Saturday, March 11, 2017

बसपा क्यों हारी?

“हम लोग बसपा को वोट देते रहे हैं। कई दशक से। ब्राह्मणवाद के खिलाफ हमारे परिवार ने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया। मायावती अब सतीश मिश्रा की गोदी में खेलती हैं। जिन ब्राह्मणवादियों से हम लड़ते थे, वो हमें गालियां देते हैं कि देखिए आपकी नेता क्या कर रही हैं। दलित हमें गाली देते हैं कि ये ब्राह्मणवाद की पालकी ढोते हैं। हमारे ऊपर चौतरफा मार पड़ रही है। अब बसपा को वोट देने का क्या मतलब बनता है?”
यह पिछड़े वर्ग के बहुजन समाज पार्टी (बसपा) समर्थक का बयान है। इसमें कुछ गालियां जोड़ लें, जिन्हें हिंदी भाषा की बाध्यता के चलते यहां नहीं लिखा गया है।
“छोटी जातियों के लोग बहुत खुश हैं। उनको लगता है कि ब्राह्मण, ठाकुर और बड़े लोग नोटबंदी से पूरी तरह बर्बाद हो गए हैं। उन्हें अपना फल, सब्जियां, दूध फेकना पड़ा। रिक्शेवालों की कमाई घट गई। फिर भी उन्हें आंतरिक खुशी है कि मोदी जी ने ऐसी चाल चली कि ब्राह्मण ठाकुर बर्बाद हो गए। नोटबंदी पूरी तरह भाजपा के पक्ष मे जा रही है।”
यह भारतीय जनता पार्टी के उत्तर प्रदेश के एक बड़े नेता का बयान है। यह पूछे जाने पर कि उत्तर प्रदेश में नोटबंदी का क्या असर है, खासकर ग्रामीण इलाकों में, तो उन्होंने यह जवाब दिया था।

