Thursday, April 23, 2009

हैं तो चुनावी मुद्दे, लेकिन पार्टियां उन्हें उठाती ही नहीं


अब दिल्ली को ही देखिए। शीला दीक्षित चुनाव जीत गईं। वाह, क्या बात है- तीसरी बार जीतीं। भाजपा ने मुद्दा भी क्या उठाया?? गजब की मरी पार्टी की तरह। कांग्रेस एक प्याज से सत्ता में आई थी, भाजपा ने सोचा कि सब्जियों को मुद्दा बनाकर वापस सत्ता पर काबिज हो जाएं। साथ ही बुझे मन से आतंकवाद का मसला भी उठाया, इस डर के साथ कि कहीं उनकी सरकार में हुआ संसद पर हमला जनता को न याद आ जाए। हुआ भी वही। जनता को याद रहा कि भाजपा के शासन में आतंकवाद भी था, सब्जी भी महंगी थी- बढ़िया है कि फिर से कांग्रेस को चुन लिया जाए।
अब ऐसा भी नहीं कि कांग्रेस ने कम नाश किया हो। आज स्थिति यह है कि आप अपने बच्चे को किसी मझोले दर्जे के निजी प्राथमिक स्कूल में पढ़ाना चाहते हैं तो ४०,००० (चालीस हजार) डोनेशन, ७,००० तिमाही के हिसाब से २८,००० (अट्ठाइस हजार सालाना) फीस रख लीजिए। इसके अलावा ८०० रुपये महीने के हिसाब से १०००० रुपया सालाना बस भाड़ा। कुल मिलाकर न्यूनतम ९०,००० रुपये चाहिए, तब जाकर आपका बच्चा एलकेजी से यूकेजी में पहुंच पाएगा। इस तरह से करीब ७,५०० रुपये महीना आपको अपने एक बच्चे के लिए कमाना होगा। लेकिन यह चुनावी मसला नहीं...
इसी तरह से दिल्ली में भूमाफिया और बिल्डर सक्रिय हैं। रही सही कसर प्रॉपर्टी डीलर पूरा कर देते हैं। अगर आप किसी लाल डोरा (स्लम) इलाके में कमरा किराये पर लेना चाहते हैं तो २ कमरे का ६,००० रुपया महीना किराया देना होगा। दलाल को हर साल ६,००० रुपये दलाली देनी होगी। किसी भी प्लैट की कीमत दिल्ली के बाहरी इलाकों में भी २ कमरे का २० लाख रुपये से कम नहीं है। लूट मची है। लेकिन यह भी चुनावी मसला नहीं...
दिल्ली सरकार के शिक्षा मंत्री खुद स्कूल चलाते (शिक्षा माफिया??) हैं, उन्हें शायद किसी से भी ज्यादा पता है। भाजपा शायद इसलिए इसे मुद्दा बनाना नहीं चाहती होगी कि उसे भी किसी शिक्षा माफिया को शिक्षा मंत्री और शहरी विकास मंत्रालय किसी भूमाफिया या बिल्डर को देना हो....

Sunday, April 19, 2009

मीडिया बिकता है... बोलो खरीदोगे???

इन दिनों आईपीएल क्रिकेट चल रहा है। इसका पूरा नाम इंडियन प्रीमियर लीग था, जो इस समय दक्षिण अफ्रीका में हो रहा है। इसके बारे में और ज्यादा बताने की जरूरत नहीं कि इसमें कौन से खिलाड़ी होते हैं, कैसी टीम होती है। यह सब कुछ मीडिया में आ रहा है।

परदे के पीछे की बात यह है कि एक महीने के आईपीएल का अनुमानित कारोबार २००० करोड़ रुपये का है। इस कारोबार में सभी चैनल, अखबार साथ देने में लगे हैं। स्वाभाविक है कि इसका विग्यापन बजट कम से कम कुल पूंजी का २० प्रतिशत तो होगा ही। यानी ४०० करोड़ रुपये। अगर इस विग्यापन राशि को ४० मीडिया हाउस में बांट दें तो एक एक का हिस्सा आता है, १० करोड़ रुपये। मंदी के इस दौर में अगर एक महीने में १० करोड़ की आमदनी किसी मीडिया हाउस को हो जाए, तो अच्छा मुनाफा हुआ न... खासकर ऐसे में जब एक मीडिया हाउस की कुल पूंजी (अगर ५ बड़े मीडिया हाउस को निकाल दें) तो ५०० करोड़ रुपये के आसपास आएगी। ऐसे में अखबारों में क्यों न छा जाए आईपीएल। इस हद तक कि लोगों को आईपीएल का बुखार चढ़ जाए।


आखिर अखबारों- चैनलों को भी तो कारोबार करना है। चुनावी विग्यापन तो आ ही रहे हैं। इसका कुल विग्यापन भी ४००-५०० करोड़ के आसपास ही होगा। इसमें नेताओं को गरियाने का भी मौका मिलता है। सभी विग्यापन देते हैं इसलिए। लेकिन आईपीएल के मामले में तो ऐसा नहीं है, उसका बुखार जनता पर चढ़ाने का ठेका मिला है, उसका समर्थन करने के लिए विग्यापन मिला है।अब आपको लग रहा है न कि कितनी सस्ती है हमारी मीडिया....

Thursday, April 16, 2009

पड़ रहे हैं जूते, चप्पल और खड़ाऊं

अब लौह पुरुष लाल कृष्ण आडवाणी के ऊपर खड़ाऊं फेकी गई। फेकने वाले का कहना है कि आडवाणी लौह पुरुष नहीं, दोमुहें व्यक्ति हैं। कहीं ऐसा तो नहीं कि कार्यकर्ता ने यह देखने के लिए लकड़ी की चप्पल चलाई कि आडवाणी सचमुच लोहे के हैं या नहीं। उसने सोचा कि अगर लोहे के होंगे, तो धातु से लकड़ी के टकराने पर अलग आवाज आएगी और पता चल जाएगा कि वह लोहे के बने हैं या नहीं। बहरहाल...

भारत में जूता फेंको अभियान की शुरुआत एक वरिष्ठ पत्रकार जरनैल सिंह ने की। कांग्रेस ने सज्जन कुमार और जगदीश टाइटलर का टिकट काट दिया। सूत्रों के मुताबिक कांग्रेस ने टिकट काटने के बाद महसूस किया कि १२ बजे प्रेस कांन्फ्रेंस आयोजित होने के चलते जरनैल सिंह को गुस्सा आया।

वहीं कांग्रेस सांसद के ऊपर शिक्षक ने इसलिए जूता चलाया कि वह दारू पिए था। नवीन जिंदल ने तुरंत पकड़ लिया। लेकिन असली वजह स्पष्ट नहीं है।

अब कहीं ऐसा न हो कि जूता-चप्पल चलाकर लोकप्रियता पाने की कोशिश करने वालों के भाग्य का फैसला नेता के समर्थक ही कर दें और उनकी जमकर धुनाई हो जाए???

