Tuesday, September 1, 2009

जिन्ना और बंटवारे के गुनहगार

टीसीए रंगचारी
यह किताब लेखक के उस सफर का नतीजा है, जो उन्होंने भारत के बंटवारे को समझने के लिए अतीत के गलियारों में की थी। उन्होंने देखा कि जिन्ना किस तरह 'हिंदू-मुस्लिम एकता के हरकारे से 'पाकिस्तान के कायदे-आजम बन गए। लेखक को लगा कि महज सपाटबयानी के साथ तथ्यों को कागज पर उतारना ठीक नहीं, इसलिए उनके जज्बात से लबरेज है यह किताब।
जिन्ना को इतिहास की कसौटी पर कसने के बाद लेखक को लगा कि 'दो राष्टïरों का सिद्घांत देकर जिन्ना ने बुनियादी भूल कर दी और उस पर अडिय़ल रुख अपनाते हुए मुसलमानों के लिए आजाद भारत में ज्यादा से ज्यादा हिस्सा मांगकर अपनी तस्वीर पर खुद ही कालिख पोत ली।
लेखक का खयाल है कि जिन्ना ने जीतकर पाकिस्तान नहीं बनाया, बल्कि नेहरू और पटेल ने अंग्रेज बिचौलियों के झांसे में आकर पाकिस्तान का तोहफा जिन्ना के हाथों में थमा दिया। क्या वाकई जिन्ना की तस्वीर के अनछुए पहलू छूने की कोशिश है यह? क्या इससे जिन्ना की वह शैतानी तस्वीर मिट जाएगी, जिसे देखने की हसरत में ही पाठकों ने यह किताब खरीदी क्योंकि सार्वजनिक भाषणों में जिन्ना को इसी तरह से पेश किया जाता है? इसी तरह सरदार पटेल के बारे में भी इस किताब में कुछ ऐसा है, जो पहले कभी नहीं कहा और सुना गया। फिर भी तीखी प्रतिक्रियाओं की बौछार जारी है और राजनीतिक उठापटक भी।भारत और पाकिस्तान ने अपनी आजादी के 62 साल इसी महीने पूरे किए। हमारे वर्तमान की इमारत अतीत की बुनियाद पर खड़ी होती है। अतीत को समझकर हम यह तय कर पाते हैं कि वर्तमान में उसकी कितनी अहमियत है। लेकिन इससे वर्तमान की हमारी समस्याएं सुलझाने में मदद मिलती है या यह उनमें रुकावट बन जाता है?
राष्टï्रीय आंदोलन में बंटवारे के बीज बोने का काम उस विचार ने किया, जो बहुसंख्यकों और अल्पसंख्यकों के बीच समानता की बात करता था। इस विचार ने लोकतंत्र के एक बुनियादी सिद्घांत को नजरअंदाज कर दिया। इस विचार के हिमायती तबके ने नागरिक को धर्म का चोंगा पहना दिया। 19वीं सदी के अंत में भारत के लिए फैसलों में भारतीयों की अधिक हिस्सेदारी की बात जोर पकड़ रही थी और उसी वक्त मुसलमान नेताओं के बीच यह डर सिर उठाने लगा कि हिंदुओं की आबादी ज्यादा होने से मुसलमानों के हित खतरे में पड़ जाएंगे। इसी डर ने मुस्लिम लीग के बीज बो दिए और 1906 में बनी इस पार्टी ने आखिरकार पाकिस्तान की मांग कर डाली।लेखक बताते हैं कि जिन्ना ने पहले-पहल कहा कि आजादी के आंदोलन में दो पक्ष नहीं हैं, तीन पक्ष हैं - अंग्रेज, कांग्रेस और मुस्लिम लीग। अंग्रेजों को कोई रोक नहीं सकता था, इसलिए उन्होंने मुस्मि लीग को कांग्रेस के समांतर राजनीतिक संगठन बनाने में पुरजोर मदद की। इसकी वजह भारत पर हमेशा राज करते रहने की उनकी इच्छा ही थी, जिसके लिए उन्हें हिंदुओं और मुसलमानों के बीच खाई को बढ़ाना था।