Friday, December 31, 2010

सभी फेसबुकियों, ब्लगियाने वालों, बजबजाने वालों और इलेक्ट्रानिक माध्यम से स्वतंत्र अभिव्यक्ति करने वालों को नए साल की शुभकामनाएं।

Tuesday, December 28, 2010

क्या प्रजातंत्र में प्रजा फैसले कर रही है?

एन के सिंह
बिनायक सेन जेल में और शिबू सोरेन, सुरेश कलमाडी और ए. राजा सत्ता में! क्या ऐसा नहीं लगता कि प्रजातंत्र में कुछ सीरियस गड़बड़ी है? ये शिबू, ये राजा, ये कलमाडी या कोड़ा सालों देश की छाती पर मंूग दलते हुए राज करते रहे। मुलायम, लालू, नीरा यादव या हजारों खद्दरी लिबास वालों को इनकी जान की हिफाजत के लिए राज्य से सुरक्षा प्रदान की जाती है, जबकि शंकर गुहा नियोगी को, जो कि मजदूरों के वेतन के लिए आवाज उठाता था, मालिकों ने गोली मरवा दी। सुरक्षा के नाम पर उन्हें एक चिडिय़ा भी नहीं दी गई।

गौर करिए! नियोगी या बिनायक सेन (गोल्ड मेडलिस्ट पोस्ट ग्रेजुएट डॉक्टर जो आदिवासियों का इलाज करते थे) ने जिंदगी में एक मच्छर भी नहीं मारा होगा। परंतु मिली एक को गोली, दूसरे को आजीवन कारावास। अब दूसरा पहलू लीजिए। खूंखार उल्फा आतंकवादियों के नेता को अदालत जमानत दे देता है और असम की सरकार इस फैसले के खिलाफ अपील भी नहीं करती। लालू के खिलाफ भ्रष्टाचार के मुकदमे में भी केंद्र सरकार अपील नहीं करती।

एक और पहलू देखें। महज कुछ सालों पहले विदेश से भारत पहुंची नीरा राडिया के पास एक भी फैक्टरी नहीं है, पर चंद सालों में ही वह ३०० करोड़ रुपए की मालकिन बन जाती है। यानी करोड़ों रुपए कमाती है, करोड़ों कमवाती है और अरबों का चूना देश को लगा देती है। पूरे सिस्टम की ऐसी-तैसी करती हुई! भ्रष्टाचार निरोधक कानून की धारा (आठ) के तहत इसकी सजा छह माह से पांच साल तक है। बिनायक सेन सलवा जुडूम के खिलाफ आवाज उठा रहे थे। वह कह रहे थे कि माओवादियों के खिलाफ सरकार द्वारा चलाया जा रहा कार्यक्रम वहां के आदिवासियों के लिए एक नए आतंकवाद की तरह है। उनकी सजा? आजीवन कारावास!

कौन हैं ये लोग जो सिस्टम पर कब्जा कर रहे हैं? कैसा है यह प्रजातंत्र जिसमें हमें जिंदा मक्खी निगलने को मजबूर किया जा रहा है? कोई सिख दंगों का दोषी फिर खद्दर पहन कर सिस्टम पर कब्जा जमाने आ जाता है। करोड़ों सिख हाथ मलते रह जाते हैं। सत्ता पर बैठे लोग कह देते हैं- देखो, दूध और पानी अलग कर दिया गया ना! और हम, सब सच जानते हुए भी हामी भर देते हैं।

याद आता है सिविल डिसओबीडिएंस (सविनय अवज्ञा आंदोलन गांधीजी ने इसी से लिया था) के जनक हेनरी डेविड थोरो का एक किस्सा। अमेरिकी सरकार ने एक टैक्स लगाया। थोरो के अनुसार वह टैक्स अनुचित था। थोरो ने विरोध किया तो उन्हें जेल भेज दिया गया। एक दिन उनका पड़ोसी किसी और को देखने जेल में पहुंचा तो देखा कि एक एनक्लोजर में थोरो बंद हैं। उसने चौंक कर पूछा- ‘थोरो, आप यहां कैसे?’ थोरो का संयत जवाब था- ‘यह प्रश्न इतना महत्वपूर्ण नहीं है जितना यह कि आप बाहर कैसे।

आज जरूरत यह पूछने की है कि ये कौन लोग हैं जो परोक्ष या प्रत्यक्ष रूप से सत्ता को कठपुतली की तरह नचा रहे हैं।’कभी साउथ एवेन्यू या नॉर्थ एवेन्यू के सांसदों के बंगलों के आसपास खड़े होकर देखें। अलस्सुबह बुर्राक सफेद कड़क कुर्ता-पाजामा पहने हुए कुछ नेतानुमा लोग अपने पीछे दस-बीस आदमियों का झुंड लिए सांसदों के घर जाते या निकलते दिखाई दे जाएंगे। ये इस झुंड का ‘काम’ करवाने आए हैं। उन्हीं के खर्च पर ‘काम हो जाने पर आगे की बात होगी’ का भाव लिए हुए। प्रजातंत्र की मंडी से लगते हैं ये ‘पॉश’ मोहल्ले। बड़ा नेता देर से बाहर निकलता है। अपनी गणित के हिसाब से आश्वासन देता है या फोन करता है, या फिर साथ चल देता है। क्यों? क्या प्रजातंत्र में अपने आप से काम नहीं होगा? क्या इन खद्दरधारीनुमा बिचौलियों के बिना काम नहीं होता?

थोड़ी देर यह नजारा देखें। सड़ांध आने लगती है। एक नेता अगर पांच साल बाद जाता है तो दूसरा आ जाता है। फिर वही सिलसिला। नेता बदलने से सड़ांध कम नहीं होती। संसद में पिछली बार ९९ लोग करोड़पति थे। इस बार ३०६ हैं। करोड़पतियों का जमघट है।प्रसिद्ध राजनीतिशास्त्री टाकविल ने अमेरिका के प्रजातंत्र की धूम सुनी तो पेरिस से अमेरिका पहुंचे वहां के प्रजातंत्र की खूबियां जानने। लौटकर उन्होंने एक लेख लिखा- अमेरिकी प्रजातंत्र का सबसे बड़ा खतरा है बहुसंख्यक का आतंक। भारत में यह खतरा तो नहीं है, पर वोट का बहुमत जिस तरह हासिल हो रहा है, जिस तरह जनता को गुमराह कर शोषण को संस्थागत किया जा रहा है, वह सबसे बड़ा खतरा है।ऐसा नहीं है कि अच्छे लोग नहीं हैं। यह भी नहीं है कि ईमानदार तन कर खड़ा होने को तैयार नहीं है। समस्या यह है कि उसके तन कर खड़े होने से भी कुछ नहीं हो पा रहा है। मीडिया कॉरपोरेट घरानों की चेरी है तो न्याय-प्रक्रिया दोषपूर्ण।

लेकिन, एक ही आशा की किरण है और वह है जनमत (पब्लिक ओपिनियन)। जब सर्वोच्च न्यायालय और मुख्य न्यायाधीश कपाडिया सीवीसी की गलत नियुक्ति पर सख्त रुख अपनाते हैं, जब यही सर्वोच्च न्यायालय अपने ही अधीनस्थ इलाहाबाद हाईकोर्ट की सही तस्वीर जनता को दिखाता है, तो जनमत उसका खैरमकदम करता है। मनमोहन सिंह को कोई भ्रष्ट कहने की हिम्मत नहीं जुटाता, लेकिन उनकी निष्क्रिय ईमानदारी जनता में चर्चा का विषय जरूर बनती है।

साभार- http://epaper.bhaskar.com/cph/epapermain.aspx?edcode=194&eddate=12/28/2010&querypage=7

Monday, December 27, 2010

गांधी जितने ही खतरनाक बिनायक सेन!

राजद्रोह के आरोप में बिनायक सेन को आजीवन कारावास की सजा हो गई। लंबे समय तक मुकदमा चला, वे लगातार जेल में रहे। सवाल यह है कि सत्ता और विपक्ष में बैठी दक्षिणपंथी पार्टियों के लिए बिनायक सेन क्या इतने खतरनाक हो गए थे, जितने खतरनाक अंग्रेजों के लिए महात्मा गांधी हो चुके थे?
बिनायक सेन का पूरा जीवन त्याग और समर्पण का रहा है। उनके जीवन परिचय से तो यही सामने आता है। बिनायक सेन ने वैल्लोर विश्वविद्यालय के क्रिश्चियन मेडिकल कॉलेज से स्वर्ण पदक प्राप्त किया था। 80 के दशक के प्रारंभ में वे छत्तीसगढ़ चले आए थे। वे तभी से छत्तीसगढ़ में हैं और उन्होंने हर पृष्ठभूमि के मरीजों की देखभाल की है। सेन ने अपने आदर्श शंकर गुहा नियोगी की ही तरह अन्य क्षेत्रों में भी काम किया (नियोगी की १९९१ में हत्या कर दी गई थी)। वे आदिवासियों के सामाजिक अधिकारों के प्रति सचेत हुए, जो बेरोजगारी की समस्या से जूझ रहे थे और जिनके बच्चे प्राथमिक शिक्षा तक से महरूम थे। उसके बाद उन्होंने उन इलाकों को अपना कार्यक्षेत्र बनाया, जहां स्वास्थ्य सुविधाएं नहीं थीं। मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ के वे आदिवासी इलाके, जहां स्वास्थ्य की बुनियादी सुविधाएं भी नहीं थीं (आज भी नहीं हैं)।
सवाल यह है कि क्या भारत में वंचितों की आवाज उठाने की यही सजा मिलेगी? आज देश का कोई भी चैनल या अखबार उन इलाकों से खबरें लाने की भी स्थिति में नहीं है, जहां बिनायक सेन काम करते थे। क्या उन इलाकों की हकीकत से आम लोग रूबरू हो पाएंगे कि सेन ग्रामीणों को कौन सी शिक्षा दे रहे थे?
आइये देखते हैं कि किन आरोपों में विनायक सेन को सजा सुनाई गई है और उसमें क्या दम है..
1- डॉ. सेन ने 17 महीनों के दौरान सान्याल से 33 मुलाकातें कीं। इसके लिए जेल प्रशासन ने उन्हें बाकायदा अनुमति दी थी। आवेदन करते समय डॉ. सेन ने पीयूसीएल (सर्वोदय नेता जयप्रकाश नारायण द्वारा गठित संस्था पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज) से जुड़ाव को भी नहीं छुपाया था।
2-डॉ. सेन ने पीयूसीएल के लैटरहेड पर ही जेल प्रशासन को अपना आवेदन दिया था। जिस पर उन्हें सान्याल और दूसरे कैदियों से मिलने की इजाजत दी गई।
3- रायपुर के अतिरिक्त जिला एवं सत्र जज बीपी वर्मा ने सान्याल की रिश्तेदार बुला सान्याल और डॉ. सेन के बीच फोन पर हुई बातचीत के टैप को सान्याल के साथ डॉ. सेन के साजिशपूर्ण रिश्तों का सबूत माना था।
4- 24 दिसंबर को दिए गए फैसले में कई जगह जेल में दर्ज रिकॉर्ड का हवाला दिया गया, जिसमें डॉ. सेन को सान्याल का रिश्तेदार बताया गया है।
5- डॉ. सेन की सान्याल से मुलाकातों का जेल प्रशासन के पास पूरा ब्योरा रहता था।


और ये हैं सबूत, जो पेश किए गए....

१-रायपुर सेंट्रल जेल में बंद नारायण सान्याल ने ३ जून २००६ को बिनायक सेन को एक पोस्ट काडॆ लिखा, जिसमें उन्होंने अपने स्वास्थ्य चिंताओं और चल रही कानूनी कार्यवाही के बारे में जानकारी दी थी। इस पर जेल अधिकारियों के हस्ताक्षर थे।
२-एक पीले रंग की बुकलेट जिसमें सीपीआई (पीपुल्स वार) और माओवादी कम्युनिस्ट सेंटर के बीच एकता की बात कही गई है।
३-मदनलाल बनर्जी (सीपीआई-माओवादी के सदस्य) द्वारा जेल से लिखा गया पत्र, जिसमें उन्होंने प्रिय कामरेड बिनायक सेन... लिखकर सेन को संबोधित किया गया है।
४- अंग्रेजी में लिखे एक लेख की छाया प्रति, जिसे ... नक्सल मूवमेंट, ट्राइबल एंड वुमेन्स मूवमेंट... शीर्षक के तहत लिखा गया।
५-एक ४ पृष्ठ का हस्तलिखित नोट, जिसका शीर्षक है॥ हाऊ टु बिल्ड एंटी यूएस इंपीरियलिस्ट फ्रंट।
६- आठ पृष्ठों का लेख, जिसका शीर्षक है क्रांतिकारी जनवादी मोर्चा (आईटीएफ), वैश्वीकरण एवं भारतीय सेवा केंद्र।

इसके पहले भी मैने ब्लॉग में लिखा था कि रायपुर से खबर आई थी कि माओवादियों का संबंध आईएसआई से है। उस आईएसआई का जुड़ाव भी विनायक सेन से लगाया गया था, जिसके बारे में न्यायालय में पूछे जाने पर पता चला कि दिल्ली स्थित इंडियन सोशन इंस्टीट्यूट के संस्थापक से विनायक सेन की पत्नी से रायपुर के आदिवासियों से बातचीत होती थी, जिसे पाकिस्तानी खुफिया एजेंसी आईएसआई से भारतीय जांच एजेंसियों ने रिश्ते निकाल लिए।

क्या न्यायालय में पेश किए गए दस्तावेज विनायक सेन को राजद्रोही घोषित करने के लिए पर्याप्त हैं? मुझे तो यही लगता है कि कांग्रेस व भाजपा जैसी पूंजीवाद समर्थक पार्टियों के लिए सेन उतने ही खतरनाक होते जा रहे थे, जितने खतरनाक अंग्रेजों के लिए गांधी थे। उसी की सजा सेन को न्यायालय ने भी दे दी और सरकार को खुश कर दिया।

Sunday, December 26, 2010

नजर रखिए, कहीं लुट न जाए झारखंड

झारखंड के पत्रकारों को जाग जाने की जरूरत है। ईमानदार हों तो तथ्यों को सामने लाने के लिए और अगर समझदार (....) हों तो कमाई करने के लिए।
झारखंड सरकार 2001 की औद्योगिक नीति में बदलाव करने जा रही है। इसके पहले भी अर्जुन मुंडा मुख्यमंत्री रहे हैं, लेकिन तब उन्हें नहीं लगा कि 2001 की औद्योगिक नीति उद्योग जगत के प्रति मित्रवत नहीं है। लेकिन अब उन्हें ऐसा लगने लगा है।
राजनीतिक अस्थिरता के दौर में बड़ी मेहनत से अर्जुन मुंडा मुख्यमंत्री बने हैं। कहा गया कि असल मेहनत भाजपा अध्यक्ष नितिन गडकरी और कुछ प्रमुख उद्योगपतियों ने की, जिनकी नजर राज्य के प्राकृतिक संसाधनों पर है। अब यही देखने की बात होगी कि मुंडा सरकार जब अपना दिल खोलती है तो किसको कितने हजार करोड़ का फायदा कराती है।
झारखंड सरकार ने राज्य की औद्योगिक नीति 2001 में संशोधन करने का फैसला किया है। इसमें कारोबारियों को और प्रोत्साहन देने के लिए बदलाव किया जाएगा। 10 साल पहले बाबूलाल मरांडी के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी सरकार ने औद्योगिक नीति तैयार की थी। पुनरीक्षित औद्योगिक नीति मेंं जमीन, पानी, लौह अयस्क, कोल लिंकेज आदि जैसी बुनियादी ढांचा सुविधाओं को ध्यान में रखा जाएगा, जिससे इन क्षेत्रों में निवेश आकर्षित किया जा सके। पुनरीक्षित औद्योगिक नीति में परंपरागत और गैर परंपरागत ऊर्जा, कृषि और खनन क्षेत्र को कुछ प्रोत्साहन दिए जाने की योजना है।

Wednesday, December 22, 2010

कांग्रेस की हड्डी और विपक्ष की पीड़ा

टाइम्स आफ इंडिया में बहुत बढ़िया कार्टून आया है। २जी, आदर्श घोटाला, सतर्कता आयोग, प्याज की कीमतों की हड्‍िडयां कांग्रेस ने बिखेर दी है औऱ विपक्ष कुत्ते के रूप में दिखाया गया है। कुत्ता यूं ही भाग रहा है पागल होकर। उसे समझ में ही नहीं आ रहा है कि कौन सी हड्डी उठा लें।

बहुत बेहतरीन परिकल्पना है। सही है कि मुख्य विपक्ष भारतीय जनता पार्टी में कोई नेता नहीं है। जिस उत्तर प्रदेश ने भाजपा को केंद्र की गद्दी पर पहुंचाया, उस प्रदेश में ही नेतृत्व का संकट। मध्य प्रदेश से नेता का आयात किया जा रहा है उत्तर प्रदेश को चलाने के लिए। उस पर भी उत्तर प्रदेश के धुरंधर भाजपाई डरे हैं कि कहीं वह महिला आकर यूपी में भी न जगह बना ले। राजनाथ सिंह, कलराज मिश्र, लालजी टंडन, मुरली मनोहर जोशी- संघ के सनातन धर्मी हिंदू ढांचे में यही नेता नजर आते हैं। अगर इनसे एक रैली करने को कह दिया जाए तो शायद ही इनमें से कोई दो हजार की भीड़ जुटा पाए। संसद में राज्यसभा औऱ लोक सभा में विपक्ष के नेता हवा-हवाई लोग हैं। ये जनाधार वाले नेताओं का नाश तो कर सकते हैं, खुद दिल्ली की किसी लोकसभा सीट से चुनाव लड़ने की हिम्मत नहीं जुटा पाते। शायद डर जाते हैं कि बड़े नेता हैं, जमानत जब्त हो गई तो मुंह कैसे दिखाएंगे।

हां, चुनावी मसलों की हड्डी के बजाय अगर कांग्रेस इन नेताओं के सामने मंत्री पद की हड्डी फैला देती तो शायद एक-एक हड्डी के लिए भाजपा से ४-४ नेता निकल आते और अपनी पार्टी को तत्काल नमस्ते कर लेते।