Friday, April 10, 2009

वॉर्न की गुगली पर आउट हुए 100 क्रिकेटर

सुवीन सिन्हा


किताब में गांगुली को जहां 96वें स्थान पर रखा गया है, वहीं पूर्व क्रिकेटर कपिल देव 43वें स्थान पर हैं।

इस किताब के शीर्षक पर ज्यादा सोच-विचार मत कीजिएगा। यह किताब उन 100 क्रिकेट खिलाड़ियों के बारे में नहीं है, जिनके साथ या खिलाफ शेन वॉर्न ने कमान संभाली थी। असलियत में यह किताब खुद शेन वॉर्न के बारे में है।
यह क्रिकेट से संन्यास ले चुके ऑस्ट्रेलिया के लेग स्पिनर का एक तरीका है, जिसके जरिए वह दुनिया को अपने नजरिये के बारे में बताते हैं। निश्चित तौर पर उनके करियर में भी काफी उतार-चढ़ाव रहे होंगे।किताब को पिछले साल ब्रिटेन के एक अखबार 'टाइम्स' में छपी उस फेहरिस्त का अगला भाग भी कह सकते हैं, जिसमें उनके समय के 50 क्रिकेटरों का जिक्र किया गया है। इस सूची के छपने से एक उत्तेजना पैदा होती है। इसे वॉर्न के अपनी टीम और दूसरी टीमों में अपने प्रतिद्वंद्वियों के साथ हिसाब चुकाने के एक तरीके के रूप में भी देखा गया था। इस किताब से ऐसा लगता है जैसे वार्न टॉप 50 के छपने के बाद से कुछ नरम हो गए हों। इस किताब ने वॉर्न को एक मंच भी दिया है, जिसके जरिये उन्होंने अपने फैसलों के लिए सफाई भी दी है। जैसे आखिर सचिन तेंदुलकर ब्रायन लारा से रैंक के मुकाबले में आगे क्यों हैं। टाइम्स के टॉप 50 में कुछ ऐसे भी चेहरे थे, जिनका जिक्र वॉर्न नहीं कर पाए थे, लेकिन उन्होंने वॉर्न की इस किताब में अपनी जगह जरूर बना ली है। इस किताब में 100 नाम हैं। किताब में फेहरिस्त के मुकाबले दोगुनी जगह मिलनी है।

इस फेहरिस्त में श्रीलंका के खिलाड़ी अर्जुन रणतुंगा को 93वां स्थान मिला है, जिनके साथ वॉर्न (और दूसरे ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों) की लंबी बहस हुई थी। यह अलग बात है कि रणतुंगा इस किताब में अपने नाम को अंत में भी शामिल कराना नहीं चाहते हों क्योंकि वॉर्न ने उनके बारे में कहा था कि 'उन्हें देखकर ऐसा लगता है, मानो उन्होंने पूरी भेड़ खा ली हो।'मजे की बात तो यह है कि वॉर्न भी कभी दुबले-पतले नहीं रहे और वजन घटाने के लिए उन्होंने दवाओं तक का इस्तेमाल किया और जब पकड़े गए तब उन पर प्रतिबंध लगा दिया गया।वॉर्न की इस किताब में शामिल होने का सम्मान दो कप्तान को हासिल हुआ। दूसरे कैप्टन सौरव गांगुली रहे, जो रणतुंगा की ही तरह ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ियों का दर्द बन गए। इस किताब में उन्हें रणतुंगा से 3 पायदान नीचे 96वें पायदान पर रखा गया है।

वॉर्न ने किताब में गांगुली के बतौर कप्तान और खिलाड़ी कुछ ऐसे वाकयों को लिखने का मौका नहीं गंवाया जहां उन पर उंगली उठाई जा सके। जहां दुनिया ऑफ-साइड मंद गति से खेलने वाले गांगुली की तारीफ करती नहीं थकती, वहीं वॉर्न ने काफी भद्र व्यवहार के साथ कहा, 'मैं पूरी तरह से तो नहीं, लेकिन हां, काफी हद तक यह कह सकता हूं कि औरों के मुकाबले वह लगातार बेहतर खेलते थे और असलियत में यह उनका एक गुण था।' वॉर्न के शब्दों में गांगुली की कप्तानी कुशलता के लिहाज से बेहद अच्छी तो नहीं कही जा सकती और वह अपने खिलाड़ियों का शानदार तरीके से इस्तेमाल नहीं कर पाए। इन दोनों कप्तानों के नाम के इस फेहरिस्त में शामिल होने के साथ ही वार्न का एक अहम मकसद भी पूरा हो गया।

टाइम्स में छपी उनकी टॉप 50 की फेहरिस्त के लिए उनकी आलोचना की गई थी कि इसमें सिर्फ उनके साथियों का ही नाम शामिल किया गया है। इस किताब में आगे कुछ विक्टोरिया की तरफ से खेलने वाले उनके साथियों के नाम भी शामिल हैं, हालांकि मर्व ह्यूज को वार्न ने 18वें पायदान पर रखा है, जबकि कपिल देव (43वें), वकार यूनिस (31वें), ऐलन डोनाल्ड (36वें) उनसे काफी नीचे हैं।हालांकि वार्न ने अपने ही कप्तान स्टीव वॉ की रेटिंग (26 वें) ऐसी की है कि कुछ भी कहा नहीं जा सकता। वॉ भाइयों में से बड़ा भाई अपने समय में सबसे साहस वाला बल्लेबाज माना जाता था। उन्हें संकटमोचक खिलाड़ी कहा जाता था, जिसके मैदान पर रहते टीम को मैच अपनी मुट्ठी में रहने का भरोसा होता था।छोटे भाई मार्क वॉ को इस फेहरिस्त में 9वें पायदान पर रखा गया है। 1990 के दशक के बीच में जब ऑस्ट्रेलिया की टीम वेस्ट इंडीज को उसी की जमीन पर पछाड़ कर सबसे बेहतर टेस्ट टीम बनी थी तो उसकी वजह स्टीव वॉ की बल्लेबाजी थी। वॉ की कप्तानी में ऑस्ट्रेलियाई टीम एक नए मुकाम पर पहुंची और टेस्ट क्रिकेट की शक्ल ही बदल गई। उसमें इतनी तेजी से रन बनाए जाने लगे कि मैच ड्रॉ होने का सवाल ही नहीं रहा।हालांकि वॉ की तारीफ में पढ़े जाने वाले कसीदे ऐलन बॉर्डर (चौथा पायदान) और मार्क टेलर (12वां पायदान) से पहले ही खत्म हो गए। वॉ के करियर की शुरुआत इन्हीं दो कप्तानों के साथ हुई, जिनके हाथों में ऑस्ट्रेलियाई टीम की कमान थी। ये भी इत्तेफाक है कि वॉ के कप्तान बनते ही वॉर्न को कप्तानी मिलने की उम्मीद खत्म हो गई और ये दोनों कभी बहुत अच्छे दोस्त नहीं रहे।लेकिन जैसा वॉर्न ने एक जगह कहा भी है, आखिरकार ये उन्हीं की किताब है। और इसमें आपको वही पढ़ने को मिलेगा जो वॉर्न चाहते हैं।


