Friday, August 28, 2009

डूब गया कारोबार, नहीं कोई पुरसाहाल

सत्येंद्र प्रताप सिंह / मुरलीगंज (मधेपुरा)

बिहार में मधेपुरा जिले का मुरलीगंज बाजार कोसी क्षेत्र का ऐसा बाजार है जहां कोलकाता, दिल्ली सहित अन्य शहरों से सीधे कारोबार होता है। बाढ़ के बाद यहां सन्नाटे जैसा है।
कारोबारियों के चेहरे पर बाढ़ का दर्द साफ पढ़ा जा सकता है। वहीं जूट मंडी के 85 फीसदी कारोबारी, इलाका छोड़कर चले गए हैं। बचे कारोबारियों को भी पूछने वाला यहां कोई नहीं है।
मुरलीगंज बाजार में 22 अगस्त 2008 की रात को पानी घुसा। तबाही का मंजर ऐसा था कि मुख्यमंत्री ने अखबारों के माध्यम से अपील की कि सभी लोग इलाका खाली कर दें और संपत्ति का मोह छोड़कर इलाका खाली कर अपनी जान बचाएं। इस कवायद के तहत यहां का बाजार पूरी तरह से खाली करा लिया गया था।
मुरलीगंज बाजार में कुल 1,734 कारोबारी हैं। वहीं करीब 100 कारोबारियों की पूंजी एक करोड़ रुपये से ज्यादा की है। आकलन के मुताबिक इस बाजार में बाढ़ से कुल 19,96,79,587 रुपये का नुकसान हुआ है। यहां रोजाना औसतन 50 करोड़ रुपये का कारोबार होता था।
मुरलीगंज के काशीपुर रोड की ही मिसाल लें तो यहां से रोजाना 2 से 3 करोड़ रुपये का जूट कोलकाता भेजा था। बाद में किसानों की जूट की खेती चौपट हो गई और बाजार भी उजड़ गया। ट्रक, ट्रैक्टर और बैलगाड़ियों से जाम रहने वाली काशीपुर रोड की रोनक ही सूनी पड़ गई।
मुरलीगंज वार्ड नंबर-7 के किराना कारोबारी शिव कुमार भगत ने बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया,'इस बाजार से गेहूं, मूंग, मक्का, गुलाब बाग मंडी भेजा जाता है, जहां से माल दिल्ली, कोलकाता, कटक और बांग्लादेश सीमा तक भेजा जाता है। कांग्रेस के दिग्गज नेता प्रियरंजन दासमुंशी के इलाके-कलियागंज में माल यहीं से जाता है।'
भगत ने कहा कि उन्हें तो दोहरी मार झेलनी पड़ी। पहले नेपाल के माओवादियों के डर से नेपाल से कारोबार छोड़कर भागना पड़ा, रिश्तेदारों की कोशिश से मुरलीगंज में कारोबार शुरू किया, उसे भी बाढ़ खा गई।
मुरलीगंज बाजार 200 साल पुराना है। स्थानीय कारोबारियों का कहना है बुनियादी सुविधाओं के अभाव में बाजार पिछड़ता गया और बदहाल कानून व्यवस्था ने भी इसे प्रभावित किया। 3 साल से स्थिति में सुधार हो रहा था, लेकिन बाढ़ ने सब पर पानी फेर डाला।


कितना नुकसान हुआ मुरलीगंज में-

कारोबारियों की संख्या 1,734
क्षति राशि 19,96,79,587 रुपये
कर्ज़

कैश क्रेडिट अकाउंट 42,03,6,000 रुपये
प्रधानमंत्री रोज़गार योजना 1,16,84,400 रुपये
अन्य स्रोतों से 2,99,60,283
रुपये

मासिक आय 78,28,833 रुपये
बीमा राशि 5,34,49,000 रुपये
दावा राशि 4,46,19,449 रुपए


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Thursday, August 27, 2009

डूबते को नहीं बैंक का सहारा

सत्येन्द्र प्रताप सिंह / बीरपुर/सुपौल
"बाढ़ में 2,75,000 रुपये का माल डूब गया। 9 बीघा खेत बालू से भरा पड़ा है। बाढ़ में 4 गायें भी डूबकर मर गई। उम्मीद थी कि बीमा राशि से दुकान चल जाएगी, लेकिन बैंक से जानकारी मिली की वर्ष 2008-09 के दौरान बीमा ही नहीं कराया गया है।''

