Friday, May 4, 2012

अबूझ है अबूझमाड़ की चुनौती


आदिति फडणीस
माओवादियों ने उड़ीसा के विधायक झीना हिकाका को अपनी गिरफ्त से छोड़ दिया है। हिकाका माओवादियों की मदद से ही विधायक चुने गए थे। उनके बदले में राज्य सरकार ने सिर्फ एक माओवादी महिला को छोड़ा है। छत्तीसगढ़ में भी माओवादियों ने भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) के अधिकारी एलेक्स पॉल मेनन को अपनी गिरफ्त से आजाद कर दिया है। हालांकि उन्होंने किसी को नुकसान नहीं पहुंचाया, पर हर बात माओवादी अपहरणों को तिकड़म ही साबित करती है। बहरहाल माओवादी वह सब कुछ कर रहे हैं जिनसे वे अपने इलाके की हदबंदी तय कर सकते हों। जिसे वे अपना 'राज्य' कह सकते हों।
अबूझमाड़ माओवादियों का 'राज्य' है। इसका वास्तविक आकार एक अबूझ पहेली है। यह इलाका करीब 10,000 से 15,000 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है जो आकार में फिजी या साइप्रस के बराबर है-जो बस्तर के जंगलों वाले दूरदराज के क्षेत्र से लेकर आंध्र प्रदेश के आदिलाबाद, खमम और पूर्वी गोदावरी जिलों और महाराष्ट्र के चंद्रपुर और गढ़चिरौली से लेकर मध्य प्रदेश के बालाघाट और ओडिशा के मलकानगिरि तक फैला हुआ है। इस इलाके के क्षेत्रों का कभी सर्वेक्षण नहीं हुआ, यहां तक कि 15वीं शताब्दी के मध्य में मुगल सम्राट अकबर द्वारा भी इसका सर्वेक्षण नहीं कराया गया जिन्होंने भारत का पहला राजस्व सर्वेक्षण कराया था। भारत के पहले महासर्वेक्षक एडवर्ड एवरेस्ट भी वर्ष 1872 से 1880 के बीच अबूझमाड़ की समस्त स्थलाकृति का आकलन करने में नाकाम रहे थे। खुफिया एजेंसियों के अनुसार अबूझमाड़ में माओवादियों के सभी बड़े प्रतिष्ठान मौजूद हैं जिनमें हथियार निर्माण इकाइयों से लेकर छापामार प्रशिक्षण केंद्र भी शामिल हैं। यह शीर्ष नेताओं के लिए भी सुरक्षित पनाहगाह है। राज्य के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने कहा, 'यह इलाका भारी उत्खनन वाला है और सुरक्षा एजेंसियों के लिए काम करना लगभग असंभव सा है।'
माओवादी भी अपने परिचालन इलाके का विस्तार कर रहे हैं। इस क्षेत्र की तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था ने कच्चे माल की मांग में इजाफा कर दिया है। तापीय ऊर्जा और इस्पात में निवेश के लिए छत्तीसगढ़ पसंदीदा ठिकाना है। सेल, एस्सार, टाटा और जिंदल में राज्य में बड़ी कोयला और लौह अयस्क खदानों को हासिल करने की होड़ में लगी हुई हैं। छत्तीसगढ़ में अपनाई जा रही नई तिकड़में दूसरे खनन इलाकों में अपना वर्चस्व दिखाने की कोशिश लगती हैं। हीरा-पट्टी के रूप में पहचाने जाने वाले रायपुर जिले में एक शीर्ष माओवादी नेता की हालिया गिरफ्तारी से इस पर मुहर भी लग जाती है। उनके हित केवल जंगल तक ही सीमित नहीं हैं बल्कि खनन और औद्योगिक इलाकों तक हैं। सरगुजा जिले के सिरीडीह और मानिपत इलाकों के बॉक्साइट समृद्घ क्षेत्र में जहां हिंडाल्को और वेदांत की भारत एल्युमीनियम जैसी कंपनियों के संयंत्र हैं, वहां भी उन्होंने अपनी मौजूदगी दिखाई है। छत्तीसगढ़ में उद्योगों के विरोध के अलावा विद्रोहियों ने राज्य की अर्थव्यवस्था पर भी मार की है। इन हालात में कृषि करना असंभव है। और न ही राज्य अपने वन उत्पादों के लिहाज से लाभान्वित हो पा रहा है। क्षेत्र के लिए भारी बजट खर्च ही नहीं हो पाता। छत्तीसगढ़ सरकार के गृह विभाग का 450 करोड़ रुपये का 30 फीसदी हिस्सा माओवादियों के खिलाफ अभियान पर खर्च हो जाता है।