पुस्तक समीक्षा

शेन वर्र्न्स सेंचुरी: र्माई टॉप 100 टेस्ट क्रिकेटर्स

लेखक: शेन वॉर्न

प्रकाशक: मेनस्ट्रीम पब्लिशिंग

कीमत: 525 रुपये

पृष्ठ: 320



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Thursday, April 9, 2009

मुकाबला करें, पर पर्यावरण को रखें याद

सुबीर रॉय

इस किताब का महत्त्व इसके प्रकाशन के इतिहास में छुपा हुआ है।

लेखकों को याद है कि वर्ष 2006 में इस किताब को इस उम्मीद के साथ प्रकाशित किया गया था कि कारोबारियों को उनकी रणनीतियों में पर्यावरण को शामिल करने के लिए प्रेरित किया जा सकेगा।
इस किताब के प्रकाशन का समय बिल्कुल उपयुक्त ही नहीं रहा, बल्कि इसका प्रभाव लेखकों की उम्मीदों से काफी अधिक दिखाई दिया। पहले जहां शायद ही कोई इक्का-दुक्का कंपनी पर्यावरण के जोखिमों और उसकी लागत पर ध्यान देती थी, वहीं अब ज्यादा से ज्यादा कंपनियां पर्यावरण के साथ लगातार विकास करने और मुनाफा कमाने की राह देख रही हैं।
इस संशोधित पेपरबैक संस्करण में लेखकों ने वाकयों पर नजर डालते और अध्ययन के दौरान कॉर्पोरेट जगत के नवीन चलनों का जिक्र किया है और नई सामग्री को इसमें शामिल किया है। अगर आम तर्क को देखें तो उसमें कोई बदलाव नहीं हुआ है, बल्कि वह पहले के मुकाबले और भी कड़ा और मजबूत हो गया है।

पहले जब यह किताब लिखी गई थी और अब जब इसका संशोधित संस्करण पढ़ने को मिल रहा है तब यह बात कंपनियों के लिए 'अनिवार्य' हो गया है कि वे उनकी कारोबारी रणनीति में पर्यावरण और निरंतरता पर ध्यान दें।
येल आए दोनों लेखकों के रास्ते तो अलग-अलग हैं, लेकिन दोनों की एक समान चिंता का विषय है। डेनियल एस्टी अमेरिका की पर्यावरण सुरक्षा एजेंसी से आए हैं और उन्होंने कंपनियों के साथ उनकी रणनीतियों में सुधार के लिए 15 साल का अपना वक्त दिया है। वहीं दूसरे लेखक ऐंड्रयू विंस्टन ने मार्केटिंग एवं रणनीति में अपने 10 साल दिए हैं।

वर्ष 2003 में येल में बतौर फैकल्टी इन दोनों को एक साथ कॉर्पोरेट की पर्यावरण संबंधी रणनीति को परखने का काम मिला और इन चीजों के साथ-साथ यह किताब भी इसी शोध का नतीजा है। अपने इस शोध के लिए लेखकों ने 300 से भी अधिक लोगों और 100 कंपनियों से बातचीत की थी।
किताब की शुरुआत ही इस बात से होती है कि कैसे और क्यों पर्यावरण सभी आकार के कारोबारों के लिए एक गंभीर रणनीतिक मुद्दे के रूप में उभर कर आया। इसके बाद किताब में ही पर्यावरण संबंधी प्रमुख कंपनियों की पर्यावरण-अनुकूल रणनीतियों का विश्लेषण किया गया है।

इस तरह से दुनिया की ऐसी 50 कंपनियों की पहचान की गई हैं, जो पर्यावरण-अनुकूल बने रहने के लिए अपनी कारोबारी रणनीतियों में इस मुद्दे को गंभीरता से लेती हैं। इनमें से 25 अमेरिका की हैं जबकि बाकी दुनिया के अलग-अलग कोने में हैं।
अमेरिका की कंपनियों की फेहरिस्त में जॉनसन ऐंड जॉनसन, डुपॉन्ट, डाऊ, एचपी, फोर्ड, स्टारबक्स, इंटेल और मैकडॉनल्ड्स शामिल हैं। अंतरराष्ट्रीय फेहरिस्त में बीपी, शेल, टोयोटा, सोनी, यूनिलीवर, लाफार्ज, ऐल्कैन और सीमेंस शामिल है।

प्रमुख कंपनियों ने अपने खर्च कम किए हैं और अपनी पूरी शृंखला में पर्यावरण सबंधी खर्चों में कटौती की है। इसके अलावा उन्होंने उनके परिचालन कार्यों, आपूर्ति शृंखला, में पर्यावरण संबंधी और नियामक जोखिमों को पहचान कर उन्हें कम किया है और ऐसे उत्पादों को लोगों तक पहुंचाया है जो पर्यावरण के लिहाज से बेहतर है और ग्राहकों की ओर से पसंद किए जाते हैं।
ऐसे उत्पादों की बिक्री से उन्होंने कमाई करने की कोशिश भी की है। इसी के साथ उन्होंने पर्यावरण अनुकूल होने के अपने मार्केटिंग प्रयासों के जरिये ऐसी ब्रांड वैल्यू बनाई है जो बेशक दिखाई नहीं देती हो, लेकिन इसके फायदे कंपनियों को खूब होते हैं। ऐसी कंपनियों के साथ आज ग्राहक जुड़ने के बारे में सोचते हैं।

हरियाली से कमाई का खेल खेलने में महारत हासिल करने के लिए कंपनियों को सबसे पहले एक मानसिकता अपनाने की जरूरत है और उन्हें कॉर्पोरेट रणनीति में पर्यावरण संबंधी सोच पर ध्यान देने की जरूरत है। इसके लिए उन्हें उनके पर्यावरण संबंधी प्रदर्शन का जायजा लेने और ऐसे मामलों को समझने की जरूरत है, जिनसे वे प्रभावित होते हैं।
इसके बाद उन्हें अपनी पूरी शृंखला में बदलाव लाने और उन्हें ऐसी पर्यावरण अनुकूल संस्कृति का विकास करने की जरूरत है जो ऊपर से नीचे तक हर जगह उनकी कंपनी में फैल जाए। पर्यावरण अनुकूल रणनीति में छोटी-मोटी अड़चनों पर नहीं बल्कि अल्पावधि-मध्यावधि और दीर्घावधि पर ध्यान देना चाहिए।

इन कंपनियों ने तेजी से उभरते हुए एक अहम सच 'अर्थव्यवस्था और पर्यावरण आपस में गहरे जुड़े हुए हैं' पर अपनी प्रतिक्रिया दी और लेखकों ने यह अनुमान लगाया कि जल्द ही 'कोई भी कंपनी अपनी रणनीति में पर्यावरण संबंधी मामलों को शामिल किए बगैर उद्योग में अपना दबदबा कायम नहीं कर पाएगी और लगातार मुनाफा भी नहीं कमा पाएगी।'
यह मुख्यतया दो कारणों से होगा- प्रदूषण और प्राकृतिक संसाधनों का अभाव और 'ऐसे लोगों का समूह जो कारोबारी समुदायों को इस दिशा में कदम उठाने के लिए मजबूर कर रहा है।' आमतौरपर सिविल सोसायटी और खासतौर पर पर्यावरण संबंधी गैर-सरकारी संगठन एक दबाव बनाने वाले संगठन के रूप में उभरे हैं। '


