Monday, January 23, 2012

किसानों की प्रेतात्माएँ हमारे साथ...

अरुंधती रॉय

ये मकान है या घर? नए हिंदुस्‍तान का कोई तीर्थ है या फिर प्रेतों के रहने का गोदाम? मुंबई के आल्‍टामाउंट रोड पर जब से एंटिला बना है, अपने भीतर एक रहस्‍य और खतरे को छुपाए लगातार ये सवाल छोड़े हुए है। इसके आने के बाद से चीज़ें काफी कुछ बदल गई हैं यहां। मुझे यहां लाने वाला दोस्‍त कहता है, 'ये लो, आ गया। हमारे नए बादशाह को सलाम करो।'

एंटिला भारत के सबसे अमीर आदमी मुकेश अंबानी का घर है। मैं इसके बारे में पढ़ा करती थी कि ये अब तक का सबसे महंगा घर है, जिसमें 27 माले हैं, तीन हेलीपैड, नौ लिफ्ट, झूलते हुए बागीचे, बॉलरूम, वेदर रूम, जिम, छह फ्लोर की पार्किंग और 600 नौकर। लेकिन खड़े बागीचे की कल्‍पना तो मैंने कभी की ही नहीं थी- घास की एक विशाल दीवार जो धातु के विशालकाय जाल में अंटी हुई है। उसके कुछ हिस्‍सों में घास सूखी थी और तिनके नीचे गिरने से पहले ही एक आयताकार जाली में फंस जा रहे थे। कोई गंदगी नहीं। यहां ''ट्रिकल डाउन'' काम नहीं करता। हम वहां से निकलने लगे, तो मेरी नज़र पास की एक इमारत पर लटके बोर्ड पर पड़ी, उस पर लिखा था, ''बैंक ऑफ इंडिया''।

हां, यहां ''ट्रिकल डाउन'' तो बेकार है, लेकिन ''गश अप'' कारगर है। पेले जाओ। यही वजह है कि सवा अरब के देश में सबसे अमीर सौ लोगों का देश के एक-चौथाई सकल घरेलू उत्‍पाद पर कब्‍ज़ा है।

हिंदुस्‍तान में हमारे जैसे 30 करोड़ लोग, जो आर्थिक सुधारों से उपजे मध्‍यवर्ग यानी बाजार की पैदाइश हैं, उन ढाई लाख किसानों की प्रेतात्‍माओं के साथ रहते हैं, जिन्‍होंने कर्ज के बोझ तले अपनी जान दे दी। हमारे साथ चिपटे हैं उन 80 करोड़ लोगों के प्रेत, जिन्‍हें बेदखल कर डाला गया, जिनका सब कुछ छीन लिया गया, जो रोज़ाना 25 रुपए से भी कम पर जि़ंदा हैं ताकि हमारे लिए रास्‍ते बनाए जा सकें।

अकेले अंबानी की अपनी औकात 20 अरब डॉलर से भी ज्‍यादा की है। सैंतालीस अरब डॉलर की बाजार पूंजी वाली रिलायंस इंडस्‍ट्रीज़ लिमिटेड में उनकी मालिकाना हिस्‍सेदारी है। इसके अलावा दुनिया भर में इस कंपनी के कारोबारी हित फैले हैं। आरआईएल के पास इनफोटेल नाम की कंपनी का 95 फीसदी हिस्‍सा भी है, जिसने कुछ हफ्ते पहले ही एक मीडिया समूह में बड़ी हिस्‍सेदारी खरीदी थी। ये मीडिया समूह समाचार और मनोरंजन चैनल चलाता है। 4जी ब्रॉडबैंड का लाइसेंस अकेले इनफोटेल के पास है। इसके अलावा आरआईएल के पास अपनी एक क्रिकेट टीम भी है।

आरआईएल उन मुट्ठी भर कंपनियों में से एक है जो इस देश को चलाती हैं। इनमें कुछ खानदानी कारोबारी हैं। इसके अलावा दूसरी कंपनियों में टाटा, जिंदल, वेदांता, मित्‍तल, इनफोसिस, एस्‍सार और दूसरी वाली रिलायंस (एडीएजी) है जिसके मालिक मुकेश के भाई अनिल हैं। इन कंपनियों के बीच आगे बढ़ने की होड़ अब यूरोप, मध्‍य एशिया, अफ्रीका और लातिन अमेरिका तक फैल चुकी है।

मसलन, टाटा की अस्‍सी देशों में सौ से ज्‍यादा कंपनियां हैं। भारत में निजी क्षेत्र की बिजली कंपनियों में टाटा सबसे बड़ी है।

