई जिससे इलाके के किसानों पर दोहरी मार पड़ रही है।
खेतों में बालू भरा पड़ा है और सिंचाई के लिए पानी की किल्लत हो गई है। जिन खेतों में बुआई होनी थी, बारिश की कमी की वजह से वे भी बांझ की तरह हैं, जिनमें बीज ही नहीं पड़ सकते। चैनपुर गांव के कलानंद यादव के पास 3 एकड़ जमीन है। लेकिन उनकी खेती-किसानी बिलकुल चौपट हो चुकी है।
खेत में बालू जमा है और गांव की कुछ जमीन पर सब्जी उगाकर उसे स्थानीय बाजार में बेचने जाते हैं। यादव कहते हैं, 'कोसी ने हमारे खेतों को विधवा बना दिया है। उस से निकली नहर के पानी से ही खेतों का श्रृंगार होता था। खेतों में बालू के बावजूद अगर पानी होता तो कुछ न कुछ उपजा ही लेते।'
हालांकि ग्रामीणों ने बताया कि सरकार ने 130 रुपये कट्ठा से हिसाब से मुआवजा दिया है। कोसी से निकली पूर्वी नहर की सिंचाई क्षमता करीब 8.5 लाख हेक्टेयर थी लेकिन नहरों में अवसाद जमा हो जाने से क्षमता घटकर 3 से 4 लाख हेक्टेयर तक रह गई।
नाम न छापने की शर्त पर सिंचाई विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं,'पूर्वी नहर के राजपुर ब्रांच की मरम्मत की गई है लेकिन काम की रफ्तार धीमी है। इस रफ्तार से काम में काफी वक्त लग जाएगा।'
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Thursday, August 6, 2009

फिर खिलेगा उजड़ा चमन


.... सब कुछ गंवा चुके गांव वाले नए सिरे से रख रहे हैं बुनियाद

सत्येंद्र प्रताप सिंह / बीरपुर/सुपौल

साल भर पहले चारों ओर कयामत थी। जीवन देने वाला पानी बस्तियों-गांवों को श्मशान में तब्दील भी कर सकता है, इसके सबूत कोसी के आसपास बिखरे पड़े थे, चिल्ला चिल्लाकर अपनी कहानी कह रहे थे।
उस वक्त जो बचा, उसने आसमान की तरफ रुख कर ऊपर वाले का शुक्रिया अदा किया। एक साल बीत गया है, लेकिन उस खौफनाक मंजर की यादें ताजा हैं। यह बात अलग है कि नए सिरे से जिंदगी का सफर शुरू करने की जद्दोजहद चालू हो गई है।
कुसहा में टूटे तटबंध की मरम्मत के बाद इलाके के ग्रामीणों में खुशी है। खुशी है कि इस बार बाढ़ उनके सपने नहीं लीलेगी। लेकिन अभी रहने और खाने का ठिकाना नहीं है। अब तक तो सरकार की दी गई आर्थिक मदद और अनाज से गुजर बसर हुई। बाढ़ से निकलने के बाद 3 महीने बाद घर लौटे तो बालू और पानी के सिवा कुछ नहीं मिला।
पुरैनी गांव के वार्ड नंबर 14 के मंतलाल मंडल ने कहा, 'सब कुछ तो खत्म हो गया था, घार-बार, पशु सब कुछ खत्म हो गया। सरकार से रोटी मिली और ओडीआर की मदद से घर बन रहा है।'
दरअसल बीरपुर से सटे सभी गांवों से जहां से पानी की धार गुजरी सब कुछ लीलती गई। गांव के लोगों को अपनी जिंदगी फिर शून्य से शुरू करनी पड़ रही है। पुरैनी गांव में ज्यादातर लोग मजदूरी करते हैं, कुछ श्रमिक हैं तो कुछ मकान बनाने वाले राज मिस्त्री हैं।
ओडीआर नाम का स्वयंसेवी संगठन गांव को दोबारा बसाने में जुटा है। कारीगर और श्रमिक गांव के ही हैं लेकिन कंक्रीट, सीमेंट जैसी जरूरी चीजों के लिए संस्था ने कुल 55,000 रुपये प्रत्येक मकान के लिए मदद दी है।
गांव में कुल ऐसे 89 परिवार हैं जिनके लिए मकान बनाए जा रहे हैं। सरकार की मदद की आस में इस इलाके में लोग बने हुए हैं नहीं तो इन लोगों के पास ऐसा कुछ भी नहीं है जो इन्हें यहां रुकने को मजबूर कर सके।

