Friday, August 10, 2012

उत्पादों के दाम बढ़ाकर आंदोलन का खर्च वसूल सकते हैं रामदेव


रामदेव छोटे कारोबारी हैं। विज्ञापन देने के बजाय वह सुर्खियां बटोरकर लोगों की नजर में रहते हैं। इसी बहाने अपने उत्पाद का प्रचार भी कर लेते हैं। बिल्कुल वैसे, जैसे कचहरी में तमाशा दिखाने वाला मदारी चूरन बेचकर चला जाता है। ज्यादा संभव है कि इस आंदोलन पर आए खर्च की भरपाई बाबा अपने 285
उत्पादों के दाम बढ़ाकर करें। एक पड़ताल...
सत्येन्द्र प्रताप सिंह
बाबा रामदेव ३ दिन के अनशन पर बैठे हैं। इस बार उनका धरने पर बैठने से पहले भी टोन डाउन था, अभी भी है। बैठने के पहले ही उन्होंने स्पष्ट कर दिया था कि सिर्फ तीन दिन अनशन चलेगा। अगर सरकार नहीं मानती तो आगे की रणनीति तय की जाएगी।
बाबा रामदेव के साथ इस बार ठीक-ठाक भीड़ है। भीड़ पहले भी थी, जब उन्हें अनशन छोड़कर भागना पडा था। उनके भीड़ की गणित दूसरी है। श्रद्धा औऱ कारोबार की छौंक। यूं तो वैसे भी यहां हजारों की संख्या में बाबा हैं और एक एक बाबा के लाखों चेले हैं, जो एक आह्वान पर जहां कहा जाए, जुटने को तैयार हो जाते हैं। लेकिन बाबा कभी पंगा नहीं लेते, सरकारें भी उनसे पंगा नहीं लेती हैं। आपसी सहमति है... सरकारें बाबाओं को खुलकर चरने देती है और बाबा लोग भी अपनी ताकत का जोश नहीं दिखाते।
दरअसल नए बाबा दलित ही साबित हुए हैं। पुराने मठाधीशों के उत्तराधिकारी तो मौज में रहते हैं, लेकिन किसी नए बाबा की बाबागीरी बहुत ज्यादा नहीं चल पाती। हालांकि यह दावे के साथ यह कहना सही नहीं होगा। इस बीच तमाम कथावाचक, छूकर इलाज करने वाले हुए, लेकिन परंपरागत या कहें कि पीढ़ी दर पीढ़ी वाली बाबागीरी व्यापक पैमाने पर विकसित करने में वह ज्यादा सफल नहीं हुए हैं।
बाबा रामदेव ने बाबागीरी का अलग कांसेप्ट दिया। बिल्कुल नया कांसेप्ट। हालांकि बाबागीरी भी एक कारोबार है, जिसमें किसी अदृश्य सत्ता का भय दिखाकर वसूली की जाती है। परेशान लोग औऱ डरते हैं और पैसे देकर आते हैं। मंदिरों में विभिन्न तरह की पूजा के पैकेज चलते हैं। इस कारोबार की तुलना में बिल्कुल अलग कारोबार है बाबा रामदेव का। जैसे एक उद्योगपति अपने उत्पाद तैयार करता है और बेचता है, वही काम बाबा रामदेव भी करते हैं। हालांकि यह कांसेप्ट किसी का भय दिखाकर वसूली की तुलना में मुझे बेहतर लगता है।
कारोबारी मॉडल
आइए बात करते हैं बाबा के कारोबारी मॉडल पर। बाबा ने योग, वाक्पटुता आदि के माध्यम से ठीक ठाक नाम कमाया। उन्होंने आयुर्वेद पर जोर देना शुरू किया। इस बीच बाबा ने दिव्य योग फार्मेसी भी खोल ली। इस उद्योग में उन्होंने हर कारोबारी मानक का ध्यान रखा है। बेहतरीन चिकित्सक, शोधकर्ता औऱ प्रोडक्ट बना रहे लोग। कारोबार जैसे जैसे जोर पकड़ता गया, बाबा ने इसका विस्तारकिया। मांग के मुताबिक आपूर्ति की। इस समय बाबा के दिव्य फार्मेसी के 285 उत्पाद हैं।
यही नहीं, बाबा पूरे कारोबारी कांसेप्ट मानते हैं। उन्होंने इलाजों का पैकेज भी दे रखा है। कुल ३२ भयंकर या कहें लाइलाज मानी जाने वाली बीमारियों का उपचार वह पैकेज के माध्यम से करते हैं। इसमें लीवर सिरोसिस से लेकर कैंसर तक के इलाज का ठेका शामिल है। हालांकि ऐसी कोई दावेदारी नहीं की गई है कि इस इलाज से बीमारी ठीक होगी। वह तो किसी भी चिकित्सा पद्धति में नहीं की जाती। लेकिन बाबा समय समय पर अपने योग शिविर के भाषणों में दावे भी करते रहते हैं। हर एक इलाज के लिए अलग-अलग पैकेज है।
विज्ञापन का तरीका
