Tuesday, September 13, 2016

आखिर कौन लोग हैं जो यह प्रचारित कर रहे हैं कि दलितों के असल शोषक पिछड़े वर्ग के लोग हैं ?


सत्येन्द्र पीएस

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में स्टूडेंट यूनियन चुनाव के बाद एक चर्चा जोरों पर है। बापसा (बिरसा अंबेडकर, फुले स्टूडेंट एसोसिएशन) दलित आदिवासी और मुस्लिम का संगठन है। बापसा को आरएसएस ने खड़ा किया, जिससे वाम दलों के वोट काटे जा सकें। बापसा उग्र वामपंथियों का संगठन है, खासकर इसके पीछे माओवादियों का वह तबका खड़ा है जो संविधान और मौजूदा भारतीय प्रणाली में विश्वास नहीं रखता।
बापसा, बापसा, बापसा। कुल मिलाकर बापसा चर्चा में है।
बहरहाल... नवोदित विद्यार्थी संगठन ने दलित-पिछड़े का मसला भी छेड़ दिया है। जेएनयू में चर्चा रही कि इस संगठन से पिछड़ा वर्ग बाहर है। कैंपस में यह भी चर्चा रही कि बापसा पिछड़ों को ही दलितों का सबसे बड़ा शोषक मानती है।

हालांकि दलित शब्द भ्रामक और असंवैधानिक है। इसकी अलग अलग व्याख्याएं की जा सकती हैं। लेकिन अगर समाज में कहीं भी दलित कहा जाए तो उसका मतलब अनुसूचित जातियों से ही होता है। कुछ मामलों में अनुसूचित जनजातियों को भी दलित कहा जाता है। कम से कम उत्तर भारत के किसी भी राज्य में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) अपने को दलित नहीं मानता।
मुझे याद है कि 1991 में विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार द्वारा मंडल आयोग की सिफारिशें स्वीकार किए जाने के बाद जब मंडल विरोधी आंदोलन चला तो इसमें आधे से ज्यादा छात्र पिछड़े वर्ग के हुआ करते थे। एक सामान्य धारणा थी कि विपिया ने हमारा सब कुछ छीन लिया और अब चमार सियार ही नौकरी पाएंगे। यह अपर कास्ट ही नहीं, उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर ओबीसी स्टूडेंट्स कहते थे।
धीरे-धीरे मामला साफ हुआ। उच्च जाति, खासकर जोर शोर से क्षत्रिय बनने की कवायद में लगी हजारों की संख्या में जातियों ने एक हद तक खुद को ओबीसी मान लिया।
हालांकि ओबीसी में वर्ग चेतना आज भी नहीं है। ओबीसी राजनीति जाति चेतना तक ही सिमटी रही। राज्य स्तर पर दबंग ओबीसी जातियां अपनी जाति को एकीकृत कर और तमाम अन्य पिछड़ी जातियों के नेताओं का क्लस्टर बनाकर, मुस्लिम समुदाय का वोट खींचकर सत्ता में आती और जाती रहीं। खासकर उत्तर प्रदेश और बिहार का समीकरण तो कुछ ऐसा ही रहा। मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के करीब 25 साल बाद भी अभी ओबीसी वर्ग नहीं बन सका, जिसका वर्ग हित हो। हालांकि यह वर्ग बनने की प्रक्रिया में है।

अन्य पिछड़े वर्ग की सोच सामंती है और यह तबका कथित उच्च वर्ण से भी ज्यादा दलितों का शोषण करता है, यह चर्चा बापसा तक ही सीमित नहीं है। उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव के पहले सोशल मीडिया पर जबरदस्त चर्चा है कि पिछड़ा वर्ग ही दलितों का दुश्मन नंबर वन है।