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Wednesday, August 5, 2009

संसद के इतिहास में पहली बार बनियों पर हंगामा

भारत के स्वतंत्र होने का बाद पहली बार ऐसी स्थिति आई है, जब संसद कारोबारियों के मसले पर बंधक बन गई। संप्रग सरकार के इसके पहले कार्यकाल में भी स्पस्ट नजर आ रहा था कि पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा परोक्ष रूप से मुकेश अंबानी की मदद कर रहे हैं। लेकिन हुआ कुछ ऐसा कि सरकार ने उन्हें दोबारा उसी पद पर विभूषित कर दिया है। वैसे भी मुरली देवड़ा की राजनीति में पैठ उद्योगपतियों की दलाली से ही शुरू हुई। बाद में १९९१ में आर्थिक उदारीकरण के बाद जब उनका धंधा मंदा पड़ गया तो उन्होंने राजनीति की राह पकड़ी और मुंबई की शव यात्राओं में शामिल होकर, तरह तरह के भोज कराकर उन्होंने राजनीतिक क्षेत्र बनाया और संसद में पहुंचने में कामयाब हो गए। सांसद बनने के बाद तो किसी की औकात नहीं कि उन्हें कोई जनप्रतिनिधि नहीं माने।अब मुलायम सिंह सहित उनके तमाम साथियों ने जब देश की नीति को बंधक बनाकर मुकेश अंबानी को लाभ पहुंचाने और अनिल अंबानी की बिजली परियोजना रोकने की बात उठाई तो बवाल मच गया।हालांकि मुरली देवड़ा या उनके जैसे नेताओं के खिलाफ कुछ करने में सरकार सक्षम नहीं लगती। ग्लोबलाइजेशन के नाम पर अब सरकार ने अपने हाथ कुछ इस कदर बांध लिए हैं कि बैंकों को राहत पैकेज देने के लिए ७२ हजार करोड़ रुपये दिए जाते हैं और सरकार उसे किसानों की कर्जमाफी का नाम देती है।मुलायम सिंह जैसे लोग जब संसद में सवाल उठाते हैं कि किसानों को उनके उत्पाद का उचित मूल्य मिलना चाहिए तो पक्ष-विपक्ष में उनका साथ देने वाला कोई नहीं होता। अब राजनीति पूरी तरह से नोटों पर चलती नजर आती है।
आखिर संसद में बोलते हुए मुलायम सिंह ने क्या बुरा कहा था कि केंद्र सरकार की कृषि पर गठित समिति ने गेहूं का प्रति क्विंटल उत्पादन मूल्य ९०० रुपये बताए थे, साथ ही कहा था कि कच्चा माल होने की वजह से इस पर किसानों को ५० प्रतिशत मुनाफा मिलना चाहिए जैसा कि अन्य कारोबार में होता है। मुलायम ने पूछा कि किसानों को सरकार गेहूं की यह कीमत कब देगी? लेकिन सवाल दब गया। यहां तो समलैंगिकता महत्वपूर्ण सवाल है, राखी सावंत का विवाह देश के लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। ८० करोड़ किसानों को पूछने वाला कौन है????

Tuesday, July 21, 2009

एक गायिका को करीब से जानने की कोशिश

किशोर सिंह

"वह याद करती हैं, 'मैं कड़ी मेहनत किया करती थी। दिन-रात गानों की रिकॉर्डिंग। एक स्टूडियो से दूसरे स्टूडियों में भागना।' इसका नतीजा यह था, 'मैं दिनभर भूखी रह जाती, क्योंकि तब मैं यह नहीं जानती थी कि रिकॉर्डिंग स्टूडियो में कैंटीन भी होती है और वहां से मैं खरीद कर कुछ खा सकती हूं या चाय ले सकती हूं। अक्सर मैं पूरे दिन बिना खाए और पानी पिए रह जाती। "