बाबा ने इस साम्राज्य के लिए किसी विज्ञापन का सहारा नहीं लिया। बस, अपने भाषणों में योग सिखाने के लिए जुटी भीड़ को वह अपनी विभिन्न दवाइयों की विशेषताएं बता देते हैं। इसके चलते उनका लाखों का विज्ञापन का खर्च बच जाता है। विज्ञापन का यह खर्च तब तक बचता रहेगा, जब तक बाबा चर्चा में रहेंगे। सुर्खियों में उनकी बने रहने की इच्छा के पीछे एक बड़ी वजह यह भी है। हां, पिछली बार केंद्र सरकार से बनते बनते बात बिगड़ गई थी, यह अलग मसला है।
बाबा एक बार फिर अपने कारोबार के प्रचार में निकले हैं। लोग उनकी बात सुन रहे हैं। इलाज में विश्वसनीयता बहुत मायने रखती है। अगर उसमें देशभक्ति और बेहतर व्यक्ति होने की छौंक लग जाए तो कोई मान ही नहीं सकता कि यह महज कारोबार का मामला है। इसमें प्राचीन ज्ञान विज्ञान से लेकर देशभक्ति और सरकार विरोधी गुस्सा को एख साथ भुनाने का मौका है।
अनशन में भीड़ की वजह
बाबा के अनशन में भीड़ जुटने की कई वजहें हैं। पहले.., योग के नाम पर उनके शिविर में दस पांच हजार तो यूं ही आ जाते हैं। दूसरे... बाबा के कारोबार का पूरा नेटवर्क है। उत्तर भारत के हर शहर में इनके उत्पादों की दुकानें हैं। हर जिले में इनके स्टाकिस्ट हैं। अगर गौर से देखें तो बाबा के स्टाकिस्टों ने इस आंदोलन में अहम भूमिका निभाई है। जहां पर इनके स्टाकिस्ट की दुकान या घर है, उस मोहल्ले में विरोध प्रदर्शन शिविर लग गए हैं। बूढ़ी महिलाएं, बूढे पुरुष, बच्चे वहां जमा हो रहे हैं... जिनके लिए बाबा के स्टाकिस्टों ने बेहतरीन प्रबंध कर रखा है। कारोबारी इस पर अच्छा निवेश कर रहे हैं। हालांकि यह खबर नहीं है कि स्टाकिस्टों को कोई निर्देश दिया गया है, लेकिन वह अपने जिलों से वाहनों आदि की पूरी व्यवस्था में लगे हैं। साथ ही रामलीला मैदान में भी भरपूर प्रबंध है, रहने और खाने का।
कारोबारी पूंजी
बाबा का कारोबार विभिन्न ट्रस्टों के माध्यम से चलता है। इसमें ४ विभिन्न ट्रस्ट शामिल हैं। पिछले साल जून महीने में बाबा की घोषणा के मुताबिक उनका कुल कारोबारी साम्राज्य १,१०० करोड़ रुपये के आसपास है। बाबा ने अपने कारोबार का ब्योरा अपनी वेबसाइट पर भी डाल रखा है औऱ उनका कहना है कि कारोबार में पूरी पारदर्शिता बरती जाती है। चार्टर्ड एकाउंटेंट अनिल अशोक एंड एसोसिएट्स ने उनके सभी ट्रस्टों की आडिट की है।
आयुर्वेद का कारोबार
देश में किसी भी जटिल इलाज के लिए शायद ही आयुर्वेद का सहारा लिया जाता हो, लेकिन कारोबार इतना तो है ही कि डाबर, वैद्यनाथ जैसी बड़ी कंपनियों से लेकर गली कूचे तक में आयुर्वेदिक दवाएं बनती हैं। लेकिन आज के कारोबार के हिसाब से देखें तो आयुर्वेद के मामले में रामदेव सभी कंपनियों को टक्कर देते नजर आ रहे हैं।
कहीं जेब पर न भारी पड़े आंदोलन?
स्वाभाविक है कि रामदेव ने जो कमाया है, उसी में से खर्च कर रहे हैं। बाबा रामदेव का कारोबार पूरी तरह से विश्वास पर ही चलता है। आज उनके पूरे स्टॉकिस्ट से लेकर खुदरा दुकानदार तक इस आंदोलन में निवेश कर रहे हैं। अब रामदेव के उत्पादों के ग्राहकों को देखना होगा कि आंदोलन पर आए खर्च की भरपाई उनकी जेब से कैसे की जाती है। बाबा रामदेव का आंदोलन खत्म होने के बाद पूरी संभावना है कि उनके उत्पादों की कीमतों में बढ़ोतरी हो। हालांकि पूरा मामला इलाज से न जुड़ा होकर श्रद्धा की छौंक भी है, इसलिए यह भी संभव है कि उनके शिष्य या कहें ग्राहक, यह भी तर्क दें कि अच्छे काज के लिए पैसे खर्च किए, थोड़े दाम बढ़ाकर वसूली कर रहे हैं तो उसमें बुरा क्या है?

Thursday, August 2, 2012

बिजली के ग्रिड फेल, सरकार पास!