बिहार के सुपौल जिले के बीरपुर बाजार के कारोबारी इस समय अजब संकट में हैं। यहां करीब 100 कारोबारी हैं जो अपनी दुकाने चलाते हैं और इन्होंने भारतीय स्टेट बैंक से कैश क्रेडिट अकाउंट लोन ले रखा है। बैंक हर साल इस कर्ज के आधार पर बीमा करता था, लेकिन वर्ष 2008 में बैंक ने इन बीमा कारोबारियों का बीमा ही नहीं कराया।
बीरपुर बाजार में जायसवाल इंटरप्राइजेज नाम से दुकान चलाने वाले संतोष जायसवाल ने बताया कि 'सीसी अकाउंट से 1 लाख रुपये का कर्ज लिया था। पिछले 4 साल से बैंक हमारी दुकान का बीमा करता था लेकिन वर्ष 2008-09 के दौरान इसने बीमा नहीं कराया। हालांकि बैंक ने इस साल फिर करा दिया है।
बाढ़ में 2,75,000 रुपये का माल डूब गया। 9 बीघा खेत बालू से भरा पड़ा है। बाढ़ में 4 गायें भी डूबकर मर गई। उम्मीद थी कि बीमा राशि से दुकान चल जाएगी, लेकिन बैंक से जानकारी मिली की वर्ष 2008-09 के दौरान बीमा ही नहीं कराया गया है।'
यही स्थिति बाजार के हर कारोबारी की है। 25 कारोबारियों ने अपने कैश क्रेडिट अकाउंट नंबरों के साथ बैंक को आवेदन भी किया लेकिन बैंक से एक ही जवाब मिलता है कि बड़े अधिकारियों को इसके बारे में सूचित कर दिया गया है।
जय स्पेयर केंद्र के संजय कुमार घोष ने कहा कि उन्होंने बैंक से 4 लाख रुपये का कर्ज लिया था। बीमा न होने की क्षतिपूर्ति नहीं मिली और अब उधारी पर काम चल रहा है। बाजार में टाइम सेंटर के नाम से घड़ी की दुकान चलाने वाले वीरेंद्र कुमार मिश्र की तो पूरी दुकान ही नष्ट हो गई है।
टाइटन कंपनी से 3 लाख रुपये का क्रेडिट पर माल लेकर दुकान चला रहे हैं। पुरानी दुकान के किनारे ही उनकी 2 कारें अभी तक मिट्टी में धंसी है, लेकिन दुकान का बीमा ही नहीं हुआ था तो पैसा कैसे मिले।
वीरेंद्र कुमार मिश्र ने कहा कि उनकी दुकान का बीमा फरवरी 09 में करा दिया है, लेकिन बीमा उस दुकान का है जो नष्ट हो चुकी है। मिश्र को डर है कि अगर नई दुकान में कोई हादसा हो जाए तो बीमा कंपनी पैसा नहीं देगी। यही हाल यहां के 25 बीमित कारोबारियों का है।
स्थानीय कारोबारियों ने बताया कि 20 कारोबारी तो ऐसे हैं जिनका सब कुछ खत्म हो गया है और वे अब भी इधर-उधर रिश्तेदारों के यहां दिन काटने को मजबूर हैं। इस सिलसिले में पूछे जाने पर भारतीय स्टेट बैंक के बीरपुर शाखा के प्रबंधक मनोज कुमार मिश्र ने कहा, 'बीमा न होने के बारे में कंट्रोलर को सूचित कर दिया गया है और इस मामले की जांच चल रही है।'
हालांकि उन्होंने इस बारे में कुछ भी कहने से इनकार कर दिया कि इसका कोई समाधान निकल पाएगा या नहीं।

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कुछ आसरा मिला...और रुक गया मजदूरों का पलायन

सत्येन्द्र प्रताप सिंह


मजदूरी करके जीवन गुजारने वाले मजदूरों का बस यही सपना है कि सरकार की ओर से 10,000
रुपये मिल जाएं, जिससे वे बांस की दीवार बनाकर टिन शेड डाल लें। साथ ही जब तक खेत
में मजदूरी नहीं मिलती, सरकार उन्हें गेहूं-चावल और नमक मुहैया कराती रहे।

आज तक मैं यह नहीं समझ पाया
कि हर साल बाढ़ में पडऩे के बाद भी
लोग दियारा छोड़कर कोई दूसरी जगह क्यों नहीं जाते?