अगर आपको मौका दिया जाए तो आप लता मंगेशकर को गाते हुए सुनना पसंद करेंगे या उनकी बातचीत?
बेशक इस पर बहुत अधिक वाद-विवाद की गुंजाइश नहीं है, खासतौर पर तब जब आप सचिन तेंडुलकर की ही तरह मंगेशकर की आवाज के बारे में कह रहे हों।
लंदन की डॉक्यूमेंटरी फिल्म निर्माता नसरीन मुन्नी कबीर ने चैनल 4 के लिए 6 कड़ियों वाली एक डॉक्यूमेंटरी लता मंगेशकर पर बनाई थी और अब कई साल बाद उनके कुछ और साक्षात्कारों के साथ उन्होंने इसे किताब में तब्दील कर दिया, जिसमें पाठकों को गायिका के बारे में काफी कुछ जानकारी मिलेगी।
इसमें लता मंगेशकर ने अपने जीवन और उनकी खुद की आवाज में गाए गए गानों के बारे में बातचीत की है। यह मंगेशकर की आत्मकथा के काफी नजदीक है, जिसमें उनके निजी जीवन से जुड़े विवादों (राज सिंह डूंगरपुर के साथ उनके संबंध)की तस्वीर नहीं है, लेकिन कामकाज की दुनिया से जुड़े कई ऐसे विवादों का जिक्र है।
इन विवादों को उन्होंने बेहद ही शांत और साधारण तरीके से खत्म भी कर दिया। ये विवाद भारत की स्वर कोकिला बनने के 6 दशकों के साथ-साथ ही उनके सामने आते रहे। सांगली के बड़े घर में जहां लता मंगेशकर के पिता थिएटर कंपनी चलाया करते थे, वहीं वह पैदा हुईं और उन्होंने संगीत सीखने की शुरुआत की।
संगीत सीखने के लिए उनके पिता ने अनमने मन से अपनी स्वीकृति दी थी और बचपन में उन्होंने अपने पिता के साथ ही संगीत की शुरुआत भी की। मंगेशकर मानती हैं कि अपनी रोजमर्रा की दीक्षा से बचने के लिए वह 'बहाने बनाती थीं।' वह कहती हैं, 'मैं बहुत छोटी थी और खेलना मुझे बेहद पसंद था', 'मैं ऐसा जताती थी जैसे मेरे सिर या पेट में दर्द हो रहा हो।'
उनके पिता ने उन्हें समझाया, 'हमेशा याद रखो- चाहे गुरु या तुम्हारे पिता तुम्हें सिखा रहे हों- जब भी तुम गाओ तुम सिर्फ अपने बारे में सोचो कि तुम्हें उनसे बेहतर गाना है। यह कभी मत सोचो कि उनकी मौजूदगी में मैं कैसे गा सकूंगी? इसे याद रखना। तुम्हें अपने गुरु से आगे बढ़ना है।' यह ऐसा सबक था जो जीवनभर तक उनके साथ बना रहेगा।
कबीर को उन्होंने बताया, 'बाबा के इन शब्दों को मैं कभी नहीं भूलूंगी।' 'लता मंगेशकर ... इन हर ओन वॉयस' काफी दिलचस्प है, क्योंकि इस किताब के ज्यादातर हिस्से को साक्षात्कार के रूप में लिखा गया है। इन साक्षात्कारों को दिनों या सप्ताहों में नहीं, बल्कि वर्षों में लिखा गया।
मंगेशकर याद कर कहती हैं, 'फिल्मी संगीत को घर पर कभी बहुत नहीं सराहा गया' 'और मेरे पिता एक रूढ़िवादी व्यक्ति थे। हम कैसे तैयार होते हैं, इसे लेकर उनका रवैया काफी कठोर था। हमने कभी पाउडर या मेक-अप नहीं लगाया। हम खुलेआम बाहर जा नहीं सकते थे। नाटक देखने के लिए देर रात हम बाहर जाएं, बाबा को यह पसंद नहीं था, यहां तक कि उनके खुद के।'
कुछ समय बाद ही परिवार के भाग्य ने करवट ली, सांगली मैंशन नीलाम हो गया और उनके पिता का निधन हो गया। वह घर में सबसे बड़ी थीं, तो उन्हें लगा कि आर्थिक जिम्मेदारी को वह बतौर अभिनेत्री पूरा कर सकती हैं। उन्होंने पहले मराठी और बाद में हिंदी सिनेमा में कोशिश की। उन्हें बताया, 'मेरे पास कोई और विकल्प नहीं था', 'लेकिन मुझे मेक-अप, लाइटें, लोगों का आपको आदेश देना, अपने संवाद पढ़ना कभी पसंद नहीं आया। मैं काफी असहज महसूस कर रही थी।'
यह सौभाग्य ही था कि शास्त्रीय संगीत में उनकी शिक्षा और आवाज पर उनका नियंत्रण इतना अच्छा था कि उन्हें कुछ प्लेबैक का काम मिलना शुरू हुआ। कुछ साल बाद फिल्म 'महल' के गाने 'आएगा आनेवाला' से लता को स्थापित होने में मदद मिली। लता अपने काम के लिए जीती हैं।
वह याद करती हैं, 'मैं कड़ी मेहनत किया करती थी। दिन-रात गानों की रिकॉर्डिंग। एक स्टूडियो से दूसरे स्टूडियों में भागना।' इसका नतीजा यह था, 'मैं दिनभर भूखी रह जाती, क्योंकि तब मैं यह नहीं जानती थी कि रिकॉर्डिंग स्टूडियो में कैंटीन भी होती है और वहां से मैं खरीद कर कुछ खा सकती हूं या चाय ले सकती हूं। अक्सर मैं पूरे दिन बिना खाए और पानी पिए रह जाती।'
पांच दशकों बाद भी 'मैं यह नहीं कह सकती की मेरी आर्थिक स्थिति अच्छी है, लेकिन यह बुरी भी नहीं है, क्योंकि मैंने बहुत काम किया है।' रिहर्सल का क्या और स्टूडियो का मिल जाना जब दिन की शूटिंग समाप्त हो जाए, 'हम स्टूडियो की छत पर जाते थे और रातभर रिकॉर्डिंग किया करते थे। वह जगह धूल से भरी हुई थी, लाइटें उस वक्त भी काफी गर्मी पैदा करती थी। हम आवाज के चलते पंखों का इस्तेमाल भी नहीं कर सकते थे।'
लता के व्यक्तित्व का पता इस बात से ही चल जाता है कि उर्दू बोलने पर जब दिलीप कुमार ने उनकी आलोचना की तो उन्होंने उर्दू सीखी। वे यह भी कहती है, 'नैट किंग कोल, बीटल्स, बारबरा स्ट्रीसैंड और हैरी बेलाफोंट उनके पसंदीदा गायक हैं।' मोहम्मद रफी से 'रॉयल्टी पर' उनका झगड़ा हुआ और राज कपूर ने जब 'सत्यम शिवम सुंदरम' के लिए कंपोजर को बदला तो इस पर शम्मी कपूर से उनकी तू-तू, मैं-मैं हुई।
लोगों की हूबहू नकल करना उन्हें बेहद पसंद है, उनकी कारें सबसे पहले सलेटी हिलमैन बाद में शेव्रले, क्राइसलर और पुरानी मर्सीडिज के बाद यश चोपड़ा की ओर से 'वीर जारा' के लिए उन्हें तोहफे के रूप में मिली मर्सीडिज उनकी पसंदीदा चीजों की फेहरिस्त में शामिल है। लता को सिगरेट का धुआं पसंद नहीं, लेकिन हीरे और एमेराल्ड बेहद पसंद हैं।
क्रिकेट और मर्लिन डिट्रिच को स्टेज पर देखने के लिए उनकी विदेश यात्राएं उनका जोश बढ़ा देती हैं। इस किताब में शामिल उनके खुद पर आलोचनात्मक दृष्टिकोण ने इस किताब को और भी यादगार बना दिया है। लता का कहना है, 'मैं हमेशा खुद पर निर्भर करती हूं।' 'इस मामले में, मैंने खुद अपने मुकाम हासिल किए हैं। मैंने लड़ना सीखा। मैं कभी किसी से नहीं डरी। मैं निडर हूं।'

