Monday, November 16, 2015

बिहार चुनाव और आर्थिक समीकरण

सत्येन्द्र प्रताप सिंह

दिल्ली से बिहार के बक्सर जिले में अपने मित्र के लिए चुनाव प्रचार करके वापस पहुंचे आलोक कुमार अभी थकान उतार रहे हैं। गांव गिरांव के मतदाताओं ने उन्हें शारीरिक से ज्यादा मानसिक रूप से थका दिया। उनके मित्र भारतीय जनता पार्टी से किस्मत आजमा रहे थे, जो महज 8000 मतों से चुनाव हार चुके हैं।
आलोक बताते हैं कि दिल्ली से समीक्षा करने और स्थानीय स्तर पर लोगों से बात करने में खासा अंतर है। गांव में कहीं गोबध का मसला नहीं था। आरक्षण भी कोई मसला नहीं था। गाय के बारे में लोगों का जवाब यह होता था कि हम लोग तो बूढ़ी गाय को शुरू से ही बेच देते हैं। उसे कौन ले जाता है, क्या करता है, हमें नहीं मालूम। यही हाल आरक्षण का रहा। स्थानीय लोगों ने कहा कि भारतीय जनता पार्टी सत्ता में और मजबूत होती है तब भी आरक्षण नहीं खत्म कर पाएगी। कोई भी राजनीतिक दल इस समय इतना जोखिम नहीं लेगा कि आरक्षण खत्म करने के बारे में विचार करे।
तो आखिर कौन सा मसला रहा, जिसने बिहार में भाजपा की मिट्टी पलीत कर दी। जिस भाजपा और नरेंद्र मोदी को जनता ने एक साल पहले सिर आखों पर बिठाया था, उसे क्यों जमीन से उखाड़ फेंका?
आलोक बताते हैं कि सबसे बड़ा मसला जेब का है। वह गुस्से में कहते हैं कि पब्लिक हरामखोर हो गई है। उन्हें गैस सब्सिडी चाहिए, मनरेगा का पैसा चाहिए, वृद्धावस्था पेंशन, बेसहारा पेंशन चाहिए। कुल मिलाकर इतने पैसे जेब में आने जरूरी हैं कि लोग आराम से अपने घर का खर्च चला सकें। केंद्र सरकार ने इसमें कटौती कर दी। गांवों में धन आना बंद हो गया। कांग्रेस के समय में आखिरी दो साल तक लोग महंगाई से तबाह थे, जिसके चलते सरकार को उखाड़ फेंका था। नई सरकार से भी उन्हें इस मोर्चे पर कोई राहत नहीं मिल सकी
लोगों की सही आर्थिक स्थिति और जेब की हालत के बारे में सबसे बड़ा पैमाना जेब का होता है। अभी हाल में दीपावली और दशहरा में एफएमसीजी कंपनियों के बिक्री के आंकड़े यही कह रहे हैं कि कस्बों और गांवों में स्थिति खराब रही। बड़े शहरों में जहां कंपनियों ने जबरदस्त बिक्री की, वहीं छोटे शहरों और कस्बाई इलाकों में उन्हें निराशा हाथ लगी।
गैस सब्सिडी खाते में भेजने की मार भी भाजपा को झेलनी पड़ी है। भले ही इसे कांग्रेस ने शुरू किया था, लेकिन इसके दुष्प्रभाव भाजपा के शासन में व्यापक तौर पर नजर आया। जनता सवाल पूछ रही है कि ज्यादा गैस लेकर हम क्या करेंगे, गैस आखिर में पीना नहीं है कि सस्ती मिली तो दो गिलास ज्यादा पी ली। पहले से कांग्रेस सरकार में महंगाई ने तबाह कर रखा था, अब और कचूमर निकल गई। खाते में पैसे आने से क्या होता है? वह कब आ रहा है, कितना आ रहा है, पता ही नहीं चलता। यह पूछे जाने पर कि दुकानदार सब्सिडी वाली रसोई गैस का इस्तेमाल करते थे, वह दुरुपयोग रुक गया। इसके जवाब में स्थानीय लोग कहते हैं कि चाय बनाने वाला उसका इस्तेमाल करता था तो वह चाय समोसे थोड़ा सस्ता देता था, उसने भी उसी अनुपात में दाम बढ़ा दिया, हमें क्या फायदा मिल गया इससे?
