Friday, July 22, 2011

कंपनियों को खजाना और जनता को मौत बांटती सरकार



"हम यह जानकर भी क्या कर सकते हैं कि जब प्रधानमंत्री ने माओवादियों कोसबसे बड़ा आंतरिक ख़तरा बताया तब उस इलाके से जुड़ी कई कंपनियों केशेयरों के भाव अचानक तेजी से चढ़ गये?"



यह जान कर हम क्या कर सकते हैं कि चिदंबरम वेदांता के गैर कार्यकारीनिदेशक थे और उन्होंने 2004 में उस पद से इस्तीफा ठीक उसी दिन दिया जिसदिन देश के वित्त मंत्री के तौर पर शपथ ली?



यह जान कर भी हम और आप क्या कर सकते हैं कि वित्त मंत्री बनने के बादचिदंबरम ने सबसे पहले विदेशी निवेश के जिन प्रस्तावों को मंजूरी दी उनमेंसे एक प्रस्ताव मॉरिशस की कंपनी ट्विस्टार होल्डिंग्स का था जिसनेवेदांता ग्रुप की कंपनी स्टरलाइट के शेयर खरीदे?



अरुंधती रॉय



दक्षिणी उड़ीसा की हल्की ऊंची और सपाट चोटी वाली पहाड़ियां डोंगरिया कोंधआदिवासियों के घर हैं। तब से जब उड़ीसा नाम के किसी राज्य और भारत नाम केकिसी देश का अस्तित्व भी नहीं था। उन पहाड़ियों ने कोंधों का खयाल रखा।कोंधों ने उन पहाड़ियों को सहेजे रखा। उनकी पूजा की। एक जीवित भगवान कीतरह। लेकिन अब बॉक्साइट के कारण उन पहाड़ियों को बेच दिया गया है। कोंधआदिवासियों को लगता है कि उनका भगवान बेच दिया गया है। वो पूछ रहे हैं किअगर उनके देवता की जगह राम, अल्ला या ईसा मसीह होते तो क्या उन्हें बेचाजाता?



शायद, कोंधों से अहसानमंद रहने की उम्मीद की जाती है। इसलिए कि नियामगीरीपहाड़ी जो कि उनके देवता नियाम राजा (यूनिवर्सल लॉ के भगवान) का घर है,एक ऐसी कंपनी को बेची गयी है जिसका नाम है वेदांता। वेदांता मतलब हिंदूदर्शनशास्त्र की वो शाखा जो ज्ञान की सर्वोच्च प्रवृति सिखाती है।



वेदांता दुनिया की सर्वाधिक बड़ी खनन कंपनियों में से एक है और इसकेमालिक हैं अनिल अग्रवाल। भारतीय मूल के अरबपति जो लंदन के एक महल मेंरहते हैं। वह महल एक जमाने में ईरान के शाह का हुआ करता था। वेदांता उनढेरों बहुराष्ट्रीय कंपनियों में से महज एक नाम है, जिन्होंने उड़ीसा कीतरफ़ रुख किया है।



अगर सपाट चोटी वाली पहाड़ियां नष्ट हुईं तो उन्हें ढकने वाले जंगल नष्टहो जाएंगे। उनके साथ ही वहां से निकलने वाली धाराएं और नदियां सूखजाएंगी। मैदानी इलाकों को यही नदियां पानी पहुंचाती हैं। सींचती हैं।उनके सूखने से डोंगरियां कोंध बर्बाद हो जाएंगे। जंगलों में रहने वालेहज़ारों हज़ार आदिवासी ऐसे ही संकट में हैं। उनके वतन पर हमला हुआ है।



धूल और धुएं से भरे सघन आबादी वाले शहरों के कुछ वाशिंदे कहते हैं “तोक्या हुआ? विकास की कीमत किसी को तो चुकानी ही होगी।“ कुछ यह भी कहते हैंकि “इस सच का सामना करो। इन लोगों का वक़्त पूरा हो गया है। किसी भीविकसित देश, यूरोप, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया को देखो – उन सभी का एक अतीतथा। यकीनन था। तो हम भी अपने अतीत को दफ़्न क्यों नहीं कर दें?”



इसी विचार को केंद्र में रखते हुए सरकार ने ऑपरेशन ग्रीन हंट का एलानकिया है। यह मध्य भारत के जंगलों में छिपे माओवादी विद्रोहियों केख़िलाफ़ युद्ध की घोषणा है। यकीनन, सिर्फ़ और सिर्फ़ माओवादी ही बग़ावतनहीं कर रहे। देशभर में कई स्तरों पर संघर्ष हो रहा है। भूमिहीन, दलित,बेघर, मज़दूर, किसान और बुनकर – आंदोलन कर रहे हैं। वो सभी निरंतर हो रहेअन्याय और तानाशाही से दुखी हैं। वो उन नीतियों से आहत हैं जो कंपनियोंको उनकी ज़मीन पर कब्जा करने का हक़ देती हैं। फिर भी सरकार ने सबसे बड़ेख़तरे के तौर पर माओवादियों की ही निशानदेही की है। दो साल पहलेप्रधानमंत्री ने माओवादियों को आंतरिक सुरक्षा के लिए सबसे बड़ा ख़तराबताया। तब हालात इतने बदतर नहीं थे, जितने आज हैं। मनमोहन सिंह ने शायदसबसे अधिक बार यही बात कही है।



18 जून 2009 को मनमोहन सिंह ने अपनी सरकार की वास्तविक चिंता जाहिर की।संसद में उन्होंने कहा कि “अगर वामपंथी चरमपंथियों को देश के उन हिस्सोंमें फलने-फूलने दिया गया, जिनमें खनीज पदार्थ और दूसरी प्राकृतिक संपदाएंहैं तो निवेश का माहौल यकीनन बिगड़ेगा।”



माओवादी कौन हैं? वो प्रतिबंधित कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) – सीपीआई(माओवादी) के सदस्य हैं। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी(मार्क्सवादी-लेनिनवादी) – सीपीआई (एमएल) की कई संतानों में से एक।जिन्होंने 1969 में नक्सलबाड़ी विद्रोह का नेतृत्व किया और बाद मेंभारतीय सरकार ने जिन्हें ख़त्म कर दिया। माओवादी मानते हैं कि भारतीयसमाज में अंतरनीहित संरचनात्मक खामियों को हिंसक विद्रोह के जरिए सरकारको बेदखल करके ही दूर किया जा सकता है। बिहार और झारखंड में माओइस्टकम्युनिस्ट सेंटर (एमसीसी) और आंध्र प्रदेश में पीपुल्स वॉर ग्रुप(पीडब्ल्यूजी) के रूप में माओवादियों ने जनसमर्थन हासिल किया। 2004 मेंजब आंध्र प्रदेश में कुछ समय के लिए उन पर से प्रतिबंध हटाया गया तोवारंगल में हुई उनकी रैली में पांच लाख लोगों ने हिस्सा लिया था। लेकिनआंध्र प्रदेश में समझौते की कोशिश बहुत बुरे मोड़ पर ख़त्म हुई। उसके बादजो हिंसा का ख़ौफ़नाक दौर शुरू हुआ उसने उनके कई घोर समर्थकों को भीविरोधी बना दिया। आंध्र प्रदेश पुलिस और माओवादियों के बीच हुए ख़ूनीसंघर्ष में पीडब्ल्यूजी का लगभग सफाया हो गया। जो बच गये वो पड़ोसी राज्यछत्तीसगढ़ में दाखिल हो गये। घने जंगलों के बीच वो उन साथी माओवादियों सेजा मिले जो उन इलाकों में कई दशकों से सक्रिय थे।



