Monday, December 25, 2017

सहकर्मियों के संरक्षक और यारों के यार थे शेखर


स्मृतिशेष

सत्येन्द्र पीएस


प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और वेब मीडिया के धुरंधर खिलाड़ी शशांक शेखर त्रिपाठी नहीं रहे। यह बार बार कहने, सुनने, फोटो देखने पर भी अहसास कर पाना मुश्किल होता है। करीब दस दिन पहले लखनऊ के पत्रकार साथी कुमार सौवीर ने अपनी फेसबुक वाल पर लिखा कि शेखर कौशांबी के यशोदा अस्पताल में भर्ती हैं। यूं तो यशोदा हॉस्पिटल का नाम सुनकर हल्की सिहरन होती है कि जब कोई गंभीर मामला होता है, तभी इस पांच सितारा मल्टी स्पेशलिटी हॉस्पिटल में जाता है, लेकिन शेखर का मकान कौशांबी में ही है। ऐसे में बात आई-गई हो गई। फिर 5 दिन बाद शेखर के एक साथी प्रभु राजदान ने शाम को घबराई हालत में फोन किया और कहा कि आपको पता है कि शेखर त्रिपाठी हॉस्पिटल में एडमिट हैं?

(निगमबोध घाट पर शशांक शेखर त्रिपाठी का शव ले जाते उनके मित्र व परिजन)

फिर मैं गंभीर हुआ। प्रभु ने बताया कि इंटेंसिव केयर यूनिट (आईसीयू) में वेंटिलेटर पर हैं। बोल पाने में सक्षम नहीं हैं। उस समय ऑफिस से अस्पताल तो न जा सका, लेकिन दूसरे रोज करीब साढ़े 10 बजे पहुंचा। रिसेप्शन पर पता चला कि आईसीयू में मिलने का वक्त सुबह साढ़े 9 से 10 बजे के बीच होता है। मैंने प्रभु को फिर फोन मिलाया और उन्होंने शेखर के बड़े बेटे शिवम का मोबाइल नंबर दिया। फोन पर बात हुई तो रिसेप्शन पर ही मुलाकात हो गई। शिवम ने बताया कि हॉस्पिटल में मिलने का वक्त निर्धारित है और उसके अलावा मिलने नहीं देते हैं। सिर्फ मुझे जाने देते हैं।
बातचीत में ही पता चला कि करीब 10 रोज पहले पेट में हल्का दर्द शुरू हुआ था। 3-4 रोज दर्द चला। उसके बाद शेखर बताने लगे कि कॉन्सटीपेशन हो गया है। टॉयलेट साफ नहीं हो रही है। करीब 2 रोज यह प्रक्रिया चली। फिर अचानक एक रोज बाथरूम में बेहोश हो गए और उन्हें यशोदा हॉस्पिटल लाया गया।

(अंतिम संस्कार की कवायद)

पेट की ढेर सारी जांच हुई। डॉक्टरों ने बताया कि इंटेस्टाइन यानी आंत में क्लॉटिंग है। उस समय शेखर का शुगर लेवल भी ज्यादा था। लेकिन डॉक्टरों ने ऑपरेशन करने का फैसला किया। ऑपरेशन थियेटर में जाते जाते शेखर मुस्कराते हुए गए। वरिष्ठ पत्रकार और चंडीगढ़ से प्रकाशित हिंदी ट्रिब्यून के संपादक डॉ उपेंद्र बताते हैं कि कहकर गए थे कि 10 मिनट का ऑपरेशन होता है, सब ठीक हो जाएगा। सबको आश्वस्त करके ऑपरेशन थिएटर में गए थे।
डॉक्टरों के मुताबिक क्लॉटिंग की वजह से गैंगरीन हो गया था। आंत पूरी काली पड़ गई थी। इन्फेक्शन वाला पूरा हिस्सा चिकित्सकों ने निकाल दिया। लेकिन उसके बाद शुगर का स्तर बढ़ने, पेशाब होने, सांस में तकलीफ के कारण उन्हें आईसीयू में रखा गया। चिकित्सकों का कहना है कि इन्फेक्शन होने की वजह से शुगर कंट्रोल नहीं हो रहा था और दवा का डोज बढ़ाकर किसी तरह शुगर कंट्रोल किया जा रहा था और इन्फेक्शन खत्म करने की कवायद की जा रही थी। इस तरह से यह कवायद एक सप्ताह चली और आखिरकार 24 दिसंबर 2017 को दोपहर करीब 2 बजे यशोदा अस्पताल के चिकित्सकों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया।
एक रोज पहले देखने गया तो हॉस्पिटल की व्यवस्था ने मुझे आईसीयू में देखने जाने नहीं दिया। शेखर के परिजन हर संभव कवायद कर रहे थे कि वह उठ खड़े हों। उनकी पत्नी रिसेप्शन पर लगी साईं बाबा की मूर्ति के सामने कोई किताब लेकर पाठ कर रही थीं। दोनों बच्चे शनि देवता समेत कई देवताओं के यहां माथा नवा रहे थे। मेरे सामने ही दूध लाया गया, जिसे शेखर के हाथ से छुआकर किसी देवता को चढ़ाया गया।

(अंतिम संस्कार के बाद शेखर के पुराने साथी, सहकर्मी प्रभु राजदान, डॉ उपेंद्र व अन्य)

उनके बड़े बेटे से देर तक बात होती रही। अपने बारे में बताया कि किस तरह से चिकित्सक धमकाते हैं। यह भी कहा कि करीब 5 बार मुझसे और मेरे परिजनों से इलाज के दौरान लिखवाया गया कि आप मर ही जाएंगे और मैं मुस्कुराते हुए लिखता था और मन में यही सोचता था कि किसी भी हाल में मरेंगे तो नहीं ही। आते आते उनके बेटे से मैंने यही कहा कि कुछ नहीं होगा। बहुत आईसीयू देखा है। डॉक्टर सब पागल होते हैं। शेखर जी जल्द ही आईसीयू से बाहर होंगे। मेरी बात सुनकर शिवम मुस्कराया तो राहत महसूस हुई।
दूसरे रोज साढ़े नौ बजे अस्पताल पहुंच गया। शेखर जी का छोटा बेटा आईसीयू में उनके बगल में खड़ा था। एक तरफ मैं खड़ा हो गया। स्तब्ध सा खड़ा था। आईसीयू तो ठीक, लेकिन शेखर बोल-बतिया और पहचान नहीं रहे हैं, यह देखकर बड़ी निराशा हुई। लोगों ने बताया कि ऑपरेशन के बाद से ही यही हालात है। मैं इतना दुखी और निराश था कि वहां रुक नहीं पाया। दोपहर होते होते फेसबुक के माध्यम से ही पहली सूचना मिली कि शेखर का निधन हो गया।
ऐसे भी कोई जाता है भला... हममें से तमाम लोग हैं जिनके पेट में दर्द होता रहता है। अक्सर लोग पेट दर्द की एकाध गोली खा लेते हैं। लेकिन डॉक्टर को शायद की कोई दिखाता है। शेखर चेन स्मोकिंग करते थे। शुगर की प्रॉब्लम थी। लेकिन पेट में पहले से कोई प्रॉब्लम नहीं था। आखिर कैसे कोई यह अहसास कर ले कि बीमारी इस दिशा में ले जाएगी। सब कुछ अचानक हुआ।
शेखर से मेरा पहला सामना वाराणसी में 2004-05 के आसपास हुआ। वह उन दिनों हिंदुस्तान अखबार के स्थानीय संपादक थे। काशी हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के सुरक्षाकर्मी और प्रॉक्टोरियल बोर्ड पत्रकारों व फोटोग्राफरों से मारपीट में कुख्यात थे। उस समय में ईटीवी उत्तर प्रदेश के लिए खबरें भेजता था। बीएचयू में करीब रोजाना ही आना जाना होता था। ऐसे में सुरक्षाकर्मियों को भी झेलना पड़ता था। एक रोज हिंदुस्तान अखबार के एक फोटोग्राफर और कुछ रिपोर्टरों के साथ बीएचयू के सुरक्षाकर्मियों से हाथापाई हो गई। सभी पत्रकार व फोटोग्राफर आंदोलित थे। यह देखकर आश्चर्य हुआ कि हिंदुस्तान अखबार के स्थानीय संपादक शेखर त्रिपाठी पत्रकारों को लीड कर रहे हैं। न सिर्फ वह लीड कर रहे थे बल्कि नारेबाजी में भी शामिल हो रहे थे। बढ़ता हंगामा देखकर कुलपति ने शेखर को बातचीत के लिए आमंत्रित किया। लेकिन वह नहीं गए। बहुत देर तक पत्रकार कुलपति के आवास को घेरे रहे। आखिरकार बीच बचाव में यह सहमति बनी कि हर अखबार के प्रतिनिधि कुलपति से एक साथ मिलेंगे। उसके बाद कुलपति से वार्ता हुई। कुलपति ने घटना के लिए व्यक्तिगत रूप से खेद जताया और आश्वासन दिया कि आइंदा इस तरह की घटना न हो, इसका पूरा ध्यान रखा जाएगा। तब जाकर शेखर कुलपति आवास से हटे थे।

(मुखाग्नि देने के पूर्व की धार्मिक कवायद में शेखर त्रिपाठी के दोनों पुत्र, रिश्तेदार)

हिंदुस्तान टाइम्स के प्रभारी प्रभु राजदान से मेरी अच्छी मित्रता थी। मित्रता क्या, बनारस में हम लोग एक ही कमरे में रहते थे। उन्हीं के सामने शेखर त्रिपाठी भी बैठते थे और मेरा करीब करीब रोजाना ही हिंदुस्तान कार्यालय जाना होता था क्योंकि काम पूरा करने के बाद मैं और प्रभु एक साथ ही कमरे पर जाते थे। धीरे धीरे करके शेखर त्रिपाठी से भी बातचीत होने लगी और ठीक ठाक संबंध बन गए।
हालांकि उन संबंधों को घनिष्ट संबंध नहीं कहा जा सकता था, लेकिन शेखर ने जिस तरह हिंदुस्तान बनारस में टीम बनाई और अखबार की दिशा दशा बदली, वह खासा आकर्षक था। उन दिनों शेखर त्रिपाठी की टीम में रिपोर्टिंग कर चुके कुमार सौवीर कहते हैं कि शेखर ने हमें खबरें लिखना सिखाया। वह खुद बहुत कम लिखते, लेकिन खबर किसे कहते हैं, उसकी जबरदस्त समझ थी। उन दिनों काशी की संस्कृति पर चल रही एक सिरीज की याद दिलाते हुए सौवीर बताते हैं कि शेखर ने ऊपर 6 कॉलम में बनारस की खबर लगाई। समूह संपादक मृणाल पांडे की किसी विषय पर दी गई टिप्पणी को महज दो कॉलम स्थान दिया। सौवीर कहते हैं कि यह सोच पाना भी मुश्किल है कि कोई स्थानीय संपादक अपने समूह संपादक के लिखे को दरकिनार कर एक बहुत छोटे से रिपोर्टर की खबर से अखबार भर दे।
शेखर त्रिपाठी ने हिंदुस्तान अखबार में संपादक रहते खेती बाड़ी को खास महत्त्व दिया। इसको इसतरह से समझा जा सकता है कि उन दिनों हिंदुस्तान वाराणसी में मुख्य संवाददाता रहे डॉ. उपेंद्र से खेती-बाड़ी पर रोजाना एक खबर लिखवाई जाती थी। उस मौसम में जो भी फसल बोई जाने वाली रहती, या बोई जा चुकी रहती, उसके रखरखाव से लेकर रोगों, रोगों के रोकथाम के तरीकों पर डॉ उपेंद्र की खबर आती थी। इसके अलावा खेती को किस तरह से कमर्शियल बनाया जाए, किसानों की आमदनी किस तरह से बढ़े, यह शेखर की दिलचस्पी के मुख्य विषय रहते थे। बीएचयू के इंस्टीट्यूट आफ एग्रीकल्चरल साइंस के प्रोफेसरों के अलावा आस पास के जितने भी कृषि शोध संस्थान थे, उनके विशेषज्ञों की राय लेकर डॉ उपेंद्र खबरें लिखा करते थे।
इसके अलावा काशी की बुनकरी पर शेखर त्रिपाठी की जबरदस्त नजर रहती थी। प्रशासन की अकर्मण्यता के खिलाफ खबरें खूब लिखवाई जातीं। जिलाधिकारी से लेकर बुनकरी से जुड़े जितने भी अधिकारी रहते, उनकी जवाबदेही, सरकार द्वारा दिए जा रहे धन के उचित इस्तेमाल होने या न होने पर खबरें लिखी जाती थीं। कालीन का शहर कहे जाने वाले भदोही से शेखर ने खूब खबरें कराईं। खबरें इतनी तीखी होती थीं कि तमाम गुमनाम पत्र और फोन आने लगे और यहां तक कि दिल्ली मुख्यालय तक शिकायत पहुंच गई कि भदोही का रिपोर्टर पैसे लेता है और पैसे न देने पर खिलाफ में झूठी खबरें लिखता है।

(अपने साथियों, सहकर्मियों, परिजनों को छोड़ लकड़ियों के ढेर में छिपे शेखर)

उन दिनों को याद करते हुए भदोही में रिपोर्टर रहे सुरेश गांधी कहते हैं कि मेरी तो नौकरी ही जाने वाली थी। हाथ पांव फूल गए कि इन तमाम झूठे आरोपों का क्या जवाब दे सकता हूं। दिल्ली मुख्यालय से गांधी से मांगे गए स्पष्टीकरण का सुरेश गांधी की जगह शेखर त्रिपाठी ने खुद जवाब भेजा। सुरेश गांधी कहते हैं, “मेरा उनसे तो व्यक्तिगत जुड़ाव था, उन्होंने ही मुझे भदोही का न सिर्फ ब्यूरो चीफ बनाया बल्कि मेरी शिकायत किए जाने पर डीएम-एसपी की जमकर बखिया उधेड़ी थी। यहां तक हिन्दुस्तान की समूह संपादक रही मृणाल पांडेय द्वारा जारी मेरी शिकायती पत्र के जवाब में कहा था मैं सुरेश गांधी को व्यक्तिगत जानता हूं, उसके जैसा तो कोई पूर्वांचल मंर नहीं हैं, वह जवाबी लेटर आज भी मैं संभाल कर रखे हूं।“
अपने अधीनस्तों के साथ हर हाल में खड़े रहना शेखर की आदत में शामिल था। हिंदुस्तान वाराणसी के बाद उन्होंने दैनिक जागरण लखनऊ में स्थानीय संपादक का कार्यभार संभाला। दैनिक जागरण में भी पत्रकारों के लिए किसी से भी लड़ जाने के किस्से बहुत विख्यात हैं। जागरण लखनऊ में उनके साथ काम कर चुके नरेंद्र मिश्रा बताते हैं कि लखनऊ में एक बार आईबीएन के ब्यूरो चीफ रहे शलभ मणि त्रिपाठी से पुलिस के सर्किल अधिकारी से हाथापाईं हो गई। पत्रकारों ने प्रशासन के खिलाफ रात में ही प्रदर्शन शुरू कर दिया। रात में वरमूडा और टीशर्ट पहने शेखर त्रिपाठी खुद पहुंच गए पत्रकारों के विरोध प्रदर्शन में। उसके बाद तो जागरण की पूरी टीम ही पहुंच गई। यह जानकर कि जागरण के स्थानीय संपादक खुद प्रदर्शन में आए हैं, प्रशासनिक अधिकारियों के हाथ पांव फूल गए। तत्कालीन एसएसपी ने शेखर से कहा कि आपको यहां नहीं आना चाहिए था, आप घर जाएं। अधिकारी के कहने का आशय जो भी रहा हो, लेकिन शेखर ने उन्हें बहुत तेज डांटा और कहा कि अगर हम अपने रिपोर्टर्स के लिए नहीं खड़े होंगे तो कौन खड़ा होगा, कौन सुनेगा उनकी। उस दिन कोयाद कतते हुए नरेंद्र मिश्र कहते हैं कि उसके बाद तो हम पत्रकारों का सीना चौड़ा हो गया और इतना तीखा विरोध प्रदर्शन हुआ कि प्रशासन को झुकना पड़ा सीओ का तत्काल ट्रांसफर किया गया, इलाके के एसओ को लाइन हाजिर किया गया। नरेंद्र मिश्र बताते हैं कि उन दिनों मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री थीं और किसी के लिए यह कल्पना करना भी कठिन था कि पत्रकारों के विरोध प्रदर्शन से किसी अधिकारी का बाल बांका हो सकता है, लेकिन शेखर त्रिपाठी ने जो ताकत दी, उससे हम लोग कार्रवाई करा पाने में सफल हो पाए।

(अंतिम गंतव्य स्थल, जहां परिजन छोड़ आते हैं)

