tag:blogger.com,1999:blog-31242617444867726922024-02-20T15:28:08.782-08:00जिंदगी के रंगसबकी अपनी अपनी सोच है, विचारों के इन्हीं प्रवाह में जीवन चलता रहता है ...
अविरल धारा की तरह...Satyendra PShttp://www.blogger.com/profile/06700215658741890531noreply@blogger.comBlogger314125tag:blogger.com,1999:blog-3124261744486772692.post-39752336855271360092019-09-11T23:59:00.000-07:002019-09-11T23:59:38.410-07:00थम नहीं रहा आरक्षण के प्रावधानों के उल्लंघन का मामला<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
</div><b>सत्येन्द्र पीएस</b><br />
<br />
केंद्र सरकार के तमाम आश्वासनों के बावजूद नौकरियों में आरक्षित वर्ग की नियुक्ति को लेकर गड़बड़ियां और धांधलियां रुकने का नाम नहीं ले रही हैं। ताजा मामला उत्तर प्रदेश के डिग्री कॉलेजों में असिस्टेंट प्रोफेसरों की भर्ती का है। राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (एनसीबीसी) ने एक मामले की सुनवाई के दौरान पाया है कि इसमें आरक्षण के प्रावधानों का खुला उल्लंघन हुआ है। एनसीबीसी ने भर्ती के लिए चल रहा साक्षात्कार तत्काल रोक देने को कहा है। आयोग ने लिखित परीक्षा के परिणाम के आधार पर आरक्षण के प्रावधानों के मुताबिक उत्तीर्ण अभ्यर्थियों की सूची बनाकर साक्षात्कार कराने को कहा है।<br />
उत्तर प्रदेश सरकार ने राज्य के महाविद्यालयों के रिक्त 1150 असिस्टेंट प्रोफेसर पदों पर भर्ती की प्रक्रिया शुरू की। 14 जुलाई 2016 तक इन पदों के लिए आवेदन आमंत्रित किए गए। इसके लिखित परीक्षा के परिणाम आने लगे तो विसंगतियां खुलकर सामने आईं। भर्ती प्रक्रिया में करीब हर विषय में अन्य पिछड़ा वर्ग की मेरिट अनारक्षित सीटों पर चयनित अभ्यर्थियों से ज्यादा थी। यानी कि सामान्य वर्ग की तुलना में आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों को ज्यादा अंक मिलने पर सलेक्ट किया गया था। इसे लेकर कुछ वेबसाइट्स पर खबरें चलीं। सोशल मीडिया पर बड़े पैमाने पर विरोध हुआ। सरकार को कुछ ज्ञापन भी भेजे गए। उत्तर प्रदेश उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग (यूपीएचईएससी) की ओर से कराई जा रही इस परीक्षा को लेकर सवाल खड़े होने शुरू हो गए कि आखिर यह अचंभा कैसे हो रहा है कि आरक्षण पाने वाले अभ्यर्थी ज्यादा अंक पाने पर सलेक्ट हो रहे हैं और बगैर आरक्षण वाले अभ्यर्थी कम अंक पाने पर सलेक्ट हो रहे हैं। <br />
सोशल मीडिया, कुछ वेबसाइट्स की खबरों के बाद यह मामला एनसीबीसी के पास गया। एनसीबीसी ने पिछले 6 सितंबर को सुनवाई की। इसमें शिकायतकर्ता व उत्तर प्रदेश उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग की सचिव ने अपना अपना पक्ष रखा। सचिव द्वारा कोई प्रासंगिक अभिलेख प्रस्तुत न किए जाने के बाद आयोग ने साक्षात्कार रोक देने और 11 सितंबर को अगली सुनवाई की तिथि निर्धारित की थी। <br />
आयोग के अध्यक्ष डॉ भगवान लाल साहनी और सदस्य कौशलेंद्र सिंह पटेल के पीठ ने 11 सितंबर को सुनवाई की। आयोग के सूत्रों ने बताया कि उत्तर प्रदेश उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग (यूपीएचईएससी) की सचिव ने एनसीबीसी को लिखित जानकारी दी कि जून 2018 में एक आंतरिक बैठक में यह फैसला किया गया कि आरक्षित वर्ग के लोगों का चयन आरक्षित श्रेणी में ही किया जाएगा। <br />
यूपीएचईएससी ने आयोग की बैठक संख्या 1028 की जानकारी दी। 10 जून 2019 को हुई इस बैठक में यूपीएचईएससी ने कहा, “विज्ञापन संख्या 48 व विज्ञापन संख्या 47 में विज्ञापित सहायक आयार्य के आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थी यदि सामान्य श्रेणी के लिए निर्धारित कट ऑफ मार्क्स से अधिक अंक होने की स्थिति में आते हैं तो आरक्षित वर्ग की कट आफ मार्क्स के निर्धारण पर सम्यक विचार किया गया और सर्वसम्मति से निर्णय लिया गया कि आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थी यदि सामान्य श्रेणी के लिए निर्धारित कट आफ मार्क्स से अधिक अंक धारित करते है, उस स्थिति में भी एक पद के सापेक्ष 5 अभ्यर्थियों को ही मेरिट के आधार पर साक्षात्कार के लिए आमंत्रित किया जाए। श्रेणीवार कट आफ मार्क में जितने भी अभ्यर्थी आएंगे, उनको सम्मिलित किया जाए।”<br />
इस तरह से यूपीएचईएससी ने साफ कर दिया कि आरक्षित वर्ग को अनारक्षित या सामान्य श्रेणी के पदों पर नहीं बुलाया जाएगा। परिणाम आने लगे और आरक्षित वर्ग के तमाम ऐसे अभ्यर्थी साक्षात्कार के लिए नहीं बुलाए गए, जिन्हें अनारक्षित श्रेणी के अभ्यर्थियों की तुलना में ज्यादा अंक मिले थे। <br />
एनसीबीसी ने पाया कि यूपीएचईएससी के इस अनुमोदन में आरक्षण के तमाम प्रावधानों व न्यायालय के फैसलों का उल्लंघन हुआ है। एनसीबीसी ने 2018 में आयोग को नरेंद्र मोदी सरकार से मिली संवैधानिक शक्तियों का हवाला देते हुए अनुशंसा की है कि विज्ञापन संख्या 47 की साक्षात्कार प्रक्रिया को अविलंब स्थगित किया जाए। एनसीबीसी ने कहा है कि आरक्षण अधिनियमों व आदेशों के मुताबिक साक्षात्कार के लिए फिर से मेरिट सूची बनाई जाए। मेरिट सूची इस तरह जारी की जाए कि अनारक्षित संवर्ग की अंतिम कट ऑफ के बराबर या उससे अधिक अंक पाने वाले समस्त अभ्यर्थियों (ओबीसी, अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति संवर्ग को शामिल करते हुए) को साक्षात्कार हेतु आमंत्रित किया जाए। <br />
साथ ही एनसीबीसी ने कहा है कि विज्ञापन संख्या 47 के जिन विषयों के अंतिम परिणाम जारी किए जा चुके हैं, उनमें भी संशोधन कर ओबीसी/एससी/एसटी संवर्ग के उन अभ्यर्थियों को फिर से साक्षात्कार कर शामिल किया जाए, जिन्होंने अनारक्षित वर्ग की लिखित परीक्षा के अंतिम कट ऑफ के बराबर या उससे ज्यादा अंक अर्जित किया है और पहले के साक्षात्कार में वंचित कर दिए गए हैं। <br />
राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग के इस फैसले के बाद भी उस प्रक्रिया में विसंगतियां साफ नजर आ रही हैं। यूपीएचईएससी<br />
के उस विज्ञापन में कहा गया है कि आरक्षण का प्रावधान उच्च न्यायालय के 20 जुलाई 2009 के आदेश के मुताबिक किया गया है और इस सिलसिले में उच्चतम न्यायाल में अपील दाखिल की गई है और आरक्षण व्यवस्था शीर्ष न्यायालय के फैसले पर निर्भर होगा। <br />
शीर्ष न्यायालय विश्वविद्यालयों में भर्ती में विभागवार रोस्टर की व्यवस्था जारी रखी थी। उसके बाद तमाम आंदोलनों व आश्वासनों, संसद में हंगामे के बाद केंद्र सरकार ने अध्यादेश निकालकर विभागवार आरक्षण के फैसले को बदल दिया और पूर्ववत 200 प्वाइंट रोस्टर बरकरार रखा है। यह अध्यादेश संसद के दोनों सदनों में पारित होकर संवैधानिक रूप ले चुका है। <br />
उत्तर प्रदेश उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग में असिस्टेंट प्रोफ़ेसरों की नियुक्ति प्रक्रिया में भी आरक्षित पदों की संख्या संबंधी गड़बड़ियाँ खुलकर सामने आई हैं। इतिहास में 38 पदों में से 32 अनारक्षित हैं, जबकि 4 पद ओबीसी और 2 पद एससी-एसटी के लिए आरक्षित हैं। भूगोल विषय के कुल 48 पद में 31 अनारक्षित, 12 ओबीसी और 5 पद एससी-एसटी के लिए आरक्षित रखे गए हैं। उर्दू में 11 पदों में से 9 सामान्य एक ओबीसी और एक पद एससी-एसटी के लिए है। राजनीति शास्त्र के कुल 121 पदों में से 92 सामान्य, 18 ओबीसी और 11 एससी-एसटी के लिए आरक्षित रखे गए हैं। यह पद कहीं से भी ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत और एससी-एसटी के लिए 22.5 प्रतिशत आरक्षित पदों से मेल नहीं खाते हैं। <br />
एनसीबीसी और यूपीएचईएससी दोनों ही जिम्मेदार आयोगों ने यह विचार नहीं किया कि 121 पदों में अगर ओबीसी के लिए 18 पद आरक्षित हैं तो इसमें 27 प्रतिशत आरक्षण का पालन कहां हुआ है। इसका कोई स्पष्टीकरण नहीं आया है कि 121 का 27 प्रतिशत किस गणित के हिसाब से 18 होता है। हालांकि उत्तर प्रदेश में ऐसा कारनामा हुआ है। <br />
इस तरह से देखें तो सरकारी विभागों की हत्या कर या निजीकरण करके ही आरक्षण की हत्या नहीं की जा रही है, बल्कि जो संस्थान अभी सरकारी बचे हुए हैं, उनमें भी भर्तियों में गड़बड़ियां चरम पर हैं। वंचित तबके के लोग न इसे समझने में सक्षम हैं, न अपनी आवाज उठा पाने में सक्षम हैं, न इन धांधलियों के खिलाफ कोई व्यापक आंदोलन हो रहा है। हकमारी जारी है। <br />
<br />
<br />
<br />
Satyendra PShttp://www.blogger.com/profile/06700215658741890531noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3124261744486772692.post-66026563517040741352019-08-03T15:21:00.004-07:002019-08-03T15:21:53.757-07:00रवीश कुमार को रैमन मैगसेसे तपती दोपहर में ठंडी हवा का एक झोंका है<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
</div><br />
सत्येन्द्र पीएस <br />
<i>भारत में करीब हर साल किसी न किसी को रैमन मैगसेसे मिलता है. तमाम तारीफें होती हैं. तमाम आलोचनाएं होती हैं. इस बीच रवीश कुमार को भी रैमन मैगसेसे पुरस्कार मिल गया. स्वाभाविक है कि किसी भी व्यक्ति को एशिया का सबसे बड़ा सम्मान मिलना खुशी देता है.</i><br />
भारतीय जनता पार्टी के सत्ता में आने के बाद से देश में अलग तरह का माहौल बना है. अखबारों, चैनलों और सोशल मीडिया में जो लोग लिखते, बोलते और दिखते हैं, स्वाभाविक है कि उनका भी एक पक्ष होता है. अपना पक्ष। संस्थान के एक कर्मचारी की हैसियत से भी उसकी अपनी प्रतिबद्धता होती है. उसकी अपनी सीमाएं होती हैं. लेकिन 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद से स्वतंत्र जनपक्षधरता, सरकार के खिलाफ बोलना राष्ट्रद्रोह और मोदी विरोध के रूप में देखा जाने लगा है.<br />
<br />
<b>इंटरनेट के प्रभावी होने के बाद आम लोगों के साथ पत्रकारों को भी स्वतंत्र अभिव्यक्ति का एक अवसर मिला. करीब 12 साल पहले ब्लॉग का दौर आया था. उन दिनों इंटरनेट के लिए टाइपिंग ही बहुत मुश्किल हुआ करती थी. लेकिन ब्लॉगों को लोग बड़ी तेजी से अपना रहे थे और अपनी भावनाएं सामने रख रहे थे। दरअसल रवीश कुमार का मेरा परिचय ब्लॉग के दौर से ही हुआ। रवीश ही नहीं, उस समय ब्लॉग चलाने वाले कई नाम थे, जिनसे अच्छा इंटरैक्शन बना. रवीश कुमार का नई सड़क, आर. अनुराधा और दिलीप मंडल का रिजेक्ट माल, अविनाश दास का मोहल्ला, रेयाज उल हक का हाशिया, यशवंत सिंह का भड़ास, अनिल पुसादकर का अमीर धरती-गरीब लोग, हाशिया, कबाड़खाना, उड़नतश्तरी, शब्दों का सफ़र सहित दर्जनों ब्लॉग का मैं नियमित पाठक बन गया और तमाम ब्लॉगरों से दोस्ताना रिश्ते बने. हाशिया का तो मैं सबसे बड़ा फैन था, या कहें कि वेबसाइट्स की मौजूदा बमबारी में हाशिया ही एक ब्लॉग बचा है, जो मुझे नियमित पाठक बनाए हुए है. इन सभी ब्लॉगरों के लिखने में कुछ अपनापन सा लगता था। ऐसा लगता कि यह लोग कुछ ऐसी बात लिख रहे हैं, जो मेरी बात है. अखबारों से इतर. दशकों से घिसे पिटे और दलीय प्रतिबद्धता से इतर लोगों के विचार सामने आने लगे. बेशक इनमें से कुछ पत्रकार थे और कुछ गैर पत्रकार. लेकिन जुड़ाव की एक ही डोर थी, जन पक्षधरता, अपनी दिलचस्पी के विषय. यह आम लोगों की बात लिखने वाले लोग थे. तमाम लोगों के बारे में बाद में पता चला कि यह लोग बड़े संस्थानों में स्थापित पत्रकार हैं. यह लोग अपने संस्थानों से इतर अपने ब्लॉगों में दे रहे थे. </b><br />
<br />
मुझे याद नहीं कि उस दौर में रवीश कुमार बड़े पत्रकार बन चुके थे या नहीं. पहली बाद संस्थागत जनपक्षधर पत्रकारिता का उनका चेहरा तब सामने आया, जब वह रवीश की रिपोर्ट लेकर आने लगे. उन गलियों, मोहल्लों, टोलों, कस्बों में जाकर रिपोर्ट लाते थे, जो टीवी चैनलों पर दुर्लभ हुआ करती थी। उनकी वही चीज सामने टीवी स्क्रीन पर आने लगी, जिसकी झलक ब्लॉगों में मिलती थी। वह कार्यक्रम कांग्रेस यानी मनमोहन सिंह के शासनकाल में शुरू हुआ था. कार्यक्रम सीधे तौर पर कांग्रेस की नाकामियों को उजागर करते थे. हालांकि वह लिंचिंग का दौर नहीं था. इस समय रवीश की सोशल मीडिया पर लिंचिंग करने वाले भी संभवतः उन कांग्रेस विरोधी खबरों की प्रशंसा में वाह-वाह करते रहे होंगे (हालांकि इसे कांग्रेस विरोधी के बजाय सत्ता विरोधी कहना ज्यादा उचित होगा). लेकिन जनता की याद्दाश्त बहुत कमजोर होती है. नई नई समस्याएं, नई नई सूचनाएं आती हैं और पुरानी को लोग भूलते चले जाते हैं. संभवतः रवीश का विरोध करने वाले तमाम लोगों को यह याद नहीं होगा कि वह एक दौर में कांग्रेस सरकर की आंख की किरकिरी थे.<br />
<br />
रवीश की रिपोर्ट कार्यक्रम को बंद कर दिया गया. यह याद नहीं कि कांग्रेस के समय में बंद किय़ा गया या भाजपा के शासन में. लेकिन उस कार्यक्रम की ज्यादातर रिपोर्टें, जो मैंने देखी हैं, वह कांग्रेस सरकार के ही विरोध में हुआ करती थीं. रिपोर्ट बंद होने के बाद रवीश का एक लेख भी आया था कि उनका प्रिय कार्यक्रम बंद किया जा रहा है. उन्हें अब गंदे बजबजाते मोहल्लों, रोती बिलखती अपनी मुसीबत बताती महिलाओं के बीच जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी. अब उन्हें मेकअप करके प्राइम टाइम में बैठना है.<br />
<br />
रवीश कुमार ने प्राइम टाइम में क्या दिखाया, इसके बारे में मुझे बहुत जानकारी नहीं है. उसकी वजह यह है कि अपनी व्यस्तता या टीवी मोह खत्म होने की वजह से देखना संभव नहीं हो पाता था. हालांकि सूचना के तमाम माध्यमों के अलावा सोशल मीडिया के शेयर किए गए लिंक्स से यह देखने को मिल जाता था. उनमें कुछ ऐसी खबरें रहती थीं, जो सत्ता विरोधी होतीं. जन पक्षधरता वाली होतीं. हालांकि नरेंद्र मोदी सरकार के कार्यकाल के रवीश मोनोटोनस नजर आते हैं. चिढ़े-चिढ़े से. खीझे-खीझे से. ज्यादा संभव है कि सोशल मीडिया से लेकर ह्वाट्सऐप और तमाम संचार माध्यमों में गालियों और धमकियों ने उन्हें डराया हो, जिसके चलते वह भाजपा सरकार के खिलाफ सख्त होते चले गए हों और उनकी निराशा एकालाप बन गई हो.<br />
<br />
स्वाभाविक है कि उनके संस्थान ने रवीश कुमार को संस्थान की ओर से बेहतर कर पाने का मौका मिला. बेहतर आवाज और शैली ने मदद की. रैमन मैगसेसे पाने के बाद भी और कई बार पहले भी रवीश ने स्वीकार किया है कि देश में हजारों की संख्या में ऐसे लोग हैं, जो बहुत बेहतर कर सकते हैं. लेकिन हर किसी को मौका नहीं मिल पाता है. रवीश में भी तमाम खामियां हैं. तमाम लोगों को वह एरोगेंट लगते हैं. व्यक्तिगत समस्याओं में लोगों की मदद न करने की भी शिकायतें होती हैं. इन सबके बावजूद पत्रकारिता के सूखे रेगिस्तान में रवीश एक हरे भरे वृक्ष नजर आते हैं. हालांकि बार बार यह खयाल भी आता है कि क्या लोगों को निष्पक्ष और भरोसे के काबिल पत्रकारिता की जरूरत है? यह भी संभव है कि समाचार माध्यम चलाने वाले बड़े कॉर्पोरेट्स ने सही खबरों व सूचनाओं के लिए अखबार और चैनल से इतर अपना अलग तंत्र विकसित कर लिया हो, क्योंकि सही खबर की जरूरत उन्हें आम आदमी से कहीं ज्यादा होती हैं. रवीश कुमार जैसे पत्रकारों की जरूरत आम आदमी को ज्यादा है, जो हर संचार माध्यम से जनता की आवाज आम लोगों के सामने रख सके. Satyendra PShttp://www.blogger.com/profile/06700215658741890531noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3124261744486772692.post-62699602266102019402019-04-06T10:40:00.001-07:002019-04-06T10:40:14.770-07:00क्या था राज....<b><i>(पड़ोसी मुल्क को भले ही इसकी आदत हो लेकिन भारत में कभी भी सैन्य तख्तापलट की कल्पना भी नहीं की गई। हाल में एक अखबार में छपी सनसनीखेज रिपोर्ट ने सवाल उठा दिया है कि 16 जनवरी की रात को हुर्ई कवायद के पीछे क्या मकसद था। इसकी परतें खोलती <a href="https://hindi.business-standard.com/storypage.php?autono=57461&fbclid=IwAR00qUCT6vtzK0WltBDyfPY9rSo_-FFmuLGo9fTtjCdYEvPgFtg1Q6uwja8">अजय शुक्ला</a> की रिपोर्ट)</i></b><br />
<br />
<br />
चंद सवाल ऐसे होते हैं जिनका जवाब हमें नहीं मिल पाता। कुछ ऐसी ही बात इस सवाल से जुड़ी हुई है जिनका जवाब अब हमें शायद कभी नहीं मिल पाएगा। क्या 16 जनवरी को सेना प्रमुख ने वास्तव में अपने मुखिया रक्षा मंत्री ए के एंटनी को चेतावनी देने के मकसद से नई दिल्ली के आसपास के इलाके में दो सैन्य टुकडिय़ों को जुटाने की कवायद की थी? यह वही दिन था जब जनरल वी के सिंह ने अभूतपूर्व कदम उठाते हुए उच्चतम न्यायालय में अपनी उम्र से जुड़े विवादास्पद मामले में सरकार को चुनौती दी थी।<br />
बुधवार को इस खबर की आंच ने पूरे देश भर में हलचल मचा दी। 'इंडियन एक्सप्रेस' अखबार में यह खबर छपी कि 16 जनवरी की कुहासे और कड़ाके की ठंड वाली रात में जब खुफिया एजेंसियों को यह अंदाजा हुआ कि हिसार की 33 वीं बख्तरबंद डिविजन की एक सैन्य टुकड़ी और आगरा की 50 वीं (स्वतंत्र) पैराशूट ब्रिगेड की एक विशेष सैन्य बल टुकड़ी अप्रत्याशित तरीके से देश की राजधानी की ओर बढ़ रही है जिससे देश के राजनैतिक हलके में घबराहट बढ़ गई थी।<br />
<br />
इस रिपोर्ट के मुताबिक सरकार ने इस घटनाक्रम को 'अप्रत्याशित' और 'गैर अधिसूचित' करार देते हुए आनन-फानन में रक्षा सचिव शशिकांत शर्मा को भी मलेशिया से वापस बुलाया था। शर्मा जब दिल्ली पहुंचे तब उन्होंने सेना के सैन्य संचालन महानिदेशक (डीजीएमओ) लेफ्टिनेंट जनरल ए के चौधरी को अपने दफ्तर में देर रात एक बैठक के लिए बुलाया और उनसे इस पर रुख स्पष्ट करने को कहा कि 'यह चल क्या रहा है?' जनरल को यह ताकीद दी गई कि वह सेना की टुकडिय़ों को तुरंत वापस भेजें।<br />