जंगल में चल रहे माओवादी आंदोलन से बाहरी दुनिया के चंद लोगों का ही सीधापरिचय हुआ होगा। हाल ही में ओपन पत्रिका में छपे उनके उनके शीर्ष नेताओंमें से एक कॉमरेड गणपति के इंटरव्यू से भी उन लोगों की सोच में कोई बदलावनहीं आया है जो माओवादियों को तानाशाही सोच रखने वाले दल के तौर पर देखतेहैं। एक ऐसा दल जिसे असहमति बर्दाश्त नहीं।



कॉमरेड गणपति ने भी ऐसा कुछ नहीं कहा जिससे यह भरोसा जगे कि अगर कभी वोसत्ता में आये तो जातियों में बंटे भारतीय समाज की उन्मादी अनेकता कोसंबोधित… सही तरीके से करेंगे। श्रीलंका में चले लिबरेशन टाइगर्स ऑफ तमिलईलम को अनौपचारिक समर्थन से उनसे घोर सहानुभूति रखने वाले भी कांप उठेहोंगे। न केवल इसलिए कि एलटीटीई ने अपनी लड़ाई में क्रूरतम हथकंडों काइस्तेमाल किया बल्कि इसलिए भी कि जिन तमिलों के प्रतिनिधित्व का एलटीटीईदावा करती थी, उन तमिलों पर एलटीटीई की वजह से जो विपदा पड़ी है उसे उसकीकुछ तो जिम्मेदारी लेनी ही होगी।



इस वक़्त मध्य भारत में, माओवादियों के छापामार दस्ते में ऐसे जरूरतमंदगरीब आदिवासी शामिल हैं जो ऐसी भूखमरी के कगार पर थे, जिसका जिक्र हमअफ्रीकी देशों के संदर्भ में करते हैं। ये सभी वो लोग हैं जिन्हें साठसाल की आज़ादी के बाद भी शिक्षा, स्वास्थ्य और न्यायिक जरूरतों से दूररखा गया। ये वो लोग हैं जिनका बेरहमी से शोषण किया गया। छोटे कारोबारियोंऔर सूदखोरों के द्वारा दोहन किया गया। पुलिस और वन विभाग के कर्मचारियोंने महिलाओं से ऐसे बलात्कार किया जैसे यह कुकर्म उनका अधिकार हो।





चुनाव ’2009: दो बिलियन डॉलर्स का खेळ



अगर आदिवासियों ने हथियार उठाया है तो सिर्फ़ इसलिए कि सरकार ने उन्हेंहिंसा और उपेक्षा से अधिक कुछ नहीं दिया है। और अब वही सरकार उनसे उनकाआखिरी सहारा – उनकी ज़मीन भी छीन लेना चाहती है। साफ़ है कि आदिवासीसरकार के इस कथन पर भरोसा नहीं करते कि वो उनका विकास करना चाहती है।उन्हें इस पर भी भरोसा नहीं कि दंतेवाड़ा में राष्ट्रीय खनीज विकासकॉरपोरेशन (NMDC) ने जंगलों में हवाईपट्टियों जितनी चौड़ी-चौड़ी सड़केंइसलिए बनाई हैं कि उनके बच्चे स्कूल जा सकें। वो मानते हैं कि अगरउन्होंने अपनी भूमि के लिए संघर्ष नहीं किया तो वो ख़त्म हो जाएंगे। यहीवजह है कि आज उनके हाथों में हथियार है।



माओवादी आंदोलन के अगुवा भले ही सरकार को सत्ता के बेदखल करने के लिए लड़रहे हैं। लेकिन उन्हें अहसास है कि उनकी भूखी और कुपोषित सेना – जिनकेज़्यादातर सदस्यों ने कभी ट्रेन, बस और शहरी ज़िंदगी को क़रीब से नहींदेखा है – के लिए यह केवल अस्तित्व की लड़ाई है।



2008 में योजना आयोग की तरफ़ से नियुक्त विशेषज्ञ समिति ने अपनी रिपोर्टसौंपी। उस रिपोर्ट का नाम है – “उग्रवादप्रभावित इलाकों में विकास कीचुनौतियां ”। इसमें लिखा है कि – नक्सली आंदोलन को भूमिहीन गरीब किसानोंऔर आदिवासियों के बीच जनाधार वाले एक राजनीतिक आंदोलन के तौर पर मान्यतादेनी होगी। स्थानीय लोगों के अनुभवों और सामाजिक हालात के संदर्भों मेंनक्सली आंदोलन के उत्थान और विस्तार को समझने की ज़रूरत है। राज्य कीनीतियों और उन नीतियों पर अमल में मौजूद ग़हरी खाई उन्हीं हालत में से एकहै। यह सही है कि इसकी विचारधारा… ताक़त के बल पर सत्ता हासिल करना है,लेकिन रोज़मर्रा के क्रिया कलापों में इसे सामाजिक न्याय, समानता, रक्षा,सुरक्षा और स्थानीय विकास के लिए चल रहे संघर्ष के तौर पर देखना होगा।”यह “आंतरिक सुरक्षा के सबसे बड़े ख़तरे” के सिद्धांत से काफी अलग है।



माओवादी विद्रोही इन दिनों चर्चा का विषय हैं। चमकते हुए अमीर से लेकरसबसे अधिक बिकने वाले अख़बार के सनकी संपादक तक – हर कोई अचानक यह माननेको तैयार हो गया है कि दशकों से हो रहा अन्याय ही इस समस्या की जड़ है।लेकिन उस समस्या को समझने की जगह, जिसका मतलब होगा 21वीं सदी की इससुनहरी दौड़ का थम जाना, वो इस बहस को एक नया मोड़ देने में जुटे हैं।माओवादी “आतंकवाद” के ख़िलाफ़ भावनात्मक गुस्से का इज़हार करते हुए …चीखते-चिल्लाते हुए। लेकिन वो सिर्फ़ अपने आप से बातें कर रहे हैं।



जनता जिसने हथियार उठा रखा है, वह टेलिविजन देखने और अख़बार पढ़ने मेंअपना वक़्त खर्च नहीं करती। “हिंसा सही है या ग़लत? अपने जवाब …. परएसएमएस करें” – जैसे नैतिक सवालों पर वो अपना दिमाग नहीं खपाती है। वोअपने इलाकों में … अपने हक़ की लड़ाई लड़ रहे हैं। वो मानते हैं कि अपनेघर, अपनी ज़मीन को बचाने की लड़ाई लड़ने का उन्हें पूरा अधिकार है। उनकाविश्वास है कि उन्हें न्याय मिलना ही चाहिए।



वीटी, 26/11: इस हादसे के बाद भारत सरकार पाकिस्‍तान से बात करने कोतैयार है, लेकिन अपने ही देश के ग़रीबों के साथ अछूत बर्ताव कर रही है।



