Wednesday, April 26, 2017

धूल फांक रही हैं मंडल आयोग की 40 में से 38 सिफारिशें


सत्येन्द्र पीएस

"गरीब का आंसू कुछ समय तक तो आंसू रहता है, लेकिन वही आंसू फिर तेजाब बन जाता है जो इतिहास के पन्नों को चीर करके धरती पर अपना व्यक्तित्व बनाता है। यॆ समझ लीजिए कि गरीब की आंख में जब तक आंसू हैं, आंसू हैं लेकिन जब आंसू सूख जाते हैं तो उसकी आंखें अंगार हो जाती हैं और इतिहास ने ये बताया है कि जब गरीबों की आंखें अंगार होती हैं तो सोने के भी महल पिघल करके पनालों में बहते हैं।"
विश्वनाथ प्रताप सिंह, मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने के बाद 15 अगस्त 1990 को लाल किले की प्राचीर से
मंडल आयोग की सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने की सिर्फ एक सिफारिश लागू होने पर देश में ऐसा तूफान उठा, मानो अगर 52 प्रतिशत आबादी को कुछ जगह सरकारी नौकरियों में दे दी गई तो देश पर कोई आफत आ जाएगी। जगह जगह धरने प्रदर्शन हुए। कांग्रेस ने पिछले दरवाजे से आरक्षण विरोधियों का समर्थन किया। भाजपा ने कांग्रेस की रणनीति अपनाने के साथ उस समय की विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार को गिरा दिया।
बहरहाल अब ओबीसी आरक्षण लागू होने के 25 साल बाद उसकी समीक्षा की मांग उठने लगी है। मंडल आयोग ने भी अपनी सिफारिश में कहा था कि सिफारिशें लागू होने के 20 साल बाद इसकी समीक्षा होनी चाहिए। हालांकि यह नहीं कहा था कि सिर्फ एक सिफारिश लागू करने के बाद ही समीक्षा हो जानी चाहिए कि उसका लाभ हुआ या नहीं।


अब जब आरक्षण विरोधी समीक्षा की मांग कर रहे हैं तो आरक्षण का आंशिक लाभ पाने वाला तबका भी आरक्षण की समीक्षा की मांग कर रहा है। अब वह तबका 100 प्रतिशत लेने और शेष 15 प्रतिशत आबादी को आरक्षण देने की मांग कर रहा है। शायद इंतजार करते करते गरीब के आंसू सूख चुके हैं।
"देश के 85 ओबीसी, एससी, एसटी अब 50 % पर नहीं मानने वाले, अब ये हर क्षेत्र में 100 % लेंगे। उसके बाद मानवता के आधार पर तुम्हे 15 % की भीख देंगे।"
हिंदुत्व और मनुवाद की प्रयोगशाला बने उत्तर प्रदेश के गोरखपुर से आरक्षण को लेकर उठी डॉ हितेश सिंह की यह आवाज संदेश देती है।
इस समय आरएसएस के विचारकों की ओर से रह रहकर आरक्षण की समीक्षा की बात होती है। अब नए तरह की समीक्षा सामने आई है कि आखिर संविधान में प्रावधान होने के बावजूद बेईमानी क्यों हो रही है। जिन लोगों का जातीय आधार पर सदियों से शोषण किया गया उनके लिए थोड़ा सा स्पेस देने में दिक्कत क्यों आ रही है ?

यह सवाल उठना ऐसे दौर में लाज़िम है जब विभिन्न रिपोर्ट आ रही हैं कि देश के विश्व विद्यालयों, सरकारी संस्थानों, सरकारी विभागों में आरक्षण होने के बावजूद न तो 22.5 % sc, st का कोटा भरा है और न ही 27 % ओबीसी का कोटा भरा है। केंद्रीय सेवाओं में ओबीसी का प्रतिनिधित्व वर्ष 2016 में 14 फीसदी तक सिमट कर रह गया है। हालांकि वर्ष 2016 के ये आंकड़े 33 मंत्रालयों/विभागों के हैं, बाकी विभागों ने इस संदर्भ में रिपोर्ट डीओपीटी को नहीं दी है।


1931 की जनगणना के आधार पर मंडल आयोग ने 1980 में पेश अपनी रिपोर्ट में अनुमाम लगाया था कि देश में ओबीसी आरक्षण में आने वाली गैर द्विज जातियों की आबादी 52 प्रतिशत है। 1993 में मंडल आयोग की सिर्फ एक सिफारिश लागू की गई। 2008 में अर्जुन सिंह जब मानव संसाधन मंत्री थे तब एक और सिफारिश लागू हुई। शेष करीब 38 सिफारिशें धूल फांक रही हैं। उनको पूछने वाला कोई नहीं है।

इतनी कम सुविधा में भी सदियों से सुविधा भोग रहे सुविधा भोगियों का कलेजा फटने लगा। सिर्फ 2 सिफारिशें लागू की गई। परिणाम यह हुआ कि ओबीसी तबके को बहुत सीमित लाभ हुआ। कुछ बच्चे पढ़ पाए। आरक्षण मिल रहा है और हमे भी जगह मिल सकती है इस उत्साह में तमाम बच्चे नौकरियां हासिल करने में सफल रहे, लेकिन सीमित दायरे में।