हालांकि इस अंग्रेजी अखबार ने अपनी इस रिपोर्ट में 'तख्तापलट' जैसे शब्द का इस्तेमाल नहीं किया था। लेकिन रिपोर्ट में इस बात पर जोर दिया गया था कि राजनैतिक-सैन्य रिश्ते में बने तनाव के माहौल के बीच सेना की इस हरकत से सरकार की नुमाइंदगी करने वाले प्रमुख लोगों ने 'गड़बड़ी की आशंका और घबराहट' महसूस की। इसके बाद सेना ने इस खबर का बड़े आक्रामक तरीके से खंडन किया।<br />
<br />
सेना के बेहद ईमानदार और तेजतर्रार जनरलों में से एक लेफ्टिनेंट जनरल हरचरनजीत सिंह पनाग 2009 में सेवानिवृत होने तक एक सैन्य कमांडर थे, उन्होंने गुरुवार को ट्विटर पर लिखा कि जनरल सिंह ने सरकार को डराने के लिए यह योजना बनाई थी ताकि सरकार को यह अंदाजा हो जाए कि अगर वह उन्हें बाहर का रास्ता दिखाने की तैयारी में है तो तख्तापलट भी संभव हो सकता है। पनाग ने सुझाया कि चूंकि सेना की दो टुकडिय़ों का यह कदम उनकी नियमित अभ्यास प्रक्रिया का ही हिस्सा था, ऐसे में किसी द्वेषपूर्ण और बुरे इरादे की बात को विश्वसनीय ढंग से खारिज किया जा सकता है। सेना की इन्हीं टुकडिय़ों को केवल अभ्यास के आदेश दिए गए थे जिस पर आपत्ति जताने का कोई सवाल भी नहीं खड़ा होता और केवल चुनिंदा लोग ही इस कार्यवाही के असली मकसद के बारे में जानते हैं।<br />
इसी से जुड़े पांच ट्वीट में पनाग ने इस कदम को एक 'प्रदर्शन' करार दिया जो 'दुश्मन की फैसला लेने की प्रक्रिया में बदलाव' लाने के लिए की गई कार्रवाई है। एक 'कवर प्लान' के जरिये इस पूरे घटनाक्रम का खंडन करने की स्थिति पैदा की गई, जिसके बारे में पनाग विस्तार से बताते हैं, 'दुश्मन को झांसा देने के लिए बनाई गई योजना के लिए एक विश्वसनीय बहाना बनाया जा सके।' इस सैन्य प्रदर्शन में हिस्सा लेने वाली सैन्य टुकडिय़ां इसके 'असली मकसद से वाकिफ नहीं थीं' लेकिन वरिष्ठ कमांडरों को इसका भान था। पनाग का कहना है कि नई दिल्ली की ओर सैन्य टुकडिय़ों का बढऩा एक 'सुनियोजित प्रदर्शन का हिस्सा था और इसके लिए उपयुक्त कवर योजना भी बना ली गई थी' जिसका मतलब यह है कि कोई दुश्मन किसी की रणनीति और योजना पर अमल न होने देने से पहले ही पलटवार कार्रवाई करना।<br />
<br />
सरकार, सेना और मीडिया भी इस बात पर बड़े सावधान हैं और अगर पनाग की बात सही माने तो इसे करीब-करीब तख्तापलट जैसे अनुभव का नाम दिया जा सकता है। सार्वजनिक चर्चा में रिपोर्ट में लिखे गए 'सी' शब्द पर चर्चा हो रही है। इस रिपोर्ट को लिखने वाले इंडियन एक्सप्रेस के मुख्य संपादक शेखर गुप्ता ने एक टीवी पत्रकार के सवालों का जवाब देते हुए कहा, 'मैंने सी शब्द का इस्तेमाल जरूर किया है लेकिन इससे मेरा तात्पर्य क्यूरियस (उत्सुकता) था न कि कू (तख्तापलट)'।<br />
<br />
<br />
===<br />
क्या वास्तव में यह सरकार और सेना के रिश्ते में आमूल परिवर्तन वाली ऐतिहासिक घटना है? क्या इतिहासकार 16 जनवरी को एक ऐसे दिन के रूप में देखेंगे जिस दिन जनरल सिंह ने सरकार की प्रक्रिया को अदालत में चुनौती दी और साथ-साथ (अगर पनाग सही हैं तो) दिल्ली की ओर कूच करके इसका हल निकालने की दृढ़ता दिखाई? फिलहाल ऐसा लगता है कि जनरल सिंह का सरकार के साथ चल रहा मतभेद सेना के लिए काफी फायदेमंद साबित हो रहा है। अब रक्षा मंत्रालय के अधिकारी बड़ी तत्परता से नीतियों, खरीद प्रक्रिया और पदोन्नति को मंजूरी दे रहे हैं जिसे कुछ मामलों में कई सालों से बेवजह लटकाया गया था।<br />
<br />
20 मार्च को रक्षा मंत्रालय ने मेजर जनरल के लिए एक पदोन्नति बोर्ड के नतीजे को मंजूरी दी थी जिसे पिछले 6 महीने से निर्ममता से टाला गया था। 2 अप्रैल को इसी मंत्रालय ने लंबे समय से संशोधन की राह ताक रही डिफेंस ऑफसेट पॉलिसी में सुधार किया था। उसी दिन एंटनी ने हथियारों की खरीद से जुड़ी समीक्षा की थी और उन्होंने इनके जल्द परीक्षण कराने का आग्रह भी किया। हालांकि सैन्य बलों पर असैन्य नियंत्रण के लिए वित्त एक महत्त्वपूर्ण पहलू रहा है लेकिन एंटनी ने रक्षा सेवाओं को ज्यादा वित्तीय शक्तियां देने का सुझाव दिया है ताकि ज्यादा से ज्यादा उपकरण खरीदें जाएं और इन सेवाओं के तंत्र को ज्यादा सशक्त बनाया जाए।<br />
<br />
सेना की 15 वर्षीय दीर्घावधि एकीकृत दृष्टिकोण योजना, एक अहम दस्तावेज है जिसमें देसी तकनीक के आधार पर हथियारों के विकास और खरीद के लिए एक खाका तैयार किया गया है। सूत्रों का कहना है कि इसे जल्द ही मंजूरी मिल सकती है। एक ओर नरेश चंद्रा समिति रक्षा तैयारी और उच्च स्तर के रक्षा संगठनों की पुनर्संरचना से जुड़ी अपनी सिफारिशों को अंतिम रूप दे रही है वहीं अंदरूनी सूत्रों ने इस बात पर दांव लगाना शुरू कर दिया है कि सरकार लंबे समय से विभिन्न समितियों और मंत्री समूहों द्वारा दिए जा रहे इस सुझाव को संभवत: स्वीकार सकती है कि तीन स्तर के सेना प्रमुखों से ऊपर एक 'चीफ ऑफ दि डिफेंस स्टॉफ' की नियुक्ति की जाए। यह प्रस्तावित पद पांच सितारा जनरल वाला होगा जिसके हाथ में थल, जल एवं वायु तीनो सेनाओं की कमान होगी।<br />
फिलहाल सेना, सेनाध्यक्ष और सरकार के बीच चल रहे विवाद और रक्षा मंत्रालय से जुड़े इस तथाकथित संवेदनशील वाकये के बीच किसी ताल्लुक से साफ तौर पर इनकार कर रही है। हालांकि सेवारत जनरल जोरदार तरीके से इंडियन एक्सप्रेस के लेख से उभर रहे आरोपों को खारिज कर रहे हैं जिसके मुताबिक जनरल सिंह ने सरकार पर गैरकानूनी तरीके से दबाव बनाया।<br />
<br />
===<br />
फिलहाल सेना मुख्यालय में सेवारत अधिकारी जोर देकर कहते हैं कि यह बिलकुल गलत बात है कि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) में किसी भी वक्त सेना की हलचल से पहले रक्षा मंत्रालय द्वारा पूर्व जरूरी मंजूरी का कोई प्रावधान या नियम है। सैन्य संचालन के समन्वय से जुड़े एक ब्रिगेडियर का कहना है, 'सेना की टुकडिय़ां रोजाना दिल्ली की ओर, दिल्ली में और दिल्ली के इर्द-गिर्द होती हैं। इनमें फायरिंग या प्रशिक्षण के लिए जा रही टुकडिय़ों के काफिले के साथ-साथ एक केंद्र से दूसरे केंद्र की ओर स्थानांतरित हो रही टुकडिय़ों का काफिला भी होता है। हर कॉम्बैट टुकड़ी को हर दो या तीन साल में ऐसा करना ही होता है। इन टुकडिय़ों के काफिले को प्रशासनिक औपचारिकताएं पूरी करने के लिए दिल्ली में रुकना पड़ता है।'<br />
<br />
सेवारत अधिकारी यह सवाल भी उठाते हैं कि आखिर दिल्ली की ओर आ रही दो टुकडिय़ों (बमुश्किल 500 जवान) को कैसे एक खतरे के तौर पर देखा जा सकता है, जब दो फ्रंटलाइन इन्फैंट्री ब्रिगेड और एक आर्टिलरी ब्रिगेड (10,000 से भी ज्यादा जवान) स्थायी रूप से राजधानी में तैनात रहते हैं। दिल्ली में इस स्थायी सैन्य जमाव में जनवरी में कुछ और हजार अतिरिक्त जवान तब और जुड़ जाते हैं जिन्हें सेना दिवस और गणतंत्र दिवस की परेड में शामिल होना होता है। एक अधिकारी सवाल करते हैं, 'चलिए एक क्षण को यह मान भी लिया जाए कि कुछ उन्मादी सेना प्रमुख तख्तापलट चाहते थे और वह दिल्ली में मौजूद सैनिकों के अलावा कुछ और सैनिक चाहते थे। ऐसे में वह हिसार (165 किलोमीटर दूर) और आगरा (204 किलोमीटर दूर) से सैनिकों को क्यों जमा करते जब महज 70 किलोमीटर की दूरी पर मेरठ में पूरी इन्फैंट्री डिविजन मौजूद है।'<br />
<br />
यहां तक कि किसी कल्पित तख्तापलट पर हो रही चर्चा की संवेदनशीलता को देखते हुए पहचान गुप्त रखने की शर्त पर हाल में सेवानिवृत्त हुए एक लेफ्टिनेंट जनरल कहते हैं , 'किसी भी सफल सैन्य तख्तापलट के लिए सभी छह भौगोलिक सैन्य कमानों के अलावा वायु सेना प्रमुख के सक्रिय सहयोग की दरकार होगी। यहां तक कि अगर एक भी कमान के प्रमुख की इस पर सहमति नहीं होगी तो भी यह संभव नहीं होगा और ऐसा सोचना बिलकुल मूर्खतापूर्ण होगा कि भावी सेनाध्यक्ष और पूर्वी कमान के प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल विक्रम सिंह खुद को किसी भी तख्तापलट के साथ जोड़ेंगे-ऐसे में कोई भी कोशिश तुरंत वफादारों और विद्रोहियों के बीच गृहयुद्घ में तब्दील हो जाएगी।'<br />
<br />
हालांकि भारत में एक कामयाब सैन्य तख्तापलट की कल्पना करना शायद मुश्किल है, लेकिन मौजूदा फितूर किसी असल तख्तापलट की गुंजाइश का मसला नहीं है बल्कि जैसा कि पनाग कहते हैं, एक कमजोर सरकार की कलाई मरोड़कर उस पर हल्का सा सैन्य दबाव डालने की खयाली पुलाव हो सकता है। एक पूर्व सेनाध्यक्ष कहते हैं, 'हिसार और आगरा से इन दो टुकडिय़ों को बुलाने के पीछे के इरादों को निश्चित रूप से निर्धारित करना अगर असंभव नहीं तो कम से कम मुश्किल जरूर होगा। कागजी कार्यवाही ही यह बताएगी कि यह अभ्यास वैधानिक आदेश का हिस्सा था या नहीं। इस कदम के पीछे के इरादे ही मायने रखते हैं और इरादे इंसानी दिमाग में होते हैं।'<br />
उनका कहना है कि यहां पर सरकार और सेना के बीच रिश्ते मायने रखते हैं। पूर्व सेनाध्यक्ष कहते हैं, 'पंजाब में अलगाववाद से लडऩे के लिए मुझे दिल्ली के रास्ते 3-4 पूरी डिविजन गुजारनी पड़ती थीं। उससे एक पल के लिए भी असैन्य प्रशासन के लिए साथ कोई तनाव नहीं हुआ। सेना और सरकार के बीच उस वक्त रिश्ते जैसे भी हों लेकिन हमारे बीच कोई संदेह नहीं था।'<br />
<br />
<br />
===<br />
यही वजह है कि किसी देश के नागरिक-सैन्य संबंध निश्चित रूप से बेहतर स्थापित ढांचे, प्रक्रिया और प्रभाव चक्र पर आधारित होने चाहिए न कि मौजूदा मिजाज के हिसाब से जो हालात और घटनाओं से बदल सकते हैं। भारत में सरकार और सेना के बीच सीमा रेखा की कुछ समझ या सार्वजनिक चर्चा होती है जिसमें दोनों की जिम्मेदारी और संपर्क भी तय है। लेखक सैमुअल हंटिंगटन ने वर्ष 1957 में आई अपनी कालजयी कृति 'द सोल्जर ऐंड द स्टेट' में सेना के 'वस्तुनिष्ठ नियंत्रण' की अवधारणा पेश की। सभी सफलतम लोकतंत्रों में लागू असैन्य नियंत्रण का यह ढांचा सेना को अपने दायरे में पूरी स्वायत्तता मुहैया कराता है। अपने पेशेवर क्षेत्र में अपना प्रभुत्व रखने वाली सेना और इस तरह से 'वस्तुनिष्ठ नियंत्रण' स्वयंसिद्घ हो जाता है और वह राजनैतिक दायरे में खुद को शामिल नहीं करती। हालांकि असैन्य नियंत्रण सेना के रोजमर्रा के फैसलों को प्रभावित करने के बजाय व्यापक राजनैतिक मुद्दों के हिसाब से होता है। इसके उलट 'व्यक्तिपरक नियंत्रण' बाधित असैन्य नियंत्रण के जरिये सेना के प्रभाव को बेअसर करता है, विस्तृत असैन्य पकड़ सेना के आंतरिक मामलों में दखल देने लगती है। व्यक्तिपरक नियंत्रण 'सेना के असैन्यकरण' का संकेत देता है जबकि वस्तुनिष्ठ नियंत्रण 'सेना के सैन्यकरण' के लिए लक्षित होता है जो पेशेवर अंदाज और उसके दायरे में उसकी जिम्मेदारी को प्रोत्साहित करता है।<br />
भारतीय सेना और रक्षा मंत्रालय या भारत सरकार के साथ इसके संबंधों के ढांचे पर नजर रखने वाले छात्र और विश्लेषक एकमत रूप से इस बात पर सहमत हैं कि पिछले कुछ वक्त के दौरान 'वस्तुनिष्ठ नियंत्रण' की सीमा का उल्लंघन हुआ है। दीर्घ अवधि की योजना से लेकर हथियार खरीद, प्रोन्नति और सेना के अधिकारियों की जन्म तिथि, सब पर असैन्य नौकरशाही हावी है। किसी भी सैन्य अधिकारी से उसकी सबसे बड़ी नाराजगी की वजह पूछिए लगभग निश्चित रूप से यही जवाब आएगा, 'बाबू' यानी नौकरशाह।<br />
<br />
हालांकि भारत में सैन्य तख्तापलट बहुत मुश्किल है और संसदीय लोकतंत्र के ढांचे को लेकर शिकायतों और आक्रोश पर सेना एक दायरे में ही प्रतिक्रिया देती है। एक अन्य चर्चित पुस्तक 'सोल्जर्स इन पॉलिटिक्स, मिलिट्री कूज एंड गवर्नमेंट्स' के लेखक एरिक नॉर्डलिंगर तर्क देते हैं कि आमतौर पर सरकार की नाकामी सैन्य तख्तापलट की वजह बनती हैं। सैन्य दखल के वास्तविक कारण उन मामलों में होने वाला असैन्य दखल है जिन पर सेना अपना वैधानिक अधिकार मानती है, पर्याप्त बजटीय सहायता, आंतरिक मामलों में उसकी स्वायत्तता, प्रतिद्वंद्वी संगठन द्वारा उसकी जिम्मेदारी के अतिक्रमण रोकने का उसका अधिकार और खुद उसकी निरंतरता। क्या यह एक व्यापक बहस का समय है?<br />
<br />
साभार- बिजनेस स्टैंडर्ड<br />
<br />
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
</div>Satyendra PShttp://www.blogger.com/profile/06700215658741890531noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3124261744486772692.post-19730890035349888932019-03-27T22:01:00.000-07:002019-03-27T22:01:55.854-07:00एंटी सैटेलाइट मिसाइल का राजनीतिकरण <br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgeP1pqP5F3kyAekSbCHdbpLKZDS9hU4QjpAzJRHuvSlbe85339qqyY8xThNBiruZsC2B3LSkGOKAFDqpXSGktPsyR9a3c8o3IsP2oeYYlYR22fCbtohSKw5AlyNtwLwiFd7RLCtbaH7SE/s1600/sat.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgeP1pqP5F3kyAekSbCHdbpLKZDS9hU4QjpAzJRHuvSlbe85339qqyY8xThNBiruZsC2B3LSkGOKAFDqpXSGktPsyR9a3c8o3IsP2oeYYlYR22fCbtohSKw5AlyNtwLwiFd7RLCtbaH7SE/s320/sat.jpg" width="240" height="320" data-original-width="493" data-original-height="657" /></a></div><br />
<b>सत्येन्द्र पीएस </b><br />
<br />
<br />
भारत अब आधिकारिक रूप से उन देशों के क्लब में शामिल हो गया है, जिनके पास अंतरिक्ष में किसी सैटेलाइल को मार गिराने की क्षमता है। भारत ने एंटी सैटेलाइट मिसाइल से एक लाइव सैटेलाइट को मार गिराया, जो अंतरिक्ष में 300 किलोमीटर दूर लो अर्थ ऑर्बिट में स्थित थी। यह क्षमता अब तक रूस, अमेरिका और चीन के पास थी। निश्चित रूप से भारत के हिसाब से यह बड़ी उपलब्धि है।<br />
<br />
<b>तकनीक में बहुत आगे बढ़ चुकी है दुनिया</b><br />
पिछले 2 दशक में विश्व ने अंतरिक्ष के क्षेत्र में सबसे ज्यादा प्रगति की है। इसकी वजह से हमारे हाथों में सैटेलाइट मोबाइल आए हैं और एक छोटा सा उपकरण लेकर हम दुनिया के किसी कोने में बैठे अपने किसी भी रिश्तेदार या परिचित से बात कर लेते हैं। वहीं हमारे एटीएम से लेकर पूरी बैंकिंग व्यवस्था को सैटेलाइट्स ने बदल दी है। यह एक दूसरे से इंटरलिंक हैं और हम एक चिप लगे डेबिट या क्रेडिट कार्ड के माध्यम से भारत या दुनिया के किसी कोने से अपना धन आसानी से किसी एटीएम से निकाल लेते हैं। इसमें कोई मानवीय हस्तक्षेप नहीं होता है। यह तकनीक इतनी प्रबल हो गई है, जो एक सामान्य मनुष्य के सिर्फ परिकल्पना में है। हम कहीं जा रहे होते हैं और गूगल मैप ऑन करते हैं, गूगल मैप में अपना गंतव्य स्थल सेट कर देते हैं। गूगल मैप को हमारे देश के चप्पे चप्पे की जानकारी है। अगर हम 10 मीटर भी आगे बढ़ जाते हैं तो गूगल मैप सिगनल देने लगता है कि आपने गलत राह पकड़ ली है और वह यू-टर्न लेने को कहता है, या किसी दूसरे रास्ते की मैपिंग दिखाने लगता है। कहने का आशय यह है कि तकनीक ने 21वीं सदी के मनुष्य को पूरी तरह से सैटेलाइट गाइडेड बना दिया है। <br />
<br />
स्वाभाविक है कि तकनीक ने लोगों की जिंदगी आसान की है। हम इन तकनीकों पर पूरी तरह से विकसित देशों यानी अमेरिका, जापान, दक्षिण कोरिया और यहां तक कि चीन पर निर्भर हैं। हमारे एटीएम का संचालन चीनी तकनीक करती है। मोबाइल पर पिछले 3 साल में चीन की कंपनियों का कब्जा हो गया है और आपके हाथ में तो ओप्पो, विवो, मोटो, का फोन होता है, वह चीनी कंपनियां हैं। और अगर पूरा मोबाइल चीन का नहीं है तो कम से कम उसे खोलने पर बैट्री पर मेड इन चाइना लिखा पाया जाता है। ऐसी स्थिति में अगर भारत के वैज्ञानिकों ने अंतरिक्ष के क्षेत्र में कोई तकनीक हासिल कर ली है तो इससे बड़ी खुशी की कोई बात नहीं हो सकती है। इससे उम्मीदों का दरवाजा खुलता है कि भले ही हम चीन, रूस और अमेरिका द्वारा यह उपलब्धि हासिल करने के दशकों बाद स्वदेशी तकनीक से ऐसा करने में सफल हुए हैं, लेकिन यह संभावना है कि हम कुछ बेहतर कर सकते हैं। <br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjSM7S137XE03ZVJuhsBg6_tO4eeDCwAhRb9onntvf3pqmmLa7dt_-0guvzIyQNd9yVi9eGb7vII3Y6FuRB7MVsT2zH3AfHpvKz7stKyj4a2vfow0LPghjdsQ5OwXVi3qtEj5A2d-SOCaM/s1600/Screenshot_20190328-101112.png" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjSM7S137XE03ZVJuhsBg6_tO4eeDCwAhRb9onntvf3pqmmLa7dt_-0guvzIyQNd9yVi9eGb7vII3Y6FuRB7MVsT2zH3AfHpvKz7stKyj4a2vfow0LPghjdsQ5OwXVi3qtEj5A2d-SOCaM/s320/Screenshot_20190328-101112.png" width="180" height="320" data-original-width="900" data-original-height="1600" /></a></div><br />
<a href="https://twitter.com/narendramodi/status/1110781818238693376"><b><br />
देश के नाम संबोधन की घोषणा से भय का माहौल</b></a><br />
एंटी सैटेलाइट मिसाइल की घोषणा करने के पहले जिस तरह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने माहौल बनाया, वह अद्भुत है। मोदी ने सुबह सबेरे ट्वीट किया कि मैं 11.45 से 12 बजे के बीच देश को काफी महत्त्वपूर्ण संदेश के साथ देश को संबोधित करूंगा। उसके बाद कई घंटे तक इस ट्वीट का मजाक बना रहा। लोगों को 8 नवंबर 2016 को की गई नोटबंदी की याद आ गई, जब अचानक प्रधानमंत्री टीवी पर नमूदार हुए और उन्होंने कहा कि अब 500 और 1,000 रुपये के नोट लीगल टेंडर नहीं होंगे। कुछ लोगों को लगा कि 2,000 रुपये का नोट बंद होने वाला है। कुछ लोगों ने सोचा कि पाकिस्तान पर कोई एयर स्ट्राइक होने वाला है। तरह तरह की आशंकाएं और मजाक सोशल मीडिया पर चले। इतना ही नहीं इस घबराहट के बीच 12.34 बजे दोपहर बीएसई पर सेंसेक्स 100 अंक नीचे चला गया, जो सुबह 200 अंकों की बढ़त पर कारोबार कर रहा था। अगर देखा जाए तो जनता को ही नहीं, बाजार को भी आशंका थी कि प्रधानमंत्री को कोई नया दौरा पड़ा है और वह राष्ट्र के नाम पर संबोधन में कोई नया पागलपन करने वाले हैं, जिससे देश की अर्थव्यवस्था तबाह होगी। हालांकि जब एंटी सैटेलाइट की घोषणा हुई तो बिजनेस कम्युनिटी ने राहत की सांस ली और मोदी के भाषण के दौरान बाजार 212 अंक चढ़ गया और रक्षा से जुड़े शेयरों में खास तेजी देखी गई।<br />