ई-मेल, वेब, सोशल नेटवर्किंग और दूसरे आधुनिक संपर्क से जुड़ी प्रौद्योगिकी के बिना गैर-जिम्मेवार कंपनियों के खिलाफ एक साथ कदम उठाना कभी आसान नहीं होता। और सक्रिय हिस्सेदारों, जिनमें बड़ी संख्या में मुख्यधारा की निवेशक कंपनियां भी शामिल हैं, के कानों में उनकी आवाज पड़ने लगी है।' इससे कई अलग-अलग उद्योगों के भविष्य पर प्रभाव पड़ रहा है।
कोयले का क्या होगा? अगर यह उद्योग जीवित रहा तो क्या आगे भी बना रहेगा? अध्ययन में यह भी बताया गया है कि कंपनियों को पर्यावरण अनुकूल बनने के लिए क्या-क्या करना पड़ा। ऐल्कैन ने 22.5 करोड़ डॉलर जितनी बड़ी रकम जहरीले अपशिष्ट पदार्थ, जो एल्युमीनियम बनाते हुए खांचों के नीचे जमा हो जाता है, को दोबारा इस्तेमाल के लायक बनाने में खर्च करने पड़े।

इतने से न सिर्फ ऐल्कैन के अपशिष्ट की समस्या का समाधान नहीं निकला, बल्कि कंपनी प्रतिद्वंद्वियों के अपशिष्ट को भी एक कीमत लेकर खत्म कर सकती है। टोयोटा 21वीं शताब्दी की कार पर दोबारा नजर डाल रही है और कंपनी ने हाइब्रिड प्रियस का प्रयोग किया है, जिसके लिए ग्राहक इंतजार करने और मोटी रकम देने को भी तैया होंगे।
ट्रैक्टर बेचने वाले जॉन डीरे ने किसानों की फसल के लिए पवन ऊर्जा का इस्तेमाल करने के लिए मदद को एक इकाई लगाई है। और पर्यावरण अनुकूल रणनीति में जबरदस्त प्रभाव दिखाई देगा, जब बड़े कारोबारी जैसे वॉल-मार्ट और मैकडॉनल्ड्स अपनी आपूर्ति शृंखलाओं में पर्यावरण संबंधी रणनीतियों को लागू करेंगे।

कारोबार के लिए दुनिया बदल रही है, क्योंकि पर्यावरण को लेकर लोगों में जागरूकता बढ़ रही है और नियामक इस दिशा में कदम भी उठा रहे हैं। भला इसमें भारतीय आंकड़े क्या कहते हैं? इस मामले में देश निश्चित रूप से सार्वजनिक जागरूकता और नियामक स्तर पर काफी लंबा रास्ता तय करके आया है, क्योंकि इंदिरा गांधी ने अकेले ही साइलैंट वैली के खात्मे को रोक दिया था।

बाजवूद इसके अब भी काफी लंबा रास्ता तय करना बाकी है। कई कारोबार पर्यावरण संबंधी चिंताओं को रास्ते में बाधा मानते हैं और यहां तक कि कई प्रबंधक अपनी परियोजनाओं के मामले में पर्यावरण संबंधी अनुमति को एक बाधा बताते हैं। आईटीसी को वेवराइडर बनने की चाहत है और वह दिन काफी अहम होगा, जब अंतरराष्ट्रीय 25 कंपनियों की फेहरिस्त में इसका नाम भी शामिल होगा।


ग्रीन टु गोल्ड

संपादन: डेनियन सी एस्टी और ऐंड्रयू एस विंस्टन

प्रकाशक: वाईयूपी

कीमत: 19.95 डॉलर

पृष्ठ: 380

Wednesday, April 8, 2009

फिल्म नगरी से सेट की दुनिया तक

अभिलाषा ओझा

मीडिया और मनोरंजन उद्योग पर लगातार नजर बनाए हुए पत्रकारों को अनिल सारी की हिंदी सिनेमा : ऐन इन्साइडर्स व्यू काफी आकर्षक लगेगी।