ये समूह कैसे संचालन करते हैं? पिछले एक दशक से माओवादी आंदोलन की तस्वीर काफी बदली है जहां गठजोड़ और एकीकरण में तेजी आई। छोटे समूहों ने खुद को बड़े समूहों के साथ संबद्घ कर लिया, कार्यकर्ताओं ने विरोधियों का दामन थाम लिया और गुटों की लड़ाई में कई वफादारों को जान गंवानी पड़ी, इसने माओवादियों को यह सोचने पर भी मजबूर कर दिया कि वे साथ मिलकर कैसे अपनी ताकत का बेहतर इस्तेमाल कर सकते हैं।
मगर व्यापक स्तर पर समूहों के बीच बेहतर समन्वय है जो पहले कभी इतना सहज नहीं था। तकरीबन 36 साल बाद ओडिशा-झारखंड सीमा के किसी जंगली इलाके में हुई सीपीआई (माओवादी) की नवीं कांग्रेस में विशेष आर्थिक क्षेत्रों (सेज), जंगल और आदिवासियों की जमीन अधिग्रहण कर उस पर औद्योगीकरण का विरोध करने का फैसला किया गया। छत्तीसगढ़ में माओवादी पहले ही बस्तर में इस्पात संयंत्र लगाने के लिए टाटा और एस्सार को चेतावनी दे चुके हैं। सूत्रों के अनुसार कांग्रेस में कलिंग नगर, सिंगुर, नंदीग्राम और पोलावरम (आंध्र प्रदेश) में भी विरोध करने का फैसला किया गया। कुछ और खास परियोजनाओं पर उनकी टेढ़ी नजर है, इससे यह चुनौती और भयावह बन जाती है।
माओवादियों को कैसे मात दी जा सकती है-क्या उन्हें दी जानी चाहिए? यह समझना मुश्किल नहीं कि नक्सलवादी वहीं पनपेंगे जहां विकास और लोकतंत्र का नामोनिशां नहीं होगा। उनका तर्क है कि उनके संसाधनों से ही आर्थिक तेजी आई है और वे उसके लाभ से वंचित रह गए। अलगाववाद से निपटने में व्यापक अनुभव रखने वाले ब्रिगेडियर बसंत पंवार सैन्य तर्क के साथ कहते हैं, 'आप सैन्य तरीके से नक्सलवादियों को मात दे सकते हैं। आखिरकार वे क्या करते हैं-वे खनन के लिए राष्ट्रीय खनिज विकास निगम के गोदाम में रखे विस्फोटक लूटते हैं, पुलिस चौकियों से राइफल, एलएमजी और एके 47 लूटते हैं? लेकिन इन इलाकों में सैन्य दखल के लिए सरकार को इच्छाशक्ति दिखानी होगी। इन इलाकों में ऐसा करना ही होगा-क्योंकि यदि ऐसा नहीं किया जाता तो नक्सलवादी और उभरेंगे।' नक्सल प्रभाव में सरगुजा जिले में किए गए अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज के सर्वेक्षण में इसका जवाब रोजगार सृजन बताया गया है। जो लोग नक्सलवाद से इत्तफाक नहीं रखते उनको संगठित करने के विचार का दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यही है कि वे नक्सली हमलों की भेंट चढ़ जाते हैं। आदिवासी जंगल को अपना घर मानते हैं, फिलहाल उन्हें नक्सली हमलों से बचाने के लिए विशेष शिविरों में रखा जा रहा है। एक बात तो तय है: चाहे कितनी भी पुलिसिया या सैन्य कार्रवाई क्यों न कर ली जाए नक्सलवादी आंदोलन के उभार को नहीं रोका जा सकता। पंवार कहते हैं, 'ऐसा नहीं कि सैन्य चुनौती बड़ी है। असल में हमारी जवाबी कार्रवाई कमजोर है।' साभारः http://hindi.business-standard.com/hin/storypage.php?autono=58347

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