<br />
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEifZb4PfwrcWdTnbLTSZEgWyJpz7fOT09GymBn9IsbZVw_C3G9UzouWpeGD_6Ceyfmsqsi-H57b95HdCv15hAmIfOfWvqlZjSDnxp-4ONEbRIZDvwpRnLU1wvkciyRVmB1OVDrwZueZ_yo/s1600/bazar.jpg" imageanchor="1" ><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEifZb4PfwrcWdTnbLTSZEgWyJpz7fOT09GymBn9IsbZVw_C3G9UzouWpeGD_6Ceyfmsqsi-H57b95HdCv15hAmIfOfWvqlZjSDnxp-4ONEbRIZDvwpRnLU1wvkciyRVmB1OVDrwZueZ_yo/s320/bazar.jpg" width="320" height="240" data-original-width="1600" data-original-height="1200" /></a><br />
<br />
<br />
<b>प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद मिली राहत </b><br />
प्रधानमंत्री की इस घोषणा से घंटों तक आशंकाओं में गोते लगाते भारत के जनमानस को राहत मिली। तमाम लोगों ने आसमान की तरफ देखा और ऊपर वाले को धन्यवाद दिया कि देश पर कोई नई मुसीबत नहीं आई। तमाम लोगों ने आसमान में देखकर गर्व महसूस किया कि अब हम बहुत ताकतवर हो गए हैं। चुनाव के बीच इस तरह से ताकतवर होने का प्रधानमंत्री ने संभवतः इसलिए एहसास दिलाया कि उसके कुछ वोट बढ़ सकेंगे। पाकिस्तान पर सर्जिकल स्ट्राइक से माहौल नहीं बन पा रहा था, जिसके बाद प्रधानमंत्री ने यह दिखाने की कवायद की, जैसे उन्होंने और उनकी पार्टी ने कोई विशेष उपलब्धि हासिल कर ली है और देश मजबूत हुआ है। <br />
प्रधानमंत्री ने एंटी सैटेलाइट मिसाइल का राजनीतिक इस्तेमाल किया, डीआरडीओ के वैज्ञानिकों की उपलब्धि को अपनी उपलब्धि बताने की कवायद की है, यह राजनीति में नई गिरावट कही जा सकती है। लेकिन इसमें सबसे ज्यादा ध्यान देने वाली बात यह है कि सरकार ने स्वायत्त संस्थानों को नष्ट करने की कवायद की है। एंटी सैटेलाइट मिसाइल के परीक्षण के कुछ घंटे बाद रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (डीआरडीओ) के पूर्व महानिदेशक विजय कुमार सारस्वत नमूदार हुए। सारस्वत इस समय नीति आयोग के सदस्य <a href="http://niti.gov.in/team-niti/shri-vk-saraswat"> के रूप में सरकार द्वारा उपकृत हैं। उन्होंने कहा कि 2012 में यूपीए सरकार से अग्नि 5 के परीक्षण के समय ही एंटी सैटेलाइट मिसाइल के परीक्षण की अनुमति मांगी गई थी, लेकिन नहीं मिली। मंजूरी मिल जाती तो हम तभी ए-सैट की क्षमता हासिल कर चुके होते। <br />
<br />
<br />
<b>संस्थानों का खतरनाक राजनीतिकरण </b><br />
इस बयान से लगता है कि सरकार न सिर्फ संस्थानों का राजनीतिकरण कर रही है बल्कि जनरल वीके सिंह जैसे सेना के अधिकारियों, राजकुमार सिंह जैसे आईएएस अधिकारियों, सत्यपाल सिंह जैसे आईपीएस अधिकारियों को सांसद और फिर मंत्री बनाकर उपकृत करने की कड़ी में अन्य तमाम अधिकारियों को नेता बन जाने की पेशकश कर रही है। अब तक संस्थानों को राजनीति से मुक्त रखा गया था, जो शांत माहौल में अपना काम करते थे, लेकिन भाजपा और मोदी सरकार ने संदेश दे दिया है कि अगर उनके पक्ष में अधिकारी बयान देते हैं और पहले की सरकारों की आलोचना करते हैं तो उन्हें पुरस्कार दिया जाएगा। <br />
इस क्रम में विजय कुमार सारस्वत की नई एंट्री है। सारस्वत ने डीआरडीओ के प्रमुख रहते हुए 2012 में इंडिया टुडे पत्रिका को दिए गए भारी भरकम साक्षात्कार में कहा था कि भारत ने एंटी सैटेलाइट मिसाइल तैयार कर लिया है और अब वह अंतरिक्ष में लाइव किसी सैटेलाइट को मार गिराने में सक्षम है। प्रधानमंत्री ने जब राष्ट्र के नाम संबोधन कर इस एंटी सैटेलाइट मिसाइल का राजनीतिकरण कर दिया, उसके तुरंत बाद कांग्रेस के आधिकारिक ट्विटर हैंडल से ट्वीट कर कहा गया कि 1962 में पं. जवाहर लाल नेहरू द्वारा स्थापित किए गए भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम और इंदिरा गाँधी के द्वारा स्थापित किए गए भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन ने हमेशा अपनी उपलब्धियों से भारत को गौरवान्वित किया है। केंद्र सरकार को लगा कि कांग्रेस इसका श्रेय लेने की कोशिश कर रही है। इस पर केंद्र सरकार की ओर से केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने जोरदार पलटवार किया, वहां तक तो ठीक है। लेकिन सरकार ने सारस्वत को मैदान में उतार दिया। <br />
<br />
<b>टाइमिंग पर सवाल तो उठेंगे ही</b><br />
ऐसे में सारस्वत से सवाल पूछा जाना लाजिम है कि अगर 2012 में उपलब्धि हासिल हो गई थी और मई 2014 में भाजपा की सरकार बन गई तो ताकतवर प्रधानमंत्री मोदी ने 2014 में ही परीक्षण की अनुमति क्यों नहीं दे दी? सारस्वत की सरकार से नजदीकी इससे समझी जा सकती है कि उन्हें मोदी ने नीति आयोग का सदस्य बनाकर उपकृत कर रखा है। ऐसे में उन्होंने यह सलाह तत्काल ही क्यों नहीं दी कि कांग्रेस इसके परीक्षण की अनुमति न देकर करीब डेढ़ साल की देरी कर चुकी है, अब यह परीक्षण तत्काल हो जाना चाहिए। यह सवाल उठना लाजिम है कि इतनी बेहतरीन टाइमिंग सारस्वत और उनकी टीम ने किस तरह से निर्धारित कराई कि एक पूरी तरह से तैयार एंटी सैटेलाइट मिसाइल का परीक्षण तब हो सका है, जब लोकसभा चुनाव के लिए मतदान शुरू होने में 14 दिन बचे हैं और 11 अप्रैल 2019 को लोकसभा चुनाव के पहले चरण के लिए मतदान होना है। <br />
<br />
<br />
<a href="https://twitter.com/narendramodi/status/1110797218703761408"><b>प्रधानमंत्री का ऐलान </b></a><br />
प्रधानमंत्री ने 27 मार्च 2019 को ऐलान किया कि भारत ने अंतरिक्ष में एंटी सैटेलाइट मिसाइल से एक लाइव सैटेलाइट को मार गिराते हुए आज अपना नाम अंतरिक्ष महाशक्ति के तौर पर दर्ज कराया और ऐसी क्षमता हासिल करने वाला दुनिया का चौथा देश बन गया। प्रधानमंत्री ने कहा हर राष्ट्र की विकास यात्रा में कुछ ऐसे पल आते हैं जो उसके लिए अत्यधिक गौरव वाले होते हैं और आने वाली पीढय़िों पर उनका असर होता है। आज कुछ ऐसा ही समय है। मोदी ने राष्ट्र के नाम संदेश में कहा कहा, “मिशन शक्ति के तहत भारत ने स्वदेशी एंटी सैटेलाइट मिसाइल ए सैट से तीन मिनट में एक लाइव सैटेलाइट को सफलतापूर्वक मार गिराया। उन्होंने बाद में ट्वीट किया मिशन शक्ति की सफलता के लिए हर किसी को बधाई।” <br />
मोदी ने कहा कि हमने जो नई क्षमता हासिल की है, यह किसी के विरूद्ध नहीं है बल्कि तेज गति से बढ़ रहे हिन्दुस्तान की रक्षात्मक पहल है। उन्होंने वैज्ञानिकों को इस उपलब्धि के लिए बधाई दी और उनकी सराहना भी की। प्रधानमंत्री ने यह भी कहा कि इससे किसी अंतरराष्ट्रीय कानून या संधि का उल्लंघन नहीं हुआ है। भारत हमेशा से अंतरिक्ष में हथियारों की होड़ के विरूद्ध रहा है और इससे (उपग्रह मार गिराने से) देश की इस नीति में कोई परिवर्तन नहीं आया है। मोदी ने कहा कि मिशन शक्ति एक अत्यंत जटिल ऑपरेशन था जिसमें उच्च कोटि की तकनीकी क्षमता की आवश्यकता थी। वैज्ञानिकों द्वारा निर्धारित सभी लक्ष्य और उद्देश्य प्राप्त कर लिए गए हैं। <br />
कांग्रेस ने भारत की उपग्रह रोधी मिसाइल क्षमता के सफल इस्तेमाल के लिए वैज्ञानिकों को बधाई देते हुए केंद्र सरकार पर वैज्ञानिकों की इस उपलब्धि का भी श्रेय लेने की कोशिश करने का आरोप लगाया। ग्रेस के मुख्य प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने कहा, “रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) के वैज्ञानिकों को इस उपलब्धि के लिए बहुत-बहुत मुबारक और शुभकामनाएं। भारत ने एक और मील का पत्थर कायम किया है। यह क्षमता 2012 में डीआरडीओ ने हासिल कर ली थी। इसके बाद आज इसका व्यावहारिक परीक्षण किया गया।” उपग्रह रोधी मिसाइल की सफलता की घोषणा स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा किए जाने के कारण इस उपलब्धि से चुनावी <br />
लाभ लेने के आरोपों के बारे में पूछने पर सुरजेवाला ने कहा, “जब सब कुछ खोने लगे, जब राजनीतिक धरातल खिसक जाए, जब कुछ भी हासिल न हो रहा हो, जब 15 लाख रुपए वाले जुमलों की पोल खुल जाए, जब किसान इंसाफ मांगे, और जब कांग्रेस की न्याय योजना से घबराहट शुरू हो जाए तो उस हड़बड़ी में कुछ भी करना पड़ता है।” उन्होंने कहा कि इससे पहले भी उपग्रह प्रक्षेपण से लेकर अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में अनगिनत उपलब्धियां हासिल की गई हैं और आगे भी यह सिलसिला जारी रहेगा। उन्होंने कहा, “हमारे वैज्ञानिकों की उपलब्धियों के लिए सभी सरकारों का डीआरडीओ को पूरा सहयोग और समर्थन रहा। लेकिन यह शायद पहला मौका है जबकि प्रधानमंत्री ने वैज्ञानिकों की उपलब्धि को सार्वजनिक किया। यह वही व्यक्ति है जिसने हिंदुस्तान एयरोनोटिक्स लिमिटेड को नष्ट कर दिया।”<br />
<br />
<br />
<b>युद्ध के समय कारगर तकनीक </b><br />
यह एक ऐसी तकनीक है, जो किसी देश के साथ युद्ध की स्थिति में कारगर है। अगर इस तकनीक को हासिल कर लिया जाए तो युद्ध के दौरान दुश्मन देश के सैटेलाइट को ध्वस्त कर उसकी पूरी संचार प्रणाली को तबाह किया जा सकता है। इसके चलते अंतरराष्ट्रीय समुदाय इसे युद्ध की स्थिति में आगे बढ़ने की होड़ मानता है। हालांकि विकसित देश अब इतने आगे बढ़ चुके हैं कि वे एक बग या वायरस डालकर किसी देश की पूरी बैंकिंग प्रणाली तक नष्ट कर सकते हैं या उसे अपने कब्जे में ले सकते हैं। वहीं गूगल को भारत के चप्पे चप्पे की लोकेशन पता है और कौन सा व्यक्ति किस गली में किस मकान में रहता है, इसका डेटा अमेरिका के पास मौजूद है। इसे आप अपने मोबाइल में अमेरिकी गूगल मैप खोलकर अपनी लोकेशन पर क्लिक करके जान सकते हैं कि तकनीक कहां तक पहुंच चुकी है। ऐसे में वैश्विक समुदाय मानवोपयोगी तकनीकी विकास के अलावा किसी ऐसी तकनीक का ऐलान नहीं करता, जिससे युद्धोन्माद या भय का वातावरण बने। विकसित देशों ने एंटी सैटेलाइट मिसाइल कई दशक पहले बना ली थी, तो स्वाभाविक रूप से वह इसके बहुत आगे का शोध कर चुके होंगे, उनका परीक्षण भी कर चुके होंगे, लेकिन इसका ऐलान नहीं किया जाता और किसी आपात स्थिति में उसका प्रयोग कर लिया जाता है, जैसे अमेरिका ने द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान 1945 में हिरोशिमा और नागाशाकी में परमाणु बम गिराकर अपनी ताकत दिखा दी थी, जिसका ढिंढोरा अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने 11 से 13 मई 2018 को पोखरण परीक्षण करके पीटा था। <br />
<br />
<b><br />
विदेश मंत्रालय का स्पष्टीकरण</b> <br />
ऐसी स्थिति में विदेश मंत्रालय को भी सामने आना पड़ा। विदेश मंत्रालय ने बताया कि यह डीआरडीओ का प्रौद्योगिकी मिशन था और इस मिशन में उपयोग किया गया उपग्रह निचली कक्षा में मौजूद भारत के उपग्रहों में से एक था। इसमें बताया गया, परीक्षण पूरी तरह से सफल रहा और योजना के तहत सभी मानदंडों को पूरा किया। यह पूरी तरह से स्वदेशी प्रौद्योगिकी पर आधारित था। इसमें स्पष्ट किया गया है कि भारत का परीक्षण किसी देश को निशाना बनाकर नहीं किया गया है। यह परीक्षण क्यों किया गया, इस सवाल के जवाब में कहा गया कि यह परीक्षण इसलिए किया गया ताकि भारत के अपने अंतरिक्ष संबंधी परिसंपत्तियों की सुरक्षा की क्षमता की पुष्टि की जा सके। यह सरकार की जिम्मेदारी है कि हम बाहरी अंतरिक्ष में अपने देश के हितों की रक्षा कर सकें। मंत्रालय ने यह स्पष्ट किया कि भारत का इरादा बाहरी अंतरिक्ष में हथियारों की दौड़ में शामिल होना नहीं है और उसने हमेशा इस बात का पालन किया है कि अंतरिक्ष का केवल शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए ही इस्तेमाल किया जाए। <br />
<br />
इसमें कहा गया है कि भारत बाहरी अंतरिक्ष के शस्त्रीकरण के खिलाफ है और अंतरिक्ष आधारित परिसंपत्तियों की सुरक्षा के अंतरराष्ट्रीय प्रयासों का समर्थन करता है। क्या भारत बाहरी अंतरिक्ष में हथियारों की दौड़ में प्रवेश कर रहा है, इस सवाल के जवाब में विदेश मंत्रालय ने कहा कि भारत मानता है कि बाहरी अंतरिक्ष मानवता की साझी धरोहर है और यह सभी राष्ट्रों की जिम्मेदारी है कि इसका संरक्षण किया जाए और अंतरराष्ट्रीय प्रौद्योगिकी में हुई उन्नति के लाभ को प्रोत्साहित किया जाए। मंत्रालय ने कहा कि भारत बाहरी अंतरिक्ष से जुड़ी सभी अंतरराष्ट्रीय संधियों का पक्षकार है। भारत ने इस क्षेत्र में पारदर्शिता एवं विश्वास बहाली के अनेक उपायों को लागू किया है। भारत बाहरी अंतरिक्ष में पहले हथियारों का प्रयोग नहीं करने के संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव का समर्थन करता है। इसमें कहा गया है कि भारत भविष्य में बाहरी अंतरिक्ष में हथियारों की दौड़ को रोकने के लिए अंतरराष्ट्रीय कानून का मसौदा तैयार करने में भूमिका अदा करने की उम्मीद करता है। <br />
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
</div>Satyendra PShttp://www.blogger.com/profile/06700215658741890531noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3124261744486772692.post-29118699958805434172018-03-14T12:08:00.000-07:002018-03-14T12:08:22.150-07:00गोरखपुर में संघ के गले की हड्डी बना सामाजिक न्याय<br />
<i>सत्येन्द्र पीएस</i><br />
<br />
गोरखपुर का मठ धराशायी हो गया। इसकी मठाधीशी 1989 के बाद से ही भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) संभाल रही थी। यह भारत की राजनीति की बड़ी परिघटना है, जो राजनीति की दिशा तय करने में अहम हो सकती है। ऐसे में इस जीत को लेकर कयास लगाया जाना स्वाभाविक है। गोरखपुर के इतिहास में यह भी पहली घटना है कि स्वतंत्रता के बाद से पहली बार वहां गैर ब्राह्मण, गैर ठाकुर सांसद प्रवीण कुमार निषाद बने हैं। <br />
<br />
1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार बनी। 1991 में पीवी नरसिंहराव प्रधानमंत्री बने। 1996 में 13 दिन की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के बाद हरदनहल्ली डोड्डागौड़ा देवगौड़ा प्रधानमंत्री बने। 1998 में आम चुनाव के बाद अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने। 2004 में मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने और 2009 में कांग्रेस के कामयाब होने पर फिर से सरदार को भारत का सरदार बनने का मौका मिला। 2014 में कांग्रेस के पिटने के बाद नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने। <br />
<br />
लेकिन गोरखपुर में 1989 सिर्फ और सिर्फ भाजपा, हिंदू महासभा का कब्जा रहा। कोई असर नहीं पड़ा कि जनता दल सरकार बना रही है, कांग्रेस सरकार बना रही है या संयुक्त मोर्चे की सरकार है। पहले लगातार महंत अवैद्यनाथ चुनाव जीतते रहे और 1998 के बाद से योगी आदित्यनाथ चुनाव जीतने लगे। अवैद्यनाथ के निधन के बाद योगी आदित्यनाथ महंत बन गए और 2017 में भाजपा की यूपी में जीत के बाद आदित्यनाथ मुख्यमंत्री भी हो गए।<br />
<br />
इसके पहले भी गोरखपुर आरएसएस और दक्षिणपंथियों के हिंदुत्व की प्रयोगशाला रहा है। गोरखनाथ मंदिर के महंत दिग्विजयनाथ हिंदू महासभा और घोड़ा मय सवार चुनाव चिह्न पर 1967 में सांसद बने थे और बाद में 1970-71 में महंत अवैद्यनाथ सांसद बने। उसके बाद कांग्रेस, भारतीय लोक दल के सांसद हुए। 1989 में मंदिर की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा फिर जागी। जब विश्वनाथ प्रताप सिंह ने जनता दल बनाई तो गठजोड़ में गोरखपुर की सीट जनता दल के खाते में गई और महंत अवैद्यनाथ ने हिंदू महासभा से चुनाव लड़कर जीत दर्ज की। उसके बाद जितने भी लोकसभा चुनाव हुए, मंदिर के महंत भाजपा से चुनाव लड़ते रहे और जीतते रहे। <br />
<br />
इसके अलावा गोरखपुर पर गीता प्रेस का भी असर है। वहां से धेरों धार्मिक पुस्तकें छपती हैं। रामचरित मानस के अलावा तमाम धार्मिक पुस्तकें हैं जो गीता प्रेस छापता है। अत्यंत सस्ती या कहें कि बिल्कुल मुफ्त होने के कारण उन किताबों की पहुंच स्थानीय लोगों तक आसानी से हो जाती है और उससे धार्मिक भावनाएं भी भरपूर पैदा होती हैं। <br />
<br />
गीता प्रेस और गोरखनाथ मठ के मठाधीशों की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा ने गोरखपुर को हिंदुत्व का अखाड़ा बना दिया और उसका परिणाम यह हुआ कि 1989 से लेकर 2018 के उपचुनाव तक लगातार गोरखपुर संसदीय सीट पर मठ पर कब्जा बना रहा। <br />
फिर आखिर ऐसा क्या बदलाव हो गया, जिसकी वजह से भाजपा का यह मठ ऐसे समय में उजड़ गया, जब यहां के मठाधीश ही राज्य के मुख्यमंत्री हैं? तरह तरह के कयास लगाए जा रहे हैं। आदित्यनाथ का कैंडीडेट न होना, आदित्यनाथ को कमजोर करने के लिए भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व द्वारा कैंडीडेट को हरा दिया जाना, सपा-बसपा गठबंधन आदि आदि। तमाम तर्क हैं, तर्कों की अपनी अपनी व्याख्याएं हैं। यह भी एक तर्क है कि ईवीएम छेड़छाड़ न कर भाजपा सरकार ने उपचुनाव जीत जाने दिया, जिससे कि लोकसभा चुनाव में आसानी से धांधली की जा सके। यह सब तर्क हैं और तर्कों के पक्ष में तमाम तर्क-वितर्क हैं। <br />
<br />
गोरखपुर ब्राह्मण बनाम ठाकुर का गढ़ रहा है। पहले भी कभी ठाकुर और कभी ब्राह्मण जीतते रहे हैं। कांग्रेस बारी बारी से ब्राह्मण और ठाकुर कैंडीडेट ट्राई करती रही थी। गोरखनाथ मंदिर ने जब ठाकुरवाद के साथ हिंदुत्व का काक्टेल किया तो उन्होंने अजेय बढ़त बना ली। कई बार मनोज तिवारी से लेकर हरिशंकर तिवारी तक को आजमाने की कोशिश की गई, लेकिन कभी भी सफलता नहीं मिली। इस बीच समाजवादी पार्टी ने पिछड़े वर्ग के निषाद प्रत्याशियों पर दांव खेले। बसपा ने पिछड़े वर्ग के सैथवार प्रत्याशी केदारनाथ सिंह पर दांव खेला, लेकिन कुल मिलाकर असफलता ही हाथ लगी। ठाकुरवाद और हिंदुत्व के कॉक्टेल की तोड़ कोई नहीं तोड़ सका। <br />