Tuesday, December 21, 2010

देश को प्याज के आंसू रुलाती कांग्रेस की प्याज राजनीति

शनिवार की शाम मैने ३६ रुपये किलो प्याज खरीदी थी। सोमवार रात १० बजे जब मैं पांडव नगर सब्जी मंडी में सब्जी खरीदने पहुंचा तो खराब क्वालिटी की प्याज भी ७० रुपये किलो थी। रात के १० बजे बची खुची सब्जियां सस्ती होती हैं, लेकिन प्याज की कीमत ७०-९० रुपये किलो और मटर और टमाटर, जो ४ दिन पहले १५ रुपये किलो थे, ४० रुपये प्रति किलो पर पहुंच गए।
आखिर रातों रात कौन सा ऐसा तूफान आया कि प्याज के दाम दोगुना से ज्यादा हो गए? यह तो अब कांग्रेस सरकार ही समझा सकती है। आखिर क्या है इस सरकार की गणित।
प्याज के इतिहास में जाएं तो सबसे पहले इंदिरा गांधी ने १९८० में प्याज की बढ़ी कीमतों के नाम पर जनता पार्टी को चुनावी मैदान में धूल चटा दिया। उसके बाद दिल्ली में सुषमा स्वराज के नेतृत्व वाली भाजपा सरकार १९९८ का चुनाव प्याज की बढ़ी कीमतों के चलते हार गई। उसके बाद आज तक भाजपा दिल्ली प्रदेश में सत्ता के लिए तरस रही है। राजस्थान में भैरों सिंह शेखावत ने १० साल तक शासन किया, लेकिन १९९८ के चुनाव में वे भी प्याज के आंसू रोए।
आश्चर्य है। प्याज का राजनीतिक इस्तेमाल करना कोई कांग्रेस से सीखे। लेकिन इस बार तो कांग्रेस सरकार में है। पूरा देश प्याज के आंसू रो रहा है। वह भी रातो-रात प्याज का संकट हो गया। कहा जा रहा है कि असमय बारिश से फसल खराब हो गई। इसके पहले कांग्रेस ने कालाबाजारी करने वालों और चीनी मिलों को खूब कमाई कराई थी, कहा गया कि देश में चीनी कम है। हालांकि कोई ऐसी दूकान नहीं थी, जहां चीनी न हो। लेकिन सरकार कहती रही कि चीनी कम है। हालत यह हुआ कि आयात किया गया। लेकिन बाजार में आयातित चीनी नहीं पहुंची, नए सत्र की चीनी भी बाजार में नहीं पहुंची, लेकिन कारोबारियों ने कहना शुरू किया कि देश में चीनी बहुत ज्यादा है।
आखिर इसके पीछे क्या राजनीति है? आखिर किस तरह से कांग्रेस प्याज का राजनीतिक इस्तेमाल कर रही है? लगता है कि स्पेक्ट्रम घोटाले और हर कांग्रेसी राज के भ्रष्टाचार के खुलासे सामने आने लगे हैं और इससे सरकार डर गई है। पहले दिग्विजय उवाच। फिर चिदंबरम की आग। जब कोई दवा काम न आई तो जनता से सीधे निपटने का तरीका। अब एक तीर से दो शिकार हो रहा है। पहला- प्याज की कीमतों के पीछे जनता भ्रष्टाचार भूल जाए, दूसरा- कालाबाजारी करने वालों को बेहतर कमाई हो जाए। साथ ही कालाबाजारी करने वालों का तालमेल इस सरकार से इतना अच्छा है कि शायद चुनाव ४ महीने पहले फिर कांग्रेस सरकार प्याज को १५ रुपये प्रति किलो के नीचे ले ही आएगी।

Tuesday, December 14, 2010

दिग्विजय-चिदंबरम की कुड़ुमई की वजह

दिल्ली में सामूहिक बलात्कार, रोड रेज, चोरी, छिनैती आदि करने वाले प्रवासी (यानी दूसरे राज्यों से आए लोग) हैं। मुंबई में हेमंत करकरे ने अपनी हत्या के पहले कहा था कि उन्हें हिंदूवादियों से खतरा था।

कांग्रेस के दो बड़े नेताओं ने ताबड़तोड़ यह बयान दिया। क्या ये दोनो पागल हो गए हैं? ऐसा नहीं है। ये दोनों बहुत सयाने और दस जनपथ के चहेते हैं। दरअसल एक लाख पचहत्तर हजार करोड़ रुपये का घोटाला हुआ है और वह सत्ता पक्ष व विपक्ष के न चाहते हुए भी एक देशव्यापी मुद्दा बन गया है। इसके जवाब में कुछ तो चाहिए। हेमंत करकरे के बारे में दिए गए बयान की हवा शहीद की पत्नी ने ही निकाल दी और वह मसला नहीं बन पाया। ऐसे में चिदंबरम का बयान आना स्वाभाविक था। कांग्रेस तो मान ही चुकी है कि उसे उत्तर प्रदेश और बिहार में हाल फिलहाल में कुछ नहीं मिलना है। यह मसला उठाने पर महज यूपी बिहार में ही असर पड़ना है। ऐसे में कांग्रेस के रणनीतिकारों को यह बयान दिए जाने में कोई जोखिम नहीं महसूस हुआ, वर्ना यह बयान आने के बाद चिदंबरम को देश का गृहमंत्री बने रहने का हक नहीं होता।
मेरे कुछ मित्रों ने इसके पहले की पोस्ट में संसद के साथ बलात्कार शब्द पर आपत्ति उठाई थी और उन्होंने पोस्ट पर प्रतिक्रिया नहीं दी थी। इसलिए इसके लिए मैने थोड़ा सॉफ्ट बनारसी शब्द कुड़ुमई शब्द इस्तेमाल किया।
प्रवासी मजदूरों का मसला ऐसा है, जिस पर कांग्रेस व भाजपा दोनों की एक ही राय है। जो बात शीला दीक्षित, तेजिंदर खन्ना और अब चिदंबरम कह रहे हैं या कहते रहे हैं, कुछ वैसा ही भाजपा के विजय मलहोत्रा, विजय गोयल भी गाहे-बगाहे कहते रहते हैं। अभी कल ही विजय मलहोत्रा ने चिदंबरम का विरोध करते हुए कह ही दिया कि एनसीआर के लोग दिल्ली आते हैं और अपराध करके चले जाते हैं। ऐसे में दोनों पार्टियों की राय एक ही है।
मजदूरों के वास्तविक संकट और झुग्गी बस्तियों को खत्म करना एक ऐसा मसला है, जिसे पूंजीवादी व्यवस्था में कोई हल नहीं करना चाहता। अगर झुग्गी नहीं बसानी होती तो औद्योगिक क्षेत्रों में जब जमीन दी जाती है, उसी समय उस इकाई में काम करने वाले औद्योगिक मजदूरों के लिए भी रहने के लिए जमीन देकर भवन बनवा दिए जाते। अगर यह अनिवार्य हो जाए तो किसी भी जगह से आने वाला मजदूर झुग्गी बस्तियों में रहने को मजबूर नहीं होगा। लेकिन इसमें समस्या यह है कि तब मुफ्त के और सस्ते मजदूर नहीं मिलेंगे, क्योंकि उस इकाई विशेष में काम करने वालों की सही गणना हो जाएगी और उन्हें फैक्टरियों को उचित मजदूरी देनी पड़ेगी।
समस्या यही है कि कांग्रेस चोर इसलिए है, क्योंकि भारतीय जनता पार्टी डकैत है। ये दोनों जानते भी हैं कि अभी देश में इनका कोई विकल्प नहीं है, जैसा कि उत्तर प्रदेश और बिहार जैसे राज्यों ने ढूंढ लिया है। कांग्रेस जनता की समझ को जानती है कि वह चोरों के बजाय डकैत को चुनना नहीं चाहेगी, इसलिए उसकी सत्ता को फिलहाल कोई खतरा नहीं है। लेकिन कार्यपालिका, न्यायपालिका, विधायिका और उद्योग जगत ने जिस तरह से उत्पात मचा रखा है, उससे एक संभावना हमेशा जिंदा रहती है कि जनता इनके खिलाफ एकजुट हो जाए और कुछ कर बैठे।

Sunday, December 12, 2010

राडिया के नाम पर

टू-जी स्पेक्ट्रम आवंटन घोटाले के नाम पर 21 दिन तक संसद का बलात्कार होता रहा। विपक्ष जेपीसी की मांग करता रहा और सत्तापक्ष ने अंतत: उसे खारिज कर दिया। बार-बार मेरे दिमाग में यही आया कि आखिर संसदीय समिति ही जांच करे तो क्या निकल कर सामने आएगा?
टू-जी घोटाले को 2 साल से ज्यादा हो गए। उसके पहले इसके आवंटन को लेकर चर्चा चली। किसी की नहीं सुनी गई और औने पौने भाव स्पेक्ट्रम दे दिया गया। जब पिछली सरकार में आवंटन नीति को लेकर चर्चा हुई तब इसका नामलेवा कोई नहीं था। राजा पर सीबीआई के छापे पड़े। कब? सीबीआई जांच शुरू होने के एक साल बाद। आखिर कोई भी बुद्धिमान आदमी, जो पौने दो लाख करोड़ रुपये का घोटाला करेगा, वह अपने घर में उसके सबूत क्यों रखेगा? तो आखिर क्या तलाश रही है सीबीआई? अब टू-जी का पूरा मामला नीरा राडिया तक समेटा जा रहा है। राडिया, जो जन संपर्क एजेंसी की मालकिन है। अगर उसने नीतियों पर प्रभाव डालने के लिए लॉबीईंग की तो उसके ऊपर क्या कोई मामला बनेगा? कोई भी समझदार आदमी कह सकता है कि नीरा राडिया ने वही किया जो एक पीआर एजेंसी के लोग करते हैं।
अब नया शिगूफा- नीरा राडिया देश विरोधी गतिविधियों में लिप्त थी। सवाल किया जा रहा है कि उसकी पीआर कंपनी 9 साल में 300 करोड़ रुपये कैसे कमा सकी?
क्या जनता को यह समझ में नहीं आता कि जिन कंपनियों को सरकार ने मुफ्त में पौने दो लाख करोड़ रुपये दे दिए, उनका जनसंपर्क देखने वाली कंपनी एक साल में 300 करोड़ रुपये कमा सकती है? क्या जनता को यह समझ में नहीं आता है कि निहायत अनुत्पादक काम करने वाले महेंद्र सिंह धोनी को अगर ये कंपनियां अपने ब्रांड के प्रचार के लिए 400 करोड़ रुपये सालाना दे सकती हैं तो क्या उन्होंने 300 करोड़ रुपये जैसी छोटी राशि का मुनाफा पिछले 9 साल में उस वैष्णवी कम्युनीकेशंस को नहीं कराया होगा, जिसका जन संपर्क वह कंपनी देखती है? ध्यान रहे कि टाटा. मुकेश अंबानी, यूनीटेक जैसी देश की करीब हर बड़ी कंपनी का जनसंपर्क वैष्णवी कम्युनीकेशंस देखती है।
सरकारी जांच एजेंसियों की स्थिति देखें तो वे कानून के साथ किस तरह बलात्कार कर रही हैं, इसी से पता चलता है, जिसमें विनायक सेन की बीवी एलीना को आईएसआई का एजेंट और फर्नांडिस को अमेरिकी आतंकवादी बताया गया। 3 साल का मानसिक उत्पीडऩ झेलते रहे विनायक। अभी कल ही पता चला कि आईएसआई का मतलब दिल्ली स्थित इंडियन सोशल इंस्टीट्यूट और फर्नांडिस का मतलब इस संस्थान के संस्थापक निदेशक वाल्टर फर्नांडिस हैं।

Monday, November 29, 2010

आप धन्य हैं मनमोहन!

आज मेरी पत्नी से बहुत देर तक मेरा सवाल-जवाब चला। उन्होंने पूछ दिया कि ये स्पेक्ट्रम घोटाला क्या है? मैंने उनसे कहा कि देश की संपत्ति की लूट की लूट का मामला है। उन्हें समझ में नहीं आया तो मैने सामान्य ढंग से समझाने की कोशिश की। मैने उनसे पूछा कि २ लाख में कितने शून्य लगते हैं तो उन्होंने बताया कि पांच। फिर मैने पूछा कि २ लाख करोड़ में कितने शून्य लगेंगे तो उन्होंने बहुत मेहनत कर बताया कि करोड़ के सात और लाख के पांच मिलाकर बारह शून्य लगेंगे। तब मैने उन्हें बताया कि २ के बाद बारह शून्य लगाने पर जितने रुपये बनते हैं उतने बाजार मूल्य का स्पेक्ट्रम कुछ कारोबारियों को हमारी सरकार ने करीब मुफ्त में दे दिया है।


हालांकि २ के बाद इतने शून्य लगाने के बाद ही वो चकरा गई थीं। लेकिन उन्होंने सवाल उठाया कि संचार विभाग के अलावा और विभागों में भी ऐसा है क्या? मैने फिर अपनी छोटी बुद्धि दौड़ाई और बताया कि इससे बड़ा घोटाला गैस ब्लॉक आवंटन में हुआ है और एक ही सेठ को सरकार ने औने पौने दाम देश की सारे गैस ब्लॉक दिए हैं। साथ ही देश में कोयला ब्लॉक के आवंटन में भी लूट है। इतनी ही बड़ी लूट लौह अयस्क ब्लॉक के मामले में हुई है। तब तक मेरी पत्नी को याद आया कि कर्नाटक के मुख्यमंत्री को हटाने की साजिश लौह अयस्क की लूट करने वाले लोग कर रहे हैं। येदियुरप्पा के ऊपर कुछ लाख रुपये के प्लाट उनके परिवार को दिए जाने के मामले को लेकर।


बहरहाल, बीच में नीरा राडिया की भी चर्चा हो गई। उनके बारे में भी बताना पड़ा कि वो लंदन में पढ़ी लिखी और पूंजीवाद को नज़दीक से समझने वाली महिला हैं। राडिया की पढ़ाई पूरी हुई, ठीक उसी समय हमारे मनमोहन सिंह बाजार को पूंजीवादी रास्ते पर लेकर आए। उस समय मनमोहन वित्त मंत्री थे। नीरा राडिया ने नजदीक से देखा था कि पूंजीवाद में एक जनसंपर्क एजेंसी की बड़ी भूमिका होती है और उन्होंने वैष्णवी कम्युनिकेशंस की नींव रख दी। बाद में वह टाटा समूह और मुकेश अंबानी समूह प्रमुख उद्योग घरानों के जनसंपर्क देखने लगीं और उन्होंने बहुत बड़ी पूंजी वाली जन संपर्क एजेंसी खड़ी कर ली। अब वह मीडिया और अपने अन्य संपर्कों के माध्यम से उद्योग जगत के पक्ष में माहौल बनाती हैं।
तो आखिर नीरा राडिया कैसे सामने आ गईं? दरअसल टू-जी स्पेक्ट्रम की लूट की जांच का फैसला सरकार ने किया। राडिया चूंकि उद्योगपतियों के लिए काम करती थीं, इसलिए उनके फोन टेप किए जाने लगे। जब फोन टेप में बड़ी-बड़ी मछलियों के नाम सामने आने लगे तो जांच एजेंसी ने उसे साल भर दबाए रखा लेकिन वह टेप लीक हो गई और खबरें मीडिया में आने लगीं।


बहरहाल चर्चा में यह आ गया कि गैस घोटाला क्यों सामने नहीं आया? असल में मुकेश अंबानी ज्यादा चालाक निकले और उन्होंने अपनी डीलिंग सीधे सरकार से की और उस क्षेत्र में किसी प्रतिस्पर्धी को घुसने का मौका ही नहीं दिया। कुछ वैसे ही, जैसे वेदांता के अग्रवाल ने खनन कारोबार में किया था। जब खनन कारोबार में तमाम कारोबारी कमाई के लिए घुसने लगे औऱ घोटाला सामने आने की नौबत आई तो उन्होंने लंदन में घर बसा लिया। अग्रवाल को अब भारत में कमाई से खास मतलब भी नहीं है क्योंकि वेदांता विश्व की तीसरी बड़ी खनन कंपनी बन चुकी है। हालांकि उनका भारत में भी बहुत बड़ा कारोबार है।


मेरी समझ में इतना ही आया और यह मेरे निजी विचार हो सकते हैं। मनमोहन को मैने धन्यवाद भी दिया और खुद नए सिरे से समझने और समझाने की कोशिश की कि किस तरह से देश में धनकुबेरों की संख्या बढ़ रही है और वे वैश्विक धनकुबेरों की सूची में ऊंचा स्थान बनाते जा रहे हैं। इसी को कहते हैं शानदार विकास!

