Monday, November 16, 2015

बिहार चुनाव और आर्थिक समीकरण

सत्येन्द्र प्रताप सिंह

दिल्ली से बिहार के बक्सर जिले में अपने मित्र के लिए चुनाव प्रचार करके वापस पहुंचे आलोक कुमार अभी थकान उतार रहे हैं। गांव गिरांव के मतदाताओं ने उन्हें शारीरिक से ज्यादा मानसिक रूप से थका दिया। उनके मित्र भारतीय जनता पार्टी से किस्मत आजमा रहे थे, जो महज 8000 मतों से चुनाव हार चुके हैं।
आलोक बताते हैं कि दिल्ली से समीक्षा करने और स्थानीय स्तर पर लोगों से बात करने में खासा अंतर है। गांव में कहीं गोबध का मसला नहीं था। आरक्षण भी कोई मसला नहीं था। गाय के बारे में लोगों का जवाब यह होता था कि हम लोग तो बूढ़ी गाय को शुरू से ही बेच देते हैं। उसे कौन ले जाता है, क्या करता है, हमें नहीं मालूम। यही हाल आरक्षण का रहा। स्थानीय लोगों ने कहा कि भारतीय जनता पार्टी सत्ता में और मजबूत होती है तब भी आरक्षण नहीं खत्म कर पाएगी। कोई भी राजनीतिक दल इस समय इतना जोखिम नहीं लेगा कि आरक्षण खत्म करने के बारे में विचार करे।
तो आखिर कौन सा मसला रहा, जिसने बिहार में भाजपा की मिट्टी पलीत कर दी। जिस भाजपा और नरेंद्र मोदी को जनता ने एक साल पहले सिर आखों पर बिठाया था, उसे क्यों जमीन से उखाड़ फेंका?
आलोक बताते हैं कि सबसे बड़ा मसला जेब का है। वह गुस्से में कहते हैं कि पब्लिक हरामखोर हो गई है। उन्हें गैस सब्सिडी चाहिए, मनरेगा का पैसा चाहिए, वृद्धावस्था पेंशन, बेसहारा पेंशन चाहिए। कुल मिलाकर इतने पैसे जेब में आने जरूरी हैं कि लोग आराम से अपने घर का खर्च चला सकें। केंद्र सरकार ने इसमें कटौती कर दी। गांवों में धन आना बंद हो गया। कांग्रेस के समय में आखिरी दो साल तक लोग महंगाई से तबाह थे, जिसके चलते सरकार को उखाड़ फेंका था। नई सरकार से भी उन्हें इस मोर्चे पर कोई राहत नहीं मिल सकी
लोगों की सही आर्थिक स्थिति और जेब की हालत के बारे में सबसे बड़ा पैमाना जेब का होता है। अभी हाल में दीपावली और दशहरा में एफएमसीजी कंपनियों के बिक्री के आंकड़े यही कह रहे हैं कि कस्बों और गांवों में स्थिति खराब रही। बड़े शहरों में जहां कंपनियों ने जबरदस्त बिक्री की, वहीं छोटे शहरों और कस्बाई इलाकों में उन्हें निराशा हाथ लगी।
गैस सब्सिडी खाते में भेजने की मार भी भाजपा को झेलनी पड़ी है। भले ही इसे कांग्रेस ने शुरू किया था, लेकिन इसके दुष्प्रभाव भाजपा के शासन में व्यापक तौर पर नजर आया। जनता सवाल पूछ रही है कि ज्यादा गैस लेकर हम क्या करेंगे, गैस आखिर में पीना नहीं है कि सस्ती मिली तो दो गिलास ज्यादा पी ली। पहले से कांग्रेस सरकार में महंगाई ने तबाह कर रखा था, अब और कचूमर निकल गई। खाते में पैसे आने से क्या होता है? वह कब आ रहा है, कितना आ रहा है, पता ही नहीं चलता। यह पूछे जाने पर कि दुकानदार सब्सिडी वाली रसोई गैस का इस्तेमाल करते थे, वह दुरुपयोग रुक गया। इसके जवाब में स्थानीय लोग कहते हैं कि चाय बनाने वाला उसका इस्तेमाल करता था तो वह चाय समोसे थोड़ा सस्ता देता था, उसने भी उसी अनुपात में दाम बढ़ा दिया, हमें क्या फायदा मिल गया इससे?