अपने खुशहाल नागरिकों को इन ख़तरनाक लोगों (आदिवासियों) से सुरक्षित रखनेके लिए सरकार ने इनके ख़िलाफ़ युद्ध का एलान कर दिया है। सरकारी बताती हैइस युद्ध को जीतने में तीन से पांच साल लग सकते हैं। यह कितना अजीब लगताहै कि मुंबई हमले के बाद भी भारत सरकार पाकिस्तान से बात करने के लिएतैयार है? चीन से बात करने के लिए तैयार है, लेकिन अपने ही देश कीसर्वाधिक ग़रीब जनता के ख़िलाफ़ युद्ध के बारे में उसका रवैया सख़्त है।



आदिवासी इलाकों में ग्रेहाउंड्स (कुत्ते की एक खूंखार प्रजाति), कोबरा(सांप की सबसे विषैली प्रजातियों में से एक) और स्कॉर्पियन (बिच्छू) जैसेडरावने नामों वाले स्पेशल पुलिस के दस्तों को नरसंहार का लाइसेंस दिया जाचुका है, लेकिन लगता है यह काफी नहीं है। केंद्रीय रिजर्व पुलिस फोर्स(सीआरपीएफ), सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) और कुख्यात नगा बैटेलियन ने जंगलोंमें बसे गांवों में पहले से क़हर बरपा रखा है, लेकिन यह भी काफी नहीं।आदिवासियों को हथियार थमा कर सलवा जुडुम का निर्माण करना भी काफी नहीं।वो सलवा जुडुम जिसने हत्या, बलात्कार और आगजनी के बल पर दंतेवाड़ा केजंगलों में तीन लाख से भी ज़्यादा लोगों को या तो बेघर कर दिया है या फिरभागने पर मजबूर। लेकिन यह सब काफी नहीं।



शायद तभी सरकार ने आईटीबीपी और दूसरे अर्धसैनिक बलों के हज़ारों जवानोंको तैनात करने का फैसला लिया है। बिलासपुर में नौ गांवों को विस्थापितकरके सरकार एक ब्रिगेड मुख्यालय बनाना चाहती है। और राजनांदगांव में सातगांवों को विस्थापित करके एक एयरबेस बनाने की योजना है। जाहिर है यहफ़ैसले काफी पहले लिए गये होंगे। सर्वे किया गया होगा। जगह का चयन हुआहोगा। लेकिन युद्ध की चर्चा हाल-फिलहाल शुरू की गयी है। और अब भारतीयएयरफोर्स के हेलीकॉप्टरों को आत्मसुरक्षा के नाम पर हमले का अधिकार देदिया गया है। देश की सर्वाधिक ग़रीब जनता यही आत्मसुरक्षा का अधिकार मांगरही है लेकिन सरकार उसे यह अधिकार नहीं देना चाहती।



गोलीबारी किस पर? कोई यह बताएगा कि सुरक्षाबल… आतंकित हो कर भाग रहेआदिवासियों और माओवादियों में फर्क कैसे करेंगे? सदियों से आदिवासीतीर-कमान के साथ जंगलों में घूमते आये हैं – क्या अब उन्हीं तीर कमान केकारण उन्हें माओवादी घोषित कर दिया जाएगा?



क्या माओवादियों से सहानुभूति रखने वाले अहिंसक लोग भी निशाने पर होंगे?जब मैं दंतेवाड़ा में थी, पुलिस अधीक्षक ने ऐसे 19 माओवादियों कीतस्वीरें दिखाईं, जिन्हें उनके जवानों ने ढेर कर दिया था। मैंने उनसेपूछा कि मैं किस आधार पर कहूं कि ये माओवादी हैं? – उन्होंने जवाब दिया –देखिए मैडम उनके पास मेलेरिया की दवाएं और डिटॉल की बोतलें मिली हैं – येवो सामान हैं जो यहां बाहर से आते हैं।





हत्‍या का लाइसेंस:



वायुसेना को आत्‍मरक्षा के लिए गरीबों पर गोलीबारी काअंधा अंधिकार दे दिया गया, लेकिन गरीबों की आत्‍मरक्षा का क्‍या?ऑपरेशन ग्रीन हंट आखिर किस तरह का युद्ध होगा? क्या हम कभी जान सकेंगे?पहले से ही जंगलों के भीतर से बहुत कम ख़बरें आती हैं। पश्चिम बंगाल मेंलालगढ़ को सेना ने घेर लिया था। जो भी वहां जाना चाहता उसे गिरफ़्तार करलिया जाता और उसकी पिटाई की जाती। माओवादी बता कर। दंतेवाड़ा में वनवासीचेतना आश्रम, एक गांधीवादी आश्रम था। उसे हिमांशु कुमार चलाते थे। कुछ हीघंटों में उस आश्रम को मिट्टी में मिला दिया गया। युद्ध क्षेत्र से ठीकपहले यह एक ऐसी जगह थी जहां पत्रकार, सामाजिक कार्यकर्ता, शोधार्थी औरजांच टीमें ठहरा करती थीं।



इसी बीच भारत सरकार ने अपने सर्वाधिक घातक हथियार का इस्तेमाल शुरू करदिया है। रातों रात, हमारी इब्बेडिड मीडिया ने “इस्लामी आतंकवाद” के बारेमें प्लांटेड, तथ्यहीन, तर्कहीन और पागलपन से भरी ख़बरों की जगह “लालआतंकवाद” के बारे में प्लांडेट, तथ्यहीन, तर्कहीन और पागलपन भरी खबरेंदिखाना शुरू कर दिया। इस रैकेट के बीच, युद्ध मैदान में घोषित और दमघोंटूचुप्पी छाई हुई है। सुरक्षाबलों का घेरा कस दिया गया है। श्रीलंका कीतर्ज पर समस्या को हल करने की नीति पर अमल हो रहा है। यह अकारण नहीं हैकि तमिल टाइगर्स के ख़िलाफ़ श्रीलंका के युद्ध अपराधों की जांच की मांगसे जुड़े यूरोपीय प्रस्ताव का संयुक्त राष्ट्र में भारत ने विरोध किया।



इस दिशा में पहला कदम वह प्रचार है जिसके सहारे देश में चल रहे अनगिनतआंदोलनों को एक ही नाल में ठोंक देना है। ठीक अमेरिकी के पूर्वराष्ट्रपति जॉर्ज बुश के सिद्धांत के तहत कि “अगर तुम हमारे साथ नहीं” तोतुम “माओवादी” हो। सोची-समझी रणनीति के तहत माओवादी ख़तरे को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करने से सरकार को सैन्यीकरण में मदद मिलती है। (इससे माओवादियोंको भी कोई नुकसान नहीं है। आखिर कौन सी राजनीतिक पार्टी ऐसी होगी जो इतनीतवज्जो मिलने पर दुखी हो?)