Friday, November 26, 2010

राहुल गांधी और चेहरे की राजनीति

बिहार चुनाव में राहुल गांधी के चुनावी दौरों का कोई असर नहीं पड़ा। जो लोग उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को लोकसभा में चुनावी जीत को राहुल के चेहरे की जीत मान रहे थे, शायद उन्हें निराशा हाथ लगी है।
हालांकि चमचागीरी की राजनीति करने वाले कांग्रेसियों को भी पता ही होगा कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को जीत क्यों मिली थी?
उत्तर प्रदेश में मंडल आयोग के बाद हुए ध्रुवीकरण में मुलायम सिंह यादव पिछड़े वर्ग के मसीहा बनकर उभरे थे। उसी में उनके एक डिप्टी मुलायम भी थे, बेनी प्रसाद वर्मा। लेकिन मुलायम सिंह भी जब लंबे समय तक जीत हासिल करते रहे तो उन्होंने उत्तर प्रदेश में आए बदलाव को यादवों और मुलायम परिवार की जीत मान ली और उनके डिप्टी ढक्कन साबित हो गए। शायद लोगों को अभी भी याद होगा कि जब मुलायम केंद्रीय मंत्री थे तो उन्होंने बेनी प्रसाद को संचार मंत्री जैसे महत्वपूर्ण विभाग की जिम्मेदारी दिलाई थी और उन्हें केबिनेट मंत्री का दर्जा हासिल हुआ।
बेनी प्रसाद वर्मा लंबे समय तक उत्तर प्रदेश की राजनीति में पृष्ठभूमि में पड़े रहे और पिछले लोकसभा चुनाव में उन्होंने अपनी पहचान बचाने के लिए कांग्रेस का सहारा लिया। उधर मुलायम सिंह की उत्तर प्रदेश में ऐसी छवि बनी, जैसे वे सिर्फ यादवों के नेता बन गए हों। परिणाम यह हुआ कि बेनी प्रसाद ने जनता की भावनाओं को समझा और कांग्रेस के साथ मिलकर इसका लाभ उठाया। मुलायम सिंह की तमाम परंपरागत बन चुकी सीटें (जो बेनी प्रसाद के प्रभाव से सपा को मिलती थीं) कांग्रेस को चली गईं। गोंडा और नेपाल बॉर्डर से सटी बेनी के प्रभाव वाली करीब १० सीटें कांग्रेस ने मुफ्त में हथिया लीं।
हां, रायबरेली-अमेठी औऱ उससे सटे इलाकों में जरूर नेहरू खानदान का फेस वैल्यू रहा।
इसे कांग्रेसियों ने कुछ इस तरह प्रचारित किया, जैसे कि राहुल गांधी का जादू चल गया। कहीं राहुल की छवि को मीडिया दूसरा रुख न दे दे, शायद इसी का ध्यान रखते हुए बेनी बाबू को मंत्री क्या संत्री बनाने के योग्य भी नहीं समझा गया।
बिहार क्या, अब पूरे देश में फेस वैल्यू है। लेकिन वह फेस कैसा हो? सवाल यह है। शायद जनता चाहती है कि यह फेस उनके बीच का हो, जो उनके दर्द-दुख और उनके विचारों को समझे। कांग्रेस और भाजपा दोनों ऐसी पार्टियां हैं जो जनाधार वाले नेताओं को बर्दाश्त नहीं कर सकतीं। जहां भाजपा में फेस बनाने के चक्कर में तमाम हवा-हवाई नेता लगे रहते हैं, कांग्रेस के लोग नेहरू खानदान के अलावा किसी को फेस मानते ही नहीं।
कुल मिलाकर देखें तो हवा-हवाई फेस वैल्यू बनाने वालों की हवा भी बिहार के मतदाताओं ने निकाल दी है।

Wednesday, November 24, 2010

क्या भारत का कारोबारी जगत अपनाएगा बिहार मॉडल

२४ नवंबर २०१० को मेरी शादी के ५ साल पूरे हो गए। मन में पहले से था कि इस दिन कार्यालय के काम से छुट्टी लेकर जीवन का आनंद लिया जाए। बाधा यह पड़ गई कि सुबह से ही मैं टेलीविजन पर भिड़ गया बिहार का चुनाव देखने। पत्नी ने उसमें कोई खास सहयोग नहीं दिया, लेकिन परिणाम देखने में बहुत अच्छा लग रहा था, इसलिए रात तक टीवी पर यही खबर देखता रहा।

बिहार में हालत यह हो गई है कि विपक्ष ही नहीं रहा। सारी सीटें नीतीश-मोदी ने हथिया ली। लालू प्रसाद जैसे करिश्माई नेता को यह उम्मीद तो कतई नहीं थी, या कहें कि किसी को यह उम्मीद नहीं थी।
नीतीश कुमार ने जनता से सिर्फ एक बात कही थी कि ५ साल से जो सेवा की है, उसकी मजदूरी दे दो। बिहार में ज्यादातर मजदूर ही हैं... खासकर वे लोग, जो वोट देते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि उन्होंने नीतीश को उनकी मजदूरी देकर खुश कर दिया। कारोबारी जगत भी खुश है। बिहार के चुनाव को एक मॉडल के रूप में देखा जा रहा है। जिस बिहार को कहा जाता था कि यह नहीं सुधर सकता, जाति-पाति से ऊपर नहीं उठ सकता, उसने कम से कम मजदूरी देने में तो पूरी दरियादिली दिखाई और सही कहें तो बिहार में नीतीश सरकार ने जितना काम किया था, उससे कहीं ज्यादा उन्हें मजदूरी मिली।

देश में अभी तक जाति की ही राजनीति चली है। कांग्रेस सरकार शुरू से कथित ऊंची जाति, दलित और मुसलमान के जातीय समीकरण से सत्ता में बनी रही। उसके बाद लालू प्रसाद के समय में वह वर्ग उभरकर सामने आया, जो कांग्रेस सरकार में सत्ता सुख से वंचित था और ऐसा हर राज्य में कमोबेश हुआ। कांग्रेस-भाजपा अभी भी उस वर्ग को अछूत मानती है, जिसका वोट लेकर मुलायम-लालू जैसे नेता सरकार में आए।

अभी भी उदाहरण सामने है। महाराष्ट्र में चव्हाण के बदले चव्हाण खोजा गया। कर्नाटक में भाजपा लिंगायत के बदले लिंगायत खोज रही थी, लेकिन येदियुरप्पा ने इस्तीफा ही नहीं दिया। आंध्र प्रदेश में कांग्रेस ने रेड्डी के बदले रेड्डी खोज निकाला। ऐसे माहौल में अगर नीतीश कुमार २४३ में से २०६ सीटें जीतकर सत्ता में आते हैं तो निश्चित रूप से बिहार ने देश को एक नई दिशा दी है। यह प्रचंड बहुमत किसी जाति समूह के मत से नहीं मिल सकता, सबका मत नीतीश सरकार को मिला। वह भी मजदूरी के बदले।

मजदूरों से भरे बिहार ने नीतीश का दर्द समझा है कि अगर कोई मेहनत से काम करता है तो उसे मजदूरी दिल खोल कर दी जानी चाहिए। ऐसे में कारोबारियों को भी एक सीख मिली है कि अगर कोई मेहनत से काम करता है तो उसका हक जरूर मिलना चाहिए। देश के हर औद्योगिक क्षेत्र में मजदूरों में असंतोष है। नोएडा और गाजियाबाद में प्रबंधन से जुड़े लोगों की हत्या इसका उदाहरण है। तो ऐसी स्थिति में बिहार का मतदाता क्या संकेत दे रहा है.... क्या हर तिकड़म लगाकर, टैक्स की चोरी कर, सरकार में अपने प्यादे रखवाकर, बैलेंस सीट में गड़बड़ियां कर, सरकार से मिली भगत कर देश की संपत्ति को निजी संपत्ति बनाने में जुटे कारोबारी- एक तिमाही में तीन हजार करोड़ रुपये मुनाफा कमाने वाले कारोबारी जनता के इस संदेश को समझ पाएंगे? क्या वे बिहार के मजदूरी मॉडल को स्वीकार कर पाएंगे?

बहरहाल... बहुत दिन बाद राजनीति पर लिखने को मन में आया है। उम्मीद है कि अभी और कुछ भी जारी रहेगा...

Wednesday, November 17, 2010

मरने के लिए ही बने हैं मजदूर

पिछले तीन दिन से समाचार पत्र पढ़ते, टीवी चैनल देखते और नेताओं अधिकारियों के बयान सुनते मैं इसी निष्कर्ष पर पहुंचा कि मजदूर मरने के लिए बने हैं। उदारीकरण, औद्योगीकरण के शाइनिंग इंडिया में ही इसकी नींव रख दी गई और इसका कोई विकल्प अब नहीं है। कौन है जो शाइनिंग इंडिया के खिलाफ जा सकता है या जाने की हिम्मत रखता है। न तो कोई अधिकारी-नेता समस्या के समाधान का इच्छुक है, न ही वह इस मसले पर बात कर रहा है। समस्या के समाधान की योजना बनाना तो दूर की बात है।

आखिर लोग अन्य राज्यों से मजदूरी करने दिल्ली आते ही क्यों हैं? यही तो शाइनिंग इंडिया है। पूंजीपतियों को सुविधा देने के लिए देश भर में कुछ केंद्र बना दिए गए। वहां पर फैक्टरी या संयंत्र लगाने के लिए उद्योगपतियों को फ्री जमीन, मामूली ब्याज दर (कभी कभी तो शून्य दर पर) कर्ज मुहैया कराया जाता है। साथ ही यह सुविधा दी जाती है कि उस इलाके में अगर कारोबारी मजदूर का खून भी निचोड़ रहा है तो स्थानीय प्रशासन की कोई भूमिका नहीं होगी, न ही स्थानीय लोगों का कोई हस्तक्षेप होगा। बाहर से मजदूरी करने लोग आएंगे और वे दो जून की रोटी कमाने के लिए जितना भी खटाया जाए, खटेंगे।

इससे हुआ यही कि अन्य रोजगार केंद्रों से रोजगार छिन गए। उत्तर प्रदेश, बिहार और अन्य कुछ पिछड़े राज्यों में कुछ बचा ही नहीं। किसानों को बिचौलियों के हाथ बर्बाद करवा दिया गया, उत्पादन लागत से ज्यादा पर वह अपना उत्पाद बेच ही नहीं पाता। वह ८ रुपये किलो गेहूं बेचता है तो गरीब खरीदारों तक पहुंचते पहुंचते वह १६ रुपये किलो हो जाता है। विनिर्माण क्षेत्र पूरी तरह से कुछ शहरों तक केंद्रित कर दिए गए।

अगर शाइनिंग इंडिया में मजदूरों और कर्मचारियों की कोई जगह होती तो निश्चित रूप से रोजगार के तमाम केंद्र बनते, जिससे मजदूरों का विस्थापन नहीं होता। अगर मजदूरों का विस्थापन कराना और छोटे-छोटे रोजगार केंद्रों को बर्बाद करना ही था तो उस शाइनिंग इंडिया में सेज में कंपनियों को १० एकड़ जमीन देते वक्त सरकार २ एकड़ जमीन की व्यवस्था उसके कर्मचारियों के लिए भी कर देती, लेकिन ऐसा नहीं किया गया।

दिल्ली के लक्ष्मीनगर इलाके में बिल्डिंग ढहने की घटना इसकी बानगी है। दिल्ली में केंद्र सरकार और राज्य सरकार ने मिलकर १६०० से ज्यादा स्लम और अवैध कालोनियां विकसित करवाई हैं, जिससे वहां देश भर के मजदूर आकर बस सकें। इन कालोनियों में जनसंख्या विस्फोट की स्थिति है। दो कमरे का किराया सात से दस हजार रुपये महीने तक चल रहा है। स्लम एरिया में पहले बस चुके लोग अपने मकान में कहीं न कहीं से कमरे बढ़ाने की गुंजाइश में लगे हैं कि किसी तरह से १ कमरा बढ़ जाए तो उसका तीन हजार रुपये महीने किराया आने लगे।

इन १६०० अवैध और स्लम कालोनियों में वे लोग रहते हैं जिनकी मासिक कमाई तीस हजार रुपये तक है। उससे ऊपर जाने पर वे वैध कालोनियों में घुसने की कोशिश करते हैं, जहां दो कमरे का किराया बारह हजार रुपये महीने के ऊपर चला गया है। वैसे तो दिल्ली में पाकिस्तानी और बांग्लादेशियों के अलावा हर राज्य से आए लोग अवैध रूप से रहते हैं, क्योंकि सरकारों ने तो सिर्फ पाकिस्तानियों और बांग्लादेशियों को ही वैध रूप से बसाया है, बाकी वैध रूप से रहने वाले लोगों की संख्या कम ही है।

अवैध कालोनियों में रह रहे लोगों के पास विकल्प क्या है? क्या वे अपने नियोक्ता पर हमला करें, जो उन्हे इतना वेतन नहीं देता कि वे वैध इलाकों में रह सकें, या वे उस मकान मालिक पर हमला कर दें तो उन्हें अपने घर में रखता है, या वे खुद कहीं रेल के नीचे कट मरें।

बाहर से आने वाले मजदूरों के बिना भी दिल्ली में काम नहीं चलने वाला है। आखिर वे जो काम कर रहे हैं, उसे कौन करेगा? लेकिन उनके जीने का कोई इंतजाम नहीं है। अपने राज्य में रहें तो भूख से मरें और दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु जैसे रोजगार केंद्रों पर नौकरी करने जाएं तो अपने आशियाने के कब्रिस्तान में दफन हो जाएं। इस तरह से मरना ही उनकी नियति है और यही शाइनिंग इंडिया की चमकदार तस्वीर है।

Tuesday, October 26, 2010

बिहार में नीतीश कुमार के लिए संभावनाएं

बिहार में नीतीश कुमार फिर ५ साल के लिए मुख्यमंत्री बनने जा रहे हैं- २ चरण के चुनाव में ही स्पष्ट हो गया।

दरअसल दुनिया की किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में करीब सात प्रतिशत मतदाता बेवकूफ होते हैं। वे विकास और नेता के कामों को मतदान का आधार बनाते हैं। उनकी कोई राजनीतिक विचारधारा या निष्ठा, पूर्वाग्रह या ग्रंथि नहीं होती। वे अंत तक भ्रमित रहते हैं। बिहार में ऐसे मतदाताओं को लुभाने की कोशिश में नीतीश ने कहा कि हमने काम किया, लालू ने कहा कि सब स्टंट है और कांग्रेस ने कहा कि सब हमारे पैसे से हुआ। लेकिन ये मतदाता नीतीश कुमार के पक्ष में शत प्रतिशत जाते नजर आ रहे हैं।

दूसरे, जातीय समीकरण नीतीश के खिलाफ था। ऐसे में कांग्रेस बेहतरीन भूमिका निभा रही है। पहले चरण में जहां उसने लालू प्रसाद के भूराबाल (भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण, लाला) का वोट कांग्रेस ने नीतीश से छीना है, दूसरे चरण में राम विलास पासवान का बेड़ा... गर्क करती कांग्रेस साफ नजर आ रही है।
नीतीश को असल खतरा भूराबाल से ही था, जिस वर्ग ने पिछले चुनाव में यह सोचकर नीतीश को वोट दिया था कि जिस तरह की लूट का अवसर उन्हें श्रीकृष्ण सिंह और जगन्नाथ मिश्र के समय मिला था, वैसा ही अवसर नीतीश के कार्यकाल में मिलेगा। लेकिन इन्हें निराशा ही हाथ लगी है। इनके फ्रस्टेटेड वोट (करीब ३० प्रतिशत) कांग्रेस को जा रहे हैं, वहीं तमाम क्षेत्रीय आदि समीकरण बैठाने में सफल रहे नीतीश के पक्ष में अभी भी ६० प्रतिशत भूराबाल हैं। इस तरह से कांग्रेस, नीतीश कुमार के पक्ष में वोटकटवा की भूमिका में ज्यादा नजर आ रही है।

Sunday, October 17, 2010

न्यायालय पहुंचा ब्राह्मणवाद, वहां भी न्याय नहीं

गुजरात उच्च न्यायालय में अजीत मकवाना ने एक मामला दायर किया है। इसमें आरोप लगाया गया है कि ब्राह्मणवाद के चलते जूनागढ़ जिला न्यायालय के न्यायधीश ने त्रितीय औऱ चतुर्थ श्रेणी के ६० प्रतिशत नियुक्ति ब्राह्मणों का किया है।

इसमें पेंच यह फंसा कि उच्च न्यायालय के न्यायधीश आरआर त्रिपाठी भी ब्राह्मण थे। अब अजीत ने अपने वकील एएम चौहान के माध्यम से कहा कि उसे उच्च न्यायालय के न्यायाधीश से भी न्याय की उम्मीद नहीं है, क्योंकि वे भी ब्राह्मण जाति के हैं।

जैसे ही वकील ने यह आधार बनाकर मामले का स्थानांतरण किसी अन्य न्यायालय में करने को कहा, न्यायाधीश त्रिपाठी ने फैसला दिया कि या तो यह आरोप न्यायालय पर दबाव बनाने के लिए लगाया गया है .या फिर मामले का स्थानांतरण दूसरे न्यायालय में कराने के लिए। यह आधार बनाकर न्यायाधीश ने मामले को खारिज कर दिया, जिससे यह प्रवृत्ति रोकी जा सके।

अब क्या कहा जाए? न्याय तो अजीत को मिला नहीं। और शायद इस देश के अजीतों को कभी न्याय नहीं मिलेगा। दलित, पिछड़ा उत्थान के नारे लाख लगें- हकीकत यही है कि जातिवादी भ्रष्टाचार आज भी चरम पर है। उसकी सुनवाई कहीं नहीं है।

स्कूल, कार्यालय, या जहां भी भ्रष्टाचार की संभावना वाली जगहें हैं, कहीं भी अगर सही सर्वे किया जाए तो नियोक्ता की जाति के कार्यकाल में नियुक्त लोगों के आंकड़े यही बयान करते हैं। सरकारी नौकरियां तो अब कम ही हैं... निजी क्षेत्र में यह खेल खुलेआम और धड़ल्ले से चल रहा है। वहां पर तो इस बीमारी को खत्म करने के लिए कोई राजनीतिक दबाव भी नहीं है।

Tuesday, October 12, 2010

कर्नाटक में लोकतंत्र का जनाजा

लंबे समय से कर्नाटक में संघर्ष कर रही भारतीय जनता पार्टी आखिर मुसीबत में आ ही गई। कितना विरोधाभास है कि एक तरफ येदियुरप्पा जैसे साफ छवि के और पिछड़े वर्ग से ताल्लुक रखने वाले मुख्यमंत्री हैं तो उसी पार्टी में अगड़ी जाति के रेड्डी बंधु भी।

भाजपा के इस विरोधाभास का फायदा को कांग्रेस और विपक्षी दलों को उठाना ही था। खबरों के मुताबिक ३०० करोड़ रुपये खर्च करके १२ विधायक खरीद लिए गए और येदियुरप्पा सरकार अल्पमत में आ गई।

कर्नाटक जैसे राज्य में येदियुरप्पा सरकार को गिराने के लिए तीन सौ करोड़ रुपये की राशि बहुत छोटी है। राज्य सरकार ने लौह अयस्क की लूट पर पूरी तरह प्रतिबंध लगा दिया है। कोर्ट के फैसले के बाद भी लौह अयस्क माफियाओं की दाल नहीं गल रही है। जिस राज्य में लौह अयस्क के खनन व निर्यात पर प्रतिबंध के चलते लौह अयस्क माफिया कंपनियों और ठेकेदारों को प्रतिदिन तीन सौ करोड़ रुपये का घाटा हो रहा हो, वहां सरकार गिराने के लिए इतना पैसा खर्च करना तो बहुत छोटी राशि है।

रही बात भारतीय जनता पार्टी की। वह कर्नाटक में सरकार बचाना भी चाहती है और रेड्डी बंधुओं के साथ भी रहना चाहती है। भाजपा अपने चाल-चरित्र के मुताबिक पिछड़े वर्ग को एक शानदार नेता के रूप में नहीं देख सकती, लेकिन वह उत्तर प्रदेश में पिछड़े वर्ग के नेतृत्व को हाशिए पर लगाने का परिणाम देख चुकी है और केंद्र में सत्ता के लिए लार टपकाने के सिवा उसके हाथ में आज कुछ भी नहीं है। ऐसे में वह येदियुरप्पा को ठिकाने लगाने का जोखिम भी नहीं उठाना चाहती, क्योंकि ऐसा करने पर वह राज्य भी भाजपा के हाथ से निकलना तय है।

कर्नाटक में लोकतंत्र बहाली में असल समस्या लौह अयस्क के अवैध लूट पर रोक है। अगर येदियुरप्पा हटते हैं तो कांग्रेस, भाजपा सहित सभी पार्टियां खुश ही होंगी, क्योंकि लूट में सबका मुंह काला है। लेकिन येदियुरप्पा को हटाने का मतलब होगा की भाजपा अपनी कब्र तैयार कर लेगी। ऐसे में संकट गहराना स्वाभाविक है।

Wednesday, September 1, 2010

न्यायालय भी किसानों के लिए नहीं!!