पुस्तक समीक्षा

लता मंगेशकर ... इन हर ओन वॉयस
नसरीन मुन्नी कबीर के साथ बातचीत
प्रकाशक : नियोगी बुक्स
कीमत : 1,500 रुपये
पृष्ठ : 268


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पुतिन की सोच, सभी की समझ से परे

कनिका दत्ता
"अगर दुनिया चीन का उत्थान देख रही है और डर से भी वाकिफ है तो वह यह भी जानती है कि चीन डर और शंका के साथ रूस की सोवियत काल के बाद की राजनीति का ही अनुसरण कर रहा है। इस रूसी पहेली के केंद्र में हैं व्लादीमिर पुतिन। पुतिन एक ऐसे व्यक्ति हैं जिन्हें रूसी जनता का जबरदस्त समर्थन हासिल है।"


गोल्डमैन सैक्स के लोकप्रिय संक्षिप्त नाम ब्रिक में वर्ष 2050 तक ब्राजील, भारत और चीन के साथ रूस को देश की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक के रूप में नामित किया गया है।
इन चारों में से रूस हालांकि अपनी भौगोलिक स्थिति के लिहाज से अलग है, क्योंकि यह यूरोप और एशिया दोनों महाद्वीपों में फैला हुआ है। इसके अलावा एक वक्त था जब रूस दुनिया की महाशक्ति के रूप में जाना जाता था।
अगर दुनिया चीन का उत्थान देख रही है और डर से भी वाकिफ है तो वह यह भी जानती है कि चीन डर और शंका के साथ रूस की सोवियत काल के बाद की राजनीति का ही अनुसरण कर रहा है। इस रूसी पहेली के केंद्र में हैं व्लादीमिर पुतिन। पुतिन एक ऐसे व्यक्ति हैं जिन्हें रूसी जनता का जबरदस्त समर्थन हासिल है।
वजह भी वाजिब है। पुतिन ही वह व्यक्ति हैं, जिन्होंने येल्तसिन के बाद के वर्षों में रूसी अर्थव्यवस्था में मचे कोहराम को शांत किया। पुतिन के सत्ता में आने के बाद के वर्षों में रूसी अर्थव्यवस्था में जबरदस्त सुधार देखा गया, जिसमें अहम योगदान तेल और गैस की बढ़ती कीमतों का रहा।
पिछले साल के अंत में केजीबी के इस पूर्व अधिकारी ने राजनीतिक विश्लेषकों को हक्का-बक्का कर दिया। अपनी जगह पुतिन ने अपने विश्वासपात्र दमित्री मेदवेदेव को राष्ट्रपति पद के लिए अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया और खुद प्रधानमंत्री बन बैठे।
2008 में राष्ट्रपति पद छोड़ते वक्त उन्होंने पत्रकारों से कहा था, 'मैं क्रैमलिन छोड़ रहा हूं, रूस नहीं।' और उन्होंने अपना वादा निभाया, भले ही उनके प्रधानमंत्री बनने की उम्मीद किसी ने न की हो। इसलिए क्षेत्रफल के आधार पर सबसे बड़े देश कीअर्थव्यवस्था और भविष्य की विश्व राजनीति का सूत्रधार कौन है?
क्या वह आधुनिक युग का राजनेता है, जिसमें 17वीं शताब्दी के जार की सोच समाई हुई है? क्या वह पूंजीवादी के भेष में स्टालिनवादी है? डाई वेल्ट के प्रमुख संवाददाता माइकल स्टूअर्मर ने अपनी पुस्तक की भूमिका में लिखा है, 'दो शताब्दियों में ऐसा पहली बार नहीं है कि रूस अपनी अर्थव्यवस्था को लेकर दुनिया को हैरत में डाल चुका है।'
दुर्भाग्यवश, 228 पेज की उनकी किताब और अधिक जानकारी मुहैया नहीं करा पाई। अपनी लगन में पक्के स्टूअर्मर के हाथ भी पत्रकारों पर लगी सोवियंत संघ की पाबंदियों से बंधे हैं, हालांकि देश अपने चेहरे से मार्क्सवादी मुखौटे को उतार कर फेंक चुका है और देश की पूंजीवादी अर्थव्यवस्था में तब्दील हो चुका है।