मामला यहीं तक नहीं है। केंद्र सरकार से लोगों की उम्मीदें भी बहुत ज्यादा हैं। उन्हें रोजी रोजगार की चाह है। उन्हें वेतन बढ़ने की उम्मीद है। ग्रामीण लोगों का कहना है कि खाते खुल गए, लेकिन उसमें पैसे कहां हैं? सस्ता बीमा तो ठीक है, लेकिन उसके लिए जान दे दें क्या? काला धन कहां है? बिहारी मतदाताओं के अजीब अजीब सवाल हैं। आपके हर जवाब पर उनका सवाल खड़ा मिला।
चुनाव के दौरान बिहार में सक्रिय रहे समाजसेवी राकेश कुमार सिंह कहते हैं कि प्रधानमंत्री के भाषण इस समय बिहार के मतदाताओं को चिढ़ाते हुए नजर आए। उन्हें नरेंद्र मोदी के वादे जुमला और जोकरई लग रहे थे। सिंह कहते हैं कि मोदी का भाषण सुनकर तमाम लोगों ने मतदान का मन बदला। उन्हें लगा कि यह व्यक्ति तो सिर्फ कांग्रेस या पहले से सत्तासीन दलों को गालियां दे रहा है! कोई नई योजना नहीं है। डेढ़ साल में कुछ भी नहीं मिल सका। वही पुराना भाषण, वही पुराने वादे। उसके साथ लफ्फाजी और पूर्व नेताओं को गालियां देने की धार और बढ़ी है। सिंह कहते हैं कि इसने लोगों को अच्छा खासा चिढ़ाया है।
बिहार में डेढ़ दशक से पत्रकारिता में सक्रिय आशीष झा भी कुछ ऐसा ही कहते हैं। झा का कहना है कि महिलाओं ने इस बार दाल और तेल का हिसाब सरकार से ले लिया। वह बताते हैं कि तमाम ऐसे परिवार हैं, जिनके सब्सिडी वाले गैस सिलेंडर कैंसिल हो गए। उन्हें पूरे दाम पर गैस खरीदनी पड़ रही है। उनकी कोई सुनवाई नहीं है। एजेंसी से लेकर जिला पूर्ति कार्यालय तक चक्कर लगा रहे हैं, लेकिन निरस्त हो गया तो फिर सब्सिडी से बाहर। उनका कहना है कि पैसे न आने से परिवारों में रोजमर्रा का खर्च चलाने को लेकर तनाव बढ़ा है। परिवारों में रोज झगड़े हो रहे हैं। जब महिलाएं मतदान करने निकलीं तो लोग इस बात को समझ भी न पाए कि यह थोक वोट किसके पक्ष में जा रहा है और किसके खिलाफ। जब परिणाम आया तो यह साफ हो गया कि बिहार में महिला मतदाता एक अलग जाति बन चुकी है। आने वाले चुनावों में शायद महिलाओं को लेकर राजनीतिक दलों को गंभीर और महिला केंद्रित रणनीति बनाने की जरूरत पड़ सकती है।
आलोक कहते हैं कि लोग नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी के कामों की तुलना करते नजर आए। ग्रामीण सवाल पूछते नजर आए कि आखिर डेढ़ साल में मोदी सरकार ने ऐसा क्या कर दिया, जिसके चलते उन्हें वोट दे दिया जाए। वहीं नीतीश कुमार का काम भारी पड़ रहा था, चाहे वह सड़कों का निर्माण हो, या लड़कियों को साइकिल देना।
आखिर प्रधानमंत्री की रैली में लाख लोगों तक जुटने वाली भीड़ मतों में तब्दील क्यों नहीं हो पाई? बिहार चुनाव प्रचार में सक्रिय लोगों ने भीड़ की गणित भी बताई। पार्टी भीड़ जुटाने वाले ठेकेदार लोगों को प्रति व्यक्ति 500 रुपये देती थी। इसमें से भेजने वाला व्यक्ति 300 रुपये में अपना मुनाफा, वाहन पर आने वाला व्यय और दिन भर के खाने और नाश्ते का व्यय निकालता था। भाषण सुनने जाने वाले व्यक्ति को 200 रुपये नकद मिलते थे। इसके अलावा भाषण के दौरान नजदीक के पेड़ों पर चढ़ जाने, खंभों पर चढ़ जाने वालों को 50 रुपये अतिरिक्त दिए जाते थे। इस तरह लोग सपरिवार शहर घूमने के लिए निकल जाते थे। कहीं कहीं ग्रामीण लोग इतनी शर्त रख देते थे कि ले जाने वाली गाड़ी शाम को निकले, जिससे लोग बाजार में खरीदारी जैसे काम आराम से निपटा सकें।
कुल मिलाकर देखें तो बिहार के चुनाव परिणाम ने स्पष्ट किया है कि अगर सरकार ने जेब पर हमला किया तो उसे कहीं से कोई ढील नहीं मिलने वाली है। भावनात्मक मसलों, जातीय मसलों का दौर खत्म हो रहा है। गांवों से लेकर शहरों तक मतदाता अपना हित बहुत गंभीरता से देख रहा है। सरकार को भी अब दिखावे से आगे बढ़कर काम करना होगा। मतदाताओं को जीडीपी में बढ़ोतरी ज्यादा समझ में नहीं आती, उन्हें अपनी रोजी रोटी और रोजगार ज्यादा समझ में आ रहा है कि उसमें किस तरह से बेहतरी आए।


Friday, November 13, 2015

असहिष्णुता का भ्रमजाल



सत्येन्द्र पीएस

भारत की भूमि पर न सही, ब्रिटेन जाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कह ही दिया कि असहिष्णुता किसी भी स्थिति में स्वीकार्य नहीं है। बुद्ध और गांधी की धरती पर छोटी से छोटी घटना पर कड़ी कार्रवाई की जाएगी।
असहिष्णुता या इन्टालरेंस शब्द भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का प्रिय शब्द रहा है। जहां तक मुझे याद आता है, विपक्ष में रहते हुए वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी और मौजूदा गृहमंत्री राजनाथ सिंह इस शब्द का भरपूर इस्तेमाल करते थे। जब भी देश में कोई आतंकवादी वारदात होती थी या नक्सली हमला होता था, ये नेता अक्सर इस शब्द का इस्तेमाल करते थे कि भारत को जीरो टालरेंस की पॉलिसी अपनानी होगी। साथ ही हिंदी में सहिष्णुता शब्द का इस्तेमाल आरएसएस से जुड़े संत सन्यासी खूब इस्तेमाल करते रहे हैं। मौका बेमौका दोहराते रहे हैं कि हिंदू समाज कब तक सहिष्णु बना रहेगा, कब तक अपने धर्म पर हमले बर्दाश्त करेगा।