''गश अप'' का मंत्र किसी कारोबारी को दूसरे क्षेत्र के कारोबार में मालिकाना लेने से नहीं रोकता है, लिहाज़ा आपके पास जितना ज्‍यादा है, आप उतना ही ज्‍यादा और कमा सकते हैं। इस सिलसिले में हालांकि एक के बाद एक इतने दर्दनाक घपले-घोटाले सामने आए हैं जिनसे साफ हुआ है कि कॉरपोरेशन किस तरह नेताओं को, जजों को, नौकरशाहों और यहां तक कि मीडिया घरानों को खरीद लेते हैं, इस लोकतंत्र को खोखला कर देते हैं। बस, कुछ रवायतें बची रह जाती हैं। बॉक्‍साइट, आइरन ओर, तेल, गैस के बड़े-बड़े भंडार जिनकी कीमत खरबों डॉलर में है, कौडि़यों के मोल इन निगमों को बेच दिए गए हैं। ऐसा लगता है कि हाथ घुमाकर मुक्‍त बाज़ार का कान पकड़ने की शर्म तक नहीं बरती गई। भ्रष्‍ट नेताओं और निगमों के गिरोह ने इन भंडारों और इनके वास्‍तविक बाज़ार मूल्‍य को इतना कम कर के आंका कि जनता की अरबों की गाढ़ी कमाई इनकी जेब डकार गई है।

इससे जो असंतोष उपजा है, उससे निपटने के लिए इन निगमों ने अपने शातिर तरीके ईजाद किए हैं। अपने मुनाफे का एक छटांक वे अस्‍पतालों, शिक्षण संस्‍थानों और ट्रस्‍टों को चलाने में खर्च कर देते हैं। ये संस्‍थान बदले में एनजीओ, अकादमिकों, पत्रकारों, कलाकारों, फिल्‍मकारों, साहित्यिक आयोजनों और यहां तक कि विरोध प्रदर्शनों व आंदोलनों को फंडिंग करते हैं। ये दरअसल धर्मार्थ कार्य के बहाने समाज में राय कायम करने वाली ताकतों को अपने प्रभाव में लेने की कवायद है। इन्‍होंने रोज़मर्रा के हालात में इस तरह घुसपैठ बना ली है, सहज से सहज चीज़ों पर ऐसे कब्‍ज़ा कर लिया है कि इन्‍हें चुनौती देना दरअसल खुद ''यथार्थ'' को चुनौती देने जैसा अजीबोगरीब (या कहें रूमानी) लगता है। इसके बाद तो इनका रास्‍ता बेहद आसान हो जाता है, कह सकते हैं कि इनके अलावा कोई चारा ही नहीं रह जाता।

मसलन, देश के दो सबसे बड़े चैरिटेबल ट्रस्‍ट टाटा चलाता है (उसने पांच करोड़ डॉलर हारवर्ड बिज़नेस स्‍कूल को दान में दिया)। माइनिंग, मेटल और बिजली के क्षेत्र में बड़ी हिस्‍सेदारी रखने वाला जिंदल समूह जिंदल ग्‍लोबल लॉ स्‍कूल चलाता है। जल्‍दी ही ये समूह जिंदल स्‍कूल ऑफ गवर्नमेंट एंड पब्लिक पॉलिसी भी खोलेगा। सॉफ्टवेयर कंपनी इनफोसिस के मुनाफे से बना न्‍यू इंडिया फाउंडेशन सामाजिक विज्ञानियों को पुरस्‍कार और वजीफे देता है। अब ऐसा लगता है कि मार्क्‍स का क्रांतिकारी सर्वहारा पूंजीवाद की कब्र नहीं खोदेगा, बल्कि खुद पूंजीवाद के पगलाए महंत इस काम को करेंगे, जिन्‍होंने एक विचारधारा को आस्‍था में तब्‍दील कर डाला है। ऐसा लगता है कि उन्‍हें सच्‍चाई दिखाई ही नहीं देती, सही गलत में अंतर करने की ताकत ही नहीं रह गई। मसलन, क्‍लाइमेट चेंज को ही लें, कितना सीधा सा विज्ञान है कि पूंजीवाद (चीन वाली वेरायटी भी) इस धरती को नष्‍ट कर रहा है। उन्‍हें ये बात समझ ही नहीं आती। ''ट्रिकल डाउन'' तो बेकार हो ही चुका था। अब ''गश अप'' की बारी है। ये संकट में है।

मुंबई के गहराते काले आकाश पर जब सांध्‍य तारा उग रहा होता है, तभी एंटिला के भुतहे दरवाज़े पर लिनेन की करारी शर्ट में लकदक खड़खड़ाते वॉकी-टॉकी थामे दरबान नज़र आते हैं। आंखें चौंधियाने वाली बत्तियां भभक उठती हैं। शायद, प्रेतलीला का वक्‍त हो चला है।

(साभार: फाइनेंशियल टाइम्‍स, http://janpath.blogspot.com/2012/01/blog-post_23.html?spref=fb)
(अनुवाद: अभिषेक श्रीवास्‍तव)

2 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

तब तो देश की सारी बड़ी इमारतें साम्राज्यवाद के भुतहों का घर है..

Satyendra PS said...

Madya varg chahe jitnee sukh suvidhaaen bhogkar khsush rahta ho, lekin yah sach hai ki use kisan, gareeb, majdoor, uska gaanv, uske apne logon par madrata sankat, bhoot ki tarah uske astitva par chhaye rahte hai.
Shandaar.