<br />
इस बीच गोरखपुर विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति में भी ठाकुर बनाम ब्राह्मण चलता रहा। छात्र संघ चुनाव में कोई प्रत्याशी पंडी जी का होता था और कोई बाऊ साहेब का। और अंग्रेजों के जमाने के जेलर की तरह आधे वोटर इधर और आधे उधर बंट जाते थे। करीब सभी पदों पर ब्राह्मण और ठाकुर प्रत्याशी जीत जाते। पहली बार इस समीकरण को उपाध्यक्ष पद के प्रत्याशी के रूप में मौजूदा बसपा नेता विश्वजीत सिंह ने तोड़ा था और वह विश्वविद्यालय उपाध्यक्ष बनने में सफल रहे थे। हालांकि उसके बाद कुछ वर्षों तक चुनाव नहीं हुआ और कभी हुआ भी तो छात्र फिर से आधे इधर और आधे उधर में बंटते रहे। <br />
<br />
2014 की नरेंद्र मोदी सरकार गोरखपुर की छात्र राजनीति में टर्निंग प्वाइंट था, जब पिछड़े और दलित वर्ग के कुछ बच्चे समझने लगे कि यह खेल गड़बड़ है। इतना ही नहीं, आंकड़े भी आने लगे कि 1989 के बाद संसद और राज्य विधानसभाओं में पिछड़े वर्ग के सांसदों और विधायकों के चुनाव में लगातार बढ़ रही थी, लेकिन भाजपा के पूर्ण बहुमत आने के साथ ही उल्टी गंगा बहने लगी। 2014 में संसद में पिछड़े वर्ग के सांसदों की संख्या 1989 के बाद सबसे कम हो गई। गोरखपुर के कुछ छात्र इसे लेकर न सिर्फ चिंतित हुए बल्कि उन्होंने संगठित होने का काम भी शुरू कर दिया। <br />
<br />
दर्शन शास्त्र के छात्र रहे हितेश सिंह ने यह पहल की। उन्होंने न सिर्फ गोरखपुर विश्वविद्यालयों के छात्रों की जातीय स्थिति और उनकी सोच को देखा, बल्कि उन्होंने बताना शुरू किया कि अगर कोशिश की जाए तो चुनाव जीता भी जा सकता है। शुरुआत हुई फूलन देवी की जयंती मनाने से। गोरखपुर के आसपास निषाद बड़ी संख्या में हैं और ओबीसी आरक्षण के बाद विश्वविद्यालय में भी ठीक ठाक संख्या में पहुंचते हैं। उसके बाद शाहू जी जयंती, अंबेडकर जयंती, फुले जयंती के माध्यम से दलितों पिछड़ों की एका बनाने की कवायद विश्वविद्यालय में हुई। मुस्लिम छात्रों को जोड़ने की भी कवायद हुई, जो 1991 में हुए दंगों के बाद से अलग कट चुके थे। गोरखपुर में स्थिति यह हुई थी कि 1991 के बाद से जो भी हिंदू मुस्लिम मिक्स कॉलोनियां थीं, वहां अगर मुस्लिम कम हैं तो उन्होंने घर और जमीन बेचकर मुस्लिम बहुल इलाके में अपना आशियाना बसा लिया और जिन इलाकों में हिंदू कम संख्या में थे, उन्होंने अपने मकान बेचकर हिंदू बहुल इलाके में घर खरीद लिए। ऐसे में हिंदू मुस्लिम पूरी तरह से अलग अलग टापू पर बस चुके हैं। इन अलग टापू पर बसे विद्यार्थियों को भी दलित पिछड़े छात्रों ने जोड़ना शुरू किया। <br />
<br />
इसका परिणाम भी आया। सामाजिक न्याय के लिए लड़ रहे विद्यार्थियों ने विश्वविद्यालय चुनाव आते आते अपने प्रत्याशी उतार दिए। प्रत्याशी उतारे जाने तक किसी को कोई भान नहीं था कि गोरखपुर की राजनीति किस तरह बदल रही है। वजह यह थी कि न तो इसका कोई औपचारिक नाम था, न कोई गठजोड़, न कोई पार्टी कार्यालय, न किसी का वरदहस्त। बस इतना ही था कि विद्यार्थी उदा देवी पासी, फूलन देवी, सावित्री बाई फुले, ज्योतिबा फुले, भीम राव अंबेडकर, शाहू जी महराज की जयंती मनाते। उन्हें याद करते। उन पर चर्चा करते और सामाजिक न्याय के सपने देखते। लेकिन 2016 के चुनाव में सामाजिक न्याय अघोषित प्रत्याशी अरविंद कुमार उर्भ अमन यादव अध्यक्ष पद पर विजयी रहे। मंत्री पद पर पवन कुमार अपने एक हमनाम पवन कुमार पांडेय के चलते बहुत मामूली मत से हारे। मंत्री पद पर स्वतंत्र उम्मीदवार ऋचा चौधरी जीतने में कामयाब रहीं। वहीं पुस्तकालय मंत्री के पद पर आमिर खान जीत गए। उपाध्यक्ष पद के लिए सामाजिक न्याय वालों ने कोई प्रत्याशी नहीं उतारा था, जिसका फायदा सपा छात्र सभा के अमित यादव को मिला और वह एक स्वतंत्र प्रत्याशी अखिल देव त्रिपाठी से महज 20 मतों से हार गए। गोरखपुर की छात्र राजनीति के इतिहास में पहली बार अध्यक्ष और मंत्री पद पर पिछड़े वर्ग के विद्यार्थी जीतने में कामयाब हुए। पिछड़े वर्ग के सैंथवार जाति से ताल्लुक रखने वाले हितेश सिंह को साथ मिला अनुसूचित जाति में चमार जाति के युवा नेता धीरेंद्र प्रताप का। धीरेंद्र प्रताप बहुजन राजनीति करते हैं। अच्छे बॉडी बिल्डर हैं। अन्य विद्यार्थियों को शारीरिक शैष्ठव में निपुण बनाते हैं। साथ ही बुद्धलैंड की मांग कर रहे हैं। उन्होंने बुद्धलैंड राज्य निर्माण आंदोलन समिति बना रखी है। <br />
<br />
चुनाव में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के प्रत्याशियों का बहुत बुरा हाल हुआ। भारतीय जनता पार्टी भले ही विधानसभा चुनाव जीत गई, लेकिन शहर से लेकर गांव तक लोगों को यह सताने लगा कि विश्वविद्यालय से निकले विद्यार्थी गोरखपुर की ब्राह्मण-क्षत्रिय राजनीति और मठ व हिंदुत्व के कॉक्टेल से अलग संकेत दे रहे हैं। <br />
<br />
2017 में जब सामाजिक न्याय के ग्रुप ने गोरखपुर में आक्रामक तरीके से प्रचार शुरू किया तो चुनाव स्थगित करने के माहौल बनाए जाने लगे। विद्यार्थियों का आंदोलन अद्भुत एका पैदा कर रहा था। उत्तर प्रदेश के उप मुख्यमंत्री दिनेश शर्मा खुद गोरखपुर आए। उन्होंने कुछ मानकों का हवाला देकर चुनाव कराने से ही इनकार कर दिया। <br />
<br />
विद्यार्थियों को तो गोरखपुर में चुनाव नहीं लड़ने दिया गया, लेकिन भाजपा पर इसका खौफ भरपूर हुआ। छात्रों ने राजनीतिक स्तर पर संगठन और तेज किया। पहले सपा में रहे काली शंकर यादव ने अपने नाम के सामने काली शंकर ओबीसी लगा दिया। हितेश सिंह की कवायद के बाद गोरखपुर में लोकसभा चुनाव के ठीक पहले त्रिशक्ति सम्मेलन हुआ, जिसमें ओबीसी से जुड़ी तमाम जातियों ने हिस्सा लिया और कहा कि जो भी दल हमारी भागीदारी बढ़ाने की मांग करेगा, हम उसे समर्थन करेंगे। <br />
<br />
इस बीच गोरखपुर से सपा ने निषाद पार्टी से गठजोड़ कर प्रवीण कुमार निषाद को सपा प्रत्याशी घोषित कर दिया। उसके दूसरे दिन काली शंकर ने प्रेस कान्फ्रेंस कर प्रवीण कुमार को समर्थन देने की घोषणा कर दी। इसके अलावा चौधरी अजित सिंह के राष्ट्रीय लोक दल ने भी सपा के प्रत्याशी को समर्थन देने की घोषणा कर दी। भाजपा की जीत में अहम भूमिका निभाने वाले सैंथवार जाति के गंगा सिंह सैंथवार ने प्रवीण कुमार के साथ संयुक्त प्रेस वार्ता करके समर्थन की घोषणा की, जो लोकदल के पूर्वी उत्तर प्रदेश के प्रमुख हैं। इसके अलावा बसपा अध्यय मायावती की ओर से हरी झंडी मिलते ही बसपा के कार्यकर्ता भी समर्थन में आ गए। गोरखपुर में बसपा के नेता शिवांग सिंह बताते हैं कि बहन जी की घोषणा के बाद ही हम लोग सड़कों पर आ गए और सपा के प्रत्याशी का प्रचार करना शुरू कर दिया गया। <br />
<br />
डॉ हितेश सिंह कहते हैं कि विद्यार्थियों का जागरूक होना बहुत मायने रखता है। महज 4 साल में दलित पिछड़े वर्ग के विद्यार्थियों में गांव गांव में यह अलख जगा दी कि मठ के महंत आदित्यनाथ के सांसद रहने से गोरखपुर रसातल में जा रहा है। हितेश कहते हैं, “अगर योगी आदित्यनाथ के करीब 15 साल के काल में उनके संसद में दिए भाषणों को सुनें तो उनकी प्राथमिकता पर आईएसआई, हिंदू मुस्लिम विवाद अहम रहता था। यहां तक कि वह अपने मसले को लेकर संसद में रोए भी। वहीं गोरखपुर में पिछले 30 साल से औसतन हर साल 700 बच्चे दिमागी बुखार से मर जाते हैं, गोरखपुर रेलवे मुख्यालय कई भागों में विभाजित हुआ, रोजगार छिन गया, फर्टिलाइजर बंद हो गया, मेडिकल कॉलेज को हर साल बंद करने की धमकी मिलती रही। यह सब मुद्दे आदित्यनाथ के लिए गौड़ रहे।”<br />
<br />
गोरखपुर में भाजपा की हार ने यह साबित कर दिया है कि भाजपा का छात्र राजनीति से भय नाहक नहीं है। चाहे जेएनयू हो, चाहे हैदराबाद हो, चाहे इलाहाबाद। भाजपा के एजेंडे पर लगातार छात्र राजनीति रहती है। दिलचस्प है कि भाजपा को वहां कोई दिक्कत नहीं हो रही है, जहां कांग्रेस के छात्र संगठन हैं। कम्युनिस्ट छात्र संगठन भाजपा को असहज करते हैं। और अगर कहीं सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले छात्र नेता उभरने लगते हैं तो वह भाजपा के लिए गले की हड्डी है। <br />
<br />
और अब सामाजिक न्याय नाम की हड्डी भाजपा के गले में अटक चुकी है। दो उपचुनाव जीतने के बाद सपा के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने मीडिया से बातचीत में कहा कि जिसकी आबादी सबसे ज्यादा है, उसे संघी लोग कीड़ा मकोड़ा समझते हैं। सपा बसपा के लोगों को सांप छछूंदर बोला। यादव ने आज घोषणा की कि सामाजिक न्याय विकास में बाधक नहीं है, विकास एजेंडा में रहेगा, लेकिन यह सामाजिक न्याय के साथ होगा। <br />
<br />
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
</div>Satyendra PShttp://www.blogger.com/profile/06700215658741890531noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3124261744486772692.post-80475873302909791172018-01-16T08:33:00.001-08:002018-01-16T09:04:59.057-08:00आरक्षण विरोधियों ने मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के पहले अनुसूचित जाति का आरक्षण खत्म करने के लिए बनाया था वीपी सरकार पर दबाव <i>(यह लेख 1990 में वीपी सिंह सरकार द्वारा अन्य पिछड़े वर्ग के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने के बाद केदारनाथ सिंह के विभिन्न भाषणों का अंश है। केदारनाथ सिंह 1989 में पिपराइच विधानसभा क्षेत्र से जनता दल विधायक थे और वीपी सिंह के अहम साथियों में से एक रहे हैं। लेखक की कवायद है कि उसकी अविकल प्रस्तुति की जाए, जिससे मूल भावना में कोई बदलाव न हो। वीपी सिंह सरकार गिराए जाने को लेकर इस लेख से एक नया नजरिया सामने आता है कि किस तरह से विरोधियों ने मंडल आयोग की सिफारिश लागू होने के पहले ही आरक्षण के मसले पर वीपी सिंह सरकार को घेरना शुरू कर दिया था- सत्येन्द्र पीएस)</i><br />
<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgmH-H6R5eYB3xEQaG07WdBGjy5atZew7VTgOCnVbW-esSrJSWjVk5aQSX32IAVOklTWRZKkz_5qgs3GsAVOD5UahjJwy5C3hpTSHwtHmB0MbRnjfQotuAc8127YQkzUoRUfMEtfG1KKok/s1600/ke.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgmH-H6R5eYB3xEQaG07WdBGjy5atZew7VTgOCnVbW-esSrJSWjVk5aQSX32IAVOklTWRZKkz_5qgs3GsAVOD5UahjJwy5C3hpTSHwtHmB0MbRnjfQotuAc8127YQkzUoRUfMEtfG1KKok/s320/ke.jpg" width="267" height="320" data-original-width="140" data-original-height="168" /></a></div><b>केदारनाथ सिंह</b><br />
<br />
आरक्षण विरोधी मुहिम चलाने वाले जनता दल के पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह पर आरोप लगाते हैं कि अनुसूचित जाति, जनजाति का आरक्षण कायम रखते हुए मंडल आयोग की सिफारिशों के आधार पर अन्य पिछड़े वर्ग को 27 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने से देश के अंदर जातीय तनाव पैदा हो गया है। इसमें कितनी सत्यता है, इसका विवेचन आवश्यक है। जनता दल व हमारे सरीखे लोग जहां सामाजिक न्याय के लिए आरक्षण को एक आवश्यकता महसूस करते हैं वहीं आरक्षण विरोधी आंदोलन चलाने वाले तत्व इसे अनुचित करार देते हैं। आरक्षण उचित नहीं है, इस पर आरक्षण विरोधी अपना तर्क प्रस्तुत कर सकते हैं परंतु जातीय दुर्भावना उभारने में किसका हाथ रहा है, पिछली घटनाओं के आधार पर यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि आरक्षण विरोधी आंदोलन चलाने वाले लोग कुलीन तंत्र के घोर पोषक हैं और एक जाति विशेष के अलावा किसी को भी सत्ता में भागीदारी नहीं देना चाहते हैं। <br />
संविधान लागू होने के साथ ही अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिए उनकी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण की व्यवस्था की गई थी। यह व्यवस्था स्वर्गीय पंडित जवाहरलाल नेहरू, उनकी पुत्री स्वर्गीय श्रीमती इंदिरा गांधी व उनके पौत्र श्री राजीव गांधी के समय भी लागू रही। क्या कारण है कि उनके समय में आरक्षण विरोधी मुहिम चलाने वाले कुलीन तंत्र के लोग खामोश बैठे रहे? अब जब गैर ब्राह्मण सत्ता परिवर्तन के बाद सत्ता में आया है तो यह तत्व आरक्षण विरोधी मुहिम चलाने का काम करते हैं। <br />
पिछली घटनाओं पर अगर नजर डालें तो मामला साफ हो जाता है। सन 1977 में आपातकाल की ज्यादतियों से ऊबकर जब जनता ने जनता पार्टी को सत्ता सौंपी तो उस समय जगन्नाथ मिश्र के स्थान पर एक नाई के लड़के कर्पूरी ठाकुर बिहार के मुख्यमंत्री बने। इसी तरह उत्तर प्रदेश में पंडित नारायण दत्त तिवारी को हटाकर पिछड़ी जाति के राम नरेश यादव मुख्यमंत्री बने। केंद्र में इंदिरा गांधी की जगह मोरारजी देसाई के नेतृत्व में सरकार बनी। उस समय 1977-78 में आरक्षण विरोधी आंदोलन चलाकर आरक्षण विरोधियों द्वारा जातीय दुर्भावना का प्रदर्शन किया गया। लोकसभा व विधानसभाओं में आरक्षण की अवधि को 10 साल के लिए बढ़ाया जाना था, जिसका विरोध शुरू हो गया, जबकि आरक्षण 1980 में बढ़ाया जाना था। <br />
अगर आरक्षण विरोधियों ने उस समय विरोध शुरू किया था तो उन्हें विरोध जारी रखना चाहिए था। लेकिन 1980 में इंदिरा गांधी के सत्ता में आते ही आरक्षण विरोधी आंदोलन वापस ले लिया गया, जबकि उस समय आरक्षण की अवधि 10 साल के लिए बढ़ाई जानी थी। <br />
आरक्षण विरोधी तत्व 10 साल तक खामोश रहे। जैसे ही सत्ता में गैर ब्राह्मण वर्ग का दबदबा हुआ और 1989 में बिहार में लालू प्रसाद, उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव और देश के प्रधानमंत्री वीपी सिंह बने, आरक्षण विरोधी आंदोलन फिर शुरू हो गया। आरक्षण विरोधी तत्व वीपी सिंह के सत्ता संभालने के बाद 5 दिन तक भी खामोश नहीं बैठ सके। <br />
यह कौन सा मानदंड है? यह किसी के समझ में आने वाली चीज नहीं है। कोई चीज यदि किसी की नजर में गलत है तो उसकी नजर में जब तक कोई परिवर्तन नहीं होता, गलत ही रहेगी। आरक्षण व्यवस्था ब्राह्मणवादी शाशन व्यवस्था के अंतर्गत उचित करार दिया जाए और गैर ब्राह्मणवादी शासन में अनुचित करार दिया जाए, यह जातीय दुर्भावना नहीं तो और क्या है।<br />
राजीव गांधी और उसके पहले के शासनकाल में जो आरक्षण व्यवस्था अनुसूचित जाति के लोगों के लिए थी, उसमें वीपी सिंह ने कोई बदलाव नहीं किया, सत्ता में आने पर उसमें कोई बढ़ोतरी नहीं की। इसके बावजूद वीपी सिंह को 5 दिन भी कुर्सी पर चैन न लेने देने का क्या कारण है? यदि कुर्सी पर बैठते ही तत्काल कोई परिवर्तन किया गया होता तो आरक्षण विरोधी मुहिम चलाने का कोई औचित्य होता। मंडल आयोग की सिफारिशें भी उस समय लागू नहीं की गई थीं। फिर भी आरक्षण विरोधी आंदोलन चला दिया गया। <br />
कुलीनतंत्र के पोषकों ने जनता दल की सरकारों व वीपी सिंह के समक्ष ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी, जिसका समाधान ढूंढना कठिन हो गया। वास्तव में तथाकथित कुलीन तंत्र जो तिकड़म करके अपने को अनुसूचित जाति का ठेकेदार समझता था, उसने एक सुनियोजित षड़यंत्र के द्वारा एक खतरनाक जाल फेंकने का काम किया। देश के अंदर इस आंदोलन को चलाकर राष्ट्र की संपत्ति बर्बाद की गई। बस व ट्रेनें फूंकी गईं। देश के अंदर हिंसक वारदातें हुईं। इन घटनाओं में जाने अनजाने में पिछड़े वर्ग ने भी शिरकत की। कुल मिलाकर कुलीन तंत्र ने वीपी सिंह के सामने ऐसी स्थिति खड़ी कर दी कि वे घबराकर अनुसूचित जाति का आरक्षण खत्म कर दें और अनुसूचित जाति के लोग उनकी गोद में बैठ जाएं या वीपी सिंह सत्ता से हट जाएं। ऐसी स्थिति में वीपी सिंह और उनके केंद्रीय मंत्रिमंडल ने दूरदर्शिता का परिचय देतेहुए अपने चुनावी घोषणापत्र के मुताबिक 7 अगस्त 1990 को अन्य पिछड़े वर्ग के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने की घोषणा की। <br />
इससे अलग थलग पड़े अनुसूचित जाति को सुरक्षा की गारंटी मिली और पिछड़े वर्ग के गरीब लोगों को सामाजिक न्याय मिलने का अवसर प्राप्त हुआ। परिणाम यहहुआ कि इन कुलीन तंत्र के साथ में पिछड़े वर्ग के जो लोग आरक्षण विरोधी मुहिम में शामिल थे और भ्रमित थे, उनका नजरिया साफ हो गया और आरक्षण विरोधी आंदोलन फीका पड़ गया। <br />
आरक्षण विरोधी आंदोलन की आड़ में ऐसे भी उदाहरण आए हैं कि नौनिहाल बच्चे बच्चियों को जिंदा जलाकर आत्मदाह का ढोंग रचाने का जघन्य अपराध किया गया। इससे निकृष्ट तत्व समाज को और कहां मिल सकते हैं?<br />
कुलीन तंत्र के पोषकों ने वीपी सिंह और उनकी सरकार को लंगड़ी मारकर गिराने की कोशिश की, लेकिन वीपी सिंह ने इसके जबावमें ऐसा धोबियापाट मारा कि यह लोग चारों खाने चित्त हो गए। धोबियापाट से घायल कुलीन तंत्र केलोग बौखला गए और वीपी सिंह व जनता दल के नेताओं, कार्यकर्ताओं पर कातिलाना हमले शुरू हो गए। बम फेके गए। काफिले पर ईंट पत्थर बरसाए गए। अगर यह कुलीन तंत्र ठाकुर जाति को बर्दाश्त नहींकर सका तो और किसी दूसरी जाति को कहां ठिकाना मिलेगा?<br />
कुलीन तंत्र अपनी तिकड़म से हजारों साल से राज करते रहे हैं। देश में नगण्य संख्या में रहते हुए भी सत्ता को नहीं छोड़ना चाहते और लोकतंत्र का हनन कर रहे हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनी हुई सरकारों पर इन्हें आस्था नहीं है। इस मुद्दे पर हारने के बाद इस चालाक कुलीनतंत्र ने गुपचुप तरीके से अलग योजना बनाई।<br />
जारी.....<br />
<br />
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
</div>Satyendra PShttp://www.blogger.com/profile/06700215658741890531noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3124261744486772692.post-1509022394907458312017-12-25T12:10:00.000-08:002017-12-25T12:10:26.914-08:00सहकर्मियों के संरक्षक और यारों के यार थे शेखर<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