सत्येन्द्र प्रताप सिंह और भीम कुमार सिंह
भारत में बिजली की मांग लगातार बढ़ रही है। उत्पादन कम होने औऱ मांग ज्यादा होने की वजह से बिजली संकट है। हालांकि सरकारी आंकडों के मुताबिक आज भी तीस करोड़ भारतीयों को बिजली नसीब नहीं है। शहरीकरण, औद्योगीकरण, बिजली से चलने वाले सामानों की निर्भरता आदि तमाम कारण हैं, जिससे बिजली की मांग लगातार बढ़ रही है। हाल ही में ग्रिड फेल होने से बीस से ज्यादा राज्यों में हाहाकार रहा। तमाम अनछुए पक्ष हैं, जो बिजली के इस संकट के पीछे बड़ी वजह हैं। बिजली मंत्री सुशील कुमार शिंदे को ग्रिड संकट के साथ ही गृहमंत्री बना दिया गया। संभवतया वह सरकार की मंशा और जरूरतों के मुताबिक ही काम कर रहे थे, जिसकी वजह से पदोन्नति जरूरी थी।
आइए पहले आंकड़ों पर नजर डालते हैं... भारत में केंद्र सरकार, राज्य सरकारें और निजी कंपनियां बिजली का उत्पादन करती हैं। कुल उत्पादन में राज्य सरकारों (स्टेट सेक्टर) की उत्पादन क्षमता 86,275.40 मेगावाट केंद्र सरकार की उत्पादन क्षमता 62,073.63 मेगावाट औऱ निजी क्षेत्र की उत्पादन क्षमता 56,991.23 मेगावाट है। इन तीनों का उत्पादन प्रतिशत क्रमशः 42.01, 30.22 और 27.75 है। कुल मिलाकर भारत की उत्पादन क्षमता 2,05,340.26 मेगावाट है। अभी केंद्र औऱ राज्य सरकार व उनके प्रतिष्ठान ही ज्यादा बिजली उत्पादन कर रहे हैं।
बढ़ रही है उत्पादन में निजी क्षेत्र की भूमिका यह आंकडे़ यूं ही स्थिर रहने वाले नहीं हैं। बिजली उत्पादन में निजी क्षेत्र की हिस्सेदारी भी ठीक उसी तरह बढ़ रही है, जैसे अन्य क्षेत्रों में। इस क्षेत्र में भी देश की बड़ी बड़ी कंपनियां उतर चुकी हैं। राज्य सरकारों के साथ विभिन्न मॉडलों पर बिजली उत्पादन के लिए समझौते हो रहे हैं। यह हर राज्य में इतनी तेजी से हो रहा है कि आने वाले कुछ साल में निजी क्षेत्र सारी परियोजनाएं स्थापित होने के बाद इनकी हिस्सेदारी बिजली उत्पादन करने वाली सरकारी कंपनियों से ज्यादा हो जाएगी।
निश्चित रूप से बिजली कंपनियां मुनाफा कमाने के लिए उतर रही हैं। इनको सारी सुविधाएं सरकारें ही मुहैया कराती हैं। कर्ज की काउंटर गारंटी हो, बिजली की खरीद हो, या जमीन उपलब्ध कराने का मामला। बस अभी समस्या यह है कि नियंत्रित औऱ सब्सिडी वाला क्षेत्र होने की वजह से कंपनियां अपने मुताबिक, यानी मांग और आपूर्ति के आधार पर प्राइस सर्चिंग की सुविधा नहीं पा रही हैं।
बाजारीकरण की शुरुआत
विद्युत अधिनियम २००३ पेश किए जाने के बाद बिजली बाजार के हवाले होनी शुरू हुई थी। अधिनियम की धारा ४२ में खुले बाजार में बिजली की खरीद फरोख्त की अनुमति दे दी गई। केंद्रीय विद्युत नियामक आयोग से लाइसेंस हासिल करने के बाद ऐसा करना संभव बनाया गया। मामला बाजार में आया तो प्राइस डिस्कवरी भी मांग औऱ आपूर्ति के आधार पर हुई। कीमतें बहुत ज्यादा निकलीं। भारत में वितरण प्रणाली पर सरकारी नियंत्रण बहुत ज्यादा है। २७ जून २००८ को इंडियन एनर्जी एक्सचेंज का उदय हुआ। खुले बाजार में बिजली की खरीद फरोख्त शुरू हुई। राजनीतिक औऱ अन्य मजबूरियों के चलते राज्य सरकारों को खुले बाजार से बिजली खरीदना मजबूरी है। कभी कभी तो हालत यह होती है कि बिजली के दाम १५ रुपये प्रति यूनिट से ज्यादा पर पहुंच जाते हैं और निश्चित रूप से राज्य सरकारों के ऊपर इसका बोझ पड़ता है।
मुनाफे के लिए इंतजाम