उसके बाद शेखर त्रिपाठी दिल्ली में दैनिक जागरण की डिजिटल टीम के प्रभारी हो गए। मैं पहले से ही दिल्ली में था। जागरण आना जाना अक्सर होता था। या यूं कहें कि शेखर त्रिपाठी और डॉ उपेंद्र से मिलने ही जागरण जाना होता था। जब भी मिलते तो वह आर्थिक खबरों के बारे में ही बात करते। शेयर बाजार, कंपनियों, देश की अर्थव्यवस्था आदि आदि। मैं भी जहां तक संभव हो पाता, उन्हें बताने की कोशिश करता था। फिर बाहर निकल जाते, सिगरेट और चाय पीने। जागरण दफ्तर के आगे एक पकौड़े की दुकान हुआ करती थी, जहां वह भूख लगी होने अक्सर पकौड़े खिलाया करते थे। सिगरेट और चाय तो होती ही थी। हालांकि हाल के दो-तीन साल से लगातार मेरा स्वास्थ्य खराब होने और डॉ उपेंद्र के चंडीगढ़ चले जाने पर जागरण आना जाना करीब छूट गया था, लेकिन फिर भी सूचनाएं मिलती रहती थीं।
हाल में शेखर त्रिपाठी जागरण की वेबसाइट पर एक खबर लिखे जाने को लेकर चर्चा में आए। ट्रिब्यून हिंदी के संपादक और शेखर के करीबी रहे डॉ उपेंद्र कहते हैं, “शेखर त्रिपाठी, दैनिक जागरण के इंटरनेट एडीटर थे, और दैनिक जागरण लखनऊ के संपादक, दैनिक हिंदुस्तान वाराणसी के संपादक, आज तक एडीटोरियल टीम के सदस्य रहे। फाइटर इतने जबरदस्त कि कभी हार नहीं मानी। कभी गलत बातों से समझौता नहीं किया। किंतु जागरण डॉट कॉम के संपादक रूप में दायित्व निभाते संस्थान हित में वह दोष अपने ऊपर ले लिया जिसके लिए वे जिम्मेदार ही नहीं थे। चुनाव सर्वेक्षण प्रकाशन के केस में एक रात की गिरफ्तारी और फिर हाईकोर्ट में पेंडिंग केस के कारण बीते छह महीने से संपादकीय कारोबार से दूर रहने की लाचारी ने उन्हें तोड़ दिया।”
यह शेखर की आदत ही थी कि वह कभी अपने अधीनस्थ को नहीं फंसने देते थे। स्थानीय अधिकारियों, नेताओं, माफिया, अपने संस्थान के वरिष्ठों से अपने जूनियर सहयोगियों के लिए भिड़ जाते थे। जागरण वेबसाइट में सर्वे आने का मामला भी निश्चित रूप से उनसे सीधे तौर पर नहीं जुड़ा था। विभिन्न माध्यमों से खबरें आती हैं और वह लगती जाती हैं। लेकिन टीम का प्रभारी होने के नाते उन्होंने मरते दम तक जवाबदेही अपने ऊपर ली।

(और यूं सबको छोड़कर अग्नि में समाकर अनंत में विलीन हो गए शेखर)

पत्रकारिता जगत में इस शेखर जैसे जिंदादिल इंसान कम ही देखने को मिलते हैं। बेलौस, बेखौफ गाड़ी लेकर रातभर घूमना, पहाड़ों की सैर करना, बाइकिंग उनकी आदत में शुमार था। उनके ठहाकों, मुस्कुराते चेहरे के तो जूनियर से लेकर सीनियर तक सभी सहकर्मी कायल थे। वरिष्ठ पत्रकार अकु श्रीवास्तकव लिखते हैं, “जिंदगी ऐसी है पहेली… कभी तो रुलाए.. कभी तो हंसाए.. शेखर ने रोना तो सीखा ही नहीं था। मस्ती उनकी जिंदगी का हिस्सा रही। जिम्मेदारी उन्होंने हंस हंस कर ली और जो दूसरों की मदद कर सकते थे, की। 35 साल से ज्यादा जानता रहा, गायब भी रहे... पर सुध लेते रहे। उनके प्रशंसकों की लंबी फेहरिस्त है। लार्जर देन लाइफ जीने वाले 6 फुटे दोस्त को प्रणाम।”
अपने सहकर्मियों की दाल रोटी की चिंता से लेकर पत्रकारीय दायित्व तक पर नजर रखने वाले और जहां तक बन पड़े, लीक से हटकर मदद करने वाले पत्रकार बिड़ले ही मिलते हैं।
आप बहुत याद आएंगे शेखर।

Sunday, December 17, 2017

गुरु गोरक्षनाथ के नाम पर मेरिट की हत्या, नियमों को ताक पर रखकर प्रो. सुग्रीवनाथ तिवारी ने की अपनी बेटी को पुरस्कार देने की सिफारिश

सत्येन्द्र पीएस


उत्तर प्रदेश के गोरखपुर विश्वविद्यालय में मेरिट की हत्या का अद्भुत कारनामा सामने आया है। अपनी बेटी को पुरस्कार दिलाने के लिए विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर ने सभी नियमों को ताक पर रख दिया। मेधावी छात्र मुंह ताकते रह गए। प्रोफेसर के इस कांड का खुलकर विरोध हो रहा है, वहीं इस मसले का खुलासा करने वाले विश्वविद्यालय के एक और प्रोफेसर को धमकियां मिलने लगी हैं।
राज्य में योगी आदित्यनाथ के सत्ता संभालने के बाद एक खास तबके के हौसले बुलंद हैं। यह मेडल नाथ संप्रदाय के प्रसिद्ध योगी के नाम पर “महायोगी गुरु गोरखनाथ गोल्ड मेडल” शुरू किया गया। मेडल शुरू किया जाना निश्चित रूप से सरकार का एक बेहतरीन फैसला था, जिसके माध्यम से विशिष्ट शोध के लिए दिया जाना था।

गोरखपुर विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में 103 छात्र छात्राओं को डिग्रियां दी जानी हैं। इसके बावजूद विशिष्ट मेडल के लिए सिर्फ दो नाम भेजे गए। इसमें एक नाम भौतिक विज्ञान की शोध छात्रा गार्गी तिवारी का था और दूसरा बॉटनी के शोध छात्र का। बॉटनी के शोध छात्र को इस सूची से यह कहकर बाहर कर दिया गया क्योंकि उसे 2016 में डिग्री अवार्ड की जा चुकी है, इसलिए उसे 2017 का विशिष्ट मेल नहीं दिया जा सकता है। आखिर में इस पुरस्कार की एकमात्र दावेदार गार्गी बचीं, जिन्हें इस पुरस्कार के योग्य मान लिया गया।

अब खेल देखिए। शोधार्थी का नाम विभागीय समिति भेजती है, लेकिन इस मामले में ऐसा नहीं किया गया। अमर उजाला की एक खबर के मुताबिक जिन शोध पत्रों का इंपैक्ट फैक्टर 3.6 और 3.4 है, उन्हें आवेदन फॉर्म जमा करने की सूचना नहीं दी गई। वहीं जिस स्कॉलर को विशिष्ट मेडल दिए जाने की घोषणा की गई है, उसके शोधपत्र का इंपैक्ट फैक्टर 0.3 है। गार्गी की एक बड़ी योग्यता उनके पिता डॉ सुग्रीव नाथ तिवारी हैं, जो भौतिकी के विभागाध्यक्ष हैं।

इस मामले को विश्वविद्यालय शिक्षक संघ के महामंत्री डॉ. उमेश यादव ने उठाया। उन्होंने कुलपति प्रो. वीके सिंह को पत्र लिखकर कहा कि मेडल सुग्रीव नाथ तिवारी की बेटी गार्गी तिवारी को दिया जा रहा है, जबकि उनसे बेहतर संजय यादव, रवि प्रकाश और दीपेंद्र शर्मा का शोध कार्य है।

भौतिक विभाग के शोध छात्र संजय यादव ने भी पूरी प्रक्रिया पर सवाल उठाते हुए डीन आफ साइंस फैकल्टी प्रो. एसके सेनगुप्ता को पत्र लिखकर मेडल के लिए आवेदन जमा करने की अनुमति मांगी है।

जातीय आधार पर द्रोणाचार्यों की अपने शिष्यों का अंगूठा काट लेने की शिकायतें पूरे देश से समय समय पर आती रहती हैं। लेकिन घटती नौकरियों के बीच नव उत्पन्न इन द्रोणाचार्यों ने जाति के भीतर भी अपना गिरोह बना लिया है। विश्वविद्यालय से जुड़े कुछ सूत्रों का कहना है कि सुग्रीवनाथ तिवारी की बेटी गार्गी निहायत औसत विद्यार्थी है और इसके पहले भी बीएससी और एमएससी की परीक्षाओं में भी उसे धांधली करके ज्यादा नंबर देकर टॉप कराया गया। विश्वविद्यालय में गार्गी के सहपाठियों ने उसे ऐज युजुअल मानकर स्वीकार कर लिया और उनका विरोध क्लासरूम और अपने सहपाठियों के बीच घुटकर रह गया।

गोरखनाथ मेडल देने के नाम की घोषणा होने पर भी विद्यार्थियों के बीच सिर्फ सुगबुगाहट ही थी कि किस आधार पर, कैसे और किस आवेदन पर गार्गी का चय़न कर लिया गया। तमाम छात्र छात्राओं को पुरस्कार के लिए गार्गी के नाम की घोषणा होने के बाद पता चला कि द्रोणाचार्यों ने मिलकर खेल कर दिया है। विद्यार्थी घुट रहे थे। प्रोफेसर सुग्रीव और उनकी फौज विजेता थी। उसी बीच डॉ उमेश यादव ने इस मामले की शिकायत कुलपति से कर दी।

अब महज 2 दिन बाद यह पुरस्कार दिया जाना है। 19 दिसंबर को दीक्षांत समारोह होना है। इस बेइमानी का शिकार सिर्फ दलित पिछड़े नहीं हुए, बल्कि 103 छात्र छात्राएं हुए हैं। सभी अवाक हैं कि आखिर चयन का आधार क्या है।

इस बीच यह मामला उठाने वाले डॉ उमेश यादव को कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा है। विश्वविद्यालय के सूत्रों के मुताबिक सुग्रीवनाथ तिवारी से जुड़े लोग यादव को धमकियां दे रहे हैं। उन्हें नौकरी न कर पाने देने की भी धमकी मिल रही है, जो पहले इस धमकी से शुरू हुई थी कि आपका भी कोई कैंडीडेड होगा तो हमीं लोगों को साथ देना है, सोच लीजिएगा।

गोरखपुर विश्वविद्यालय में एकलव्य का अंगूठा कटवाने की पुरानी परंपरा ये बेईमान कायम रखे हुए हैं, बस स्वरूप बदल गया है। विश्वविद्यालय में शुरू में इन बेईमानों के खिलाफ प्रखर आवाज डॉ अनिरुद्ध प्रसाद ने उठाया था। 'आरक्षण पर धरातली विचार क्यो नही' नामक पुस्तक में उन्होने कथित मेरिट धारियो की जमकर हवा निकाली है और अपने पुराने संस्मरण भी बताए हैं।

बहरहाल अभी इस पुरस्कार से वंचित किए जाने वालों में जिनका नाम सामने आ रहा है, उनमें संजय यादव पहले स्थान पर हैं। यादव के शोधपत्र की प्रशंसा न सिर्फ उनके सहपाठी करते रहे हैं, बल्कि उनके गुरुजन भी उनके लिखे को बेहतरीन मानते रहे हैं। दूसरे स्थान पर रवि प्रकाश का नाम है। रवि प्रकाश तिवारी सेंट एंड्यूज पीजी कॉलेज में में शोधार्थी रहे हैं। वह जाने माने भौतिकविद प्रो. एसए खान के विद्यार्थी हैं, जिनके कुशल नेतृत्व में तिवारी शोध पत्र लिखकर चर्चा में आए थे। तीसरे स्थान पर दीपेंद्र शर्मा का नाम है। दीपेंद्र लोहार समुदाय से हैं। इनका शोध भी लगातार चर्चा में रहा है और सहपाठियों से लेकर इनके गुरुजनों तक को आश्चर्य हो रहा है कि आखिर किस आधार पर दीपेंद्र को छांटा गया है।

कुल मिलाकर देखें तो यह मेरिट को मार डालने का अद्भुत कारनामा है। ब्राह्मणवाद और मनुवाद की गिरोहबंदी किसी को छोड़ने को तैयार नहीं है। यह सब कुछ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री की नाक के नीचे, उनकी 3 दशक से कर्मभूमि गोरखपुर में हो रहा है।

Monday, December 11, 2017

सामाजिक न्याय के पहरुआ केदारनाथ सिंह



यादों के झरोखे से
13 दिसंबर को पुण्य तिथि पर विशेष

सत्येन्द्र पीएस

बात 18 दिसम्बर 1990 की है। मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू किए जाने के बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह (वीपी) की सरकार गिर गई थी। गोरखपुर के तमकुही कोठी मैदान में मांडा के राजा और 1989 के चुनाव के पहले देश के तकदीर विश्वनाथ प्रताप सिंह की सभा होने वाली थी। मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद वीपी सरकार गिर गई। उसके बाद सामाजिक न्याय के मसीहा का पहला और मेगा शो गोरखपुर में हुआ।

पिपराइच के विधायक केदारनाथ सिंह को सभा का संयोजक बनाया गया, महराजगंज के सांसद हर्षवर्धन सिंह कार्यक्रम करा रहे थे। कुल मिलाकर कार्यक्रम में तत्कालीन विधायक केदारनाथ सिंह, हर्षवर्धन और मार्कंडेय चंद की अहम भूमिका थी।
प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की सरकार थी, जो जनता दल (स) में चले गए थे। इसका गठन चंद्रशेखर ने जनता दल को तोड़कर किया था। चंद्रशेखर करीब 40 सांसदों के साथ कांग्रेस के समर्थन से प्रधानमंत्री थे।

(फोटो कैप्शन-फोटो1- मंच पर भाषण देते डॉ संजय सिंह। दाएं से पहले मुलायम सिंह यादव, दूसरे विश्वनाथ प्रताप सिंह और तीसरे केदारनाथ सिंह।)

गोरखपुर में सुरक्षा की कड़ी व्यवस्था की गई। इसी बीच 17 दिसंबर को एक अज्ञात सा संगठन सवर्ण लिबरेशन फ्रंट उभरा। उसने चेतावनी दी कि किसी भी हालत में वीपी की सभा नहीं होने दी जाएगी। अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) का आरक्षण लागू होने का भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) पिछले दरवाजे से विरोध कर रही थी। यही हाल कांग्रेस का था। आरएसएस और उसके अनुषांगिक संगठन खुलेआम आरक्षण के विरोध में मैदान में कूद पड़े थे।

सवर्ण लिबरेशन फ्रंट ने सिर्फ धमकी ही नहीं दी, बल्कि सभा के एक दिन पहले केदारनाथ सिंह के आवास परिसर में बम विस्फोट भी कराया। इस मामले में न तो किसी का नाम सामने आया, न गिरफ्तारी हुई। हालांकि पुलिस व्यवस्था और सख्त कर दी गई। केदारनाथ सिंह ने मीडिया में बयान जारी कर ऐलान किया कि सभा हर हाल में और हर कीमत पर होगी। इस तरह की कायराना हरकत करने से अब पिछड़ा वर्ग दबने वाला नहीं है। कुल मिलाकर आरक्षण विरोधियों व आरक्षण समर्थकों के बीच सीधी जंग शुरू हो चुकी थी। निशाने पर थे सैंथवार समाज से आने वाले पिछड़े वर्ग के एकमात्र ताकतवर नेता केदारनाथ सिंह।

सभा के रोज सवर्ण लिबरेशन फ्रंट ने जनता कर्फ्यू लगा दिया। हंगामे को देखते हुए प्रसाशन ने भी स्कूल कॉलेजों को बंद कराना ही उचित समझा। सुबह सबेरे से आरक्षण विरोधियों व आरक्षण समर्थकों के बीच जंग छिड़ चुकी थी। सवर्ण लिबरेशन फ्रंट ने जगह जगह बम विस्फोट कराए। यहां तक कि जनसभा के स्थल तमकुही कोठी मैदान में भी सभा में आए लोगों को निशाना बनाकर बम फेके गए। प्रशासन के हाथ पांव फूले हुए थे। जनता दल के स्थानीय नेताओं और आरक्षण समर्थकों की एक दिन पहले से ही शिकायत आने लगी थी कि डीजल और पेट्रोल की आपूर्ति रोक दी गई है, जिससे कि ट्रैक्टर ट्रालियों में भरकर लोग तमकुही मैदान में न पहुंच सकें। इसके बावजूद किसी न किसी माध्यम से शहर और आसपास के इलाकों से पचास हजार से ऊपर लोग जनसभा में पहुंच चुके थे।

