Thursday, June 24, 2010

एक ही गांव के लोग भाई-बहन होते है...

दिल्ली के वजीरपुर गांव के लोग कह रहे हैं कि एक ही गांव के लोग भाई बहन होते हैं। वे क्या गलत कह रहे हैं? सिर्फ इतना ही नहीं, चाचा-भतीजा, भाई-भाभी, बाबा-दादी, ताऊ, ताई तमाम रिश्ते होते हैं। मैने अपने गांव में देखा है। मुझसे कम उम्र के कितने लोग मेरे चाचा हैं। मैं अपने उम्र के दोगुने उम्र के लोगों का चाचा भी हूं। तमाम लोग, जो मेरे हमउम्र हैं, रिश्ते में मेरे बाबा हैं। मेरी तमाम बुआ हैं। गांव की किसी लड़की का पति अगर गांव में आता है तो वह पूरे गांव का दामाद हो जाता है। उसके बच्चे आते हैं तो सारा गांव उसका मामा-मामी, नाना-नानी हो जाते हैं। हां, ऐसा कोई उदाहरण शायद मैने अपने गांव में नहीं देखा है कि एक ही गांव के लोग पति-पत्नी या प्रेमी-प्रेमिका हों।

गांव में रिश्तों की एक तासीर होती है। वे शायद शहरी रिश्तों को नहीं समझ पाते कि बगल वाले फ्लैट में रहने वाला व्यक्ति, रिश्ते में उसका क्या लगता है? शायद इसका कारण है कि शहरों में अभी लोग १०-२० या ४०-५० साल से बसे हैं। वे अलग-अलग इलाके से आते हैं। उन्हें बगल वाले के दुख-दर्द से कोई मतलब नहीं होता। अगर बगल के फ्लैट में कोई अकेला है, बीमार है और मरने की कगार पर है तो उसका पड़ोसी ऑफिस जाना ज्यादा जरूरी समझता है। गांव का आदमी अगर आधी रात को बीमार पड़ता है तो गांव में संसाधन, इलाज की सुविधा आदि न होने के बावजूद पूरा गांव एकत्र हो जाता है औऱ उसे अगर १०० किलोमीटर दूर इलाज के लिए ले जाना पड़ता है तो गांव के १० लोग साथ हो लेते हैं। लोगों के पास पैसा नहीं होता है लेकिन गांव में तत्काल १०-२० हजार रुपये इकट्ठा हो जाता है। दिल्ली में ज्यादातर लोग लखपति हैं, लेकिन यहां १०-२० प्रतिशत आबादी भूखे पेट सो जाती है। गांव में सभी लोग आधा पेट भोजन करते हैं, और भूख से तभी मरते हैं जब पूरा गांव भूख से मरने की कगार पर पहुंचने को होता है।

यह होती है रिश्तों की तासीर। यह होता है गांव और शहर के रिश्तों में फर्क, जो मैने महसूस किया है।

Sunday, June 20, 2010

कहीं आप भी बॉस और मातहत से भयभीत होकर अपनी निजी जिंदगी का नाश तो नहीं कर रहे?

तमाम अधिकारियों में असुरक्षा का भाव काफी होता है जो छुट्टियों में भी बॉसगीरी से बाज नहीं आते। इस कवायद से वे रिमोट कंट्रोल के जरिये अपने कनिष्ठों को साधते हैं तो अपने वरिष्ठों से शाबाशी की आस रखते हैं। इसका दुखद पहलू यही है कि उनमें से ज्यादातर को यही लगता है कि उनके किए का सारा श्रेय उनके वरिष्ठ ले जाएंगे। इससे उन्हें लग सकता है कि काम के अलावा उनकी कोई जिंदगी नहीं है। इससे भी बड़े दुख की बात यह है कि यह सिलसिला बदस्तूर चल रहा है और वे लोग इसे आगे बढ़ा रहे हैं जो खुद कभी निचले पदों पर काम करते थे...