</div><b>स्मृतिशेष</b><br />
<br />
<b><i>सत्येन्द्र पीएस</i></b><br />
<br />
<br />
प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और वेब मीडिया के धुरंधर खिलाड़ी शशांक शेखर त्रिपाठी नहीं रहे। यह बार बार कहने, सुनने, फोटो देखने पर भी अहसास कर पाना मुश्किल होता है। करीब दस दिन पहले लखनऊ के पत्रकार साथी कुमार सौवीर ने अपनी फेसबुक वाल पर लिखा कि शेखर कौशांबी के यशोदा अस्पताल में भर्ती हैं। यूं तो यशोदा हॉस्पिटल का नाम सुनकर हल्की सिहरन होती है कि जब कोई गंभीर मामला होता है, तभी इस पांच सितारा मल्टी स्पेशलिटी हॉस्पिटल में जाता है, लेकिन शेखर का मकान कौशांबी में ही है। ऐसे में बात आई-गई हो गई। फिर 5 दिन बाद शेखर के एक साथी प्रभु राजदान ने शाम को घबराई हालत में फोन किया और कहा कि आपको पता है कि शेखर त्रिपाठी हॉस्पिटल में एडमिट हैं? <br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgO59WPnErgdDBKMZdm3hIoRB8aqaXNhCNTcQmzII-cstQ7mGNGCWpiWpwrJ9wMf1j1y2LL-cy0VNHMVAMjwWM0_k1DGRis6ByWWt_AUSqqRR_oiUjccFcwMf8eBbCJDsx2-obj5TDbyio/s1600/IMG_20171225_123858025.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgO59WPnErgdDBKMZdm3hIoRB8aqaXNhCNTcQmzII-cstQ7mGNGCWpiWpwrJ9wMf1j1y2LL-cy0VNHMVAMjwWM0_k1DGRis6ByWWt_AUSqqRR_oiUjccFcwMf8eBbCJDsx2-obj5TDbyio/s320/IMG_20171225_123858025.jpg" width="320" height="180" data-original-width="1600" data-original-height="900" /></a></div>(निगमबोध घाट पर शशांक शेखर त्रिपाठी का शव ले जाते उनके मित्र व परिजन)<br />
<br />
फिर मैं गंभीर हुआ। प्रभु ने बताया कि इंटेंसिव केयर यूनिट (आईसीयू) में वेंटिलेटर पर हैं। बोल पाने में सक्षम नहीं हैं। उस समय ऑफिस से अस्पताल तो न जा सका, लेकिन दूसरे रोज करीब साढ़े 10 बजे पहुंचा। रिसेप्शन पर पता चला कि आईसीयू में मिलने का वक्त सुबह साढ़े 9 से 10 बजे के बीच होता है। मैंने प्रभु को फिर फोन मिलाया और उन्होंने शेखर के बड़े बेटे शिवम का मोबाइल नंबर दिया। फोन पर बात हुई तो रिसेप्शन पर ही मुलाकात हो गई। शिवम ने बताया कि हॉस्पिटल में मिलने का वक्त निर्धारित है और उसके अलावा मिलने नहीं देते हैं। सिर्फ मुझे जाने देते हैं। <br />
बातचीत में ही पता चला कि करीब 10 रोज पहले पेट में हल्का दर्द शुरू हुआ था। 3-4 रोज दर्द चला। उसके बाद शेखर बताने लगे कि कॉन्सटीपेशन हो गया है। टॉयलेट साफ नहीं हो रही है। करीब 2 रोज यह प्रक्रिया चली। फिर अचानक एक रोज बाथरूम में बेहोश हो गए और उन्हें यशोदा हॉस्पिटल लाया गया। <br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh5l9VEPOyTSgrBETOOZJNCq-2dia2KSs5Qx6DnrXcxq0lI0MmOutqPdMgKbdFU5eS2_gAUDqEPDPcVpnwAGVD1kX7HCjwMb6G5JAaAGzpQ67DpW8o5mfEy0JPpjPcpfE7oMIQgJNp0-UA/s1600/IMG_20171225_124237530.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh5l9VEPOyTSgrBETOOZJNCq-2dia2KSs5Qx6DnrXcxq0lI0MmOutqPdMgKbdFU5eS2_gAUDqEPDPcVpnwAGVD1kX7HCjwMb6G5JAaAGzpQ67DpW8o5mfEy0JPpjPcpfE7oMIQgJNp0-UA/s320/IMG_20171225_124237530.jpg" width="320" height="180" data-original-width="1600" data-original-height="900" /></a></div>(अंतिम संस्कार की कवायद)<br />
<br />
पेट की ढेर सारी जांच हुई। डॉक्टरों ने बताया कि इंटेस्टाइन यानी आंत में क्लॉटिंग है। उस समय शेखर का शुगर लेवल भी ज्यादा था। लेकिन डॉक्टरों ने ऑपरेशन करने का फैसला किया। ऑपरेशन थियेटर में जाते जाते शेखर मुस्कराते हुए गए। वरिष्ठ पत्रकार और चंडीगढ़ से प्रकाशित हिंदी ट्रिब्यून के संपादक डॉ उपेंद्र बताते हैं कि कहकर गए थे कि 10 मिनट का ऑपरेशन होता है, सब ठीक हो जाएगा। सबको आश्वस्त करके ऑपरेशन थिएटर में गए थे। <br />
डॉक्टरों के मुताबिक क्लॉटिंग की वजह से गैंगरीन हो गया था। आंत पूरी काली पड़ गई थी। इन्फेक्शन वाला पूरा हिस्सा चिकित्सकों ने निकाल दिया। लेकिन उसके बाद शुगर का स्तर बढ़ने, पेशाब होने, सांस में तकलीफ के कारण उन्हें आईसीयू में रखा गया। चिकित्सकों का कहना है कि इन्फेक्शन होने की वजह से शुगर कंट्रोल नहीं हो रहा था और दवा का डोज बढ़ाकर किसी तरह शुगर कंट्रोल किया जा रहा था और इन्फेक्शन खत्म करने की कवायद की जा रही थी। इस तरह से यह कवायद एक सप्ताह चली और आखिरकार 24 दिसंबर 2017 को दोपहर करीब 2 बजे यशोदा अस्पताल के चिकित्सकों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया। <br />
एक रोज पहले देखने गया तो हॉस्पिटल की व्यवस्था ने मुझे आईसीयू में देखने जाने नहीं दिया। शेखर के परिजन हर संभव कवायद कर रहे थे कि वह उठ खड़े हों। उनकी पत्नी रिसेप्शन पर लगी साईं बाबा की मूर्ति के सामने कोई किताब लेकर पाठ कर रही थीं। दोनों बच्चे शनि देवता समेत कई देवताओं के यहां माथा नवा रहे थे। मेरे सामने ही दूध लाया गया, जिसे शेखर के हाथ से छुआकर किसी देवता को चढ़ाया गया। <br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj-4JlunHJAuv1zb_o7I4bETlmUaGSZPgB9owrf_NBdtpnwn-EiNwHzZI7O5LCNAC3aHAiVR1OBppR2VEnYmLus971Hz3fK3VuryeqPudju8OmrQubGLFLiRH3gj8B5h4jypmi03-3qs5A/s1600/IMG_20171225_134323759.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj-4JlunHJAuv1zb_o7I4bETlmUaGSZPgB9owrf_NBdtpnwn-EiNwHzZI7O5LCNAC3aHAiVR1OBppR2VEnYmLus971Hz3fK3VuryeqPudju8OmrQubGLFLiRH3gj8B5h4jypmi03-3qs5A/s320/IMG_20171225_134323759.jpg" width="320" height="180" data-original-width="1600" data-original-height="900" /></a></div>(अंतिम संस्कार के बाद शेखर के पुराने साथी, सहकर्मी प्रभु राजदान, डॉ उपेंद्र व अन्य)<br />
<br />
उनके बड़े बेटे से देर तक बात होती रही। अपने बारे में बताया कि किस तरह से चिकित्सक धमकाते हैं। यह भी कहा कि करीब 5 बार मुझसे और मेरे परिजनों से इलाज के दौरान लिखवाया गया कि आप मर ही जाएंगे और मैं मुस्कुराते हुए लिखता था और मन में यही सोचता था कि किसी भी हाल में मरेंगे तो नहीं ही। आते आते उनके बेटे से मैंने यही कहा कि कुछ नहीं होगा। बहुत आईसीयू देखा है। डॉक्टर सब पागल होते हैं। शेखर जी जल्द ही आईसीयू से बाहर होंगे। मेरी बात सुनकर शिवम मुस्कराया तो राहत महसूस हुई। <br />
दूसरे रोज साढ़े नौ बजे अस्पताल पहुंच गया। शेखर जी का छोटा बेटा आईसीयू में उनके बगल में खड़ा था। एक तरफ मैं खड़ा हो गया। स्तब्ध सा खड़ा था। आईसीयू तो ठीक, लेकिन शेखर बोल-बतिया और पहचान नहीं रहे हैं, यह देखकर बड़ी निराशा हुई। लोगों ने बताया कि ऑपरेशन के बाद से ही यही हालात है। मैं इतना दुखी और निराश था कि वहां रुक नहीं पाया। दोपहर होते होते फेसबुक के माध्यम से ही पहली सूचना मिली कि शेखर का निधन हो गया।<br />
ऐसे भी कोई जाता है भला... हममें से तमाम लोग हैं जिनके पेट में दर्द होता रहता है। अक्सर लोग पेट दर्द की एकाध गोली खा लेते हैं। लेकिन डॉक्टर को शायद की कोई दिखाता है। शेखर चेन स्मोकिंग करते थे। शुगर की प्रॉब्लम थी। लेकिन पेट में पहले से कोई प्रॉब्लम नहीं था। आखिर कैसे कोई यह अहसास कर ले कि बीमारी इस दिशा में ले जाएगी। सब कुछ अचानक हुआ। <br />
शेखर से मेरा पहला सामना वाराणसी में 2004-05 के आसपास हुआ। वह उन दिनों हिंदुस्तान अखबार के स्थानीय संपादक थे। काशी हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के सुरक्षाकर्मी और प्रॉक्टोरियल बोर्ड पत्रकारों व फोटोग्राफरों से मारपीट में कुख्यात थे। उस समय में ईटीवी उत्तर प्रदेश के लिए खबरें भेजता था। बीएचयू में करीब रोजाना ही आना जाना होता था। ऐसे में सुरक्षाकर्मियों को भी झेलना पड़ता था। एक रोज हिंदुस्तान अखबार के एक फोटोग्राफर और कुछ रिपोर्टरों के साथ बीएचयू के सुरक्षाकर्मियों से हाथापाई हो गई। सभी पत्रकार व फोटोग्राफर आंदोलित थे। यह देखकर आश्चर्य हुआ कि हिंदुस्तान अखबार के स्थानीय संपादक शेखर त्रिपाठी पत्रकारों को लीड कर रहे हैं। न सिर्फ वह लीड कर रहे थे बल्कि नारेबाजी में भी शामिल हो रहे थे। बढ़ता हंगामा देखकर कुलपति ने शेखर को बातचीत के लिए आमंत्रित किया। लेकिन वह नहीं गए। बहुत देर तक पत्रकार कुलपति के आवास को घेरे रहे। आखिरकार बीच बचाव में यह सहमति बनी कि हर अखबार के प्रतिनिधि कुलपति से एक साथ मिलेंगे। उसके बाद कुलपति से वार्ता हुई। कुलपति ने घटना के लिए व्यक्तिगत रूप से खेद जताया और आश्वासन दिया कि आइंदा इस तरह की घटना न हो, इसका पूरा ध्यान रखा जाएगा। तब जाकर शेखर कुलपति आवास से हटे थे। <br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiGVQUh-oGrMPN-TRPDdANY_pXJdz1DJzPY3Q90V8NoSZGUkR26hC6kPPWg5s3R1AFAGlQPahJxbObFrN9p0PKChFe8TUqA5es4O8RKQPGX5XVdK-ypnxSZgIcoIglPiXcrBvUYvgrqoNM/s1600/IMG_20171225_124215507.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiGVQUh-oGrMPN-TRPDdANY_pXJdz1DJzPY3Q90V8NoSZGUkR26hC6kPPWg5s3R1AFAGlQPahJxbObFrN9p0PKChFe8TUqA5es4O8RKQPGX5XVdK-ypnxSZgIcoIglPiXcrBvUYvgrqoNM/s320/IMG_20171225_124215507.jpg" width="320" height="180" data-original-width="1600" data-original-height="900" /></a></div>(मुखाग्नि देने के पूर्व की धार्मिक कवायद में शेखर त्रिपाठी के दोनों पुत्र, रिश्तेदार)<br />
<br />
हिंदुस्तान टाइम्स के प्रभारी प्रभु राजदान से मेरी अच्छी मित्रता थी। मित्रता क्या, बनारस में हम लोग एक ही कमरे में रहते थे। उन्हीं के सामने शेखर त्रिपाठी भी बैठते थे और मेरा करीब करीब रोजाना ही हिंदुस्तान कार्यालय जाना होता था क्योंकि काम पूरा करने के बाद मैं और प्रभु एक साथ ही कमरे पर जाते थे। धीरे धीरे करके शेखर त्रिपाठी से भी बातचीत होने लगी और ठीक ठाक संबंध बन गए। <br />
हालांकि उन संबंधों को घनिष्ट संबंध नहीं कहा जा सकता था, लेकिन शेखर ने जिस तरह हिंदुस्तान बनारस में टीम बनाई और अखबार की दिशा दशा बदली, वह खासा आकर्षक था। उन दिनों शेखर त्रिपाठी की टीम में रिपोर्टिंग कर चुके कुमार सौवीर कहते हैं कि शेखर ने हमें खबरें लिखना सिखाया। वह खुद बहुत कम लिखते, लेकिन खबर किसे कहते हैं, उसकी जबरदस्त समझ थी। उन दिनों काशी की संस्कृति पर चल रही एक सिरीज की याद दिलाते हुए सौवीर बताते हैं कि शेखर ने ऊपर 6 कॉलम में बनारस की खबर लगाई। समूह संपादक मृणाल पांडे की किसी विषय पर दी गई टिप्पणी को महज दो कॉलम स्थान दिया। सौवीर कहते हैं कि यह सोच पाना भी मुश्किल है कि कोई स्थानीय संपादक अपने समूह संपादक के लिखे को दरकिनार कर एक बहुत छोटे से रिपोर्टर की खबर से अखबार भर दे। <br />
शेखर त्रिपाठी ने हिंदुस्तान अखबार में संपादक रहते खेती बाड़ी को खास महत्त्व दिया। इसको इसतरह से समझा जा सकता है कि उन दिनों हिंदुस्तान वाराणसी में मुख्य संवाददाता रहे डॉ. उपेंद्र से खेती-बाड़ी पर रोजाना एक खबर लिखवाई जाती थी। उस मौसम में जो भी फसल बोई जाने वाली रहती, या बोई जा चुकी रहती, उसके रखरखाव से लेकर रोगों, रोगों के रोकथाम के तरीकों पर डॉ उपेंद्र की खबर आती थी। इसके अलावा खेती को किस तरह से कमर्शियल बनाया जाए, किसानों की आमदनी किस तरह से बढ़े, यह शेखर की दिलचस्पी के मुख्य विषय रहते थे। बीएचयू के इंस्टीट्यूट आफ एग्रीकल्चरल साइंस के प्रोफेसरों के अलावा आस पास के जितने भी कृषि शोध संस्थान थे, उनके विशेषज्ञों की राय लेकर डॉ उपेंद्र खबरें लिखा करते थे। <br />
इसके अलावा काशी की बुनकरी पर शेखर त्रिपाठी की जबरदस्त नजर रहती थी। प्रशासन की अकर्मण्यता के खिलाफ खबरें खूब लिखवाई जातीं। जिलाधिकारी से लेकर बुनकरी से जुड़े जितने भी अधिकारी रहते, उनकी जवाबदेही, सरकार द्वारा दिए जा रहे धन के उचित इस्तेमाल होने या न होने पर खबरें लिखी जाती थीं। कालीन का शहर कहे जाने वाले भदोही से शेखर ने खूब खबरें कराईं। खबरें इतनी तीखी होती थीं कि तमाम गुमनाम पत्र और फोन आने लगे और यहां तक कि दिल्ली मुख्यालय तक शिकायत पहुंच गई कि भदोही का रिपोर्टर पैसे लेता है और पैसे न देने पर खिलाफ में झूठी खबरें लिखता है। <br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgq8k73hrAnH0hi6LBD7jRJSHfhe8Whwlh5yLE2AqlMboQoLF-ZolQFzZA_zKXDy-h7s8X2LF_vOc1ZibupTjYE72O1OKVxmPjfjA0LQhXL1k1tRJX97uLZy3cWWF9mAQL9nsC-OLFurqA/s1600/IMG_20171225_130628188.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgq8k73hrAnH0hi6LBD7jRJSHfhe8Whwlh5yLE2AqlMboQoLF-ZolQFzZA_zKXDy-h7s8X2LF_vOc1ZibupTjYE72O1OKVxmPjfjA0LQhXL1k1tRJX97uLZy3cWWF9mAQL9nsC-OLFurqA/s320/IMG_20171225_130628188.jpg" width="320" height="180" data-original-width="1600" data-original-height="900" /></a></div>(अपने साथियों, सहकर्मियों, परिजनों को छोड़ लकड़ियों के ढेर में छिपे शेखर)<br />
<br />
उन दिनों को याद करते हुए भदोही में रिपोर्टर रहे सुरेश गांधी कहते हैं कि मेरी तो नौकरी ही जाने वाली थी। हाथ पांव फूल गए कि इन तमाम झूठे आरोपों का क्या जवाब दे सकता हूं। दिल्ली मुख्यालय से गांधी से मांगे गए स्पष्टीकरण का सुरेश गांधी की जगह शेखर त्रिपाठी ने खुद जवाब भेजा। सुरेश गांधी कहते हैं, “मेरा उनसे तो व्यक्तिगत जुड़ाव था, उन्होंने ही मुझे भदोही का न सिर्फ ब्यूरो चीफ बनाया बल्कि मेरी शिकायत किए जाने पर डीएम-एसपी की जमकर बखिया उधेड़ी थी। यहां तक हिन्दुस्तान की समूह संपादक रही मृणाल पांडेय द्वारा जारी मेरी शिकायती पत्र के जवाब में कहा था मैं सुरेश गांधी को व्यक्तिगत जानता हूं, उसके जैसा तो कोई पूर्वांचल मंर नहीं हैं, वह जवाबी लेटर आज भी मैं संभाल कर रखे हूं।“<br />
अपने अधीनस्तों के साथ हर हाल में खड़े रहना शेखर की आदत में शामिल था। हिंदुस्तान वाराणसी के बाद उन्होंने दैनिक जागरण लखनऊ में स्थानीय संपादक का कार्यभार संभाला। दैनिक जागरण में भी पत्रकारों के लिए किसी से भी लड़ जाने के किस्से बहुत विख्यात हैं। जागरण लखनऊ में उनके साथ काम कर चुके नरेंद्र मिश्रा बताते हैं कि लखनऊ में एक बार आईबीएन के ब्यूरो चीफ रहे शलभ मणि त्रिपाठी से पुलिस के सर्किल अधिकारी से हाथापाईं हो गई। पत्रकारों ने प्रशासन के खिलाफ रात में ही प्रदर्शन शुरू कर दिया। रात में वरमूडा और टीशर्ट पहने शेखर त्रिपाठी खुद पहुंच गए पत्रकारों के विरोध प्रदर्शन में। उसके बाद तो जागरण की पूरी टीम ही पहुंच गई। यह जानकर कि जागरण के स्थानीय संपादक खुद प्रदर्शन में आए हैं, प्रशासनिक अधिकारियों के हाथ पांव फूल गए। तत्कालीन एसएसपी ने शेखर से कहा कि आपको यहां नहीं आना चाहिए था, आप घर जाएं। अधिकारी के कहने का आशय जो भी रहा हो, लेकिन शेखर ने उन्हें बहुत तेज डांटा और कहा कि अगर हम अपने रिपोर्टर्स के लिए नहीं खड़े होंगे तो कौन खड़ा होगा, कौन सुनेगा उनकी। उस दिन कोयाद कतते हुए नरेंद्र मिश्र कहते हैं कि उसके बाद तो हम पत्रकारों का सीना चौड़ा हो गया और इतना तीखा विरोध प्रदर्शन हुआ कि प्रशासन को झुकना पड़ा सीओ का तत्काल ट्रांसफर किया गया, इलाके के एसओ को लाइन हाजिर किया गया। नरेंद्र मिश्र बताते हैं कि उन दिनों मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री थीं और किसी के लिए यह कल्पना करना भी कठिन था कि पत्रकारों के विरोध प्रदर्शन से किसी अधिकारी का बाल बांका हो सकता है, लेकिन शेखर त्रिपाठी ने जो ताकत दी, उससे हम लोग कार्रवाई करा पाने में सफल हो पाए। <br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjU48U5vqLvh2ykKFTKT-1RWSrXZNikbqgePjh6cBrj6KD4gYscgApDo1PbLjRMINz9l5Di6WS7kbGOGFTq5IAF8yvrauMI21_bvOvyIj0jaLaIJ0cYwraQdBgKPespxDJzvzHpmYOtGB8/s1600/IMG_20171225_130904126.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjU48U5vqLvh2ykKFTKT-1RWSrXZNikbqgePjh6cBrj6KD4gYscgApDo1PbLjRMINz9l5Di6WS7kbGOGFTq5IAF8yvrauMI21_bvOvyIj0jaLaIJ0cYwraQdBgKPespxDJzvzHpmYOtGB8/s320/IMG_20171225_130904126.jpg" width="320" height="180" data-original-width="1600" data-original-height="900" /></a></div>(अंतिम गंतव्य स्थल, जहां परिजन छोड़ आते हैं)<br />
<br />
उसके बाद शेखर त्रिपाठी दिल्ली में दैनिक जागरण की डिजिटल टीम के प्रभारी हो गए। मैं पहले से ही दिल्ली में था। जागरण आना जाना अक्सर होता था। या यूं कहें कि शेखर त्रिपाठी और डॉ उपेंद्र से मिलने ही जागरण जाना होता था। जब भी मिलते तो वह आर्थिक खबरों के बारे में ही बात करते। शेयर बाजार, कंपनियों, देश की अर्थव्यवस्था आदि आदि। मैं भी जहां तक संभव हो पाता, उन्हें बताने की कोशिश करता था। फिर बाहर निकल जाते, सिगरेट और चाय पीने। जागरण दफ्तर के आगे एक पकौड़े की दुकान हुआ करती थी, जहां वह भूख लगी होने अक्सर पकौड़े खिलाया करते थे। सिगरेट और चाय तो होती ही थी। हालांकि हाल के दो-तीन साल से लगातार मेरा स्वास्थ्य खराब होने और डॉ उपेंद्र के चंडीगढ़ चले जाने पर जागरण आना जाना करीब छूट गया था, लेकिन फिर भी सूचनाएं मिलती रहती थीं। <br />
हाल में शेखर त्रिपाठी जागरण की वेबसाइट पर एक खबर लिखे जाने को लेकर चर्चा में आए। ट्रिब्यून हिंदी के संपादक और शेखर के करीबी रहे डॉ उपेंद्र कहते हैं, “शेखर त्रिपाठी, दैनिक जागरण के इंटरनेट एडीटर थे, और दैनिक जागरण लखनऊ के संपादक, दैनिक हिंदुस्तान वाराणसी के संपादक, आज तक एडीटोरियल टीम के सदस्य रहे। फाइटर इतने जबरदस्त कि कभी हार नहीं मानी। कभी गलत बातों से समझौता नहीं किया। किंतु जागरण डॉट कॉम के संपादक रूप में दायित्व निभाते संस्थान हित में वह दोष अपने ऊपर ले लिया जिसके लिए वे जिम्मेदार ही नहीं थे। चुनाव सर्वेक्षण प्रकाशन के केस में एक रात की गिरफ्तारी और फिर हाईकोर्ट में पेंडिंग केस के कारण बीते छह महीने से संपादकीय कारोबार से दूर रहने की लाचारी ने उन्हें तोड़ दिया।”<br />