उस समय केदारनाथ सिंह के समर्थन में पहुंचने वाले संजय कुमार सिंह बताते हैं कि उनके पिता जी खुद ट्रैक्टर ट्राली में लोगों को भरकर तमकुही मैदान आए थे। डीजल की कमी की बात स्वीकार करते हुए बताते हैं कि उनके ट्रैक्टर में इत्तेफाक से तेल भरा हुआ था, साथ ही दो रोज पहले ही कंटेनर में भी डीजल भरकर लाया गया था क्योंकि गेहूं की सिंचाई का मौसम चल रहा था। संजय बताते हैं कि उनके पिताजी ने पूरा डीजल कई रिश्तेदारों, परिचितों के ट्रैक्टर में डलवाया। यहां तक कि अपने ट्रैक्टर में से भी डीजल निकालकर जीप और ट्रैक्टरों में डालने के लिए दिया, जिससे कि लोग सभा स्थल तक पहुंच सकें और वहां से वापस लौट सकें। लेकिन हंगामा बढ़ते देख प्रशासन ने 12 बजे के बाद गोरखपुर के चारों तरफ शहर में प्रवेश करने वाली सड़कों की नाकेबंदी कर दी और जनता दल के झंडे डंडे से लैस आम लोगों की गाड़ियों, ट्रैक्टरों को बाहरी इलाके में रोका गया और उन्हें वापस भेजा जाने लगा।

तमकुही कोठी मैदान के बगल में ही केदारनाथ सिंह का सरकारी बंगला था, जिसमें दर्जनों गाड़ियों की पार्किंग थी। संघी ब्रिगेड के जितने छोटे मोटे समूह थे, सभी आरक्षण के विरोध में सक्रिय थे। जिधर से जनता दल नेताओं के वाहन निकलते, पथराव शुरू हो जाते।
केदारनाथ सिंह के पुत्र अजय सिंह ने खुद मोर्चा संभाल रखा था। सभा के संयोजक के रूप में सभी पार्टी कार्यकर्ताओं को उनका निर्देश था कि मांडा नरेश को एक पत्थर नहीं लगना चाहिए, उसके लिए जो भी करना पड़े, वह करें। अपनी जान पर खेलकर उन्हें बचाया जाए। इसी बीच अजय सिंह को सूचना मिली कि कुछ संघी गुंडे बंगले में घुसने की कोशिश कर रहे हैं और हाते में खड़े वाहनों पर पत्थर फेंकने की कवायद में हैं।

अजय ने अपने ड्राइवर से तत्काल आवास की ओर गाड़ी मोड़ लेने को कहा। जैसे ही वाहन रुका, उन्हें निशाना बनाकर बम फेका गया। किसी तरह से वह बचे, लेकिन एक छर्रा उनके पैर में लग गया था।


(फोटो कैप्शन- फोटो 2- एक जनसभा के दौरान एंकरिंग करते हरवंश सिंह भल्ला (बाएं), केदारनाथ सिंह (बाएं से दूसरे) विश्वनाथ प्रताप सिंह, मुलायम सिंह यादव और मुफ्ती मोहम्मद सईद (बैठे हुए क्रमशः बाएं से दाएंं)


पुरानी याद दिलाने पर अजय सिंह ने हंसते हुए बताया कि उनका ड्राइवर डर के मारे बेहोश हो गया था। लगा चिल्लाने, साहब हम मर गए, बाल बच्चेदार आदमी हैं, मेरे परिवार का क्या होगा। हालांकि बाद में पता चला कि उसे बम का एक छर्रा भी नहीं लगा था।
अजय सिंह पर बम फेके जाने तक जीप में बैठे युवा धड़ाधड़ उतर चुके थे। यह तो नहीं पता चला कि बम किसने फेंका था, लेकिन सामने पड़ा विश्व हिंदू परिषद का महानगर मंत्री आनंद कुमार गुप्ता। उसे युवाओं ने पीटना शुरू किया और पथराव कर रहे उसके अन्य सहयोगियों को भी दौड़ाया, जो एकाध हॉकी और थप्पड़ खाने के बाद भागने में सफल हो गए। गुप्ता की जमकर पिटाई हो गई।

उस समय के अखबारों का रुख देखें। स्थानीय अखबार स्वतंत्र चेतना ने “विश्व हिंदू परिषद के मंत्री की असमाजिक तत्वों द्वारा पिटाई” शीर्षक से खबर चलाई। इसमें लिखा गया...
“विहिप महानगर मंत्री आनंद कुमार गुप्त आज अपराह्न लगभग ढाई बजे अपने व्यक्तिगत कार्य से पार्क रोड की सड़क से होते हुए जा रहे थे। जनता दल विधायक केदारनाथ सिंह के घर के सामने उनके लड़के और भतीजे जो कि 8-10 लोगों के साथ सड़क के किनारे खड़े थे, उन्होंने आनंद कुमार गुप्त को देखते ही कहा कि यह विश्व हिंदू परिषद का महामंत्री है, बचकर जाने न पाए। और इतना कहते ही सब लोगों ने स्कूटर धर लिया और आनंद कुमार को ईंटों से मारने लगे। जिससे उनका सर फट गया तथा अन्य जगहों पर भी गंभीर चोटें आईं। भारतीय जनता पार्टी सिविल लाइंस के वार्ड मंत्री श्री रविंद्र कुमार मौर्य ने इस घृणित कृत्य की घोर निंदा करते हुएए कहा कि तुरंद ही अपराधियों को गिरफ्तार किया जाए अन्यथा हम आंदोलन के लिए बाध्य होंगे।”


स्वतंत्र चेतना अखबार ने सर पर पट्टी बांधे गुप्ता की फोटो भी छापी। अखबार ने कथित रूप से पिटाई करने वाले लोगों का नाम दिया, मौर्य के हवाले से अपराधी लिखा। लेकिन अखबार ने विधायक के पुत्र से बात करने की जहमत भी नहीं उठाई कि आखिर वहां पर क्या हुआ। केवल स्वतंत्र चेतना ही नहीं, करीब सभी अखबारों का रुख सवर्ण लिबरेशन फ्रंट को हीरो बताने वाला था। वीपी की सभा की रिपोर्टिंग भी उसी लहजे में की गई। जनसभा को फ्लॉप शो बताया गया।

वीपी सिंह ने उस रैली में कहा, “भूख एक ऐसी आग है कि जब वह पेट तक सीमित रहती है तो अन्न और जल से शांत हो जाती है और जब वह दिमाग तक पहुंचती है तो क्रांति को जन्म देती है। इस पर गौर करना होगा। गरीबों के मन की बात दब नहीं सकती और अंततः उसके दृढ़ संकल्प की जीत होगी।” सिंह ने कहा, “गरीबों की कोई बिरादरी नहीं होती। दंगों में मारे जाने वाले लोग हिंदू और मुसलमान नहीं, हिंदुस्तान के गरीब लोग हैं। गरीबों के साथ हमेशा अत्याचार होते रहे हैं। इस शोषण अत्याचार को बंद करके समाज के पिछड़े तबके के लोगों को ऊपर उठाना होगा।”

इस सभा के दौरान चौधरी अजीत सिंह का सर फट गया, शरद यादव को भी चोटें आईं। अजीत सिंह ने कहा कि सामाजिक न्याय की ओर कदम बढ़ाने पर इस तरह की बाधाएं आती रहेंगी और हम इसके लिए पूरी तरह से तैयार हैं। बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद ने भी सामाजिक न्याय के प्रति निष्ठा जताते हुए घोषणा की कि बिहार सरकार हर हाल में ओबीसी आरक्षण लागू करेगी। लालू प्रसाद और पूर्व गृह मंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद के भाषण के दौरान सभा स्थल पर बम फेके गए, जिसमें दर्जनों लोग घायल हो गए।
इस बीच सभा स्थल पर मंच पर चढ़ने की कवायद कर रहे लिबरेशन फ्रंट के गुंडों को पीटने के लिए विधायकों तक को सामने आना पड़ा। यह आश्यर्यजनक, लेकिन सत्य है कि मीडिया में खबरें भरी पड़ी हैं कि पुलिस ने आरक्षण के विरोध में प्रदर्शन, पथराव, बमबाजी कर रहे छात्रों की पिटाई की, लेकिन यह भी खबर है कि पूर्व प्रधानमंत्री, दर्जनों पूर्व कैबिनेट मंत्री, बिहार तत्कालीन मुख्यमंत्री के मंच पर गुंडे चढ़ गए और वह बम और पत्थर मारते रहे। पुलिस उन्हें रोकने में नाकाम रही।

जब मंच पर गुंडे चढ़ गए तो विधायक केदारनाथ सिंह ने मोर्चा संभाला और गुंडों को पीटना शुरू कर दिया। उसके बाद मार्कंडेय चंद ने भी मंच पर चढ़े गुंडों की पिटाई करनी शुरू की और मंच से उन्हें खदेड़ दिया गया। फिर क्या था! जनसभा में आए लोगों ने भी मोर्चा संभाल लिया। जिन लाठियों में झंडे बांधकर लाए गए थे वे लाठियां, बांस निकल गए और पिछड़े वर्ग के लोगों ने मोर्चा संभालकर गुंडों को रोका। पत्थरबाजों को दौड़ा दौड़ाकर मारा। शरद यादव ने जनसभा में ही कहा कि आज की घटनाओं के पीछे भाजपा, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ तथा विश्व हिंदू परिषद का हाथ है।

उस दौर में पहले नंबर पर रहे आज अखबार की रिपोर्टिंग का भी रुख जानना जरूरी है, जिसे कांग्रेसी अखबार माना जाता रहा है। अखबार ने “वीपी सिंह के राजनीतिक उत्थान के बाद पतन का भी साक्षी बना गोरखपुर” शीर्षक से खबर लिखी, जो कुछ इस तरह थी..

“पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के राजनीतिक उत्थान का जहां गोरखपुर साक्षी रहा, वहीं उसने आज उनका पतन भी देख लिया। वोट की राजनीति के चलते सैकड़ों निर्दोष छात्र छात्राओं को अग्निस्नान तथा आत्महत्या के लिए मानसिक रूप से बाध्य करने के जिम्मेदार वीपी सिंह ने जब 15 माह पहले गोरक्षनाथ की धरती पर कदम रखा था तो यहां की जनता ने उन्हें सिर आंखों पर बैठाया था। लेकिन मंडल के चक्कर में देश में जातिवाद की खाईं पैदा करने वाले वीपी और उनके सहयोगियों ने यहां के लोगों का गुस्सा भी आज देखा और अनुभव किया।
लोकतांत्रिक वामपंथी मोर्चा के बैनर पर आज स्थानीय तमकुही मैदान में बने सभास्थल पर बैठे वीपी सिंह, अजित सिंह, शरद यादव, मुफ्ती मोहम्मद सईद और शरद यादव के अंगरक्षक समेत कई लोग घायल हो गए।
आज नगर के पूर्वी भाग में बम, कट्टा, आंसू गैस, लाठी, ईंट, पत्थर आदि दोपहर से सायंकाल तक चलते रहे। जगह जगह छात्रों ने सड़कों पर अवरोध खड़े किए। गड़बड़ी उस समय शुरू हुई जब आरक्षण विरोधियों द्वारा सभा में व्यवधान डालने की कोशिश की गई और महराजगंज के सांसद हर्षवर्धन ने मंद से लठैतों को पूर्व मंत्रियों की सुरक्षा के लिए चलने को ललकारा।
सभास्थल पर कार से आ रहे पूर्व केंद्रीय मंत्रियों पर पथराव किया गया और बम फेंके गए। परिणामस्वरूप शरद यादव और मुफ्ती मोहम्मद सईद घायल हो गए। जिस समय अजित सिंह मंच पर चढ़ रहे थे, तभी एक पत्थर से उनके सिर में चोटें आईं। शरद यादव का अंगरक्षक टॉमस गंभीर रूप से घायल हो गया। अपराह्न लगभग ढाई बजे जिस समय अजित सिंह घायल होने के बाद मंच पर बैठे, मंच के पास तेज विस्फोट हुआ। सौभाग्य से कोई घायल नहीं हुआ।
इससे पूर्व आज अपराह्न 12.20 बजे तमकुही मैदान के पश्चिमी सड़क पर जमी भीड़ पर जब पुलिस ने लाठी चार्ज किया, उसी समय पहला बम विस्फोट हुआ। यह स्थान मंच से लगभग 200 गज दूर था। इसके बाद सभास्थल के पूर्वी छोर से आरक्षण विरोधियों की बड़ी भीड़ ने पुलिस पर पथराव शुरू कर दिया, जिससे मंच पर भी कुछ पत्थर आए और वहां बैठे जद नेता रणजीत सिंहराज घायल हुए। मंच पर भगदड़ मच गई और देखते देखते पूरा मंच खाली हो गया। इसी पथराव में बिहार से आए एक वयोवृद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी विष्णु प्रसाद यादव भी घायल हो गए।
सवर्ण आर्मी लिबरेशन फ्रंट ने आज जनता कर्फ्यू का एलान किया था। कल राज भी कई बम विस्फोट हुए थे।
वीपी सिंह तथा बिहार के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव को हवाई अड्डे से भारी पुलिस सुरक्षा व्यवस्था में सभास्थल तक लाया गया। लालू यादव के भाषण के समय भी बम विस्फोट और सभा में पथराव की अनेक घटनाएं हुईं।
आज अपराह्न 12 बजे से आंदोलनकारी सक्रिय हो गए। पथराव, बमबाजी कर सभा को कई बार भंग करने का प्रयास किया। आंदोलनकारियों ने आज नगर में अनेक वाहनों को आग लगा दी तथा जिलाधिकारी आवास पर जमकर पथराव किया जिससे जिलाधिकारी की कार का शीशा टूट गया।
वीपी सिंह के भाषण के समय पूर्ण शांति रही, लेकिन इससे पूर्व शरद यादव के भाषण के समय से ही पुलिस ने लोगों को सभा स्थल पर जाने से रोक दिया था। भय और आतंक के माहौल के कारण लोग धीरे धीरे सभा स्थल से खिसकने लगे। शरद यादव के भाषण के समय सभास्थल पर जमकर ढेलेबाजी हुई।
बाहर से लाए गए जद कार्यकर्ता डंडों में झंडा लगाकर मुकाबले के लिए पूरी तरह से तैयार होकर आए थे। वीपी के भाषण के समय सभास्थल पर श्रोताओं की संख्या बहुत कम रही। पुलिस द्वारा लाठीचार्ज तथा आंदोलनकारियों के पथराव में दर्जनों घायल हो गए। घायलों में कुछ पुलिसकर्मी भी शामिल हैं।
श्री सिंह को सभास्थल तक नहीं पहुंचने देने की धमकी दे चुके छात्रों को हटाने के लिए विश्वविद्यालय छात्रावासों में घुसकर पुलिस ने छात्रों की पिटाई की। उत्तेजित छात्रों ने पुलिस पर जमकर पथराव किया। बाद में सब इंसपेक्टर की मोटरसाइकिल पर बम फेका, जिससे उसमें आग लग गई। हॉस्टल रोड को पूरी तरह घेर लिया। वीपी इसी मार्ग से सभास्थल तक गए।”


यह उस दौर की सबसे संतुलित रिपोर्ट थी, जिसे पढ़कर अहसास किया जा सकता है कि अखबार, उसमें लिखने वालों व लोकतंत्र के अन्य कथित झंडाबरदारों का उस दौर में क्या रुख था।


यह पिछड़े वर्ग की सामाजिक जागरूकता न होने का परिणाम था कि आरएसएस व उसके अनुषांगिक संगठनों ने ओबीसी तबके से जुड़े तबकों को ही आरक्षण के विरोध में खड़ा कर दिया था। एक तरह से देखा जाए तो आज जहां मराठा, कापू, पाटीदार, जाट, गूर्जर बड़े पैमाने पर आंदोलन चला रहे हैं और हजारों की संख्या में लोगों की पिटाई हो रही है, सैकड़ों की जान चली गई, गुप्ता और मौर्य मुफ्त में बगैर आंदोलन के आरक्षण पा गए। आज भी पिछड़े वर्ग के ज्यादातर लोग आरक्षण के पीछे अपनी जिंदगी दांव पर लगाने वालों की न तो कद्र करते हैं और न ही उन्हें सम्मान देते हैं। इन लोगों की पीढ़ियां आरक्षण की मलाई चाभ रही है और पिछड़े वर्ग की जिंदगी संवारने वाले मसीहाओं को विस्मृत कर चुकी है।

गोरखपुर में हुई वीपी की इस जनसभा के बाद केदारनाथ सिंह निशाने पर आ गए। स्वाभाविक है कि आरक्षण विरोधियों के निशाने पर वह थे ही, आरक्षण समर्थकों ने भी उनकी भरपूर उपेक्षा की। ओबीसी तबके की ओर से ओबीसी आरक्षण का विरोध लगातार जारी था। ओबीसी तबके की ज्यादातर जातियों का यह मानना था कि आरक्षण होने से उनका जातीय डिमोशन हो गया है और वह अनुसूचित जाति/जनजाति बना दिए गए हैं।


(फोटो कैप्शन-फोटो 3- कांग्रेस (जे) के जनता दल में विलय के मौके पर केदारनाथ सिंह, हरवंश सिंह भल्ला, विश्वनाथ प्रताप सिंह और मुलायम सिंह यादव (बाएं से दाएं)