अरुण कमल की इस कविता में बाढ़ से हर साल पीडि़त होने वाले लोगों को दर्द छिपा है। लेकिन पिछले साल कोसी नदी का तटबंध टूटने पर उन इलाकों में पानी घुसा था, जहां लोगों ने स्वतंत्रता के बाद से बाढ़ देखी ही नहीं। बलुआ बाजार के दिल्ली चौक (इसे दिल्ली चौक इसलिए कहते हैं कि पूर्व रेल मंत्री ललित नारायण मिश्र के जमाने से लंबे समय तक यहां से दिल्ली की राजनीति तय होती थी) से करीब 15 किलोमीटर दूर गुलामी बिसनपुर वार्ड नं. 1 के युवक पवन पासवान को उम्मीद है कि सरकार उनकी मदद के लिए हाथ बढ़ाएगी और उनकी जिंदगी एक बार फिर पटरी पर आ जाएगी।
इस इलाके में छोटे-छोटे सैकड़ों टोलों में ऐसे परिवार रहते हैं, जिनके पास न तो पक्का मकान है न अपनी जमीन। पहले घास-फूस की झोपड़ी, कुछ बर्तन, कुछ कपड़े और बिस्तर, थोड़ा बहुत अनाज था- जो बाढ़ आने के बाद रेत में दब गया। राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार की अपील पर गांव के लोग लौटे। उम्मीद थी कि सरकार मदद देगी। उम्मीद पूरी हुई और हर परिवार को दो किश्तों में 4000 रुपये और 1 क्विंटल अनाज मिला, जिसके चलते ग्रामीण नीतीश सरकार से खुश हैं। 74 साल के जोगी पासवान कहते हैं कि इससे पहले उन्होंने कई बाढ़ झेली है, उसके बाद इस इलाके में आकर बसे। उम्मीद थी कि बाढ़ नहीं आएगी, लेकिन ऐसी बाढ़ आई कि इसके पहले उन्होंने जिंदगी में ऐसा नहीं देखा था। जोगी ने कहा, 'बाढ़ में सब कुछ गंवाने के बाद लोग अपनी पुरानी जगह छोड़ देते और ऊंची जगह देखकर चले जाते। वहां की यादें भूल जाते थे। लेकिन इस बार किसी ने अपना स्थान नहीं छोड़ा है। क्योंकि इसी आधार पर पहचान कर सरकार मदद कर रही है।Ó जोगी कहते हैं कि इसके पहले कभी सरकारी मदद मिली ही नहीं, जिसका जहां मन होता था, चला जाता था। कोई दूसरे जिले में चला गया तो कोई दिल्ली-मुंबई। लेकिन इस बार इतनी बड़ी त्रासदी के बाद भी कोई अपना स्थान नहीं छोड़ रहा है।
पास के ही गांव के कांता लाल ने कहा, 'पहले कटान होती थी, तो कोई वापस नहीं आता था। लेकिन सरकार से उम्मीद बंधी तो सब वापस आ गए।Ó गुलामी बिसनपुर में गांव के नाम के सामने 'गुलामीÓ लिखे जाने के बारे में ग्रामीणों ने बताया कि किसी जमाने में यहां लोगों को गुलाम के रूप में लाया गया होगा, जिसके चलते यह नाम पड़ा। गुलामी बिसनपुर के पवन पासवान को सरकार से कोई शिकायत नहीं है। उसे शिकायत है तो स्थानीय जनप्रतिनिधि से, जिसने पशुओं के मरने का 1000 रुपये मुआवजा नहीं मिलने दिया। साथ ही उसने कहा, 'घास-फूस का मकान हम सब लोगों ने मिल-जुलकर बनाया है। अगर सरकार की ओर से अन्य गांवों की तरह हमें भी मदद मिल जाती तो बांस का मकान बनाकर उस पर टिन शेड डाल लेते।
स्थानीय लोगों ने बताया कि ज्यादातर खेतों में बालू आ जाने और स्थानीय लोगों के छोड़कर चले जाने से धान की रोपाई नहीं हुई। बारिश भी इस साल नहीं हुई। इसके चलते मजदूरी करके जीवन यापन करने वालों को भी काम नहीं मिल पाया। किसान से लेकर मजदूर तक सभी सरकार के सहारे हैं। मजदूरी करके जीवन गुजारने वाले मजदूरों का बस यही सपना है कि सरकार की ओर से 10,000 रुपये मिल जाएं, जिससे वे बांस की दीवार बनाकर टिन शेड डाल लें। साथ ही जब तक खेत में मजदूरी नहीं मिलती, सरकार उन्हें गेहूं-चावल और नमक मुहैया कराती रहे।
बातों बातों में अरुण कमल की कविता का जवाब भी जोगी पासवान ने दे दिया... एक भरोसा राम का, एक आस विश्वास।