यह शेखर की आदत ही थी कि वह कभी अपने अधीनस्थ को नहीं फंसने देते थे। स्थानीय अधिकारियों, नेताओं, माफिया, अपने संस्थान के वरिष्ठों से अपने जूनियर सहयोगियों के लिए भिड़ जाते थे। जागरण वेबसाइट में सर्वे आने का मामला भी निश्चित रूप से उनसे सीधे तौर पर नहीं जुड़ा था। विभिन्न माध्यमों से खबरें आती हैं और वह लगती जाती हैं। लेकिन टीम का प्रभारी होने के नाते उन्होंने मरते दम तक जवाबदेही अपने ऊपर ली। <br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjq21xhyphenhyphenUooa6VleAp0Y8M18LP0NEvFQlTd1mTDrrVcjTpV4e-MdF_hNbsKqcBNVInnFHp4j28tXeWK78dnN5DAsXBeVtuBqiEQzuBL_OP7pV896BtVCHVpnyLUSAuxWB7YJL5zNtxGGgo/s1600/IMG_20171225_131207619.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjq21xhyphenhyphenUooa6VleAp0Y8M18LP0NEvFQlTd1mTDrrVcjTpV4e-MdF_hNbsKqcBNVInnFHp4j28tXeWK78dnN5DAsXBeVtuBqiEQzuBL_OP7pV896BtVCHVpnyLUSAuxWB7YJL5zNtxGGgo/s320/IMG_20171225_131207619.jpg" width="320" height="180" data-original-width="1024" data-original-height="576" /></a></div>(और यूं सबको छोड़कर अग्नि में समाकर अनंत में विलीन हो गए शेखर)<br />
<br />
पत्रकारिता जगत में इस शेखर जैसे जिंदादिल इंसान कम ही देखने को मिलते हैं। बेलौस, बेखौफ गाड़ी लेकर रातभर घूमना, पहाड़ों की सैर करना, बाइकिंग उनकी आदत में शुमार था। उनके ठहाकों, मुस्कुराते चेहरे के तो जूनियर से लेकर सीनियर तक सभी सहकर्मी कायल थे। वरिष्ठ पत्रकार अकु श्रीवास्तकव लिखते हैं, “जिंदगी ऐसी है पहेली… कभी तो रुलाए.. कभी तो हंसाए.. शेखर ने रोना तो सीखा ही नहीं था। मस्ती उनकी जिंदगी का हिस्सा रही। जिम्मेदारी उन्होंने हंस हंस कर ली और जो दूसरों की मदद कर सकते थे, की। 35 साल से ज्यादा जानता रहा, गायब भी रहे... पर सुध लेते रहे। उनके प्रशंसकों की लंबी फेहरिस्त है। लार्जर देन लाइफ जीने वाले 6 फुटे दोस्त को प्रणाम।”<br />
अपने सहकर्मियों की दाल रोटी की चिंता से लेकर पत्रकारीय दायित्व तक पर नजर रखने वाले और जहां तक बन पड़े, लीक से हटकर मदद करने वाले पत्रकार बिड़ले ही मिलते हैं। <br />
आप बहुत याद आएंगे शेखर।<br />
<br />
Satyendra PShttp://www.blogger.com/profile/06700215658741890531noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3124261744486772692.post-4430924558140034822017-12-17T11:10:00.001-08:002017-12-17T11:10:52.272-08:00गुरु गोरक्षनाथ के नाम पर मेरिट की हत्या, नियमों को ताक पर रखकर प्रो. सुग्रीवनाथ तिवारी ने की अपनी बेटी को पुरस्कार देने की सिफारिशसत्येन्द्र पीएस<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjI5yk995rvqGJNvqEis-53CgIakHiIOrZ12UpXlFN3kAYRqvfPHCmiA0vhRbv3CPu-8L-IwLVMtpCxDmQoNwRYmZnNzoVGN1unAcdr2Rq-NMf7CF7rYyRCtjMcnSVuFh4SoO0uOAr4Sbk/s1600/DDU+G.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjI5yk995rvqGJNvqEis-53CgIakHiIOrZ12UpXlFN3kAYRqvfPHCmiA0vhRbv3CPu-8L-IwLVMtpCxDmQoNwRYmZnNzoVGN1unAcdr2Rq-NMf7CF7rYyRCtjMcnSVuFh4SoO0uOAr4Sbk/s320/DDU+G.jpg" width="320" height="165" data-original-width="835" data-original-height="430" /></a></div><br />
उत्तर प्रदेश के गोरखपुर विश्वविद्यालय में मेरिट की हत्या का अद्भुत कारनामा सामने आया है। अपनी बेटी को पुरस्कार दिलाने के लिए विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर ने सभी नियमों को ताक पर रख दिया। मेधावी छात्र मुंह ताकते रह गए। प्रोफेसर के इस कांड का खुलकर विरोध हो रहा है, वहीं इस मसले का खुलासा करने वाले विश्वविद्यालय के एक और प्रोफेसर को धमकियां मिलने लगी हैं। <br />
राज्य में योगी आदित्यनाथ के सत्ता संभालने के बाद एक खास तबके के हौसले बुलंद हैं। यह मेडल नाथ संप्रदाय के प्रसिद्ध योगी के नाम पर “महायोगी गुरु गोरखनाथ गोल्ड मेडल” शुरू किया गया। मेडल शुरू किया जाना निश्चित रूप से सरकार का एक बेहतरीन फैसला था, जिसके माध्यम से विशिष्ट शोध के लिए दिया जाना था। <br />
<br />
गोरखपुर विश्वविद्यालय के दीक्षांत समारोह में 103 छात्र छात्राओं को डिग्रियां दी जानी हैं। इसके बावजूद विशिष्ट मेडल के लिए सिर्फ दो नाम भेजे गए। इसमें एक नाम भौतिक विज्ञान की शोध छात्रा गार्गी तिवारी का था और दूसरा बॉटनी के शोध छात्र का। बॉटनी के शोध छात्र को इस सूची से यह कहकर बाहर कर दिया गया क्योंकि उसे 2016 में डिग्री अवार्ड की जा चुकी है, इसलिए उसे 2017 का विशिष्ट मेल नहीं दिया जा सकता है। आखिर में इस पुरस्कार की एकमात्र दावेदार गार्गी बचीं, जिन्हें इस पुरस्कार के योग्य मान लिया गया।<br />
<br />
अब खेल देखिए। शोधार्थी का नाम विभागीय समिति भेजती है, लेकिन इस मामले में ऐसा नहीं किया गया। अमर उजाला की एक खबर के मुताबिक जिन शोध पत्रों का इंपैक्ट फैक्टर 3.6 और 3.4 है, उन्हें आवेदन फॉर्म जमा करने की सूचना नहीं दी गई। वहीं जिस स्कॉलर को विशिष्ट मेडल दिए जाने की घोषणा की गई है, उसके शोधपत्र का इंपैक्ट फैक्टर 0.3 है। गार्गी की एक बड़ी योग्यता उनके पिता डॉ सुग्रीव नाथ तिवारी हैं, जो भौतिकी के विभागाध्यक्ष हैं।<br />
<br />
इस मामले को विश्वविद्यालय शिक्षक संघ के महामंत्री डॉ. उमेश यादव ने उठाया। उन्होंने कुलपति प्रो. वीके सिंह को पत्र लिखकर कहा कि मेडल सुग्रीव नाथ तिवारी की बेटी गार्गी तिवारी को दिया जा रहा है, जबकि उनसे बेहतर संजय यादव, रवि प्रकाश और दीपेंद्र शर्मा का शोध कार्य है। <br />
<br />
भौतिक विभाग के शोध छात्र संजय यादव ने भी पूरी प्रक्रिया पर सवाल उठाते हुए डीन आफ साइंस फैकल्टी प्रो. एसके सेनगुप्ता को पत्र लिखकर मेडल के लिए आवेदन जमा करने की अनुमति मांगी है। <br />
<br />
जातीय आधार पर द्रोणाचार्यों की अपने शिष्यों का अंगूठा काट लेने की शिकायतें पूरे देश से समय समय पर आती रहती हैं। लेकिन घटती नौकरियों के बीच नव उत्पन्न इन द्रोणाचार्यों ने जाति के भीतर भी अपना गिरोह बना लिया है। विश्वविद्यालय से जुड़े कुछ सूत्रों का कहना है कि सुग्रीवनाथ तिवारी की बेटी गार्गी निहायत औसत विद्यार्थी है और इसके पहले भी बीएससी और एमएससी की परीक्षाओं में भी उसे धांधली करके ज्यादा नंबर देकर टॉप कराया गया। विश्वविद्यालय में गार्गी के सहपाठियों ने उसे ऐज युजुअल मानकर स्वीकार कर लिया और उनका विरोध क्लासरूम और अपने सहपाठियों के बीच घुटकर रह गया।<br />
<br />
गोरखनाथ मेडल देने के नाम की घोषणा होने पर भी विद्यार्थियों के बीच सिर्फ सुगबुगाहट ही थी कि किस आधार पर, कैसे और किस आवेदन पर गार्गी का चय़न कर लिया गया। तमाम छात्र छात्राओं को पुरस्कार के लिए गार्गी के नाम की घोषणा होने के बाद पता चला कि द्रोणाचार्यों ने मिलकर खेल कर दिया है। विद्यार्थी घुट रहे थे। प्रोफेसर सुग्रीव और उनकी फौज विजेता थी। उसी बीच डॉ उमेश यादव ने इस मामले की शिकायत कुलपति से कर दी। <br />
<br />
अब महज 2 दिन बाद यह पुरस्कार दिया जाना है। 19 दिसंबर को दीक्षांत समारोह होना है। इस बेइमानी का शिकार सिर्फ दलित पिछड़े नहीं हुए, बल्कि 103 छात्र छात्राएं हुए हैं। सभी अवाक हैं कि आखिर चयन का आधार क्या है। <br />
<br />
इस बीच यह मामला उठाने वाले डॉ उमेश यादव को कठिन परिस्थितियों का सामना करना पड़ रहा है। विश्वविद्यालय के सूत्रों के मुताबिक सुग्रीवनाथ तिवारी से जुड़े लोग यादव को धमकियां दे रहे हैं। उन्हें नौकरी न कर पाने देने की भी धमकी मिल रही है, जो पहले इस धमकी से शुरू हुई थी कि आपका भी कोई कैंडीडेड होगा तो हमीं लोगों को साथ देना है, सोच लीजिएगा। <br />
<br />
गोरखपुर विश्वविद्यालय में एकलव्य का अंगूठा कटवाने की पुरानी परंपरा ये बेईमान कायम रखे हुए हैं, बस स्वरूप बदल गया है। विश्वविद्यालय में शुरू में इन बेईमानों के खिलाफ प्रखर आवाज डॉ अनिरुद्ध प्रसाद ने उठाया था। 'आरक्षण पर धरातली विचार क्यो नही' नामक पुस्तक में उन्होने कथित मेरिट धारियो की जमकर हवा निकाली है और अपने पुराने संस्मरण भी बताए हैं।<br />
<br />
बहरहाल अभी इस पुरस्कार से वंचित किए जाने वालों में जिनका नाम सामने आ रहा है, उनमें संजय यादव पहले स्थान पर हैं। यादव के शोधपत्र की प्रशंसा न सिर्फ उनके सहपाठी करते रहे हैं, बल्कि उनके गुरुजन भी उनके लिखे को बेहतरीन मानते रहे हैं। दूसरे स्थान पर रवि प्रकाश का नाम है। रवि प्रकाश तिवारी सेंट एंड्यूज पीजी कॉलेज में में शोधार्थी रहे हैं। वह जाने माने भौतिकविद प्रो. एसए खान के विद्यार्थी हैं, जिनके कुशल नेतृत्व में तिवारी शोध पत्र लिखकर चर्चा में आए थे। तीसरे स्थान पर दीपेंद्र शर्मा का नाम है। दीपेंद्र लोहार समुदाय से हैं। इनका शोध भी लगातार चर्चा में रहा है और सहपाठियों से लेकर इनके गुरुजनों तक को आश्चर्य हो रहा है कि आखिर किस आधार पर दीपेंद्र को छांटा गया है। <br />
<br />
कुल मिलाकर देखें तो यह मेरिट को मार डालने का अद्भुत कारनामा है। ब्राह्मणवाद और मनुवाद की गिरोहबंदी किसी को छोड़ने को तैयार नहीं है। यह सब कुछ उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री की नाक के नीचे, उनकी 3 दशक से कर्मभूमि गोरखपुर में हो रहा है। <br />
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
</div>Satyendra PShttp://www.blogger.com/profile/06700215658741890531noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3124261744486772692.post-43262977772446282592017-12-11T20:35:00.000-08:002017-12-11T20:35:07.745-08:00सामाजिक न्याय के पहरुआ केदारनाथ सिंह<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
</div><br />
यादों के झरोखे से<br />
13 दिसंबर को पुण्य तिथि पर विशेष <br />
<br />
<b>सत्येन्द्र पीएस</b><br />
<br />
बात 18 दिसम्बर 1990 की है। मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू किए जाने के बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह (वीपी) की सरकार गिर गई थी। गोरखपुर के तमकुही कोठी मैदान में मांडा के राजा और 1989 के चुनाव के पहले देश के तकदीर विश्वनाथ प्रताप सिंह की सभा होने वाली थी। मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के बाद वीपी सरकार गिर गई। उसके बाद सामाजिक न्याय के मसीहा का पहला और मेगा शो गोरखपुर में हुआ।<br />
<br />
पिपराइच के विधायक केदारनाथ सिंह को सभा का संयोजक बनाया गया, महराजगंज के सांसद हर्षवर्धन सिंह कार्यक्रम करा रहे थे। कुल मिलाकर कार्यक्रम में तत्कालीन विधायक केदारनाथ सिंह, हर्षवर्धन और मार्कंडेय चंद की अहम भूमिका थी।<br />
प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की सरकार थी, जो जनता दल (स) में चले गए थे। इसका गठन चंद्रशेखर ने जनता दल को तोड़कर किया था। चंद्रशेखर करीब 40 सांसदों के साथ कांग्रेस के समर्थन से प्रधानमंत्री थे। <br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhF6TfUXIym75FIfmRJdNDkJmw8Pp50eGhEQtnO2bxlkhzByV3H9TCdIc42yQcwHmLjZzYfZmpsdEUWlESGPusWSW4Tvxo7Kp5P04CA9dx1eV9_bT__uq41XeaZZqi5rztD-zwgVaFrJ7c/s1600/photo1.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhF6TfUXIym75FIfmRJdNDkJmw8Pp50eGhEQtnO2bxlkhzByV3H9TCdIc42yQcwHmLjZzYfZmpsdEUWlESGPusWSW4Tvxo7Kp5P04CA9dx1eV9_bT__uq41XeaZZqi5rztD-zwgVaFrJ7c/s320/photo1.jpg" width="320" height="219" data-original-width="1600" data-original-height="1095" /></a></div><br />
<b>(फोटो कैप्शन-फोटो1- मंच पर भाषण देते डॉ संजय सिंह। दाएं से पहले मुलायम सिंह यादव, दूसरे विश्वनाथ प्रताप सिंह और तीसरे केदारनाथ सिंह।)<i></i></b><br />
<br />
गोरखपुर में सुरक्षा की कड़ी व्यवस्था की गई। इसी बीच 17 दिसंबर को एक अज्ञात सा संगठन सवर्ण लिबरेशन फ्रंट उभरा। उसने चेतावनी दी कि किसी भी हालत में वीपी की सभा नहीं होने दी जाएगी। अन्य पिछड़े वर्ग (ओबीसी) का आरक्षण लागू होने का भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) पिछले दरवाजे से विरोध कर रही थी। यही हाल कांग्रेस का था। आरएसएस और उसके अनुषांगिक संगठन खुलेआम आरक्षण के विरोध में मैदान में कूद पड़े थे।<br />
<br />
सवर्ण लिबरेशन फ्रंट ने सिर्फ धमकी ही नहीं दी, बल्कि सभा के एक दिन पहले केदारनाथ सिंह के आवास परिसर में बम विस्फोट भी कराया। इस मामले में न तो किसी का नाम सामने आया, न गिरफ्तारी हुई। हालांकि पुलिस व्यवस्था और सख्त कर दी गई। केदारनाथ सिंह ने मीडिया में बयान जारी कर ऐलान किया कि सभा हर हाल में और हर कीमत पर होगी। इस तरह की कायराना हरकत करने से अब पिछड़ा वर्ग दबने वाला नहीं है। कुल मिलाकर आरक्षण विरोधियों व आरक्षण समर्थकों के बीच सीधी जंग शुरू हो चुकी थी। निशाने पर थे सैंथवार समाज से आने वाले पिछड़े वर्ग के एकमात्र ताकतवर नेता केदारनाथ सिंह।<br />
<br />
सभा के रोज सवर्ण लिबरेशन फ्रंट ने जनता कर्फ्यू लगा दिया। हंगामे को देखते हुए प्रसाशन ने भी स्कूल कॉलेजों को बंद कराना ही उचित समझा। सुबह सबेरे से आरक्षण विरोधियों व आरक्षण समर्थकों के बीच जंग छिड़ चुकी थी। सवर्ण लिबरेशन फ्रंट ने जगह जगह बम विस्फोट कराए। यहां तक कि जनसभा के स्थल तमकुही कोठी मैदान में भी सभा में आए लोगों को निशाना बनाकर बम फेके गए। प्रशासन के हाथ पांव फूले हुए थे। जनता दल के स्थानीय नेताओं और आरक्षण समर्थकों की एक दिन पहले से ही शिकायत आने लगी थी कि डीजल और पेट्रोल की आपूर्ति रोक दी गई है, जिससे कि ट्रैक्टर ट्रालियों में भरकर लोग तमकुही मैदान में न पहुंच सकें। इसके बावजूद किसी न किसी माध्यम से शहर और आसपास के इलाकों से पचास हजार से ऊपर लोग जनसभा में पहुंच चुके थे। <br />
<br />
उस समय केदारनाथ सिंह के समर्थन में पहुंचने वाले संजय कुमार सिंह बताते हैं कि उनके पिता जी खुद ट्रैक्टर ट्राली में लोगों को भरकर तमकुही मैदान आए थे। डीजल की कमी की बात स्वीकार करते हुए बताते हैं कि उनके ट्रैक्टर में इत्तेफाक से तेल भरा हुआ था, साथ ही दो रोज पहले ही कंटेनर में भी डीजल भरकर लाया गया था क्योंकि गेहूं की सिंचाई का मौसम चल रहा था। संजय बताते हैं कि उनके पिताजी ने पूरा डीजल कई रिश्तेदारों, परिचितों के ट्रैक्टर में डलवाया। यहां तक कि अपने ट्रैक्टर में से भी डीजल निकालकर जीप और ट्रैक्टरों में डालने के लिए दिया, जिससे कि लोग सभा स्थल तक पहुंच सकें और वहां से वापस लौट सकें। लेकिन हंगामा बढ़ते देख प्रशासन ने 12 बजे के बाद गोरखपुर के चारों तरफ शहर में प्रवेश करने वाली सड़कों की नाकेबंदी कर दी और जनता दल के झंडे डंडे से लैस आम लोगों की गाड़ियों, ट्रैक्टरों को बाहरी इलाके में रोका गया और उन्हें वापस भेजा जाने लगा। <br />
<br />
तमकुही कोठी मैदान के बगल में ही केदारनाथ सिंह का सरकारी बंगला था, जिसमें दर्जनों गाड़ियों की पार्किंग थी। संघी ब्रिगेड के जितने छोटे मोटे समूह थे, सभी आरक्षण के विरोध में सक्रिय थे। जिधर से जनता दल नेताओं के वाहन निकलते, पथराव शुरू हो जाते।<br />
केदारनाथ सिंह के पुत्र अजय सिंह ने खुद मोर्चा संभाल रखा था। सभा के संयोजक के रूप में सभी पार्टी कार्यकर्ताओं को उनका निर्देश था कि मांडा नरेश को एक पत्थर नहीं लगना चाहिए, उसके लिए जो भी करना पड़े, वह करें। अपनी जान पर खेलकर उन्हें बचाया जाए। इसी बीच अजय सिंह को सूचना मिली कि कुछ संघी गुंडे बंगले में घुसने की कोशिश कर रहे हैं और हाते में खड़े वाहनों पर पत्थर फेंकने की कवायद में हैं। <br />
<br />
अजय ने अपने ड्राइवर से तत्काल आवास की ओर गाड़ी मोड़ लेने को कहा। जैसे ही वाहन रुका, उन्हें निशाना बनाकर बम फेका गया। किसी तरह से वह बचे, लेकिन एक छर्रा उनके पैर में लग गया था।<br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgw3U3Qq8H3IFyNebX4nen9iIBiEvpvNBn-hVVJJec7zAlbcabZVx4rX-kDPDYdKfYw-SYchEo8FVHxTfqYdHjfCvKpf3LQoTaV01BaJnzDZUTaWtwpl92_N8wDbQq_OmJMN3UYNGWbnZA/s1600/photo2.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgw3U3Qq8H3IFyNebX4nen9iIBiEvpvNBn-hVVJJec7zAlbcabZVx4rX-kDPDYdKfYw-SYchEo8FVHxTfqYdHjfCvKpf3LQoTaV01BaJnzDZUTaWtwpl92_N8wDbQq_OmJMN3UYNGWbnZA/s320/photo2.jpg" width="320" height="211" data-original-width="1600" data-original-height="1055" /></a></div><br />
<i><b>(फोटो कैप्शन- फोटो 2- एक जनसभा के दौरान एंकरिंग करते हरवंश सिंह भल्ला (बाएं), केदारनाथ सिंह (बाएं से दूसरे) विश्वनाथ प्रताप सिंह, मुलायम सिंह यादव और मुफ्ती मोहम्मद सईद (बैठे हुए क्रमशः बाएं से दाएंं)</b></i><br />
<br />
<br />
पुरानी याद दिलाने पर अजय सिंह ने हंसते हुए बताया कि उनका ड्राइवर डर के मारे बेहोश हो गया था। लगा चिल्लाने, साहब हम मर गए, बाल बच्चेदार आदमी हैं, मेरे परिवार का क्या होगा। हालांकि बाद में पता चला कि उसे बम का एक छर्रा भी नहीं लगा था।<br />
अजय सिंह पर बम फेके जाने तक जीप में बैठे युवा धड़ाधड़ उतर चुके थे। यह तो नहीं पता चला कि बम किसने फेंका था, लेकिन सामने पड़ा विश्व हिंदू परिषद का महानगर मंत्री आनंद कुमार गुप्ता। उसे युवाओं ने पीटना शुरू किया और पथराव कर रहे उसके अन्य सहयोगियों को भी दौड़ाया, जो एकाध हॉकी और थप्पड़ खाने के बाद भागने में सफल हो गए। गुप्ता की जमकर पिटाई हो गई। <br />