नतीजतन, रूस पर नजर बनाए हुए किसी भी दूसरे व्यक्ति की ही तरह स्टूअर्मर के स्रोत भी पुतिन की सार्वजनिक सभाओं और प्रेस सम्मेलनों तक ही सीमित रहे। इसमें उनके साक्षात्कार की भी झलक देखने को नहीं मिली। स्टूअर्मर ने अपनी पुस्तक की शुरुआत वर्ष 2007 में पुतिन के सुरक्षा सम्मेलन पर एक भाषण से की है।
म्युनिख में अपने इस भाषण के दौरान पहली बार पुतिन ने दुनिया के सामने अपना दृष्टिकोण रखा था। यह भाषण बुनियादी सच्चाई से जुड़ा हुआ था, क्योंकि इसमें सोवियत के बाद पश्चिमी देशों के शोषण और घेराव के डर को लेकर रूस की चिंता साफ दिखाई देती थी। साथ ही इसमें पहली बार दुनिया में रूस की स्थिति को लेकर उनका दृष्टिकोण देखने को मिला था, जिसमें वैश्विक मामलों में रूस भी एक बराबर का भागीदार था।
स्टूअर्मर ने लिखा है, 'भविष्य में इतिहासकार म्युनिख में पुतिन के इस भाषण को असहजता से उपजी हुई एक नपी-तुली चुनौती के रूप में देखेंगे।' 'म्युनिख में पश्चिमी देशों ने ऐसी चीजों का जिक्र किया, जो पुतिन नहीं चाहते थे। लेकिन क्या पुतिन जानते थे कि वह खुद क्या चाहते हैं।'
जिन पाठकों को किताब में इस सवाल के जवाब की उम्मीद होगी, उन्हें निराशा ही हाथ लगेगी। शुरुआती अध्यायों में रूस के सोवियत के बाद के इतिहास पर से धूल हटाई गई है और उन्होंने इसमें एक कहानी बुनी है, जिसमें उन्होंने तेजी से आगे बढ़ रहे पुतिन को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में दिखाया है जो अब किसी खास जगह से जुड़ा हुआ नहीं है।
इस पुस्तक में जो सबसे दिलचस्प अध्याय लगा वह है, 'पुतिन्स पीपल'। इसमें स्टूअर्मर ने क्रैमलिन के एक वरिष्ठ अधिकारी ओलेग श्वार्त्समैन के रूस के एक व्यावसायिक समाचार पत्र में छपे साक्षात्कार से कुछ बातें डाली हैं। स्टूअर्मर का कहना है कि इस साक्षात्कार से 'आज के रूस में सत्ता की ताकत की कार्यप्रणाली की आंतरिक तस्वीर देखने को मिली है।'
असल में उन्होंने जो बताया, वह 'वैक्यूम क्लीनर प्रणाली' के रूप में जाना गया। उन्होंने अपने साक्षात्कार में कहा, 'यह वैक्यूम क्लीनर की तरह काम करता है, जो कंपनियों की परिसंपत्तियों को सोख कर ऐसे ढांचे में डाल देती हैं, जो जल्द ही सरकारी निगमों में तब्दील हो जाते हैं। इसके बाद इन परिसंपत्ति को पेशेवर अगुआओं के हाथों सौंप दिया जाता है। ये उपाय स्वेच्छा और अनिवार्यता दोनों तरीकों से लागू होते हैं... ये सरकार के हाथों में परिसंपत्ति के समेकन के लिए आज के दिशा-निर्देश हैं।'
बाकी किताब के लिए स्टूअर्मर ने गैजप्रॉम की ताकत और विकास के लिए रूस की तेल और गैस की कीमतों पर अनिश्चित निर्भरता पर रोशनी डाली है। उन्होंने देश के जनसांख्यिकीय संकटों, जिनमें आदमी ज्यादातर शराब पीने की वजह से मर रहे थे और जनसंख्या धीमी रफ्तार से बढ़ रही है, का भी जिक्र किया।
हैरत की बात है कि इसमें इस बात की भी चर्चा की गई है कि रूसी जनसंख्या कम हो रही है, जबकि मुस्लिमों की संख्या में इजाफा हो रहा है। गौरतलब है कि इस्लाम धर्म को लेकर वहां भेदभाव होता है। ऐसा ही भेदभाव हिटलर ने यहूदियों के खिलाफ किया था।
पुस्तक इस मायने में उपयोगी है कि इससे आपको रूस की समस्याओं के बारे में तत्काल जानकारी मिल जाती है। यदि पुतिन के रूस में वाकई आंतरिक जानकारी हासिल करनी हो तो पत्रकार ऐना पोलित्कोव्स्काया (जिनकी हत्या की गई) की पुस्तक हमेशा आदर्श रूप में देखी जाती है।