जनता दल के नेता शरद यादव ने 25.08.1992 से 6.11.92 तक मंडल रथ यात्रा निकाली। इसका मकसद न सिर्फ यह बताना था कि सरकार ओबीसी रिजर्वेशन को लेकर साजिश न करे, साथ ही पिछड़ा वर्ग भी अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो। शरद यादव ने घोषणा की, “हम वर्तमान केंद्र की सरकार को खबरदार करना चाहते हैं कि हमें उनकी नीयत का पता है। हमें यह भी पता है कि अयोध्या में राम मंदिर का शिलान्यास मंडल कमीशन द्वारा उत्पन्न पिछड़े व दलितों के जागरण को कब्र में भेजने की यह चतुर द्विज चाल है।”

शरद ने जनता को यह बताने की कोशिश की कि किस तरह से पिछड़े वर्ग के खिलाफ साजिश कर उन्हें सरकारी नौकरियों में नहीं जाने दिया। आरक्षण की नींव को समझाया। स्वतंत्रता के 40 साल बाद भी उच्च सेवाओं में देश में पिछड़े वर्ग की 60 प्रतिशत आबादी की नौकरियों में 5 प्रतिशत से भी कम हिस्सेदारी और नीति निर्धारक सरकारी पदों पर प्रतिनिधित्व न होने का मसला उठाया।
केदारनाथ सिंह ने भी पूर्वांचल में पिछड़ों की आबादी को जागरूक करने का बीड़ा उठा लिया। सबसे तीखा विरोध उन्हें खुद अपनी जाति के लोगों से उठाना पड़ा। गरीबी और बहुत कठिन जीवन जी रहे लोगों को संपन्न तबका बरगला रहा था कि आरक्षण पाने से वह जातीय पद सोपान में अनुसूचित जाति/ जनजाति के समकक्ष खड़े हो जाएंगे। सिंह ने पिछड़े वर्ग, खासकर अपनी जाति के लोगों को यह समझाने में शेष जिंदगी खर्च कर दी कि आरक्षण पाने से कोई जाति नीची नहीं होती। समाज में कुर्मी समुदाय की भी बहुत प्रतिष्ठा है, साजिशन उन्हें सरकार के उच्च पदों पर प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया है।

इसके साइड इफेक्ट भी हुए। जनता पार्टी में वित्त मंत्री मधुकर दिघे से भारी मतों से कांग्रेस (जे) से चुनाव जीतकर 1980 में विधानसभा से औपचारिक राजनीति की शुरुआत करने के बाद केदारनाथ सिंह का राजनीति में ग्राफ लगातार बढ़ता जा रहा था। उन्होंने उसके बाद लगातार राजनीति में नए आयाम स्थापित किए। कांग्रेस की आंधी में वह महराजगंज से लोकसभा चुनाव लडे। उस दौर में जहां लोग कांग्रेस के ऐरे गैरे प्रत्याशियों से एक लाख से ऊपर के मतों के अंतर से हार रहे थे, केदारनाथ सिंह महराजगंज से महज डेढ़ हजार वोट से चुनाव हारे थे। वीपी ने जब कांग्रेस से निकलकर अलग दल बनाया तो पूर्वांचल में उन्होंने केदारनाथ सिंह को अपने पाले में लाने की हर संभव कवायद की। उत्तर प्रदेश की विधानसभा में 1980 में जगजीवन राम की कांग्रेस (जे) के 18 विधायक जीतकर आए थे, और सदन में उन विधायकों के नेता थे केदारनाथ सिंह। आखिरकार वीपी की भारी भरकम कवायदों के बीच कांग्रेस जे का जनता दल में विलय हो गया। विलय के मौके पर आयोजित जनसभा में वीपी के अलावा मुफ्ती मोहम्मद सईद, संजय सिंह, मुलायम सिंह यादव सहित जनता दल के तमाम दिग्गज नेता तमकुही कोठी मैदान में जमा थे। केदारनाथ सिंह 1989 में पिपराइच विधानसभा से फिर से चुनकर विधायक बन गए। वीपी के खास रहे केदारनाथ सिंह उस समय मुलायम सिंह यादव के मंत्रिमंडल में शामिल नहीं हुए। उन्हें संगठन का काम सौंपा गया। यहां तक कि विधायी कार्रवाई में भी केदारनाथ सिंह अहम माने जाते थे। 1989 में वर्तमान समाजवादी नेता आजम खां ने विधानसभा में राज्यपाल का अभिभाषण फाड़ डाला तो उनके खिलाफ कार्रवाई की तलवार लटकने लगी। उसमें भी केदारनाथ सिंह ने पूरे मामले की बाकायदा ड्राफ्टिंग की और विधायी नियमों व विधायकों के अधिकार को स्पष्ट कराने में अहम भूमिका निभाई। आखिरकार आजम खां के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होने पाई।

हालांकि 1990 के आरक्षण आंदोलन के बाद केदारनाथ सिंह को कभी पूर्वांचल में उभरने नहीं दिया गया। उन्हें उन पिछड़ों ने ही लगातार उपेक्षित किया, जिनके हक के लिए उन्होंने लाठियों, गोलियों व बम का मुकाबला किया।

केदारनाथ सिंह पिपराइच से भी लड़े, जहां अमूमन 80 प्रतिशत दलित और पिछड़े वर्ग के लोग हैं। उसके बाद वह गोरखपुर से सांसद का चुनाव भी लड़े। लेकिन पिछड़े तबके ने कभी उनका साथ नहीं दिया और लगातार चुनाव हारते रहे। यह अलग बाद है कि समाजवादी पार्टी के पुरोधा मुलायम सिंह यादव ने उन्हें अपने साथ बनाए रखा और भरपूर सम्मान भी दिया। इतना ही नहीं, किन्ही वजहों से एक बाद केदारनाथ सिंह सपा से नाराज हो गए। उस समय उन्हें तत्कालीन बसपा पुरोधा कांशीराम ने अपने पास बुलाया और बसपा से उन्हें न सिर्फ टिकट दिया, बल्कि पार्टी कैडर को पूरी तरह से सक्रिय होकर साथ देने का निर्देश भी दिया। लेकिन उसके बाद वह न कभी सांसद चुनाव जीते, न विधायक का।

पूर्वी उत्तर प्रदेश में सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने वाले सबसे बड़े योद्धा के रूप में केदारनाथ सिंह का नाम प्रमुख है। हाशिए पर खड़ा समाज हमेशा उनकी चिंता का विषय रहा। उनके समर्थक आज भी सम्मान से उन्हें “बाबू जी” कहते हैं।

केदारनाथ सिंह का जन्म उत्तर प्रदेश के महराजगंज जिले के राजपुर गांव के एक संपन्न परिवार में हुआ। उनके पिता श्रवण कुमार सिंह इलाके के जमींदार थे। भारत के स्वतंत्र होने के पहले राजपुर, महुअवा, कुन्नूर (बोदरवार) तक करीब 50 वर्ग किलोमीटर के इलाके की जमींदारी उनके प्रशासन क्षेत्र में आती थी। उनकी माता रामरती सिंह भी एक संपन्न जमींदार परिवार की थीं। अत्यंत सुविधासंपन्न परिवार में 7 सितंबर 1938 को जन्मे केदारनाथ सिंह की शिक्षा दीक्षा में कोई कमी नहीं रही और उन्हें बेहतरीन कॉलेजों में पढ़ने का मौका मिला। लेकिन पिपराइच के दलित पिछड़े बहुत इलाके की गरीबी ने उनके दिलो दिमाग पर गहरा असर डाला। शुरुआत में जहां उनके पिता ने परोक्ष रूप से स्वतंत्रता सेनानियों की मदद की, स्वतंत्रता के बाद पिपराइच क्षेत्र से कांग्रेस के नेता अक्षयबर सिंह को लगातार 3 बार चुनाव जिताने में अहम भूमिका निभाई, वहीं केदारनाथ सिंह ने कांग्रेस से अलग वंचित तबके की आवाज बनना उचित समझा। शारदा सिंह से विवाह के बाद वह पारिवारिक जीवन में उतरे। इस उनके 4 पुत्र हैं, जो विभिन्न क्षेत्रों में कार्य कर रहे हैं। बड़े पुत्र अजय कुमार सिंह उर्फ राकेश सिंह सैंथवार समाजवादी पार्टी से जुड़े हैं और हाल तक राम आसरे विश्वकर्मा के नेतृत्व में पिछड़ा वर्ग आयोग के सदस्य रहे। दूसरे नंबर के पुत्र अजित कुमार सिंह लखनऊ में बसे हैं और एक सफल कारोबारी हैं। डॉ आशीष कुमार सिंह दांत के चिकित्सक हैं और सामाजिक कार्यों में सक्रिय रहते हैं। वहीं सबसे छोटे पुत्र अमित कुमार सिंह बेंगलूरु में सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं।

केदारनाथ सिंह अंतिम समय तक वंचित तबके की लड़ाई लड़ते रहे। देश में सांप्रदायिक हिंसा की प्रयोगशाला रहे गोरखपुर में उन्होंने लगातार समरसता के लिए आवाज बुलंद की। केदारनाथ सिंह का सपना था कि 100 में 85 प्रतिशत वंचित आबादी को उसका हक मिले और वह इसके लिए लगातार संघर्ष करते रहे। भले ही चुनावी राजनीति ने उन्हें खारिज कर दिया, लेकिन वह अंत तक सच्चे समाजवादी नेता बने रहे। उनका सपना बना रहा कि लोग जाति की मानसिकता से उबरकर वर्ग हित में सोचें और पिछड़ा वर्ग जातियों में विभाजित न होकर वर्ग के रूप में उभरे। यह सपना देखते और इस सपने पर काम करते हुए उन्होंने भले ही अपना चमकता राजनीतिक जीवन कुर्बान कर दिया और सभी सुख, सुविधाएं उनसे दूर होती गईं लेकिन जीवन के आखिरी पल तक बाबू जी आम लोगों के दिलों में बसे रहे। गरीबों, वंचितों के बाबू जी का 13 दिसंबर 2012 को निधन हो गया। पिछड़ा वर्ग भले ही जातियों के खांचे में हिचकोले खा रहा है, लेकिन पिछड़े वर्ग का बुद्धिजीवी तबका अभी भी केदारनाथ सिंह के उस सपने पर काम करने में लगा हुआ है कि लोग जातियों का खांचा छोड़कर वर्गीय हित की ओर बढ़ें और समतामूलक समाज स्थापित कर राष्ट्रनिर्माण में अहम भूमिका निभाएं।

Sunday, September 24, 2017

क्या बीएचयू और भारत के अन्य विश्वविद्यालय अब तेहरान युनिवर्सिटी बनने की ओर बढ़ रहे हैं?

सत्येन्द्र पीएस

ईरान में 1979 में इस्लामिक क्रांति हुई। बड़े बड़े आंदोलन हुए। खोमैनी का शासन आ गया। ईरान इस्लामिक स्टेट बन गया। वहां सब कुछ बदल गया। ड्रेस कोड बना। विश्वविद्यालयों में इस्लामी पहनावा लागू हो गया। तरह-तरह के प्रतिबंध लग गए। अब हालात यह हैं कि जिस तेहरान युनिवर्सिटी को अमेरिका या ब्रिटेन के तमाम नामी गिरामी विश्वविद्यालयों के साथ मुकाबले के लिए जाना जाता था, उसका कोई नामलेवा नहीं है। क्या आपने सुना है कि आपका कोई परिचित कह रहा हो कि उसका सपना तेहरान युनिवर्सिटी में अपने बच्चे को पढ़ाने का है? ज्यादातर लोग तो जानते भी नहीं हैं कि ईरान या तेहरान में कोई युनिवर्सिटी भी है, या वहां के स्कूल कॉलेज को मदरसा वगैरा ही कहते हैं।



भारत में नरेंद्र मोदी सरकार आने के बाद तमाम बदलाव हुए। सरकार ने विश्वविद्यालयों में अपनी मर्जी के कुलपति रखे। उन्हीं में से एक काशी हिंदू विश्वविद्यालय है। काशी हिंदू विश्वविद्यालय को मैं हरि गौतम के जमाने से जानता हूं। उस समय कैंपस अशांत थे। तरह तरह के आंदोलन होते थे। गुंडे न केवल विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति में दखल करते थे, बल्कि वहां के तमाम प्रोफेसर राजनीतिक रूप से ताकतवर जातीय गुंडा राजनेताओं के आदमी बन चुके थे और विद्यार्थियों को भड़काते थे। आए दिन विश्वविद्यालय में मारपीट, गुंडागर्दी, बमबाजी होती थी।
हरि गौतम के समय से सख्ती शुरू हुई। कैंपस शांत हो गया। उसके बाद वाई सी सिम्हाद्री, पंजाब सिंह, लालजी सिंह कुलपति बने। सभी अपने ज्ञान क्षेत्र में अव्वल थे। पहले भी वाइस चांसलर या तमाम बड़े पदों पर रहने के बाद बीएचयू पहुंचे थे।
केंद्र में 2014 में नरेंद्र मोदी सरकार बनने के बाद प्रोफेसर गिरीश चंद्र त्रिपाठी कुलपति बने। उस समय तक मैंने कभी इनका नाम नहीं सुना था। नाम न सुनना कोई बड़ी बात नहीं। देश में तमाम ऐसे विद्वान हैं, जिनका हम नाम नहीं सुने हुए होते हैं। लेकिन बाद में पता करने पर जानकारी मिल जाती है कि संबंधित व्यक्ति की पृष्ठभूमि क्या है। मुझे याद है कि सबसे पहली जानकारी प्रोफेसर त्रिपाठी के बारे में यही मिली थी कि वह पंडित मदन मोहन मालवीय के नाती के बहुत खास हैं। उसके बाद मैंने कई स्रोतों से पता करने की कोशिश की कि त्रिपाठी की एकेडमिक या प्रशासनिक उपलब्धि क्या रही, लेकिन कुछ भी जानकारी नहीं मिल सकी।
त्रिपाठी के कुलपति बनने के बाद उनके एक से बढ़कर एक कारनामे सामने आने लगे। बयान तो किसी विकृत मानसिकता के पुरबिया क्षुद्र व्यक्ति से नीचे।
विश्वविद्यालय के परिसर में लाइब्रेरी को 24 घंटे खोले जाने के लिए चल रहे आंदोलन के दौरान उनके बयानों को देखें। उन्होंने कहा, “लड़के बदमाश हैं, कॉपर वायर तोड़ ले जात्ते हैं, माउस चुरा ले जाते हैं, हार्डडिस्क निकालकर ले जाते हैं। पेन ड्राइव में अश्लील फ़िल्में देखते हैं। इन सबसे अलग उनके वहां रहने से एकदम दूसरी समस्या पैदा हो सकती है कि वे वहां क्या कर रहे हैं?”