भाजपा के सत्ता में आने के बाद इस इन्टालरेंस ने व्यापक रूप ले लिया। आतंकवादियों के मामले में सरकार सफल हुई हो या नहीं, सरकार ने अपने विरोधियों को कुचलने के लिए इसका खूब इस्तेमाल किया। लोकसभा चुनाव के पहले जहां नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पार्टी के भीतर उग्र होकर इन्टालरेंस दिखाते हुए सभी बुजुर्ग नेताओं की असहमतियों और उनके सुझावों को दरकिनार कर उन्हें बेकार साबित कर दिया, वहीं इनके समर्थकों ने सोशल मीडिया पर सक्रियता दिखाते हुए विरोधियों को भला बुरा कहने, गालियां और धमकियां देने का रिकॉर्ड बनाया। चुनाव पूर्व के सोशल वेबसाइट्स पर गौर करें तो देश के बड़े नेताओं को जमकर गालियां दी गईं। उन पर व्यक्तिगत आरोप लगाए गए। बड़े बड़े नेताओं के विकृत फोटो, उनके बारे में तमाम ऊल-जुलूल बातें लिखी जाने लगीं। ये हमले इतने तेज थे कि ऐसा लगता है कि पूरी टीम लगी हुई थी, जो सक्रिय होकर इस काम को अंजाम दे रही हो।
भाजपा के नए युग में कमान संभाले लोगों ने विपक्ष के वरिष्ठ नेताओं को भरपूर निशाना बनाया। खासकर वे नेता इस अभियान के ज्यादा शिकार बने, जो सोशल मीडिया पर खासे सक्रिय थे। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह का उदाहरण अहम है, जिनके ट्विटर और फेसबुक हैंडल पर सबसे ज्यादा गालियां दी गईं। इतना ही नहीं, समाचार माध्यमों/अखबारों की जिन वेबसाइट्स पर सबसे ज्यादा हिट्स आती हैं, यानी जो सर्वाधिक पढ़ी जाने वाली वेबसाइट्स हैं, उन पर अगर भाजपा विरोधी खबर आती थी, उस पर भाजपा की यह टीम पूरी ताकत के साथ टूट पड़ती थी। विरोध एवं गालियों की पूरी सिरीज चल पड़ती थी। इन अभियानों का पूरा लाभ भाजपा को मिला और लोकसभा चुनाव बाद पूर्ण बहुमत से सत्ता में आ गई।
असहिष्णुता के इस माहौल को भाजपा के दल ने सत्ता में आने के बाद भी बनाए रखा। चुनाव के दौरान ऊल जुलूल बयान देने वाले गिरिराज सिंह, साध्वी निरंजन ज्योति जैसे लोग जहां मंत्रिमंडल में शामिल किए गए, वहीं अन्य तमाम छुटभैये नेताओं को भी भरपूर बढ़ावा दिया गया कि वे गाली गलौज वाले तरीके से किसी भी विरोध को निपटाएं और समाज में इस कदर भय फैलाएं, जिससे विरोध में कोई आवाज न उठने पाए।
भाजपा के इस रवैये के शिकार लेखक तबका बना। स्वतंत्र रूप से लेखन का कार्य करने वाले और सोशल मीडिया पर सक्रिय लोगों को गालियां और धमकियां दिए जाने की घटनाएं आम हो गईं। बीच बीच में किसी बड़ी घटना पर सरकार में बैठे मंत्री बूस्टर डोज भी देते रहे। चाहे वह नोएडा के अखलाक की हत्या के बाद केंद्रीय मंत्री महेश शर्मा का बयान हो, जिन्होंने कहा कि गलतफहमी में दुर्घटना हो गई, या फरीदाबाद में दलित परिवार के जलने की घटना, जिसमें केंद्रीय मंत्री वीके सिंह ने कहा कि किसी कुत्ते को अगर कोई ढेला मार दे तो उस पर प्रधानमंत्री बयान नहीं देंगे।
इन सब घटनाओं और इसे लेकर सरकार के रवैये से समाज में एक ऐसे तबके की संख्या बढ़ती गई, जो स्वतः स्फूर्त सोशल साइट्स या कोई हिंदू समूह बनाकर लोगों को धमकियां देने, नारेबाजी करने या बयान देने का काम करने लगा। उस तबके को यह भरोसा हो चला कि उनके इस असंवैधानिक, अमानवीय, असंवेदनशील कार्य को सरकार का समर्थन है। इतना ही नहीं, अगर चर्चा में बने रहा जाए तो सरकार उसे पुरस्कृत भी कर सकती है।
इस असहिष्णुता के विरोध में जब हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार उदय प्रकाश ने बगावत की और साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा दिया तो साहित्य जगत की ओर से पुरस्कार वापस करने वालों की पूरी सिरीज ही बन गई। नयनतारा सहगल से लेकर अशोक वाजपेयी और तमाम नाम सामने आए और दर्जनों लेखकों, साहित्यकारों ने पुरस्कार वापस किए।
आखिरकार भारत के राष्ट्रपति को बयान देना पड़ा। प्रणव मुखर्जी ने कहा कि भारत में असहिष्णुता बढ़ रही है, जो भारतीय संस्कृति के विपरीत है। बिहार चुनाव के दबाव में प्रधानमंत्री ने नोएडा के अखलाक की हत्या पर तो कुछ नहीं बोला, लेकिन चुनावी रैली में इतना जरूर कहा कि राष्ट्रपति महोदय ने जो कहा, वह ठीक है।
लेकिन सरकार ने साहित्य जगत से बातचीत की कोई कवायद नहीं की। किसी ने उदय प्रकाश या किसी साहित्यकार से संपर्क नहीं किया कि आखिर उन्हें समस्या क्या है। संपर्क करके समस्या जानना तो दूर, सरकार ने इतना कहने की भी जहमत नहीं उठाई कि साहित्य जगत से जुड़े विद्वान पुरस्कार लौटाने जैसे कदम न उठाएं, केंद्र सरकार राज्यों को एडवाइजरी जारी कर रही है कि ऐसी घटनाओं से सख्ती से निपटा जाए। प्रधानमंत्री के खास माने जाने वाले और वित्त मंत्री अरुण जेटली ने बयान दिया कि कोई असहिष्णुता नहीं है, जो भी साहित्यकार अपने सम्मान वापस कर रहे हैं, वे अलग विचारधारा वाले हैं और सरकार का महज विरोध करने के लिए इस तरह के कदम उठा रहे हैं।
दिलचस्प है कि राष्ट्रपति से लेकर तमाम गणमान्य लोगों ने असहिष्णुता बढ़ने की बात कही। लेकिन जैसे ही फिल्म कलाकार शाहरुख खान ने समाज में असहिष्णुता बढ़ने की बात कही, उन्हें विदेशी एजेंट घोषित कर दिया गया। जिम्मेदार पदों पर बैठे भाजपा नेताओं ने उन्हें पाकिस्तान भेजे जाने की धमकी/सलाह दे डाली। सरकार इस तरह की धमकियों पर खामोश बैठी रही।
अब प्रधानमंत्री के ब्रिटेन में दिए गए बयान पर आते हैं। मोदी देश के पहले प्रधानमंत्री बन गए हैं, जिनकी बात पर विश्वास करने के पहले कई बार सोचना पड़ता है कि वह क्या कह रहे हैं। क्यों कह रहे हैं। उसके निहितार्थ क्या हैं। निहितार्थ हैं भी या यूं ही बात कही जा रही है। उन्होंने किन बातों पर कहा है कि असहिष्णुता बर्दाश्त नहीं की जा सकती। छोटी से छोटी घटनाओं पर भी नजर रखी जाएगी?
