Friday, April 10, 2015

जमीन की लूट में हाशिये पर आदिवासी

सत्येन्द्र
केंद्र सरकार ने भूमि अधिग्रहण विधेयक पेश किया है। इसे वह किसान हितैषी भी बता रही है। इस पर विपक्ष राजी नहीं है। उसका कहना है कि विधेयक किसान विरोधी है। दिलचस्प है कि हाशिये पर रहे आदिवासियों की चर्चा कहीं नहीं हो रही है। न तो सरकार इन आदिवासियों की बात कर रही है और न ही विपक्ष। वहीं असल लड़ाई आदिवासियों की है, जिनसे जमीन लेकर खनन किया जाना है। कोयला, लौह अयस्क व अन्य प्राकृतिक खनिजों के लिए आदिवासी क्षेत्रों की जमीनों की जरूरत सरकार व उद्योग जगत को है।
दरअसल असली लड़ाई आदिवासियों की जमीन छीनने को लेकर ही है। खेती वाली भूमि के अधिग्रहण की जरूरत कम है। जहां अधिग्रहण होता भी है, शहरी इलाकों के नजदीक के किसानों को मुआवजा दे दिया जाता है। लेकिन इस अधिनियम में आदिवासियों की स्थिति क्या है, यह सवाल बहुत महत्त्वपूर्ण है। खासकर ऐसी स्थिति में सवाल और भी महत्त्वपूर्ण है, जब छत्तीसगढ़, ओडिशा, झारखंड से लेकर देश का एक बड़ा हिस्सा कथित लाल गलियारे में तब्दील हो चुका है। कथित नक्सलियों और भारत सरकार के सैन्य बलों के बीच खूनी संघर्ष हो रहे हैं।
खुद को किसान हितैषी बताने वाली केंद्र सरकार ने विश्वबैंक से कहा है कि वह बैंक द्वारा वित्त पोषित परियोजनाओं से विस्थापित होने वाले आदिवासियों से पूर्व सहमति लेने, उन्हें स्वतंत्र रूप से राय देने और परियोजना के बारे में उनको पूरी जानकारी दिए जाने संबंधी अनिवार्यता को लेकर 'सहज' नहीं है। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार की ओर से बैंक को दी गई यह प्रस्तुतीकरण ऐसे समय में आई है, जब सरकार आदिवासियों के परंपरागत वन क्षेत्र को उद्योगों को सौंपे जाने को लेकर आदिवासियों से सहमति लिए जाने की जरूरत खत्म करने पर काम कर रही है।
इसके पीछे राजग सरकार ने विश्व बैंक के सामने तर्क दिया है कि भारत के घरेलू कानून और नियम हैं, जो आदिवासियों के हितों की रक्षा करते हैं, जिसमें 'कुछ मामलों में' सहमति लेने का अधिकार भी शामिल है। साथ ही बैंक अपनी शर्तें रखने के बजाय घरेलू कानून पर भी गौर कर सकता है। लेकिन अगर घरेलू स्थिति देखें तो राजग सरकार तमाम कार्यकारी आदेश पारित कर रही है, जिससे ज्यादातर मामलों में आदिवासियों को अपनी वनभूमि की रक्षा करने के लिए वीटो पावर से वंचित होना पड़ेगा। वर्तमान में वन अधिकार अधिनियम के तहत जब उद्योगों को या विकास परियोजनाओं के लिए आदिवासियों की परंपरागत वन भूमि लेनी होती है तो सरकार को ग्राम सभाओं से अनुमति लेनी होती है। जून 2014 से सरकार इन प्रावधानों को नरम करने पर काम कर रही है। हालांकि आदिवासी मामलों का मंत्रालय इसका पुरजोर विरोध कर रहा है।
सरकार ने जो मौजूदा भूमि अध्यादेश पेश किया है उसमें आदिवासियों की गैर वन्य भूमि के मामले में सहमति की जरूरत सिर्फ खंड 5 और 6 क्षेत्रों तक सीमित है और इसका विस्तार देश के सभी आदिवासी भूमि तक नहीं है। सरकार यह बदलाव इन दावों के साथ कर रही है कि अंग्रेजों का बनाया गया कानून शोषण युक्त है। वह बूढ़ा हो चुका है। उसमें बदलाव की जरूरत है, जिससे भारत विकास के पथ पर चल सके। आखिर इन तर्कों की हकीकत क्या है, जिन्हें तथ्यों के आधार पर परखना होगा। आदिवासियों ने जमीन पर कब्जे को लेकर अंग्रेजों से मोर्चा लिया है। यूं कहें कि आम राजे महराजों की सरकारें तो अंग्रेजों से अपना राजपाठ गंवाती गईं, लेकिन आदिवासियों ने कुछ इस कदर मोर्चा संभाला कि अंग्रेज हुकूमत को वन क्षेत्र और भारत के खनिज संसाधन करीब करीब छोड़ने पड़े। उन्हें आदिवासी विद्रोहियों से जगह जगह समझौते करने पड़े। उनकी सहमति के बगैर वन्य क्षेत्र में प्रवेश कानूनन निषेध हो गया। उस समय जब बंगाल विधान परिषद में चर्चा हुई, उसमें न केवल आदिवासियों, बल्कि किसानों के हितों की भी व्यापक चर्चा हुई, जिसके बाद 1894 का भूमि कानून आया था। उस कानून की मजबूती ही कहेंगे कि स्वतंत्रता के बाद भी उस कानून में बहुत मामूली फेरबदल किए जा सके, वर्ना कानून की स्थिति यथावत है।