श्यामल मजूमदार


समंदर के किनारे खड़े नारियल के खूबसूरत पेड़, सफेद रेत और आसमां को छूने की कोशिश करती सागर की लहरें किसी की भी आंखों को सुकून देने के लिए काफी हैं। लेकिन कुछ ज्यादा ही व्यस्त रहने वाले मिस्टर एक्जीक्यूटिव (आज के दौर की कंपनियों में काम करने वाले बड़े अफसर, आमतौर पर प्रबंधक) इन्हें उतनी रूमानियत के साथ नहीं देख पाते। वे तो बस सुबह अपने दफ्तर जाने के दौरान मीठी नदी (मुंबई में हवाई अड्डïे के करीब से बहती है।) को देखकर ही अपनी खुशी ढूंढऩे की कोशिश करते हैं। उस वक्त उनका दिमाग भी एक अलग स्तर पर होता है जहां वे या तो दूसरों के बॉस होते हैं या फिर वे खुद को किसी के मातहत पाते हैं।

आखिर इन लोगों के लिए गोवा में अरब सागर के खूबसूरत तटों के क्या मायने हो सकते हैं? मिस्टर एक्जीक्यूटिव और उनके जैसे कई महानुभाव होते हैं जो शारीरिक रूप से तो बीच पर मौजूद होते हैं लेकिन उनका मन कहीं और रमा होता है। या तो वे अपने फोन पर बातचीत करते हुए पाए जा सकते हैं या फिर उनकी उंगलियां ब्लैकबेरी फोन पर कसरत करती हुई नजर आ सकती हैं, जिससे वह अपने दफ्तर के लोगों को जरूरी संदेश भेज रहे होंगे। दूसरी ओर उनके साथ सैरसपाटे के लिए गया उनका परिवार इससे उकता जाता है और खुद ही समंदर किनारे की सैर के लिए निकल पड़ता है। एक 12 साल की बच्ची अपनी मां से शिकायत करते हुए पाई जा सकती है कि पापा दूसरे 'बच्चेÓ (फोन) को उससे ज्यादा प्यार करते हैं। उसके पिता उन अनगिनत प्रबंधकों में से एक हो सकते हैं जो अपने कनिष्ठों को लगातार काम देते रहते हैं लेकिन इस काम को किसी भी सूरत में अंजाम तक पहुंचाने की माथापच्ची उनके जिम्मे ही होती है। ये प्रबंधक अपने कनिष्ठों पर उतना ही भरोसा करते हैं जितना कोई गाड़ी चलाने के मामले में पांच साल के बच्चे पर करता है। लेकिन कुछ ज्यादा ही व्यस्त रहने वाला एक्जीक्यूटिव तबका खुद ही कई बार अपनी भूमिका को लेकर भ्रमित रहता है।

अगर छुट्टिïयां मनाने के दौरान उनमें से किसी का मोबाइल स्विच ऑफ है और उनका लैपटॉप होटल के कमरे के किसी कोने में पड़ा है तो एकबारगी उस एक्जीक्यूटिव के मन में यह भाव घर कर सकता है कि कहीं वह बेकार प्रबंधक तो नहीं है या जरूरी चीजों को करने में समर्थ नहीं है, वगैरह-वगैरह। अगर किसी एक्जीक्यूटिव के ईमेल इनबॉक्स में या वीडियो कॉन्फ्रेंसेज में उसके बॉस या मातहतों के 500 से ज्यादा ईमेल भरे हैं तो कोई अचंभे वाली बात नहीं है। ये बॉस सोते भी अपने मोबाइल फोन के साथ ही हैं। ज्यादातर मामलों में यही होता है कि सोने से पहले फोन ही देखा जाता है और सुबह उठते भी सबसे पहले फोन का ही जायजा लिया जाता है। कुछ लोग तो एक हद से भी ऊपर यह काम करते हैं। मौजूदा दौर में कॉर्पोरेट जगत ऐसे ही लोगों से भरा पड़ा है और यही लोग इस दुनिया को चला भी रहे हैं। ये लोग अपनी केबन तक पहुंचने के लिए भी लिफ्ट या एस्केलेटर का ही इस्तेमाल करते हैं और सीढिय़ां केवल उन्हीं लोगों के लिए बच जाती हैं जो उनकी सफाई का काम करते हैं।

