Thursday, February 10, 2011

कांग्रेस में सच बोलने पर मिलती है सजा

राजस्थान राज्य के कांग्रेसी नेता और प्रदेश में राज्य मंत्री अमीन खां ने सच्चाई क्या बयान कर दी, उन्हें मंत्री पद से हाथ धोना पड़ा। उन्होंने तो कांग्रेसी संस्कृति और वफादारी का पाठ कांग्रेसियों को पढ़ाया था। लगता है कि कांग्रेस अपना असल चेहरा दिखना बर्दाश्त नहीं कर पाई। शायद उसे अंतरराष्ट्रीय छवि भी सताने लगी होगी कि कैसे कैसे लोग भारत में राष्ट्रपति बन जाते हैं। जो भी रहा हो, सच्चाई तो सच्चाई है।

पंचायती राज्य मंत्री अमीन खां ने पाली जिले में पार्टी कार्यकर्ताओं की बैठक में कहा कि प्रतिभा पाटिल इंदिरा गांधी के लिए चाय बनाती थीं, खाना बनाती थीं और बर्तन माजती थीं, इसलिए उनकी निष्ठा के कारण उन्हें (प्रतिभा पाटिल) राष्ट्रपति बनाया गया। अगर आप पार्टी नेताओं के प्रति निष्ठा दिखाते हैं तो किसी भी दिन आपके पास राज्यसभा या विधानसभा का चुनाव लड़ने के लिए फोन आ सकता है। अमीन खां बाद में मीडिया की खबरों का खंडन करते हुए कहा कि उन्होंने कार्यकर्ताओं को पार्टी और नेता के प्रति निष्ठा उदाहरण मात्र दिया था, कहीं से किसी का अपमान करने की मंशा इसमें नहीं थी।

इसके पहले कांग्रेस के बड़े नेता कांग्रेस देवकांत बरुआ औऱ एनडी तिवारी ने इतिहास रचा था। सबसे पहले सार्वजनिक रूप से मामला सामने आया था एनडी तिवारी का। शायद वे उन दिनों उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री थे। संजय गांधी जब लखनऊ पहुंचे तो उनके जूते हाथ में लेकर पीछे पीछे एनडी तिवारी पहुंचे थे। आखिर दौड़ते भी क्यों नहीं? इंदिरा गांधी ने ८५ लोकसभा वाले सबसे बड़े प्रदेश की बागडोर उन्हें सौंपी थी। कांग्रेस अध्यक्ष देवकांत बरुआ ने कहा था इंदिरा इज इंडिया।

कांग्रेस में ऊपर से लेकर नीचे तक चमचागीरी की अद्धुत परंपरा रही है। स्वतंत्रता के बाद से शुरू हुई चमचागीरी इंदिरा गांधी युग तक पहुंचते-पहुंचते चरम पर पहुंच गई। संभव है कि अमीन खां भी राज्य स्तर पर जबरदस्त चाटुकारिता करते हुए राज्यमंत्री पद तक पहुंचे हों। ऐसे में उन्होंने कार्यकर्ताओं को आखिर क्या गलत पाठ पढ़ाया?

दिलचस्प है कि खां ने बड़ी ही मासूमियत से ये बातें कहीं। उन्हें भी पता ही होगा कि राष्ट्रपति या कांग्रेस के किसी भी केंद्रीय नेता के खिलाफ बोलने की उनकी औकात या स्थिति नहीं। चमचागीरी कल्चर के माध्यम से कोई आगे बढ़ता है उसे तो पता ही होता है। भारतीय जनता पार्टी हो या कांग्रेस, किसी भी जनाधार वाले नेता को एक स्तर तक ही आगे बढ़ने दिया जाता है। कांग्रेस में जहां नेहरू परिवार ताकतवर है, भारतीय जनता पार्टी में जातिवादी शक्तियों और आरएसएस के हाथ में कमान रहती है।

खां ने खंडन में यह भी नहीं कहा है कि उनके कहे गए शब्द गलत हैं। उन्होंने सिर्फ इतना कहा कि मीडिया ने उनके कहे का गलत अर्थ लगाया। सही है कि इसमें राष्ट्रपति के प्रति असम्मान का मामला कहां है, अगर उन्होंने ऐसा किया है तो किया है। हालांकि उन्होंने यह भी स्पष्ट नहीं किया है कि उन्होंने प्रतिभा पाटिल के इन कामों के बारे में जानकारी कहां से पाई, जिसका उल्लेख उन्होंने कार्यकर्ताओं के सामने किया। लेकिन कांग्रेस के अतीत को देखते हुए उनकी बात में तनिक भी झूठ नजर नहीं आता। आज भी कांग्रेस के केंद्रीय नेताओं में बड़ी फौज ऐसे लोगों की है, जो सिर्फ नेहरू परिवार के प्रति वफादारी के चलते कैबिनेट मंत्री और राज्य के मुख्यमंत्री बने हुए हैं।

अब अमीन खां के बारे में सिर्फ यही कहा जा सकता है....