मामला यहीं तक नहीं है। केंद्र सरकार से लोगों की उम्मीदें भी बहुत ज्यादा हैं। उन्हें रोजी रोजगार की चाह है। उन्हें वेतन बढ़ने की उम्मीद है। ग्रामीण लोगों का कहना है कि खाते खुल गए, लेकिन उसमें पैसे कहां हैं? सस्ता बीमा तो ठीक है, लेकिन उसके लिए जान दे दें क्या? काला धन कहां है? बिहारी मतदाताओं के अजीब अजीब सवाल हैं। आपके हर जवाब पर उनका सवाल खड़ा मिला।
चुनाव के दौरान बिहार में सक्रिय रहे समाजसेवी राकेश कुमार सिंह कहते हैं कि प्रधानमंत्री के भाषण इस समय बिहार के मतदाताओं को चिढ़ाते हुए नजर आए। उन्हें नरेंद्र मोदी के वादे जुमला और जोकरई लग रहे थे। सिंह कहते हैं कि मोदी का भाषण सुनकर तमाम लोगों ने मतदान का मन बदला। उन्हें लगा कि यह व्यक्ति तो सिर्फ कांग्रेस या पहले से सत्तासीन दलों को गालियां दे रहा है! कोई नई योजना नहीं है। डेढ़ साल में कुछ भी नहीं मिल सका। वही पुराना भाषण, वही पुराने वादे। उसके साथ लफ्फाजी और पूर्व नेताओं को गालियां देने की धार और बढ़ी है। सिंह कहते हैं कि इसने लोगों को अच्छा खासा चिढ़ाया है।
बिहार में डेढ़ दशक से पत्रकारिता में सक्रिय आशीष झा भी कुछ ऐसा ही कहते हैं। झा का कहना है कि महिलाओं ने इस बार दाल और तेल का हिसाब सरकार से ले लिया। वह बताते हैं कि तमाम ऐसे परिवार हैं, जिनके सब्सिडी वाले गैस सिलेंडर कैंसिल हो गए। उन्हें पूरे दाम पर गैस खरीदनी पड़ रही है। उनकी कोई सुनवाई नहीं है। एजेंसी से लेकर जिला पूर्ति कार्यालय तक चक्कर लगा रहे हैं, लेकिन निरस्त हो गया तो फिर सब्सिडी से बाहर। उनका कहना है कि पैसे न आने से परिवारों में रोजमर्रा का खर्च चलाने को लेकर तनाव बढ़ा है। परिवारों में रोज झगड़े हो रहे हैं। जब महिलाएं मतदान करने निकलीं तो लोग इस बात को समझ भी न पाए कि यह थोक वोट किसके पक्ष में जा रहा है और किसके खिलाफ। जब परिणाम आया तो यह साफ हो गया कि बिहार में महिला मतदाता एक अलग जाति बन चुकी है। आने वाले चुनावों में शायद महिलाओं को लेकर राजनीतिक दलों को गंभीर और महिला केंद्रित रणनीति बनाने की जरूरत पड़ सकती है।
आलोक कहते हैं कि लोग नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी के कामों की तुलना करते नजर आए। ग्रामीण सवाल पूछते नजर आए कि आखिर डेढ़ साल में मोदी सरकार ने ऐसा क्या कर दिया, जिसके चलते उन्हें वोट दे दिया जाए। वहीं नीतीश कुमार का काम भारी पड़ रहा था, चाहे वह सड़कों का निर्माण हो, या लड़कियों को साइकिल देना।
आखिर प्रधानमंत्री की रैली में लाख लोगों तक जुटने वाली भीड़ मतों में तब्दील क्यों नहीं हो पाई? बिहार चुनाव प्रचार में सक्रिय लोगों ने भीड़ की गणित भी बताई। पार्टी भीड़ जुटाने वाले ठेकेदार लोगों को प्रति व्यक्ति 500 रुपये देती थी। इसमें से भेजने वाला व्यक्ति 300 रुपये में अपना मुनाफा, वाहन पर आने वाला व्यय और दिन भर के खाने और नाश्ते का व्यय निकालता था। भाषण सुनने जाने वाले व्यक्ति को 200 रुपये नकद मिलते थे। इसके अलावा भाषण के दौरान नजदीक के पेड़ों पर चढ़ जाने, खंभों पर चढ़ जाने वालों को 50 रुपये अतिरिक्त दिए जाते थे। इस तरह लोग सपरिवार शहर घूमने के लिए निकल जाते थे। कहीं कहीं ग्रामीण लोग इतनी शर्त रख देते थे कि ले जाने वाली गाड़ी शाम को निकले, जिससे लोग बाजार में खरीदारी जैसे काम आराम से निपटा सकें।