<br />
उस समय के अखबारों का रुख देखें। स्थानीय अखबार स्वतंत्र चेतना ने “विश्व हिंदू परिषद के मंत्री की असमाजिक तत्वों द्वारा पिटाई” शीर्षक से खबर चलाई। इसमें लिखा गया...<i><br />
<b>“विहिप महानगर मंत्री आनंद कुमार गुप्त आज अपराह्न लगभग ढाई बजे अपने व्यक्तिगत कार्य से पार्क रोड की सड़क से होते हुए जा रहे थे। जनता दल विधायक केदारनाथ सिंह के घर के सामने उनके लड़के और भतीजे जो कि 8-10 लोगों के साथ सड़क के किनारे खड़े थे, उन्होंने आनंद कुमार गुप्त को देखते ही कहा कि यह विश्व हिंदू परिषद का महामंत्री है, बचकर जाने न पाए। और इतना कहते ही सब लोगों ने स्कूटर धर लिया और आनंद कुमार को ईंटों से मारने लगे। जिससे उनका सर फट गया तथा अन्य जगहों पर भी गंभीर चोटें आईं। भारतीय जनता पार्टी सिविल लाइंस के वार्ड मंत्री श्री रविंद्र कुमार मौर्य ने इस घृणित कृत्य की घोर निंदा करते हुएए कहा कि तुरंद ही अपराधियों को गिरफ्तार किया जाए अन्यथा हम आंदोलन के लिए बाध्य होंगे।”<br />
<i></i></b></i><br />
<br />
स्वतंत्र चेतना अखबार ने सर पर पट्टी बांधे गुप्ता की फोटो भी छापी। अखबार ने कथित रूप से पिटाई करने वाले लोगों का नाम दिया, मौर्य के हवाले से अपराधी लिखा। लेकिन अखबार ने विधायक के पुत्र से बात करने की जहमत भी नहीं उठाई कि आखिर वहां पर क्या हुआ। केवल स्वतंत्र चेतना ही नहीं, करीब सभी अखबारों का रुख सवर्ण लिबरेशन फ्रंट को हीरो बताने वाला था। वीपी की सभा की रिपोर्टिंग भी उसी लहजे में की गई। जनसभा को फ्लॉप शो बताया गया।<br />
<br />
वीपी सिंह ने उस रैली में कहा, “भूख एक ऐसी आग है कि जब वह पेट तक सीमित रहती है तो अन्न और जल से शांत हो जाती है और जब वह दिमाग तक पहुंचती है तो क्रांति को जन्म देती है। इस पर गौर करना होगा। गरीबों के मन की बात दब नहीं सकती और अंततः उसके दृढ़ संकल्प की जीत होगी।” सिंह ने कहा, “गरीबों की कोई बिरादरी नहीं होती। दंगों में मारे जाने वाले लोग हिंदू और मुसलमान नहीं, हिंदुस्तान के गरीब लोग हैं। गरीबों के साथ हमेशा अत्याचार होते रहे हैं। इस शोषण अत्याचार को बंद करके समाज के पिछड़े तबके के लोगों को ऊपर उठाना होगा।”<br />
<br />
इस सभा के दौरान चौधरी अजीत सिंह का सर फट गया, शरद यादव को भी चोटें आईं। अजीत सिंह ने कहा कि सामाजिक न्याय की ओर कदम बढ़ाने पर इस तरह की बाधाएं आती रहेंगी और हम इसके लिए पूरी तरह से तैयार हैं। बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद ने भी सामाजिक न्याय के प्रति निष्ठा जताते हुए घोषणा की कि बिहार सरकार हर हाल में ओबीसी आरक्षण लागू करेगी। लालू प्रसाद और पूर्व गृह मंत्री मुफ्ती मोहम्मद सईद के भाषण के दौरान सभा स्थल पर बम फेके गए, जिसमें दर्जनों लोग घायल हो गए। <br />
इस बीच सभा स्थल पर मंच पर चढ़ने की कवायद कर रहे लिबरेशन फ्रंट के गुंडों को पीटने के लिए विधायकों तक को सामने आना पड़ा। यह आश्यर्यजनक, लेकिन सत्य है कि मीडिया में खबरें भरी पड़ी हैं कि पुलिस ने आरक्षण के विरोध में प्रदर्शन, पथराव, बमबाजी कर रहे छात्रों की पिटाई की, लेकिन यह भी खबर है कि पूर्व प्रधानमंत्री, दर्जनों पूर्व कैबिनेट मंत्री, बिहार तत्कालीन मुख्यमंत्री के मंच पर गुंडे चढ़ गए और वह बम और पत्थर मारते रहे। पुलिस उन्हें रोकने में नाकाम रही। <br />
<br />
जब मंच पर गुंडे चढ़ गए तो विधायक केदारनाथ सिंह ने मोर्चा संभाला और गुंडों को पीटना शुरू कर दिया। उसके बाद मार्कंडेय चंद ने भी मंच पर चढ़े गुंडों की पिटाई करनी शुरू की और मंच से उन्हें खदेड़ दिया गया। फिर क्या था! जनसभा में आए लोगों ने भी मोर्चा संभाल लिया। जिन लाठियों में झंडे बांधकर लाए गए थे वे लाठियां, बांस निकल गए और पिछड़े वर्ग के लोगों ने मोर्चा संभालकर गुंडों को रोका। पत्थरबाजों को दौड़ा दौड़ाकर मारा। शरद यादव ने जनसभा में ही कहा कि आज की घटनाओं के पीछे भाजपा, राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ तथा विश्व हिंदू परिषद का हाथ है।<br />
<br />
उस दौर में पहले नंबर पर रहे आज अखबार की रिपोर्टिंग का भी रुख जानना जरूरी है, जिसे कांग्रेसी अखबार माना जाता रहा है। अखबार ने “वीपी सिंह के राजनीतिक उत्थान के बाद पतन का भी साक्षी बना गोरखपुर” शीर्षक से खबर लिखी, जो कुछ इस तरह थी..<br />
<b><br />
“पूर्व प्रधानमंत्री विश्वनाथ प्रताप सिंह के राजनीतिक उत्थान का जहां गोरखपुर साक्षी रहा, वहीं उसने आज उनका पतन भी देख लिया। वोट की राजनीति के चलते सैकड़ों निर्दोष छात्र छात्राओं को अग्निस्नान तथा आत्महत्या के लिए मानसिक रूप से बाध्य करने के जिम्मेदार वीपी सिंह ने जब 15 माह पहले गोरक्षनाथ की धरती पर कदम रखा था तो यहां की जनता ने उन्हें सिर आंखों पर बैठाया था। लेकिन मंडल के चक्कर में देश में जातिवाद की खाईं पैदा करने वाले वीपी और उनके सहयोगियों ने यहां के लोगों का गुस्सा भी आज देखा और अनुभव किया। <br />
लोकतांत्रिक वामपंथी मोर्चा के बैनर पर आज स्थानीय तमकुही मैदान में बने सभास्थल पर बैठे वीपी सिंह, अजित सिंह, शरद यादव, मुफ्ती मोहम्मद सईद और शरद यादव के अंगरक्षक समेत कई लोग घायल हो गए। <br />
आज नगर के पूर्वी भाग में बम, कट्टा, आंसू गैस, लाठी, ईंट, पत्थर आदि दोपहर से सायंकाल तक चलते रहे। जगह जगह छात्रों ने सड़कों पर अवरोध खड़े किए। गड़बड़ी उस समय शुरू हुई जब आरक्षण विरोधियों द्वारा सभा में व्यवधान डालने की कोशिश की गई और महराजगंज के सांसद हर्षवर्धन ने मंद से लठैतों को पूर्व मंत्रियों की सुरक्षा के लिए चलने को ललकारा।<br />
सभास्थल पर कार से आ रहे पूर्व केंद्रीय मंत्रियों पर पथराव किया गया और बम फेंके गए। परिणामस्वरूप शरद यादव और मुफ्ती मोहम्मद सईद घायल हो गए। जिस समय अजित सिंह मंच पर चढ़ रहे थे, तभी एक पत्थर से उनके सिर में चोटें आईं। शरद यादव का अंगरक्षक टॉमस गंभीर रूप से घायल हो गया। अपराह्न लगभग ढाई बजे जिस समय अजित सिंह घायल होने के बाद मंच पर बैठे, मंच के पास तेज विस्फोट हुआ। सौभाग्य से कोई घायल नहीं हुआ।<br />
इससे पूर्व आज अपराह्न 12.20 बजे तमकुही मैदान के पश्चिमी सड़क पर जमी भीड़ पर जब पुलिस ने लाठी चार्ज किया, उसी समय पहला बम विस्फोट हुआ। यह स्थान मंच से लगभग 200 गज दूर था। इसके बाद सभास्थल के पूर्वी छोर से आरक्षण विरोधियों की बड़ी भीड़ ने पुलिस पर पथराव शुरू कर दिया, जिससे मंच पर भी कुछ पत्थर आए और वहां बैठे जद नेता रणजीत सिंहराज घायल हुए। मंच पर भगदड़ मच गई और देखते देखते पूरा मंच खाली हो गया। इसी पथराव में बिहार से आए एक वयोवृद्ध स्वतंत्रता संग्राम सेनानी विष्णु प्रसाद यादव भी घायल हो गए।<br />
सवर्ण आर्मी लिबरेशन फ्रंट ने आज जनता कर्फ्यू का एलान किया था। कल राज भी कई बम विस्फोट हुए थे। <br />
वीपी सिंह तथा बिहार के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव को हवाई अड्डे से भारी पुलिस सुरक्षा व्यवस्था में सभास्थल तक लाया गया। लालू यादव के भाषण के समय भी बम विस्फोट और सभा में पथराव की अनेक घटनाएं हुईं। <br />
आज अपराह्न 12 बजे से आंदोलनकारी सक्रिय हो गए। पथराव, बमबाजी कर सभा को कई बार भंग करने का प्रयास किया। आंदोलनकारियों ने आज नगर में अनेक वाहनों को आग लगा दी तथा जिलाधिकारी आवास पर जमकर पथराव किया जिससे जिलाधिकारी की कार का शीशा टूट गया।<br />
वीपी सिंह के भाषण के समय पूर्ण शांति रही, लेकिन इससे पूर्व शरद यादव के भाषण के समय से ही पुलिस ने लोगों को सभा स्थल पर जाने से रोक दिया था। भय और आतंक के माहौल के कारण लोग धीरे धीरे सभा स्थल से खिसकने लगे। शरद यादव के भाषण के समय सभास्थल पर जमकर ढेलेबाजी हुई।<br />
बाहर से लाए गए जद कार्यकर्ता डंडों में झंडा लगाकर मुकाबले के लिए पूरी तरह से तैयार होकर आए थे। वीपी के भाषण के समय सभास्थल पर श्रोताओं की संख्या बहुत कम रही। पुलिस द्वारा लाठीचार्ज तथा आंदोलनकारियों के पथराव में दर्जनों घायल हो गए। घायलों में कुछ पुलिसकर्मी भी शामिल हैं। <br />
श्री सिंह को सभास्थल तक नहीं पहुंचने देने की धमकी दे चुके छात्रों को हटाने के लिए विश्वविद्यालय छात्रावासों में घुसकर पुलिस ने छात्रों की पिटाई की। उत्तेजित छात्रों ने पुलिस पर जमकर पथराव किया। बाद में सब इंसपेक्टर की मोटरसाइकिल पर बम फेका, जिससे उसमें आग लग गई। हॉस्टल रोड को पूरी तरह घेर लिया। वीपी इसी मार्ग से सभास्थल तक गए।”<br />
<i></i></b><br />
<br />
यह उस दौर की सबसे संतुलित रिपोर्ट थी, जिसे पढ़कर अहसास किया जा सकता है कि अखबार, उसमें लिखने वालों व लोकतंत्र के अन्य कथित झंडाबरदारों का उस दौर में क्या रुख था।<br />
<br />
<br />
यह पिछड़े वर्ग की सामाजिक जागरूकता न होने का परिणाम था कि आरएसएस व उसके अनुषांगिक संगठनों ने ओबीसी तबके से जुड़े तबकों को ही आरक्षण के विरोध में खड़ा कर दिया था। एक तरह से देखा जाए तो आज जहां मराठा, कापू, पाटीदार, जाट, गूर्जर बड़े पैमाने पर आंदोलन चला रहे हैं और हजारों की संख्या में लोगों की पिटाई हो रही है, सैकड़ों की जान चली गई, गुप्ता और मौर्य मुफ्त में बगैर आंदोलन के आरक्षण पा गए। आज भी पिछड़े वर्ग के ज्यादातर लोग आरक्षण के पीछे अपनी जिंदगी दांव पर लगाने वालों की न तो कद्र करते हैं और न ही उन्हें सम्मान देते हैं। इन लोगों की पीढ़ियां आरक्षण की मलाई चाभ रही है और पिछड़े वर्ग की जिंदगी संवारने वाले मसीहाओं को विस्मृत कर चुकी है। <br />
<br />
गोरखपुर में हुई वीपी की इस जनसभा के बाद केदारनाथ सिंह निशाने पर आ गए। स्वाभाविक है कि आरक्षण विरोधियों के निशाने पर वह थे ही, आरक्षण समर्थकों ने भी उनकी भरपूर उपेक्षा की। ओबीसी तबके की ओर से ओबीसी आरक्षण का विरोध लगातार जारी था। ओबीसी तबके की ज्यादातर जातियों का यह मानना था कि आरक्षण होने से उनका जातीय डिमोशन हो गया है और वह अनुसूचित जाति/जनजाति बना दिए गए हैं। <br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh6VKyuM8Buqa_0Whe-vnXQpqSenYGRWR8nB7E2hQNNywNrgwpfXiJmFMcmNNLKqGs9PkvY-peUhH_LR2ykYJy_DoTkFfDP-Yqr9F6vdOYz1DefpxXMqbxbQg77BaIuHfsaMaUMPruOTm8/s1600/photo3.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEh6VKyuM8Buqa_0Whe-vnXQpqSenYGRWR8nB7E2hQNNywNrgwpfXiJmFMcmNNLKqGs9PkvY-peUhH_LR2ykYJy_DoTkFfDP-Yqr9F6vdOYz1DefpxXMqbxbQg77BaIuHfsaMaUMPruOTm8/s320/photo3.jpg" width="320" height="216" data-original-width="1600" data-original-height="1081" /></a></div><br />
<i><b>(फोटो कैप्शन-फोटो 3- कांग्रेस (जे) के जनता दल में विलय के मौके पर केदारनाथ सिंह, हरवंश सिंह भल्ला, विश्वनाथ प्रताप सिंह और मुलायम सिंह यादव (बाएं से दाएं)</b></i><br />
<br />
जनता दल के नेता शरद यादव ने 25.08.1992 से 6.11.92 तक मंडल रथ यात्रा निकाली। इसका मकसद न सिर्फ यह बताना था कि सरकार ओबीसी रिजर्वेशन को लेकर साजिश न करे, साथ ही पिछड़ा वर्ग भी अपने अधिकारों के प्रति जागरूक हो। शरद यादव ने घोषणा की, “हम वर्तमान केंद्र की सरकार को खबरदार करना चाहते हैं कि हमें उनकी नीयत का पता है। हमें यह भी पता है कि अयोध्या में राम मंदिर का शिलान्यास मंडल कमीशन द्वारा उत्पन्न पिछड़े व दलितों के जागरण को कब्र में भेजने की यह चतुर द्विज चाल है।”<br />
<br />
शरद ने जनता को यह बताने की कोशिश की कि किस तरह से पिछड़े वर्ग के खिलाफ साजिश कर उन्हें सरकारी नौकरियों में नहीं जाने दिया। आरक्षण की नींव को समझाया। स्वतंत्रता के 40 साल बाद भी उच्च सेवाओं में देश में पिछड़े वर्ग की 60 प्रतिशत आबादी की नौकरियों में 5 प्रतिशत से भी कम हिस्सेदारी और नीति निर्धारक सरकारी पदों पर प्रतिनिधित्व न होने का मसला उठाया।<br />
केदारनाथ सिंह ने भी पूर्वांचल में पिछड़ों की आबादी को जागरूक करने का बीड़ा उठा लिया। सबसे तीखा विरोध उन्हें खुद अपनी जाति के लोगों से उठाना पड़ा। गरीबी और बहुत कठिन जीवन जी रहे लोगों को संपन्न तबका बरगला रहा था कि आरक्षण पाने से वह जातीय पद सोपान में अनुसूचित जाति/ जनजाति के समकक्ष खड़े हो जाएंगे। सिंह ने पिछड़े वर्ग, खासकर अपनी जाति के लोगों को यह समझाने में शेष जिंदगी खर्च कर दी कि आरक्षण पाने से कोई जाति नीची नहीं होती। समाज में कुर्मी समुदाय की भी बहुत प्रतिष्ठा है, साजिशन उन्हें सरकार के उच्च पदों पर प्रतिनिधित्व नहीं दिया गया है। <br />
<br />
इसके साइड इफेक्ट भी हुए। जनता पार्टी में वित्त मंत्री मधुकर दिघे से भारी मतों से कांग्रेस (जे) से चुनाव जीतकर 1980 में विधानसभा से औपचारिक राजनीति की शुरुआत करने के बाद केदारनाथ सिंह का राजनीति में ग्राफ लगातार बढ़ता जा रहा था। उन्होंने उसके बाद लगातार राजनीति में नए आयाम स्थापित किए। कांग्रेस की आंधी में वह महराजगंज से लोकसभा चुनाव लडे। उस दौर में जहां लोग कांग्रेस के ऐरे गैरे प्रत्याशियों से एक लाख से ऊपर के मतों के अंतर से हार रहे थे, केदारनाथ सिंह महराजगंज से महज डेढ़ हजार वोट से चुनाव हारे थे। वीपी ने जब कांग्रेस से निकलकर अलग दल बनाया तो पूर्वांचल में उन्होंने केदारनाथ सिंह को अपने पाले में लाने की हर संभव कवायद की। उत्तर प्रदेश की विधानसभा में 1980 में जगजीवन राम की कांग्रेस (जे) के 18 विधायक जीतकर आए थे, और सदन में उन विधायकों के नेता थे केदारनाथ सिंह। आखिरकार वीपी की भारी भरकम कवायदों के बीच कांग्रेस जे का जनता दल में विलय हो गया। विलय के मौके पर आयोजित जनसभा में वीपी के अलावा मुफ्ती मोहम्मद सईद, संजय सिंह, मुलायम सिंह यादव सहित जनता दल के तमाम दिग्गज नेता तमकुही कोठी मैदान में जमा थे। केदारनाथ सिंह 1989 में पिपराइच विधानसभा से फिर से चुनकर विधायक बन गए। वीपी के खास रहे केदारनाथ सिंह उस समय मुलायम सिंह यादव के मंत्रिमंडल में शामिल नहीं हुए। उन्हें संगठन का काम सौंपा गया। यहां तक कि विधायी कार्रवाई में भी केदारनाथ सिंह अहम माने जाते थे। 1989 में वर्तमान समाजवादी नेता आजम खां ने विधानसभा में राज्यपाल का अभिभाषण फाड़ डाला तो उनके खिलाफ कार्रवाई की तलवार लटकने लगी। उसमें भी केदारनाथ सिंह ने पूरे मामले की बाकायदा ड्राफ्टिंग की और विधायी नियमों व विधायकों के अधिकार को स्पष्ट कराने में अहम भूमिका निभाई। आखिरकार आजम खां के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं होने पाई। <br />
<br />
हालांकि 1990 के आरक्षण आंदोलन के बाद केदारनाथ सिंह को कभी पूर्वांचल में उभरने नहीं दिया गया। उन्हें उन पिछड़ों ने ही लगातार उपेक्षित किया, जिनके हक के लिए उन्होंने लाठियों, गोलियों व बम का मुकाबला किया। <br />
<br />
केदारनाथ सिंह पिपराइच से भी लड़े, जहां अमूमन 80 प्रतिशत दलित और पिछड़े वर्ग के लोग हैं। उसके बाद वह गोरखपुर से सांसद का चुनाव भी लड़े। लेकिन पिछड़े तबके ने कभी उनका साथ नहीं दिया और लगातार चुनाव हारते रहे। यह अलग बाद है कि समाजवादी पार्टी के पुरोधा मुलायम सिंह यादव ने उन्हें अपने साथ बनाए रखा और भरपूर सम्मान भी दिया। इतना ही नहीं, किन्ही वजहों से एक बाद केदारनाथ सिंह सपा से नाराज हो गए। उस समय उन्हें तत्कालीन बसपा पुरोधा कांशीराम ने अपने पास बुलाया और बसपा से उन्हें न सिर्फ टिकट दिया, बल्कि पार्टी कैडर को पूरी तरह से सक्रिय होकर साथ देने का निर्देश भी दिया। लेकिन उसके बाद वह न कभी सांसद चुनाव जीते, न विधायक का। <br />
<br />
पूर्वी उत्तर प्रदेश में सामाजिक न्याय की लड़ाई लड़ने वाले सबसे बड़े योद्धा के रूप में केदारनाथ सिंह का नाम प्रमुख है। हाशिए पर खड़ा समाज हमेशा उनकी चिंता का विषय रहा। उनके समर्थक आज भी सम्मान से उन्हें “बाबू जी” कहते हैं। <br />
<br />
केदारनाथ सिंह का जन्म उत्तर प्रदेश के महराजगंज जिले के राजपुर गांव के एक संपन्न परिवार में हुआ। उनके पिता श्रवण कुमार सिंह इलाके के जमींदार थे। भारत के स्वतंत्र होने के पहले राजपुर, महुअवा, कुन्नूर (बोदरवार) तक करीब 50 वर्ग किलोमीटर के इलाके की जमींदारी उनके प्रशासन क्षेत्र में आती थी। उनकी माता रामरती सिंह भी एक संपन्न जमींदार परिवार की थीं। अत्यंत सुविधासंपन्न परिवार में 7 सितंबर 1938 को जन्मे केदारनाथ सिंह की शिक्षा दीक्षा में कोई कमी नहीं रही और उन्हें बेहतरीन कॉलेजों में पढ़ने का मौका मिला। लेकिन पिपराइच के दलित पिछड़े बहुत इलाके की गरीबी ने उनके दिलो दिमाग पर गहरा असर डाला। शुरुआत में जहां उनके पिता ने परोक्ष रूप से स्वतंत्रता सेनानियों की मदद की, स्वतंत्रता के बाद पिपराइच क्षेत्र से कांग्रेस के नेता अक्षयबर सिंह को लगातार 3 बार चुनाव जिताने में अहम भूमिका निभाई, वहीं केदारनाथ सिंह ने कांग्रेस से अलग वंचित तबके की आवाज बनना उचित समझा। शारदा सिंह से विवाह के बाद वह पारिवारिक जीवन में उतरे। इस उनके 4 पुत्र हैं, जो विभिन्न क्षेत्रों में कार्य कर रहे हैं। बड़े पुत्र अजय कुमार सिंह उर्फ राकेश सिंह सैंथवार समाजवादी पार्टी से जुड़े हैं और हाल तक राम आसरे विश्वकर्मा के नेतृत्व में पिछड़ा वर्ग आयोग के सदस्य रहे। दूसरे नंबर के पुत्र अजित कुमार सिंह लखनऊ में बसे हैं और एक सफल कारोबारी हैं। डॉ आशीष कुमार सिंह दांत के चिकित्सक हैं और सामाजिक कार्यों में सक्रिय रहते हैं। वहीं सबसे छोटे पुत्र अमित कुमार सिंह बेंगलूरु में सॉफ्टवेयर इंजीनियर हैं। <br />
<br />