यह किताब स्वर्गीय सारी के देश के प्रमुख समाचार पत्रों और आज अपनी पहचान को तरस रहीं कुछ पत्रिकाओं में छपे लेख व निबंधों का संग्रह है। सारी के वर्ष 2005 में आकस्मिक निधन के बाद प्रकाशित इस किताब के प्रति लगाव और भी बढ़ जाता है, क्योंकि यह भारत के काफी वरिष्ठ फिल्म आलोचकों में से एक की सोच को सबके सामने लाती है।
इस किताब में फिल्म उद्योग पर बारीकी से नजर डाली गई है, जिस कारण हिंदी सिनेमा सभी को पसंद आए ऐसा नहीं है। सीधे-सीधे कहें तो कंटेंट के मामले में यह काफी मजबूत है और इसमें काफी व्यापक शोध दिखाई देता है। 'इन्साइडर्स व्यू' होने के बावजूद इसमें फिल्मी दुनिया की चकाचौंध का अंश भी नजर नहीं आता, जो आमतौर पर हिंदी सिनेमा से जुड़ा हुआ है।
दूसरे शब्दों में कहें तो सारी की किताब लेखन के लिहाज से सबसे बढ़िया के स्तर पर नहीं पहुंच पाई है, खासतौर पर 'रैग्स टु रिचेस स्टोरीज मेड रियल - को पढ़ते-पढ़ते मुझे नींद आने लगी।' लेकिन इस किताब को पढ़ने के दौरान शायद ही ऐसा लगा हो कि लेखक को अपने हिंदी फिल्मों पर अनगिनत विचारों को पाठकों तक पहुंचाने में मुश्किल आई हो।
साथ ही चूंकि भारतीय फिल्मों पर बहुत सारी अकादमिक किताबें तो मौजूद नहीं हैं, इसलिए हिंदी सिनेमा कम से कम चयनित मीडिया वर्ग में उत्तेजना तो पैदा कर पाई है। सच तो यह है कि मैं हाल ही में किताब के साथ फिल्म निदेशक दीपा मेहता से मिली और उन्होंने तुरंत ही किताब का नाम लिखना शुरू कर दिया, यह कहते हुए कि वह भी इस किताब को खरीदना चाहती हैं।
पुस्तक का सबसे मजबूत पहलू यही है कि इसमें एक ऐसे पत्रकार के लेख और निबंध प्रस्तुत किए गए हैं, जिसने सिर्फ और सिर्फ भारतीय सिनेमा को समझाने के लिए इन्हें लिखा। इससे भी अहम बात यह है कि उसने भारतीय सिनेमा के हरेक पहलू का भरपूर लुत्फ उठाया था।
खुद को गुरु दत्त के प्रशंसक कहने वाले सारी ने अपनी किताब में भी 'दी मेकर्स ऑफ पॉपुलर सिनेमा' के तहत 'अ चेला सैल्युट्स गुरु दत्त' प्रकाशित किया है। उनके यहां प्रकाशित सभी लेखों या निबंधों में देखा गया है कि उन्होंने फिल्मों के प्रारूप का अध्ययन किया है और देश में अमीर-गरीब तबकों में होने वाले बदलावों के साथ उन्हें जोड़ कर देखा है। इससे भी ज्यादा अक्सर अपने लेखों में जादू बिखेरते हुए वे हिंदी फिल्मों की चमक-धमक के पीछे छिपे तर्कों पर पाठकों को पूरी तरह सहमत कर पाने में भी सफल रहे।
मिसाल के तौर पर फिल्म 'प्यासा' के यादगार गीत 'ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो क्या है' के अध्ययन में लेखक के मुताबिक, '....इस गाने की आत्मा पीछे चली जाती है... कबीर के पास और उस समय में जब सभी उलझनों से निपटने के लिए लोग भक्ति की शरण में पहुंचते हैं। और उस समय जब माया की काल्पनिक दुनिया की तरफ भारतीयों के भावों में।'
सेटों पर आकर्षित रिपोर्टें, शूटिंग की जगहों और फिल्मों के शेडयूल को जिस तरह उन्होंने अपने काम में बुना है- उसका जिक्र भी हिंदी सिनेमा में मिलता है। इससे ज्यादा क्या हो सकता है कि जिस सिनेमा को आज हम देख रहे हैं उसमें वह जीवंत हो उठता है। साथ ही इस किताब के जरिये मुंबई फिल्म नगरी की कम दिखलाई देने वाली झलक मिल जाती है और साथ ही यह भी पता चलता है कि वह काम कैसे करती है।
इस किताब में से मेरा एक पसंदीदा निबंध है, 'आर्किटेक्चर ऑफ इल्यूजन' जो एक राष्ट्रीय दैनिक में 1994 में प्रकाशित हुआ था। इस समाचार पत्र में सारी काम किया करते थे। जहां उन्होंने हिंदी फिल्मों में कला निर्देशकों के योगदान का जिक्र किया है, वहीं उन्होंने 'धड़कनों को थमा देने वाले आर्किटेक्चरल विशाल सेट' पर भी अपना अनुभव पाठकों के साथ बांटा है।
यह विशाल सेट बतौर निर्माता टुटु शर्मा की फिल्म 'राजकुमार' का था, जिसमें माधुरी दीक्षित और अनिल कपूर ने काम किया था, लेकिन किसी को यह मालूम नहीं था कि यह फिल्म हिंदी सिनेमा की सबसे बड़ी असफल फिल्म रहेगी।
इस फिल्म के लेखक विनय शुक्ला के मुताबिक, 'दो राज घरानों की दुश्मनी पर आधारित यह फिल्म राजस्थानी पृष्ठभूमि पर बनाई गई है।' उनका यह दावा था कि फिल्म रिकॉर्ड बनाएगी, लेकिन उनके यह दावे धराशायी हो गए। फिल्म के सेट पर मौजूदा बीबीसी की एक यूनिट के शब्दों में, '7,000 लकड़ी के लट्ठे, जिन पर मिस्र शैली में नक्काशी थी और जिन्हें ग्रीको-रशियन खंभों में तब्दील किया गया, शूटिंग के समाप्त होने पर लगभग 30 दिन बाद मिट्टी में मिल गए।'
चार भागों में बंटे हुए हिंदी सिनेमा में 35 लेखों का संग्रह है। ये चार भाग हैं: 'दी एस्थेटिक फाउंडेशंस ऑफ दी हिंदी फॉर्मूला फिल्म', 'थीम्स ऐंड वैरियेशंस ऑफ इंडियन सिनेमा', 'पर्सपेक्टिव्स ऑन इंडियन सिनेमा' और 'मेकर्स ऑफ पॉप्युलर सिनेमा'।
इस किताब को पढ़ने के बाद दिल में सिर्फ एक ही ख्वाहिश उठती है कि काश सारी से बात करना संभव होता। 'हिंदी सिनेमा : ऐन इन्साइडर्स व्यू' एक ऐसा संवाद है जिसकी शुरुआत बेहद खूबसूरत है और पाठक का मन होता है कि यह आगे भी जारी रहना चाहिए। इसीलिए तो इसे अच्छी किताब की संज्ञा दी जा सकती है।

पुस्तक समीक्षा

हिंदी सिनेमा: ऐन इन्साइडर्स व्यू

लेखक : अनिल सारी

प्रकाशक : ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस

कीमत: 495 रुपये

पृष्ठ: 6 + 222


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Tuesday, April 7, 2009

'खुलासे' का किया खुलासा

ए. के. भट्टाचार्य

देश में 24*7 टेलीविजन समाचार चैनलों की मौजूदगी दर्ज होने से बहुत पहले ही अंग्रेजी में भारत की पहली विडियो समाचार पत्रिका पेश करने का श्रेय मधु त्रेहन को जाता है। मधु ने बेहतर शोध के बाद उस समय मौजूदा सरकार के चेहरे पर से पर्दे हटाने वाले मीडिया प्रयासों पर एक किताब लिखी है।

साथ ही उनकी यह किताब सभी को हमारी लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं, प्रणालियों और संस्थानों की खूबियां और खामियों से रूबरू कराती है। उनकी किताब का विषय एक वेबसाइट,तहलका की ओर से किया गया स्टिंग ऑपरेशन है।

13 मार्च, 2001 को देशभर का मन खट्टा हो गया, क्योंकि उस दिन केंद्रीय सत्ता में मौजूद नेताओं का ऐसा मिलन देखने को मिला था, जिसमें उन्हें पैसे लेते हुए या फिर उनकी जुबानी उनकी पार्टियों के लिए पैसे लेते हुए सुना गया।

उन्होंने ये पैसे लिए भी तो उस व्यक्ति से, जिसका दावा था कि वह एक हथियारों का कारोबार करने वाली कंपनी का एजेंट है। तहलका की टेपों ने उससे कहीं ज्यादा खुलासा किया- एक सेना अधिकारी और उसके सहायक कुछ हजार रुपयों और एक महिला के साथ के बदले गुप्त दस्तावेज एजेंट को सौंप रहे थे।

तहलका खुलासे के बाद जो हुआ वह भी कम नहीं था। जहां कैमरे में कैद कुछ नेताओं पर ऐसा दबाव बनाया गया कि वे अपने-अपने इस्तीफे दे दें। जांच में सेना अधिकारियों को भी दोषी पाया गया और उन्हें निकाल दिया गया, वहीं दूसरी तरफ सरकारी तंत्र हरकत में आ गया ताकि पता चल सके कि कहीं इस 'स्टिंग' ऑपरेशन के पीछे कोई साजिश तो नहीं।

एक आयोग की जांच-पड़ताल साजिश को ध्यान में रखकर शुरू हुई, जिसके साथ इस खुलासे की योजना बनाने वाले सभी पत्रकारों पर हर तरह के दबाव डाले जाने लगे। तहलका के निवेशकों को काफी प्रताड़ित किया गया और उन्हें आर्थिक अपराधों को अंजाम देने के लिए आरोपी ठहराया गया। इसके लिए उनमें से एक को जेल तक भेजा गया।

जैसा कि त्रेहन अपनी इस किताब में कहती हैं, तहलका टेपों और उसके बाद के मामलों से पता चलता है कि भारत का प्रशासन तंत्र कितना दूषित हो चुका है। ऊंचे पदों पर जिनमें सत्ताधारी पार्टी के राजनेता भी शामिल हैं, भ्रष्टाचार अपने पैर पसार चुका है।
लेकिन जब कभी भ्रष्टाचार के इस तरह के मामले सामने आते हैं, सरकार को भारी चोट लगती है और वह अक्सर मामले का भांडा फोड़ करने वाले को चुप कराने के अपने प्रयास में सफल भी हो जाती है।