पुस्तक समीक्षा
पुतिन ऐंड दी राइज ऑफ रशिया
लेखक : माइकल स्टूअर्मर
प्रकाशक : हैशे इंडिया
कीमत : 650 रुपये
पृष्ठ : 253

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Thursday, July 16, 2009

नाबालिगों की रक्षा के लिए भी होता था धारा 377 का इस्तेमाल

"क्या यह मामला समलैंगिक संबंध रखने वालों की नैतिक विजय है, ऐसा मुश्किल से कहा जा सकता है। ऐसा एक भी मामला नहीं है जहां इस धारा का इस्तेमाल समलैंगिकों या सहमति से समलैंगिक संबंध बनाने वालों के खिलाफ किया गया हो।"

श्रीलता मेनन

समलैंगिक संबंधों पर पाबंदी लगाने वाली भारतीय दंड संहिता की धारा 377 को दिल्ली उच्च न्यायालय ने हाल में असंवैधानिक घोषित किया है।
यह फैसला ऐसे लोगों को जीत का झूठा अहसास दिला रहा है जिन्हें लगता है कि यह मामला समलैंगिक अधिकारों की रक्षा करने वाले लोगों और इसका विरोध करने वालों के बीच संघर्ष का था।
लेकिन यह मामला समलैंगिकों के अधिकारों से कतई संबंधित नहीं है। हकीकत तो यह है कि इस धारा का इस्तेमाल नाबालिगों की यौन उत्पीड़न से रक्षा करने में भी किया जाता रहा है।
अवकाश प्राप्त न्यायाधीश जे. एन. सल्डान्हा ने भी एक बार इस धारा का इस्तेमाल यौन उत्पीड़न के शिकार हुए 10 साल के बच्चे को इंसाफ देने में किया था और इस मामले में दोषी पाए गए एक तांत्रिक को 10 साल की कैद व 25 लाख रुपये के जुर्माने की सजा मिली थी।
न्यायमूर्ति सल्डान्हा का कहना है कि किशोर न्याय अधिनियम और बाल अधिनियम बच्चों की रक्षा के लिए मौजूद हैं, लेकिन इन अधिनियमों में यौन उत्पीड़न से बच्चों की रक्षा के लिए कठोर प्रावधान नहीं हैं। उन्होंने कहा - हालांकि यह मामला दिल्ली उच्च न्यायालय तक ही सीमित है, लेकिन अब बेहतर यही होगा कि इस धारा के बारे में बातचीत भूतकाल में ही की जानी चाहिए।
स्वतंत्रता एवं समानता के मौलिक अधिकार के आलोक में इस धारा को उच्च न्यायालय ने असंवैधानिक घोषित किया है। न्यायाधीश ने कहा कि ऐसे में कानूनी रूप से यह सभी अदालतों और भविष्य के मामलों को संदेह के घेरे में लाता है। अब नाबालिगों केलिए क्या बचा है?
क्या यह मामला समलैंगिक संबंध रखने वालों की नैतिक विजय मानी जाएगी, ऐसा मुश्किल से कहा जा सकता है। ऐसा एक भी मामला नहीं है जहां इस धारा का इस्तेमाल समलैंगिकों या सहमति से समलैंगिक संबंध बनाने वालों के खिलाफ किया गया हो।
लेकिन याचिका दाखिल करने वाले संगठन नाज फाउंडेशन का दावा है कि इस कानून की वजह से भारत में समलैंगिक संबंध रखने वाली महिलाओं और पुरुषों, उभयलिंगी और ट्रांसजेंडर लोगों को ब्लैकमेलिंग, उत्पीड़न और मौत का शिकार होना पड़ा है।


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हां... ओबामा कर सकते हैं!