बारिश में डर-डरकर जिंदगी बिताते हैं कोसी इलाके के लोग


सत्येन्द्र प्रताप सिंह
सहरसा जिले के नवहट्टा क्षेत्र स्थित झंगहा गांव में रहने वाले शिवशंकर झा अपनी उम्र का पैंसठवां पड़ाव पार कर चुके हैं। पिछले 15 साल से कोसी नदी के तटबंध उन्हें हर साल डराते हैं। कोसी तटबंध पर मिले झा ने कहा, 'कोसी इलाके में ही जन्म हुआ और इसी की माटी पर पला, बढ़ा हूं। अब पिछले 15 साल से हालत यह है कि बारिश शुरू होते ही रात की नींद गायब हो जाती है। जैसे ही सुनते हैं कि नदी में पानी बढ़ रहा है तो रात को नींद नहीं आती है। तटबंध पर घूमने निकल जाता हूं और देखता हूं कि कहीं तटबंध टूट न जाए।Ó ऐसी स्थिति केवल उन्हीं की नहीं है। नहर के किनारे बसे हजारों गावों के लोग बरसात के मौसम में तटबंध पर घूमते मिलते हैं। उनके बीच केवल एक ही चर्चा रहती है कि कहां-कहां पर तटबंध की कटान हो रही है। नवहट्टा से सटे मल्लाह जाति की फुलिया देवी भी तटबंध पर ही मिलीं। वे शाहपुर की मुखिया हैं। बुजुर्ग होने के साथ-साथ ही उन्होंने कोसी में हो रहे बदलाव को देखा है। बताती हैं, 'अगर किसी भी चीज की देखभाल बंद कर दी जाए, तो आखिर वह कब तक टिकेगी। तटबंध तो मिट्टी की दीवार भर है। पिछले बीस साल से देख रही हूं कि इस पर कभी मिट्टी नहीं पड़ी है।Ó दरअसल कोसी नदी के तटबंध की क्षमता लगातार कम हो रही है। बीरपुर से कोपरिया तक पूर्वी तटबंध की लंबाई 125 किलोमीटर है जो पूरी तरह से जर्जर हो चुकी है। कुछ ऐसा ही हाल 120 किलोमीटर लंबे पश्चिमी तटबंध का भी है। जर्जर हो चुके पूर्वी तटबंध पर सुरंगनुमा रेनकट बन गए हैं। हालत यह है कि पानी बढ़ते ही सिंचाई विभाग के इंजिनियरों को इसे बचाने के लिए नाकों चने चबाने पड़ते हैं। सिंचाई विभाग के इंजिनियरों का कहना है कि कोसी नदी को नियंत्रित करने के लिए 1955 में तटबंध का निर्माण शुरू किया गया था, जो 1964 में पूरा कर लिया गया। तटबंध बनने के बाद नदी की जलग्रहण क्षमता बहुत ज्यादा थी। 1969 में अधिकतम प्रवाह 9 लाख क्यूसेक मापा गया था। 1990 के बाद नदी में अधिकतम जल प्रवाह 5 से 5।5 लाख क्यूसेक ही रहा है। दोनों तटबंधों के बीच की चौड़ाई 11 किलोमीटर है। शाहपुर गांव के शंकर यादव बताते हैं कि बिहार में जब कांग्रेस का राज था, तो यहां पर चौकी बनाई गई थी। चौकी में हमेशा यहां चौकीदार तैनात रहता था, लेकिन अब ऐसा नहीं है। तटबंध पर जब पानी का दबाव बढ़ता है, उसे रोकने के लिए बांस के खंभे गाड़े जाते हैं, उसके सहारे बालू की बोरियां रखी जाती हैं। गांव के लोग बताते हैं कि सरकार ने इस साल बोल्डर भी गिराए हैं, जिन्हें तटबंध पर बने स्पर के नोज पर रखा गया है। ऐसा पहली बार हुआ है। नवहट्टा स्थित तटबंध पर तैनात सिंचाई विभाग के कर्मचारियों ने कहा कि कटान बढऩे पर ये बोल्डर स्पर के नोज पर रख दिए जाएं, ऐसी व्यवस्था की गई है। गांव वाले सवाल उठाते हैं कि आखिर में जर्जर हो चुके तटबंध कोसी की धार को कब तक थामेंगे? जैसे-जैसे बारिश तेज होती है, बांध के बाहर रह रहे गावों के लोगों की धड़कने तेज होने लगती हैं। तटबंध पर मिले राम सुंदर की उम्र 70 साल हो चुकी है। उन्होंने कहा कि हर साल जब पानी बढ़ता है तो हम लोगों को तटबंध पर आना पड़ता है। तटबंध की मरम्मत के बारे में पूछे जाने पर उनका कहना है कि याद नहीं है कि कभी इस पर मिट्टी भी पड़ी हो। उनका कहना है कि जहां बारिश से कटान ज्यादा हो जाती है, तो उसे मिट्टी डालकर पाट दिया जाता है, बाकी तो आप देख ही रहे हैं कि क्या हालत है।तटबंध के रास्ते बीरपुर से सुपौल आने पर तमाम जगह ऐसी है, जहां तटबंध करीब-करीब खेत के बराबर पहुंच गया है। हालांकि कुछ जगहों पर पिच रोड भी है, लेकिन अधिकांश रास्ता जर्जर हालत में ही है। करीब 45 साल की उम्र पार कर चुके तटबंध को अब किसी उद्धारक की प्रतीक्षा है। भारी मात्रा में सिल्ट जमा हो जाने के कारण तटबंधों की क्षमता घट गई है, वहीं अपना आकार खो चुके तटबंध जलस्तर बढ़ते ही ग्रामीणों को डराने लगते हैं। डर पिछले साल से और ज्यादा बढ़ गया है, क्योंकि केवल 1,67000 क्यूसेक पानी में ही कुसहा में तटबंध टूट गया था। ऐसे में 27 अगस्त की रात तटबंध के किनारे रहने वाले ग्रामीणों ने रतजगा करके काटा था, जब उन्हें रेडियो पर खबर मिली कि 3,12,780 क्यूसेक पानी आ गया है। साथ ही राज्य सरकार भी इलाके के लोगों को पहली बार चुस्त नजर आई, जब ज्यादा पानी आने पर जल संसाधन विभाग के अभियंता प्रमुख (उत्तर) राजेश्वर दयाल बीरपुर पहुंच गए और उन्होंने दो दिन तक कैंप किया। कोसी नदी में इस समय इतना बालू भर गया है कि पूरे बारिश में तटबंध के बाहर के गांवों में कच्चे मकानों में खुद-ब-खुद पानी भर जाता है। हैंडपंप से चौबीसों घंटे अपने आप पानी निकलता रहता है। रात को सोने के बाद खटिया के नीचे से पानी बाहर निकालना पड़ता है। तमाम इलाके तो ऐसे हैं, जहां तटबंध के रेनकट भरने का जिम्मा भी ग्रामीणों ने ले रखा है। बलवा गांव के मदन मोहन मिश्र ने बताया कि तटबंधों पर काम होता ही नहीं है, बारिश होती है तो रातभर नींद नहीं आती। उन्होंंने कहा कि गांव के लोग ही चंदा लगाकर खुद रेनकट भरते हैं। नौलखा गांव में पहुंचने पर तटबंध की हालत और भी खस्ता नजर आती है। हालांकि इस पर लोगों के आने जाने के लिए मिनी बस भी चलती नजर आई। सड़क ऐसी है कि बस कब पलट जाए, कोई भरोसा नहीं। मजाल क्या है कि इस सड़क पर कोई चार पहिया वाहन 15 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार पार कर ले। लेकिन ग्रामीण तो इसे ही अपनी नियति मान चुके हैं। सभी निराश हैं- उन्हें बदलाव की कोई राह नजर नहीं आती।