आतंक के ख़िलाफ़ इस नये युद्ध से राज्य को अपने ख़िलाफ़ सिर उठा रहेसैकड़ों आंदोलनों को एक साथ ख़त्म करने का मौका मिल जाएगा। इस सैन्यअभियान में माओवादियों के शुभचिंतक बता कर सभी आंदोलनकारी साफ़ कर दियेजाएंगे। मैंने भविष्यकाल (फ्यूचर टेंस) का इस्तेमाल किया है, लेकिन यहप्रक्रिया शुरू हो चुकी है। पश्चिम बंगाल सरकार ने नंदीग्राम और सिंगूरमें यही किया। उसे मुंह की खानी पड़ी। लालगढ़ में पुलिस संत्राश बिरोधीजनसाधारणेर कमेटी (पुलिस उत्पीड़न के ख़िलाफ़ जनसाधारण समिति) – जो कि एकजन आंदोलन है, माओवादी आंदोलन नहीं – को बार-बार सीपीआई (माओवादी) काधड़ा बता दिया जाता है। उसके नेता छत्रधर महतो को गिरफ़्तार किया जा चुकाहै और माओवादी बता कर ज़मानत नहीं लेने दिया जा रहा।



हम सब पेशे से चिकित्सक और मानवाधिकार कार्यकार्ता डॉक्टर बिनायक सेन कीदास्तान जानते हैं। उन्हें दो साल तक माओवादियों को मदद पहुंचाने के झूठेआरोप में दो साल कैद में रखा गया। जब सभी का ध्यान ऑपरेशन ग्रीन हंट परहोगा तब इस युद्ध क्षेत्र से अलग भारत के दूसरे हिस्सों में देश कीबेहतरी के नाम पर गरीबों की जमीन के अधिग्रहण कार्रवाई तेज़ हो जाएगी।उनकी पीड़ा बढ़ती जाएगी और उनकी चीखों को सुनने वाला कोई नहीं होगा।



युद्ध शुरू हुआ तो तमाम युद्धों की तरह इसकी अपनी गति, तर्क औरअर्थशास्त्र विकसित हो जाएगी। यह ज़िंदगी की ऐसी धारा बन जाएगी, जिसकारुख मोड़ना लगभग नामुमकिन होगा। पुलिस से सेना यानी हत्या की एक क्रूरमशीन की तरह बर्ताव करने की उम्मीद होगी। अर्धसैनिक बल पुलिस की तरहभ्रष्ट और सड़ चुके सुरक्षा बल की तरह बर्ताव करेंगे। नगालैंड, मणिपुर औरजम्मू-कश्मीर में हमने यह सब देखा है।





badlaav ki umeed



इस मध्य भारत में एक फर्क यही रहेगा कि चीजे बहुत जल्द साफ़ हो जाएंगे।सुरक्षाबलों को भी यह अहसास हो जाएगा कि उनमें और जिन लोगों के ख़िलाफ़वो लड़ रहे हैं कोई ख़ास अंतर नहीं है। वक़्त के साथ जनता और कानून लागूकरने वालों के बीच खाई गहराती जाएगी। हथियार और गोलाबारूद खरीदे और बेचेजाएंगे। वास्तव में यह अब भी हो रहा है। चाहे वो सुरक्षाबल हों या फिरमाओवादी या फिर अहिंसक नागरिक… सबसे गरीब जनता… अमीरों की इस जंग मेंमारी जा रही है। फिर भी अगर कोई यह मान रहा है कि इस युद्ध से उसकी सेहतपर असर नहीं पड़ेगा तो उसे दोबारा सोचना चाहिए। इस युद्ध में जो भी साधनखर्च होंगे उनका असर देश की अर्थव्यवस्था पर ज़रूर पड़ेगा।



पिछले हफ़्ते, नागरिक अधिकारों के लिए काम करने वाले संगठनों ने दिल्लीमें कई बैठकें की। मुद्दा था कि युद्ध को टालने और तनाव दूर करने के लिएक्या कुछ किया जा सकता है। नागरिक अधिकारों के सबसे अधिक सक्रियकार्यकर्ता डॉ बालगोपाल की कमी बहुत खली। आंध्र प्रदेश के डॉ बालगोपाल कीदो हफ़्ते पहले मृत्यु हो गयी। वो हमारे दौर के सबसे साहसिक और सुलझे हुएराजनीतिक विचारक रहे हैं और उन्होंने हमारा साथ ऐसे दौर में छोड़ा है जबउनकी सबसे अधिक ज़रूरत है। फिर भी, मुझे यकीन है कि अगर वो इन बैठकों मेंहोते और वक्ताओं की समझ, गहराई, अनुभव, ज्ञान, राजनीतिक तीक्ष्णता औरमानवीय चेहरे को देखते तो उन्हें संतोष हुआ होता। भारत में नागरिकअधिकारों की हिमायत करने वाले संगठनों में शिक्षक, वकील, जज समेत विविधक्षेत्रों के लोग शामिल हैं। राजधानी में उनकी मौजूदगी से जाहिर हुआ किहमारे टेलीविजन स्टूडियो की चमक और मीडिया के पागलपन भरे शोर के बीच भीभारतीय मध्य वर्ग का मानवीय दिल धड़कता है। अगर मैं ग़लत नहीं तो, यही वोलोग हैं जिन पर केंद्रीय गृह मंत्री ने आतंकवाद को जायज ठहराने वालाबौद्धिक माहौल तैयार करने का आरोप लगाया था। अगर वह आरोप लोगों को डरानेके लिए था तो उसका असर उल्टा हुआ है।



वक्ताओं ने ढेरों मत दिये। उदारवादी से लेकर घोर वामपंथी विचार सामनेआये। हालांकि वहां मौजूद किसी भी शख़्स ने खुद को माओवादी नहीं बताया,कुछ तो सैद्धांतिक तौर पर उस विचार के भी ख़िलाफ़ थे कि लोगों को राज्यकी हिंसा का प्रतिरोध करने का अधिकार होना चाहिए। बहुत से लोग माओवादियोंकी हिंसा से असहज नज़र आये, “जनता की अदालत” जैसे सिद्धांत उन्हें हजमनहीं हुए। वो ऐसी तानाशाही के भी ख़िलाफ़ दिखे जो हिंसक विद्रोह की तरफ़ढकेल दे और उन लोगों को हाशिए पर ठेल दे जिनके पास हथियार नहीं हैं। भलेही उन सभी ने माओवादी हिंसा को लेकर अपनी असहजता जाहिर की, लेकिन सभी इसबात पर सहमत थे कि “जनता की अदालतें” अस्तित्व में इसलिए आईं क्योंकिहमारी अदालतें आम आदमी की पहुंच से बाहर थीं। और मध्य भारत में शुरू हुआहिंसक विद्रोह कोई पहला विकल्प नहीं है बल्कि आदिवासियों के सामने यहआखिरी विकल्प बचा था, जिनके अस्तित्व को ख़तरे में डाल दिया गया है।



वक्ताओं को यह अहसास था कि युद्ध जैसे बनते हालात में हिंसा केइक्का-दुक्का घृणित वाकयों के आधार पर नैतिकता का सवाल उठाने के अपनेख़तरे हैं। हर कोई सत्ता की तरफ़ से होने वाली संस्थागत हिंसा औरहथियारबंद प्रतिरोध की हिंसा का मतलब समझता है। सेवानिवृत जस्टिस पी बीसावंत ने तो जनता के साथ हो रहे घोर अन्याय की तरफ़ सत्ता का ध्यानखींचने के लिए माओवादियों का शुक्रिया अदा किया।