हाल में बिहार में भाजपा बुरी तरह चुनाव हारी है। इसके चलते पार्टी के भीतर घमासान शुरू हो गई है। परोक्ष रूप से चुनाव पूर्व मोदी द्वारा मुसलमानों को कुत्ते का पिल्ला, सत्ता में आने के बाद जनरल वीके सिंह द्वारा दलितों को कुत्ता कहने का क्रम बिहार में हार के बाद भाजपा नेताओं ने एक दूसरे को कुत्ता कहना शुरू कर दिया। पार्टी महासचिव कैलाश विजयवर्गीय और वरिष्ठ नेता शत्रुघ्न सिन्हा के बयान इसकी बानगी है। साथ ही पार्टी के वरिष्ठ नेताओं लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, यशवंत सिन्हा और शांता कुमार ने बाकायदा बयान जारी करके भाजपा के मौजूदा प्रभावी लोगों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया।
संदेह होता है कि अखलाक, कलबुर्गी की हत्याओं या उदय प्रकाश के दर्द का एहसास करते हुए मोदी ने ब्रिटेन में बयान दिया है या कोई और वजह है? प्रधानमंत्री और उनके खास माने जाने वाले भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के खिलाफ पार्टी के भीतर विरोध तेजी से उभरकर सामने आ रहा है। कहीं ऐसा तो नहीं कि मोदी अपने ही दल के वरिष्ठ नेताओं की इस असहिष्णुता के खिलाफ कार्रवाई का मन बना रहे हैं और उनके असहिष्णु बयानों के चलते इन्हें जेल में ठूंस देने की तैयारी में हैं!

Friday, April 10, 2015

जमीन की लूट में हाशिये पर आदिवासी

सत्येन्द्र
केंद्र सरकार ने भूमि अधिग्रहण विधेयक पेश किया है। इसे वह किसान हितैषी भी बता रही है। इस पर विपक्ष राजी नहीं है। उसका कहना है कि विधेयक किसान विरोधी है। दिलचस्प है कि हाशिये पर रहे आदिवासियों की चर्चा कहीं नहीं हो रही है। न तो सरकार इन आदिवासियों की बात कर रही है और न ही विपक्ष। वहीं असल लड़ाई आदिवासियों की है, जिनसे जमीन लेकर खनन किया जाना है। कोयला, लौह अयस्क व अन्य प्राकृतिक खनिजों के लिए आदिवासी क्षेत्रों की जमीनों की जरूरत सरकार व उद्योग जगत को है।
दरअसल असली लड़ाई आदिवासियों की जमीन छीनने को लेकर ही है। खेती वाली भूमि के अधिग्रहण की जरूरत कम है। जहां अधिग्रहण होता भी है, शहरी इलाकों के नजदीक के किसानों को मुआवजा दे दिया जाता है। लेकिन इस अधिनियम में आदिवासियों की स्थिति क्या है, यह सवाल बहुत महत्त्वपूर्ण है। खासकर ऐसी स्थिति में सवाल और भी महत्त्वपूर्ण है, जब छत्तीसगढ़, ओडिशा, झारखंड से लेकर देश का एक बड़ा हिस्सा कथित लाल गलियारे में तब्दील हो चुका है। कथित नक्सलियों और भारत सरकार के सैन्य बलों के बीच खूनी संघर्ष हो रहे हैं।
खुद को किसान हितैषी बताने वाली केंद्र सरकार ने विश्वबैंक से कहा है कि वह बैंक द्वारा वित्त पोषित परियोजनाओं से विस्थापित होने वाले आदिवासियों से पूर्व सहमति लेने, उन्हें स्वतंत्र रूप से राय देने और परियोजना के बारे में उनको पूरी जानकारी दिए जाने संबंधी अनिवार्यता को लेकर 'सहज' नहीं है। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार की ओर से बैंक को दी गई यह प्रस्तुतीकरण ऐसे समय में आई है, जब सरकार आदिवासियों के परंपरागत वन क्षेत्र को उद्योगों को सौंपे जाने को लेकर आदिवासियों से सहमति लिए जाने की जरूरत खत्म करने पर काम कर रही है।
इसके पीछे राजग सरकार ने विश्व बैंक के सामने तर्क दिया है कि भारत के घरेलू कानून और नियम हैं, जो आदिवासियों के हितों की रक्षा करते हैं, जिसमें 'कुछ मामलों में' सहमति लेने का अधिकार भी शामिल है। साथ ही बैंक अपनी शर्तें रखने के बजाय घरेलू कानून पर भी गौर कर सकता है। लेकिन अगर घरेलू स्थिति देखें तो राजग सरकार तमाम कार्यकारी आदेश पारित कर रही है, जिससे ज्यादातर मामलों में आदिवासियों को अपनी वनभूमि की रक्षा करने के लिए वीटो पावर से वंचित होना पड़ेगा। वर्तमान में वन अधिकार अधिनियम के तहत जब उद्योगों को या विकास परियोजनाओं के लिए आदिवासियों की परंपरागत वन भूमि लेनी होती है तो सरकार को ग्राम सभाओं से अनुमति लेनी होती है। जून 2014 से सरकार इन प्रावधानों को नरम करने पर काम कर रही है। हालांकि आदिवासी मामलों का मंत्रालय इसका पुरजोर विरोध कर रहा है।