अभी सर्वोच्च न्यायालय के एक फैसले पर हंगामा मचा है। कोर्ट ने केंद्र सरकार को आदेश दिया है कि जो अनाज सड़ रहा है वह गरीबों में वितरित किया जाए। यह चिंता केंद्र सरकार की है कि किस तरह का नियम बनाए और किस ढंग से वह अनाज को गरीबों में वितरित करे, क्योंकि न्यायालय आदेश दे सकती है, व्यवस्था नहीं।हां न्यायायालय ने केंद्र सरकार की एक चिंता दूर कर दी है। उसने कहा है कि सरकार उतना ही अनाज खऱीदे, जितने अनाज के रखरखाव की व्यवस्था हो। अब सरकार को किसानों का अनाज नहीं खरीदना पड़ेगा, क्योंकि सरकार आसानी से कह देगी कि वह सर्वोच्च न्यायालय के आदेश का पालन कर रही है। और इसी आदेश पालन के तहत अनाज नहीं खरीदा जा रहा है।

लघु एवं कुटीर उद्योग के तहत बनने वाले उत्पाद के खरीद की व्यवस्था सरकार करती है। केंद्र सरकार ने अनाज की सरकारी खरीद व्यवस्था बनाई थी। लेकिन यह व्यवस्था फाइलों तक ही सीमित रही। पंजाब और हरियाणा को छोड़ दिया जाए तो किसी भी राज्य में सरकारी खरीद नाममात्र को होती है। सरकारी खरीद का ही फायदा है कि वहां के किसान बिचौलियों के चंगुल में नहीं फंसते और कुछ हद तक इन राज्यों के किसान खुशहाल हैं। अन्य राज्यों में तो किसान आज भी आत्महत्या करने की कगार पर हैं, वे इसलिए नहीं मरते कि गांवों में अभी भी लोगों की जिजीविषा ज्यादा है।

हां कुछ सालों से सरकारी खरीद इसलिए बढ़ गई, क्योंकि स्थानीय जनता और नेताओं का दबाव अनाज के सरकारी खऱीद को लेकर बढ़ा। सरकारी खरीद होती ही कितने खाद्यान्न की है? गेहूं, चावल, दाल, कपास जैसे कुछ नाममात्र के कृषि जिंस हैं, जिनकी खरीदारी सरकार करती है। आलू, प्याज और अन्य कच्चे माल की खेती करने वाले किसान तो आज भी आए दिन बर्बाद होते रहते हैं और लाखों टन आलू खेतों में या किसानों के घर-आंगन में सड़-गल जाता है।

अगर न्यायालय किसानों के हित की बात सोचते तो कब का यह व्यवस्था दे चुके होते कि किसानों का सारा अनाज सरकार खरीदे और उसका रखरखाव करे। उसके बाद किसानों को भी खाने के लिए अनाज सब्सिडी रेट पर या फ्री में दिया जाए। लेकिन ऐसा नहीं। अगर गेहूं का उत्पादन लागत १० रुपये किलो आता है और किसान उसे ३० रुपये किलो बेचे तो शायद उसे हाथ फैलाने को विवश नहीं होना पड़े। किसान खुद कोल्ड स्टोरेज और अनाज के रखरखाव की सुविधा विकसित कर लेगा। लेकिन खाद्यान्न कीमतों पर तो सरकार का शिकंजा है और कीमतें बढ़ाने या घटाने में दलालों और बिचौलियों की ही मुख्य भूमिका होती है।

आखिर हमारी न्यायपालिका कब कहेगी कि देश में ऐसी नीति बनाइये कि हर इलाके में पर्याप्त गोदाम, कोल्ड चेन और अन्य सुविधाएं हों, जिससे किसानों के उत्पाद बर्बाद न होने पाएं। इससे न सिर्फ खाद्य सुरक्षा सुनिश्चित होगी, बल्कि किसान को अगर उचित फायदा और बेहतर जीवन स्तर मिलने लगेगा तो वे महानगरों में मजदूरी करने के लिए विवश नहीं होंगे।

Wednesday, August 11, 2010

आखिर वही हुआ, जो संदेह था!

कश्मीर में पुलिस, सेना और अर्धसैनिक बलों पर पथराव करने वाले लोगों को नौकरी और राज्य को भारी-भरकम पैकेज देने की तैयारी शुरू हो गई। फेसबुक पर मैने कुछ दिन पहले यह संदेह जाहिर किया था। http://www.facebook.com/photo.php?pid=30901240&id=1321980557#!/profile.php?id=1127530064&v=wall&story_fbid=141019089263474&ref=mf

मेरे कुछ मित्रों ने यह भी लिखा कि ऐसा ही पैकेज पंजाब को भी दिया गया। पंजाब में तो ऐसा एक बार या दो बार किया गया। कश्मीर में तो लगातार यह हरकत जारी है। पंजाब ने भी तो आखिर कश्मीर से ही सीख ली थी। पंजाब का उदाहरण देकर कश्मीर के पैकेज को तो कतई जायज नहीं ठहराया जा सकता है।

आखिर इस पैकेज और रोजगार से क्या फायदा मिलने वाला है? यह तो सीधे-सीधे ब्लैकमेलिंग है। कश्मीर की हालत आज ऐसी है कि वहां हर घर में सरकारी नौकरी है। खाद्यान्न से लेकर फल और मेवा सब कुछ सस्ते में सब्सिडी रेट पर मिलता है। कुल मिलाकर कहें तो आर्थिक राम राज्य जैसा माहौल पिछले ५० साल में केंद्र सरकार ने बना दिया है।

तर्क दिया जाता है कि हाथों को रोजगार नहीं है, इसलिए वहां के युवक पथराव करने को मिल जाते हैं। आखिर देश को कब तक बेवकूफ बनाया जाता रहेगा? वहां रोजगार और सरकारी नौकरियां करने वाले लोग और उनके बच्चे भी पथराव करते हैं। हाल ही में मैने एक राष्ट्रीय समाचार पत्र में पढ़ा कि बेरोजगारी बहुत बड़ा संकट है कश्मीर में। हालांकि लेखक महोदय शायद यह नहीं जानते कि वहां के लोग न तो रोजगार की मांग कर रहे हैं, न बिजली, सड़क, पानी और अन्य बुनियादी सुविधाओं की। आखिर मांगें भी क्यों? देश के किसी भी पहाड़ी या मैदानी हिस्से से तुलना की जाए तो वहां बहुत ज्यादा विकास हुआ है। अगर पड़ोस के ही पाक अधिकृत कश्मीर से तुलना की जाए तो नरक और स्वर्ग का अंतर नजर आता है।

मीडिया में लिखने और कश्मीर की जनता की आवाज दिल्ली में उठाने वाले लोग आखिर इस बात पर सवाल क्यों नहीं उठाते कि एक ही चैनल में दिल्ली में बैठा एंकर कहता है कि आतंकवादियों ने ३ सुरक्षा बलों की हत्या कर दी और कश्मीर में तैनात उसी चैनल का संवाददाता जब लाइव देता है तो कहता है कि मिलिटेंट्स ने सुरक्षा बलों पर हमला किया। क्या उसी चैनल का कश्मीरी रिपोर्टर यह बताने की कोशिश करता है कि हमलावर टेररिस्ट या आतंकवादी नहीं, बल्कि मिलिटेंट या धर्मयोद्धा हैं, जो धर्म के लिए युद्ध कर रहे हैं? आज ही हुए एक हमले के मामले में देश के सबसे बड़े अंग्रेजी न्यूज चैनल में यह घटना हुई।

अगर कश्मीर के लोग नहीं चाहते कि कश्मीर में रोजगार बढ़े, सड़कें बने, पुल बने, विकास हो तो सरकार ऐसा क्यों चाहती है?? क्या कश्मीर में सुविधाएं नहीं दी जाती तो देश के मुसलमान भारत के खिलाफ हो जाएंगे? ऐसा नहीं है। लेकिन फिर भी दिल्ली में बैठे नीति नियंताओं को समझ में नहीं आता कि कश्मीर में यथास्थिति बनाए रखने के अलावा कुछ भी किए जाने की जरूरत नहीं है।

कश्मीर में ऐसा माहौल है कि जो नेता भारत को जितनी ज्यादा गालियां देगा, उसे उतना ही वोट (या कहें जनता का समर्थन) मिलेगा। कश्मीर के लोगों को शायद ही यह एहसास हो कि वहां उत्पादकता नगण्य होने के बावजूद उस तरह के अन्य इलाकों या देश के किसी समृद्ध इलाके के आम लोगों की तुलना में वहां ज्यादा स्वतंत्रता और आर्थिक समृद्धि है। वहां के लोगों को तो यही एहसास है कि भारत को जितनी गालियां दी जाएं, जितना ही सुरक्षा बलों को पीटा जाए, उतनी ही सुविधाएं और आर्थिक मदद मिलती जाएगी। ऐसे में भारत को गालियां देने वाले ही वहां के स्थानीय लोगों के आदर्श हैं।

अगर पैकेज दिया ही जाना है तो कश्मीर के उन लोगों के पुनर्वास का पैकेज जाना चाहिए, जिन्हें कश्मीर से भगाया जा चुका है। देश के अन्य इलाकों के हिंदू- मुसलमानों (या कहें देशवासियों) को भी कश्मीर में रहने व बसने की आजादी मिलनी चाहिए, न कि कश्मीर के नेताओं को पैकेज देकर उन्हें सेना के खिलाफ हथियार खरीदने की आजादी।

Thursday, June 24, 2010

एक ही गांव के लोग भाई-बहन होते है...

दिल्ली के वजीरपुर गांव के लोग कह रहे हैं कि एक ही गांव के लोग भाई बहन होते हैं। वे क्या गलत कह रहे हैं? सिर्फ इतना ही नहीं, चाचा-भतीजा, भाई-भाभी, बाबा-दादी, ताऊ, ताई तमाम रिश्ते होते हैं। मैने अपने गांव में देखा है। मुझसे कम उम्र के कितने लोग मेरे चाचा हैं। मैं अपने उम्र के दोगुने उम्र के लोगों का चाचा भी हूं। तमाम लोग, जो मेरे हमउम्र हैं, रिश्ते में मेरे बाबा हैं। मेरी तमाम बुआ हैं। गांव की किसी लड़की का पति अगर गांव में आता है तो वह पूरे गांव का दामाद हो जाता है। उसके बच्चे आते हैं तो सारा गांव उसका मामा-मामी, नाना-नानी हो जाते हैं। हां, ऐसा कोई उदाहरण शायद मैने अपने गांव में नहीं देखा है कि एक ही गांव के लोग पति-पत्नी या प्रेमी-प्रेमिका हों।

गांव में रिश्तों की एक तासीर होती है। वे शायद शहरी रिश्तों को नहीं समझ पाते कि बगल वाले फ्लैट में रहने वाला व्यक्ति, रिश्ते में उसका क्या लगता है? शायद इसका कारण है कि शहरों में अभी लोग १०-२० या ४०-५० साल से बसे हैं। वे अलग-अलग इलाके से आते हैं। उन्हें बगल वाले के दुख-दर्द से कोई मतलब नहीं होता। अगर बगल के फ्लैट में कोई अकेला है, बीमार है और मरने की कगार पर है तो उसका पड़ोसी ऑफिस जाना ज्यादा जरूरी समझता है। गांव का आदमी अगर आधी रात को बीमार पड़ता है तो गांव में संसाधन, इलाज की सुविधा आदि न होने के बावजूद पूरा गांव एकत्र हो जाता है औऱ उसे अगर १०० किलोमीटर दूर इलाज के लिए ले जाना पड़ता है तो गांव के १० लोग साथ हो लेते हैं। लोगों के पास पैसा नहीं होता है लेकिन गांव में तत्काल १०-२० हजार रुपये इकट्ठा हो जाता है। दिल्ली में ज्यादातर लोग लखपति हैं, लेकिन यहां १०-२० प्रतिशत आबादी भूखे पेट सो जाती है। गांव में सभी लोग आधा पेट भोजन करते हैं, और भूख से तभी मरते हैं जब पूरा गांव भूख से मरने की कगार पर पहुंचने को होता है।

यह होती है रिश्तों की तासीर। यह होता है गांव और शहर के रिश्तों में फर्क, जो मैने महसूस किया है।

Sunday, June 20, 2010

कहीं आप भी बॉस और मातहत से भयभीत होकर अपनी निजी जिंदगी का नाश तो नहीं कर रहे?

तमाम अधिकारियों में असुरक्षा का भाव काफी होता है जो छुट्टियों में भी बॉसगीरी से बाज नहीं आते। इस कवायद से वे रिमोट कंट्रोल के जरिये अपने कनिष्ठों को साधते हैं तो अपने वरिष्ठों से शाबाशी की आस रखते हैं। इसका दुखद पहलू यही है कि उनमें से ज्यादातर को यही लगता है कि उनके किए का सारा श्रेय उनके वरिष्ठ ले जाएंगे। इससे उन्हें लग सकता है कि काम के अलावा उनकी कोई जिंदगी नहीं है। इससे भी बड़े दुख की बात यह है कि यह सिलसिला बदस्तूर चल रहा है और वे लोग इसे आगे बढ़ा रहे हैं जो खुद कभी निचले पदों पर काम करते थे...


श्यामल मजूमदार


समंदर के किनारे खड़े नारियल के खूबसूरत पेड़, सफेद रेत और आसमां को छूने की कोशिश करती सागर की लहरें किसी की भी आंखों को सुकून देने के लिए काफी हैं। लेकिन कुछ ज्यादा ही व्यस्त रहने वाले मिस्टर एक्जीक्यूटिव (आज के दौर की कंपनियों में काम करने वाले बड़े अफसर, आमतौर पर प्रबंधक) इन्हें उतनी रूमानियत के साथ नहीं देख पाते। वे तो बस सुबह अपने दफ्तर जाने के दौरान मीठी नदी (मुंबई में हवाई अड्डïे के करीब से बहती है।) को देखकर ही अपनी खुशी ढूंढऩे की कोशिश करते हैं। उस वक्त उनका दिमाग भी एक अलग स्तर पर होता है जहां वे या तो दूसरों के बॉस होते हैं या फिर वे खुद को किसी के मातहत पाते हैं।

आखिर इन लोगों के लिए गोवा में अरब सागर के खूबसूरत तटों के क्या मायने हो सकते हैं? मिस्टर एक्जीक्यूटिव और उनके जैसे कई महानुभाव होते हैं जो शारीरिक रूप से तो बीच पर मौजूद होते हैं लेकिन उनका मन कहीं और रमा होता है। या तो वे अपने फोन पर बातचीत करते हुए पाए जा सकते हैं या फिर उनकी उंगलियां ब्लैकबेरी फोन पर कसरत करती हुई नजर आ सकती हैं, जिससे वह अपने दफ्तर के लोगों को जरूरी संदेश भेज रहे होंगे। दूसरी ओर उनके साथ सैरसपाटे के लिए गया उनका परिवार इससे उकता जाता है और खुद ही समंदर किनारे की सैर के लिए निकल पड़ता है। एक 12 साल की बच्ची अपनी मां से शिकायत करते हुए पाई जा सकती है कि पापा दूसरे 'बच्चेÓ (फोन) को उससे ज्यादा प्यार करते हैं। उसके पिता उन अनगिनत प्रबंधकों में से एक हो सकते हैं जो अपने कनिष्ठों को लगातार काम देते रहते हैं लेकिन इस काम को किसी भी सूरत में अंजाम तक पहुंचाने की माथापच्ची उनके जिम्मे ही होती है। ये प्रबंधक अपने कनिष्ठों पर उतना ही भरोसा करते हैं जितना कोई गाड़ी चलाने के मामले में पांच साल के बच्चे पर करता है। लेकिन कुछ ज्यादा ही व्यस्त रहने वाला एक्जीक्यूटिव तबका खुद ही कई बार अपनी भूमिका को लेकर भ्रमित रहता है।

अगर छुट्टिïयां मनाने के दौरान उनमें से किसी का मोबाइल स्विच ऑफ है और उनका लैपटॉप होटल के कमरे के किसी कोने में पड़ा है तो एकबारगी उस एक्जीक्यूटिव के मन में यह भाव घर कर सकता है कि कहीं वह बेकार प्रबंधक तो नहीं है या जरूरी चीजों को करने में समर्थ नहीं है, वगैरह-वगैरह। अगर किसी एक्जीक्यूटिव के ईमेल इनबॉक्स में या वीडियो कॉन्फ्रेंसेज में उसके बॉस या मातहतों के 500 से ज्यादा ईमेल भरे हैं तो कोई अचंभे वाली बात नहीं है। ये बॉस सोते भी अपने मोबाइल फोन के साथ ही हैं। ज्यादातर मामलों में यही होता है कि सोने से पहले फोन ही देखा जाता है और सुबह उठते भी सबसे पहले फोन का ही जायजा लिया जाता है। कुछ लोग तो एक हद से भी ऊपर यह काम करते हैं। मौजूदा दौर में कॉर्पोरेट जगत ऐसे ही लोगों से भरा पड़ा है और यही लोग इस दुनिया को चला भी रहे हैं। ये लोग अपनी केबन तक पहुंचने के लिए भी लिफ्ट या एस्केलेटर का ही इस्तेमाल करते हैं और सीढिय़ां केवल उन्हीं लोगों के लिए बच जाती हैं जो उनकी सफाई का काम करते हैं।