शायद प्रोफेसर त्रिपाठी को अपने देश के ही जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी के बारे में ही जानकारी नहीं है, जहां विद्यार्थियों को 24 घंटे पढ़ने की सुविधा दी जाती है। वहां सेक्सुअल क्राइम के केसेज बहुत कम सामने आते हैं। आप कैंपस में घूमिए। तमाम झाड़ियां हैं। पहाड़ी विश्वविद्यालय बना है और आधे से ज्यादा छात्राएं हैं। लेकिन कहीं कुछ भी आपत्तिजनक या अश्लील या सेक्सुअल क्राइम नहीं मिलता, जबकि प्रोफेसर त्रिपाठी ने विश्वविद्यालय कैंपस में क्या ढूंढा, उनके इस बयान से अंदाज लगा सकते हैं। उन्होंने कहा, “एक बात मैंने यहां सघन तलाशी करायी। रात नौ बजे के बाद शहर के तमाम लड़के और लड़कियां यहां बैठे रहते हैं। अपनी कार से रात में निकला, लोगों ने कहा कि अरे आप वीसी हैं, हम ले चलते हैं। लेकिन मैं अध्यापक हूं। मैं निकला और मैंने देखा कि एक लड़का और लड़की ऐसी अवस्था में बैठे थे कि क्या बताऊं. मैंने गाड़ी रोकी। मैंने बैठा लिया गाड़ी में, कुछ और नहीं किया. मैंने केवल इतना कहा कि चलो तुम्हारे गार्जियन से बात करें. वे गिडगिडाने लगे, अरे नहीं सर, गलती हो गयी सर। फिर मैंने उन्हें छोड़ भी दिया।”

यह है काशी हिंदू विश्वविद्यालय का माहौल। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में कंडोम गिनने का ठेका तो भारतीय जनता पार्टी के विधायक को दिया गया है, लेकिन बीएचयू में कंडोम बीनने खुद कुलपति निकल चुके हैं। उनका यह मकसद कतई नहीं रह गया है कि विश्वविद्यालय में ऐसा माहौल बना दिया जाए, जहां बच्चों के दिमाग में विश्व का सर्वश्रेष्ठ विद्यार्थी बनने और लगातार पठन पाठन, शोध में रहे बल्कि वह विद्यार्थियों को किसी अलग ही नियम में बांधने को आतुर नजर आते हैं। जबकि हकीकत यह है कि विश्वविद्यालय में श्रेष्ठ विद्यार्थियों का एडमिशन होता है, जिनका पहले से एकेडमिक रिकॉर्ड बहुत शानदार रहा होता है। विश्वविद्यालय कड़ी परीक्षा लेने के बाद विद्यार्थियों को एडमिशन देता है। वाराणसी में कुल मिलाकर 4 विश्वविद्यालय हैं। महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय, उदय प्रताप स्वायत्तशासी कॉलेज के अलावा पूर्वांचल विश्वविद्यालय जौनपुर के डिग्री कॉलेज भी शहर में हैं। इसके अलावा बौद्ध विश्वविद्यालय़ भी सारनाथ में उपस्थित है। इन सबकी मौजूदगी के बीच विद्यार्थियों का सपना होता है कि वह अगर वाराणसी में पढ़ें तो बीएचयू में ही पढ़ें। बाहरी दुनिया के बच्चे भी बीएचयू में ही पढ़ने आते हैं। इस स्थिति में स्वाभाविक रूप से विश्वविद्यालय में क्रीम स्टूडेंट्स को ही जगह मिल पाती है।

हालांकि जेएनयू को भी श्रेष्ठ विश्वविद्यालय नहीं माना जा सकता। वैश्विक दुनिया में जेएनयू का कोई खास मुकाम नहीं है। लेकिन बमुश्किल 10,000 विद्यार्थियों के कैंपस का भारत के स्तर पर सफलता का अनुपात जबरदस्त है। वहां से आईएएस निकलते हैं, ब्यूरोक्रेट्स निकलते हैं, राष्ट्रीय स्तर के नेता निकलते हैं। वहीं अगर मौजूदा बीएचयू को देखें तो देश के प्रतिष्ठित संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा में अक्सर बीएचयू का नाम गायब रहता है, जो एक लाख विद्यार्थियों का कैंपस है। वैश्विक स्तर पर विश्वविद्यालय की स्थिति तो जाने ही दें।
काशी हिंदू विश्वविद्यालय में जातीय लंपटई का इतिहास पुराना है। यह देश का एकमात्र ऐसा विश्वविद्यालय है जहां 80 के दशक तक एडमिशन के लिए फार्म भरने वाले विद्यार्थियों से यह पूछा जाता था कि आप ब्राह्मण हैं या गैर ब्राह्मण। मोटे तौर पर इस समय भी विश्वविद्यालय में 70-80 प्रतिशत ब्राह्मण टीचिंग स्टाफ है। इतना ही नहीं, तमाम प्रोफेसर तो खानदानी हैं, जो वहां कई पीढ़ियों से पढ़ाए जाने के योग्य पाए जा रहे हैं। ऐसे में जातीय बजबजाहट यहां नई बात नहीं है।

इन सबके बावजूद हाल के वर्षों में ब्राह्मण या गैर ब्राह्मण पूछा जाना बंद हुआ। जातीय कुंठा भी कुछ घटी और अध्यापक नहीं तो विद्यार्थियों में जातीय विविधता आई। आरएसएस के स्वयंसेवक प्रोफेसर त्रिपाठी के कुलपति बनने के बाद विश्वविद्यालय एक बार फिर ब्राह्मणवादी कुंठा में फंसता नजर आ रहा है।

(बीएचयू बज, फेसबुक से ली गई तस्वीर। लड़कियों पर लाठी चार्ज के बाद)
विश्वविद्यालय में कुलपति अपने को गैर राजनीतिक होने का दावा कर रहे हैं। लेकिन मामला इससे उलट है। अगर विश्वविद्यालय की छात्राएं छेड़खानी का विरोध कर रही हैं तो उन पर लाठियां चल रही हैं। विश्वविद्यालय के सुरक्षाकर्मियों की लंबी चौड़ी फौज है, जिनकी कैंपस में जबरदस्त गुंडागर्दी चलती है। वह मामला नहीं संभाल पाते हैं तो बाहर से पुलिस और पीएसी बुलाई जाती है। रात रात भर कैंपस में बवाल चलता है। लड़कियों को पीट पीटकर पुलिस हाथ पैर तोड़ देती है।

यह मामला काशी हिंदू विश्वविद्यालय तक सीमित नहीं है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कुलपति परिसर में टैंक रखवाना चाहते हैं, जिससे विद्यार्थियों में देशभक्ति आए। विश्वविद्यालय के कुलपति को टैंक में देशभक्ति दिखती है।

इसमें सबसे ज्यादा बुरा हाल छात्राओं का होने जा रहा है। भारतीय जनता पार्टी के सांसद साक्षी महराज बयान देते हैं कि लड़कियां मोटरसाइकिल पर बैठकर चलती हैं, इसलिए उनके साथ बलात्कार हो जाता है।

सवाल यह है कि हम किस दौर की ओर बढ़ रहे हैं। क्या हम इस्लामिक स्टेट की तरह भारत को हिंदू स्टेट बनाकर बर्बादी की ओर ले जाना चाहते हैं या रूस, ब्रिटेन, अमेरिका, जापान, यूरोपियन यूनियन की तरह समृद्ध और खुला समाज चाहते हैं? भारत में तो यह कल्पना करना भी मुश्किल है कि कोई लड़की या महिला रात के सुनसान में अपने घर से निकलकर अकेले कहीं सड़क पर घूम सकती है, या किसी अपने परिचित की मदद के लिए पैदल निकल सकती है। महिला ही क्या, पुरुष भी यह सोचकर नहीं निकल सकते कि दो बजे रात को अगर वह सड़क पर जा रहे हों तो सुरक्षित घर लौटेंगे या नहीं। लेकिन किसी भी सभ्य, विकसित देश में यह आम बात है। फैसला हमें करना है कि हम देश को किस तरफ ले जाना चाहते हैं। विकसित, समृद्ध, सुरक्षित देश बनना चाहते हैं जहां ज्ञान विज्ञान और सुविधाओं के साथ सुरक्षा हो, या इस्लामिक स्टेट आफ ईरान की तरह हिंदू स्टेट आफ इंडिया बनना चाहते हैं।

फोटो क्रेडिट -1 और 2
http://www.dailymail.co.uk/travel/travel_news/article-4148684/Stunning-photos-reveal-life-Iran-revolution.html
फोटो क्रेडिट-3
http://www.payvand.com/news/17/sep/1083.html





दक्षिण भारत का टैक्स डिनायल सत्याग्रह कर रहा केंद्र सरकार की नाक में दम, आइए देखें क्या मामला है और क्यों हो रहा है आंदोलन



सत्येन्द्र पीएस

वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) लागू किए जाने को कर की दिशा में ऐतिहासिक कदम करार दिया जा रहा है, वहीं 1 जुलाई 2017 से लागू कर व्यवस्था में तमाम विसंगतिया सामने आ रही हैं। दक्षिण भारत में इस कर के खिलाफ कर अवज्ञा सत्याग्रह (टैक्स डिनायल सत्याग्रह) चल रहा है।
कर अवज्ञा सत्याग्रह चला रहे ‘सत्याग्रह ग्राम सेवक संघ’ का कहना है कि आजादी के बाद पहली बार हस्तशिल्प को कर के दायरे में लाया गया है। यह गरीब तबके, कुटीर एवं लघु उद्योग चलाने वालों का एकमात्र सहारा है, जिसे अब तक सरकारें संरक्षण देती रही हैं, क्योंकि बड़ी संख्या में लोग इस क्षेत्र से रोजगार पाते हैं और स्थानीय कलाकारों को अपनी कला के प्रदर्शन का मौका भी मिलता है।
सत्याग्रहियों का कहना है कि प्राकृतिक उत्पाद स्वाभाविक रूप से महंगे होते हैं। वे उदाहरण देते हुए बताते हैं कि खादी की साड़ी की कीमह सूरत की सिंथेटिक साड़ी से हमेशा महंगी होती है। अब कर लगने के बाद उसका दाम और बढ़ जाएगा।
एक तर्क यह भी सामने आता है कि अगर कोई उत्पाद बाजार में प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकता है तो क्यों न उसे बाजार से बाहर हो जाने दिया जाए ? हालांकि साथ में एक अभियान यह भी चल रहा है कि प्रकृति और प्राकृतिक उत्पादों की ओर चलना चाहिए, जो कहीं ज्यादा सुरक्षित और प्रकृति के अनुकूल हैं। प्राकृतिक उत्पादों की ओर जाने का अभियान न सिर्फ भारत में बल्कि पूरी दुनिया में चल रहा है। वहीं भारत की सरकार ने हाथ से बने सामान पर कर लगा दिया।
उत्तर भारत में तो हस्त शिल्प का ज्यादा महत्त्व नहीं रहा और ज्यादातर ग्रामीण अर्थव्यवस्था और हस्तशिल्प उत्पाद खत्म होते जा रहे हैं। वहीं तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक जैसे राज्यों में सरकारों ने हस्तशिल्प पर विशेष ध्यान दिया। इसकी एक वजह यह हो सकती है कि दक्षिण में पिछले 100 साल के पिछड़े वर्ग के आंदोलन ने बहुत कुछ बदला है। दक्षिण में न सिर्फ सरकारी नौकरियों में दलितों-पिछड़ों के लिए आरक्षण की व्यवस्था है बल्कि उन राज्यों ने हस्तशिल्प पर खासा जोर दिया, जिससे लघु व कुटीर उद्योगों को संरक्षण मिला, उनका विकास हुआ। इन उद्योगों में बड़े पैमाने पर दलितों व पिछड़े वर्ग की रोजी रोटी सुरक्षित है। आधुनिक और भारी भरकम तकनीकी फैक्टरियों के साथ दक्षिण में हस्तशिल्प को भी जगह मिली। कुटीर एवं लघु उद्योगों को भी जगह मिली।
भारत में भाषायी विविधता के साथ भौगोलिक दूरी के कारण सामान्यतया लोग नहीं जान पाते कि दक्षिण भारत में क्या चल रहा है। स्वाभाविक है कि इस कर अवज्ञा आंदोलन को भी उत्तर भारत में कोई पूछने वाला नहीं है।
इस आंदोलन को चला रहे लोगों की अपील है कि जीएसटी के विरोध में हम हैंडलूम उत्पाद बगैर कोई कर लिए या बगैर किसी कर भुगतान के खरीद सकते हैं। कर देने से इनकार करना सविनय अवज्ञा है। आंदोलनकारियों का कहना है कि इस अभियान का हिस्सा बन कर आप न सिर्फ गांव के गरीब लोगों की आजीविका बचा सकते हैं, बल्कि अपने वातावरण को प्रकृति के अनुकूल बनाने में सहयोग दे सकते हैं।
हस्त शिल्प पर कर लगाए जाने के विरोध में जाने माने साहित्यकार उदय प्रकाश कहते हैं, “क्या महात्मा गांधी के चरखे से काढ़ी गयी और कस्तूरबा की तकली से काती गयी सूत पर भी ये सरकार जीएसटी लगाती ? कुछ तो देश की जनता के हाथों और पसीने का लिहाज़ बचे ! हे राम !” दक्षिण के आंदोलनकारी और ग्रामीणों को उन राज्यों के बुद्धिजीवियों का भी समर्थन मिल रहा है। बाकायदा फेसबुक और ट्विटर पर #taxdenialsatyagraha हैशटैग से हस्तशिल्प पर लगने वाले कर के खिलाफ लिखा जा रहा है।
इसके अलावा भी तमाम कर लगाए गए हैं, जो असंगत लगते हैं। सरकार ने तमाम लग्जरी उत्पादों, जैसे सोने के आयात, कारों आदि पर कर कम रखा है। वहीं तमिलनाडु में सबसे ज्यादा प्रचलित वेट ग्राइंडर को लग्जरी आयटम में डाल दिया।
उत्तर भारत के ज्यादातर लोग वेट ग्राइंडर से परिचित नहीं होंगे। हालांकि दक्षिण का डोसा करीब हर भारतीय ने खा लिया है और वह लोगों की जीभ के स्वाद पर चढ़ चुका है। डोसे को बनाने के लिए जिस तरल खाद्य का इस्तेमाल किया जाता है, वह वेट ग्राइंडर से बनता है। कोयंबत्तूर का वेट ग्राइंडर उद्योग अपने ऊपर लगाए गए 28 प्रतिशत कर का विरोध कर रहा है। देश भर में यहीं से वेट ग्राइंडर की आपूर्ति होती है। मूल्यवर्धित कर (वैट) के तहत इस उद्योग पर 4 प्रतिशत कर था। कोयंबत्तूर वेट ग्राइंडर एंड एक्सेसरीज मैन्युफैक्चरिंग एसोसिएशन (सीओडब्लूएमए) के अध्यक्ष एम राधाकृष्णन ने एक आर्थिक अखबार बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया, 'उत्तर भारत से अच्छी पूछताछ आ रही है, लेकिन 28 प्रतिशत कर लगने के बाद कोई भी खरीदना नहीं चाहेगा।'
http://www.business-standard.com/article/economy-policy/gst-impact-wet-grinder-industry-fears-major-blow-with-28-rate-117060800756_1.html
माना जाता है कि वाशिंग मशीन ने पूरी दुनिया में महिलाओं की जिंदगी बदल दी है। वाशिंग मशीन के चलते न सिर्फ महिलाओं की काम करने की रचनात्मक क्षमता बढ़ी, बल्कि इससे उनके समय का दुरुपयोग खत्म हुआ। इसी तरह से दक्षिण भारत में वेट ग्राइंडर ने महिलाओं की जिंदगी बदल दी। डोसा बनाने के लिए चावल पीसने, घोंटने, उसे मथकर खमीर उठाने की प्रक्रिया में महिलाओं की अच्छी खासी दुर्गति होती थी, लेकिन इस मशीन ने घंटों का काम मिनटों में करना शुरू कर दिया। राज्य के हर अमीर गरीब परिवार में वेट ग्राइंडर मिलती है। इतना ही नहीं, ठेले से लेकर छोटे मोटे रेस्टोरेंटों में भी इसका खूब इस्तेमाल होता है।
वेट ग्राइंडर की महत्ता इससे समझी जा सकती है कि मौजूदा अन्नाद्रमुक सरकार ने चुनाव के पहले लोगों से वादा किया था कि अगर पार्टी चुनाव जीतती है तो वह हर परिवार को मुफ्त में वेट ग्राइंडर देगी। तमिलनाडु सरकार अपने चुनावी वादे के मुताबिक पिछले 4 साल से इसकी आपूर्ति लोगों को मुफ्त में कर रही है। इस दौरान राज्य सरकार ने 3,600 करोड़ रुपये के 1.8 करोड़ वेट ग्राइंडर कोयंबटूर के विनिर्माताओं से खरीदे हैं।
सरकार के इस रवैये से क्षुब्ध उदय प्रकाश कहते हैं, “आज से 88 साल पहले अंग्रेज़ों ने नमक पर कर लगाया था। अब हस्त शिल्प, दस्तकारी, गांवों के लोगों के हाथों से बने सामग्री पर जीएसटी। आज अगर मध्यकाल के संत कबीर , रविदास, वचनकार, नाभादास, नानक या आज के भारत के महात्मा गांधी ही होते, तो टैक्स देना पड़ता। कैसी उलट बांसी है- तमाम बाबाओं के प्रोडक्ट्स पर टैक्स से छूट और संतों- गांव देहात, कस्बों और शहर के अंतरे-कोने में रहने वाले हस्तशिल्पियों के मेहनत के उत्पाद पर टैक्स। क्या एक और सत्याग्रह नहीं हो सकता? कर-अवज्ञा-सत्याग्रह ?”
अभियान चलाने वाले सत्याग्रही कहते हैं कि आखिर स्वराज क्या है? स्वराज न तो हिंदुत्व है, न इस्लामवाद। यह राष्ट्रवाद भी नहीं है। स्वराज का सीधा सा मतलब स्वशासन से है। उनका कहना है कि अब स्वराज और स्वशासन को नष्ट किया जा रहा है। इस तरह के कर के माध्यम से लोगों के खुद के रोजगार व धंधे छीने जा रहे हैं, जिससे विदेशी कंपनियां ही नहीं बल्कि भारत की बहुराष्ट्रीय कंपनियों को फायदा मिले।

Wednesday, September 6, 2017

गौरी लंकेश का आख़िरी संपादकीय


(गौरी लंकेश की हत्या कर दी गई। अभी तक हत्या किए जाने की वजह नहीं पता है। संभव है कि यह हत्या किसी ने व्यक्तिगत दुश्मनी में की हो। संभव है कि उनके लेखन की वजह से की गई हो। हत्या तो हर हाल में निंदनीय है, लेकिन अगर कुछ लिखने की वजह से हत्या हो जाती है तो यह बेहद खतरनाक है। सामान्यतया विचार बदलते रहते हैं। तमाम मामलों में देखा गया है कि उदार लोग कट्टर हो जाते हैं। दक्षिणपंथी लोग वाम की दिशा में चले जाते हैं। तमाम वामपंथियों ने कांग्रेस और भाजपा का दामन थाम लिया। ऐसे में अगर वैचारिक हत्या की संस्कृति फैलती है तो यह बेहद खतरनाक है। गौरी ने अपने टेबलायड अखबार में जो आखिरी संपादकीय लिखा है, वह झूठ फैलाए जाने के खिलाफ है। खासकर उस विचारधारा के खिलाफ, जिसका शासन इस समय भारत में चल रहा है। इसे रवीश कुमार के ब्लॉग कस्बा से साभार लिया गया है।)