छुट्टिïयों से उनका मतलब केवल कामकाजी छुट्टिïयों से होता है जिसमें काम पर ही सबसे ज्यादा ध्यान होता है। आप मुंबई की एक एफएमसीजी कंपनी के उपाध्यक्ष के एक मामले से इसे समझ सकते हैं। एक बेहद दुर्लभ मामले में जब उन्होंने अपना ब्लैकबेरी फोन बंद किया तो उनका यही कहना था कि पिछले तीन साल में यह उनका पहला ब्रेक है। क्योंकि आज की बेहद तेजी से भागती कारोबारी जिंदगी में उनके पास इसके अलावा और कोई विकल्प भी मौजूद नहीं है। वह कहते हैं, 'मैं खुद वहां मौजूद नहीं होता हूं लेकिन तकनीक के जरिये मैं उससे जुड़ा रहता हूं। मैं इस बात को बर्दाश्त नहीं कर सकता कि मेरी गैरमौजूदगी में काम जरा भी प्रभावित हो।

आज के दौर में इन उपाध्यक्ष जैसी हजारों मिसालें आपको मिल जाएंगी। उनमें से कई ऐसे भी होते हैं जिनमें असुरक्षा का भाव काफी होता है जो ऐसा करके खुद को सुरक्षित दायरे में महसूस करते हैं। इस कवायद से वे रिमोट कंट्रोल के जरिये अपने कनिष्ठों को साधते हैं तो अपने वरिष्ठïों से शाबाशी की आस रखते हैं। इसका दुखद पहलू यही है कि उनमें से ज्यादातर को यही लगता है कि उनके किए का सारा श्रेय उनके वरिष्ठï ले जाएंगे और उन्हें फिर बेहद चुनौतीपूर्ण काम थमा दिया जाएगा जिसके लिए वक्त भी काफी कम मिलेगा। इससे उन्हें लग सकता है कि काम के अलावा उनकी कोई जिंदगी नहीं है। इससे भी बड़े दुख की बात यह है कि यह सिलसिला बदस्तूर चल रहा है और वे लोग इसे आगे बढ़ा रहे हैं जो खुद कभी निचले पदों पर काम करते थे।

इसमें कोई ताज्जुब नहीं होना चाहिए कि कुछ साल पहले भारत में कर्मचारियों के बीच हुए एक सर्वेक्षण में तकरीबन 75 फीसदी ने अपने बॉस को घटिया करार दिया था। इसकी बड़ी वजह यही हो सकती है कि कई बॉस प्रोन्नति के मामले में कंपनी की घटिया नीतियों के कारण मनमाने तरीके अपनाकर कुछ भी कर सकते हैं। उनमें से कई अपने मातहतों के करियर की दशा और दिशा बिगाड़ सकते हैं तो कई मामलों में कम योग्य लोगों को ही बड़ी कुर्सी तक भी पहुंचा सकते हैं।

मंदी के दौर में पिछले कुछ अर्से में तो हालात और भी बुरे हुए हैं और इन प्रबंधकों की मुश्किलें और बढ़ी हैं। उन्हें कर्मचारियों की संख्या घटाने, लागत कम करने और कई दूसरे कठिन मोर्चों पर कमान संभालनी पड़ी है। अनुमान के मुताबिक कई भारतीय कंपनियों ने तो इस मामले में हद ही कर दी। कई कंपनियां दो व्यक्तियों का काम एक ही व्यक्ति से ले रही हैं तो कुछ ने काम के घंटे ही बढ़ा दिए हैं। मतलब कि एक दिन में 12 घंटे कंपनी के लिए काम करना कोई बड़ी बात नहीं रह गई है। इस तरह के परिदृश्य में कामकाजी जिंदगी और असल जिंदगी में संतुलन कायम रखना मुश्किल हो गया है। पिछले कुछ वर्षों में ज्यादा से ज्यादा लोगों ने काम पर अपना ज्यादा वक्त लगाया है और जिंदगी को कम ही वक्त मिल पाया है। यह केवल भारत में ही नहीं हो रहा है बल्कि दुनिया इस बीमारी से जूझ रही है।

साभारः http://www.business-standard.com/india/news/shyamal-majumdar-more-work-+-blackberry-=-holiday/396249/

Friday, June 18, 2010

एक साथ कई काम? कहीं आप बीमार तो नहीं?