छुट्टिïयों से उनका मतलब केवल कामकाजी छुट्टिïयों से होता है जिसमें काम पर ही सबसे ज्यादा ध्यान होता है। आप मुंबई की एक एफएमसीजी कंपनी के उपाध्यक्ष के एक मामले से इसे समझ सकते हैं। एक बेहद दुर्लभ मामले में जब उन्होंने अपना ब्लैकबेरी फोन बंद किया तो उनका यही कहना था कि पिछले तीन साल में यह उनका पहला ब्रेक है। क्योंकि आज की बेहद तेजी से भागती कारोबारी जिंदगी में उनके पास इसके अलावा और कोई विकल्प भी मौजूद नहीं है। वह कहते हैं, 'मैं खुद वहां मौजूद नहीं होता हूं लेकिन तकनीक के जरिये मैं उससे जुड़ा रहता हूं। मैं इस बात को बर्दाश्त नहीं कर सकता कि मेरी गैरमौजूदगी में काम जरा भी प्रभावित हो।

आज के दौर में इन उपाध्यक्ष जैसी हजारों मिसालें आपको मिल जाएंगी। उनमें से कई ऐसे भी होते हैं जिनमें असुरक्षा का भाव काफी होता है जो ऐसा करके खुद को सुरक्षित दायरे में महसूस करते हैं। इस कवायद से वे रिमोट कंट्रोल के जरिये अपने कनिष्ठों को साधते हैं तो अपने वरिष्ठïों से शाबाशी की आस रखते हैं। इसका दुखद पहलू यही है कि उनमें से ज्यादातर को यही लगता है कि उनके किए का सारा श्रेय उनके वरिष्ठï ले जाएंगे और उन्हें फिर बेहद चुनौतीपूर्ण काम थमा दिया जाएगा जिसके लिए वक्त भी काफी कम मिलेगा। इससे उन्हें लग सकता है कि काम के अलावा उनकी कोई जिंदगी नहीं है। इससे भी बड़े दुख की बात यह है कि यह सिलसिला बदस्तूर चल रहा है और वे लोग इसे आगे बढ़ा रहे हैं जो खुद कभी निचले पदों पर काम करते थे।

इसमें कोई ताज्जुब नहीं होना चाहिए कि कुछ साल पहले भारत में कर्मचारियों के बीच हुए एक सर्वेक्षण में तकरीबन 75 फीसदी ने अपने बॉस को घटिया करार दिया था। इसकी बड़ी वजह यही हो सकती है कि कई बॉस प्रोन्नति के मामले में कंपनी की घटिया नीतियों के कारण मनमाने तरीके अपनाकर कुछ भी कर सकते हैं। उनमें से कई अपने मातहतों के करियर की दशा और दिशा बिगाड़ सकते हैं तो कई मामलों में कम योग्य लोगों को ही बड़ी कुर्सी तक भी पहुंचा सकते हैं।

मंदी के दौर में पिछले कुछ अर्से में तो हालात और भी बुरे हुए हैं और इन प्रबंधकों की मुश्किलें और बढ़ी हैं। उन्हें कर्मचारियों की संख्या घटाने, लागत कम करने और कई दूसरे कठिन मोर्चों पर कमान संभालनी पड़ी है। अनुमान के मुताबिक कई भारतीय कंपनियों ने तो इस मामले में हद ही कर दी। कई कंपनियां दो व्यक्तियों का काम एक ही व्यक्ति से ले रही हैं तो कुछ ने काम के घंटे ही बढ़ा दिए हैं। मतलब कि एक दिन में 12 घंटे कंपनी के लिए काम करना कोई बड़ी बात नहीं रह गई है। इस तरह के परिदृश्य में कामकाजी जिंदगी और असल जिंदगी में संतुलन कायम रखना मुश्किल हो गया है। पिछले कुछ वर्षों में ज्यादा से ज्यादा लोगों ने काम पर अपना ज्यादा वक्त लगाया है और जिंदगी को कम ही वक्त मिल पाया है। यह केवल भारत में ही नहीं हो रहा है बल्कि दुनिया इस बीमारी से जूझ रही है।

साभारः http://www.business-standard.com/india/news/shyamal-majumdar-more-work-+-blackberry-=-holiday/396249/

Friday, June 18, 2010

एक साथ कई काम? कहीं आप बीमार तो नहीं?

सामान्यतया कई लोग बहुत ज्यादा काम करने का दिखावा या दावा करते हैं। जैसे कि उन्हीं पर पूरा आफिस टिका है। अगर आप भी ऐसा सोचते हैं तो यह भी सोचना शुरू कर दीजिए कि कहीं आप बीमार तो नहीं हैं?


श्यामल मजूमदार

अपराह्न के तीन बजे हैं। ईमेल देखने, न्यूज चैनल पर नजर डालने के दौरान आप लंबी दूरी की कॉल भी स्वीकार कर रहे हैं, साथ ही अनिच्छा के साथ सैंडविच का कौर भी ग्रहण कर रहे हैं जो कि ठंडा हो चुका है।

ऐसा इसलिए क्योंकि रोजाना की बैठकों की वजह से आपको पर्याप्त समय नहीं मिल रहा। आपको लग रहा होगा कि आपके साथ भी ऐसा हो रहा है? आपकी तरह ऐसे असंख्य एग्जिक्यूटिव हैं जो 60 मील प्रति घंटा (इसे 80 कर देते हैं) के हिसाब से जिंदगी चलाने के बारे में सोच रहे हैं और उन्हें लगता है कि ऐसे रास्ते पर चलकर ही आगे बढ़ा जाता है।

लेकिन मनोवैज्ञानिकों के पास 24X7 वाले ऐसे अस्तित्व के लिए एक शब्द है और वह है हरी सिकनेस, जिससे ग्रसित कोई व्यक्ति समय की कमी महसूस करता है और इस वजह से हर काम तेजी से करने की चेष्टा करता है। जब इसमें किसी तरह की देरी होती है तो वह घबरा जाता है।

ऐसे लोग पूरे कार्यसमय के दौरान छोड़ी गई मिसाइल की तरह चलते रहते हैं (वे दूसरों के मुकाबले काफी पहले दफ्तर पहुंचते हैं और बाकी लोगों के जाने केबाद दफ्तर छोड़ते हैं), वे इस उम्मीद में ऐसा करते हैं कि स्थायी रूप से व्यस्तता देखकर बॉस प्रभावित होंगे।

इसका दूसरा पहलू हालांकि यह है कि ऐसे लोग काम का व्यस्तता के साथ घालमेल कर रहे होते हैं और स्मार्ट बनकर काम किए जाने को लंबे समय तक व तेजी से काम करने से भ्रामक बना देते हैं। एचआर सलाहकार कहते हैं कि ऐसे व्यस्त लोगों को यह समझने की दरकार है कि करियर के लिए जहां ऐसी भावभंगिमा जरूरी हो सकती है, वहीं जिंदगी में इस भावभंगिमा की वजह से बहुत कुछ देखा जाना बाकी रह सकता है।

मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि हरी सिकनेस कॉरपोरेट रैट रेस की चिंता में वहां पहुंचना और उसमें मगन होने के मुकाबले बहुत कुछ और है। इस बीमारी से पीड़ित व्यक्तियों को कभी-कभी यह अहसास नहीं होता कि तेज गति और अतिरिक्त घंटे तक काम करना लंबी अवधि के लिए टिकाऊ नहीं हो सकता है। अगर वे ऐसा कर सकते हैं तो उनके काम की गुणवत्ता वैसी नहीं रह पाती है क्योंकि वे गौरवान्वित रोबोट के अलावा कुछ और नहीं होते।

मॉडर्न टाइम्स मूवी को याद कीजिए जहां चार्ली चैपलिन फैक्टरी की असेंबली लाइन में रोजाना आठ घंटे तक खड़े रहते हैं और वहां से गुजर रहे नट को औजार से कसते रहते हैं। समय-समय पर बॉस कन्वेयर बेल्ट की गति बढ़ा देता है और चैपलिन को तेज गति से काम करना पड़ता है। पूरे दिन वह अपनी बांह को एकसमान तरह से ही चलाते हैं।

आठ घंटे बाद वे जब वहां से बाहर निकलते हैं तो उनका काम नहीं रुकता। घर जाने के दौरान हालांकि उनके पास औजार नहीं होता, पर लोगों के मनोरंजन के लिए वे पूरे रास्ते उसी तरह का हाव-भाव दिखाते रहते हैं। अपने कार्यस्थल पर जल्दबाजी में रहने में रहने वाले लोगों के साथ भी ऐसा ही होता है।

एक समय के बाद वे सोचना बंद कर देते हैं और सही मायने में चैपलिन की ही तरह प्रतिक्रिया जताते हैं, जैसा कि वे घर जाने के दौरान जताते थे। और ज्यादा सक्षम बनने के लिए ऐसे लोग लगातार जल्दबाजी में रहते हैं। उन्हें लगता है कि हर समय आपातकालीन स्थिति है, लेकिन जब सही मायने में आपातकालीन स्थिति आती है तो वे इसका प्रत्युत्तर देने में अपने आपको अक्षम पाते हैं।

'द 80 मिनट एमबीए' के लेखक रिचर्ड रीव्स व जॉन नेल कहते हैं कि नियुक्ति करने और उन्हें बाहर का दरवाजा दिखाने की खातिर कामयाब नेतृत्व अपने आपको व सहयोगियों को समझने या जानने में समय लेते हैं। लेकिन जो लोग जल्दी में होते हैं उन्हें लगता है कि सभी लोगों के लिए संसाधनों का अभाव है। इस किताब ने क्विक हरी सिकनेस टेस्ट के बारे में बताया है, उसका सार इस तरह से है :

1। जब आप सुबह ब्रश कर रहे होते हैं तो क्या आप उस समय कुछ और काम कर रहे होते हैं मसलन अंडरवियर खोजना, बच्चों पर चिल्लाना आदि?
2. जब आप ट्रेन या विमान पकड़ते हैं- उन क्षणों में प्रवेश करना जब दरवाजा बंद होने वाला हो ?
3. जब आप लिफ्ट में प्रवेश करते हैं तो क्या आप तत्काल डोर क्लोज का बटन खोजते हैं? आप इस सच्चाई को नजरअंदाज कर रहे हो सकते हैं कि चार सेकंड में अपने आप दरवाजा बंद हो जाएगा। इस अवधि तक आपको इंतजार करना निश्चित रूप से अकल्पनीय लगता है, क्या ऐसा नहीं है?
4। आप लिफ्ट के बटन को कितनी बार दबाते हैं क्योंकि वह 16वीं मंजिल से नीचे आने में समय ले रहा है? आपमें से कुछ वास्तव में ऐसा करते हैं मानो ऐसा करने से लिफ्ट के आने की गति तेज हो जाएगी।

अब इसकी गिनती कीजिए कि कितने सवालों का जवाब आपने हां में दिया है। अगर स्कोर दो है तो फिर आप समय के साथ हैं। अगर स्कोर तीन है तो यह हरी सिकनेस का शुरुआती लक्षण है। और अगर स्कोर चार है तो दिन में ज्यादातर समय अपनी ही पूंछ का पीछा कर रहे होते हैं, इसका मतलब यह हुआ कि बीमारी उन्नत चरणों में पहुंच चुकी है।

चिकित्सा विज्ञान में इसके लिए शब्द है फिबरिलेशन। जब आपके दिल की धड़कन ऐसी स्थिति में होती है तो खून अवरूध्द हो जाता है बजाय इसके कि इसके जरिए खून का प्रवाह होता है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि इन सब बातों का यह मतलब नहीं है कि आप अपने काम की गति इतनी धीमी कर लें कि जब जरूरत पड़े तो तेजी से काम न कर पाएं।

आप इस हद तक न जाएं जिसे ग्लाइक, मल्टी टास्किंग, चैनल फ्लिपिंग, फास्ट फॉरवर्डिंग आदि का नाम देते हैं। संक्षेप में कहा जा सकता है कि लिफ्ट के बटन को न ठोकें, यह काम को रोक देगा।

http://www.business-standard.com/india/news/shyamal-majumdar-hurry-sickness/397777/

Friday, May 28, 2010

ज्यादा प्रतिस्पर्धा से बिगड़ रही है बाजार की सेहत

प्रतिस्पर्धा से न केवल कारोबारियों, बल्कि ग्राहकों को भारी नुकसान उठाना पड़ रहा है। जरूरत से ज्यादा प्रतिस्पर्धा से किसी का भला नहीं होता है। लेकिन इस वक्त इसका कोई विकल्प भी नहीं है। बिजनेस स्टैंडर्ड में प्रकाशित यह लेख इसके विभिन्न पहलुओं को उजागर कर रहा है.... पेश है लेख


अजित रानाडे
एडम स्मिथ के वक्त से ही अर्थशास्त्री इस बात पर आंख मूंद कर भरोसा करते हैं कि खुले बाजार और स्वस्थ प्रतिस्पर्धा के नतीजे बेहतरीन होते हैं। इससे उपभोक्ताओं का भला होता है क्योंकि उन्हें कम से कम कीमत चुकानी पड़ती है।
साथ ही, इससे उत्पादकों को भी कार्यकुशल होने में मदद मिलती है। सामाजिक तौर पर इससे सीमित संपदा के बेहतरीन इस्तेमाल में मदद मिलती है। प्रतिस्पर्धा की वजह से सभी को अपने-अपने लक्ष्यों के पीछे भागने की इजाजत तो होती है, लेकिन आश्चर्यजनक तरीके से इससे सामाजिक तौर पर सभी का भला होता है।
स्मिथ के ऐतिहासिक शब्दों में कहें तो लोगों को किसी कसाई या खानसामे की दरियादिली की वजह से नहीं, बल्कि इसीलिए खाना मिलता है क्योंकि वे दूसरे कसाइयों या खानसामों के मुकाबले कम दरों पर खाना बेचकर कमाई करते हैं।
बीते 200 सालों में मुक्त प्रतिस्पर्धा को लेकर मौजूद इस अंधविश्वास पर कई तरह के सवाल भी उठे हैं। हालांकि, ये सवाल सिर्फ 'मुक्त और स्वस्थ' प्रतिस्पर्धा तक ही सीमित रहे हैं। किसी ने प्रतिस्पर्धा के फायदों पर सवाल नहीं उठाए हैं। प्रतिस्पर्धा का यह सिध्दांत सिर्फ वैश्विक या घरेलू कारोबार तक ही सीमित नहीं रहा है। यह आपके और हमारे निजी जीवन में भी उतर आया है।
चाहे मामला स्कूलों में प्रवेश का हो या परीक्षाओं का, खेल का हो या स्वास्थ्य का या फिर राजनीति ही क्यों न हो, आप हर जगह इस सिध्दांत को देख सकते हैं। आधुनिक विश्व की ज्यादातर आर्थिक योजनाएं खुले बाजार और स्वस्थ प्रतिस्पध्र्दा को बढ़ावा देने के लिए बनाई जाती है। बाकी सारी बातें बाजार के लिए छोड़ दी जाती हैं।
इस बारे में आसानी से यह दावा किया जा सकता है कि लाइसेंस राज को खत्म करना इस ओर आधुनिक भारत के लिए एक बड़ा कदम था। इससे मुल्क में प्रतिस्पध्र्दा में तेजी आई और उपभोक्ताओं के साथ-साथ उत्पादकों का भी भला हुआ। इसी तरह कर की दरों में कमी और रुकावटों को खत्म करने से विदेशी कंपनियां अपने देश की तरफ आईं, जो फिर से भारत के लिए एक सही कदम साबित हुआ।
अगर इन विदेशी कंपनियों के खिलाफ अपने देश के कारोबारियों के दिल में कोई टीस है तो बस यही कि आज भी देसी बाजार में सबको एक समान नहीं माना जाता। प्रतिस्पर्धा से आज कोई नहीं डरता है। हाल ही प्रतिस्पर्धा आयोग का गठन भी इसीलिए हुआ है क्योकि देश में प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा मिल सके। हालांकि, आज ही एक सवाल नहीं पूछा गया है।
सवाल यह है कि जरूरत से प्रतिस्पर्धा जैसी भी कोई चीज होती है क्या? और कब प्रतिस्पर्धा से उपभोक्ताओं और समाज को नुकसान होने लगता है? वित्त जगत के लिए ऐसे सवाल कोई नई बात नहीं हैं। असल में लीमन संकट ने इस बात को साबित किया है कि बेरोक-टोक वाली प्रतिस्पर्धा (साथ में ढीले नियमन और जरूरत से ज्यादा खुली मौद्रिक नीति) की वजह से मुसीबत का दौर आया।
आज पश्चिमी मुल्कों के नेता प्रतिस्पर्धा के स्तर पर लगाम कसना चाहते है। यहां तक कि अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) भी विकासशील मुल्कों की तरफ या वहां से आने वाली रकम पर नियंत्रण की हिमायत कर रहा है। उसके मुताबिक मुनाफे के लिए ऐसी प्रतिस्पध्र्दा इन बाजारों के लिए अच्छी नहीं होगी क्योंकि इन बाजारों में ज्यादा गहराई नहीं है।
हालांकि, अत्यधिक प्रतिस्पर्धा को लेकर हमारी चिंता का स्वरूप ज्यादा स्थानीय और स्पष्ट है। साथ ही, यह वित्तीय बाजारों को लेकर भी नहीं है। मिसाल के तौर पर देसी टेलीकॉम कंपनियों को ही ले लीजिए। जबरदस्त प्रतिस्पर्धा की वजह से इन कंपनियों ने कई क्रांतिकारी विचारों को अपनाया। इससे न सिर्फ उनके मुनाफे में इजाफा हुआ, बल्कि इससे भारत में टेलीकॉम सुविधाएं भी दुनिया के सबसे कम दरों पर मिलने लगीं।
इन क्रांतिकारी विचारों में एक था, सभी तकनीकी संबंधित कामों की आउटसोर्सिंग और सिर्फ अपने उपभोक्ताओं और ब्रांड पर ध्यान देना। दूसरा अनूठा विचार था, चिर प्रतिद्वंद्वी कंपनियों के बीच टावर की साझेदारी करने का। लेकिन लगातार बढ़ती प्रतिस्पर्धा की वजह से भला होने के बजाए सबका बुरा ही हुआ। आज इस सेक्टर में नेटवर्क के अक्सर जाम रहने से उपभोक्ताओं की संतुष्टि का स्तर लगातार नीचे जा रहा है।
कीमतों को लेकर छिड़ी जंग की वजह से सभी के मुनाफे पर असर पड़ा है। यहां तक कि लोगों के बीच चर्चा का विषय बने 3जी स्पेक्ट्रम की नीलामी में ऊंची कीमत की वजह से इस सेक्टर पर काफी बुरा असर पड़ने की उम्मीद जताई जा रही है। कई रेटिंग एजेंसियों ने इस सेक्टर के लिए अपनी रेटिंग को कम कर दिया है। स्पेक्ट्रम की नीलामी की प्रक्रिया को पाक साफ रही, लेकिन यह इसके विजेताओं के लिए किसी श्राप से कम नहीं है।
इस नीलामी से पहले ही मुल्क के ज्यादातर सर्किलों में ऑपरेटरों की तादाद दुनिया में ज्यादा है। तो क्या ज्यादा प्रतिस्पर्धा के दुष्प्रभाव का मामला है? या फिर मुल्क की सस्ती एयरलाइनों की कहानी को ही ले लीजिए? यहां भी कंपनियों ने क्रांतिकारी विचारों को अपनाया. जिससे इस सेक्टर का तेजी से विकास हुआ। साथ ही, उपभोक्ताओं को कई सुविधाएं भी मिलीं।
जब दुनिया की बाकी एयरलाइन कंपनियां दिवालिया हो रही थीं, तब भी ये सेक्टर तेजी से बढ़ रहा था। लेकिन यहां भी उपभोक्ता संतुष्ट नहीं हैं। आप चाहें तो माइक्रोफाइनैंस सेक्टर की तरफ भी देख सकते हैं। इस सेक्टर के विकास ने मुल्क में वित्तीय समावेशन को बढ़ावा दिया। इसमें कई नई सोच वाली और प्रतिस्पर्धात्मक कंपनियां कूद पड़ीं, जिससे ग्रामीण महिलाओं का काफी भला हुआ।
इन्होंने भी अपने काम काज के मामले में कई नई बातों को अपनाया और स्वयं सहायता समूहों को बढ़ावा दिया। हालांकि बीते दिनों में कुछ शिकायतें यहां से भी सुनने को मिल रही हैं। कई माइक्रोफाइनैंस संस्थाएं एक ही कर्ज लेने वाले समूह के पीछे भाग रही हैं, ताकि वे उनका लोन ले सकें। यहां कर्ज इसलिए दिया जाता है, ताकि ये महिलाएं अपने छोटे से कारोबार को बढ़ावा दे सकें।
हालांकि, एक वक्त के बाद जरूरत से ज्यादा कर्ज के बोझ के तले इंसान दब जाता है। तो क्या यहां भी एक सबप्राइम संकट पक रहा है? क्या यह भी जरूरत से ज्यादा प्रतिस्पध्र्दा का मामला नहीं है? आपको इस तरह के कई उदाहरण मिल जाएंगे। इंजीनियरिंग कॉलेजों की देश में जैसे बाढ़ ही आ गई है। भले ही उसमें न तो अध्यापक हैं और न ही छात्र।
टेलीविजन चैनलों को देख कर भी जरूरत से ज्यादा प्रतिस्पर्धा का खतरा ही नजर आता है। एक बड़ी मिसाल चुनाव आयोग भी है। आयोग में हर दिन कई राजनीतिक दलों का पंजीकरण होता है। अब तक यह तादाद करीब 1,000 के आंकड़े को पार कर गई है। ऊपर से आयोग के पास इन्हें अपंजीकृत करने का अधिकार भी नहीं है।
अब अर्थ जगत की ओर वापस आते हैं। अगर एक पल के लिए अति प्रतिस्पर्धा को मान लें, तो बड़ा सवाल यह है कि इस स्थिति के बारे में फैसला कौन करेगा? अगर इस बार को मानें तो बदकिस्मती से इसे रोकने के लिए हमें फिर से 1991 से पहले के दौर में लौटना पड़ेगा, जब लाइसेंस राज का बोलबाला था।
स्मिथ की सोच को मजूबत देने का श्रेय जोसेफ शूएंप्टेर को जाता है। उन्होंने कहा था कि प्रतिस्पर्धा असल में तात्कालिक एकाधिकार की एक शृंखला होती है, जहां प्रतिद्वंद्वियों से सबसे अच्छी सोच वाले का बोलबाला होता है। इससे कंपनियों का रचनात्मक विनाश होता है, जहां नई कंपनियां पुरानी की जगह लेती हैं। इसीलिए भले ही इस वक्त स्पेक्ट्रम और आकाश में भीड़ है, लेकिन ज्यादा प्रतिस्पध्र्दा जैसी कोई चीज नहीं होती। मिट्टी डालिए ऐसे विधर्मी विचार पर। (लेखक आदित्य बिड़ला समूह में मुख्य अर्थशास्त्री हैं। ये उनके निजी विचार है।)