इतना ही नहीं, बसपा छोड़कर बाहर जाने वाले नेताओं ने यह दावा किया कि बसपा अब दलित-ब्राह्मण-मुस्लिम समीकरण पर चल रही है। उसे न तो बसपा से टिकट मिलने की संभावना है, न सम्मान। सोशल मीडिया पर सक्रिय दलित युवा और लेखक भी यह पूरे जोश के साथ लिखते हैं कि ब्राह्मणवाद का असल वाहक या कहें कि रीढ़ पिछड़ा वर्ग है।
यह अपने आप में भ्रामक और खतरनाक प्रवृत्ति लगती है, जब यह प्रचारित किया जा रहा है कि दलितों के असल शोषक पिछड़े ही हैं।
वहीं दलित वर्ग का एक तबका (कुछ को यह कहने में आपत्ति होती है और वह खुद को बहुजन विचारक कहना पसंद करते हैं, हालांकि उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी ही अब सर्वजन के नारे के साथ आगे बढ़ रही है) इसे पूरे उत्साह के साथ कह रहा है कि सवर्ण से ज्यादा दलितों का शोषण ओबीसी करता है।
आइए दलित पिछड़े तबके के स्वतंत्रता के बाद की राजनीति को खंगाल लेते हैं। मंडल आयोग लागू होने के बाद ओबीसी में जो भी जातियां शामिल की गई हैं, वे ज्यादातर कांग्रेस के खिलाफ रही हैं। चाहे वह जेपी आंदोलन हो या वीपी आंदोलन या मोदी आंदोलन। जब जब कांग्रेस सत्ता से बाहर हुई है, किसी न किसी बहाने ओबीसी में शामिल जातियां एकत्र हुईं, उसके बाद कांग्रेस परास्त हुई। यह अलग बात है कि ओबीसी तबका कभी यूनिटी नहीं बना पाया और वह वर्ग के रूप में कभी एकत्र नहीं हुआ। ध्यान देने वाली बात यह है कि भाजपा के अस्तित्व में आने के पहले भी ओबीसी जातियां कांग्रेस के खिलाफ रही हैं। वहीं यह खुली सी बात है कि अब तक कांग्रेस ने ब्राह्मणवादी राजनीति की है। स्वतंत्रता के पूर्व तो अंग्रेज मान चुके थे और तमाम इतिहासकारों ने लिखा भी कि कांग्रेस हिंदुओं की पार्टी है और मुस्लिम लीग मुसलमानों की। हां, कांग्रेस के हिंदू कौन लोग थे, यह उनके नेतृत्व करने वाले तबके को देखकर समझा जा सकता है।
डॉ भीमराव आंबेडकर कांग्रेस को पूरी तरह ब्राह्मणवादी और जातिवाद का पोषक मानते थे। जाति व्यवस्था, हिंदुत्व आदि को श्रेष्ठ बताने के चलते उन्होंने तमाम लेखों में मोहनदास करमचंद गांधी की खिंचाई की है।
साथ ही आर्य समाज के पुरोधाओं के साथ आंबेडकर के पत्र व्यवहार भी पठनीय हैं, जो दलितों और पिछड़ों के शोषण को लेकर एक नजरिया पेश करते हैं।
आज की स्थिति पर गौर करें तो अनुसूचित जनजाति भी एक वर्ग के रूप में संगठित नहीं हो पाया है। हालांकि अगर उत्तर प्रदेश व बिहार को छोड़ दें तो राजस्थान, मध्य प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, गुजरात, उत्तराखंड सहित तमाम राज्यों में, जहां कांग्रेस सत्ता पक्ष या विपक्ष में है, वहां अनुसूचित जाति या कहें कि दलित मतदाता कांग्रेस के साथ है। वही कांग्रेस, जिसे आंबेडकर से लेकर बड़े बड़े दलित चिंतकों ने सवर्णो की, ब्राह्मणों की पार्टी करार दिया था।
कांशीराम ने दलित पिछड़ा पसमांदा को एकजुट करने के लिए बुद्ध से शब्द और विचार उधार लिया और "बहुजन" शब्द को स्थापित किया। कांशीराम के बहुजन की बात होती है तो उसमें अलग से बताने की जरूरत नहीं रहती कि किनकी की जा रही है।
कांशीराम ने जेनयू में कहा था, ‘दलित शब्द भिखारी का प्रतीक है, मैंने अपने समाज को जोड़ने के लिए, उसको मांगने वाला से देने वाला बनाने के लिए तो बहुजन शब्द इस्तेमाल किया और आप लोग फिर से दलित पिछड़ा को अलग अलग करने की ब्राह्मणवादी परियोजना का हिस्सा बन गए।’ इस तरह से कांशीराम ने दलित-बहुजन शब्द का इस्तेमाल करने वाले लोगों को कड़ा जवाब दिया था और साफ किया था कि बहुजन की परिभाषा में देश की 85 प्रतिशत आबादी आ जाती है, चाहे वह किसी धर्म से जुड़ा हुआ हो।

वहीं बापसा या अन्य तमाम संगठनों के दलित का कंसेप्ट साफ नहीं है। कम से कम पिछड़ा वर्ग अपने को न तो दलित समझता है और न वह दलित है। और आज की राजनीति की हकीकत यह है कि जब तक कांशीराम वाला बहुजन (मायावती का सर्वजन नहीं) एक साथ नहीं आता है, तब तक वंचित तबके की मजबूती नहीं होने वाली है।

भारतीय जनता पार्टी के सत्ता में आने, उसके प्रति पिछड़े वर्ग का प्रेम सर्वविदित है। हालांकि केंद्र सरकार के ढाई साल के कार्यकाल के दौरान खासकर पिछड़े वर्ग में सरकार के प्रति मोहभंग साफ नजर आ रहा है। किसान और निम्न मध्यम वर्ग पर तगड़ी मार पड़ी है। चाहे रेल भाड़ा बढ़ने का मामला हो, अनाज के न्यूनतम समर्थन मूल्य, गन्ने का उचित एवं लाभकारी मूल्य न बढ़ने का मामला हो, मार इसी तबके पर पड़ रही है। किसानों के खेत में जब प्याज होती है तो वह आज एक रुपये किलो बिक रही है, वहीं उन किसानों को सहारा देने वाले, सिपाही, क्लर्क, फौजी, अर्धसैनिक बल सहित निजी क्षेत्र में कम वेतन पर काम कर शहरों में रह रहे उनके भाई बंधु 15 रुपये किलो प्याज खरीदते हैं। किसानों की खेती करने की लागत बढ़ी है और असंतोष बढ़ा है। ध्यान रहे कि गांवों में अब पिछड़े वर्ग की संख्या ही ज्यादा मिलती है। खेत मजदूर और उच्च सवर्ण कहे जाने वाले ज्यादातर लोग गांवों से निकल चुके हैं। साफ है कि खासकर हिंदी पट्टी में हर हर मोदी का नारा लगाने वाले ग्रामीण तबाह हैं।
लेकिन इस बीच यूपी का चुनाव आते आते दलित और पिछड़े तबके को लड़ाने का मकसद क्या हो सकता है? आखिर यह विमर्श किसने छेड़ दिया है कि दलित वर्ग का सबसे बड़ा दुश्मन ओबीसी है? यह खतरनाक विमर्श है, जिसमें ओबीसी व एससी दोनों ही वर्ग को खासा नुकसान होने जा रहा है।

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