इनकी भी जिंदगी है
नवहट्टा के पास तटबंध पर मिले अनूप शर्मा और धनिक शर्मा झरबा गांव से आए हैं। उन्हें घर जाने के लिए नाव की प्रतीक्षा है। झरबा गांव कोसी नदी के दोनों तटबंधों के बीच में बसा है। हर साल बाढ़ का पानी इनके घरों को डुबोता है। घरों का डूबना, सामान लेकर बाहर निकल आना और पानी कम होने पर फिर से वहीं आशियाना बसा लेना इनकी जिंदगी है। भेलाही गांव के ललन पासवान बताते हैं कि 40-45 गांव के लोग हैं, तो इसी स्थान से नाव पकड़कर अपने घरों को जाते हैं। कोसी तटबंध के भीतर बीरपुर से लेकर कुशेश्वर स्थान तक करीब 800 छोटे-छोटे टोले और गांव हैं, जो हर साल पानी में डूबते हैं और बाहर निकलकर अपने रिश्तेदारों और तटबंधों पर तीन महीने के लिए आशियाना बसा लेते हैं। इन गावों के ज्यादातर लोग पलायन कर चुके हैं। हर परिवार के लोग कहीं न कहीं दूसरे राज्य में जाकर नौकरी करता है और परिवार के कुछ लोग तटबंध के भीतर रहते हैं। यहां बाकायदा पंचायतें हैं, वोटिंग होती है और ये लोग अपने विधायक और सांसद भी चुनते हैं। लेकिन इनके दर्द की कोई दवा पिछले 45 साल से नहीं बनी। ललन पासवान से यह पूछने पर कि आखिर आप लोग यहां क्यों रहते हैं- वे उल्टा सवाल दाग देते हैं कि आप ही बता दीजिए कि क्या करें? इन इलाकों में एक फसल हो जाती है, जब बाढ़ का पानी नहीं रहता। इलाके के लोग बताते हैं कि यहां झींगा खाना सस्ता है, आलू महंगा है।

Wednesday, August 26, 2009

बाढ़ से फिर पहुंचे दर्द के उसी मुकाम पर

सत्येन्द्र प्रताप सिंह / मुरलीगंज-मधेपुरा

अगर कहीं और कारोबार शुरू करने का अवसर मिले तो इलाके को छोड़ना पसंद करेंगे- उनका चेहरा खिल जाता है और कहते हैं, 'तत्काल छोड़ देंगे'।