किशोर सिंह

उन्हें यायावर कहा जा रहा था, जो किसी सर्द और अंधेरे कोने से भटकते हुए अमेरिकी राजनीति के मंच पर आ पहुंचे थे।
दो लगातार लड़ाइयों और आतंकी हमलों से टूट चुके, बेजार अमेरिका को उनकी शख्सियत तिलिस्मी लगी, एक पहेली, जिसे बूझने की कुव्वत उसके पास नहीं थी। इससे पहले डेमोक्रेटिक पार्टी मान चुकी थी कि राष्ट्रपति की कुर्सी अब हिलेरी क्लिंटन के लिए है।
हिलेरी ने तो बहुत पहले ही व्हाइट हाउस पर निगाह जमा भी ली थी। लेकिन अचानक हिफाजत और सेहत की बात फिजां में तैरने लगी और अमेरिका के डरे, सहमे वाशिंदों को लगा कि इन्हें हासिल करने के लिए अब बदलाव जरूरी है। बदलाव.. यानी बराक ओबामा।
रिचर्ड वोल्फ न्यूजवीक के वरिष्ठ संवाददाता हैं और एक वक्त फाइनैंशियल टाइम्स के साथ भी काम कर चुके हैं। उन्हें लगता है कि बराक ओबामा पर किताब लिखना इसलिए भी वाजिब है क्योंकि उनकी कहानी से अब तक लोग रूबरू नहीं हुए हैं। वोल्फ ने यह काम राष्ट्रपति पद की होड़ में शामिल होने के ओबामा के ऐलान के साथ ही शुरू कर दिया।
दिलचस्प है कि जिस तरह राजीव गांधी को प्रधानमंत्री पद की जिम्मेदारी संभालने से पहले सोनिया गांधी की मुखालफत का सामना करना पड़ा था, वैसा ही ओबामा के साथ भी हुआ। वोल्फ लिखते हैं, 'संसद तक पहुंचने की ओबामा की कोशिश 2000 में नाकाम हो चुकी थी, जिससे मिशेल को बेहद नफरत थी और उनकी छोटी बेटी के जन्म के समय उनकी शादी पर भी खतरा मंडरा रहा था।
उनके बीच बातचीत न के बराबर थी और रोमांस तो गायब ही हो गया था। मिशेल को ओबामा की खुदगर्जी और करियर के पीछे दौड़ने की फितरत से नफरत थी, जबकि ओबामा मानते थे कि उनकी पत्नी बेहद सर्द स्वभाव की और नाशुक्र किस्म की थीं।'
मिशेल की चिंता थी कि ओबामा का रोजमर्रा का कार्यक्रम कैसा होगा। वह घर पर कितना रुकेंगे? बेटियों और पत्नी के लिए उनके पास कितना वक्त होगा? क्या हफ्ते के आखिर में वह घर पर रुक पाएंगे? और उन्हें जवाब मिला - नहीं! इधर ओबामा ने तय कर लिया कि उन्हें चुनाव लड़ना है और उन्होंने वोल्फ को प्रचार अभियान पर लिखने की सलाह दी। वोल्फ की किताब 'द मेकिंग ऑफ बराक ओबामा' में 21 महीने का ब्योरा है, जिसमें वह 'उम्मीदवार ओबामा' के साथ चले और 'राष्ट्रपति ओबामा' के साथ व्हाइट हाउस पहुंचे। हरेक रणनीति में शामिल रहे, ओबामा के भाषणों, उनकी गलतियों, उनकी कमजोरियों, उनकी ताकत और अमेरिका को बदलने के उनके भरोसे को बेहद करीब से वोल्फ ने महसूस किया।
एकबारगी ओबामा ने वोल्फ से कहा, 'तुम्हें पता है, मेरे लिए भरोसे का क्या मतलब है? मैं केवल बदलाव के नाम पर बदलाव नहीं चाहता। मैं चाहता हूं कि बेघर बच्चों को अच्छे स्कूल मिलें। मैं सबके लिए सेहत चाहता हूं।'
जब ओबामा ने इओवा गुट का समर्थन हासिल किया, तो उनकी टीम में शामिल डेविड प्लॉफ ने कहा, 'यह राजनीति का होली ग्रेल है। (ईसाई धर्म में होली ग्रेल वह प्याला है, जिसका इस्तेमाल ईसा मसीह ने सूली पर चढ़ाए जाने से पहले अपने आखिरी भोजन में किया था।
इसे करिश्माई ताकत वाला माना जाता है और इसे पाने के लिए सदियों से कोशिशें चल रही हैं।)' लेकिन इस जबरदस्त जीत का खुमार एक ही झटके में उतर गया, जब न्यू हैंपशायर में ओबामा को शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा। लेकिन यहीं से ओबामा ने नारा दिया, 'हां, हम यह कर सकते हैं।'
21 महीने में अमेरिका की किस्मत बदल गई, 21 महीने में बराक ओबामा की भी किस्मत बदल गई। इस दरम्यान वोल्फ ओबामा की परछाईं बने रहे। उन्हें ओबामा को अमेरिका में सड़कों पर राजनीति की बिसात बिछाने वाले आयोजकों के सामने मुस्कराते देखा, मतदाताओं से हाथ मिलाते देखा, भाषण का अभ्यास करते देखा, अपने परिवार का इतिहास उसमें मिलाते देखा और अमेरिका के सामने पड़ी संभावनाओं की झांकी सबके सामने रखते हुए भी देखा।
ओबामा को थकान महसूस नहीं होती, वह बहुत बड़ा सोचते हैं, हार और जीत में भी सबक सीखते हैं, अपने परिवार को मीडिया की पैनी निगाहों से बचाना जाते हैं, शायद इसी वजह से अमेरिका ही नहीं दुनिया में बदलाव की बयार की ठंडक इस किताब में मौजूद है।


पुस्तक समीक्षा

द मेकिंग ऑफ बराक ओबामा
संपादन : रिचर्ड वोल्फ
प्रकाशक : वर्जिन बुक्स
कीमत : 13.99 पाउंड
पृष्ठ : 365

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Wednesday, July 15, 2009

बाबू मोशाय, बिहार से बजट में ऐसा भेदभाव!