सामान्यतया कई लोग बहुत ज्यादा काम करने का दिखावा या दावा करते हैं। जैसे कि उन्हीं पर पूरा आफिस टिका है। अगर आप भी ऐसा सोचते हैं तो यह भी सोचना शुरू कर दीजिए कि कहीं आप बीमार तो नहीं हैं?


श्यामल मजूमदार

अपराह्न के तीन बजे हैं। ईमेल देखने, न्यूज चैनल पर नजर डालने के दौरान आप लंबी दूरी की कॉल भी स्वीकार कर रहे हैं, साथ ही अनिच्छा के साथ सैंडविच का कौर भी ग्रहण कर रहे हैं जो कि ठंडा हो चुका है।

ऐसा इसलिए क्योंकि रोजाना की बैठकों की वजह से आपको पर्याप्त समय नहीं मिल रहा। आपको लग रहा होगा कि आपके साथ भी ऐसा हो रहा है? आपकी तरह ऐसे असंख्य एग्जिक्यूटिव हैं जो 60 मील प्रति घंटा (इसे 80 कर देते हैं) के हिसाब से जिंदगी चलाने के बारे में सोच रहे हैं और उन्हें लगता है कि ऐसे रास्ते पर चलकर ही आगे बढ़ा जाता है।

लेकिन मनोवैज्ञानिकों के पास 24X7 वाले ऐसे अस्तित्व के लिए एक शब्द है और वह है हरी सिकनेस, जिससे ग्रसित कोई व्यक्ति समय की कमी महसूस करता है और इस वजह से हर काम तेजी से करने की चेष्टा करता है। जब इसमें किसी तरह की देरी होती है तो वह घबरा जाता है।

ऐसे लोग पूरे कार्यसमय के दौरान छोड़ी गई मिसाइल की तरह चलते रहते हैं (वे दूसरों के मुकाबले काफी पहले दफ्तर पहुंचते हैं और बाकी लोगों के जाने केबाद दफ्तर छोड़ते हैं), वे इस उम्मीद में ऐसा करते हैं कि स्थायी रूप से व्यस्तता देखकर बॉस प्रभावित होंगे।

इसका दूसरा पहलू हालांकि यह है कि ऐसे लोग काम का व्यस्तता के साथ घालमेल कर रहे होते हैं और स्मार्ट बनकर काम किए जाने को लंबे समय तक व तेजी से काम करने से भ्रामक बना देते हैं। एचआर सलाहकार कहते हैं कि ऐसे व्यस्त लोगों को यह समझने की दरकार है कि करियर के लिए जहां ऐसी भावभंगिमा जरूरी हो सकती है, वहीं जिंदगी में इस भावभंगिमा की वजह से बहुत कुछ देखा जाना बाकी रह सकता है।

मनोवैज्ञानिकों का कहना है कि हरी सिकनेस कॉरपोरेट रैट रेस की चिंता में वहां पहुंचना और उसमें मगन होने के मुकाबले बहुत कुछ और है। इस बीमारी से पीड़ित व्यक्तियों को कभी-कभी यह अहसास नहीं होता कि तेज गति और अतिरिक्त घंटे तक काम करना लंबी अवधि के लिए टिकाऊ नहीं हो सकता है। अगर वे ऐसा कर सकते हैं तो उनके काम की गुणवत्ता वैसी नहीं रह पाती है क्योंकि वे गौरवान्वित रोबोट के अलावा कुछ और नहीं होते।

मॉडर्न टाइम्स मूवी को याद कीजिए जहां चार्ली चैपलिन फैक्टरी की असेंबली लाइन में रोजाना आठ घंटे तक खड़े रहते हैं और वहां से गुजर रहे नट को औजार से कसते रहते हैं। समय-समय पर बॉस कन्वेयर बेल्ट की गति बढ़ा देता है और चैपलिन को तेज गति से काम करना पड़ता है। पूरे दिन वह अपनी बांह को एकसमान तरह से ही चलाते हैं।