सरकार ने जो मौजूदा भूमि अध्यादेश पेश किया है उसमें आदिवासियों की गैर वन्य भूमि के मामले में सहमति की जरूरत सिर्फ खंड 5 और 6 क्षेत्रों तक सीमित है और इसका विस्तार देश के सभी आदिवासी भूमि तक नहीं है। सरकार यह बदलाव इन दावों के साथ कर रही है कि अंग्रेजों का बनाया गया कानून शोषण युक्त है। वह बूढ़ा हो चुका है। उसमें बदलाव की जरूरत है, जिससे भारत विकास के पथ पर चल सके। आखिर इन तर्कों की हकीकत क्या है, जिन्हें तथ्यों के आधार पर परखना होगा। आदिवासियों ने जमीन पर कब्जे को लेकर अंग्रेजों से मोर्चा लिया है। यूं कहें कि आम राजे महराजों की सरकारें तो अंग्रेजों से अपना राजपाठ गंवाती गईं, लेकिन आदिवासियों ने कुछ इस कदर मोर्चा संभाला कि अंग्रेज हुकूमत को वन क्षेत्र और भारत के खनिज संसाधन करीब करीब छोड़ने पड़े। उन्हें आदिवासी विद्रोहियों से जगह जगह समझौते करने पड़े। उनकी सहमति के बगैर वन्य क्षेत्र में प्रवेश कानूनन निषेध हो गया। उस समय जब बंगाल विधान परिषद में चर्चा हुई, उसमें न केवल आदिवासियों, बल्कि किसानों के हितों की भी व्यापक चर्चा हुई, जिसके बाद 1894 का भूमि कानून आया था। उस कानून की मजबूती ही कहेंगे कि स्वतंत्रता के बाद भी उस कानून में बहुत मामूली फेरबदल किए जा सके, वर्ना कानून की स्थिति यथावत है।
केंद्र सरकार भूमि अधिग्रहण विधेयक पर अड़ी है। कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार भी आदिवासी इलाकों में जमीन अधिग्रहण को लेकर अड़ी थी। लाल गलियारे की तमाम परियोजनाएं ठहर सी गईं। सरकार के लिए उन क्षेत्रों में घुसना मुश्किल हो गया। लेकिन मौजूदा सरकार इस कदर विधेयक को लेकर प्रतिबद्ध है कि उसे संविधान की धज्जियां उड़ाने में भी कोई गुरेज नहीं है। संविधान में प्रावधान है कि संसद के दोनों सदन चल रहे हों, उस समय अध्यादेश नहीं लाया जा सकता। 5 अप्रैल को भूमि अध्यादेश की अवधि खत्म हो रही थी, और राज्यसभा में विधेयक पारित नहीं हुआ था। संसद के दोनों सदन भी चल रहे थे। ऐसे में सरकार अध्यादेश नहीं ला सकती थी। इस बाधा को हटाने के लिए सरकार ने राज्यसभा का सत्रावसान कर दिया, जिससे फिर से अध्यादेश लाया जा सके। यह खुले तौर पर संविधान की धज्जियां उड़ाने जैसा है, क्योंकि संविधान की मंशा यह थी कि अध्यादेश केवल आपात स्थिति में लाया जाए, अन्यथा संसद में चर्चा के बाद ही कानून बनाया जाना चाहिए।
आखिरकार केंद्र सरकार अध्यादेश ले आई। यह समझना मुश्किल है कि अध्यादेश क्यों लाया गया है। इसमें वह 6 बदलाव भी शामिल किए गए हैं, जो केंद्र सरकार ने लोकसभा में भूमि अधिग्रहण विधेयक पेश करते समय किए थे। इसमें आदिवासियों का कोई जिक्र नहीं है। कुछ लुभावने मसलों पर रंगरोगन कर दिया गया है, जिन पर विपक्षी दल सरकार को घेर रहे थे।
सरकार का एक तर्क यह भी है कि भूमि अधिग्रहण न हो पाने के कारण तमाम बुनियादी ढांचा परियोजनाएं ठप पड़ी हैं, क्योंकि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के जनवरी 2014 में लाए गए भूमि अधिग्रहण कानून के चलते अधिग्रहण में दिक्कतें हो रही हैं। हालांकि उद्योग जगत के सर्वे की ही बात करें तो स्थिति कुछ और ही बयान कर रही है। आंकड़े बताते हैं कि भूमि अधिग्रहण न होने की वजह से बहुत मामूली परियोजनाएं फंसी हैं, जबकि ज्यादातर परियोजनाएं भूमि अधिग्रहण से इतर दिक्कतों, जैसे पर्यावरण की मंजूरी न मिलने, वैश्विक मंदी के चलते धन न मिलने आदि जैसी वजहों से फंसी हैं।
भारत सरकार खुद तो आदिवासियों के अधिकार छीनने पर तुली ही है, विदेश से उद्योग को मिलने वाली फंडिंग के मामले में भी वह आदिवासियों की उपेक्षा करने को तैयार है। वह विश्व बैंक की शर्तों में भी फेरबदल चाहती है। एमनेस्टी इंडिया की बिजनेस और मानवाधिकार शोधकर्ता अरुणा चंद्रशेखर कहती हैं, 'इससे यह पता चलता है कि सरकार अपने नागरिकोंं की बात सुनने को भी इच्छुक नहीं है। यह चिंता का विषय है कि सरकार फैसले से आदिवासियों की जमीन और उनके संसाधनों पर असर पड़ रहा है और ऐसे मामले में सरकार उनसे सहमति नहीं लेना चाहती।'