लोगों की स्मृति में ये मामले जल्द धुंधले पड़ जाते हैं और भारतीय मीडिया कभी-कभार ही इस तरह के मामलों की गहराई में जाता है। कोई कभी इस ओर ध्यान नहीं देता कि सरकार ने अपनी शक्तियों का दुरुपयोग तो नहीं किया और सरकार की ओर से पत्रकारों को किसी भ्रष्टाचार के मामले का खुलासा करने से रोकने के लिए लुभाने की कोशिश तो नहीं की गई या मीडिया की ओर से भ्रष्टाचार का खुलासा करने का तरीका सही था या नहीं।

यह जानकारी मिलने से पहले ही मीडिया किसी दूसरी बड़ी घटना या अगले घोटाले को कवर करने के लिए आगे बढ़ जाता है। फलस्वरूप, कोई यह नहीं जान पाया कि क्या तहलका खुलासे के पीछे वाकई कोई साजिश थी और क्या तहलका के निवेशकों के खिलाफ सरकारी कार्रवाई करना उचित था या नहीं।

त्रेहन की यह किताब तहलका 'स्टिंग' ऑपरेशन के करीबी मामलों पर हमारी समझ, हमारी सोच के अंतर को भरने के लिए एक गंभीर प्रयास है। उन्होंने तहलका और इस खुलासे से जुड़े लोगों के साथ 40 साक्षात्कारों का सहारा लिया है।
इस प्रक्रिया के दौरान हमें 'स्टिंग' ऑपरेशन को अंजाम देने वाले कुछ पत्रकारों (वाकई वे पत्रकार थे?) के बारे में जानने का मौका मिला है। हमने जाना कि प्रेस काउंसिल की आचार संहिता से कैसे कुछ संपादक अपरिचित हैं ।

कैसे सरकारी वकील आरोपी को जमानत नही दिए जाने की खातिर अदालतों को मना पाने में कामयाब रहे या तहलका टेप में जिनके चेहरे पहचाने जा रहे हैं उनमें से कुछ क्यों परस्पर विरोधी बातें कह रहे हैं, जबकि खुलासे के दौरान उन्होंने कुछ और ही कहा था।
किताब में इस बात के भी कुछ संकेत दिए हैं कि कैसे वरिष्ठ तहलका पत्रकार खुलासे के लिए किसे ज्यादा श्रेय जाए इस बात पर भी गुटों में बंट गए। साथ ही तहलका के कुछ शुरुआती निवेशक परियोजना से अलग क्यों हो गए, इस बात का स्पष्टीकरण भी उतना ही दिलचस्प है।
विन्यास के नजरिये से देखें तो यह किताब थोड़ी ढीली है और निश्चित रूप से इसका संपादन भी कुछ बेहतर हो सकता था। लेकिन इस किताब की एक खूबी है। एक बार जब आप किताब का पहला अध्याय पढ़ लेंगे, जिसमें किताब के केंद्र बिंदु का जिक्र किया गया है, फिर आप तहलका मामले के विभिन्न पहलुओं की जानकारी हासिल करने के लिए बचे हुए 27 अध्यायों में से किसी को भी चुन सकते हैं।
इस किताब में साक्षात्कारों का इस्तेमाल इस तरह से किया गया है कि वे किसी भी अध्याय में प्रवाह को तोड़ते नहीं हैं। अब तक किताब किसी ठोस निष्कर्ष तक नहीं पहुंची कि आखिर हुआ क्या था।
वेबसाइट के संपादक तरुण तेजपाल का कहना है कि उन्होंने अपने प्रतिनिधि को लंदन में हिंदुजा से मिलने जाने दिया, लेकिन उन्होंने खुद यह फैसला किया कि जिस भवन में यह बैठक हो रही है, वे वहां नहीं जाएंगे। क्या तहलका प्रवर्तकों के दिमाग में 'स्टिंग' ऑपरेशन करने के लिए कुछ और ही एजेंडा था? इस सवाल का कोई साफ जवाब नहीं है।

त्रेहन का कहना है कि किसी घटना को समझने या उसके पेश करने के अलग-अलग लोगों के तरीके अलग-अलग होते हैं यानी सच्चाई कई तरह की होती है। उद्देश्यपूर्ण तरीके से त्रेहन की अलग-अलग सच्चाई को पेश करने की क्षमता और जल्द निष्कर्ष पर पहुंचने की लालसा को बनाए रखना काबिल-ए-तारीफ है। यह किताब, किताब कम और तहलका मामले पर शोध करने वालों के दस्तावेज अधिक लगती है।


पुस्तक समीक्षा

प्रिज्म मी ए लाइ टेल मी ए ट्रूथ तहलका एज मेटाफर

लेखिका : मधु त्रेहन

प्रकाशक: रोली बुक्स

कीमत: 595 रुपये

पृष्ठ: 616



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Sunday, April 5, 2009

हिंदू-मुसलमानों पर उठते सवालों का जवाब

सुनील जैन

क्या देश की अदालतों में मुस्लिमों से भेदभाव किया जाता है, जैसा कि अक्सर इल्जाम लगता है कि स्थानीय पुलिस हिंदुओं के मुकाबले उन्हें ज्यादा गिरफ्तार करती है?

क्या न्यायिक प्रणाली सिर्फ आंख बंद कर फैसला देती है और आतंकवाद के आरोपियों को बिना एक निष्पक्ष मुकदमे के उन्हें सजा दे देती है? क्या विभिन्न अदालतों और न्यायाधीशों के फैसलों का पहले अनुमान लगाया जा सकता है जैसा जॉन ग्रिशैम ने 'दी रनवे जूरी' में किया था?

क्या कमजोरगठबंधन सरकार की मौजूदगी अदालतों के किसी तरह के फैसले पर असर डालती है? जब कभी आप भारत की न्यायिक प्रणाली के बारे में सोचते हैं तो इस तरह के कई और सवाल भी खुद-ब-खुद दिमाग में आ जाते हैं।
कोलंबिया से राजनीतिक विज्ञान में पीएचडी शैलाश्री शंकर जो ऑस्टिन की यूनिवर्सिटी ऑफ टेक्सस में असिस्टेंट प्रोफेसर थीं और अब नई दिल्ली में पॉलिसी रिसर्च सेंटर में काम कर रही हैं, ने इन और ऐसे कई सवालों के सटीक जवाब देने की कोशिश की है।

अदालतों के अलग-अलग फैसलों के रूप में चरणों में दिलचस्प लेखन के अलावा शंकर ने अपने तर्कों को अलग आयाम देने के लिए दिलचस्प अर्थमितीय उदाहरणों का सहारा लिया है।

नतीजतन, लगभग इस किताब के अहम हिस्से के लगभग 200 पृष्ठ आसानी से एक बार में ही पढ़े जाते हैं। यह किताब मनुपात्र में दिए गए फैसलों पर आधारित है, जिसमें सर्वोच्च न्यायालय और अलग-अलग उच्च न्यायालयों के फैसले बड़ी तादाद में शामिल हैं।