कुल मिलाकर देखें तो बिहार के चुनाव परिणाम ने स्पष्ट किया है कि अगर सरकार ने जेब पर हमला किया तो उसे कहीं से कोई ढील नहीं मिलने वाली है। भावनात्मक मसलों, जातीय मसलों का दौर खत्म हो रहा है। गांवों से लेकर शहरों तक मतदाता अपना हित बहुत गंभीरता से देख रहा है। सरकार को भी अब दिखावे से आगे बढ़कर काम करना होगा। मतदाताओं को जीडीपी में बढ़ोतरी ज्यादा समझ में नहीं आती, उन्हें अपनी रोजी रोटी और रोजगार ज्यादा समझ में आ रहा है कि उसमें किस तरह से बेहतरी आए।


Friday, November 13, 2015

असहिष्णुता का भ्रमजाल



सत्येन्द्र पीएस

भारत की भूमि पर न सही, ब्रिटेन जाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कह ही दिया कि असहिष्णुता किसी भी स्थिति में स्वीकार्य नहीं है। बुद्ध और गांधी की धरती पर छोटी से छोटी घटना पर कड़ी कार्रवाई की जाएगी।
असहिष्णुता या इन्टालरेंस शब्द भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का प्रिय शब्द रहा है। जहां तक मुझे याद आता है, विपक्ष में रहते हुए वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी और मौजूदा गृहमंत्री राजनाथ सिंह इस शब्द का भरपूर इस्तेमाल करते थे। जब भी देश में कोई आतंकवादी वारदात होती थी या नक्सली हमला होता था, ये नेता अक्सर इस शब्द का इस्तेमाल करते थे कि भारत को जीरो टालरेंस की पॉलिसी अपनानी होगी। साथ ही हिंदी में सहिष्णुता शब्द का इस्तेमाल आरएसएस से जुड़े संत सन्यासी खूब इस्तेमाल करते रहे हैं। मौका बेमौका दोहराते रहे हैं कि हिंदू समाज कब तक सहिष्णु बना रहेगा, कब तक अपने धर्म पर हमले बर्दाश्त करेगा।
भाजपा के सत्ता में आने के बाद इस इन्टालरेंस ने व्यापक रूप ले लिया। आतंकवादियों के मामले में सरकार सफल हुई हो या नहीं, सरकार ने अपने विरोधियों को कुचलने के लिए इसका खूब इस्तेमाल किया। लोकसभा चुनाव के पहले जहां नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पार्टी के भीतर उग्र होकर इन्टालरेंस दिखाते हुए सभी बुजुर्ग नेताओं की असहमतियों और उनके सुझावों को दरकिनार कर उन्हें बेकार साबित कर दिया, वहीं इनके समर्थकों ने सोशल मीडिया पर सक्रियता दिखाते हुए विरोधियों को भला बुरा कहने, गालियां और धमकियां देने का रिकॉर्ड बनाया। चुनाव पूर्व के सोशल वेबसाइट्स पर गौर करें तो देश के बड़े नेताओं को जमकर गालियां दी गईं। उन पर व्यक्तिगत आरोप लगाए गए। बड़े बड़े नेताओं के विकृत फोटो, उनके बारे में तमाम ऊल-जुलूल बातें लिखी जाने लगीं। ये हमले इतने तेज थे कि ऐसा लगता है कि पूरी टीम लगी हुई थी, जो सक्रिय होकर इस काम को अंजाम दे रही हो।