अपने ही नागरियों के एक तबके के प्रति सरकार का यह रुख काफी खतरनाक है। विकास के नाम पर सरकार यह कर रही है। दिलचस्प है कि सरकार के इस फैसले से सिर्फ और सिर्फ उन आदिवासियों पर असर पड़ने जा रहा है जो इस समय वन्य क्षेत्रों में रहते हैं। स्वतंत्रता के बाद किसान जो जमीन जोतता था, वह उसके नाम कर दी गई। उसे उस जमीन को बेचने, खरीदने का हक मिल गया। वह राजा, अंग्रेज सरकार या जमींदार को लगान देने की बजाय अपनी चुनी सरकार को लगान देने लगा। वहीं स्वतंत्रता के बाद भी वन क्षेत्र में रहने वाले लोगों के नाम वे वन नहीं किए गए। अंग्रेजों ने उन्हें कुछ हक दिए थे कि वन से जब उन्हें हटाया जाए तो उनसे सहमति ली जाए। तमाम वन कानून उन्हें त्रस्त करते रहते हैं और प्रशासन उन्हें वनोत्पाद लेने से भी रोकते हैं। अब सरकार की मंशा कहीं और ज्यादा खतरनाक हो रही है।

Monday, March 9, 2015

सामाजिक न्याय की मछलियां

(बदलते राजनीतिक माहौल और भाजपा के सत्ता में आने के बाद सभी प्रमुख दलों के कोमा में पहुंच जाने के बाद दिलीप मंडल का यह लेख एक नई दिशा देता है। इसमें सेक्युलरिज्म और सामाजिक न्याय की ताकत की व्याख्या की गई है। जनसत्ता में प्रकाशित लेख)
दिलीप मंडल
मछलियां पानी में होती हैं, तो वे जिंदा रहती हैं और उनमें काफी ताकत होती है। लेकिन वही मछलियां जब पानी के बाहर होती हैं तो छटपटा कर दम तोड़ देती हैं। ‘जनता परिवार’ की कुछ पार्टियों ने हाल में एका की जो कवायद की है, उसमें सेक्युलरवाद को मूल विचार के तौर पर पेश किया जा रहा है। यह इन पार्टियों का पानी से बाहर आना या पानी से बाहर बने रहना है। सेक्युलरिज्म का खोखला नारा इन पार्टियों के लिए मारक साबित हो सकता है।
सेक्युलरिज्म इन पार्टियों का केंद्रीय विचार नहीं है। ये पार्टियां या तो सामाजिक न्याय के अपने केंद्रीय विचार को भूल चुकी हैं, या फिर अपने पुराने स्वरूप में लौट पाना इनके लिए असहज हो गया है। ये पार्टियां सेक्युलरिज्म के नाम पर एकजुट होने की कोशिश कर रही हैं, लेकिन वे भूल रही हैं कि सेक्युलरिज्म के मैदान में भाजपा उन्हें और कांग्रेस और माकपा जैसे दलों को लगातार पटक रही है। भाजपा ने सेक्युलरिज्म का राजनीतिक अनुवाद ‘मुसलिम तुष्टीकरण’ के रूप में किया है और इस अनुवाद को हिंदू मतदाताओं ने खारिज नहीं किया है। अगर भाजपा के हिंदू बहुसंख्यकवाद से अन्य पार्टियों का अल्पसंख्यक सेक्युलरवाद टकराएगा, तो इस मुकाबले में जीतने वाले का अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है।
सेक्युलरिज्म को दरअसल कभी राजनीतिक नारा होना ही नहीं चाहिए था। यूरोपीय सामाजिक लोकतंत्र की शब्दावली से आए इस शब्द का भारत आते-आते अर्थ भी बदल चुका है। बल्कि अर्थ का अनर्थ हो चुका है। यह शब्द यूरोप में चर्च और राजकाज की शक्तियों के संघर्ष के दौरान चलन में आया था। इसका अर्थ है कि राजकाज में धर्म (यूरोपीय अर्थ में चर्च) का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। चर्च और राजनीति के संघर्ष में आखिरकार राजनीति की जीत हुई और चर्च ने अपने कदम पीछे खींच लिए। चर्च की दादागीरी के खिलाफ आधुनिक शासन व्यवस्था की ऐतिहासिक जीत के बाद से ही सेक्युलरिज्म शब्द दुनिया भर में लोकप्रिय हुआ।
लेकिन भारत का सेक्युलरवाद राजकाज और धर्म का अलग होना नहीं है। भारत में इस शब्द का अनुवाद सर्वधर्म-समभाव की शक्ल में हुआ। यानी राज्य या शासन हर धर्म को बराबर नजर से देखेगा और बराबर महत्त्व देगा। लगभग अस्सी फीसद हिंदू आबादी वाले देश में सर्वधर्म-समभाव के नारे का हिंदू वर्चस्व में तब्दील हो जाना स्वाभाविक ही था। आजादी के बाद कांग्रेस के शासन में भी हिंदू प्रतीकों और मान्यताओं को राजकाज में मान्यता मिली। सरकारी कामकाज की शुरुआत और उद्घाटन से लेकर लोकार्पण तक में नारियल फोड़ने, सरस्वती वंदना करने, राष्ट्रपतियों के द्वारा मंदिरों को दान देने से लेकर सरकार द्वारा मंदिरों के पुनरुद्धार कराने तक की पूरी शृंखला है, जो यह बताती है कि राजकाज में हिंदुत्व के हस्तक्षेप की शुरुआत भाजपा ने नहीं की है। यहां तक कि माकपा ने भी पश्चिम बंगाल में अपने तीन दशक से अधिक लंबे शासन में बेहद हिंदू तरीके से राजकाज चलाया और दुर्गापूजा समितियों में कम्युनिस्ट हिस्सेदारी के माध्यम से सांस्कृतिक हस्तक्षेप किया।