फेक न्यूज़ के ज़माने में

इस हफ्ते के इश्यू में मेरे दोस्त डॉ वासु ने गोएबल्स की तरह इंडिया में फेक न्यूज़ बनाने की फैक्ट्री के बारे में लिखा है। झूठ की ऐसी फैक्ट्रियां ज़्यादातर मोदी भक्त ही चलाते हैं। झूठ की फैक्ट्री से जो नुकसान हो रहा है मैं उसके बारे में अपने संपादकीय में बताने का प्रयास करूंगी। अभी परसों ही गणेश चतुर्थी थी। उस दिन सोशल मीडिया में एक झूठ फैलाया गया। फैलाने वाले संघ के लोग थे। ये झूठ क्या है? झूठ ये है कि कर्नाटक सरकार जहां बोलेगी वहीं गणेश जी की प्रतिमा स्थापित करनी है, उसके पहले दस लाख का डिपाज़िट करना होगा, मूर्ति की ऊंचाई कितनी होगी, इसके लिए सरकार से अनुमति लेनी होगी, दूसरे धर्म के लोग जहां रहते हैं उन रास्तों से विसर्जन के लिए नहीं ले जा सकते हैं। पटाखे वगैरह नहीं छोड़ सकते हैं। संघ के लोगों ने इस झूठ को खूब फैलाया। ये झूठ इतना ज़ोर से फैल गया कि अंत में कर्नाटक के पुलिस प्रमुख आर के दत्ता को प्रेस बुलानी पड़ी और सफाई देनी पड़ी कि सरकार ने ऐसा कोई नियम नहीं बनाया है। ये सब झूठ है।

इस झूठ का सोर्स जब हमने पता करने की कोशिश की तो वो जाकर पहुंचा POSTCARD.IN नाम की वेबसाइट पर। यह वेबसाइट पक्के हिन्दुत्ववादियों की है। इसका काम हर दिन फ़ेक न्यूज़ बनाकर बनाकर सोशल मीडिया में फैलाना है। 11 अगस्त को POSTCARD.IN में एक हेडिंग लगाई गई। कर्नाटक में तालिबान सरकार। इस हेडिंग के सहारे राज्य भर में झूठ फैलाने की कोशिश हुई। संघ के लोग इसमें कामयाब भी हुए। जो लोग किसी न किसी वजह से सिद्धारमैया सरकार से नाराज़ रहते हैं उन लोगों ने इस फ़ेक न्यूज़ को अपना हथियार बना लिया। सबसे आश्चर्य और खेद की बात है कि लोगों ने भी बग़ैर सोचे समझे इसे सही मान लिया। अपने कान, नाक और भेजे का इस्तमाल नहीं किया।

पिछले सप्ताह जब कोर्ट ने राम रहीम नाम के एक ढोंगी बाबा को बलात्कार के मामले में सज़ा सुनाई तब उसके साथ बीजेपी के नेताओं की कई तस्वीरें सोशल मीडिया में वायर होने लगी। इस ढोंगी बाबा के साथ मोदी के साथ साथ हरियाणा के बीजेपी विधायकों की फोटो और वीडियो वायरल होने लगा। इससे बीजेपी और संघ परिवार परेशान हो गए। इसे काउंटर करने के लिए गुरमीत बाबा के बाज़ू में केरल के सीपीएम के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन के बैठे होने की तस्वीर वायरल करा दी गई। यह तस्वीर फोटोशाप थी। असली तस्वीर में कांग्रेस के नेता ओमन चांडी बैठे हैं लेकिन उनके धड़ पर विजयन का सर लगा दिया गया और संघ के लोगों ने इसे सोशल मीडिया में फैला दिया। शुक्र है संघ का यह तरीका कामयाब नहीं हुआ क्योंकि कुछ लोग तुरंत ही इसका ओरिजनल फोटो निकाल लाए और सोशल मीडिया में सच्चाई सामने रख दी।

एक्चुअली, पिछले साल तक राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के फ़ेक न्यूज़ प्रोपेगैंडा को रोकने या सामने लाने वाला कोई नहीं था। अब बहुत से लोग इस तरह के काम में जुट गए हैं, जो कि अच्छी बात है। पहले इस तरह के फ़ेक न्यूज़ ही चलती रहती थी लेकिन अब फ़ेक न्यूज़ के साथ साथ असली न्यूज़ भी आनी शुरू हो गए हैं और लोग पढ़ भी रहे हैं।

उदाहरण के लिए 15 अगस्त के दिन जब लाल क़िले से प्रधानमंत्री मोदी ने भाषण दिया तो उसका एक विश्लेषण 17 अगस्त को ख़ूब वायरल हुआ। ध्रुव राठी ने उसका विश्लेषण किया था। ध्रुव राठी देखने में तो कालेज के लड़के जैसा है लेकिन वो पिछले कई महीनों से मोदी के झूठ की पोल सोशल मीडिया में खोल देता है। पहले ये वीडियो हम जैसे लोगों को ही दिख रहा था,आम आदमी तक नहीं पहुंच रहा था लेकिन 17 अगस्ता के वीडियो एक दिन में एक लाख से ज़्यादा लोगों तक पहुंच गया। ( गौरी लंकेश अक्सर मोदी को बूसी बसिया लिखा करती थीं जिसका मतलब है जब भी मुंह खोलेंगे झूठ ही बोलेंगे)। ध्रुव राठी ने बताया कि राज्य सभा में ‘बूसी बसिया’ की सरकार ने राज्य सभा में महीना भर पहले कहा कि 33 लाख नए करदाता आए हैं। उससे भी पहले वित्त मंत्री जेटली ने 91 लाख नए करदाताओं के जुड़ने की बात कही थी। अंत में आर्थिक सर्वे में कहा गया कि सिर्फ 5 लाख 40 हज़ार नए करदाता जुड़े हैं। तो इसमें कौन सा सच है, यही सवाल ध्रुव राठी ने अपने वीडियो में उठाया है।

आज की मेनस्ट्रीम मीडिया केंद्र सरकार और बीजेपी के दिए आंकड़ों को जस का तस वेद वाक्य की तरह फैलाती रहती है। मेन स्ट्रीम मीडिया के लिए सरकार का बोला हुआ वेद वाक्य हो गया है। उसमें भी जो टीवी न्यूज चैनल हैं, वो इस काम में दस कदम आगे हैं। उदाहरण के लिए, जब रामनाथ कोविंद ने राष्ट्रपति पद की शपथ ली तो उस दिन बहुत सारे अंग्रज़ी टीवी चैनलों ने ख़बर चलाई कि सिर्फ एक घंटे में ट्वीटर पर राष्ट्रपति कोविंद के फोलोअर की संख्या 30 लाख हो गई है। वो चिल्लाते रहे कि 30 लाख बढ़ गया, 30 लाख बढ़ गया। उनका मकसद यह बताना था कि कितने लोग कोविंद को सपोर्ट कर रहे हैं। बहुत से टीवी चैनल आज राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की टीम की तरह हो गए हैं। संघ का ही काम करते हैं। जबकि सच ये था कि उस दिन पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का सरकारी अकाउंट नए राष्ट्रपति के नाम हो गया। जब ये बदलाव हुआ तब राष्ट्रपति भवन के फोलोअर अब कोविंद के फोलोअर हो गए। इसमें एक बात और भी गौर करने वाली ये है कि प्रणब मुखर्जी को भी तीस लाख से भी ज्यादा लोग ट्वीटर पर फोलो करते थे।

आज राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के इस तरह के फैलाए गए फ़ेक न्यूज़ की सच्चाई लाने के लिए बहुत से लोग सामने आ चुके हैं। ध्रुव राठी वीडियो के माध्यम से ये काम कर रहे हैं। प्रतीक सिन्हा altnews.in नाम की वेबसाइट से ये काम कर रहे हैं। होक्स स्लेयर, बूम और फैक्ट चेक नाम की वेबसाइट भी यही काम कर रही है। साथ ही साथ THEWIERE.IN, SCROLL.IN, NEWSLAUNDRY.COM, THEQUINT.COM जैसी वेबसाइट भी सक्रिय हैं। मैंने जिन लोगों ने नाम बताए हैं, उन सभी ने हाल ही में कई फ़ेक न्यूज़ की सच्चाई को उजागर किया है। इनके काम से संघ के लोग काफी परेशान हो गए हैं। इसमें और भी महत्व की बात यह है कि ये लोग पैसे के लिए काम नहीं कर रहे हैं। इनका एक ही मकसद है कि फासिस्ट लोगों के झूठ की फैक्ट्री को लोगों के सामने लाना।

कुछ हफ्ते पहले बंगलुरू में ज़ोरदार बारिश हुई। उस टाइम पर संघ के लोगों ने एक फोटो वायरल कराया। कैप्शन में लिखा था कि नासा ने मंगल ग्रह पर लोगों के चलने का फोटो जारी किया है। बंगलुरू नगरपालिका बीबीएमसी ने बयान दिया कि ये मंगल ग्रह का फोटो नहीं है। संघ का मकसद था, मंगल ग्रह का बताकर बंगलुरू का मज़ाक उड़ाना। जिससे लोग यह समझें कि बंगलुरू में सिद्धारमैया की सरकार ने कोई काम नही किया, यहां के रास्ते खराब हो गए हैं, इस तरह के प्रोपेगैंडा करके झूठी खबर फैलाना संघ का मकसद था। लेकिन ये उनको भारी पड़ गया था क्योंकि ये फोटो बंगलुरू का नहीं, महाराष्ट्र का था, जहां बीजेपी की सरकार है।

हाल ही में पश्चिम बंगाल में जब दंगे हुए तो आर एस एस के लोगों ने दो पोस्टर जारी किए। एक पोस्टर का कैप्शन था, बंगाल जल रहा है, उसमें प्रोपर्टी के जलने की तस्वीर थी। दूसरे फोटो में एक महीला की साड़ी खींची जा रही है और कैप्शन है बंगाल में हिन्दु महिलाओं के साथ अत्याचार हो रहा है। बहुत जल्दी ही इस फोटो का सच सामने आ गया। पहली तस्वीर 2002 के गुजरात दंगों की थी जब मुख्यमंत्री मोदी ही सरकार में थे। दूसरी तस्वीर में भोजपुरी सिनेमा के एक सीन की थी। सिर्फ आर एस एस ही नहीं बीजेपी के केंद्रीय मंत्री भी ऐसे फ़ेक न्यूज़ फैलाने में माहिर हैं। उदाहरण के लिए, केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने फोटो शेयर किया कि जिसमें कुछ लोग तिरंगे में आग लगा रहे थे। फोटो के कैप्शन पर लिखा था गणतंत्र के दिवस हैदराबाद में तिरंगे को आग लगाया जा रहा है। अभी गूगल इमेज सर्च एक नया अप्लिकेशन आया है, उसमें आप किसी भी तस्वीर को डालकर जान सकते हैं कि ये कहां और कब की है। प्रतीक सिन्हा ने यही काम किया और उस अप्लिकेशन के ज़रिये गडकरी के शेयर किए गए फोटो की सच्चाई उजागर कर दी। पता चला कि ये फोटो हैदराबाद का नहीं है। पाकिस्तान का है जहां एक प्रतिबंधित कट्टरपंथी संगठन भारत के विरोध में तिरंगे को जला रहा है।

इसी तरह एक टीवी पैनल के डिस्कशन में बीजेपी के प्रवक्ता संबित पात्रा ने कहा कि सरहद पर सैनिकों को तिरंगा लहराने में कितनी मुश्किलें आती हैं, फिर जे एन यू जैसे विश्वविद्यालयों में तिरंगा लहराने में क्या समस्या है। यह सवाप पूछकर संबित ने एक तस्वीर दिखाई। बाद में पता चला कि यह एक मशहूर तस्वीर है मगर इसमें भारतीय नहीं, अमरीकी सैनिक हैं। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान अमरीकी सैनिकों ने जब जापान के एक द्वीप पर क़ब्ज़ा किया तब उन्होंने अपना झंडा लहराया था। मगर फोटोशाप के ज़रिये संबित पात्रा लोगों को चकमा दे रहे थे। लेकिन ये उन्हें काफी भारी पड़ गया। ट्वीटर पर संबित पात्रा का लोगों ने काफी मज़ाक उड़ाया।

केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल ने हाल ही में एक तस्वीर साझा की। लिखा कि भारत 50,000 किलोमीटर रास्तों पर सरकार ने तीस लाख एल ई डी बल्ब लगा दिए हैं। मगर जो तस्वीर उन्होंने लगाई वो फेक निकली। भारत की नहीं, 2009 में जापान की तस्वीर की थी। इसी गोयल ने पहले भी एक ट्वीट किया था कि कोयले की आपूर्ति में सरकार ने 25,900 करोड़ की बचत की है। उस ट्वीट की तस्वीर भी झूठी निकली।

छत्तीसगढ़ के पी डब्ल्यू डी मंत्री राजेश मूणत ने एक ब्रिज का फोटो शेयर किया। अपनी सरकार की कामयाबी बताई। उस ट्वीट को 2000 लाइक मिले। बाद में पता चला कि वो तस्वीर छत्तीसगढ़ की नहीं, वियतनाम की है।

ऐसे फ़ेक न्यूज़ फैलाने में हमारे कर्नाटक के आर एस एस और बीजेपी लीडर भी कुछ कम नहीं हैं। कर्नाटक के सांसद प्रताप सिम्हा ने एक रिपोर्ट शेयर किया, कहा कि ये टाइम्स आफ इंडिय मे आया है। उसकी हेडलाइन ये थी कि हिन्दू लड़की को मुसलमान ने चाकू मारकर हत्या कर दी। दुनिया भर को नैतिकता का ज्ञान देने वाले प्रताप सिम्हा ने सच्चाई जानने की ज़रा भी कोशिश नहीं की। किसी भी अखबार ने इस न्यूज को नहीं छापा था बल्कि फोटोशाप के ज़रिए किसी दूसरे न्यूज़ में हेडलाइन लगा दिया गया था और हिन्दू मुस्लिम रंग दिया गया। इसके लिए टाइम्स आफ इंडिया का नाम इस्तमाल किया गया। जब हंगामा हुआ कि ये तो फ़ेक न्यूज़ है तो सांसद ने डिलिट कर दिया मगर माफी नहीं मांगी। सांप्रादायिक झूठ फैलाने पर कोई पछतावा ज़ाहिर नहीं किया।

जैसा कि मेरे दोस्त वासु ने इस बार के कॉलम में लिखा है, मैंने भी एक बिना समझे एक फ़ेक न्यूज़ शेयर कर दिया। पिछले रविवार पटना की अपनी रैली की तस्वीर लालू यादव ने फोटोशाप करके साझा कर दी। थोड़ी देर में दोस्त शशिधर ने बताया कि ये फोटो फर्ज़ी है। नकली है। मैंने तुरंत हटाया और ग़लती भी मानी। यही नहीं फेक और असली तस्वीर दोनों को एक साथ ट्वीट किया। इस गलती के पीछे सांप्रदियाक रूप से भड़काने या प्रोपेगैंडा करने की मंशा नहीं थी। फासिस्टों के ख़िलाफ़ लोग जमा हो रहे थे, इसका संदेश देना ही मेरा मकसद था। फाइनली, जो भी फ़ेक न्यूज़ को एक्सपोज़ करते हैं, उनको सलाम । मेरी ख़्वाहिश है कि उनकी संख्या और भी ज़्यादा हो।

Wednesday, April 26, 2017

धूल फांक रही हैं मंडल आयोग की 40 में से 38 सिफारिशें


सत्येन्द्र पीएस

"गरीब का आंसू कुछ समय तक तो आंसू रहता है, लेकिन वही आंसू फिर तेजाब बन जाता है जो इतिहास के पन्नों को चीर करके धरती पर अपना व्यक्तित्व बनाता है। यॆ समझ लीजिए कि गरीब की आंख में जब तक आंसू हैं, आंसू हैं लेकिन जब आंसू सूख जाते हैं तो उसकी आंखें अंगार हो जाती हैं और इतिहास ने ये बताया है कि जब गरीबों की आंखें अंगार होती हैं तो सोने के भी महल पिघल करके पनालों में बहते हैं।"
विश्वनाथ प्रताप सिंह, मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने के बाद 15 अगस्त 1990 को लाल किले की प्राचीर से
मंडल आयोग की सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने की सिर्फ एक सिफारिश लागू होने पर देश में ऐसा तूफान उठा, मानो अगर 52 प्रतिशत आबादी को कुछ जगह सरकारी नौकरियों में दे दी गई तो देश पर कोई आफत आ जाएगी। जगह जगह धरने प्रदर्शन हुए। कांग्रेस ने पिछले दरवाजे से आरक्षण विरोधियों का समर्थन किया। भाजपा ने कांग्रेस की रणनीति अपनाने के साथ उस समय की विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार को गिरा दिया।
बहरहाल अब ओबीसी आरक्षण लागू होने के 25 साल बाद उसकी समीक्षा की मांग उठने लगी है। मंडल आयोग ने भी अपनी सिफारिश में कहा था कि सिफारिशें लागू होने के 20 साल बाद इसकी समीक्षा होनी चाहिए। हालांकि यह नहीं कहा था कि सिर्फ एक सिफारिश लागू करने के बाद ही समीक्षा हो जानी चाहिए कि उसका लाभ हुआ या नहीं।


अब जब आरक्षण विरोधी समीक्षा की मांग कर रहे हैं तो आरक्षण का आंशिक लाभ पाने वाला तबका भी आरक्षण की समीक्षा की मांग कर रहा है। अब वह तबका 100 प्रतिशत लेने और शेष 15 प्रतिशत आबादी को आरक्षण देने की मांग कर रहा है। शायद इंतजार करते करते गरीब के आंसू सूख चुके हैं।
"देश के 85 ओबीसी, एससी, एसटी अब 50 % पर नहीं मानने वाले, अब ये हर क्षेत्र में 100 % लेंगे। उसके बाद मानवता के आधार पर तुम्हे 15 % की भीख देंगे।"
हिंदुत्व और मनुवाद की प्रयोगशाला बने उत्तर प्रदेश के गोरखपुर से आरक्षण को लेकर उठी डॉ हितेश सिंह की यह आवाज संदेश देती है।
इस समय आरएसएस के विचारकों की ओर से रह रहकर आरक्षण की समीक्षा की बात होती है। अब नए तरह की समीक्षा सामने आई है कि आखिर संविधान में प्रावधान होने के बावजूद बेईमानी क्यों हो रही है। जिन लोगों का जातीय आधार पर सदियों से शोषण किया गया उनके लिए थोड़ा सा स्पेस देने में दिक्कत क्यों आ रही है ?