आंध्र प्रदेश के हरगोपाल ने नागरिक अधिकारों के कार्यकर्ता की हैसियत सेराज्य में माओवादी गतिविधियों के दौर में मिला अनुभव साझा किया। उन्होंनेबताया कि 2002 के गुजरात दंगों में बजरंग दल और विश्व हिंदू परिषद कीउग्र भीड़ ने जितने लोगों की हत्या कि माओवादियों ने कभी उतने लोगों कीहत्या नहीं की – आंध्र प्रदेश के ख़ूनी दौर में भी नहीं।



लालगढ़, झारखंड, छत्तीसगढ़ और उड़ीसा के युद्ध क्षेत्र से पहुंचे लोगोंने अपनी बात रखी। उन्होंने पुलिसिया क़हर, गिरफ़्तारी, हत्या, जुल्म औरभ्रष्टाचार के किस्से बयां किए। उड़ीसा जैसी जगहों पर तो पुलिस खननकंपनियों के अधिकारियों के इशारे पर कार्रवाई करती है। उन्होंने कुछस्वंयसेवी संस्थाओं के दोहरे चरित्र को भी सामने रखा। बताया कि कैसे वोकंपनियों के हितों को पोषित करने की भूमिका निभाते हैं। उन्होंने बतायाकि कैसे झारखंड और छत्तीसगढ़ में जो भी इस रैकेट के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाताहै उसे माओवादी बता कर जेल में ठूंस दिया जा रहा है। उन्होंने बताया किसत्ता की यह दमनात्मक कार्रवाई लोगों को हथियार उठाने के लिए सबसे अधिकउकसा रही है।



उन्होंने सवाल उठाया कि जो सरकार विस्थापित हुए पांच करोड़ नागरिकों केएक छोटे से हिस्से को भी पुनर्वासित करने में नाकाम रही है उसने कैसे 300स्पेशल इकोनोमिक जोन के नाम पर कंपनियों को देने के लिए 1.4 लाख हेक्टेयरजमीन तुरंत चिन्हित कर ली?



उन्होंने पूछा कि यह जानते हुए भी कि सरकार निजी कंपनियों को देने के लिएजनता को जमीन से बेदखल कर रही है, भूमि अधिग्रहण कानून में मौजूद जनहितकी परिभाषा की समीक्षा से इनकार करके सुप्रीम कोर्ट ने न्याय की किसअवराधारणा पर अमल किया?



उन्होंने पूछा कि सरकार जब कहती है कि “राज्य आज्ञा का पालन होना चाहिए”तो उसका मतलब यही होता है कि पुलिस स्टेशन खड़े कर दिये जाए। राज्य आज्ञाका मतलब स्कूल और क्लिनिक बनवाना क्यों नहीं है? मकान या फिर साफ पानीमुहैया कराना क्यों नहीं है? जंगल के उत्पादों के लिए उचित कीमत देनाक्यों नहीं है? लोगों को पुलिस के भय से मुक्त कराना और उन्हें अकेलाछोड़ देना क्यों नहीं होता है – कोई भी ऐसा कदम जिससे लोगों की ज़िंदगीथोड़ी आसान हो। उन्होंने पूछा कि आखिर राज्य आज्ञा का मतलब न्याय क्योंनहीं है?



करीब दस साल पुरानी बात है। ऐसी ही बैठकों में नई आर्थिक नीति सेउत्साहित लोग विकास के मॉडल पर बहस किया करते थे। अब उन्होंने नई आर्थिकनीति का विकास मॉडल खारिज कर दिया है। पूर्णत: खारिज। गांधीवादियों सेलेकर माओवादियों हर कोई इस पर सहमत है। सब एक ही सवाल से जूझ रहे हैं किआखिर विकास के इस क्रूर तिलिस्म को तोड़ा कैसे जाए?



एक दोस्त का पुराना कॉलेज मित्र इस अनजान दुनिया के बारे में जानने कीउत्सुकता के साथ ऐसी ही एक बैठक में पहुंचा। वो इन दिनों कॉरपोरेट दुनियाका बड़ा नाम है। हालांकि उसने अपनी असलियत फैबइंडिया के कुर्ते मेंछिपाने की कोशिश की, लेकिन खुद को अमीर दिखने (और महकने) से नहीं रोकसका। एक मौके पर वह मेरी ओर झुका और कहा “कोई इन्हें समझाए कि ये परेशाननहीं हों। यह नहीं जानते कि इनकी लड़ाई किनसे है। कंपनियां मंत्रियों,मीडिया मालिकों और नीतियां बनाने वालों को खरीद सकती हैं। अपना एनजीओ चलासकती हैं। जरूरत पड़ने पर अपनी सेना खड़ी कर सकती हैं.. ये पूरी सरकारखरीद सकती हैं। वो माओवादियों को भी खरीद लेंगे। यहां मौजूद भले लोगों कोचाहिए कि वो थोड़ा सुसता कर कुछ बेहतर करने के बारे में सोचें”।



जब लोग क़त्ल किए जा रहे हों तो लड़ने से “बेहतर” क्या कुछ हो सकता है?उनके पास कोई विकल्प बचा ही नहीं है, सिवाए आत्महत्या के। ठीक वैसे हीजैसे देश के 1,80,000 किसानों ने कर्ज में डूबने के बाद अपनी जान दी।((क्या मैं अकेली हूं जिसे यह महसूस होता है कि अपने हक़ की लड़ाई लड़नेकी तुलना में भारतीय व्यवस्था और मीडिया में उसके प्रतिनिधि हताशा औरनिराशा के माहौल में किसानों की खुदकुशी को लेकर ज़्यादा सहज हैं?))सेज़ या साज़‍िश: क्‍या यह विकास है?



कई साल तक छत्तीसगढ़, उड़ीसा, झारखंड और पश्चिम बंगाल में लोग – उनमें सेकुछ माओवादी – बड़ी कंपनियों को अपने से दूर रखने में कामयाब रहे हैं। अबसवाल उठता है कि ऑपरेशन ग्रीन हंट से उनके संघर्ष के तरीके पर क्या असरपड़ेगा?