हिंदू तुष्टीकरण की शक्ल में भारतीय सेक्युलरवाद का जो प्रयोग कांग्रेस ने लंबे समय तक किया, उसी को भाजपा आगे बढ़ा रही है। भाजपा की शब्दावली में अपेक्षया तीखापन जरूर है, लेकिन इसे भारतीय सेक्युलरवाद का ही थोड़ा चटक रंग माना जा सकता है। कांग्रेस हिंदू वर्चस्ववाद पर अमल कर रही थी और भाजपा भी प्रकारांतर से इसी काम को कर रही है। सेक्युलर हिंदू वर्चस्ववाद के प्रयोग के ये दो मॉडल हैं। इसमें से कांग्रेसी मॉडल की खासियत यह है कि उसने जो शब्दावली और नारे गढ़े हैं, वे मुसलमानों को आहत नहीं करते और इस वजह से उसे मुसलमानों का समर्थन मिलता रहा। हिंदू तुष्टीकरण के साथ कांग्रेस मुसलमानों को दंगों का भय दिखाती रही और सुरक्षा प्रदान करने के नाम पर उनके वोट भी लेती रही। हालांकि उसका यह खेल 1990, और खासकर नरसिंह राव के शासनकाल में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद उत्तर प्रदेश और बिहार में पूरी तरह टूट गया, जहां सामाजिक न्याय की राजनीतिक शक्तियों ने मुसलमानों को गोलबंद कर लिया।
इसके बाद से कांग्रेस को लोकसभा में कभी अपने दम पर बहुमत नहीं मिला। कांग्रेस अब भी हिंदू वर्चस्ववाद और मुसलमानों की गोलबंदी को एक साथ साधने की कोशिश में आड़ा-तिरछा चल रही है और उसे संतुलन का रास्ता मिल नहीं रहा है। भाजपा इस मायने में कांग्रेस से अलग है कि उसके बहुसंख्यक वर्चस्ववादी मॉडल में मुसलमानों के लिए कोई जगह नहीं है। इसलिए मुसलमान वोट खोने का उसे भय भी नहीं है। जाहिर है, भाजपा को सेक्युलरवाद के नारे से कोई भय नहीं लगता। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार तक भाजपा ने फिर भी एक झीना-सा आवरण ओढ़ रखा था, जिसकी वजह से उसका सांप्रदायिक चेहरा धुंधला दिखता था। उस समय लालकृष्ण आडवाणी के बजाय वाजपेयी का प्रधानमंत्री बनना, जॉर्ज फर्नांडीज का राजग का मुखिया होना, विवादास्पद मुद््दों से दूरी बनाए रखना आदि राजनीतिक और रणनीतिक मजबूरी थी। सोलहवीं लोकसभा में 281 सीटों पर बैठी भाजपा की अब ऐसी कोई मजबूरी नहीं है। इन सीटों की जीत के लिए भाजपा को अल्पसंख्यक वोटों का मोहताज नहीं होना पड़ा।
भाजपा ने सोलहवीं लोकसभा के नतीजों से साबित किया है कि सिर्फ हिंदू वोट के एक हिस्से के बूते इस देश में बहुमत की सरकार बन सकती है। इसने पूरी अल्पसंख्यक राजनीति को सिर के बल खड़ा कर दिया है। साथ ही इसने सेक्युलरिज्म के नारे का दम भी निकाल दिया है। सेक्युलरिज्म के नाम पर भाजपा-विरोध की एक बड़ी सीमा यह भी है कि भाजपा को लेकर 1992 के बाद सामने आया सेक्युलरिज्म का ‘मत छुओ वाद’ बहुत ‘सेलेक्टिव’ है। भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में कांग्रेस, कम्युनिस्ट पार्टियों और लालू प्रसाद और मुलायम सिंह यादव को छोड़ दें तो सभी दलों और नेताओं ने किसी न किसी दौर में भाजपा के नेतृत्व में चलना स्वीकार किया है। नीतीश कुमार और शरद यादव कुछ महीने पहले तक भाजपा के साथ राजग में सहजता से मौजूद थे। ओमप्रकाश चौटाला भी भाजपा के साथ राजनीति कर चुके हैं। इसलिए भाजपा-विरोध एक राजनीतिक नारा तो है, लेकिन इसे सेक्युलरवाद का वैचारिक मुलम्मा नहीं चढ़ाया जा सकता।
ऐसे में भाजपा की काट, अल्पसंख्यक वोट और तथाकथित सेक्युलरवाद में देखने वालों के हाथ निराशा के अलावा कुछ भी लगने वाला नहीं है। सारा अल्पसंख्यक वोट एकजुट होकर भी बहुसंख्यक वोट के एक हिस्से से हल्का पड़ सकता है। जाहिर है, भाजपा-विरोध की राजनीति को सफल होने के लिए सेक्युलरवाद से परे किसी और राजनीतिक व्याकरण और समीकरण की जरूरत है। भारत का हिंदू, अगर हिंदू मतदाता बन कर वोट करता है और भाजपा अगर इन मतदाताओं की प्रतिनिधि पार्टी है, तो भाजपा-शासन के लंबे समय तक चलने की संभावना या आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता।