यह सवाल उठना ऐसे दौर में लाज़िम है जब विभिन्न रिपोर्ट आ रही हैं कि देश के विश्व विद्यालयों, सरकारी संस्थानों, सरकारी विभागों में आरक्षण होने के बावजूद न तो 22.5 % sc, st का कोटा भरा है और न ही 27 % ओबीसी का कोटा भरा है। केंद्रीय सेवाओं में ओबीसी का प्रतिनिधित्व वर्ष 2016 में 14 फीसदी तक सिमट कर रह गया है। हालांकि वर्ष 2016 के ये आंकड़े 33 मंत्रालयों/विभागों के हैं, बाकी विभागों ने इस संदर्भ में रिपोर्ट डीओपीटी को नहीं दी है।


1931 की जनगणना के आधार पर मंडल आयोग ने 1980 में पेश अपनी रिपोर्ट में अनुमाम लगाया था कि देश में ओबीसी आरक्षण में आने वाली गैर द्विज जातियों की आबादी 52 प्रतिशत है। 1993 में मंडल आयोग की सिर्फ एक सिफारिश लागू की गई। 2008 में अर्जुन सिंह जब मानव संसाधन मंत्री थे तब एक और सिफारिश लागू हुई। शेष करीब 38 सिफारिशें धूल फांक रही हैं। उनको पूछने वाला कोई नहीं है।

इतनी कम सुविधा में भी सदियों से सुविधा भोग रहे सुविधा भोगियों का कलेजा फटने लगा। सिर्फ 2 सिफारिशें लागू की गई। परिणाम यह हुआ कि ओबीसी तबके को बहुत सीमित लाभ हुआ। कुछ बच्चे पढ़ पाए। आरक्षण मिल रहा है और हमे भी जगह मिल सकती है इस उत्साह में तमाम बच्चे नौकरियां हासिल करने में सफल रहे, लेकिन सीमित दायरे में।


मंडल आयोग ने नौकरियों में आरक्षण की सिफारिश में यह भी लिखा था, “हमारा यह तर्क नहीं है कि ओबीसी अभ्यर्थियों को कुछ हजार नौकरियां देकर हम देश की कुल आबादी के 52 प्रतिशत पिछड़े वर्ग को अगड़ा बनाने में सक्षम होंगे। लेकिन हम यह निश्चित रूप से मानते हैं कि यह सामाजिक पिछड़ेपन के खिलाफ लड़ाई का जरूरी हिस्सा है, जो पिछड़े लोगों के दिमाग में लड़ा जाएगा। भारत में सरकारी नौकरी को हमेशा से प्रतिष्ठा और ताकत का पैमाना माना जाता रहा है। सरकारी सेवाओं में ओबीसी का प्रतिनिधित्व बढ़ाकर हम उन्हें देश के प्रशासन में हिस्सेदारी की तत्काल अनुभूति देंगे। जब एक पिछड़े वर्ग का अभ्यर्थी कलेक्टर या वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक होता है तो उसके पद से भौतिक लाभ उसके परिवार के सदस्यों तक सीमित होता है। लेकिन इसका मनोवैज्ञानिक असर बहुत व्यापक होता है। पूरे पिछड़ा वर्ग समाज को लगता है कि उसका सामाजिक स्तर ऊपर उठा है। भले ही पूरे समुदाय को ठोस या वास्तविक लाभ नहीं मिलता है, लेकिन उसे यह अनुभव होता है कि उसका “अपना आदमी” अब “सत्ता के गलियारे” में पहुंच गया है। यह उसके हौसले व मानसिक शक्ति को बढ़ाने का काम करता है।”

अब ज्योतिबा फुले, शाहू जी महराज, भीमराव अंबेडकर, काशीराम से आगे बढ़कर मामला नई पीढ़ी के हाथों में आ गया है। नई पीढ़ी स्वाभाविक रूप से ज्यादा तार्किक और ज्यादा आक्रामक तरीके से अपने हित और अहित की बात सोच रही है। लेकिन इसमें भी पेंच है। पिछड़े वर्ग को यह कहकर बरगलाया जा रहा है कि उसमें जो अमीर हैं, वही सारा लाभ ले जा रहे हैं। जबकि आंकड़े कहते हैं कि 27 प्रतिशत कोटा भी नहीं भरा जा सका है। खुले तौर पर बेइमानी हो रही है और देश की 52 प्रतिशत आबादी को अभी भी सुविधाओं से वंचित किया जा रहा है।

निजी क्षेत्र में स्थिति और भयावह है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर सुखदेव थोराट के एक अध्ययन के मुताबिक निजी क्षेत्र में उन आवेदकों के चयनित होने की संभावना बहुत कम होती है, जिनकी जातीय टाइटल से यह पता चलता है कि वह अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति या पिछड़े वर्ग से आते हैं।


भेदभाव को इस तरह भी समझा जा सकता है कि ओबीसी, एसटी, एसटी के लोग बड़े पैमाने पर अपनी जाति छिपाते हैं। उच्च जाति यानी क्षत्रिय या ब्राह्मण होने के दावे करते हैं। उन दावों के समर्थन में हजारों तर्क इतिहास और भूगोल से खोदकर लाते हैं। लेकिन उच्च जाति होने का दावा और तर्क उनके जातीय समूह तक ही सिमटा होता है। समाज का कोई अन्य तबका, अन्य जाति उनके दावे को नहीं मानता और उस दावे का मजाक ही उड़ाता है।
उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश की दो सशक्त पिछड़ी जातियां अहिर और कुर्मी खुद को क्षत्रिय होने का दावा करती हैं। लेकिन क्षत्रिय या ब्राह्मणों द्वारा उनके क्षत्रिय माने जाने की बात तो दूर, इनको कोई बढ़ई, लोहार, बरई, तेली तमोली, चमार, ढाढ़ी भी क्षत्रिय नहीं मानता। यह व्यावहारिक बात है। लेकिन इसके बावजूद यह तबका अपनी जाति ऊंची बताने, अपनी जाति व टाइटिल छिपाने की कवायद में रहता है कि सत्तासीन अपर कास्ट शायद इन्हें धोखे में ही सही, कुछ लाभ पहुंचा दे।
मुस्लिम समुदाय के प्रति भेदभाव की खबरें तो अक्सर आती रहती हैं। ऐसे में निजी क्षेत्र में आरक्षण भी एक महत्त्वपूर्ण मसला बन गया है, जिससे बहुसंख्यक आबादी को मुख्य धारा में शामिल किया जा सके।
कुल मिलाकर मौजूदा सत्तासीन दल भाजपा और उसके संरक्षक आरएसएस की पृष्ठभूमि देखें तो पिछड़े वर्ग के आरक्षण का विरोध का इनका लंबा इतिहास रहा है। अनुसूचित जाति के आरक्षण को तो इन्होंने बर्दाश्त कर लिया, लेकिन पिछड़ा वर्ग इन्हें कतई बर्दाश्त नहीं है।
सरकार की नीतियां भी इस ओर इशारा करती हैं। किसानों की तरह तरह की मांगों पर सरकार बिल्कुल ध्यान नहीं दे रही है। सरकारी नौकरियां खत्म की जा रही हैं। जो सरकारी पद खाली हैं, उनकी वैकेंसी नहीं आ रही है। निजी क्षेत्र में संभावनाएं कम हो गई हैं।
ऐसे में देश के पिछड़े वर्ग के लोग भी संगठित हो रहे हैं। पिछड़े वर्ग में आज भी किसान, छोटे मोटे कारोबार करने वाले, लघु व कुटीर उद्योग चलाने वाले लोग हैं। आज इस तबके की बर्बादी किसी से छिपी हुई नहीं है। इस तबके की ओर से असंगठित रूप से ही सही, विरोध हो रहा है। लोग विरोध में सड़कों पर उतर रहे हैं। इसकी पूरी संभावना है कि आने वाले दिनों में आंदोलन और तेज हो सकता है।


https://youtu.be/x94cu5gKiew


https://youtu.be/x94cu5gKiew


Saturday, March 18, 2017

टेक सेवी मोदी और उनकी ढाई कदम की चाल से पस्त विपक्ष


सत्येन्द्र पीएस
मैंने सबसे पहले नरेंद्र मोदी से सेल्फी शब्द सुना था। उसके बाद गूगल में खोजने पर पता चला कि मोबाइल में फ्रंट कैमरे आ गए हैं, उससे खुद की फोटो लेने को सेल्फी कहते हैं। हालांकि सेल्फी शब्द की हिंदी मैं उस समय नहीं खोज पाया था।
यह उस समय की बात है, जब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे। मोदी पर तमाम आर्टिकल और टीवी शो मैंने देखा। कई में यह बताया गया था कि मोदी शुरू से बहुत ज्यादा टेक सेवी हैं। वह लैपटॉप का इस्तेमाल करते हैं। अत्याधुनिक मोबाइल फोन रखते हैं। सोशल नेटवर्किंग साइट पर मौजूद रहते हैं।

हालांकि सबसे पहले ट्विटर के बारे में कांग्रेस के नेता शशि थरूर के माध्यम से मुझे जानकारी मिली थी। लेकिन कुछ महीनों बाद यह जानकारी आने लगी मोदी के ट्विटर पर फॉलोवर बहुत तेजी से बढ़ रहे हैं। उस समय ट्वीट नया नया ही था। ब्लॉग, फेसबुक होते हुए हम ट्विटर की ओर बढ़े थे। भारतीय नेताओं में टेक्नोलॉजी, सोशल साइट्स के मामले में मोदी सबसे तेज हैं।

लोकसभा चुनाव जब शुरू हुआ तो मोदी ने फेसबुक और ट्विटर के माध्यम से प्रचार शुरू किया। कांग्रेस शासन काल में उन्होंने मीडिया के खिलाफ माहौल बनाने के साथ मीडिया को अपने पक्ष में बखूबी किया। बड़ी संख्या में अपने फॉलोवर तैयार किए। उस समय तक कांग्रेस या किसी अन्य भारतीय दल को यह एहसास नहीं था कि चुनाव ट्विटर और फेसबुक के माध्यम से लड़ा जा सकता है। राजनेता इसे हल्के में ले रहे थे और मोदी अपनी टेक टीम के साथ इसका बखूबी इस्तेमाल कर रहे थे। किसे ट्रोल कराना है, किस मीडिया पर्सन को निशाना बनाना है, यह पूरी टीम भावना के साथ तय होता था। जिस पर हमला करना है, उसे लहूलुहान और पस्त करने तक उसका पीछा किया जाता था। टीम कोई भी मसला छोड़ती और फेसबुक और ट्विटर पर फॉलोवर बने समर्थक इसे बहुत तेजी से लपक लेते। साथ ही तरह तरह की गालियों की बौछार शुरू होती और अगर कोई अन्य दल या विचारधारा का समर्थक होता तो वह भाग खड़ा होता।

राजनीतिक दलों में सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर मोदी समर्थकों का सबसे तेजी से आम आदमी पार्टी व उसके समर्थकों ने किया। तेजी से फेसबुक पर सदस्य बनाए। मिस्ड कॉल से पार्टी का कार्यकर्ता बनाकर लोगों के मोबाइल डेटा बेस तैयार किए। हालांकि पहले से आधार न होने की वजह से पार्टी सिर्फ दिल्ली तक सिमटी रह गई।

केंद्र में जब भाजपा सत्ता में आई और मोदी प्रधानमंत्री बने तो थोड़ा बहुत कांग्रेस की भी तंद्रा टूटी और वह भी सोशल साइट्स की ओर चली। यू ट्यूब पर विज्ञापन देना भी कांग्रेस ने शुरू किया। लेकिन रफ्तार बहुत सुस्त रही। लालू प्रसाद, नीतीश कुमार, अखिलेश यादव सहित तमाम दलों ने सोशल साइट्स का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। सोशल साइट्स इतनी प्रसिद्ध हो गईं कि राजनीतिक दल और सरकार भी ट्विटर और फेसबुक से खबरें देने लगे। आज हम इस दौर में जी रहे हैं कि तमाम खबरें और खबरों के लिए कोट्स ट्विटर से मिलते हैं। पार्टियों की ओर से जारी होने वाली प्रेस विज्ञप्ति और नेताओं के बयान की जगह ट्विटर पर किए गए उनके ट्वीट ही खबरों में बदल चुके हैं। हर अखबार, टीवी चैनल के बीट रिपोर्टर की नजर ट्विटर पर होती है।

उत्तर प्रदेश का चुनाव आते आते करीब सभी दल सोशल साइट्स पर सक्रिय हो गए। समाजवादी पार्टी ने जहां सोशल साइट्स के लिए पूरी टीम लगा दी, वहीं बसपा के समर्थकों ने भी मोर्चा संभाल लिया। वहीं मोदी ने फिर नई रणनीति अपनाई। फेसबुक और ट्विटर तो पार्टी समर्थकों पर छोड़ दिया गया, जिन्हें समाज में “भक्त” के नाम से जाना जाता है।

भक्त ऐसे तत्व होते हैं, जो बेरोजगार या रोजगार पाए युवा, बुजुर्ग, सेवानिवृत्त व्यक्ति कोई भी हो सकते हैं। इनका न तो पार्टी से कोई लेना देना होता है, न नीतियों से। प्रशासन से इन लोगों का काम कम ही पड़ता है। मोदी से भी इन्हें कोई खास काम नहीं है। भक्तों की चिंता सिर्फ कथित 'राष्ट्र' होता है। वह राष्ट्र की माला जपते हैं और उनका एक सूत्री कार्यक्रम होता है कि मोदी की प्रशंसा करें।

उत्तर प्रदेश के चुनाव में फेसबुक और ट्विटर को इसी तरह के भक्तों पर छोड़ दिया गया, जो सपा और बसपा की टीमों से लगातार मोर्चा संभाले रहे।

राजनीतिक विश्लेषक अश्विनी कुमार श्रीवास्तव लिखते हैं कि भाजपा के ध्रुवीकरण की शातिर चाल में बसपा फंस गईं। उनका मानना है कि ध्रुवीकरण की रणनीति भाजपा ने पहले ही बना ली थी और इसके तहत मुस्लिमों को एक भी टिकट नहीं दिया। साथ ही गैर यादव पिछड़ा वर्ग, जो बसपा का बड़े पैमाने पर आधार वोट रहा है, उसे लुभाने की कवायद की। इस घाटे की भरपाई के लिए मायावती को मुस्लिम वोट खींचने की कवायद करने के लिए बाध्य किया। मायावती इस ट्रैप में फंस गईं और ज्यादा मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट देने का काम किया। इससे भाजपा को खुद को हिंदूवादी साबित करने व अति पिछड़े तबके को हिंदू बनाने का मौका मिला और वह पूरी तरह से अपनी इस रणनीति में कामयाब रही।

मोदी और उनकी तकनीकी पेशेवर टीम ने यूपी चुनाव में ह्वाट्स ऐप पर जोर दिया। लोगों के परिवारों, कार्यालय आदि के ग्रुप बनाने व व्यक्तिगत मैसेज, वीडियो भेजने के लिए व्हाट्स ऐप ने खासी जगह बना ली है। यह सब सेवाएं फेसबुक पर भी उपलब्ध हैं। लेकिन ग्रुप बनाने, इंस्टैंट मैसेजिंग, वीडियो शेयरिंग के मामले में यह ऐप बहुत ही कारगर और उपभोक्ताओं के अनुकूल है।