ऐसा भी नहीं है कि सरकार ने निजी उत्पादन कंपनियों को लावारिस छोड़ रखा है। इस समय राज्य की बिजली वितरण कंपनियां भयंकर घाटे में हैं। राज्यों के बिजली बोर्डों पर बकाया 1.5 लाख करोड़ रुपये पर पहुंच गया है। इसके पुनर्गठन के लिए केंद्र सरकार राज्यों पर दबाव बनाने में जुटी है। चुनावी गणित को देखते हुए सरकारों ने इन्हें बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ा है, यह सही है। किसानों से लेकर कारोबारियों तक को सस्ती बिजली मुहैया कराई जा रही है। लेकिन इसकी भरपाई या इसका संतुलन बनाने की कोई खास मुहिम नहीं है। असल खेल निजी क्षेत्र का ही चल है। बिजली उत्पादकों को कुछ बिजली खुले बाजार के माध्यम से बेचने को छूट मिली है। उद्योगपति भी सरकार की सस्ती बिजली पर ही निर्भर हैं, और किसान, घरेलू उपभोग करने वाले अन्य लोग भी। लेकिन निजी क्षेत्र की बिजली के अगर खरीदार न मिलेंगे तो निजीकरण का खेल बिगड़ना तय है। अब राज्यों पर दबाव बढ़ाया जा रहा है कि अगर वह अपने लोगों को बिजली देना चाहते हैं तो महंगी बिजली खरीदें।
कोयले का खेल और सरकार का पैंतरा
देश की ज्यादातर बिजली कंपनियां ईंधन के लिए कोयले पर निर्भर हैं, जिसकी आपूर्ति मुख्य रूप से कोल इंडिया करती है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान जितनी तेजी से ताप विद्युत संयंत्र लगाए गए हैं, उसी तेजी से देश में कोयले का उत्पादन नहीं बढ़ा है। जाहिर है, कोयले की मांग और आपूर्ति में काफी अंतर आ गया है। ऐसी स्थिति में कोल इंडिया बिजली कंपनियों को उनकी जरूरत के हिसाब से कोयले की पर्याप्त आपूर्ति नहीं कर पा रही है, लिहाजा कंपनियों को कोयले का आयात करना पड़ता है जो बहुत महंगा सौदा है। जो कंपनियां ऐसा नहीं कर पातीं वे पूरी क्षमता पर उत्पादन नहीं करतीं।
इसी चलते इन कंपनियों ने तगड़ी खेमेबाजी की और कोयले की नियमित एवं पर्याप्त आपुर्ति सुनिश्चित कराने के लिए सरकार पर दबाव बनाया। अब चूंकि देश में कोयला उपलब्ध कराने वाली सबसे बड़ी कंपनी कोल इंडिया है, इस चलते इस दबाव का सबसे ज्यादा असर उसी पर हुआ क्योंकि वह सार्वजनिक क्षेत्र की इकाई है। प्रधानमंत्री कार्यालय ने कोल इंडिया से कहा कि वह अनिवार्य रूप से बिजली कंपनियों को उनकी जरूरत की कम-से-कम 80 फीसदी की कोयले की आपूर्ति करे। लेकिन कंपनी के निदेशक मंडल ने ऐसा भरोसा दिलाने में आनाकानी की। कंपनी की दलील थी कि कोयले की मांग जिस तरीके से बढ़ रही है, उसी हिसाब से उत्पादन नहीं बढ़ रहा है क्योंकि नये खदानों की मंजूरी बहुत मुश्किल से मिलती है।
दूसरी ओर सरकार पर बिजली कंपनियों का दबाव बदस्तूर बना रहा। वे सरकार को यह समझाने में सफल रहीं कि उनके लिए कोयले की आपूर्ति सुनिश्चित नहीं किए जाने की स्थिति में इस क्षेत्र में नया निवेश बाधित होगा और मौजूदा संयंत्रों से भी पूरी क्षमता पर उत्पादन नहीं हो सकेगा, जबकि देश में बिजली की मांग बढ़ती ही जा रही है।
दरअसल, यह मामला थोड़ा पेचीदा है। कोल इंडिया इस क्षेत्र की कंपनियों को उनकी जरूरत के 65 फीसदी कोयले की आपूर्ति करने में सक्षम है। ऐसे में उन्हें 15 फीसदी कोयले का आयात करना पड़ेगा, जिसकी लागत ज्यादा बैठेगी। जाहिर है, ऐसा करने पर उनके मुनाफे पर असर होगा। इसका अर्थ यह हुआ कि बिजली कंपनियों को देश में मांग और आपूर्ति में संतुलन की चिंता कम है और मुनाफा घटने की आशंका ज्यादा। उनके लिए यह परेशान होने की यह वाजिब वजह हो सकती है।
लेकिन इस मसले पर सरकार ने जितनी गंभीरता दिखाई, उसकी वजह समझ में नहीं आती। सरकार ने जब देखा कि कोल इंडिया का निदेशक मंडल कोयले की 80 फीसदी आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए तैयार नहीं होगी, तो उसने एक ऐतिहासिक कदम उठाया। उसने राष्ट्रपति की ओर से आदेश जारी करवाकर कोल इंडिया को निर्देश दिलवाया कि वह बिजली कंपनियों के साथ ईंधन आपूर्ति करार (एफएसए) करके उनके लिए 80 फीसदी कोयले की आपूर्ति सुनिश्चित करे और यदि कंपनी ऐसा करने में विफल रहती है तो उसे जुर्मान देना पड़ेगा। सीधी सी बात है कि कोल इंडिया बिजली कंपनियों को इस पैमाने पर कोयले की आपूर्ति सुनिश्चित करने में सक्षम नहीं है। उसकी क्षमता महज 65 फीसदी आपूर्ति सुनिश्चित करने की है। ऐसे में उसे अतिरिक्त 15 फीसदी कोयला आयात करना पड़ेगा क्योंकि फिलहाल उसके उत्पादन में इस कदर बढ़ोतरी की गुंजाइश नहीं है। इस स्थिति में निश्चित रूप से कोल इंडिया के मुनाफे पर तगड़ी मार पड़ेगी और इसका लाभ बिजली कंपनियों को मिलेगा।