मत कहो आकाश में कोहरा घना है..
ये किसी की व्यक्तिगत आलोचना है।।

हालांकि खां ने यह भी नहीं कहा था कि आकाश में कोहरा घना है, उन्होंने तो सिर्फ कांग्रेस की राजनीति में कार्यकर्ताओं को आगे बढ़ने का तरीका बताया था !




Wednesday, February 9, 2011

फेसबुक की मिस्र क्रांति

कारोबार का एक और चेहरा। मिस्र में होस्नी मुबारक को हटाने के लिए जनता सड़कों पर है। इसी बीच खबर आई कि फेसबुक से यह क्रांति शुरू हुई।
क्या कहा जाए इस फेसबुक क्रांति के बारे में। खासकर अरब देश की क्रांति के बारे में। जिन देशों में इंटरनेट का इस्तेमाल करने वालों की अच्छी-खासी तादात है, वहां तो फेसबुक कोई क्रांति नहीं ला पाया, लेकिन मिस्र में क्रांति लाने का श्रेय जरूर फेसबुक को दे दिया गया।
हालांकि फेसबुक पर मिस्र के बारे में खोजने पर बहुत थोड़ा कुछ ही मिलता है। होमोसेक्स, फ्रीसेक्स, पंरपराओं को तोड़ने, मुस्लिम प्रथाओं का विरोध करने जैसे जुमले जरूर मिल जाएंगे। कुछ ऐसा तो कम ही मिलता है, जिसमें यह कहा जा रहा हो कि होस्नी मुबारक तानाशाह हैं। या कुछ आंकड़े दिए जा रहे हों कि वहां की तानाशाही सत्ता से जनता परेशान है।
उधर इन दावों के बीच फेसबुक ने घोषणा कर दी कि वह मिस्र के उपभोक्ताओं को मोबाइल सेवा देने जा रहा है। यानी मोबाइल से अपना मैसेज भेजें और वह फेसबुक पर खुद-ब-खुद आ जाएगा। हो गया न कारोबारी इस्तेमाल एक जन विरोध का।
ऐसी ही क्रांति भारत में भी कर रहा है फेसबुक। कुछ लाइनों में भड़ास निकालिए या निरर्थक बातें लिख दीजिए। अगर आप अच्छे पद पर हैं और नौकरी की चाह रखने वाले बेरोजगारों को थोड़ी भी उम्मीद आपसे बनती है तो तुरंत फेसबुक पर क्रांति आ जाएगी। यानी प्रतिक्रियाओं की बाढ़। अगर ऐसे लोग (जिनसे बेरोजगारों से थोडी़ भी मदद की उम्मीद है) अपने थोबड़े की घटिया सी फोटो भी डाल दें तो वाह उस्ताद वाह कहने वाले बेचारों की बाढ़ लग जाती है।
मजेदार बात है कि भारत में भी यह चर्चा उठी कि भ्रष्टाचार, शोषण के इतने मामले भारत में हैं कि यहां भी मिस्र जैसा विरोध हो सकता है। लेकिन ऐसा कहने वाले फेसबुक तक ही सिमटे हैं। अखबारों में भी थोड़ा बहुत लिखा गया। अब उम्मीद करिए फेसबुक से। क्रांति ले आएगा। जमीनी हकीकत न तो जानने की जरूरत है और न ही पीड़ित लोगों के बीच जाकर उनका पक्ष जानने का। बस फेस बुक से आस रखिए। एक न एक दिन भारत में भी क्रांति जरूर आएगी।

Friday, February 4, 2011

बौद्धिक उलटी नहीं चाटेगा युवा, उसे दिशा चाहिए...

एक बहस चल रही है इन दिनों। पहले भी चलती थी, लेकिन डीएनए के संपादकीय पेज बंद होने से यह चर्चा बढ़ी। आज का युवा वर्ग गंभीर बातें पढ़ना ही नहीं चाहता।

हालांकि मैं मानता हूं कि मैं बुढ़ापे की ओर बढ़ रहा हूं। लेकिन ईमानदारी से बताऊं तो हमेशा यह स्वीकार करता हूं कि हमारी युवा पीढ़ी ज्यादा समझदार है। ज्यादा प़ढ़ने-लिखने वाली है। चीजों को अच्छी तरह से समझ रही है। हां, हो सकता है थोड़ा भटकाव जरूर हो।

आइए, पहले अखबारों की ही बात कर लेते हैं। अखबारों में लेख कौन लिखता है? इधर-उधर से पढ़कर और थोड़ा अपना तर्क लगाकर, कुछ दूसरों के लिखे से टीपकर लेख लिखने वालों की संख्या बहुत ज्यादा है। किसी भी विषय पर उस विषय का जानकार व्यक्ति तो नहीं ही लिखता है। जिसने कभी राजनीति नहीं की, वह राजनीति पर लिखता है। और खूब लिखते हैं लोग। मजबूरी में लिखते हैं। किसी तरह से जुगाड़ तिगाड़ लगाकर अखबार में बड़े पद पर पहुंच गए औऱ शुरू कर दी बौद्धिक उल्टी।