अपनी उम्र के 90 पड़ाव पार कर चुके मुरलीगंज बाजार के कारोबारी फूलचंद अग्रवाल के दर्द का अंत नहीं। स्थानीय लोगों के बताने पर कि दिल्ली से कुछ पत्रकार आए हैं, उनका चेहरा सूख जाता है।
उन्होंने कहा, 'गंजी पहनकर आए थे, गंजी पर आ गए। पाकिस्तान (बांग्लादेश) में तूफान देखे थे। कभी ऐसी हालत नहीं देखी। यह विनाश था, बाढ़ नहीं।' दरअसल भारत के विभाजन के वक्त फूलचंद अग्रवाल पाकिस्तान छोड़कर मुरलीगंज आ गए थे और यहां पर फिर से जिंदगी शुरू की थी, लेकिन कुसहा में तटबंध टूटने से आई बाढ़ ने उन्हें फिर उसी मुकाम पर खड़ा कर दिया है, जैसे वे आए थे।
बाढ़ ने अग्रवाल परिवार का पूरा कारोबार लील लिया। करीब 30 लाख का नुकसान हुआ। 24 लाख के करीब का तो खाद और बीज नष्ट हो गया। फूलचंद अग्रवाल के पुत्र रामगोपाल अग्रवाल बताते हैं कि बीमा कंपनी के सर्वेयर कहते हैं कि आप लोग माल निकालकर कहीं और लेकर चले गए हैं।
इस इलाके का एक भी आदमी ऐसा नहीं कह सकता कि नुकसान नहीं हुआ, लेकिन बीमा कंपनियों को लगता है कि कुछ हुआ ही नहीं। हालांकि उनके यहां नैशनल फर्टिलाइजर, कृभको श्याम फर्टिलाइजर्स लिमिटेड (केएसएफएल) नागार्जुन फर्टिलाइजर्स ऐंड केमिकल्स लिमिटेड (एनएफसीएल) इंडियन पोटाश लिमिटेड (आईपीएल) जैसी सरकारी कंपनियों से माल आता है और माल आने और बिकने सहित गोदाम में बचे माल का लेखा जोखा दर्ज होता है।
सारे काजगात दिए जाने के बाद भी सिर्फ फोन आते हैं कि फलां कागज को फिर से भेज दीजिए- इसके अलावा कुछ नहीं हुआ। राम गोपाल अग्रवाल बताते हैं कि 22 अगस्त को बाजार में पानी आया। 23 अगस्त को सब कुछ छोड़कर चल पड़े। पहली बार तो करीब 8 किलोमीटर पैदल चलकर गोशाला पहुंचे, जहां नाव मिलती थी, लेकिन नाव ही नहीं मिली।
दूसरी बार जाने पर नाव मिली तो भागकर कटिहार में अपने रिश्तेदार के यहां पहुंचे। अपना दर्द बयान करते हुए वे कहते हैं कि पिछले साल दशहरा की पूजा भी विस्थापित के रूप में ही हुई थी। उस समय तो ऐसा लगा था कि सब कुछ छोड़कर जाना पड़ेगा। वापस लौटे तो सब कुछ बर्बाद हो चुका था।
अब रिश्तेदारों से पैसा लेकर कारोबार फिर से शुरू किया है, 10 लाख रुपये का माल भी है- लेकिन अब नहीं लगता कि कारोबार को अपनी जिंदगी में उस मुकाम पर पहुंचा पाएंगे, जहां बाढ़ के पहले था। दरअसल खेती पर निर्भर कारोबार ही इस इलाके का बड़ा कारोबार है। खेतों में बालू भर जाने और कोसी से निकली नहर के क्षत-विक्षत हो जाने से कृषि कार्य पूरी तरह से ठप है। कारोबार चले भी तो कैसे।
कारोबार घटकर 15-20 प्रतिशत रह गया है। इलाके के पेड़ पौधे नष्ट हो गए हैं। जो आम 10 रुपये किलो मिलता था, इस साल 30 रुपये किलो बिका। यह पूछे जाने पर कि अगर कहीं और कारोबार शुरू करने का अवसर मिले तो इलाके को छोड़ना पसंद करेंगे- उनका चेहरा खिल जाता है और कहते हैं, 'तत्काल छोड़ देंगे'।

बाढ़ के ज़ख्म पर बीमा बना नमक

सत्येन्द्र प्रताप सिंह / मुरलीगंज-मधेपुरा

बीमा सामान्यतया इसलिए कराया जाता है कि नुकसान होने पर मदद मिले, लेकिन बीमा अपने आप में मुसीबत है। बिहार के मधेपुरा जिले के मुरलीगंज के कारोबारियों के साथ कुछ ऐसा ही हो रहा है। कुछ कारोबारियों ने तो स्पस्ट कह दिया है कि वे अब अपने कारोबार का बीमा नहीं कराएंगे।
पिछले साल कोसी नदी का तटबंध टूटने से आई बाढ़ के बाद बाजार का कारोबार पूरी तरह से चौपट हो गया था। कोई ऐसा नहीं बचा, जिसे नुकसान न हुआ हो।
कारोबारी अपने व्यवसाय का बीमा भी कराते आ रहे हैं, लेकिन 15 साल से भारी भरकम बीमा प्रीमियम दे रहे कारोबारियों ने सपने में भी नहीं सोचा था कि अगर उनका कारोबार चौपट हो जाए, तो बीमा कंपनियां बीमित राशि के भुगतान करने में रुला देंगी।
कारोबारियों का कहना है कि अभी करीब 90 प्रतिशत बीमा राशि का भुगतान नहीं हुआ है। मुरलीगंज बाजार में श्री राजहंस इंडस्ट्रीज के मालिक विनोद बाफना बताते हैं कि मुख्यमंत्री के इलाका खाली करने के अपील के बाद जायदाद के कागजात के अलावा वे सब कुछ छोड़कर चले गए थे।
3 महीने शरणार्थी की तरह कटिहार में दिन काटने के बाद वापस लौटे तो सब कुछ बर्बाद हो चुका था। खाद, बीज और कीटनाशकों की बोरियां भी नहीं बची थीं, सारा माल पानी में बह गया। बोरियों का प्रयोग शायद बालू भरकर कटान रोकने में प्रयोग कर लिया गया। बाफना ने बैंक से 51 लाख रुपये कर्ज ले रखा है और उसका मासिक ब्याज 65 हजार रुपये आता है।
15 साल से लगातार बीमा करा रहे बाफना ने पिछले साल भी 47,000 रु. सालाना प्रीमियम देकर 70,00,000 रु. का बीमा कराया था। कारोबार में हुए नुकसान को देखते हुए उन्होंने महज 30,53,825.30 रुपये का बीमा दावा किया, लेकिन उन्हें आज तक बीमा की राशि नहीं मिली। यही हाल कृषि विकास केंद्र के राम गोपाल अग्रवाल का है, जिनका बाढ़ में कुल 30 लाख रुपये का नुकसान हुआ।
उन्होंने दुकान में हुई क्षति के लिए 24 लाख क्लेम किया, लेकिन अभी तक बीमा राशि का भुगतान नहीं हुआ। छोटे कारोबारियों में रवि इलेक्ट्रॉनिक्स के नाम से दुकान चलाने वाले शिवशंकर भगत को 4 लाख रुपये का नुकसान हुआ, लेकिन उन्होंने बीमा दावे के मुताबिक 2 लाख का क्लेम किया, लेकिन एक ढेला भी नहीं मिला।
क्षेत्रीय खाद बीज भंडार के संतोष कुमार ने 11 लाख रुपये बीमा क्लेम किया, लेकिन अब तक बीमा राशि का भुगतान नहीं हुआ। ओरियंटल इंश्योरेंश के चीफ रीजनल मैनेजर सुशील कुमार ने कहा, 'यह इलाका हमारी प्राथमिकता में है और तेजी से बीमा राशि का भुगतान किया जा रहा है।'
उन्होंने यह भी दावा किया कि 2 महीने के भीतर सभी क्लेम क्लीयर कर दिए जाएंगे। विनोद बाफना ने तो बीमा से तौबा कर लिया है। उन्होंने बैंक में लिखकर दे दिया है कि अब बीमा नहीं कराएंगे। वे कहते हैं कि आखिर क्या फायदा है बीमा का कारोबार शुरू करने के लिए पैसा नहीं मिला, बैंक में कर्ज का ब्याज अलग बढ़ रहा है।