कुछ यूं ध्वस्त होता है ग्रिड
आइए एक उदाहरण लेते हैं। मान लीजिए कि दिल्ली से लखनऊ का रेल भाड़ा 250 रुपये है। रेल विभाग आधी सीटें तत्काल कोटा में कर के उनके दाम 750 रुपये कर देता है। आपको लखनऊ यात्रा करनी है और दलाल या किसी अन्य माध्यम से आपको वह टिकट 500 रुपये में मिल जाए तो स्वाभाविक रूप से आप 750 रुपये का टिकट नहीं खरीदेंगे। भले ही यह थोड़ा बहुत गैर कानूनी हो. अगर रेल विभाग की 750 रुपये टिकट वाली सीटें खाली रह जाती हैं, तो वह दबाव बनाएगा कि 500 रुपये वाले अवैध टिकटों की बिक्री बंद कराई जाए, जिससे उसके 750 रुपये वाले टिकट बिक सकें।
जो हाल उस लखनऊ के यात्री का है, वही हाल राज्यों का है। खुले बाजार में बिकने वाली बिजली की मात्रा बढ़ाई जा रही है। राज्य की खस्ताहाल बिजली कंपनियों को महंगी बिजली खरीदनी पड़ती है। बिजली कटौती पर जनआंदोलन होने, विरोध प्रदर्शन होने की वजह से राज्यों पर दबाव होता है कि वह कटौती में कमी लाएं। ऐसे में खस्ताहाल बिजली कंपनियां अपने कोटे से ज्यादा बिजली ग्रिडों से खींचती हैं। हालांकि ग्रिड कोड भी बनाए गए हैं और अधिक बिजली खींचने पर जुर्माने के प्रावधान भी हैं। लेकिन राज्य सरकारों को यह सस्ता पड़ता है कि ग्रिड से ज्यादा बिजली खींच ली जाए और जुर्माना भर दिया जाए। जुर्माने के साथ भी यह बिजली खुले बाजार से बिजली खरीदने की तुलना में सस्ती पड़ती है। यही वजह है कि जब मांग चरम पर होती है तो ग्रिड ध्वस्त होने की घटनाएं होती हैं।
ऐसा नहीं है कि खुले बाजार में बिजली की बिक्री अब कम होने वाली है। जैसे जैसे बिजली उत्पादन में निजी क्षेत्र की हिस्सेदारी बढ़ेगी, इसकी मात्रा भी बढ़ेगी। खुले बाजार में बिजली की बिक्री ज्यादा होने पर खरीदार की जरूरत होगी। खरीदार भी ऐसे हों, जो हो-हल्ला न करें। चुपचाप खरीदें। यह तभी संभव है, जब वितरण प्रणाली पर सरकारों का नियंत्रण खत्म हो और कारोबारियों की इच्छा के मुताबिक बिजली दरें हों। उनके निवेश पर उन्हें मनचाहा मुनाफा हो। लेकिन अभी ऐसा संभव नहीं हो पा रहा है। राजनीतिक बाध्यताओं के चलते बिजली पर सरकार का नियंत्रण बरकरार है। साथ ही यह आम लोगों की जरूरत बन गई है। अगर सीधे इसे निजी क्षेत्र के हाथों सौंपा जाता है तो तीखे विरोध की संभावना बनती है। ऐसे में उत्पादन का निजीकरण, वितरण प्रणाली का निजीकरण फिर कंपनियों को दाम तय करने की छूट। यह सिलसिला लगातार चल रहा है।
सरकार की मंशा की जीत
सरकार की मंशा स्पष्ट है। बिजली का भी निजीकरण हो और कंपनियां उससे भी मुनाफा काटें। आम लोगों की निर्भरता इस पर बहुत ज्यादा बढ़ ही गई है। मजबूरी है कि लोग बिजली खऱीदेंगे, बाजार में मांग उसकी कीमत तय कर देगा। बिजली के ग्रिड फेल होने पर सरकार की अकर्मण्यता, मंत्री की विफलता आदि के चलते सरकार औऱ मंत्री को जनाक्रोश का सामना करना पड़ा। राज्य सरकारों पर भी आरोप लगे। साथ ही उपभोक्ता इसके लिए भी मानसिक रूप से तैयार हुए हैं कि निजी क्षेत्र को बिजली दिए जाने पर ही व्यवस्था सुधरेगी, सरकार, मंत्री, सरकारी कर्मचारी सब चोर हैं। स्वाभाविक रूप से बिजली मंत्री की जीत हुई है। सरकार ने उन्हें इसके लिए पुरस्कृत भी कर दिया है
(इसमे दिए गए आंकड़े सरकारी हैं, विश्लेषण औऱ विचार लेखक के हैं)

Wednesday, August 1, 2012

बिजली के ग्रिड फेल, सरकार पास!