मंडल आयोग ने नौकरियों में आरक्षण की सिफारिश में यह भी लिखा था, “हमारा यह तर्क नहीं है कि ओबीसी अभ्यर्थियों को कुछ हजार नौकरियां देकर हम देश की कुल आबादी के 52 प्रतिशत पिछड़े वर्ग को अगड़ा बनाने में सक्षम होंगे। लेकिन हम यह निश्चित रूप से मानते हैं कि यह सामाजिक पिछड़ेपन के खिलाफ लड़ाई का जरूरी हिस्सा है, जो पिछड़े लोगों के दिमाग में लड़ा जाएगा। भारत में सरकारी नौकरी को हमेशा से प्रतिष्ठा और ताकत का पैमाना माना जाता रहा है। सरकारी सेवाओं में ओबीसी का प्रतिनिधित्व बढ़ाकर हम उन्हें देश के प्रशासन में हिस्सेदारी की तत्काल अनुभूति देंगे। जब एक पिछड़े वर्ग का अभ्यर्थी कलेक्टर या वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक होता है तो उसके पद से भौतिक लाभ उसके परिवार के सदस्यों तक सीमित होता है। लेकिन इसका मनोवैज्ञानिक असर बहुत व्यापक होता है। पूरे पिछड़ा वर्ग समाज को लगता है कि उसका सामाजिक स्तर ऊपर उठा है। भले ही पूरे समुदाय को ठोस या वास्तविक लाभ नहीं मिलता है, लेकिन उसे यह अनुभव होता है कि उसका “अपना आदमी” अब “सत्ता के गलियारे” में पहुंच गया है। यह उसके हौसले व मानसिक शक्ति को बढ़ाने का काम करता है।”

अब ज्योतिबा फुले, शाहू जी महराज, भीमराव अंबेडकर, काशीराम से आगे बढ़कर मामला नई पीढ़ी के हाथों में आ गया है। नई पीढ़ी स्वाभाविक रूप से ज्यादा तार्किक और ज्यादा आक्रामक तरीके से अपने हित और अहित की बात सोच रही है। लेकिन इसमें भी पेंच है। पिछड़े वर्ग को यह कहकर बरगलाया जा रहा है कि उसमें जो अमीर हैं, वही सारा लाभ ले जा रहे हैं। जबकि आंकड़े कहते हैं कि 27 प्रतिशत कोटा भी नहीं भरा जा सका है। खुले तौर पर बेइमानी हो रही है और देश की 52 प्रतिशत आबादी को अभी भी सुविधाओं से वंचित किया जा रहा है।

निजी क्षेत्र में स्थिति और भयावह है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर सुखदेव थोराट के एक अध्ययन के मुताबिक निजी क्षेत्र में उन आवेदकों के चयनित होने की संभावना बहुत कम होती है, जिनकी जातीय टाइटल से यह पता चलता है कि वह अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति या पिछड़े वर्ग से आते हैं।


भेदभाव को इस तरह भी समझा जा सकता है कि ओबीसी, एसटी, एसटी के लोग बड़े पैमाने पर अपनी जाति छिपाते हैं। उच्च जाति यानी क्षत्रिय या ब्राह्मण होने के दावे करते हैं। उन दावों के समर्थन में हजारों तर्क इतिहास और भूगोल से खोदकर लाते हैं। लेकिन उच्च जाति होने का दावा और तर्क उनके जातीय समूह तक ही सिमटा होता है। समाज का कोई अन्य तबका, अन्य जाति उनके दावे को नहीं मानता और उस दावे का मजाक ही उड़ाता है।
उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश की दो सशक्त पिछड़ी जातियां अहिर और कुर्मी खुद को क्षत्रिय होने का दावा करती हैं। लेकिन क्षत्रिय या ब्राह्मणों द्वारा उनके क्षत्रिय माने जाने की बात तो दूर, इनको कोई बढ़ई, लोहार, बरई, तेली तमोली, चमार, ढाढ़ी भी क्षत्रिय नहीं मानता। यह व्यावहारिक बात है। लेकिन इसके बावजूद यह तबका अपनी जाति ऊंची बताने, अपनी जाति व टाइटिल छिपाने की कवायद में रहता है कि सत्तासीन अपर कास्ट शायद इन्हें धोखे में ही सही, कुछ लाभ पहुंचा दे।
मुस्लिम समुदाय के प्रति भेदभाव की खबरें तो अक्सर आती रहती हैं। ऐसे में निजी क्षेत्र में आरक्षण भी एक महत्त्वपूर्ण मसला बन गया है, जिससे बहुसंख्यक आबादी को मुख्य धारा में शामिल किया जा सके।
कुल मिलाकर मौजूदा सत्तासीन दल भाजपा और उसके संरक्षक आरएसएस की पृष्ठभूमि देखें तो पिछड़े वर्ग के आरक्षण का विरोध का इनका लंबा इतिहास रहा है। अनुसूचित जाति के आरक्षण को तो इन्होंने बर्दाश्त कर लिया, लेकिन पिछड़ा वर्ग इन्हें कतई बर्दाश्त नहीं है।
सरकार की नीतियां भी इस ओर इशारा करती हैं। किसानों की तरह तरह की मांगों पर सरकार बिल्कुल ध्यान नहीं दे रही है। सरकारी नौकरियां खत्म की जा रही हैं। जो सरकारी पद खाली हैं, उनकी वैकेंसी नहीं आ रही है। निजी क्षेत्र में संभावनाएं कम हो गई हैं।
ऐसे में देश के पिछड़े वर्ग के लोग भी संगठित हो रहे हैं। पिछड़े वर्ग में आज भी किसान, छोटे मोटे कारोबार करने वाले, लघु व कुटीर उद्योग चलाने वाले लोग हैं। आज इस तबके की बर्बादी किसी से छिपी हुई नहीं है। इस तबके की ओर से असंगठित रूप से ही सही, विरोध हो रहा है। लोग विरोध में सड़कों पर उतर रहे हैं। इसकी पूरी संभावना है कि आने वाले दिनों में आंदोलन और तेज हो सकता है।


https://youtu.be/x94cu5gKiew


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