सत्येन्द्र प्रताप सिंह
लोकसभा चुनाव के पहले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार को अपने पाले में शामिल करने की कोशिश करने वाली कांग्रेस ने सरकार बनने के बाद बिहार को निराश कर दिया है।
दरअसल चुनाव परिणाम आने के पहले कांग्रेस को खुद के गठजोड़ के दम पर सरकार बनने की उम्मीद नहीं थी और उस समय प्रधानमंत्री ने भी बिहार को सैध्दांतिक रूप से विशेष राज्य का दर्जा दिए जाने को समर्थन दिया। लेकिन प्रणब मुखर्जी ने अपने बजट से बिहारी बाबू के खासा नाराज कर दिया।
नीतीश कुमार ने कहा कि हमें उम्मीद थी कि राज्य के पिछड़ेपन और स्थानीय लोगों के पलायन को ध्यान में रखते हुए सरकार निश्चित रूप से बजट में अलग से सहायता का प्रावधान करेगी, लेकिन बजट में तो मनमोहन सरकार खुद के वादों से भी मुकर गई। कुमार ने कहा कि सरकार ने बिहार के विकास की जरूरतों को नहीं समझा।
अगर बजट में राज्यों को विशेष सहायता दिए जाने की सूची को देखें तो तमिलनाडु को श्रीलंका से आए विस्थापितों को बसाने के लिए 500 करोड़ रुपये, पश्चिम बंगाल में आइला तूफान से हुए नुकसान की भरपाई के लिए 1000 करोड़ रुपये, दिल्ली में कामनवेल्थ खेलों के लिए 16,300 करोड़ रुपये दिए गए, वहीं बिहार में कोसी नदी से आई बाढ़ को पिछली संप्रग सरकार के कार्यकाल में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने खुद राष्ट्रीय आपदा घोषित किया था और उस समय सहायता दिए जाने की बात कही गई।
उस सरकार में प्रमुख भागीदार रहे लालू प्रसाद केंद्र पर दबाव बनाने में सफल रहे थे, लेकिन वर्तमान संप्रग सरकार में बिहार की हिस्सेदारी खत्म हो गई और सरकार ने कोसी की बाढ़ से पीड़ित बिहार के लोगों के लिए कोई आर्थिक सहायता देने की जरूरत नहीं समझी।
राज्य सरकार ने बिहार की गरीबी और स्थानीय लोगों के दूसरे राज्यों में बढ़ते विस्थापन के आंकड़े देते हुए केंद्र सरकार से विशेष राज्य का दर्जा दिए जाने की मांग की थी। राज्य की उम्मीदें तब और प्रबल हो गई, जब राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद ज्ञापन करते हुए प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने राज्य के पिछड़ेपन को स्वीकारा, लेकिन बजट में विशेष श्रेणी या विशेष पैकेज जैसी कोई बात सामने नहीं आई।
यहां तक कि पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु के लिए हैंडलूम क्लस्टर की घोषणा की गई, लेकिन भागलपुर के हैंडलूम क्षेत्र की पूरी तरह से उपेक्षा कर दी गई। राज्य के वित्तमंत्री सुशील कुमार मोदी ने कहा कि राजस्व के मसले में भी केंद्र सरकार ने निराश किया है।
उन्होंने कहा कि अंतरिम बजट में बिहार के हिस्से 18,154 करोड़ रुपये आया था, लेकिन प्रणब मुखर्जी के 2009-10 के अंतिम बजट में इसे कम कर 18,909 करोड़ रुपये कर दिया गया। पिछले साल की तुलना में राज्य को दिए जाने वाले राजस्व में केवल 2.6 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है।
मोदी ने कहा कि इसके लिए मंदी का हवाला दिया जा रहा है, लेकिन इन्हीं परिस्थितियों में राज्य सरकार ने आंतरिक कर राजस्व में 20 प्रतिशत की बढ़ोतरी की है। उम्मीद थी कि राज्य को केंद्र की मदद मिल जाएगी, लेकिन बजट ने भी राज्य को निराश कर दिया।


ख्वाहिशें... जो नहीं हुई पूरी

विशेष राज्य का दर्जा

पिछड़ेपन और पलायन को देखते हुए विशेष पैकेज

कोसी नदी में आई बाढ़ के बाद पीड़ितों की मदद के लिए रकम

विशेष सड़क योजना के लिए सहायता

केंद्र सरकार के राजस्व में हिस्सेदारी बढ़ाना

भागलपुर को हैंडलूम क्लस्टर के रूप में आर्थिक मदद

किशनगंज में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय कैंपस खोलने के लिए
मदद


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