जैसा कि आप उम्मीद करेंगे अदालतों ने लीक से हटकर फैसले दिए हैं। ये फैसले आपातकाल के दिनों से लेकर अत्यधिक सक्रियता के हैं। लेखक ने इसे बताने के लिए काफी अच्छे उदाहरणों का सहारा लिया है: जैसे प्रधान न्यायाधीश बेग 1978 में सेवानिवृत्त होने को ही थे, सार्वजनिक जीवन से जुड़ी 52 हस्तियों और वकीलों ने बॉम्बे मेमोरेंडम में सरकार से अपील की कि वह न तो न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ और न ही न्यायमूर्ति भगवती को नियुक्त करें।

उनका तर्क था कि उन्होंने काले कानूनमीसा को लागू करने के सरकार के अधिकार को बरकरार रखा था। दो वर्ष बाद, न्यायाधीश चंद्रचूड़ ने मुकदमे के दौरान खुद में इस्तीफा न दे पाने की हिम्मत को लेकर माफी मांगी। दूसरे शब्दों में कहें तो न्यायाधीश इंसान भी हैं, और जनता के बीच अपनी वैधानिकता भी चाहते हैं।

सौभाग्य से लेखिका ने यह किताब लिखने के लिए जो तथ्य जुटाए हैं, उनसे पता चलता है कि न्यायमूर्ति अपनार् कत्तव्य भूल कर अपनी वैधानिकता पाने की कोशिश नहीं करते। सर्वोच्च न्यायालय के एक न्यायाधीश ने वर्ष 2005 में 1,700 मामलों की सुनवाई की।

यह संख्या अपने आप में काफी चकरा देने वाली है। इनमें से कुछ उदाहरणों को यहां पेश किया गया है: वर्ष 1985 से 1995 के दौरान राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े महज 35 प्रतिशत टाडा के मामले सुनवाई के लिए आए। अदालत में पेश इनमें से 57 प्रतिशत मामले ही राज्य के पक्ष में गए।

वर्ष 1950 से 1970 के दौरान निवारक निरोधक के मामलों में से सिर्फ 53 प्रतिशत ही ऐसे थे जो राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़े थे। इनमें से 74 प्रतिशत मामलों का फैसला राज्य के हक में हुआ। टाडा के मामले में एक न्यायाधीश द्वारा आरोपी के पक्ष में आदेश दिए जाने की संभावना निवारक निरोधक मामले की तुलना में 48 प्रतिशत अधिक थी। इससे आपातकाल के बाद न्यायपालिका के नजरिये में परिवर्तन का संकेत मिलता है।

टाडा के मामलों में अगर कोई मुस्लिम याचिकाकर्ता है तो ऐसे मामले में राज्य के पक्ष में फैसला दिए जाने की संभावना 38 प्रतिशत कम थी (इससे प्रदर्शित होता है कि पुलिस दूसरे समुदायों की तुलना में अक्सर मुस्लिमों को ज्यादा पकड़ती है, लेकिन इससे यह भी पता चलता है कि अगर मुस्लिमों के खिलाफ हिंदू पक्षपात है तो निश्चित ही न्यायाधीशों में यह बिल्कुल नहीं झलकता।)

ऐसे मामलों में जिनमें आरोपी मुस्लिम था, हिंदू न्यायाधीशों के फैसले राज्य के पक्ष में 34 प्रतिशत कम रहने की संभावना थी। (सर्वोच्च न्यायालय में 87 प्रतिशत हिंदू न्यायाधीश।) गठजोड़ अल्पमत सरकारों के दौरान न्यायधीशों के राज्य के खिलाफ फैसला दिए जाने की संभावना 27 प्रतिशत अधिक थी। संसद पर हमले के बाद फैसले राज्य के पक्ष में अधिक लगे।
आधे से तीन-चौथाई मामलों में सर्वोच्च न्यायालय के 40 प्रतिशत न्यायाधीश राज्य के पक्ष में रहते हैं, जबकि आधे से भी कम मामलों में वे 24 प्रतिशत राज्य के पक्ष में नहीं रहते हैं। सोचिए कि इन आंकड़ों का बारीकी से अध्ययन करने के बाद मुकदमा लड़ने वालों को कैसे फायदा होगा।

लेकिन इस तर्क में कुछ खामियां भी हैं- मिसाल के तौर पर हर मामले को एक ही नजर से देखा जाता है, जबकि उनमें से कुछ निश्चित तौर पर ज्यादा अहम होते हैं। बीएमडब्ल्यू मामले में हमने देखा, कि मामला मजबूत होने के बावजूद भी कई बार सरकार आरोपी को सजा नहीं दिला पाती। यह फेहरिस्त काफी लंबी है।

इस किताब का उद्देश्य न्यायिक प्रणाली की सराहना करना या उसकी निंदा करना नहीं है। बल्कि इसके पीछे अदालती रवैये में पैटर्न को सामने लाना है। और उनके लिए सफाई की तलाश करना है। इस स्तर पर यह सराहनीय कार्य है। और यह पढ़ने के लिहाज से उत्कृष्ट है।


पुस्तक समीक्षा

स्केलिंग जस्टिस इंडियाज सुप्रीम कोर्ट, एंटी-टेरर लॉज ऐंड सोशल राइट्स

लेखिका: शैलाश्री शंकर

प्रकाशक: ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस

कीमत: 395 रुपये

पृष्ठ: 271

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यूं लिखी गई आईटी की कामयाबी गाथा


सुबीर रॉय

यह किताब बहुत अच्छे ढंग से हम तक ये सभी जानकारियां उपलब्ध कराती हैं। यह भारतीय आईटी उद्योग का व्यापक और विस्तृत इतिहास है। किताब की भाषा सरल है और इसमें एक प्रवाह दिखता है।