एक संवैधानिक राष्टï्र के लिए जरूरी है कि कानून की सत्ता की गारंटी भी मिले और विभिन्न नागरिक तथा राजनीतिक अधिकार और आजादी भी दी जाए। इतना ही नहीं इसकी अनिवार्य शर्त यह भी है जनता का बड़ा तबका नियमित अंतराल पर विभिन्न पार्टियों के बीच से पसंदीदा प्रतिनिधि चुने। अगर आजाद होने के बाद भारत में यही होना था तो देश में अपने व्यापक आधार और राष्टï्रीय सूरत के साथ सभी को प्रिय होने की वजह से क्या बंटवारे की मांग से लडऩा कांग्रेस का काम नहीं था? मुस्लिम लीग का आधार बहुत छोटा था और ऐसी सूरत में तो कांग्रेस को ऐसा करना ही चाहिए था। तो क्या सिद्घांतों के साथ समझौते की राह पकड़कर कांग्रेस ने ही ऐसी मांगों को बुलंद होने दिया?भविष्य के पाकिस्तान में हिंदुओं और मुसलमानों की हालत के बारे में जिन्ना क्या सोचते थे, इसका ब्योरा इस किताब में किया गया है। नई दिल्ली में 14 नवंबर 1946 को एक प्रेस कांफ्रेंस के दौरान एक सवाल के जवाब में उन्होंने कहा था, 'अल्पसंख्यक हमेशा अल्पसंख्यक के तौर पर ही रह सकते हैं, असरदार नहीं बन सकते।Ó पाकिस्तान बन जाने के बाद जिन्ना ने अल्पसंख्यकों की हिफाजत के सवाल पर काफी सोचा। धर्मनिरपेक्ष राष्टï्र में जिन्ना के विश्वास के पक्ष और विपक्ष में तमाम प्रमाण हैं। पाकिस्तान की संविधान सभा में 11 अगस्त 1947 को अपने भाषण में वह एक राह पकड़ते हैं और कराची में 25 जनवरी 1948 को दूसरी राह पकड़कर साफ ऐलान कर देते हैं कि संविधान शरिया कानून के मुताबिक गढ़ा जाएगा, ताकि पाकिस्तान इस्लामिक मुल्क बन सके। उनके मुताबिक मजहब अल्ला के साथ रिश्ते पर रोशनी ही नहीं डालेगा बल्कि रोजमर्रा की ङ्क्षजदगी के तमाम पहलू भी उससे अनछुए नहीं रह पाएंगे।फरजाना शेख ने भी हाल ही में अपनी किताब 'मेकिंग सेंस ऑफ पाकिस्तानÓ में कहा है कि इस्लाम और राष्टï्रप्रेम के बीच रिश्ते की वजह से पाकिस्तान आज वैचारिक अनिश्चितता का शिकार हो गया है। उन्हें भी लगता है कि धार्मिक सम्मति ही इस समस्या का हल है। 1947 में अगर भारत का बंटवारा नहीं होता, तो इस हल की पूरी गुंजाइश थी और शायद आगे भी ऐसा हो सके।

समीक्षाकार भारतीय विदेश सेवा के पूर्व सदस्य हैं और फिलहाल नई दिल्ली के जामिया मिल्लिया विश्वविद्यालय के एकेडमी ऑफ थर्ड वल्र्ड स्टडीज में अतिथि प्रोफेसर हैं।)

पुस्तक : जिन्ना इंडिया-पार्टिशन-इंडिपेंडेंस
लेखक : जसवंत सिंह
प्रकाशक : रूपा ऐंड कंपनी
पृष्ठï : 669
मूल्य : 695 रुपये

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