भाजपा के नए युग में कमान संभाले लोगों ने विपक्ष के वरिष्ठ नेताओं को भरपूर निशाना बनाया। खासकर वे नेता इस अभियान के ज्यादा शिकार बने, जो सोशल मीडिया पर खासे सक्रिय थे। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह का उदाहरण अहम है, जिनके ट्विटर और फेसबुक हैंडल पर सबसे ज्यादा गालियां दी गईं। इतना ही नहीं, समाचार माध्यमों/अखबारों की जिन वेबसाइट्स पर सबसे ज्यादा हिट्स आती हैं, यानी जो सर्वाधिक पढ़ी जाने वाली वेबसाइट्स हैं, उन पर अगर भाजपा विरोधी खबर आती थी, उस पर भाजपा की यह टीम पूरी ताकत के साथ टूट पड़ती थी। विरोध एवं गालियों की पूरी सिरीज चल पड़ती थी। इन अभियानों का पूरा लाभ भाजपा को मिला और लोकसभा चुनाव बाद पूर्ण बहुमत से सत्ता में आ गई।
असहिष्णुता के इस माहौल को भाजपा के दल ने सत्ता में आने के बाद भी बनाए रखा। चुनाव के दौरान ऊल जुलूल बयान देने वाले गिरिराज सिंह, साध्वी निरंजन ज्योति जैसे लोग जहां मंत्रिमंडल में शामिल किए गए, वहीं अन्य तमाम छुटभैये नेताओं को भी भरपूर बढ़ावा दिया गया कि वे गाली गलौज वाले तरीके से किसी भी विरोध को निपटाएं और समाज में इस कदर भय फैलाएं, जिससे विरोध में कोई आवाज न उठने पाए।
भाजपा के इस रवैये के शिकार लेखक तबका बना। स्वतंत्र रूप से लेखन का कार्य करने वाले और सोशल मीडिया पर सक्रिय लोगों को गालियां और धमकियां दिए जाने की घटनाएं आम हो गईं। बीच बीच में किसी बड़ी घटना पर सरकार में बैठे मंत्री बूस्टर डोज भी देते रहे। चाहे वह नोएडा के अखलाक की हत्या के बाद केंद्रीय मंत्री महेश शर्मा का बयान हो, जिन्होंने कहा कि गलतफहमी में दुर्घटना हो गई, या फरीदाबाद में दलित परिवार के जलने की घटना, जिसमें केंद्रीय मंत्री वीके सिंह ने कहा कि किसी कुत्ते को अगर कोई ढेला मार दे तो उस पर प्रधानमंत्री बयान नहीं देंगे।
इन सब घटनाओं और इसे लेकर सरकार के रवैये से समाज में एक ऐसे तबके की संख्या बढ़ती गई, जो स्वतः स्फूर्त सोशल साइट्स या कोई हिंदू समूह बनाकर लोगों को धमकियां देने, नारेबाजी करने या बयान देने का काम करने लगा। उस तबके को यह भरोसा हो चला कि उनके इस असंवैधानिक, अमानवीय, असंवेदनशील कार्य को सरकार का समर्थन है। इतना ही नहीं, अगर चर्चा में बने रहा जाए तो सरकार उसे पुरस्कृत भी कर सकती है।
इस असहिष्णुता के विरोध में जब हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार उदय प्रकाश ने बगावत की और साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा दिया तो साहित्य जगत की ओर से पुरस्कार वापस करने वालों की पूरी सिरीज ही बन गई। नयनतारा सहगल से लेकर अशोक वाजपेयी और तमाम नाम सामने आए और दर्जनों लेखकों, साहित्यकारों ने पुरस्कार वापस किए।
आखिरकार भारत के राष्ट्रपति को बयान देना पड़ा। प्रणव मुखर्जी ने कहा कि भारत में असहिष्णुता बढ़ रही है, जो भारतीय संस्कृति के विपरीत है। बिहार चुनाव के दबाव में प्रधानमंत्री ने नोएडा के अखलाक की हत्या पर तो कुछ नहीं बोला, लेकिन चुनावी रैली में इतना जरूर कहा कि राष्ट्रपति महोदय ने जो कहा, वह ठीक है।