http://hindi.business-standard.com/storypage.php?autono=35292

Monday, May 10, 2010

ऑनर किलिंग की निकलती हवा

आप नज़ीर देख सकते हैं। भारत में मीडिया एक हवा चलाती है और यह किस तरह से आंधी में बदलती है। एक प्रिंस कुएं में गिरता है, फिर तमाम प्रिंस गिरते जाते हैं। चलिए उसमें तो कोई दो राय नहीं, बच्चा पाइप में फंसा होता है। लेकिन इस ऑनर किलिंग जैसी घटना का क्या करें, जिसमें परिवार तबाह हो रहे हैं और जांच का नतीजा भी उल्टा-पुल्टा आ रहा है।

पहला उदाहरण लेते हैं सबसे सनसनीखेज मामले का। मुजफ्फरपुर से खबर आती है कि ऑनर किलिंग में प्रेमी-प्रेमिका को मार दिया गया। लड़की के भाई ने कैमरे पर स्वीकार कर लिया कि उसने अपनी बहन और उसके प्रेमी को मार डाला। लाश भी बरामद हो गई। लड़की का बाप इतने सदमें में था कि उसने जहर खा लिया। बाद में प्रेमी जोड़ा प्रकट हो गया- यानी लाश को धत्ता बताते हुए फिर जी उठा। फिर पुलिस ने गिरफ्तार बच्चे को धमकाया कि लाश किसकी थी तो उसने शायद कह दिया कि अपने दोस्त को मार डाला। बहरहाल- लड़की का पूरा परिवार तबाह हो गया। मीडिया और पुलिस ने इस तबाही में अहम भूमिका निभाई। सचमुच परिस्थितजन्य साक्ष्य यही कह रहे थे कि लड़की के भाई ने प्रेमी-प्रेमिका को काट डाला था?- ८ मई

दूसरी घटना- मेरठ में एक लड़की छत से गिर गई। लड़की के पिता का यह कसूर था कि वह पुलिस वाला है। इससे उसका रसूख भी जुड़ गया कि उसके डर से कोई सामने नहीं आ रहा है। जुड़ गई प्यार की कहानी। कहा गया कि लड़की प्यार करती थी, जिसके चलते इंस्पेक्टर बाप ने उसे छत से धकेल दिया। कहानी कुछ ऐसी चली कि पूरा परिवार तबाह है। लड़की होश में आने के बाद कह रही है कि उसके पिता ने उसे छत से नहीं धकेला था। हां- इतना जरूर हुआ कि लड़की और उसके परिवार के साथ बदनामी लंबे समय के लिए जुड़ गई।- ९ मई 2०१०

तीसरी घटना- कौशांबी के खलीलाबाद गांव में एक बाप ने अपनी बेटी को काट डाला। इस मामले में भी लड़की के पिता ने स्वीकार कर लिया कि उसने ही अपनी बेटी को मार डाला है। उसने मारने का तरीका भी बताया। उस मामले के आगे बढ़ने की उम्मीद कम ही है, क्योंकि टीवी चैनलों से बातचीत करने वाले पिता को देखने से लग रहा था कि वह गरीब है। उसकी शक्ल देखकर तो निश्चित रूप से लगता है कि उसे सजा मिल जाएगी। ९ मई, २०१०

चौथी घटना- मामला है निरुपमा पाठक का। इसमें ऑनर किलिंग के साथ परंपरावादी हिंदू परिवार, हिंदू धर्म, सेक्स, गर्भ और लिव इन रिलेशन जैसे आधुनिक और पुरातनपंथी मसाले लगे हैं, जिससे मीडिया और तमाम अधिकारवादी झंडावरदारों के पास ढेरों मसाले हैं। शुरू में जो पोस्टमार्टम रिपोर्ट आई उससे और परिस्थितजन्य साक्ष्यों से लगा कि लड़की के परिवार वालों ने ऑनर किलिंग कर डाली। लड़की की मां गिरफ्तार हो गई। बाद में पता चलता है कि पोस्टमार्टम में झोल है। एम्स के डॉक्टरों ने कह दिया कि जांच परिणामों से इसे आत्महत्या होने से इनकार नहीं किया जा सकता। -३० अप्रैल, २०१०
अब पुलिस आत्महत्या मानकर भी घटना की छानबीन में आगे बढ़ रही है। लड़की के प्रेमी से भी पूछताछ हुई। दिल्ली के आंदोलनकारियों ने मान लिया कि अब अन्याय हो रहा है। जब तक लड़की के परिवारवाले फंस रहे थे, तब तक तो दिल्ली में न्याय की दिशा ठीक मानी जा रही थी, लेकिन जैसे ही शक की सुई प्रेमी की ओर घूमी, सीबीआई की मांग उठ गई। ढेर सारे सवाल उठे कि सब कुछ मैनेज कर जांच को गलत दिशा में ले जाया जा रहा है। पुलिस भी शायद ठोस नतीजे पर न पहुंच पाए कि आखिर हुआ क्या? बहरहाल, उम्मीद यही लगती है कि अंत में मामले को आत्महत्या मान लिया जाए। हां- यह अलग है कि लड़की के घर पर मरने की वजह और परिस्थितजन्य साक्ष्यों से माता-पिता और कुछ अन्य कथित साक्ष्यों से प्रेमी दोषी लगता है। लड़की ने अगर आत्महत्या की है तो दोनों इसके लिए जिम्मेदार हैं।

पंद्रह दिन के भीतर हुई इन घटनाओं ने पंद्रह हजार सवाल उठा दिए हैं। पहले, दूसरे और तीसरे मामले में लड़की के परिवार वाले तबाह हुए हैं। पहली घटना को देखते हुए पुलिस की भूमिका स्पष्ट होती है कि वे मामले को किस तरह निपटाते हैं और अपने सिर से बवाल हटा देते हैं। आखिरी घटना में अब तक तो लड़की के परिवार वाले तबाह हुए हैं और अब लड़के की दुर्दशा हो रही है जो सुनने में आ रहा है कि अपने परिवार का एकमात्र कमाऊ पूत है। अगर इस तरह के मामलों में तथ्यों का पता नहीं लगाया जाता है और बेवजह लोगों का परिवार तबाह होता है तो निश्चित रूप से मीडिया ट्रायल करने वालों और जांच करने वालों की जबाबदेही बनती है।

Monday, April 19, 2010

अब इंतजार कीजिए कि ललित मोदी कब जेल जाते हैं?????

जैसी कि उम्मीद थी, शशि थरूर केंद्रीय मंत्रिमंडल से बाहर हो गए और ललित मोदी पर हमले शुरू हो गए। सवाल वहीं का वहीं है। सोनिया गांधी का क्या हुआ? उन दो केंद्रीय मंत्रियों का क्या हुआ, जिनके दिल्ली और मुंबई स्थित सरकारी आवासों में कोच्चि टीम से हिस्सेदारी छोड़ने के लिए गुजरात के दो कारोबारियों को धमकाया गया और उनसे निपट लेने के तरीके बताए गए, जिसके चलते उन्हें निजी सुरक्षा बढ़ानी पड़ी।

क्यों गए थरूर? निश्चित रूप से यह सवाल जेहन में आता है। क्या भ्रष्टाचार के आरोपों के चलते? नहीं। अगर ऐसा होता तो दो मंत्री और सोनिया गांधी के खिलाफ भी कार्रवाई होती और ललित मोदी पर अचानक हमले नहीं होते। ललित मोदी आईपीएल में आने से पहले प्रतिबंधित दवाओं के कारोबार में लिप्त पाए जा चुके थे, जो खबरें इस समय एक्सक्लूसिव चलाई गईं। भ्रष्टाचार और काले धन को सफेद करने का सिलसिला भी तो आईपीएल शुरू होने के समय से ही चल रहा था, तो आखिर कार्रवाई अब क्यों?

दरअसल कांग्रेस पार्टी आभामंडल पर चलती है। देश की जनता को हजारों साल की राजशाही की आदत है। पहले हिंदू सम्राट, फिर मुगल सम्राट और फिर अंग्रेजों का आभामंडल। राजनीतिक सिद्धांतों के मुताबिक राजशाही में राजा को ईश्वर का अवतार माना जाता है। उसमें दैवीय शक्तियां मानी जाती हैं। इसी आभामंडल पर राजशाही चलती है, क्योंकि ऐसे में जनता राजा बनने के बारे में नहीं सोचती, क्योंकि वह राजपरिवार में पैदा नहीं होती। इसके लिए वह अपने पूर्व जन्म या अपनी किस्मत को कोसती है। अब वही हाल नेहरू-गांधी परिवार का है, जिन्हें जन्मजा शासन के योग्य और त्यागी माना जाता है। शशि थरूर कांड में शक की सुई सोनिया की ओर घूम गई और उनके आभामंडल पर चोट पहुंची। ऐसे में जरूरी था कि किसी की बलि ले ली जाए। थरूर की बलि ले ली गई।

जहां तक ललित मोदी की बात है, वो विशुद्ध रूप से कारोबारी रहे हैं- उनके इतिहास से ऐसा ही पता चलता है। चाहे वह अवैध ड्रग्स से पैसा कमाएं या आईपीएल में काला धन सफेद करके। जब तक भाजपा (वसुंधरा राजे) से फायदा मिला, उनके रहे और जब कांग्रेस का जलवा हुआ तो कांग्रेस के साथ हो लिए।

अब तो उनकी कुर्बानी भी तय है। और शायद उनकी ऐसी कुर्बानी होगी, जैसी हर्षद मेहता या तेलगी और सत्यम के राजू की हुई। यह भी संभव है कि आने वाले दिनों में वे जेल में ही नजर आएं। इसके पीछे कहीं से इमानदारी या बेइमानी नहीं आती। आता है तो सिर्फ आभामंडल बचाने की कोशिश। अगर मोदी को कुर्बान किया जाता है तो यह प्रचारित करने में भी सहूलियत मिल जाएगी कि वो भाजपा के आदमी थे और कींचड़ भाजपा की तरफ उछल जाएगा।

Friday, April 16, 2010

ताकि प्रसव पीड़ा में न जुड़े वित्तीय कष्ट

मनीश कुमार मिश्र

प्रसव के दौरान इलाज पर होने वाले खर्च (मैटरनिटी कवर) के साथ नवजात की बीमारियों के लिए भी साधारण बीमा कंपनियां कवर उपलब्घ कराती है। विभिन्न साधारण बीमा कंपनियां सामूहिक स्वास्थ्य बीमा के अतिरिक्त पारिवारिक स्वास्थ्य बीमा के तहत यह सुविधा उपलब्ध कराती हैं।

क्या है मैटरनिटी कवर
व्यापक स्तर पर देखा जाए तो मैटरनिटी इंश्योरेंस में गर्भावस्था से लेकर प्रसव के बाद तक (नवजात शिशु के इलाज सहित), अस्पताल या इलाज पर होने वाले तमाम खर्चे शामिल होने चाहिए।
कुछ मैटरनिटी बीमा पॉलिसी है जिसके तहत गर्भावस्था के दौरान अस्पताल जाकर चिकित्सक से सलाह लेने का खर्च भी शामिल होता है।
उदाहरण के तौर पर आईसीआईसीआई लोम्बार्ड का हेल्थ एडवांटेज प्लस स्वास्थ्य बीमा के साथ बहिरंग विभाग (ओपीडी) के लिए भी कवर उपलब्ध कराता है जिसमें प्रसव-पूर्व जांच और दवाओं पर होने वाला खर्च शामिल होता है। इसकी सीमा 8,000 रुपये तक की है। ओपीडी के अतिरिक्त मैटरनिटी से जुड़े कई अन्य खर्च इस पॉलिसी में शामिल नहीं हैं।

कहां मिलेगा ये कवर
भारत में कोई भी बीमा कंपनी मैटरनिटी कवर के लिए स्टैंडएलोन पॉलिसी उपलब्ध नहीं कराती हैं। इसकी वजह है कि व्यक्तिगत स्तर पर केवल अप्रत्याशित जोखिमों के लिए ही कवर उपलब्ध कराया जाता है और गर्भावस्था या प्रसव इस दायरे में नहीं आते हैं।
ऑप्टिमा इंश्योरेंस ब्रोकर्स के मुख्य कार्याधिकारी राहुल अग्रवाल कहते हैं, 'कुछ साधारण बीमा कंपनियां ऐसी भी हैं जो पारिवारिक स्वास्थ्य बीमा पॉलिसी में मैटरनिटी कवर को शामिल करती हैं लेकिन इसके लिए न्यूनतम 4 साल तक का इंतजार करना होता है।' उललेखनीय है कि इस तरह की पॉलिसी शादी के बाद ही ली जा सकती है और मैटरनिटी कवर का लाभ लेने के लिए 4 साल तक का इंतजार करना होता है।
अग्रवाल ने बताया 'नैशनल इंश्योरेंस ने बैंक ऑफ इंडिया के ग्राहकों के लिए स्टार नैशनल स्वास्थ्य बीमा पॉलिसी लॉन्च की थी जिसके तहत बैंक के ग्राहकों को मैटरनिटी कवर के साथ नवजात शिशु के इलाज पर हुए खर्च की वापसी की जाती है। लेकिन इसकी सीमा सम एश्योर्ड का मात्र 5 प्रतिशत है। इसमें इंतजार की अवधि मात्र एक महीने की है।'
नैशनल इंश्योरेंस कंपनी की वेबसाइट पर उपलब्ध जानकारी के अनुसार 1 लाख के सम एश्योर्ड का सालाना प्रीमियम 1,746 रुपये और 5 लाख रुपये का 7,071 रुपये है। अपोलो म्यूनिख ईजी हेल्थ इंडिविजुअल एक्सक्लूसिव और मैक्सिमा 360 के तहत मैटरनिटी कवर उपलब्ध कराता है लेकिन इसके इंतजार की अवधि न्यूनतम 4 साल की है।
इस पॉलिसी के तहत प्रसव-पूर्व, अस्पताल में भर्ती होने, प्रसव और प्रसव के बाद होने वाले खर्चे एक विशेष सीमा तक कवर किए जाते हैं। 3 से 5 लाख रुपये तक के सम एश्योर्ड के लिए सामान्य प्रसव की दशा में खर्च की सीमा 15,000 रुपये और शल्य प्रसव के लिए 25,000 रुपये की सीमा है।
नवजात शिशु पर होने वाले खर्च की अधिकतम सीमा 2,000 रुपये है जबकि गर्भावस्था के दौरान और प्रसव के बाद शिशु की मां पर होने वाले खर्च की अधिकतम सीमा 1,500 रुपये है और यह उपरोक्त खर्च में सम्मिलित है।