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Friday, August 7, 2009

.... कोसी की अजब कहानी


पूर्वी नहर तटबंध टूटने से बिगड़ी सिंचाई व्यवस्था
खेतों में भरी है बालू
पानी की जबरदस्त किल्लत
मॉनसून में देरी से बिगड़ गई बुआई



सत्येंद्र प्रताप सिंह / चैनपुर/सुपौल
बिहार में सुपौल, मधेपुरा, सहरसा, अररिया, कटिहार और पूर्णिया जिलों के खेत इस साल सूखे पड़े हैं। बाढ़ ने पिछले साल इन इलाकों को डुबाया ही था, नहर की व्यवस्था ध्वस्त होने से खेतों में पानी नहीं पहुंच रहा है। मानसूनी बारिश न होना भी कोढ़ में खाज बन गया है।
कोसी नदी से सिंचाई के लिए निकाली गई पूर्र्वी नहर से इन सभी जिलों में सिंचाई होती थी। लेकिन कुसहा में तटबंध टूटने के बाद सिंचाई की व्यवस्था पूरी तरह से चरमरा गई जिससे इलाके के किसानों पर दोहरी मार पड़ रही है।
खेतों में बालू भरा पड़ा है और सिंचाई के लिए पानी की किल्लत हो गई है। जिन खेतों में बुआई होनी थी, बारिश की कमी की वजह से वे भी बांझ की तरह हैं, जिनमें बीज ही नहीं पड़ सकते। चैनपुर गांव के कलानंद यादव के पास 3 एकड़ जमीन है। लेकिन उनकी खेती-किसानी बिलकुल चौपट हो चुकी है।
खेत में बालू जमा है और गांव की कुछ जमीन पर सब्जी उगाकर उसे स्थानीय बाजार में बेचने जाते हैं। यादव कहते हैं, 'कोसी ने हमारे खेतों को विधवा बना दिया है। उस से निकली नहर के पानी से ही खेतों का श्रृंगार होता था। खेतों में बालू के बावजूद अगर पानी होता तो कुछ न कुछ उपजा ही लेते।'
हालांकि ग्रामीणों ने बताया कि सरकार ने 130 रुपये कट्ठा से हिसाब से मुआवजा दिया है। कोसी से निकली पूर्वी नहर की सिंचाई क्षमता करीब 8.5 लाख हेक्टेयर थी लेकिन नहरों में अवसाद जमा हो जाने से क्षमता घटकर 3 से 4 लाख हेक्टेयर तक रह गई।
नाम न छापने की शर्त पर सिंचाई विभाग के एक वरिष्ठ अधिकारी कहते हैं,'पूर्वी नहर के राजपुर ब्रांच की मरम्मत की गई है लेकिन काम की रफ्तार धीमी है। इस रफ्तार से काम में काफी वक्त लग जाएगा।'
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Thursday, August 6, 2009