अल्पसंख्यक वोट भाजपा को हराने में कारगर हो सकता है, बशर्ते हिंदू मतदाताओं का एक हिस्सा अन्य पार्टियों से जुड़े। यानी हिंदू मतों के विभाजन के बिना उन राज्यों में गैर-भाजपा राजनीति का कोई भविष्य नहीं है, जहां हिंदू आबादी बहुसंख्यक है। क्या भारतीय राजनीति के किसी पिछले या पुराने मॉडल में गैर-भाजपा राजनीति के सूत्र मिल सकते हैं? इसके लिए हमें 1990 के दौर में जाना होगा। भाजपा के वर्तमान उभार की तरह का ही एक भारी जन-उभार उस दौर में राम जन्मभूमि आंदोलन के पक्ष में हुआ था। ऐसा लग रहा था मानो भाजपा ने राजसूय यज्ञ का घोड़ा छोड़ दिया हो, जो लगातार सूबा-दर-सूबा फतह करता जा रहा हो। लेकिन वह दौर भारतीय राजनीति में सामाजिक न्याय की नई पहल के तौर पर भी जाना जाता है।
राममनोहर लोहिया के गैर-कांग्रेसवाद की राजनीति उत्तर प्रदेश से लेकर बिहार और कई अन्य राज्यों में ओबीसी नेतृत्व को मजबूत कर रही थी। केंद्र सरकार की नौकरियों में ओबीसी आरक्षण लागू किए जाने से भी नई सामाजिक शक्तियों का विस्फोट हो रहा था। यह सारा घटनाक्रम हिंदुओं को सिर्फ हिंदू होकर वोट करने में बाधक साबित हो रहा था।
सन 1992 में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद भाजपा-शासित चार राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाया गया और जब 1993 में वहां दोबारा चुनाव हुए तो भाजपा उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और हिमाचल प्रदेश का चुनाव हार गई और राजस्थान में कांग्रेस से मामूली बढ़त हासिल कर किसी तरह वहां की सरकार बचा पाई।
लेकिन सामाजिक न्याय की राजनीति कालांतर में कमजोर पड़ती चली गई। जमात की राजनीति खास जातियों की राजनीति और बाद में चुने हुए परिवारों की राजनीति बन गई। वंचित जातियों के बीच तरक्की, समृद्धि और शक्तिशाली होने की उम्मीद जगा कर, सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले दल कुछ और ही करने लगे। इस बीच भाजपा ने नरेंद्र मोदी की शक्ल में एक ओबीसी चेहरा सामने लाकर सामाजिक न्याय की कमजोर पड़ी चुकी राजनीति की रही-सही जान भी निकाल दी।
अब सवाल उठता है कि क्या आने वाले विधानसभा चुनावों और अगले लोकसभा चुनाव के लिए गैर-भाजपा दलों के पास कोई रणनीति है? भाजपा अपनी गलतियों से हार जाएगी, यह सोच कर राजनीति नहीं हो सकती। क्योंकि यह बिल्कुल मुमकिन है कि भाजपा ऐसी कोई गलती न करे, या हो सकता है कि अपनी राजनीति को और मजबूत कर ले। मौजूदा समय में गैर-भाजपा खेमे में ऐसी कोई राजनीति होती नजर नहीं आती।
कांग्रेस और बाकी विपक्षी दलों ने विपक्ष का स्थान खाली-सा छोड़ दिया है। भाजपा का थोड़ा-बहुत वैचारिक विपक्ष, भाजपा के मूल संगठन आरएसएस के एक हिस्से से आ रहा है।
विकल्पहीनता की ऐसी स्थिति में भाजपा-विरोधी पार्टियां सामाजिक न्याय की राजनीति में अपनी कामयाबी के सूत्र तलाश सकती हैं। वैसे भी कोई हिंदू, सिर्फ हिंदू नहीं होता। उसकी कोई न कोई जाति-बिरादरी भी होती है। उसकी यह पहचान हिंदू होने की पहचान से कहीं ज्यादा टिकाऊ है, क्योंकि धर्म बदलने से या घर वापसी से भी उसकी यह पहचान नहीं मिटती। शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण का कोटा सख्ती से लागू करने, आरक्षण का प्रतिशत बढ़ा कर तमिलनाडु की तरह उनहत्तर फीसद पर ले जाने, जातिवार जनगणना करा कर सामाजिक न्याय के नारे को विकास-कार्यक्रमों से जोड़ने, भूमि सुधार करने और सबके लिए समान शिक्षा जैसे अधूरे कार्यभार को अपने हाथ में लेकर गैर-भाजपा राजनीति फिर से अपना खोया इकबाल वापस हासिल कर सकती है। भाजपा को इन राजनीतिक कार्यक्रमों के आधार पर घेरना मुमकिन है। ऐसा होते ही भाजपा अपना मूल सवर्ण अभिजन हिंदू वोट बचाए रखने और वंचित जातियों को जोड़ने के दोहरे एजेंडे के द्वंद्व में घिर जाएगी।
वर्तमान समय में, सेक्युलर बनाम गैर-सेक्युलर की राजनीति भाजपा की राजनीति है। हिंदू आबादी को हिंदू मतदाता बनाने के लिए भाजपा को इसकी जरूरत है। गैर-भाजपावाद के सूत्र सेक्युलरिज्म में नहीं हैं। गैर-भाजपावाद के सूत्र, हो सकता है सामाजिक न्याय की राजनीति में हों। कभी सामाजिक न्याय की राजनीति से अपनी छाप छोड़ने वाली पार्टियों और नेताओं को अपनी राजनीति में वापस लौटना चाहिए। मछलियां पानी में लौट कर ही जिंदा रह सकती हैं। सेक्युलरिज्म की सूखी धरती उनके प्राण हर लेगी।