सामूहिक मेडिक्लेम और मैटरनिटी कवर
अब नियोक्ता द्वारा कराए जाने वाले सामूहिक स्वास्थ्य बीमा की बात करते हैं। आम तौर पर मैटरनिटी कवर प्राप्त करने का यह जरिया सबसे अधिक फायदे का है।
मैटरनिटी कवर सामूहिक स्वास्थ्य बीमा पॉलिसी में स्वत: ही शामिल नहीं होता। कंपनी साधारण बीमा कंपनियों से इसे शामिल करने का अनुरोध करती हैं और इसके लिए अतिरिक्त प्रीमियम का भुगतान करती हैं। अग्रवाल कहते हैं, 'नियोक्ता को कर्मचारी के परिवार के स्वास्थ्य बीमा में प्रसव से जुड़े खर्च शामिल करवाने के एवज में 10 प्रतिशत तक अतिरिक्त प्रीमियम देना होता है।'
इसकी वजह भी है कि इरडा अधिनियम 1999 में मेडिक्लेम या स्वास्थ्य बीमा पॉलिसी का उल्लेख विशेष रूप से नहीं किया गया है। विभिन्न बीमा कंपनियां भिन्न-भिन्न मेडिक्लेम पॉलिसी बेचती है जिनमें शामिल की जाने वाली बीमारियां और शामिल नहीं होने वाले रोग अलग-अलग होते हैं।
व्यक्तिगत या पारिवारिक स्तर (फ्लोटर पॉलिसी) पर इन पॉलिसियों को अपने अनुरूप बना कर लेना संभव नहीं है। लेकिन, कंपनियों के सामूहिक बीमा के मामले में पॉलिसियां कंपनी की जरूरतों को ध्यान में रखते तैयार की जाती हैं और प्रीमियम भी उसी के अनुसार निर्धारित किया जाता है।
ऐसा नहीं कि मैटरनिटी कवर का लाभ नई कंपनी में नियुक्ति के तुरंत बाद ही उठाया जा सकता है। इस कवर के फायदे लेने के लिए 9 महीने तक का इंतजार करना होता है। यूनाइटेड इंडिया इंश्योरेंस के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि सामूहिक स्वास्थ्य बीमा के तहत अधिकांश कंपनियां मैटरनिटी कवर को शामिल कराती हैं।
उन्होंने बताया कि मैटरनिटी के मद में अस्पताल या नर्सिंग होम में होने वाले खर्च, सम एश्योर्ड या 50,000 रुपये में से जो भी कम हो, को सामूहिक मेडिक्लेम पॉलिसी के तहत कवर किया जाता है। नवजात शिशु का इलाज भी इसमें पहले दिन से ही शामिल होता है। 3 महीने बाद बच्चे को सामूहिक मेडिक्लेम पॉलिसी में शामिल करवाया जा सकता है।

नवजात शिशु का मेडिक्लेम
अगर आपने न्यू इंडिया इंश्योरेंस या मैक्स बुपा जनरल इंश्योरेंस से मेडिक्लेम पॉलिसी ली हुई है तो जन्म के पहले दिन से ही शिशु को कवर उपलब्ध होगा। अपनापैसा डॉट कॉम के मुख्य कार्याधिकारी हर्ष रूंगटा ने कहा, 'न्यू इंडिया इंश्योरेंस की बर्थराइट पॉलिसी बच्चे के जन्मजात रोगों को पॉलिसी में वर्णित एक खास समय सीमा के भीतर कवर करती है।'
उन्होंने बताया कि मैक्स बुपा भी हाल में ऐसी ही एक पॉलिसी लॉन्च की है जो नवजात बच्चे की बीमारियों को पहले दिन से ही कवर करती हैं। मैक्स बुपा मैटरनिटी कवर फैमिली फ्लोटर पॉलिसी के तहत उपलब्ध कराती है और इसके लिए इंतजार की अवधि न्यूनतम 24 महीने की है।

क्या नहीं होते शामिल
अधिकांश सामूहिक स्वास्थ्य बीमा में गर्भावस्था के दौरान होने वाली मासिक जांच और दवाओं के खर्च शामिल नहीं होते। मैटरनिटी कवर में शुरुआती 12 हफ्तों के दौरान होने वाले गर्भपात को भी शामिल नहीं किया जाता है। इसके अतिरिक्त मैटरनिटी कवर लेने के 9 महीने के दौरान गर्भावस्था से जुड़ा चिकित्सकीय खर्च भी इसमें शामिल नहीं होता है।
http://hindi.business-standard.com/storypage.php?autono=33422

Thursday, April 15, 2010

आईपीएल घोटाले में सोनिया गांधी शामिल

सोनिया गांधी के राजनीति में आने और उनके
प्रधानमंत्री पद ग्रहण करने से इनकार के बाद सामान्यतया उन्हें त्यागी, साध्वी,
धर्मनिष्ठ और जनसेवक महिला के रूप में प्रचारित किया जाता है। आईपीएल यानी क्रिकेट
तमाशे में 200 करोड़ रुपये के घोटाले में सोनिया गांधी की भी हिस्सेदारी सामने आ
रही है। साथ ही यह भी सामने आ रहा है कि हुल्लड़बाजी और अनावश्यक खेल से अरबों की
कमाई में हिस्सेदारी के लिए टीम के हिस्सेदारों को केंद्रीय मंत्रियों ने अपने आवास
पर बुलाकर धमकाया और कारोबारियों को अपनी निजी सुरक्षा बढ़ानी पड़ी।
सामान्यतया
हम लोग किसी यूपी या बिहार के नेता को सांसद कोटे की राशि में से कुछ लाख रुपये
कमाने पर उसे बेइमान कहते हैं। या उसके कुछ लाख रुपये की अवैध कमाई (ठेकेदारी,
चंदावसूली आदि) के चलते बेइमान कहते हैं, लेकि न राजनीति से दूर रहने वाले और गणित
करके मंत्री पद हथियाने वाले मंत्री तो एक झटके में 100 करोड़ या 1000 करोड़ कमा
लेते हैं और यह उन्हें मिलता है उन कंपनियों से, जो गरीब जनता से पाई पाई निचोड़कर
अरबपति बनते हैं।
आश्चर्य है कि विदेश राज्य मंत्री ने अपनी प्रेमिका को 75
करोड़ रुपये का तोहफा कारोबारियों को धमकी देकर दिला दिया। और इस मामले में उन्हें
सीधा संरक्षण मिल रहा है सोनिया गांधी से। अगर उन्हें मंत्री पद से हटा दिया जाता
है तो सोनिया गांधी शायद खुद को साफ-पाक दिखा सकेंगी, लेकिन क्या इन बेइमानों को
उनकी बेइमानी की सजा मिल पाएगी... सत्येन्द्र


इसके तथ्यों को जानने के लिए एक रिपोर्ट पढि़ए....

http://www.business-standard.com/india/news/of-intriguearm-twisting-in-high-places/391883/

आदिति फडणीस
आईपीएल की नई टीम कोच्चि को भले ही आगाज से पहले ही कई मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा हो लेकिन उनके लिए चिंता की कोई बात नहीं क्योंकि देश की सबसे बड़ी वीटो पावर का वरदहस्त उन्हें हासिल हैं। यहां बात हो रही है कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की जो इस मामले में कोच्चि के हक में खड़ी दिखाई दे रही हैं।
कोच्चि की टीम हासिल करने वाले रॉन्दिवु स्पोट्र्स ग्रुप (आरएसडब्ल्यू) के सात निवेशकों में से 2 को पिछले हफ्ते एक केंद्रीय मंत्री के मुंबई स्थित आवास पर तलब किया गया। उनसे कोच्चि टीम की दावेदारी से हटने के लिए कहा गया। यह बातचीत रात 10 बजे शुरू हुई और सुबह करीब 4 बजे तक चली। मंत्रीजी ने उनसे कहा, 'आप जैसे लोगों से निपटने के हमें कई तरीके मालूम हैं।Ó जाहिर है उन दोनों निवेशकों में खौफ सा बैठ गया होगा।
अब उन्होंने दिल्ली दरबार का रुख किया और उसी राजनीतिक दल से संबद्घ एक अन्य मंत्री से गुहार लगाई। उन मंत्री महोदय ने अपने साथ के व्यवहार के लिए उनसे माफी मांगी लेकिन उनका भी विनम्र शब्दों में यही कहना था, 'आईपीएल से बाहर आ जाओ और टीम बेच दो।Ó
अब दोनों निवेशक अपने आप को असहाय स्थिति में पा रहे थे। उनमें से एक अपना कारोबार चलाते हैं और दूसरे एक ब्रोकिंग फर्म के मालिक हैं जो कीमती रत्नों के सौदे करती है। वे करोड़पति हैं। लेकिन उन्हें यह मालूम नहीं था कि क्रिकेट में पैसा लगाना जान में हाथ में लेकर घूमने जैसा काम होगा।
इस कहानी की शुरुआत साल भर पहले हुई जब देश के सात धनाढ्यों ने आईपीएल में पैसा लगाने का मन बनाया। अगले सत्र से इस टूर्नामेंट में दो नई टीमों के आने से उन्हें यह मौका भी मयस्सर हो गया। इस समूह की कमान एक बैंकर के हाथ में थी। जब यह निर्धारित हो गया कि कोच्चि की भी टीम बन सकती है तो समूह ने तय किया कि अगर केरल का कोई जनप्रतिनिधि उनके अभियान का समर्थन करे तो उनकी राह कुछ आसान हो सकती है। उन्होंने शशि थरूर से संपर्क किया और थरूर ने अपनी सहयोगी सुनंदा पुष्कर की हिस्सेदारी के लिए समर्थन मांगा। समूह का कहना है कि पुष्कर की टीम में केवल 5 फीसदी हिस्सेदारी है और उनकी 20 फीसदी हिस्सेदारी की चलाई जा रही खबरें बेबुनियाद हैं।
आरएसडब्ल्यू खेल प्रशंसकों का एक समूह है जो सहायतार्थ आयोजन कराता रहा है लेकिन उसका नाम बहुत ज्यादा सुर्खियों में कभी नहीं रहा। बोली लगाने के लिए बहुत ज्यादा रकम की जरूरत थी। इसके लिए कंपनी की कुल हैसियत 1 अरब डॉलर (तकरीबन 4,500 करोड़ रुपये) होनी चाहिए थी। समूह को लगा कि किसी दिग्गज कारोबारी के सहयोग के बिना उनका मकसद हासिल नहीं हो पाएगा। रॉन्दिुवु ने इसके लिए गौड़ समूह के जे पी गौड़ से संपर्क किया।
आरएसडब्ल्यू के एक सदस्य का कहना है, 'हमें किसी बड़े उद्योगपति के सहारे की दरकार थी।Ó उस समय तक यह स्पष्टï हो चुका था कि दो अन्य स्थानों के लिए भी आक्रामक बोलियां लगाई जाएंगी। इनमें अदाणी समूह अहमदाबाद और वीडियोकॉन और सहारा समूह पुणे के लिए बोली लगाने जा रहे थे। गौड़ ने फैसला लिया कि उन्हें खुद अपने दम पर बोली लगानी चाहिए और उन्होंने आरएसडब्ल्यू का साथ छोड़ दिया। तब रॉन्दिवु का एहसास हुआ कि वह इस खेल में पिछड़ते जा रहे हैं।
बहरहाल पहले दौर की बोली निरस्त कर दी गई और इसे दो हफ्ते बाद चेन्नई में करने का निश्चय किया गया। यह रविवार की एक सुबह थी और चेन्नई में क्रिकेट का एक मैच भी चल रहा था। तब तक पांच कंपनियां होड़ में बरकारर थीं। ये थीं अदाणी समूह, वीडियोकॉन, आरएसडब्ल्यू, साइरस पूनानवाला और उनके साथ बिल्डर अजय शिर्के और सहारा समूह।
जब रॉन्दिवु के पास यह संदेश गया कि उनकी बोली 30 करोड़ डॉलर से कम है और उनकी दावेदारी पिछड़ सकती है। उन्होंने आपस में राय-मशविरा किया और अपनी बोली बढ़ाकर 33.3 करोड़ डॉलर (तकरीबन 1,533 करोड़ रुपये) कर दी। आखिरकार वह टीम हासिल करने में कामयाब हो गए। जश्न मनाने की तैयारी भी हो गई थी लेकिन उनके मुखिया ने चेताया कि पहले फ्रैंचाइजी लैटर हाथ में आ जाए उसके बाद ही कुछ किया जाए।
उन्होंने दिल्ली में आईपीएल कमिश्नर ललित मोदी से मुलाकात की। जिस कमरे में बातचीत हो रही थी उसमें एक केंद्रीय मंत्री की बेटी भी मौजूद थीं। उनसे कहा गया कि चलो 5 करोड़ डॉलर लो और इससे बाहर आ जाओ। पहले तो समूह भौचक्का रह गया लेकिन जवाब आया, 'मान लीजिए कि हम इससे निकल भी जाते हैं तो कौन हमें यह रकम देगा।Ó यह जवाब एक निवेश बैंकर की ओर से आया था। मुखिया ने कहा, 'बातें न बनाएं! मैं निवेश बैंकर हूं और अच्छी तरह से जानता हूं कि कोई भी हमें इतनी बड़ी रकम नहीं देगा।Ó दूसरी ओर से जवाब आया, 'एक निवेश बैंकर का ही ग्राहक।Ó
हालांकि समूह खुद अचरज में पड़ गया लेकिन उन्होंने जवाब दिया कि उनकी साख दांव पर लगी है इसलिए वे ऐसा नहीं कर सकते। सिलसिला यहीं खत्म नहीं हुआ। संभाव्य देनदारियों, हिस्सेदारी का तरीका और आखिर में 10 फीसदी बैंक गारंटी जैसी तमाम औपचारिकताओं की आड़ में फ्रैंचाइजी पत्र वाले दस्तावेज को देने में देरी की जाती रही। आखिर में एक संदेश आया, 'आप इसमें क्यों फंसे? टीम बेच दो।Ó बातचीत की आखिरी जगह मंत्री का बंगला ही था।
समूह को लग गया था कि अगर राजनीतिक तरीके से ही उन्हें न्याय मिल पाएगा तो इसके लिए भी उन्हें किसी राजनेता का ही दरवाजा खटखटाना होगा। शशि थरूर ने अपने दोस्तों को भरोसा दिलाया कि वह विवाह की अपनी योजना को थोड़ा आगे खिसका सकते हैं। सुनंदा पुष्कर जरूर रुआंसी हो गईं। समूह के दो गुजराती निवेशकों ने अपने और अपने परिवार के लिए अतिरिक्त निजी सुरक्षा तैनात कर दी।
समूह के एक सदस्य का कहना है, 'पूरा खेल कुछ यूं था कि हम फ्रैंचाइजी अगले बोलीकर्ता के लिए खाली कर दें।Óयह मामला तो तब है जब किसी भी फ्रैंचाइजी को शुरुआती दो साल में 40 से 50 फीसदी का नुकसान झेलना पड़ता है। एक सदस्य का कहना है, 'हम पहले दो साल में कम से कम 100 करोड़ रुपये का नुकसान होते देख रहे हैं।Óतटस्थ जानकारों का मानना है कि यह विवाद महज 'चालाक लोगोंÓ के दो समूहों के हितों का टकराव है। बीसीसीआई की गवर्निंग परिषद के एक सदस्य का कहना है, 'मोदी के मामले में तो एकदम स्पष्टï है। उनके दामाद के पास इंटरनेट विज्ञापन अधिकार हैं और उनके साले एक टीम में हिस्सेदार हैं। जहां तक शशि थरूर की बात है तो वह जिस महिला से शादी करने जा रहे हैं उन्हें 75 करोड़ रुपये की हिस्सेदारी दी गई जो कुछ साल के बाद 500 करोड़ रुपये तक की हो सकती है। उनके पास जो मंत्रालय है उसमें भी उन्हें पश्चिम एशिया प्रभार मिला हुआ है और उनका कारोबार भी यहीं फैला है। क्या यह भी किसी संपत्ति से कम है।Ó