फिर खिलेगा उजड़ा चमन


.... सब कुछ गंवा चुके गांव वाले नए सिरे से रख रहे हैं बुनियाद

सत्येंद्र प्रताप सिंह / बीरपुर/सुपौल

साल भर पहले चारों ओर कयामत थी। जीवन देने वाला पानी बस्तियों-गांवों को श्मशान में तब्दील भी कर सकता है, इसके सबूत कोसी के आसपास बिखरे पड़े थे, चिल्ला चिल्लाकर अपनी कहानी कह रहे थे।
उस वक्त जो बचा, उसने आसमान की तरफ रुख कर ऊपर वाले का शुक्रिया अदा किया। एक साल बीत गया है, लेकिन उस खौफनाक मंजर की यादें ताजा हैं। यह बात अलग है कि नए सिरे से जिंदगी का सफर शुरू करने की जद्दोजहद चालू हो गई है।
कुसहा में टूटे तटबंध की मरम्मत के बाद इलाके के ग्रामीणों में खुशी है। खुशी है कि इस बार बाढ़ उनके सपने नहीं लीलेगी। लेकिन अभी रहने और खाने का ठिकाना नहीं है। अब तक तो सरकार की दी गई आर्थिक मदद और अनाज से गुजर बसर हुई। बाढ़ से निकलने के बाद 3 महीने बाद घर लौटे तो बालू और पानी के सिवा कुछ नहीं मिला।
पुरैनी गांव के वार्ड नंबर 14 के मंतलाल मंडल ने कहा, 'सब कुछ तो खत्म हो गया था, घार-बार, पशु सब कुछ खत्म हो गया। सरकार से रोटी मिली और ओडीआर की मदद से घर बन रहा है।'
दरअसल बीरपुर से सटे सभी गांवों से जहां से पानी की धार गुजरी सब कुछ लीलती गई। गांव के लोगों को अपनी जिंदगी फिर शून्य से शुरू करनी पड़ रही है। पुरैनी गांव में ज्यादातर लोग मजदूरी करते हैं, कुछ श्रमिक हैं तो कुछ मकान बनाने वाले राज मिस्त्री हैं।
ओडीआर नाम का स्वयंसेवी संगठन गांव को दोबारा बसाने में जुटा है। कारीगर और श्रमिक गांव के ही हैं लेकिन कंक्रीट, सीमेंट जैसी जरूरी चीजों के लिए संस्था ने कुल 55,000 रुपये प्रत्येक मकान के लिए मदद दी है।
गांव में कुल ऐसे 89 परिवार हैं जिनके लिए मकान बनाए जा रहे हैं। सरकार की मदद की आस में इस इलाके में लोग बने हुए हैं नहीं तो इन लोगों के पास ऐसा कुछ भी नहीं है जो इन्हें यहां रुकने को मजबूर कर सके।

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Wednesday, August 5, 2009

संसद के इतिहास में पहली बार बनियों पर हंगामा

भारत के स्वतंत्र होने का बाद पहली बार ऐसी स्थिति आई है, जब संसद कारोबारियों के मसले पर बंधक बन गई। संप्रग सरकार के इसके पहले कार्यकाल में भी स्पस्ट नजर आ रहा था कि पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा परोक्ष रूप से मुकेश अंबानी की मदद कर रहे हैं। लेकिन हुआ कुछ ऐसा कि सरकार ने उन्हें दोबारा उसी पद पर विभूषित कर दिया है। वैसे भी मुरली देवड़ा की राजनीति में पैठ उद्योगपतियों की दलाली से ही शुरू हुई। बाद में १९९१ में आर्थिक उदारीकरण के बाद जब उनका धंधा मंदा पड़ गया तो उन्होंने राजनीति की राह पकड़ी और मुंबई की शव यात्राओं में शामिल होकर, तरह तरह के भोज कराकर उन्होंने राजनीतिक क्षेत्र बनाया और संसद में पहुंचने में कामयाब हो गए। सांसद बनने के बाद तो किसी की औकात नहीं कि उन्हें कोई जनप्रतिनिधि नहीं माने।अब मुलायम सिंह सहित उनके तमाम साथियों ने जब देश की नीति को बंधक बनाकर मुकेश अंबानी को लाभ पहुंचाने और अनिल अंबानी की बिजली परियोजना रोकने की बात उठाई तो बवाल मच गया।हालांकि मुरली देवड़ा या उनके जैसे नेताओं के खिलाफ कुछ करने में सरकार सक्षम नहीं लगती। ग्लोबलाइजेशन के नाम पर अब सरकार ने अपने हाथ कुछ इस कदर बांध लिए हैं कि बैंकों को राहत पैकेज देने के लिए ७२ हजार करोड़ रुपये दिए जाते हैं और सरकार उसे किसानों की कर्जमाफी का नाम देती है।मुलायम सिंह जैसे लोग जब संसद में सवाल उठाते हैं कि किसानों को उनके उत्पाद का उचित मूल्य मिलना चाहिए तो पक्ष-विपक्ष में उनका साथ देने वाला कोई नहीं होता। अब राजनीति पूरी तरह से नोटों पर चलती नजर आती है।
आखिर संसद में बोलते हुए मुलायम सिंह ने क्या बुरा कहा था कि केंद्र सरकार की कृषि पर गठित समिति ने गेहूं का प्रति क्विंटल उत्पादन मूल्य ९०० रुपये बताए थे, साथ ही कहा था कि कच्चा माल होने की वजह से इस पर किसानों को ५० प्रतिशत मुनाफा मिलना चाहिए जैसा कि अन्य कारोबार में होता है। मुलायम ने पूछा कि किसानों को सरकार गेहूं की यह कीमत कब देगी? लेकिन सवाल दब गया। यहां तो समलैंगिकता महत्वपूर्ण सवाल है, राखी सावंत का विवाह देश के लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण है। ८० करोड़ किसानों को पूछने वाला कौन है????