लेकिन सरकार ने साहित्य जगत से बातचीत की कोई कवायद नहीं की। किसी ने उदय प्रकाश या किसी साहित्यकार से संपर्क नहीं किया कि आखिर उन्हें समस्या क्या है। संपर्क करके समस्या जानना तो दूर, सरकार ने इतना कहने की भी जहमत नहीं उठाई कि साहित्य जगत से जुड़े विद्वान पुरस्कार लौटाने जैसे कदम न उठाएं, केंद्र सरकार राज्यों को एडवाइजरी जारी कर रही है कि ऐसी घटनाओं से सख्ती से निपटा जाए। प्रधानमंत्री के खास माने जाने वाले और वित्त मंत्री अरुण जेटली ने बयान दिया कि कोई असहिष्णुता नहीं है, जो भी साहित्यकार अपने सम्मान वापस कर रहे हैं, वे अलग विचारधारा वाले हैं और सरकार का महज विरोध करने के लिए इस तरह के कदम उठा रहे हैं।
दिलचस्प है कि राष्ट्रपति से लेकर तमाम गणमान्य लोगों ने असहिष्णुता बढ़ने की बात कही। लेकिन जैसे ही फिल्म कलाकार शाहरुख खान ने समाज में असहिष्णुता बढ़ने की बात कही, उन्हें विदेशी एजेंट घोषित कर दिया गया। जिम्मेदार पदों पर बैठे भाजपा नेताओं ने उन्हें पाकिस्तान भेजे जाने की धमकी/सलाह दे डाली। सरकार इस तरह की धमकियों पर खामोश बैठी रही।
अब प्रधानमंत्री के ब्रिटेन में दिए गए बयान पर आते हैं। मोदी देश के पहले प्रधानमंत्री बन गए हैं, जिनकी बात पर विश्वास करने के पहले कई बार सोचना पड़ता है कि वह क्या कह रहे हैं। क्यों कह रहे हैं। उसके निहितार्थ क्या हैं। निहितार्थ हैं भी या यूं ही बात कही जा रही है। उन्होंने किन बातों पर कहा है कि असहिष्णुता बर्दाश्त नहीं की जा सकती। छोटी से छोटी घटनाओं पर भी नजर रखी जाएगी?
हाल में बिहार में भाजपा बुरी तरह चुनाव हारी है। इसके चलते पार्टी के भीतर घमासान शुरू हो गई है। परोक्ष रूप से चुनाव पूर्व मोदी द्वारा मुसलमानों को कुत्ते का पिल्ला, सत्ता में आने के बाद जनरल वीके सिंह द्वारा दलितों को कुत्ता कहने का क्रम बिहार में हार के बाद भाजपा नेताओं ने एक दूसरे को कुत्ता कहना शुरू कर दिया। पार्टी महासचिव कैलाश विजयवर्गीय और वरिष्ठ नेता शत्रुघ्न सिन्हा के बयान इसकी बानगी है। साथ ही पार्टी के वरिष्ठ नेताओं लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, यशवंत सिन्हा और शांता कुमार ने बाकायदा बयान जारी करके भाजपा के मौजूदा प्रभावी लोगों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया।
संदेह होता है कि अखलाक, कलबुर्गी की हत्याओं या उदय प्रकाश के दर्द का एहसास करते हुए मोदी ने ब्रिटेन में बयान दिया है या कोई और वजह है? प्रधानमंत्री और उनके खास माने जाने वाले भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के खिलाफ पार्टी के भीतर विरोध तेजी से उभरकर सामने आ रहा है। कहीं ऐसा तो नहीं कि मोदी अपने ही दल के वरिष्ठ नेताओं की इस असहिष्णुता के खिलाफ कार्रवाई का मन बना रहे हैं और उनके असहिष्णु बयानों के चलते इन्हें जेल में ठूंस देने की तैयारी में हैं!