आठ घंटे बाद वे जब वहां से बाहर निकलते हैं तो उनका काम नहीं रुकता। घर जाने के दौरान हालांकि उनके पास औजार नहीं होता, पर लोगों के मनोरंजन के लिए वे पूरे रास्ते उसी तरह का हाव-भाव दिखाते रहते हैं। अपने कार्यस्थल पर जल्दबाजी में रहने में रहने वाले लोगों के साथ भी ऐसा ही होता है।

एक समय के बाद वे सोचना बंद कर देते हैं और सही मायने में चैपलिन की ही तरह प्रतिक्रिया जताते हैं, जैसा कि वे घर जाने के दौरान जताते थे। और ज्यादा सक्षम बनने के लिए ऐसे लोग लगातार जल्दबाजी में रहते हैं। उन्हें लगता है कि हर समय आपातकालीन स्थिति है, लेकिन जब सही मायने में आपातकालीन स्थिति आती है तो वे इसका प्रत्युत्तर देने में अपने आपको अक्षम पाते हैं।

'द 80 मिनट एमबीए' के लेखक रिचर्ड रीव्स व जॉन नेल कहते हैं कि नियुक्ति करने और उन्हें बाहर का दरवाजा दिखाने की खातिर कामयाब नेतृत्व अपने आपको व सहयोगियों को समझने या जानने में समय लेते हैं। लेकिन जो लोग जल्दी में होते हैं उन्हें लगता है कि सभी लोगों के लिए संसाधनों का अभाव है। इस किताब ने क्विक हरी सिकनेस टेस्ट के बारे में बताया है, उसका सार इस तरह से है :

1। जब आप सुबह ब्रश कर रहे होते हैं तो क्या आप उस समय कुछ और काम कर रहे होते हैं मसलन अंडरवियर खोजना, बच्चों पर चिल्लाना आदि?
2. जब आप ट्रेन या विमान पकड़ते हैं- उन क्षणों में प्रवेश करना जब दरवाजा बंद होने वाला हो ?
3. जब आप लिफ्ट में प्रवेश करते हैं तो क्या आप तत्काल डोर क्लोज का बटन खोजते हैं? आप इस सच्चाई को नजरअंदाज कर रहे हो सकते हैं कि चार सेकंड में अपने आप दरवाजा बंद हो जाएगा। इस अवधि तक आपको इंतजार करना निश्चित रूप से अकल्पनीय लगता है, क्या ऐसा नहीं है?
4। आप लिफ्ट के बटन को कितनी बार दबाते हैं क्योंकि वह 16वीं मंजिल से नीचे आने में समय ले रहा है? आपमें से कुछ वास्तव में ऐसा करते हैं मानो ऐसा करने से लिफ्ट के आने की गति तेज हो जाएगी।

अब इसकी गिनती कीजिए कि कितने सवालों का जवाब आपने हां में दिया है। अगर स्कोर दो है तो फिर आप समय के साथ हैं। अगर स्कोर तीन है तो यह हरी सिकनेस का शुरुआती लक्षण है। और अगर स्कोर चार है तो दिन में ज्यादातर समय अपनी ही पूंछ का पीछा कर रहे होते हैं, इसका मतलब यह हुआ कि बीमारी उन्नत चरणों में पहुंच चुकी है।

चिकित्सा विज्ञान में इसके लिए शब्द है फिबरिलेशन। जब आपके दिल की धड़कन ऐसी स्थिति में होती है तो खून अवरूध्द हो जाता है बजाय इसके कि इसके जरिए खून का प्रवाह होता है। मनोवैज्ञानिक कहते हैं कि इन सब बातों का यह मतलब नहीं है कि आप अपने काम की गति इतनी धीमी कर लें कि जब जरूरत पड़े तो तेजी से काम न कर पाएं।

आप इस हद तक न जाएं जिसे ग्लाइक, मल्टी टास्किंग, चैनल फ्लिपिंग, फास्ट फॉरवर्डिंग आदि का नाम देते हैं। संक्षेप में कहा जा सकता है कि लिफ्ट के बटन को न ठोकें, यह काम को रोक देगा।

http://www.business-standard.com/india/news/shyamal-majumdar-hurry-sickness/397777/