मोदी की टीम ने ह्वाट्स ऐप के मुताबिक मैसेज और वीडियो पर जोर दिया। चुनाव के पहले भुगतान वाले ढेरों नेट पैक उपलब्ध थे, लेकिन चुनाव के तीन महीने पहले हाई स्पीड 4जी जियो कनेक्शन मुफ्त मिल गया। यह कनेक्शन मिलते ही ईरान, ईराक, सीरिया और पता नहीं किन किन देशों के वीडियो, तमाम धार्मिक सांप्रदायिक वीडियो स्मार्ट फोन पर आने लगे। जियो का 4 जी धकाधक उसे डाउनलोड और अपलोड करने में मदद करने लगा।

मैसेज सभी वही थे, जो आरएसएस अपने जन्म के समय से ही प्रसारित करता रहा है। इसमें नेहरू के मुस्लिम परिवार के होने से लेकर चौतरफा हिंदुओं पर हमले होने के मामले, अगले दो दशक में हिंदुओं के खत्म होने और मुसलमानों के बहुसंख्यक होने, विपक्षी नेताओं पर अश्लील चुटकुले, टिप्पणियां और वीडियो भेजने का काम बहुत बहुत तेजी से हुए।

इस खेल को विपक्ष उस तेजी से नहीं समझ पाया, जितनी तेजी से उसे समझना चाहिए था। मिस्ड कॉल वाली सदस्यताओं ने पार्टी को बहुत बड़ी संख्या में मोबाइल डेटा बेस दिया और इन मोबाइलों पर भारी मात्रा में ध्रुवीकरण करने वाले मैसेज, वीडियो, चुटकुले, टिप्पणियां बड़े पैमाने पर लोगों को पहुंचाई गईं।

इस तरह से तकनीक के मामले में मोदी ने एक बार फिर साबित कर दिया कि हमारी उभरती युवा पीढ़ी और टेक्नोक्रेट्स की तुलना में वह 62 साल की उम्र में भी बुड्ढे नहीं हुए हैं।

और भाजपा ने उत्तर प्रदेश को 403 में से 325 सीटें जीतकर भारी बहुमत के साथ अपनी झोली में डाल लिया। विपक्ष के लिए बचा जाने माने शायर मोहम्मद इब्राहिम जौक का यह शेर..
कम होंगे इस बिसात पे हम जैसे बद-क़िमार
जो चाल हम चले सो निहायत बुरी चले

(इस पर एक अलग लेख बनता है कि जब 2009 की हार के बाद जीवीएल नरसिम्हाराव इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन के खिलाफ लेख लिखने, लाल कृष्ण आडवाणी इसके विरोध प्रदर्शन में व्यस्त थे तो मोदी किस कदर खामोश रहे। उन्हें तो जैसे कोई फॉर्मूला मिल गया था। 2009 के लोकसभा चुनाव के बाद गुजरात में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन से जब निकाय चुनाव हुए तो भाजपा ने 70 प्रतिशत के करीब वोट हासिल कर एकतरफा निकाय चुनाव जीता था।)

Saturday, March 11, 2017

बसपा क्यों हारी?

“हम लोग बसपा को वोट देते रहे हैं। कई दशक से। ब्राह्मणवाद के खिलाफ हमारे परिवार ने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया। मायावती अब सतीश मिश्रा की गोदी में खेलती हैं। जिन ब्राह्मणवादियों से हम लड़ते थे, वो हमें गालियां देते हैं कि देखिए आपकी नेता क्या कर रही हैं। दलित हमें गाली देते हैं कि ये ब्राह्मणवाद की पालकी ढोते हैं। हमारे ऊपर चौतरफा मार पड़ रही है। अब बसपा को वोट देने का क्या मतलब बनता है?”
यह पिछड़े वर्ग के बहुजन समाज पार्टी (बसपा) समर्थक का बयान है। इसमें कुछ गालियां जोड़ लें, जिन्हें हिंदी भाषा की बाध्यता के चलते यहां नहीं लिखा गया है।
“छोटी जातियों के लोग बहुत खुश हैं। उनको लगता है कि ब्राह्मण, ठाकुर और बड़े लोग नोटबंदी से पूरी तरह बर्बाद हो गए हैं। उन्हें अपना फल, सब्जियां, दूध फेकना पड़ा। रिक्शेवालों की कमाई घट गई। फिर भी उन्हें आंतरिक खुशी है कि मोदी जी ने ऐसी चाल चली कि ब्राह्मण ठाकुर बर्बाद हो गए। नोटबंदी पूरी तरह भाजपा के पक्ष मे जा रही है।”
यह भारतीय जनता पार्टी के उत्तर प्रदेश के एक बड़े नेता का बयान है। यह पूछे जाने पर कि उत्तर प्रदेश में नोटबंदी का क्या असर है, खासकर ग्रामीण इलाकों में, तो उन्होंने यह जवाब दिया था।

करीब 2 महीने पहले के यह बयान सुनकर यह संकेत मिल रहे थे कि उत्तर प्रदेश में क्या हो सकता है। उत्तर प्रदेश घूम रहे तमाम लोग भी यह सूचना दे रहे थे कि बसपा बुरी तरह हार रही है। यह सूचनाएं व बयान देने वालों की निजता की रक्षा के लिए जरूरी है कि उनके नाम न लिखे जाएं। हां, उल्लेख करना इसलिए जरूरी है कि जमीनी हकीकत का पता चल सके और लोग रूबरू हो सकें कि आखिर हार की क्या वजह है। बसपा ने ऐसा क्या कर दिया, जिसकी वजह से उसके खिलाफ आंधी चली। अगर उत्तर प्रदेश चुनाव में भाजपा के समर्थन में आंधी चली है तो यह भी मानना होगा कि बसपा के खिलाफ भी उतना ही तगड़ा तूफान था। और बसपा उड़ गई।
उत्तर प्रदेश चुनाव को लेकर मेरी राय बड़ी स्पष्ट थी। तमाम साथी, समीक्षक यह मानकर चल रहे थे कि त्रिशंकु विधानसभा होगी। मैंने यह बार बार दोहराया कि त्रिशंकु की कोई स्थिति उत्तर प्रदेश में नहीं है। या तो बसपा 300 पार कर जाएगी, या भाजपा। इन दोनों दलों में से इस चुनाव में एक का बर्बाद होना निश्चित है। ऐसा अनुमान लगाने की बड़ी वजह उपरोक्त दो बयान थे, जिसमें नोटबंदी का सार्थक असर और बसपा समर्थक पिछड़े वर्ग के मतदाताओं का बसपा के प्रति वैचारिक घृणा थी। बसपा के लोगों का कहना था कि उनके कुछ पिछड़े वोट भाजपा की ओर जा रहे हैं, लेकिन ब्राह्मण प्रत्याशियों को मिलने वाले वोट और मुस्लिम वोट मिलकर इसे कवर कर लेंगे। ऐसे में मेरी स्पष्ट राय थी कि अगर ब्राह्मण और मुस्लिम वोट एकतरफा बसपा को मिला (हालांकि पुराने अनुभव चींख चींखकर कह रहे थे कि ऐसा नहीं होने जा रहा है) तो वह सबका सूपड़ा साफ करेगी। अगर बसपा के प्रति ओबीसी की नफरत प्रभावी हुई तो वह मत भाजपा की ओर जाएंगे और बसपा पूरी तरह उड़ जाएगी। और वही हुआ।
2007 में विधानसभा चुनाव में जीत के बाद से ही बसपा का समीकरण बदलना शुरू हो गया। पार्टी में निश्चित रूप से तमाम ब्राह्मण व ठाकुर नेता पहले से ही जुड़े हुए थे। लेकिन 2007 में सत्ता में आने के बाद से सतीश मिश्रा पार्टी में अहम हो गए। मायावती जब भी कोई प्रेस कान्फ्रेंस या आयोजन करतीं, सतीश मिश्र वहां खड़े नजर आते। इतना ही नहीं, उसके बाद हुए चुनावों में सतीश मिश्रा के रिश्तेदारों, परिवार वालों को जमकर लाभ पहुंचाया गया, उन्हें टिकट बांटे गए। बसपा का बहुजन, सर्वजन में बदल गया।
सर्वजन में बदलना एक तकनीकी खामी है। सभी के लिए काम करना देवत्व की अवधारणा है। राजनीतिक दलों का एक पक्ष होता है कि उनका झुकाव किधर है। यहां तक भी ठीक था। बसपा की गलती तब शुरू हुई, जब पार्टी ने अति पिछड़े वर्ग की उपेक्षा शुरू कर दी, जो काशीराम के समय से ही पार्टी के कोर वोटर थे। शुरुआत में जब सोनेलाल पटेल से लेकर ओमप्रकाश राजभर जैसे नेता निकाले गए तो उनके समर्थकों ने यह मान लिया कि व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा के चलते इन नेताओं को निकाल दिया गया है। बाद में पिछड़ों की यह उपेक्षा संगठनात्मक स्तर पर भी नजर आने लगी। टिकट बटवारे में यह साफ दिखने लगी।
बसपा ने 2012 में सर्वजन समाज के जातीय समीकरण के मुताबिक टिकट बांटना शुरू किया। करारी शिकस्त के बाद भी पार्टी नहीं संभली और 2014 के लोक सभा चुनाव में भी उसी समीकरण पर भरोसा किया। 2017 के विधानसभा चुनाव में पार्टी पूरी तरह से और खुलेआम कांग्रेस के ब्राह्मण दलित मुस्लिम समीकरण पर उतर आई। टिकट बंटवारे में यही दिखाया गया कि कितने मुस्लिमों और कितने ब्राह्मणों को टिकट दिए गए।
बसपा या मायावती के लिए ब्राह्मण, मुस्लिम और दलित समीकरण बिल्कुल मुफीद नहीं लगता। कांग्रेस के लिए तो यह ठीक है। वहां नेतृत्व ब्राह्मण का होता है, जहां मुस्लिम और दलित खुशी खुशी नेतृत्व स्वीकार करते रहे हैं। जहां बसपा नहीं है, वहां देश भर में कांग्रेस का आज भी यही समीकरण सफलता पूर्वक चल रहा है। लेकिन बसपा के साथ दिक्कत यह है कि ब्राह्मण या मुस्लिम कभी दलित नेतृत्व नहीं स्वीकार कर सकता, क्योंकि वह शासक जाति रही है। बसपा के रणनीतिकारों ने न सिर्फ 2017 के विधान सभा चुनाव में यह चूक की है, बल्कि 2012 के विधानसभा चुनाव और 2014 के लोकसभा चुनाव में भी यही किया था। बसपा बुरी तरह फेल रही।
काशीराम का समीकरण बड़ा साफ था कि जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी। उन्होंने पिछड़े वर्ग को लठैत बनाया। दलित तबका उस समय लाठी उठाने को तैयार नहीं था। ऐसे में दलितों का वोट और पिछड़ों की लाठी का समीकरण बना। काशीराम तक पिछड़ा वर्ग दलितों के रक्षक की भूमिका में था। लेकिन जैसे ही मायावती के हाथ सत्ता आई, सतीश मिश्र की भूमिका बढ़ी। पिछड़े वर्ग की लठैती वाली भूमिका खत्म हो गई। पिछड़े नेता एक एक कर निकाले जाते रहे। दलित समाज का नव बौद्धिक वर्ग पिछड़ों को ब्राह्मणवाद की पालकी ढोने वाला बताता रहा। पिछड़ों की बसपा के प्रति नफरत बढ़ती गई। उसकी चरम परिणति 2017 के विधानसभा चुनाव में दिखी।
समाजवादी पार्टी का तो भविष्य करीब करीब पहले से ही साफ था। सोशल मीडिया से लेकर जमीनी स्तर तक उसके सिर्फ यादव समर्थक बचे। यादवों में भी जिन लोगों ने इलाहाबाद में त्रिस्तरीय आरक्षण की लड़ाई लड़ी या जेएनयू में अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे युवा सपा से उम्मीद छोड़ चुके थे। पारिवारिक कलह पहले से ही कोढ़ में खाज बन चुकी थी। ऐसे में उसका बेड़ा गर्क होना तय था।
मायावती का कहना है कि ईवीएम के साथ छेड़छाड़ हुई। यह सही भी हो सकता है, गलत भी हो सकता है। तकनीक के इस युग में ईवीएम सेट करना शायद संभव हो कि आप बसपा को वोट करें और वह भाजपा को चला जाए। लेकिन यह कहकर कछुए की तरह अपनी खोल में गर्दन छिपा लेने से जान बचने की संभावना कम है।
पूर्वांचल के जाने माने छात्र नेता पवन सिंह कहते हैं कि बसपा को अति पिछड़े वर्ग का वोट नहीं मिला है। मुस्लिमों का भी वोट नहीं मिला है। यह पूछे जाने पर कि क्या आपके पास बूथ स्तर पर आंकड़ा है कि ऐसा हुआ है ? या मीडिया में चल रही खबरों के आधार पर ऐसा कह रहे हैं, उन्होंने कई गांवों के आंकड़े गिना डाले। उन्होंने दावा किया कि जिस विधानसभा में वह मतदाता हैं, उनके तमाम गांवों के आंकड़ों से यही लगता है कि अति पिछड़े वर्ग का एकतरफा वोट भारतीय जनता पार्टी को मिला है, जबकि मुस्लिम वोट समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी को मिला है। उनका कहना है कि ऐसी स्थिति कमोबेश पूर्वी उत्तर प्रदेश के हर जिले में रही है। साथ ही वह बताते हैं कि ब्राह्मण बनिया और कायस्थ का एकमुश्त वोट भारतीय जनता पार्टी को मिला है। उन्होंने कहा कि भाजपा से जीतने वाले उम्मीदवार ऐसे हैं, जिन्हें विधानसभा में कितनी पंचायतें, कितने थाने हैं, यह भी नहीं पता होगा, जनता से उनका कोई लेना देना नहीं है, लेकिन मोदी के नाम पर वोट पड़ा है। सभी भाईचारा खत्म हो गया। किसी के लिए काम कराना, किसी के सुख दुख में शामिल होना कोई फैक्टर नहीं रहा, सिर्फ और सिर्फ मोदी के लिए लोगों ने अपना प्रेम दिखाया।
उनका कहना है कि कथित सवर्ण जातियों को तो उनकी मनचाही जातीय पार्टी मिल ही गई थी। हालांकि पवन सिंह ठाकुरों के बारे में कुछ भी नहीं कहते कि वह किधर गए।
बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के लिए संघर्षरत एचएल दुसाध कहते हैं कि इन दलों को अपने मुद्दे पर लौटना होगा, दूसरा कोई रास्ता नहीं है कि यह दल अपने को बचा सकें। परिवार और जाति से ऊपर उठकर वंचित तबके की राजनीति करनी होगी। उनकी रोजी रोजगार के लिए लड़ना होगा, तभी यह दल फिर से जगह बना सकते हैं।
बहरहाल बसपा को अब शून्य से नहीं दोहरे शून्य से शुरुआत करनी है। एक लोकसभा का शून्य, और अब उसमें विधानसभा का भी शून्य जुड़ गया। सपा का भी कमोबेश यही हाल है। सपा और बसपा को कम से कम यह समझना होगा कि सामाजिक न्याय की राजनीति, हिस्सेदारी की राजनीति ही बचा सकती है। जातीय समीकरण बनाना न सपा के लिए संभव है और न बसपा के लिए। भाजपा और आरएसएस स्वाभाविक ब्राह्मणवादी राजनीतिक संगठन है। वह 5,000 साल से जाति के खिलाड़ी रहे हैं। उन्होंने पूरे समाज को 10,000 से ज्यादा जातियों में बांट रखा है। जाति पर चुनाव खेलने पर वही जीतेंगे।

बल्ली सिंह चीमा की कुछ पंक्तियां बहुत सामयिक हैं
तय करो किस ओर हो तुम, तय करो किस ओर हो
आदमी के पक्ष में हो या कि आदमखोर हो।
खुद को पसीने में भिगोना ही नहीं है जिंदगी
रेंगकर मर-मर के जीना ही नहीं है जिंदगी
कुछ करो कि जिंदगी की डोर न कमजोर हो
तय करो किस ओर हो तुम, तय करो किस ओर हो
खोलो आंखें फंस न जाना तुम सुनहरे जाल में,
भेड़िये भी घूमते हैं आदमी की खाल में,
जिंदगी का गीत हो या मौत का कोई शोर हो।
तय करो किस ओर हो तुम, तय करो किस ओर हो।
सूट और लंगोटियों के बीच युद्ध होगा जरूर
झोपड़ों और कोठियों के बीच युद्ध होगा जरूर
इससे पहले युद्ध शुरू हो, तय करो किस ओऱ हो
तय करो किस ओर हो तुम, तय करो किस ओर हो
आदमी के पक्ष में हो या कि आदमखोर हो।