करीब 2 महीने पहले के यह बयान सुनकर यह संकेत मिल रहे थे कि उत्तर प्रदेश में क्या हो सकता है। उत्तर प्रदेश घूम रहे तमाम लोग भी यह सूचना दे रहे थे कि बसपा बुरी तरह हार रही है। यह सूचनाएं व बयान देने वालों की निजता की रक्षा के लिए जरूरी है कि उनके नाम न लिखे जाएं। हां, उल्लेख करना इसलिए जरूरी है कि जमीनी हकीकत का पता चल सके और लोग रूबरू हो सकें कि आखिर हार की क्या वजह है। बसपा ने ऐसा क्या कर दिया, जिसकी वजह से उसके खिलाफ आंधी चली। अगर उत्तर प्रदेश चुनाव में भाजपा के समर्थन में आंधी चली है तो यह भी मानना होगा कि बसपा के खिलाफ भी उतना ही तगड़ा तूफान था। और बसपा उड़ गई।
उत्तर प्रदेश चुनाव को लेकर मेरी राय बड़ी स्पष्ट थी। तमाम साथी, समीक्षक यह मानकर चल रहे थे कि त्रिशंकु विधानसभा होगी। मैंने यह बार बार दोहराया कि त्रिशंकु की कोई स्थिति उत्तर प्रदेश में नहीं है। या तो बसपा 300 पार कर जाएगी, या भाजपा। इन दोनों दलों में से इस चुनाव में एक का बर्बाद होना निश्चित है। ऐसा अनुमान लगाने की बड़ी वजह उपरोक्त दो बयान थे, जिसमें नोटबंदी का सार्थक असर और बसपा समर्थक पिछड़े वर्ग के मतदाताओं का बसपा के प्रति वैचारिक घृणा थी। बसपा के लोगों का कहना था कि उनके कुछ पिछड़े वोट भाजपा की ओर जा रहे हैं, लेकिन ब्राह्मण प्रत्याशियों को मिलने वाले वोट और मुस्लिम वोट मिलकर इसे कवर कर लेंगे। ऐसे में मेरी स्पष्ट राय थी कि अगर ब्राह्मण और मुस्लिम वोट एकतरफा बसपा को मिला (हालांकि पुराने अनुभव चींख चींखकर कह रहे थे कि ऐसा नहीं होने जा रहा है) तो वह सबका सूपड़ा साफ करेगी। अगर बसपा के प्रति ओबीसी की नफरत प्रभावी हुई तो वह मत भाजपा की ओर जाएंगे और बसपा पूरी तरह उड़ जाएगी। और वही हुआ।
2007 में विधानसभा चुनाव में जीत के बाद से ही बसपा का समीकरण बदलना शुरू हो गया। पार्टी में निश्चित रूप से तमाम ब्राह्मण व ठाकुर नेता पहले से ही जुड़े हुए थे। लेकिन 2007 में सत्ता में आने के बाद से सतीश मिश्रा पार्टी में अहम हो गए। मायावती जब भी कोई प्रेस कान्फ्रेंस या आयोजन करतीं, सतीश मिश्र वहां खड़े नजर आते। इतना ही नहीं, उसके बाद हुए चुनावों में सतीश मिश्रा के रिश्तेदारों, परिवार वालों को जमकर लाभ पहुंचाया गया, उन्हें टिकट बांटे गए। बसपा का बहुजन, सर्वजन में बदल गया।
सर्वजन में बदलना एक तकनीकी खामी है। सभी के लिए काम करना देवत्व की अवधारणा है। राजनीतिक दलों का एक पक्ष होता है कि उनका झुकाव किधर है। यहां तक भी ठीक था। बसपा की गलती तब शुरू हुई, जब पार्टी ने अति पिछड़े वर्ग की उपेक्षा शुरू कर दी, जो काशीराम के समय से ही पार्टी के कोर वोटर थे। शुरुआत में जब सोनेलाल पटेल से लेकर ओमप्रकाश राजभर जैसे नेता निकाले गए तो उनके समर्थकों ने यह मान लिया कि व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा के चलते इन नेताओं को निकाल दिया गया है। बाद में पिछड़ों की यह उपेक्षा संगठनात्मक स्तर पर भी नजर आने लगी। टिकट बटवारे में यह साफ दिखने लगी।
बसपा ने 2012 में सर्वजन समाज के जातीय समीकरण के मुताबिक टिकट बांटना शुरू किया। करारी शिकस्त के बाद भी पार्टी नहीं संभली और 2014 के लोक सभा चुनाव में भी उसी समीकरण पर भरोसा किया। 2017 के विधानसभा चुनाव में पार्टी पूरी तरह से और खुलेआम कांग्रेस के ब्राह्मण दलित मुस्लिम समीकरण पर उतर आई। टिकट बंटवारे में यही दिखाया गया कि कितने मुस्लिमों और कितने ब्राह्मणों को टिकट दिए गए।
बसपा या मायावती के लिए ब्राह्मण, मुस्लिम और दलित समीकरण बिल्कुल मुफीद नहीं लगता। कांग्रेस के लिए तो यह ठीक है। वहां नेतृत्व ब्राह्मण का होता है, जहां मुस्लिम और दलित खुशी खुशी नेतृत्व स्वीकार करते रहे हैं। जहां बसपा नहीं है, वहां देश भर में कांग्रेस का आज भी यही समीकरण सफलता पूर्वक चल रहा है। लेकिन बसपा के साथ दिक्कत यह है कि ब्राह्मण या मुस्लिम कभी दलित नेतृत्व नहीं स्वीकार कर सकता, क्योंकि वह शासक जाति रही है। बसपा के रणनीतिकारों ने न सिर्फ 2017 के विधान सभा चुनाव में यह चूक की है, बल्कि 2012 के विधानसभा चुनाव और 2014 के लोकसभा चुनाव में भी यही किया था। बसपा बुरी तरह फेल रही।
काशीराम का समीकरण बड़ा साफ था कि जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी। उन्होंने पिछड़े वर्ग को लठैत बनाया। दलित तबका उस समय लाठी उठाने को तैयार नहीं था। ऐसे में दलितों का वोट और पिछड़ों की लाठी का समीकरण बना। काशीराम तक पिछड़ा वर्ग दलितों के रक्षक की भूमिका में था। लेकिन जैसे ही मायावती के हाथ सत्ता आई, सतीश मिश्र की भूमिका बढ़ी। पिछड़े वर्ग की लठैती वाली भूमिका खत्म हो गई। पिछड़े नेता एक एक कर निकाले जाते रहे। दलित समाज का नव बौद्धिक वर्ग पिछड़ों को ब्राह्मणवाद की पालकी ढोने वाला बताता रहा। पिछड़ों की बसपा के प्रति नफरत बढ़ती गई। उसकी चरम परिणति 2017 के विधानसभा चुनाव में दिखी।
समाजवादी पार्टी का तो भविष्य करीब करीब पहले से ही साफ था। सोशल मीडिया से लेकर जमीनी स्तर तक उसके सिर्फ यादव समर्थक बचे। यादवों में भी जिन लोगों ने इलाहाबाद में त्रिस्तरीय आरक्षण की लड़ाई लड़ी या जेएनयू में अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे युवा सपा से उम्मीद छोड़ चुके थे। पारिवारिक कलह पहले से ही कोढ़ में खाज बन चुकी थी। ऐसे में उसका बेड़ा गर्क होना तय था।
मायावती का कहना है कि ईवीएम के साथ छेड़छाड़ हुई। यह सही भी हो सकता है, गलत भी हो सकता है। तकनीक के इस युग में ईवीएम सेट करना शायद संभव हो कि आप बसपा को वोट करें और वह भाजपा को चला जाए। लेकिन यह कहकर कछुए की तरह अपनी खोल में गर्दन छिपा लेने से जान बचने की संभावना कम है।
पूर्वांचल के जाने माने छात्र नेता पवन सिंह कहते हैं कि बसपा को अति पिछड़े वर्ग का वोट नहीं मिला है। मुस्लिमों का भी वोट नहीं मिला है। यह पूछे जाने पर कि क्या आपके पास बूथ स्तर पर आंकड़ा है कि ऐसा हुआ है ? या मीडिया में चल रही खबरों के आधार पर ऐसा कह रहे हैं, उन्होंने कई गांवों के आंकड़े गिना डाले। उन्होंने दावा किया कि जिस विधानसभा में वह मतदाता हैं, उनके तमाम गांवों के आंकड़ों से यही लगता है कि अति पिछड़े वर्ग का एकतरफा वोट भारतीय जनता पार्टी को मिला है, जबकि मुस्लिम वोट समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी को मिला है। उनका कहना है कि ऐसी स्थिति कमोबेश पूर्वी उत्तर प्रदेश के हर जिले में रही है। साथ ही वह बताते हैं कि ब्राह्मण बनिया और कायस्थ का एकमुश्त वोट भारतीय जनता पार्टी को मिला है। उन्होंने कहा कि भाजपा से जीतने वाले उम्मीदवार ऐसे हैं, जिन्हें विधानसभा में कितनी पंचायतें, कितने थाने हैं, यह भी नहीं पता होगा, जनता से उनका कोई लेना देना नहीं है, लेकिन मोदी के नाम पर वोट पड़ा है। सभी भाईचारा खत्म हो गया। किसी के लिए काम कराना, किसी के सुख दुख में शामिल होना कोई फैक्टर नहीं रहा, सिर्फ और सिर्फ मोदी के लिए लोगों ने अपना प्रेम दिखाया।
उनका कहना है कि कथित सवर्ण जातियों को तो उनकी मनचाही जातीय पार्टी मिल ही गई थी। हालांकि पवन सिंह ठाकुरों के बारे में कुछ भी नहीं कहते कि वह किधर गए।
बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के लिए संघर्षरत एचएल दुसाध कहते हैं कि इन दलों को अपने मुद्दे पर लौटना होगा, दूसरा कोई रास्ता नहीं है कि यह दल अपने को बचा सकें। परिवार और जाति से ऊपर उठकर वंचित तबके की राजनीति करनी होगी। उनकी रोजी रोजगार के लिए लड़ना होगा, तभी यह दल फिर से जगह बना सकते हैं।
बहरहाल बसपा को अब शून्य से नहीं दोहरे शून्य से शुरुआत करनी है। एक लोकसभा का शून्य, और अब उसमें विधानसभा का भी शून्य जुड़ गया। सपा का भी कमोबेश यही हाल है। सपा और बसपा को कम से कम यह समझना होगा कि सामाजिक न्याय की राजनीति, हिस्सेदारी की राजनीति ही बचा सकती है। जातीय समीकरण बनाना न सपा के लिए संभव है और न बसपा के लिए। भाजपा और आरएसएस स्वाभाविक ब्राह्मणवादी राजनीतिक संगठन है। वह 5,000 साल से जाति के खिलाड़ी रहे हैं। उन्होंने पूरे समाज को 10,000 से ज्यादा जातियों में बांट रखा है। जाति पर चुनाव खेलने पर वही जीतेंगे।