सत्येन्द्र प्रताप सिंह और भीम कुमार सिंह
भारत में बिजली की मांग लगातार बढ़ रही है। उत्पादन कम होने औऱ मांग ज्यादा होने की वजह से बिजली संकट है। हालांकि सरकारी आंकडों के मुताबिक आज भी तीस करोड़ भारतीयों को बिजली नसीब नहीं है। शहरीकरण, औद्योगीकरण, बिजली से चलने वाले सामानों की निर्भरता आदि तमाम कारण हैं, जिससे बिजली की मांग लगातार बढ़ रही है। हाल ही में ग्रिड फेल होने से बीस से ज्यादा राज्यों में हाहाकार रहा। तमाम अनछुए पक्ष हैं, जो बिजली के इस संकट के पीछे बड़ी वजह हैं। बिजली मंत्री सुशील कुमार शिंदे को ग्रिड संकट के साथ ही गृहमंत्री बना दिया गया। संभवतया वह सरकार की मंशा और जरूरतों के मुताबिक ही काम कर रहे थे, जिसकी वजह से पदोन्नति जरूरी थी।
आइए पहले आंकड़ों पर नजर डालते हैं... भारत में केंद्र सरकार, राज्य सरकारें और निजी कंपनियां बिजली का उत्पादन करती हैं। कुल उत्पादन में राज्य सरकारों (स्टेट सेक्टर) की उत्पादन क्षमता 86,275.40 मेगावाट केंद्र सरकार की उत्पादन क्षमता 62,073.63 मेगावाट औऱ निजी क्षेत्र की उत्पादन क्षमता 56,991.23 मेगावाट है। इन तीनों का उत्पादन प्रतिशत क्रमशः 42.01, 30.22 और 27.75 है। कुल मिलाकर भारत की उत्पादन क्षमता 2,05,340.26 मेगावाट है। अभी केंद्र औऱ राज्य सरकार व उनके प्रतिष्ठान ही ज्यादा बिजली उत्पादन कर रहे हैं।
बढ़ रही है उत्पादन में निजी क्षेत्र की भूमिका यह आंकडे़ यूं ही स्थिर रहने वाले नहीं हैं। बिजली उत्पादन में निजी क्षेत्र की हिस्सेदारी भी ठीक उसी तरह बढ़ रही है, जैसे अन्य क्षेत्रों में। इस क्षेत्र में भी देश की बड़ी बड़ी कंपनियां उतर चुकी हैं। राज्य सरकारों के साथ विभिन्न मॉडलों पर बिजली उत्पादन के लिए समझौते हो रहे हैं। यह हर राज्य में इतनी तेजी से हो रहा है कि आने वाले कुछ साल में निजी क्षेत्र सारी परियोजनाएं स्थापित होने के बाद इनकी हिस्सेदारी बिजली उत्पादन करने वाली सरकारी कंपनियों से ज्यादा हो जाएगी।
निश्चित रूप से बिजली कंपनियां मुनाफा कमाने के लिए उतर रही हैं। इनको सारी सुविधाएं सरकारें ही मुहैया कराती हैं। कर्ज की काउंटर गारंटी हो, बिजली की खरीद हो, या जमीन उपलब्ध कराने का मामला। बस अभी समस्या यह है कि नियंत्रित औऱ सब्सिडी वाला क्षेत्र होने की वजह से कंपनियां अपने मुताबिक, यानी मांग और आपूर्ति के आधार पर प्राइस सर्चिंग की सुविधा नहीं पा रही हैं।
बाजारीकरण की शुरुआत
विद्युत अधिनियम २००३ पेश किए जाने के बाद बिजली बाजार के हवाले होनी शुरू हुई थी। अधिनियम की धारा ४२ में खुले बाजार में बिजली की खरीद फरोख्त की अनुमति दे दी गई। केंद्रीय विद्युत नियामक आयोग से लाइसेंस हासिल करने के बाद ऐसा करना संभव बनाया गया। मामला बाजार में आया तो प्राइस डिस्कवरी भी मांग औऱ आपूर्ति के आधार पर हुई। कीमतें बहुत ज्यादा निकलीं। भारत में वितरण प्रणाली पर सरकारी नियंत्रण बहुत ज्यादा है। २७ जून २००८ को इंडियन एनर्जी एक्सचेंज का उदय हुआ। खुले बाजार में बिजली की खरीद फरोख्त शुरू हुई। राजनीतिक औऱ अन्य मजबूरियों के चलते राज्य सरकारों को खुले बाजार से बिजली खरीदना मजबूरी है। कभी कभी तो हालत यह होती है कि बिजली के दाम १५ रुपये प्रति यूनिट से ज्यादा पर पहुंच जाते हैं और निश्चित रूप से राज्य सरकारों के ऊपर इसका बोझ पड़ता है।
मुनाफे के लिए इंतजाम