यह सही है कि स्थानीय लोगों से युद्ध में खनन कंपनियों की हमेशा जीत हुईहै। यह कहना भी ग़लत नहीं होगा कि हथियार बनाने वाली कंपनियों को छोड़दें तो तमाम कंपनियों की तुलना में खनन कंपनियों का इतिहास सबसे अधिकहिंसक और क्रूर है। वो सनकी और युद्ध उन्मादी होती हैं। जब लोग कहते हैंकि “जान देंगे पर ज़मीन नहीं देंगे” तो वो उछल पड़ती हैं। हज़ारोंअलग-अलग भाषाओं और सैकड़ों देशों में इन कंपनियों ने यही बात सुनी होगी।



भारत में, उनमें से कई अब भी फर्स्ट क्लास यात्री लॉन्ज में हैं। कॉकटेलका आदेश करते हुए, सुस्त शिकारी की तरह पलकें झपकाते हुए और उस वक़्त काइंतज़ार करते हुए जब समझौतों – जिनमें से कुछ 2005 में किए गये थे – सेकमाई होने लगेगी। फर्स्ट क्लास लॉन्ज में ही क्यों न हो – चार साल काइंतज़ार किसी की भी सब्र की परीक्षा लेने के लिए काफी है। वह इतना स्पेसही देने को तैयार थे ताकि लोकतंत्रिक अनुष्ठान के सभी खोखले रीति रिवाज –(फर्जी) जन सुनवाई, (फर्जी) पर्यावरण छति मूल्यांकन, विभिन्न मंत्रालयोंसे (खरीदी हुई) स्विकृतियां, लंबे चले अदालती मुक़दमे – पूरे किए जासकें। लोकतंत्र चाहे छद्म क्यों न हो उसमें वक़्त लगता है औरउद्योगपतियों के लिए वक़्त का मतलब पैसा है।



आखिर हम किस तरह के पैसे की बात कर रहे हैं? अपने मौलिक और जल्द प्रकाशितहोने वाली पुस्तक – आउट ऑप दिस अर्थ: ईस्ट इंडिया आदिवासीज एंड दअल्युमीनियम कार्टेल – में समरेंद्र दास और फेलिक्स पाडेल ने बताया है किउड़ीसा में मौजूद बॉक्साइट की क़ीमत 2270 अरब डॉलर है। यह रकम भारत केसकल घरेलु उत्पाद से दोगुनी है। यह आंकड़े 2004 की क़ीमत पर आधारित हैं।वर्तमान में उसकी क़ीमत 4000 अरब डॉलर के करीब होगी।



इसमें से आधिकारिक तौर पर सरकार को सात फ़ीसदी से भी कम रॉयल्टी मिलेगी।अक्सर, खनन कंपनी जब चर्चित और मान्यता प्राप्त होती है तो भविष्य केबाज़ार को ध्यान में रखते हुए खनीज पदार्थ को निकाले बगैर पहाड़ियों कासौदा हो जाता है। वो पहाड़ियां तब भी आदिवासियों के लिए जीवन और आस्था केस्रोत और जीवित देवताओं के समान हो सकती हैं, इलाके में पर्यावरण संतुलनबनाए रखने की धूरी हो सकती हैं, लेकिन इन कंपनियों के लिए उनकी हैसियतसस्ते भंडारगृह से अधिक कुछ नहीं। कंपनियों के हिसाब से तो उन पहाड़ियोंसे बॉक्साइट को हर हाल में निकालना होगा। यह काम शांतिपूर्ण तरीके सेनहीं हुआ तो इसे हिंसक तरीके से करना होगा। यही मुक्त बाज़ार की अनिवार्यशर्त है।



यह उड़ीसा में केवल बॉक्साइट की कहानी है। इन 4000 अरब डॉलर मेंछत्तीसगढ़ और झारखंड से निकलने वाले उच्च कोटि के लौह अयस्क की क़ीमतजोड़ लीजिए। और यूरेनियम, लाइमस्टोन, डोलोमाइट, कोयला, टीन, ग्रैनाइट,संगमरमर, कॉपर, हीरा, सोना, क्वार्टजाइट, कोरंडम, बेरील,अकेक्सेन्ड्राइट, सिलिका, फ्लोराइट और गार्नेट समेत 28 अन्य खनीज स्रोतोंकी कीमत को भी जोड़िए। इस लिस्ट में पॉवर प्लांट, बड़े-बड़े बांध, हाईवे,स्टील और सीमेंट फैक्टरिया, अल्युमीनियम ढालने वाली फैक्टरियां औरआधारभूत ढांचे से जुड़ी तमाम अन्य परियोजनाओं जो कि सैकड़ों समझौतों काहिस्सा हैं उनकी लागत भी जोड़िए (अकेले झारखंड में ऐसी 90 परियोजनाओं कोमंजूरी दी जा चुकी है)। इससे हमें और आपको वहां होने वाले ऑपरेशन और उससेजुड़ी कंपनियों की बेचैनी का मोटा-मोटी अंदाजा मिल जाएगा।



पश्चिम बंगाल, झारखंड, उड़ीसा, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र केहिस्सों में फैले जंगल – जिसे दंडकारण्य कहा जाता रहा है – में करोड़ोंआदिवासी रहते हैं। मीडिया ने इसे लाल कॉरिडोर या फिर माओइस्ट (Maoist –माओवादी) कॉरिडोर कहना शुरू कर दिया है। कायदे से इसे एमओयूइस्ट (MoUist– MoU का मतलब मेमोरेंडम ऑफ अंडरस्टैंडिंग होता है) कॉरिडोर कहना चाहिए।यह संविधान के पांचवे सिड्यूल में आदिवासियों को दी गयी सुरक्षा के एकदमविपरीत है – जिसके तहत उन्हें उनकी ज़मीन से बेदखल नहीं किया जा सकता।ऐसा लगता है कि यह क्लॉज संविधान की सुंदरता के लिए जोड़ा गया है। हल्कीसी सजावट। हल्का सा मेकअप। आदिवासियों के घरों पर कब्जा करने के लिएबहुतेरी कंपनी – छोटी से लेकर दुनिया की सबसे बड़ी खनन कंपनियां – कतारमें लगी हुई हैं। मित्तल, जिंदल, टाटा, एस्सार, पॉस्को, रियो टिंटो,बीएसपी बिलिटॉन और वेदांता – यह फेहरिस्त काफी लंबी है।



यहां हर पर्वत, नदी और जंगल के लिए एक करार किया गया है। हम ऐसी सामाजिकऔर पर्यावरण इंजीनियरिंग की बात कर रहे हैं जो हमारी कल्पनाओं से परे है।और इसमें से अधिकतर गुप्त भी, जिनके बारे में किसी को कोई भनक नहीं।



किसी भी प्रकार से, मैं यह नहीं सोच रही कि दुनिया के प्राचीनतम जंगलोंमें एक जंगल और उसमें पलने वाले इकोसिस्टम और रहने वाले लाखों इंसानों कोधीरे-धीरे नष्ट करने की इस साज़िश के बारे में कोपेनहेगन की क्लाइमेटचेंज कॉन्फ्रेंस में कोई चर्चा होगी। हमारे 24 घंटे चलने वाले न्यूज़चैनल भी माओवादी हिंसा के बेतुके किस्सों को गढ़ने में और ख़बरों का अकालपड़ने पर उन्हें चलाने में लगातार व्यस्त रहते हैं। लेकिन इस हिंसा केदूसरे पहलू को लेकर उनका रवैया हमेशा उदासीन बना रहता है। मैं चकित हूंकि ऐसा क्यों है?