आज के युवा पर तरह-तरह के माध्यम से सूचनाओं की बमबारी हो रही है। आखिर में ऐसे में वह क्यों चाटे दूसरे की बौद्धिक उलटी। मुझे याद है कि जब मैं आठवीं कक्षा में था तो सिर्फ दूरदर्शन पर कार्यक्रम आते थे, सबेरे और शाम को। दोपहर को जब कार्यक्रम शुरू हुआ तो मैं शायद ग्रेजुएशन में पहुंच चुका था। अब तो गिनने में भी नहीं आता कि कितने चैनल हैं, कितने अखबार हैं।

शायद अब युवा गांधी, नेहरू, विवेकानंद, मार्क्स जैसे लोगों को ढूंढ रहा है, जो उसकी दिशाहीनता को एक दिशा दे। न कि पुराने लोगों को पढ़कर बौद्धिक उलटियां करने वाले लोगों को। हाल ही में उमराव जाटव ने एक कविता लिखी है, जिससे मैं खासा प्रभावित हुआ। रमाशंकर यादव विद्रोही भी बहुत प्रभावित करते हैं मुझे। शायद ये लोग जो लिखते हैं उसे जी कर लिखते हैं। सिर्फ लिखने के लिए नहीं लिखते कि उनकी नौकरी बची रहे, लिखना जरूरी है या अपने कब्जियत को दूसरे के ऊपर उलट देना है इसलिए लिखें।

युवाओं पर यह भी आरोप लगता है कि वे नाच गाने औऱ शीला की जवानी में ज्यादा दिलचस्पी लेते हैं। आखिर क्यों न लें? शीला की जवानी को आदर्श बनाएंगे, उसका अनुशरण करेंगे, तो अगर सफल होते हैं तो नाच-गाकर रोजी रोटी तो चला लेंगे। इन बौद्धिकों का अनुसरण करने से युवकों को क्या मिलने जा रहा है, खासकर पत्रकारिता से जुड़े लेखकों का। जिन्होंने न तो अपने रोजगार और अपने पेट को छोड़कर काम किया है और न कोई स्पष्ट दिशा रही है। जो नौकरी दिया और जैसा लिखवाया उसे लिखते चले गए। उस कूड़े को पढ़ने की जहमत क्यों उठाने लगा आज का युवा?

रही बात उन बौद्धिकों की, जो मार्क्सवाद, कांग्रेसवाद, जनसंघवाद औऱ हिंदूवाद करते हैं। सबको तो आजमा लिया है इस युवा पीढ़ी ने। इनकी भी बातें क्या सुननी। बातें तो आदर्शों की करते हैं और दलाली में लिप्त हैं। बातें तो हिंदू की करते हैं औऱ जातिवाद में लिप्त। बातें तो मार्क्स की करते हैं, लेकिन अगर चमरउटी में जाकर पानी पी लें तो उल्टी हो जाए।

अगर युवाओं को प्रभावित करना है तो आइये मैदान में। जैसे गांधी आए थे। जैसे विवेकानंद आए थे। जैसे मार्क्स आए थे। जिस भी रूप में आइए, लेकिन लोगों को लगे कि आप उन्हें लूटने नहीं आ रहे हैं। उन्हें अपनी बात पढ़वाकर या उन्हें उत्तेजित कर अपना धंधा नहीं चमका रहे हैं। उन्हें लगे कि यह आपने भी किया है और अगर वे आपका कहा करते हैं तो उनका भला होने जा रहा है। लोकतंत्र को गालियां देते समय व्यवस्था दीजिए। सत्ता को गालियां देते हैं तो उसका विकल्प दीजिए। लेकिन वह विकल्प तार्किक हो औऱ पूरे समूह को समझ में आए। वर्ना युवा ही नहीं, जिसेभी ये बौद्धिक जुगालीबाज जाहिल नासमझ और जाने क्या क्या समझते हैं, वो भी इन्हें उतनी ही अच्छी तरह से समझते हैं।

मार्क्स ने अपना सब कुछ गंवाया था, गांधी ने अपना सबकुछ गंवाया था। लोगों के बीच गए थे, तब गरीबों को विश्वास हुआ कि वे उनके लिए कुछ सोच रहे हैं। पत्रकारिता में भी, आज भी उन लोगों के लेखों को जनता पढ़ने को तैयार बैठी रहती है, कम से कम (खुद अहसास करके न सही) जिन्होंने चीजों को खुद समझा है, मौके पर देखा है, लोगों की सुनी है और फिर लिखा है।