Monday, March 22, 2010

यमुना सफाई की नई मुहिम रंग लाई



सत्येन्द्र प्रताप सिंह





अगर किसी काम को पूरा करने का संकल्प लिया जाए तो कुछ भी असंभव नहीं है।
आर्ट आफ लिविंग के संस्थापक श्री श्री रविशंकर की अगुआई में पिछले मंगलवार को शुरू हुए यमुना सफाई अभियान ने कुछ ऐसा ही रंग दिखाया। 'मेरी दिल्ली, मेरी यमुना' नाम से शुरू किए गए रविशंकर के इस अभियान में न केवल आर्ट आफ लिविंग से जुड़े लोग शामिल हुए, बल्कि दिल्ली जल बोर्ड की योजना 'आओ यमुना में जान डालें' भी शामिल हुई।
साथ ही नगर निगम की गाड़ियां भी पूर्व निर्धारित सफाई स्थल पर पहुंचने लगीं। स्थिति यह हुई कि पहले यमुना के आईटीओ घाट की चमक बढ़ी, 18 मार्च को वजीराबाद, 19 को निजामुद्दीन, 20 को कालिंदी कुंज, 21 मार्च को आईएसबीटी के पास कुदसिया घाट पर सुंदरता वापस लौट आई।
24 मार्च तक चलने वाले इस अभियान के दौरान कुल 7 घाटों का उध्दार होना है। करीब 10 महीने से दिल्ली जल बोर्ड यमुना की सफाई का अभियान 'आओ यमुना में जान डालें' चला रहा है, जो यमुना एक्शन प्लान-2 का हिस्सा है।
योजना में 4 स्तर पर काम किए जा रहे हैं, जिसमें स्कूल, झुग्गी-झोपडियों, अनधिकृत कालोनियों और ग्रामीण इलाके शामिल हैं। इन इलाकों में नुक्कड़ नाटक, फिल्म शो, जूट के थैले वितरित कर और अन्य पोस्टर बैनर के माध्यम से यमुना की सफाई के लिए जागरूकता अभियान चलाया जा रहा है।
श्री श्री रविशंकर के 'मेरी दिल्ली, मेरी यमुना' कार्यक्रम में जल बोर्ड की भी योजना शामिल हो गई। पहले जहां यह योजना गरीब बस्तियों तक सिमटी हुई थी, रविशंकर के आह्वान के साथ खूबसूरत बने अपार्टमेंट से निकलकर लोग सफाई के लिए सामने आने लगे।
कालिंदी कुंज में सफाई अभियान का नेतृत्व कर रहे एनजीओ आराधना से जुड़े कार्यकर्ताओं का कहना है कि इस कार्यक्रम को बेहतर समर्थन मिल रहा है, खासकर उन लोगों का जिनके गंदे घाटों पर आने की उम्मीद हम कभी नहीं करते थे।
सफाई के काम में लगे 'सोसायटी फार सोशल डेवलपमेंट' के ब्रजेश कुमार कहते हैं, 'सफाई की जिम्मेदारी किसी एक व्यक्ति या विभाग या सरकार की नहीं है। सबने मिलकर यमुना को गंदा किया है। इसमें सरकार की लापरवाही तो है ही, फैक्टरियों की गंदगी के साथ आम लोगों की भी लापरवाही झलकती है।'
गाजियाबाद के इंदिरापुरम से कालिंदी कुंज में यमुना सफाई अभियान में शामिल होने आए राजीव कहते हैं, 'राष्ट्रमंडल खेल होने जा रहे हैं। अगर यमुना में गंदगी का आलम यही रहा तो आखिर दुनिया भर से आने वाले खिलाड़ी और अन्य लोग किस तरह का संदेश लेकर जाएंगे?'
स्वयंसेवी संस्थाओं, सरकारी महकमों और आम लोगों के साथ कंपनियों ने भी इस योजना में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। जहां सफाई अभियान चल रहा होता है वहां फिलिप्स पीने के स्वच्छ पानी की व्यवस्था करती है तो मैक्स हेल्थ केयर किसी तरह की स्वास्थ्य समस्या होने पर इलाज के लिए तैयार रहती है।
श्री श्री रविशंकर का कहना है- यमुना की सफाई पर हजारों करोड़ रुपये खर्च किए जा रहे हैं पर कुछ परिणाम नहीं निकल रहा। अगर हम 'मेरी दिल्ली मेरी यमुना' की बात समझेंगे तो इसमें प्लास्टिक की थैली या बोतल आदि जैसी गंदगी नहीं फैलाएंगे।
उन्होंने कहा कि यमुना में 18 बड़े और 1557 छोटे नाले गिरते हैं। इनके पानी को साफ करने की जरूरत है, जिसके बाद इसका उपयोग अन्य कामों के लिए किया जा सके।



http://hindi.business-standard.com/storypage.php?autono=32338


Wednesday, February 24, 2010

...और सरकार ने ही किसानों को भिखारी बनाया

विधि मंत्री वीरप्पा मोइली ने कृषि को समाज की संजीवनी कहा। नई सूचना है। लगता है संजीवनी खाकर ही किसान जिंदा रहते हैं, नहीं तो खेती करना इस समय ऐसा धंधा बन गया है कि किसानों का मरना तय था।

मजे की बात है कि कुछ इलाकों के किसान नहीं जानते थे कि संजीवनी कैसे उगाई जाए? यही कारण लगता है कि उन राज्यों में किसान आत्महत्या करने को मजबूर होते हैं। हालांकि जहां तक मैने देखा है- किसान को खेती से तभी मुनाफा होता है, जब वह दिखावे के लिए खेती करे और वास्तव में उसका धंधा कुछ और हो। वह ठेकेदारी हो सकता है, परिवार के किसी सदस्य का सरकारी नौकरी में होना हो सकता है। अन्यथा बड़े से बड़े खेतिहर भी अपने बच्चे को बेहतर स्कूल में पढ़ाने के लायक नहीं होते।

अब विधि मंत्री भी बेचारे क्या कर सकते हैं? क्या किसानों के लिए उनके पास कोई ऐसी व्यवस्था है कि वे किसानों को उनके उत्पाद का इतना मूल्य दिलाएं कि वे भी अपने बच्चे को एमिटी इंटरनेशनल, डीपीएस, डालमिया इंस्टीच्यूट के फीस अदा करने लायक बन सकें?

किसानों को राहत की भीख, कर्ज की भीख, छूट की भीख, गरीबों को दिए जाने वाले कार्ड की भीख, छूट देने की भीख आदि तो दिया जा रहा है, लेकिन किसानों को भी क्या कभी इतना पैसा मिल सकता है कि जिस तरह से कंपनियां अपने मुनाफे में हर तिमाही ३० प्रतिशत की बढ़ोतरी कम से कम दिखा देती हैं, वैसा ही हर सीजन में किसानों को भी अपने उत्पाद पर ३० प्रतिशत मुनाफा मिले और उन्हें भीख देने की नौबत न आए। वे भी गर्व से कह सकें कि हम अपना व्यवसाय करते हैं, भिखारी नहीं है। हमें खाद, बीज, राशन, तेल पर छूट नहीं चाहिए।

एक तर्क यह भी दिया जाता है कि किसानों को टैक्स नहीं देना होता है। यही तो कहना चाहते हैं कि मुनाफा दो और टैक्स भी लो। क्यों नहीं टैक्स देंगे? पहले लागत लगाने के बाद मुनाफा तो हो। अगर ३० प्रतिशत मुनाफा हो तो हर किसान १० प्रतिशत टैक्स तो खुशी-खुशी दे देगा।

Wednesday, January 20, 2010

अब पवार ने दिया दूध की कालाबाजारी करने वालों को अवसर

हमारे कृषि मंत्री शरद पवार ने एक भविष्यवाणी और कर दी है। दूध की कीमतें बढ़ सकती हैं। उनका मानना है कि उत्तर भारत में दूध की बहुत कमी हो गई है। हालांकि अभी दिल्ली में ऐसी कोई अफरातफरी नहीं थी और सबको फुल क्रीम से लेकर बगैर क्रीम वाला दूध 28 से 18 रुपये प्रति किलो दाम पर आसानी से मिल रहा है। शायद आने वाले दिनों में दूध के लिए भी मारामारी शुरू हो जाए और हर स्टोर में पर्याप्त दूध रहने के बावजूद आपको 50-60 रुपये लीटर दूध खरीदना पड़े। ध्यान रहे कि यही पवार साहब चीनी, गेहूं और चावल की कीमतों के बढऩे की भविष्यवाणी करके कीमतें पर्याप्त रूप से बढ़वा चुके हैं। ऐसा नहीं है कि ये किसानों के हितैशी हैं, इसलिए ऐसा कर रहे हैं, क्योंकि किसान तो आज भी अपने उत्पाद मजबूरन औने-पौने दाम पर बेचता है।

हालांकि जब शरद पवार से कीमतें घटने के ज्योतिष ज्ञान के बारे में पूछा जाता है तो वे अपने ज्योतिष ज्ञान से साफ मुकर जाते हैं।

खाद्य एवं कृषि मंत्री शरद पवार ने आज कहा कि उत्तरी भारत में दूध की कमी के कारण दुग्ध उत्पादक इसकी कीमत बढ़ाने की मांग कर रहे हैं। उन्होंने यह भी आगाह किया कि जब तक कीमतों को बढ़ाने का निर्णय नहीं किया जाता राज्यों के लिए दूध को खरीदने में मुश्किल पेश आएगी। पवार ने कहा, 'हम विशेषकर उत्तरी भारत में दूध की अपर्याप्त उपलब्धता की स्थिति को झेल रहे हैं। अक्टूबर में हमने कीमतों में वृद्धि करने का निर्णय किया था। इसकी कीमतों को बढ़ाने की मांग की जा रही है।Ó उन्होंने कहा, 'जब तक कोई निर्णय नहीं हो जाता मुझे नहीं मालूम कि विभिन्न राज्य लोगों की मांग को पूरा करने के लिए दूध खरीदने में सक्षम होंगे या नहीं। यह दर्शाता है कि किस तरह से इस क्षेत्र की अनदेखी हुई है।Ó
अब देखना है कि दूध के लिए मारामारी कब से शुरू होती है और कालाबाजारी करने वाले इससे कितने सौ करोड़ रुपये कमाते हैं। चीनी की कीमतें बढ़वाने में तो पवार साहब का हित समझ में आता है। लेकिन लगता है कि अब उन्होंने दूध के कारोबार में भी कदम रख दिया है?

Tuesday, January 12, 2010

पवार की धोखेबाजी से चीनी मिलों को मोटी कमाई

चीनी 50 रुपये किलो पर पहुंच गई है। शरद पवार आरोप लगा रहे हैं कि उत्तर प्रदेश सरकार ने कच्ची चीनी को शोधित करने पर रोक लगा दी, जिसके चलते दाम बढ़ गए। साथ ही उन्होंने कहा कि मैं ज्योतिषी नहीं हूं।पवार साहब चीनी के दाम बढ़वाने तक ही ज्योतिषी रहे। पिछले डेढ़ साल से औसतन हर महीने में 2 बार बयान दे रहे हैं की चीनी के दाम बढ़ेंगे, लेकिन जब चीनी के दाम में कमी कम आएगी, यह बताना हुआ तो उनका ज्योतिष ज्ञान खत्म हो गया।
शायद यह सभी को याद हो कि जब उत्तर प्रदेश की चीनी मिलों ने परोक्ष रूप से धमकी दे दी थी कि किसानों का गन्ना वे 200 रुपये क्विंटल के हिसाब से नहीं लेंगे, तब उत्तर प्रदेश सरकार ने कच्ची चीनी के प्रवेश पर रोक लगाई थी। मिलों को भरोसा था कि वे पेराई नहीं भी करते तो आयातित कच्ची चीनी साफ करके मोटा मुनाफा कमा लेंगे। किसानों का गन्ना सूखे- उनकी बला से। केंद्र में तो पवार साहब हैं ही बयान देने के लिए कि कच्ची चीनी महंगी पड़ रही है, इसलिए चीनी की कीमतें 100 रुपये किलो तक जा सकती हैं।
आखिर केंद्र सरकार किसे बेवकूफ बना रही है? चीनी माफिया मंत्रियों ने जनता को धोखा देने की ठान ली है। अभी तो मान लीजिए कि कच्ची चीनी आ रही है, वह महंगी पड़ रही है इसलिए दाम बढ़ रहे हैं। याद कीजिए कि 2009 मार्च से लेकर अक्टूबर तक वही चीनी मिलों द्वारा 30 रुपये किलो तक बेची गई, जो चीनी मार्च के पहले 16 रुपये किलो बिक रही थी। आखिर चीनी तैयार करने की लागत कितनी बढ़ गई है कि मिलें थोक भाव में 41 रुपये किलो चीनी बेचने लगीं? आखिर मिलों को कितना मुनाफा खाना है? कितने प्रतिशत लाभ कमाना है, चीनी की कमी दिखाकर? इसके लिए कौैन जवाबदेह है? केंद्र सरकार या राज्यों की सरकारें? जवाब या तो केंद्र सरकार दे सकती है... या लोकतंत्र में सबसे ताकतवर माना जाने वाला मतदाता- यानी आम जनता।

Friday, January 8, 2010

मोबाइल है तो स्टैंडर्ड चार्टर्ड बैंक आपको कभी भी धमकी दे सकता है!

मुझे भरोसा है कि अगर एकता ने स्टैंडर्ड चार्टर्ड बैंक से कर्ज लिया होगा तो वह आत्महत्या कर चुकी होगी। गुरुवार की सुबह मेरे साथ कुछ ऐसा हुआ, जिसे मैं जिंदगी में शायद ही कभी भूल पाऊं। दोपहर 11।30 बजे मैं ऑफिस जाने के लिए तैयार ही हो रहा था कि मेरे मोबाइल पर +911244826071 और +911242350104 से कॉल आने लगी। वह किसी एकता के बारे में पूछ रहा था। 10 मिनट के भीतर जब चौथी कॉल आई तो वह मुझे गालियां देने लगा। मैने भी थोड़ी-बहुत गालियां दी, जो मुझे आती थीं और कहा कि आइंदा अगर कॉल किया तो मैं एफआईआर करा दूंगा। फोन काट दिया।
फोन काटते ही फिर फोन आ गया तो मेरी पत्नी ने फोन ले लिया। वह बात कर रही थी तो स्पीकर ऑन था और फोन करने वाला लगातार गालियां दिए जा रहा था, ऐसी गालियां- जिसे लिखना भी संभव नहीं है। बहरहाल मैने फिर फोन काटा।12 बजे तक मैने कम से कम 5 बार फोन काटा। तब तक ऑफिस जाने के लिए मेरे मित्र भी आ चुके थे। मैं उन्हें इस घटना के बारे में बता ही रहा था कि फिर कॉल आ गई। इस बार मेरे मित्र ने फोन उठाया और उन्होंने समझाने की कोशिश की कि यह उस व्यक्ति का नंबर नहीं है, जिसे तुम तलाश रहे हो। उधर से जवाब आया कि तब उसे पैदा कर। बहरहाल उन्होंने भी थोड़ा-बहुत अपनी भाषा में समझाने की कोशिश की। हम लोग ऑफिस के लिए निकले और मैं लगातार फोन काटता रहा या उसे रिसीव करके छोड़ता रहा।

बहरहाल ऑफिस पहुंचने पर इस घटना के बारे में चर्चा कर ही रहा था कि फिर फोन आने लगा। इस बार मैने फोन उठाया और कहा कि यह एकता का नंबर नहीं है। फोन करने वाले ने कहा कि अभी थोड़ी देर पहले इसी फोन पर एकता से बात हुई है, तू उससे बात करा। बहरहाल- मैने फिर फोन काट दिया। फोन काटते ही फिर फोन आ गया। इस बार मेरे एक सहकर्मी मनीश ने फोन उठाया। उन्होंने फोन करने वाले को समझाने की कोशिश की कि भाई यह नंबर सत्येन्द्र जी का है। उसने कहा कि तुम फोन का कागज लेकर बैंक आ जाओ। उन्होंने फोन काट दिया और एफआईआर करने की सलाह दी। इस बीच मुझे कॉल करने वाले ने कहा कि मैं प्रवीण बोल रहा हूं, स्टैंडर्ड चार्टर्ड बैंक बैंक गुडग़ांव से। वह बार-बार पैसे वापस करने की बात कर रहा था।

इस बीच 4 काल और आई और मैं फोन काटते अपने सहयोगी को लेकर आईपीओ एक्सटेंशन थाने की ओर बढऩे लगा। थाने पर पहुंचने पर पहले तो वहां मौजूद पुलिसकर्मी ने मुझे समझाया कि आप पांडव नगर इलाके के थाने में एफआईआर दर्ज कराइये। हालांकि थाने पर यह बताने पर कि मैं बिजनेस स्टैंडर्ड में रिपोर्टर हूं और आईटीओ पर मेरा ऑफिस है, जो आपके थाना क्षेत्र में आता है, तो उसने मुझे सब इंस्पेक्टर (शायद) मीना यादव के पास भेज दिया। उन्होंने मुझे कॉल रिकॉर्ड करने की सलाह दी और एक लिखित आवेदन अपने पास जमा करा लिया, जिसमें मैने अपने दो घंटे के मानसिक उत्पीडऩ के बारे में लिख दिया। इंसपेक्टर ने मुझे कार्रवाई करने का आश्वासन देकर विदा कर दिया।

मैं अभी कार्यालय पहुंचा भी नहीं था कि इंसपेक्टर मीना यादव का फोन आ गया। उन्होंने कहा कि मेरी बात आपके द्वारा दिए गए नंबर पर हुई है और कॉल रिसीव करने वाले ने बताया है कि वह स्टैंडर्ड चार्टर्ड बैंक से बोल रहा है। उसने इंसपेक्टर को बताया था कि यह नंबर उसे मिला है, जिसमें उसे एकता का नाम बताया गया है। बहरहाल इंसपेक्टर ने कहा कि अब इस नंबर से आपको कॉल नहीं आनी चाहिए और अगर आती है तो आप मुझे इनफार्म करिएगा। बैंक वाले ने इंसपेक्टर से यह भी कहा कि कॉल रिकार्डेड है और किसी तरह की गाली-गलौझ नहीं की गई है। शायद उसने बाद में की गई 2-3 कॉल की रिकॉर्डिंग की होगी।बहरहाल, उसके बाद ब्लॉग पर लिखने तक मेरे पास कॉल नहीं आई है।

मैं यही सोच रहा हूं कि आर्थिक अखबार में काम करने के नाते हम लोग लगातार रिजर्व बैंक के गाइडलाइंस के बारे में लिखते हैं, चिदंबरम का भाषण सुनते है और उसे छापते हैं कि वसूली के नाम पर किसी को तंग नहीं किया जाएगा। साथ ही पुलिस का आश्वासन होता है कि स्पेशल सेल बनी है और इस तरह की किसी भी सूचना पर तत्काल कार्रवाई होगी। आखिर ये सब आश्वासन, खबरें किसके लिए हैं।

हालांकि मैने अपनी अब तक की जिंदगी में किसी बैंक से कोई कर्ज नहीं लिया है। भगवान न करें कि कभी लेना भी पड़े, लेकिन अगर जिस व्यक्ति ने कर्ज लिया है तो ये निजी बैंक कितनी गुंडागर्दी करते हैं यह मुझे समझ में आ गया। दो-तीन घंटे का मानसिक उत्पीडऩ मेरे ऊपर इतना भारी पड़ा कि उसका बयान किया जाना भी मुश्किल है।