शायद इसलिए कि वो विकास की वकालत करने वालों के दास बन गये हैं और विकासकी दलील देने वाली यह लॉबी कहती है कि खनन उद्योग से सकल घरेलु उत्पाद कीविकास दर में तेज बढ़ोतरी होगी और इससे विस्थापितों को रोजगार मिलेगा।उन्हें पर्यावरण को होने वाली भयावह छति नज़र नहीं आती है। अगर इस छति कोरहने दें तो भी उनकी संकीर्ण दलीलों में कोई दम नहीं है। अधिकतर पैसाकंपनियों के मालिकों की तिजोरी में चला जाएगा। सरकार के हिस्से में दसफ़ीसदी से भी कम आएगा। विस्थापितों की तुलना में बहुत कम लोगों को रोजगारमिलेगा। और जिन्हें रोजगार मिलेगा वो बंधुआ मज़दूरी पर कमरतोड़ मेहनतकरने के लिए मजबूर रहेंगे। अपने लालच की अंतहीन गुफा खोदते हुए हम अपनेपर्यावरण की कीमत पर दूसरे देशों की अर्थव्यवस्था चमका रहे हैं।



जब इस खेल में लगा पैसा इतना अधिक हो तो स्टेकहोल्डर्स (लाभार्थियों) कीशिनाख्त हर समय आसान नहीं होती। निजी विमानों में घूमने वाले सीईओ सेलेकर सलवा जुडुम जैसे घृणित अभियान में शामिल भोलेभाले आदिवासियों तक –जो चंद हज़ार रुपयों के लिए अपने ही लोगों की हत्या और बलात्कार करते हैंऔर उनके घरों को जला देते हैं ताकि खनन का काम शुरू हो सके – लाभार्थियोंका जाल फैला हुआ है। इन्हें अपना हित जाहिर करने की कोई जरूरत नहीं।इन्हें अपनी जगह लेने की छूट दी जा चुकी है।



क्या कभी हम यह जान पाएंगे कि इस लूट में किस राजनीतिक दल, मंत्री,सांसद, नेता, जज, एनजीओ, विशेषज्ञ और अधिकारी का प्रत्यक्ष या फिर परोक्षरूप से कितना हित जुटा है?



क्या हम जान सकेंगे कि माओवादी हिंसा के ताज़ा वाकये के बारे में ग्राउंडजीरो (युद्ध क्षेत्र) से सीधी रिपोर्टिंग करने वाले – या साफ़ शब्दों तो ग्राउंड जीरो से रिपोर्टिंग का पाखंड करने वाले – या और अधिक साफशब्दों में कहें तो ग्राउंड जीरो से झूठ बोलने वाले किस अख़बार और न्यूज़चैनल का इस लूट में क्या हिस्सा है?



आखिर कैसे और कहां से भारत के चंद नागरिकों ने चोरी छिपे खरबों बैंक में जमा कराए हैं (यह रकम भारतीय जीडीपी से कई गुना है)?



बीते आम चुनाव में खर्च हुए दो अरब डॉलर आखिर कहां से आये? चुनावी पैकेज के नाम पर सियासी दलों और नेताओं ने मीडिया को जो अरबों रुपये बांटे हैंवो कहां से आए? (अगली बार अगर आप किसी टीवी एंकर को एक स्तब्ध स्टूडियोगेस्ट से जबरन, चीखते हुए अंदाज में सवाल करते सुने कि “आखिर माओवादीचुनाव क्यों नहीं लड़ते हैं? मुख्यधारा में क्यों नहीं आते हैं?” तो यहएसएमएस जरूर कीजिएगा – “क्योंकि तुम्हारे दाम (रेट) उनकी (माओवादियों की)पहुंच से बाहर हैं।))





पी चिदंबरम: सीईओ, ऑपरेशन ग्रीन हंट





यह जान कर हम क्या कर सकते हैं कि ऑपरेशन ग्रीन हंट के सीईओ और देश केकेंद्रीय गृह मंत्री पी चिदंबरम ने कॉरपोरेट वकील के तौर पर अपने करियरमें कई खनन कंपनियों की नुमाइंदगी की है?



यह जान कर हम क्या कर सकते हैं कि चिदंबरम वेदांता के गैर कार्यकारीनिदेशक थे और उन्होंने 2004 में उस पद से इस्तीफा ठीक उसी दिन दिया जिसदिन देश के वित्त मंत्री के तौर पर शपथ ली?



यह जान कर भी हम और आप क्या कर सकते हैं कि वित्त मंत्री बनने के बादचिदंबरम ने सबसे पहले विदेशी निवेश के जिन प्रस्तावों को मंजूरी दी उनमेंसे एक प्रस्ताव मॉरिशस की कंपनी ट्विस्टार होल्डिंग्स का था जिसनेवेदांता ग्रुप की कंपनी स्टरलाइट के शेयर खरीदे?



यह जान कर भी हम क्या कर सकते हैं कि जब उड़ीसा के एक कार्यकर्ता नेवेदांता पर सरकारी नियमों को तोड़ने का आरोप लगाते हुए सुप्रीम कोर्ट मेंमुकदमा दायर किया और बताया कि कैसे यह कंपनी मानवाधिकारों का हनन औरपर्यावरण से खिलवाड़ कर रही है और उसकी करतूतों के कारण नॉर्वेजियन पेंशनफंड ने निवेश वापस ले लिया, तो जस्टिस कपाडिया ने यह सलाह दी कि वेदांताकी जगह यह प्रोजेक्ट उसकी सिस्टर कंपनी स्टरलाइट को दे दी जाए? जस्टिसकपाडिया ने बेपरवाह अंदाज में भरी अदालत में कहा कि उनके पास भी स्टरलाइटकंपनी के शेयर्स हैं। यही नहीं उन्होंने स्टरलाइट कंपनी को जंगल में खननकी इजाजत दे दी – यह जानते हुए भी कि सुप्रीम कोर्ट की विशेषज्ञ समिति नेयह कहते हुए खनन की छूट नहीं देने की सलाह दी थी कि उससे जंगल तबाह होजाएंगे। पानी के स्रोत सूख जाएंगे और पर्यावरण को नुकसान पहुंचने से वहांका पूरा जनजीवन संकट में पड़ जाएगा। जस्टिस कपाडिया ने यह मंजूरी इसरिपोर्ट को खारिज करते हुए दी।





सलवा जुडुम: टाटा के साथ एमओयू के थोड़े दिनों बाद बनी सरकारी जनसेना



हम इस सत्य को जान कर भी क्या कर सकते हैं कि ज़मीन खाली कराने के लिएसलवा जुडुम जैसे हिंसक ऑपरेशन की औपचारिक शुरूआत 2005 में हुई, टाटा केसाथ हुए करार के चंद दिनों बाद? और बस्तर में जंगल वेलफेयर ट्रेनिंगस्कूल की स्थापना भी तभी की गयी?



हम इस सत्य को जान कर भी क्या कर सकते हैं कि अब से दो हफ़्ते पहले, 12अक्टूबर को लोहनडिगुडा, दंतेवाड़ा में टाटा स्टील के दस हज़ार करोड़रुपये की परियोजना की मंजूरी के लिए जरूरी जन सुनवाई कलेक्टर के दफ़्तरमें हुई। बस्तर से भाड़े पर पचास लोग लाए गये। इलाके को सील कर दिया गयाऔर उसके बाद कलेक्टर ने जन सुनवाई को कामयाब बता दिया और बस्तर की जनताको इस सहयोग के लिए धन्यवाद दिया?



हम यह जानकार भी क्या कर सकते हैं कि जब प्रधानमंत्री ने माओवादियों कोसबसे बड़ा आंतरिक ख़तरा बताया तब उस इलाके से जुड़ी कई कंपनियों केशेयरों के भाव अचानक तेजी से चढ़ गये?