ऐसा भी नहीं है कि सरकार ने निजी उत्पादन कंपनियों को लावारिस छोड़ रखा है। इस समय राज्य की बिजली वितरण कंपनियां भयंकर घाटे में हैं। राज्यों के बिजली बोर्डों पर बकाया 1.5 लाख करोड़ रुपये पर पहुंच गया है। इसके पुनर्गठन के लिए केंद्र सरकार राज्यों पर दबाव बनाने में जुटी है। चुनावी गणित को देखते हुए सरकारों ने इन्हें बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ा है, यह सही है। किसानों से लेकर कारोबारियों तक को सस्ती बिजली मुहैया कराई जा रही है। लेकिन इसकी भरपाई या इसका संतुलन बनाने की कोई खास मुहिम नहीं है। असल खेल निजी क्षेत्र का ही चल है। बिजली उत्पादकों को कुछ बिजली खुले बाजार के माध्यम से बेचने को छूट मिली है। उद्योगपति भी सरकार की सस्ती बिजली पर ही निर्भर हैं, और किसान, घरेलू उपभोग करने वाले अन्य लोग भी। लेकिन निजी क्षेत्र की बिजली के अगर खरीदार न मिलेंगे तो निजीकरण का खेल बिगड़ना तय है। अब राज्यों पर दबाव बढ़ाया जा रहा है कि अगर वह अपने लोगों को बिजली देना चाहते हैं तो महंगी बिजली खरीदें।
कोयले का खेल और सरकार का पैंतरा
देश की ज्यादातर बिजली कंपनियां ईंधन के लिए कोयले पर निर्भर हैं, जिसकी आपूर्ति मुख्य रूप से कोल इंडिया करती है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान जितनी तेजी से ताप विद्युत संयंत्र लगाए गए हैं, उसी तेजी से देश में कोयले का उत्पादन नहीं बढ़ा है। जाहिर है, कोयले की मांग और आपूर्ति में काफी अंतर आ गया है। ऐसी स्थिति में कोल इंडिया बिजली कंपनियों को उनकी जरूरत के हिसाब से कोयले की पर्याप्त आपूर्ति नहीं कर पा रही है, लिहाजा कंपनियों को कोयले का आयात करना पड़ता है जो बहुत महंगा सौदा है। जो कंपनियां ऐसा नहीं कर पातीं वे पूरी क्षमता पर उत्पादन नहीं करतीं।
इसी चलते इन कंपनियों ने तगड़ी खेमेबाजी की और कोयले की नियमित एवं पर्याप्त आपुर्ति सुनिश्चित कराने के लिए सरकार पर दबाव बनाया। अब चूंकि देश में कोयला उपलब्ध कराने वाली सबसे बड़ी कंपनी कोल इंडिया है, इस चलते इस दबाव का सबसे ज्यादा असर उसी पर हुआ क्योंकि वह सार्वजनिक क्षेत्र की इकाई है। प्रधानमंत्री कार्यालय ने कोल इंडिया से कहा कि वह अनिवार्य रूप से बिजली कंपनियों को उनकी जरूरत की कम-से-कम 80 फीसदी की कोयले की आपूर्ति करे। लेकिन कंपनी के निदेशक मंडल ने ऐसा भरोसा दिलाने में आनाकानी की। कंपनी की दलील थी कि कोयले की मांग जिस तरीके से बढ़ रही है, उसी हिसाब से उत्पादन नहीं बढ़ रहा है क्योंकि नये खदानों की मंजूरी बहुत मुश्किल से मिलती है।
दूसरी ओर सरकार पर बिजली कंपनियों का दबाव बदस्तूर बना रहा। वे सरकार को यह समझाने में सफल रहीं कि उनके लिए कोयले की आपूर्ति सुनिश्चित नहीं किए जाने की स्थिति में इस क्षेत्र में नया निवेश बाधित होगा और मौजूदा संयंत्रों से भी पूरी क्षमता पर उत्पादन नहीं हो सकेगा, जबकि देश में बिजली की मांग बढ़ती ही जा रही है।
दरअसल, यह मामला थोड़ा पेचीदा है। कोल इंडिया इस क्षेत्र की कंपनियों को उनकी जरूरत के 65 फीसदी कोयले की आपूर्ति करने में सक्षम है। ऐसे में उन्हें 15 फीसदी कोयले का आयात करना पड़ेगा, जिसकी लागत ज्यादा बैठेगी। जाहिर है, ऐसा करने पर उनके मुनाफे पर असर होगा। इसका अर्थ यह हुआ कि बिजली कंपनियों को देश में मांग और आपूर्ति में संतुलन की चिंता कम है और मुनाफा घटने की आशंका ज्यादा। उनके लिए यह परेशान होने की यह वाजिब वजह हो सकती है।
लेकिन इस मसले पर सरकार ने जितनी गंभीरता दिखाई, उसकी वजह समझ में नहीं आती। सरकार ने जब देखा कि कोल इंडिया का निदेशक मंडल कोयले की 80 फीसदी आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए तैयार नहीं होगी, तो उसने एक ऐतिहासिक कदम उठाया। उसने राष्ट्रपति की ओर से आदेश जारी करवाकर कोल इंडिया को निर्देश दिलवाया कि वह बिजली कंपनियों के साथ ईंधन आपूर्ति करार (एफएसए) करके उनके लिए 80 फीसदी कोयले की आपूर्ति सुनिश्चित करे और यदि कंपनी ऐसा करने में विफल रहती है तो उसे जुर्मान देना पड़ेगा। सीधी सी बात है कि कोल इंडिया बिजली कंपनियों को इस पैमाने पर कोयले की आपूर्ति सुनिश्चित करने में सक्षम नहीं है। उसकी क्षमता महज 65 फीसदी आपूर्ति सुनिश्चित करने की है। ऐसे में उसे अतिरिक्त 15 फीसदी कोयला आयात करना पड़ेगा क्योंकि फिलहाल उसके उत्पादन में इस कदर बढ़ोतरी की गुंजाइश नहीं है। इस स्थिति में निश्चित रूप से कोल इंडिया के मुनाफे पर तगड़ी मार पड़ेगी और इसका लाभ बिजली कंपनियों को मिलेगा।