केंद्र सरकार भूमि अधिग्रहण विधेयक पर अड़ी है। कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार भी आदिवासी इलाकों में जमीन अधिग्रहण को लेकर अड़ी थी। लाल गलियारे की तमाम परियोजनाएं ठहर सी गईं। सरकार के लिए उन क्षेत्रों में घुसना मुश्किल हो गया। लेकिन मौजूदा सरकार इस कदर विधेयक को लेकर प्रतिबद्ध है कि उसे संविधान की धज्जियां उड़ाने में भी कोई गुरेज नहीं है। संविधान में प्रावधान है कि संसद के दोनों सदन चल रहे हों, उस समय अध्यादेश नहीं लाया जा सकता। 5 अप्रैल को भूमि अध्यादेश की अवधि खत्म हो रही थी, और राज्यसभा में विधेयक पारित नहीं हुआ था। संसद के दोनों सदन भी चल रहे थे। ऐसे में सरकार अध्यादेश नहीं ला सकती थी। इस बाधा को हटाने के लिए सरकार ने राज्यसभा का सत्रावसान कर दिया, जिससे फिर से अध्यादेश लाया जा सके। यह खुले तौर पर संविधान की धज्जियां उड़ाने जैसा है, क्योंकि संविधान की मंशा यह थी कि अध्यादेश केवल आपात स्थिति में लाया जाए, अन्यथा संसद में चर्चा के बाद ही कानून बनाया जाना चाहिए।
आखिरकार केंद्र सरकार अध्यादेश ले आई। यह समझना मुश्किल है कि अध्यादेश क्यों लाया गया है। इसमें वह 6 बदलाव भी शामिल किए गए हैं, जो केंद्र सरकार ने लोकसभा में भूमि अधिग्रहण विधेयक पेश करते समय किए थे। इसमें आदिवासियों का कोई जिक्र नहीं है। कुछ लुभावने मसलों पर रंगरोगन कर दिया गया है, जिन पर विपक्षी दल सरकार को घेर रहे थे।
सरकार का एक तर्क यह भी है कि भूमि अधिग्रहण न हो पाने के कारण तमाम बुनियादी ढांचा परियोजनाएं ठप पड़ी हैं, क्योंकि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के जनवरी 2014 में लाए गए भूमि अधिग्रहण कानून के चलते अधिग्रहण में दिक्कतें हो रही हैं। हालांकि उद्योग जगत के सर्वे की ही बात करें तो स्थिति कुछ और ही बयान कर रही है। आंकड़े बताते हैं कि भूमि अधिग्रहण न होने की वजह से बहुत मामूली परियोजनाएं फंसी हैं, जबकि ज्यादातर परियोजनाएं भूमि अधिग्रहण से इतर दिक्कतों, जैसे पर्यावरण की मंजूरी न मिलने, वैश्विक मंदी के चलते धन न मिलने आदि जैसी वजहों से फंसी हैं।
भारत सरकार खुद तो आदिवासियों के अधिकार छीनने पर तुली ही है, विदेश से उद्योग को मिलने वाली फंडिंग के मामले में भी वह आदिवासियों की उपेक्षा करने को तैयार है। वह विश्व बैंक की शर्तों में भी फेरबदल चाहती है। एमनेस्टी इंडिया की बिजनेस और मानवाधिकार शोधकर्ता अरुणा चंद्रशेखर कहती हैं, 'इससे यह पता चलता है कि सरकार अपने नागरिकोंं की बात सुनने को भी इच्छुक नहीं है। यह चिंता का विषय है कि सरकार फैसले से आदिवासियों की जमीन और उनके संसाधनों पर असर पड़ रहा है और ऐसे मामले में सरकार उनसे सहमति नहीं लेना चाहती।'
अपने ही नागरियों के एक तबके के प्रति सरकार का यह रुख काफी खतरनाक है। विकास के नाम पर सरकार यह कर रही है। दिलचस्प है कि सरकार के इस फैसले से सिर्फ और सिर्फ उन आदिवासियों पर असर पड़ने जा रहा है जो इस समय वन्य क्षेत्रों में रहते हैं। स्वतंत्रता के बाद किसान जो जमीन जोतता था, वह उसके नाम कर दी गई। उसे उस जमीन को बेचने, खरीदने का हक मिल गया। वह राजा, अंग्रेज सरकार या जमींदार को लगान देने की बजाय अपनी चुनी सरकार को लगान देने लगा। वहीं स्वतंत्रता के बाद भी वन क्षेत्र में रहने वाले लोगों के नाम वे वन नहीं किए गए। अंग्रेजों ने उन्हें कुछ हक दिए थे कि वन से जब उन्हें हटाया जाए तो उनसे सहमति ली जाए। तमाम वन कानून उन्हें त्रस्त करते रहते हैं और प्रशासन उन्हें वनोत्पाद लेने से भी रोकते हैं। अब सरकार की मंशा कहीं और ज्यादा खतरनाक हो रही है।