खनन कंपनियां हर हाल में यह युद्ध चाहती हैं। यह एक पुराना हथियार है।उन्हें उम्मीद है कि हिंसा का असर इतना व्यापक होगा कि जिन लोगों नेउन्हें इस इलाके में दाखिल होने से रोक रखा है वो अपने घर छोड़ कर जानेको मजबूर हो जाएंगे।



वास्तव में यह होगा या इससे माओवादियों की ताक़त बढ़ जाएगी यह भविष्य मेंपता चलेगा।



इस तर्क को पलटते हुए पश्चिम बंगाल के पूर्व वित्त मंत्री डॉ अशोक मित्राने एक लेख लिखा है – द फेंटम एनिमी। उसमें डॉ मित्रा ने कहा है किमाओवादी जिन ख़ौफनाक़ सीरीयल हत्याओं को अंजाम दे रहे हैं वो छापामारयुद्ध की किताबों से सीखे गये पुराने हथकंडे हैं। उन्होंने बताया है किमाओवादियों ने अपनी गुरिल्ला सेना का गठन कर लिया है जो भारतीय राज्य सेलोहा लेने के लिए तैयार है। माओवादी जो उपद्रव फैला रहे हैं यह राज्य कोउकसाने की एक चाल है ताकि गुस्से में सरकार कुछ ऐसे क्रूर कदम उठाए जिससेआदिवासियों का गुस्सा और भड़के। डॉ मित्रा के मुताबिक माओवादी को उम्मीदहै कि आदिवासियों का यह गुस्सा एक विद्रोह की शक्ल अख्तियार करेगा। यकीननयह “दुस्साहसी” बताने का वही घिसापिटा आरोप है जो वामपंथी विचारधारा केकई धड़े पहले से माओवादियों पर मढ़ते रहे हैं।



अशोक मित्रा एक पुराने कम्युनिस्ट हैं। पश्चिम बंगाल में साठ और सत्तर केदशक में नक्सली आंदोलन में उनकी अग्रणी भूमिका रही है। उनके मत को सीधेखारिज नहीं किया जा सकता। लेकिन यह ध्यान में रखना चाहिए कि आदिवासियोंके संघर्षों का इतिहास माओवाद के जन्म से बहुत पुराना है। इसलिए उन्हेंचंद माओवादी विचारकों की कठपुतली करार देना उन्हें नुकसान पहुंचाने केबराबर है।



अगर हम मान लें कि डॉ मित्रा लालगढ़ के हालात पर चर्चा कर रहेहैं, अभी तक, उसके खनीज संपदा पर चर्चा नहीं हुई है। ((हमें यह नहींभूलना चाहिए कि लालगढ़ में हिंसा तब भड़की जब राज्य के मुख्यमंत्री जिंदलस्टील प्लांट की फैक्टरी का उद्घाटन करने पहुंचे। और जहां स्टील कीफैक्टरी लगाई जा रही हो क्या लौह अयस्क उससे बहुत दूर होगा?)) लोगों केगुस्से का रिश्ता वहां मौजूद भीषण गरीबी और दशकों से पुलिस और सीपीएम केहथियारबंद गिरोहों की दमनात्मक कार्रवाई से है। पश्चिम बंगाल में तीस सालसे अधिक समय से सीपीएम की सरकार है।



तब भी, सिर्फ तार्किक नज़रिये से हम यह सवाल नहीं पूछें कि हजारों हजारकी संख्या में पुलिस और अर्धसैनिक बल लालगढ़ में क्या कर रहे हैं और यहमान लें कि माओवादी दुस्साहसी हैं – तो भी यह पूरी तस्वीर का एक छोटा साहिस्सा होगा।



वास्तविक समस्या यह है कि भारत का चमत्कारिक विकास उड़ान अब धरती पर आगिरा है। इस उड़ान के लिए हमने पर्यावरण और सामाजिक लिहाज से बहुत बड़ीकीमत चुकाई है। और अब, नदियां सूख रही हैं, जंगल ख़त्म हो रहे हैं, भू जलस्तर गिर रहा है और लोगों को यह अहसास होने लगा है कि उन्होंने प्रकृतिके साथ जो किया है अब वही उनके साथ होगा। पूरे देश में उथल-पुथल है।सरकार के दावों पर लोगों को यकीन नहीं। अचानक ऐसा लगने लगा है कि दसफीसदी की विकास दर और लोकतंत्र दोनों एक साथ नहीं चल सकते।



पहाड़ियों से बॉक्साइट हासिल करने के लिए, जंगल से लौह अयस्क निकालने केलिए, भारत के 85 फीसदी आबादी को गांव से बाहर निकाल कर शहरों में ठूंसनेके लिए (चिदंबरम ने कहा है कि यह उनका सपना है कि देश की 85 फीसदी आबादीशहरों में रहे)) भारत को एक पुलिस स्टेट बनना होगा। सरकार को सैन्यीकरणकरना होगा। सैन्यीकरण को जायज ठहराने के लिए उसे एक दुश्मन की ज़रूरत है।माओवादी वही दुश्मन हैं। हिंदू कट्टरपंथियों के लिए मुसलमान जो हैसियतरखते हैं, कॉरपोरेट कंट्टरपंथियों के लिए माओवादियों की हैसियत वही है?(अगर कंट्टरपंथियों की कोई जमात होती है तो… शायद यही वजह है कि आरएसएसइन दिनों पी चिदंबरम के गुणगान में जुटा है?)



अगर कोई यह सोच रहा है कि राजनांदगांव एयरफोर्स बेस का निर्माण, बिलासपुरमें ब्रिगेड हेडक्वार्टर, गैरकानूनी गतिविधि विरोधी कानून, छत्तीसगढ़स्पेशल पब्लिक सिक्योरिटी एक्ट और ऑपरेशन ग्रीन हंट जंगलों से कुछ हज़ारमाओवादियों को बाहर निकालने के लिए हैं तो वह बहुत बड़ी ग़लती कर रहा है।ऑपरेशन ग्रीन हंट से जुड़ी हर बहस में मुझे आपातकाल की आहट नज़र आती है।(यहां बड़ा सवाल यह है कि – अगर कश्मीर की छोटी सी घाटी को कब्जे मेंरखने के लिए 6 लाख सैनिकों की ज़रूरत पड़ रही है तो दंडकारण्य के विस्तृतपहाड़ी और जंगली इलाकों में कितने सैनिकों की ज़रूरत होगी?))



इसलिए हाल ही में गिरफ़्तार किए गये माओवादी नेता कोबाड गांधी का नार्कोटेस्ट कराने की जगह बेहतर होगा कि उनसे बात की जाए।



इस बीच, इस साल के आखिर में कोपेनहेगन में होने वाले क्लाइमेट चेंजकॉन्फ्रेंस में हिस्सा लेने जा रहे लोगों में से क्या कोई यह सवाल उठाएगाकि – क्या हम बॉक्साइट को उन्हीं पहाड़ियों में नहीं छोड़ सकते हैं?






1 comment:

प्रवीण पाण्डेय said...

हम तो वेदांत दर्शन के बारे में जानते थे बस।