भारतीय सॉफ्टवेयर उद्योग की सफलता जगजाहिर होने के बाद मुख्यधारा के मीडिया ने सफलता की इस गाथा के बारे में छापने या प्रसारित करने में गहरी दिलचस्पी दिखाई है।
अब चूंकि साबित हो चुका है कि यह सफलता टिकाऊ है, इसलिए हमें यह जानने की जरूरत है कि इस सफर की शुरुआत कैसे हुई और कैसे यह उद्योग लगातार तरक्की करते हुए अपने मौजूदा स्तर तक पहुंचा है।
यह किताब बहुत अच्छे ढंग से हम तक ये सभी जानकारियां उपलब्ध कराती हैं। यह भारतीय आईटी उद्योग का व्यापक और विस्तृत इतिहास है। पुराने दस्तावेजों और आईटी उद्योग की दिग्गज शख्सियतों के साथ बातचीत ने इस को बेशकीमती बना दिया है। किताब की भाषा सरल है और इसमें एक प्रवाह दिखता है।
दिनेश शर्मा इस बात से शुरूआत करते हैं कि भारत में पहली बार कंप्यूटर कैसे चालू हुआ। इनमें कोलकाता के पास भारतीय सांख्यिकीय संस्थान में 1956 में लगाई गई मशीन शामिल है। मुंबई स्थित टाटा इंस्टीटयूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च ने 1960 में अपनी मशीन लगाई। इसका नाम टीआईएफआर ऑटोमोटिक कैलकुलेटर था।
उन दिनों पीसी महलनोबिस और होमी भाभा के बीच एक आकर्षक मुकाबला चल रहा था कि आखिर कौन अपने प्रतिष्ठानों में पहले कंप्यूटर केंद्र स्थापित कर पाता है। दोनों ही जवाहर लाल नेहरू के करीबी थे। इस मुकाबले में जीत भाभा के हाथ लगी। 1950 और 1960 के दशक के दौरान शुरूआती पीढ़ी के कंप्यूटरों में हार्डवेयर डिजाइन, सॉफ्टवेयर प्रोग्रामिंग, रखरखाव और प्रशिक्षण की सुविधा थी।
जल्दी शुरूआत के साथ ही उन दिनों की सरकारी और राजनीतिक सोच के कारण देश में कंप्यूटरों का तेजी से प्रसार हुआ। पूरी तरह से आत्मनिर्भरता और प्रौद्योगिकी पर नियंत्रण के संकल्प के कारण अधिक तेज गति से विकास हुआ। इलेक्ट्रॉनिक आयोग पूरी तरह से भारत में विकसित कंप्यूटर प्रणाली और कलपुर्जे हासिल करना चाहता था, क्योंकि अभी तक केवल कुछ खास प्रौद्योगिकी और कलपुर्जों के आयात की ही अनुमति दी गई थी।
इस दिशा में पहली बार पुख्ता सोच संतोष सोंधी समिति की रिपोर्ट आने के बाद तैयार हुई। इस समिति की स्थापना मोरारजी देसाई ने की थी। इस रिपोर्ट में कहा गया कि उद्योगों द्वारा कंप्यूटर आयात के लिए दिए गए प्रस्ताव की कोई जरूरत नहीं है और कंप्यूटरीकरण की पूरी कवायद ठंडे बस्ते में चली गई।
इसके बाद कंप्यूटर को लेकर सरकार की सोच में 1980 के दशक में उस समय से बदलाव आना शुरू हुए जब इंदिरा गांधी दोबारा सत्ता में आई और राजीव गांधी ने नीतियों को प्रभावित करना शुरू किया। यह उनके प्रधानमंत्री बनने से काफी पहले की बात है। इसलिए उनके सत्ता में आने से काफी पहले ही इलेक्ट्रॉनिक्स, कंप्यूटर और दूरसंचार के लिए उदारवादी नीतियों की जमीन तैयार की जा चुकी थी।
किताब में एक जगह शर्मा लिखते हैं कि 'अगर नेहरू भारतीय विज्ञान का राजनीतिक हिस्सा थे तो राजीव भारतीय प्रौद्योगिकी का राजनीतिक हिस्सा थे।' नेहरू के समय में राजनीतिज्ञों और वैज्ञानिकों के गठजोड़ से विज्ञान का विकास हुआ जबकि राजीव गांधी के वक्त में राजनीतिज्ञों और तकनीकविदों के गठजोड़ से प्रौद्योगिकी का विकास हुआ।
आयात पर अवरोध और विदेशी कंपनियों के साथ परिचालन के लिए सख्त नियम (इस कारण आईबीएम को 1978 में रुखसत होना पड़ा) का अच्छा असर भी दिखाई दिया और 1970 के दशक के अंत में और 1980 की शुरूआत में डीसीएम, एचसीएल और पीएसआई की अगुवाई में हार्डवेयर विनिर्माण के लिए भारतीयों ने प्रयास शुरू किए।
इन कंपनियों ने कैलकुलेटर, मिनी और माइक्रो कंप्यूटर और फिर पर्सनल कंप्यूटर बनाना शुरू किया। लेकिन 1980 के दशक में आयात और संयुक्त उद्योग को लेकर उदारवादी नीतियों के कारण प्रौद्योगिकी अंतर में कमी आई लेकिन इसका भारतीय शोध और विकास पर विपरीत असर देखने को मिला।
इसके अलावा आईटी क्षेत्र के विकास की राह में 1980 के दशक में पैदा हुए विदेशी मुद्रा संकट के कारण भी बुरा असर पड़ा। इस संकट के कारण शुल्कों को बढ़ा दिया गया। इस कारण हार्डवेयर कंपनी कारोबार के नए आयाम तलाशने के लिए मुड़ी और उनकी खोज सॉफ्टवेयर पर आकर पूरी हुई।
इस लोकप्रिय धारणा के विपरीत कि भारतीय सॉफ्टवेयर उद्योग की सफलता की गाथा में सरकार ने अहम भूमिका निभाई है, नेशनल सेंटर फॉर सॉफ्टवेयर डेवलपमेंट ऐंड कंप्यूटिंग टेकि्क्स ने 1980 में करीब एक तिहाई सॉफ्टवेयर इंजीनियरों को निकाल दिया।
भारतीयों की कौशल क्षमता के कुछ संकेत उस समय मिले जब एचसीएल ने 1989 में एक दुर्घटना के बाद अपने अमेरिकी परिचालन को बंद करने का फैसला किया और उसे बाद में अपना फैसला पलटना पड़ा क्योंकि ग्राहक एचसीएल के सॉफ्टवेयर इंजीनियरों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे और वे उनके वेतन का भुगतान करने के लिए भी तैयार हो गए।
यह सॉफ्टवेयर सेवाओं की शुरूआत थी। इसके बाद विदेशी परिचालन बढ़ता चला गया और सॉफ्टवेयर प्रौद्योगिकी पार्क और सैटेलाइट संपर्क के कारण इसमें और तेजी आई। इसके अलावा किताब में कुछ और रोचक घटनाओं का जिक्र किया गया है। इसमें आईबीएम का उत्थान और पतन शामिल है। ऐसी ही एक घटना में बताया गया है कि कैसे रेलवे ने यात्री आरक्षण प्रणाली का कंप्यूटरीकरण किया।
यह जिम्मेदारी सीएमसी को सौंपी गई थी। इसके अलावा यात्रियों की स्थिति की जानकारी कंप्यूटरों के द्वारा रखी जाने लगी। रेलवे ने यह काम खुद करने का फैसला किया। शर्मा की किताब के निष्कर्ष की बात करें तो सरकार ने शुरूआत में इलेक्ट्रॉनिक्स और कंप्यूटर हार्डवेयर उद्योग की जमीन तैयार करने, उनका पोषण करने और उनके विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। लेकिन सरकार की सहानुभूति सरकारी कंपनियों के साथ ही थी।
विदेशी पूंजी को लेकर पूर्वाग्रह के कारण भारत इलेक्ट्रॉनिक विनिर्माण के लिए अमेरिकी कंपनियों की अगवानी से वंचित रह गया, जो कि बाद में हांगकांग, ताइवान और सिंगापुर चली गईं। हालांकि इंदिरा गांधी के दूसरे कार्यकाल के दौरान सरकार का रुख पूरी तरह से बदल गया था। इस दौरान नीतियां मददगार थीं। उनके द्वारा की गई शुरूआत और 1991 के बजट में सॉफ्टवेयर निर्यात पर कर छूट के साथ ही सॉफ्टवेयर क्षेत्र में सफलता की इबारत लिख दी गई थी।

पुस्तक समीक्षा


द लॉन्ग रिवोल्यूशन

द बर्थ ऐंड ग्रोथ ऑफ इंडियाज आईटी इंडस्ट्री

लेखक: दिनेश सी शर्मा

प्रकाशक: हार्पर कॉलिंस इंडिया

कीमत: 595 रुपये

पृष्ठ: ४८८

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