कुछ यूं ध्वस्त होता है ग्रिड
आइए एक उदाहरण लेते हैं। मान लीजिए कि दिल्ली से लखनऊ का रेल भाड़ा 250 रुपये है। रेल विभाग आधी सीटें तत्काल कोटा में कर के उनके दाम 750 रुपये कर देता है। आपको लखनऊ यात्रा करनी है और दलाल या किसी अन्य माध्यम से आपको वह टिकट 500 रुपये में मिल जाए तो स्वाभाविक रूप से आप 750 रुपये का टिकट नहीं खरीदेंगे। भले ही यह थोड़ा बहुत गैर कानूनी हो. अगर रेल विभाग की 750 रुपये टिकट वाली सीटें खाली रह जाती हैं, तो वह दबाव बनाएगा कि 500 रुपये वाले अवैध टिकटों की बिक्री बंद कराई जाए, जिससे उसके 750 रुपये वाले टिकट बिक सकें।
जो हाल उस लखनऊ के यात्री का है, वही हाल राज्यों का है। खुले बाजार में बिकने वाली बिजली की मात्रा बढ़ाई जा रही है। राज्य की खस्ताहाल बिजली कंपनियों को महंगी बिजली खरीदनी पड़ती है। बिजली कटौती पर जनआंदोलन होने, विरोध प्रदर्शन होने की वजह से राज्यों पर दबाव होता है कि वह कटौती में कमी लाएं। ऐसे में खस्ताहाल बिजली कंपनियां अपने कोटे से ज्यादा बिजली ग्रिडों से खींचती हैं। हालांकि ग्रिड कोड भी बनाए गए हैं और अधिक बिजली खींचने पर जुर्माने के प्रावधान भी हैं। लेकिन राज्य सरकारों को यह सस्ता पड़ता है कि ग्रिड से ज्यादा बिजली खींच ली जाए और जुर्माना भर दिया जाए। जुर्माने के साथ भी यह बिजली खुले बाजार से बिजली खरीदने की तुलना में सस्ती पड़ती है। यही वजह है कि जब मांग चरम पर होती है तो ग्रिड ध्वस्त होने की घटनाएं होती हैं।
ऐसा नहीं है कि खुले बाजार में बिजली की बिक्री अब कम होने वाली है। जैसे जैसे बिजली उत्पादन में निजी क्षेत्र की हिस्सेदारी बढ़ेगी, इसकी मात्रा भी बढ़ेगी। खुले बाजार में बिजली की बिक्री ज्यादा होने पर खरीदार की जरूरत होगी। खरीदार भी ऐसे हों, जो हो-हल्ला न करें। चुपचाप खरीदें। यह तभी संभव है, जब वितरण प्रणाली पर सरकारों का नियंत्रण खत्म हो और कारोबारियों की इच्छा के मुताबिक बिजली दरें हों। उनके निवेश पर उन्हें मनचाहा मुनाफा हो। लेकिन अभी ऐसा संभव नहीं हो पा रहा है। राजनीतिक बाध्यताओं के चलते बिजली पर सरकार का नियंत्रण बरकरार है। साथ ही यह आम लोगों की जरूरत बन गई है। अगर सीधे इसे निजी क्षेत्र के हाथों सौंपा जाता है तो तीखे विरोध की संभावना बनती है। ऐसे में उत्पादन का निजीकरण, वितरण प्रणाली का निजीकरण फिर कंपनियों को दाम तय करने की छूट। यह सिलसिला लगातार चल रहा है।
सरकार की मंशा की जीत
सरकार की मंशा स्पष्ट है। बिजली का भी निजीकरण हो और कंपनियां उससे भी मुनाफा काटें। आम लोगों की निर्भरता इस पर बहुत ज्यादा बढ़ ही गई है। मजबूरी है कि लोग बिजली खऱीदेंगे, बाजार में मांग उसकी कीमत तय कर देगा। बिजली के ग्रिड फेल होने पर सरकार की अकर्मण्यता, मंत्री की विफलता आदि के चलते सरकार औऱ मंत्री को जनाक्रोश का सामना करना पड़ा। राज्य सरकारों पर भी आरोप लगे। साथ ही उपभोक्ता इसके लिए भी मानसिक रूप से तैयार हुए हैं कि निजी क्षेत्र को बिजली दिए जाने पर ही व्यवस्था सुधरेगी, सरकार, मंत्री, सरकारी कर्मचारी सब चोर हैं। स्वाभाविक रूप से बिजली मंत्री की जीत हुई है। सरकार ने उन्हें इसके लिए पुरस्कृत भी कर दिया है
(इसमे दिए गए आंकड़े सरकारी हैं, विश्लेषण औऱ विचार लेखक के हैं)