बल्ली सिंह चीमा की कुछ पंक्तियां बहुत सामयिक हैं
तय करो किस ओर हो तुम, तय करो किस ओर हो
आदमी के पक्ष में हो या कि आदमखोर हो।
खुद को पसीने में भिगोना ही नहीं है जिंदगी
रेंगकर मर-मर के जीना ही नहीं है जिंदगी
कुछ करो कि जिंदगी की डोर न कमजोर हो
तय करो किस ओर हो तुम, तय करो किस ओर हो
खोलो आंखें फंस न जाना तुम सुनहरे जाल में,
भेड़िये भी घूमते हैं आदमी की खाल में,
जिंदगी का गीत हो या मौत का कोई शोर हो।
तय करो किस ओर हो तुम, तय करो किस ओर हो।
सूट और लंगोटियों के बीच युद्ध होगा जरूर
झोपड़ों और कोठियों के बीच युद्ध होगा जरूर
इससे पहले युद्ध शुरू हो, तय करो किस ओऱ हो
तय करो किस ओर हो तुम, तय करो किस ओर हो
आदमी के पक्ष में हो या कि आदमखोर हो।




3 comments:

Brajendra Dutt Tripathi said...

लगता है कि पूरा आलेख बिना पढ़े ही तमाम लोग कमेंट कर रहे हैं , बहुजन समाज पार्टी के हार्डकोर विश्लेषक के स्तर पर लिखा गया आलेख सत्य,पठनीय और विस्वसनीय है , ऊपरी दस लाइनें भारतीय सामाजिक सोच का बयान करती कड़वी सच्चाई है - लोगों का सुख इसी में है कि मेरी एक आँख फूटे-तो-फूटे , अगले की दोनों फूटनी चाहिये

Unknown said...

जबरजस्त,

satyendra said...

आप लोगों ने पढ़ा. बहुत धन्यवाद. यह त्वरित टिप्पणी थी. इसके अलावा भी तमाम वजहें होंगी जिस पर ध्यान देेने की जरूरत होगी.