केदारनाथ सिंह अंतिम समय तक वंचित तबके की लड़ाई लड़ते रहे। देश में सांप्रदायिक हिंसा की प्रयोगशाला रहे गोरखपुर में उन्होंने लगातार समरसता के लिए आवाज बुलंद की। केदारनाथ सिंह का सपना था कि 100 में 85 प्रतिशत वंचित आबादी को उसका हक मिले और वह इसके लिए लगातार संघर्ष करते रहे। भले ही चुनावी राजनीति ने उन्हें खारिज कर दिया, लेकिन वह अंत तक सच्चे समाजवादी नेता बने रहे। उनका सपना बना रहा कि लोग जाति की मानसिकता से उबरकर वर्ग हित में सोचें और पिछड़ा वर्ग जातियों में विभाजित न होकर वर्ग के रूप में उभरे। यह सपना देखते और इस सपने पर काम करते हुए उन्होंने भले ही अपना चमकता राजनीतिक जीवन कुर्बान कर दिया और सभी सुख, सुविधाएं उनसे दूर होती गईं लेकिन जीवन के आखिरी पल तक बाबू जी आम लोगों के दिलों में बसे रहे। गरीबों, वंचितों के बाबू जी का 13 दिसंबर 2012 को निधन हो गया। पिछड़ा वर्ग भले ही जातियों के खांचे में हिचकोले खा रहा है, लेकिन पिछड़े वर्ग का बुद्धिजीवी तबका अभी भी केदारनाथ सिंह के उस सपने पर काम करने में लगा हुआ है कि लोग जातियों का खांचा छोड़कर वर्गीय हित की ओर बढ़ें और समतामूलक समाज स्थापित कर राष्ट्रनिर्माण में अहम भूमिका निभाएं। <br />
Satyendra PShttp://www.blogger.com/profile/06700215658741890531noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3124261744486772692.post-22256063597841291182017-09-24T00:53:00.000-07:002017-09-24T14:14:35.867-07:00क्या बीएचयू और भारत के अन्य विश्वविद्यालय अब तेहरान युनिवर्सिटी बनने की ओर बढ़ रहे हैं?सत्येन्द्र पीएस<br />
<br />
ईरान में 1979 में इस्लामिक क्रांति हुई। बड़े बड़े आंदोलन हुए। खोमैनी का शासन आ गया। ईरान इस्लामिक स्टेट बन गया। वहां सब कुछ बदल गया। ड्रेस कोड बना। विश्वविद्यालयों में इस्लामी पहनावा लागू हो गया। तरह-तरह के प्रतिबंध लग गए। अब हालात यह हैं कि जिस तेहरान युनिवर्सिटी को अमेरिका या ब्रिटेन के तमाम नामी गिरामी विश्वविद्यालयों के साथ मुकाबले के लिए जाना जाता था, उसका कोई नामलेवा नहीं है। क्या आपने सुना है कि आपका कोई परिचित कह रहा हो कि उसका सपना तेहरान युनिवर्सिटी में अपने बच्चे को पढ़ाने का है? ज्यादातर लोग तो जानते भी नहीं हैं कि ईरान या तेहरान में कोई युनिवर्सिटी भी है, या वहां के स्कूल कॉलेज को मदरसा वगैरा ही कहते हैं। <br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgFjWiZG4Fg2X56D1aj96_WihtwUzkR8oYds4k36wmH-Rg_nR1Ws_Xa2GcJtqi64D7uDfhYQ11v1PO8uZBQzETdTrVJ-L6O06ssG_Ot25e8rv6HOgbwPwaIdwds5j3qCJ968mOVowLUccE/s1600/iran-2.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEgFjWiZG4Fg2X56D1aj96_WihtwUzkR8oYds4k36wmH-Rg_nR1Ws_Xa2GcJtqi64D7uDfhYQ11v1PO8uZBQzETdTrVJ-L6O06ssG_Ot25e8rv6HOgbwPwaIdwds5j3qCJ968mOVowLUccE/s320/iran-2.jpg" width="320" height="304" data-original-width="962" data-original-height="914" /></a></div><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjpkmuFVOAWjU5cgCEbfN7NTLtwIGcTWQoh0SvNQj_7QLVgQQ4ALSLGv-sN5SDrmRyjWeeoC3mPV-n1Wug7SiHXElrRtke7tH0BBsAQw1gyyS562vO1tHmPRlP7RX6wO9fkfQ35OCZ7lDk/s1600/iran.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEjpkmuFVOAWjU5cgCEbfN7NTLtwIGcTWQoh0SvNQj_7QLVgQQ4ALSLGv-sN5SDrmRyjWeeoC3mPV-n1Wug7SiHXElrRtke7tH0BBsAQw1gyyS562vO1tHmPRlP7RX6wO9fkfQ35OCZ7lDk/s320/iran.jpg" width="320" height="320" data-original-width="962" data-original-height="962" /></a></div><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi8Ezy52GH4b2YRXT1rtlSGpAIt3ZeQR2ixsQkg7NSEQHICncgm2hyphenhyphencL7iaLSvRkyUCA2WsOOO2o2uN3QQ1tF1Q0qlIKJZoSzdmD4_f02zQs8mcOgp-YX3qPTVnAtoRI7hEQyU0zox-XIs/s1600/iran-3.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi8Ezy52GH4b2YRXT1rtlSGpAIt3ZeQR2ixsQkg7NSEQHICncgm2hyphenhyphencL7iaLSvRkyUCA2WsOOO2o2uN3QQ1tF1Q0qlIKJZoSzdmD4_f02zQs8mcOgp-YX3qPTVnAtoRI7hEQyU0zox-XIs/s320/iran-3.jpg" width="320" height="221" data-original-width="1200" data-original-height="830" /></a></div>भारत में नरेंद्र मोदी सरकार आने के बाद तमाम बदलाव हुए। सरकार ने विश्वविद्यालयों में अपनी मर्जी के कुलपति रखे। उन्हीं में से एक काशी हिंदू विश्वविद्यालय है। काशी हिंदू विश्वविद्यालय को मैं हरि गौतम के जमाने से जानता हूं। उस समय कैंपस अशांत थे। तरह तरह के आंदोलन होते थे। गुंडे न केवल विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति में दखल करते थे, बल्कि वहां के तमाम प्रोफेसर राजनीतिक रूप से ताकतवर जातीय गुंडा राजनेताओं के आदमी बन चुके थे और विद्यार्थियों को भड़काते थे। आए दिन विश्वविद्यालय में मारपीट, गुंडागर्दी, बमबाजी होती थी।<br />
हरि गौतम के समय से सख्ती शुरू हुई। कैंपस शांत हो गया। उसके बाद वाई सी सिम्हाद्री, पंजाब सिंह, लालजी सिंह कुलपति बने। सभी अपने ज्ञान क्षेत्र में अव्वल थे। पहले भी वाइस चांसलर या तमाम बड़े पदों पर रहने के बाद बीएचयू पहुंचे थे। <br />
केंद्र में 2014 में नरेंद्र मोदी सरकार बनने के बाद प्रोफेसर गिरीश चंद्र त्रिपाठी कुलपति बने। उस समय तक मैंने कभी इनका नाम नहीं सुना था। नाम न सुनना कोई बड़ी बात नहीं। देश में तमाम ऐसे विद्वान हैं, जिनका हम नाम नहीं सुने हुए होते हैं। लेकिन बाद में पता करने पर जानकारी मिल जाती है कि संबंधित व्यक्ति की पृष्ठभूमि क्या है। मुझे याद है कि सबसे पहली जानकारी प्रोफेसर त्रिपाठी के बारे में यही मिली थी कि वह पंडित मदन मोहन मालवीय के नाती के बहुत खास हैं। उसके बाद मैंने कई स्रोतों से पता करने की कोशिश की कि त्रिपाठी की एकेडमिक या प्रशासनिक उपलब्धि क्या रही, लेकिन कुछ भी जानकारी नहीं मिल सकी।<br />
त्रिपाठी के कुलपति बनने के बाद उनके एक से बढ़कर एक कारनामे सामने आने लगे। बयान तो किसी विकृत मानसिकता के पुरबिया क्षुद्र व्यक्ति से नीचे। <br />
विश्वविद्यालय के परिसर में लाइब्रेरी को 24 घंटे खोले जाने के लिए चल रहे आंदोलन के दौरान उनके बयानों को देखें। उन्होंने कहा, “लड़के बदमाश हैं, कॉपर वायर तोड़ ले जात्ते हैं, माउस चुरा ले जाते हैं, हार्डडिस्क निकालकर ले जाते हैं। पेन ड्राइव में अश्लील फ़िल्में देखते हैं। इन सबसे अलग उनके वहां रहने से एकदम दूसरी समस्या पैदा हो सकती है कि वे वहां क्या कर रहे हैं?”<br />
<br />
शायद प्रोफेसर त्रिपाठी को अपने देश के ही जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी के बारे में ही जानकारी नहीं है, जहां विद्यार्थियों को 24 घंटे पढ़ने की सुविधा दी जाती है। वहां सेक्सुअल क्राइम के केसेज बहुत कम सामने आते हैं। आप कैंपस में घूमिए। तमाम झाड़ियां हैं। पहाड़ी विश्वविद्यालय बना है और आधे से ज्यादा छात्राएं हैं। लेकिन कहीं कुछ भी आपत्तिजनक या अश्लील या सेक्सुअल क्राइम नहीं मिलता, जबकि प्रोफेसर त्रिपाठी ने विश्वविद्यालय कैंपस में क्या ढूंढा, उनके इस बयान से अंदाज लगा सकते हैं। उन्होंने कहा, “एक बात मैंने यहां सघन तलाशी करायी। रात नौ बजे के बाद शहर के तमाम लड़के और लड़कियां यहां बैठे रहते हैं। अपनी कार से रात में निकला, लोगों ने कहा कि अरे आप वीसी हैं, हम ले चलते हैं। लेकिन मैं अध्यापक हूं। मैं निकला और मैंने देखा कि एक लड़का और लड़की ऐसी अवस्था में बैठे थे कि क्या बताऊं. मैंने गाड़ी रोकी। मैंने बैठा लिया गाड़ी में, कुछ और नहीं किया. मैंने केवल इतना कहा कि चलो तुम्हारे गार्जियन से बात करें. वे गिडगिडाने लगे, अरे नहीं सर, गलती हो गयी सर। फिर मैंने उन्हें छोड़ भी दिया।”<br />
<br />
यह है काशी हिंदू विश्वविद्यालय का माहौल। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में कंडोम गिनने का ठेका तो भारतीय जनता पार्टी के विधायक को दिया गया है, लेकिन बीएचयू में कंडोम बीनने खुद कुलपति निकल चुके हैं। उनका यह मकसद कतई नहीं रह गया है कि विश्वविद्यालय में ऐसा माहौल बना दिया जाए, जहां बच्चों के दिमाग में विश्व का सर्वश्रेष्ठ विद्यार्थी बनने और लगातार पठन पाठन, शोध में रहे बल्कि वह विद्यार्थियों को किसी अलग ही नियम में बांधने को आतुर नजर आते हैं। जबकि हकीकत यह है कि विश्वविद्यालय में श्रेष्ठ विद्यार्थियों का एडमिशन होता है, जिनका पहले से एकेडमिक रिकॉर्ड बहुत शानदार रहा होता है। विश्वविद्यालय कड़ी परीक्षा लेने के बाद विद्यार्थियों को एडमिशन देता है। वाराणसी में कुल मिलाकर 4 विश्वविद्यालय हैं। महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय, उदय प्रताप स्वायत्तशासी कॉलेज के अलावा पूर्वांचल विश्वविद्यालय जौनपुर के डिग्री कॉलेज भी शहर में हैं। इसके अलावा बौद्ध विश्वविद्यालय़ भी सारनाथ में उपस्थित है। इन सबकी मौजूदगी के बीच विद्यार्थियों का सपना होता है कि वह अगर वाराणसी में पढ़ें तो बीएचयू में ही पढ़ें। बाहरी दुनिया के बच्चे भी बीएचयू में ही पढ़ने आते हैं। इस स्थिति में स्वाभाविक रूप से विश्वविद्यालय में क्रीम स्टूडेंट्स को ही जगह मिल पाती है। <br />
<br />
हालांकि जेएनयू को भी श्रेष्ठ विश्वविद्यालय नहीं माना जा सकता। वैश्विक दुनिया में जेएनयू का कोई खास मुकाम नहीं है। लेकिन बमुश्किल 10,000 विद्यार्थियों के कैंपस का भारत के स्तर पर सफलता का अनुपात जबरदस्त है। वहां से आईएएस निकलते हैं, ब्यूरोक्रेट्स निकलते हैं, राष्ट्रीय स्तर के नेता निकलते हैं। वहीं अगर मौजूदा बीएचयू को देखें तो देश के प्रतिष्ठित संघ लोक सेवा आयोग की परीक्षा में अक्सर बीएचयू का नाम गायब रहता है, जो एक लाख विद्यार्थियों का कैंपस है। वैश्विक स्तर पर विश्वविद्यालय की स्थिति तो जाने ही दें। <br />
काशी हिंदू विश्वविद्यालय में जातीय लंपटई का इतिहास पुराना है। यह देश का एकमात्र ऐसा विश्वविद्यालय है जहां 80 के दशक तक एडमिशन के लिए फार्म भरने वाले विद्यार्थियों से यह पूछा जाता था कि आप ब्राह्मण हैं या गैर ब्राह्मण। मोटे तौर पर इस समय भी विश्वविद्यालय में 70-80 प्रतिशत ब्राह्मण टीचिंग स्टाफ है। इतना ही नहीं, तमाम प्रोफेसर तो खानदानी हैं, जो वहां कई पीढ़ियों से पढ़ाए जाने के योग्य पाए जा रहे हैं। ऐसे में जातीय बजबजाहट यहां नई बात नहीं है। <br />
<br />
इन सबके बावजूद हाल के वर्षों में ब्राह्मण या गैर ब्राह्मण पूछा जाना बंद हुआ। जातीय कुंठा भी कुछ घटी और अध्यापक नहीं तो विद्यार्थियों में जातीय विविधता आई। आरएसएस के स्वयंसेवक प्रोफेसर त्रिपाठी के कुलपति बनने के बाद विश्वविद्यालय एक बार फिर ब्राह्मणवादी कुंठा में फंसता नजर आ रहा है। <br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiZ20CeVzmBkZp1iKT2oFq192W1vSmIRAiTs7JLoC3buwSWAd86IZqviBtwiaTyleDtLItNEffYNB-Cwp5J_S9D4Ppkt2fB0wm50YU36gwwDsmrnPmW_6tUIBz6H8h_QrCmQb1pbYociU8/s1600/bhu.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEiZ20CeVzmBkZp1iKT2oFq192W1vSmIRAiTs7JLoC3buwSWAd86IZqviBtwiaTyleDtLItNEffYNB-Cwp5J_S9D4Ppkt2fB0wm50YU36gwwDsmrnPmW_6tUIBz6H8h_QrCmQb1pbYociU8/s320/bhu.jpg" width="320" height="240" data-original-width="480" data-original-height="360" /></a></div>(बीएचयू बज, फेसबुक से ली गई तस्वीर। लड़कियों पर लाठी चार्ज के बाद)<br />
विश्वविद्यालय में कुलपति अपने को गैर राजनीतिक होने का दावा कर रहे हैं। लेकिन मामला इससे उलट है। अगर विश्वविद्यालय की छात्राएं छेड़खानी का विरोध कर रही हैं तो उन पर लाठियां चल रही हैं। विश्वविद्यालय के सुरक्षाकर्मियों की लंबी चौड़ी फौज है, जिनकी कैंपस में जबरदस्त गुंडागर्दी चलती है। वह मामला नहीं संभाल पाते हैं तो बाहर से पुलिस और पीएसी बुलाई जाती है। रात रात भर कैंपस में बवाल चलता है। लड़कियों को पीट पीटकर पुलिस हाथ पैर तोड़ देती है। <br />
<br />
यह मामला काशी हिंदू विश्वविद्यालय तक सीमित नहीं है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के कुलपति परिसर में टैंक रखवाना चाहते हैं, जिससे विद्यार्थियों में देशभक्ति आए। विश्वविद्यालय के कुलपति को टैंक में देशभक्ति दिखती है। <br />
<br />
इसमें सबसे ज्यादा बुरा हाल छात्राओं का होने जा रहा है। भारतीय जनता पार्टी के सांसद साक्षी महराज बयान देते हैं कि लड़कियां मोटरसाइकिल पर बैठकर चलती हैं, इसलिए उनके साथ बलात्कार हो जाता है। <br />
<br />
सवाल यह है कि हम किस दौर की ओर बढ़ रहे हैं। क्या हम इस्लामिक स्टेट की तरह भारत को हिंदू स्टेट बनाकर बर्बादी की ओर ले जाना चाहते हैं या रूस, ब्रिटेन, अमेरिका, जापान, यूरोपियन यूनियन की तरह समृद्ध और खुला समाज चाहते हैं? भारत में तो यह कल्पना करना भी मुश्किल है कि कोई लड़की या महिला रात के सुनसान में अपने घर से निकलकर अकेले कहीं सड़क पर घूम सकती है, या किसी अपने परिचित की मदद के लिए पैदल निकल सकती है। महिला ही क्या, पुरुष भी यह सोचकर नहीं निकल सकते कि दो बजे रात को अगर वह सड़क पर जा रहे हों तो सुरक्षित घर लौटेंगे या नहीं। लेकिन किसी भी सभ्य, विकसित देश में यह आम बात है। फैसला हमें करना है कि हम देश को किस तरफ ले जाना चाहते हैं। विकसित, समृद्ध, सुरक्षित देश बनना चाहते हैं जहां ज्ञान विज्ञान और सुविधाओं के साथ सुरक्षा हो, या इस्लामिक स्टेट आफ ईरान की तरह हिंदू स्टेट आफ इंडिया बनना चाहते हैं।<br />
<br />
फोटो क्रेडिट -1 और 2<br />
http://www.dailymail.co.uk/travel/travel_news/article-4148684/Stunning-photos-reveal-life-Iran-revolution.html<br />
फोटो क्रेडिट-3 <br />
http://www.payvand.com/news/17/sep/1083.html<br />
<br />
<br />
<br />
<br />
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
</div>Satyendra PShttp://www.blogger.com/profile/06700215658741890531noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3124261744486772692.post-58517347188952131762017-09-24T00:19:00.000-07:002017-09-24T00:19:25.171-07:00दक्षिण भारत का टैक्स डिनायल सत्याग्रह कर रहा केंद्र सरकार की नाक में दम, आइए देखें क्या मामला है और क्यों हो रहा है आंदोलन<br />
<br />
सत्येन्द्र पीएस<br />
<br />
वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) लागू किए जाने को कर की दिशा में ऐतिहासिक कदम करार दिया जा रहा है, वहीं 1 जुलाई 2017 से लागू कर व्यवस्था में तमाम विसंगतिया सामने आ रही हैं। दक्षिण भारत में इस कर के खिलाफ कर अवज्ञा सत्याग्रह (टैक्स डिनायल सत्याग्रह) चल रहा है। <br />
कर अवज्ञा सत्याग्रह चला रहे ‘सत्याग्रह ग्राम सेवक संघ’ का कहना है कि आजादी के बाद पहली बार हस्तशिल्प को कर के दायरे में लाया गया है। यह गरीब तबके, कुटीर एवं लघु उद्योग चलाने वालों का एकमात्र सहारा है, जिसे अब तक सरकारें संरक्षण देती रही हैं, क्योंकि बड़ी संख्या में लोग इस क्षेत्र से रोजगार पाते हैं और स्थानीय कलाकारों को अपनी कला के प्रदर्शन का मौका भी मिलता है। <br />
सत्याग्रहियों का कहना है कि प्राकृतिक उत्पाद स्वाभाविक रूप से महंगे होते हैं। वे उदाहरण देते हुए बताते हैं कि खादी की साड़ी की कीमह सूरत की सिंथेटिक साड़ी से हमेशा महंगी होती है। अब कर लगने के बाद उसका दाम और बढ़ जाएगा। <br />
एक तर्क यह भी सामने आता है कि अगर कोई उत्पाद बाजार में प्रतिस्पर्धा नहीं कर सकता है तो क्यों न उसे बाजार से बाहर हो जाने दिया जाए ? हालांकि साथ में एक अभियान यह भी चल रहा है कि प्रकृति और प्राकृतिक उत्पादों की ओर चलना चाहिए, जो कहीं ज्यादा सुरक्षित और प्रकृति के अनुकूल हैं। प्राकृतिक उत्पादों की ओर जाने का अभियान न सिर्फ भारत में बल्कि पूरी दुनिया में चल रहा है। वहीं भारत की सरकार ने हाथ से बने सामान पर कर लगा दिया। <br />
उत्तर भारत में तो हस्त शिल्प का ज्यादा महत्त्व नहीं रहा और ज्यादातर ग्रामीण अर्थव्यवस्था और हस्तशिल्प उत्पाद खत्म होते जा रहे हैं। वहीं तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक जैसे राज्यों में सरकारों ने हस्तशिल्प पर विशेष ध्यान दिया। इसकी एक वजह यह हो सकती है कि दक्षिण में पिछले 100 साल के पिछड़े वर्ग के आंदोलन ने बहुत कुछ बदला है। दक्षिण में न सिर्फ सरकारी नौकरियों में दलितों-पिछड़ों के लिए आरक्षण की व्यवस्था है बल्कि उन राज्यों ने हस्तशिल्प पर खासा जोर दिया, जिससे लघु व कुटीर उद्योगों को संरक्षण मिला, उनका विकास हुआ। इन उद्योगों में बड़े पैमाने पर दलितों व पिछड़े वर्ग की रोजी रोटी सुरक्षित है। आधुनिक और भारी भरकम तकनीकी फैक्टरियों के साथ दक्षिण में हस्तशिल्प को भी जगह मिली। कुटीर एवं लघु उद्योगों को भी जगह मिली। <br />
भारत में भाषायी विविधता के साथ भौगोलिक दूरी के कारण सामान्यतया लोग नहीं जान पाते कि दक्षिण भारत में क्या चल रहा है। स्वाभाविक है कि इस कर अवज्ञा आंदोलन को भी उत्तर भारत में कोई पूछने वाला नहीं है।<br />
इस आंदोलन को चला रहे लोगों की अपील है कि जीएसटी के विरोध में हम हैंडलूम उत्पाद बगैर कोई कर लिए या बगैर किसी कर भुगतान के खरीद सकते हैं। कर देने से इनकार करना सविनय अवज्ञा है। आंदोलनकारियों का कहना है कि इस अभियान का हिस्सा बन कर आप न सिर्फ गांव के गरीब लोगों की आजीविका बचा सकते हैं, बल्कि अपने वातावरण को प्रकृति के अनुकूल बनाने में सहयोग दे सकते हैं। <br />
हस्त शिल्प पर कर लगाए जाने के विरोध में जाने माने साहित्यकार उदय प्रकाश कहते हैं, “क्या महात्मा गांधी के चरखे से काढ़ी गयी और कस्तूरबा की तकली से काती गयी सूत पर भी ये सरकार जीएसटी लगाती ? कुछ तो देश की जनता के हाथों और पसीने का लिहाज़ बचे ! हे राम !” दक्षिण के आंदोलनकारी और ग्रामीणों को उन राज्यों के बुद्धिजीवियों का भी समर्थन मिल रहा है। बाकायदा फेसबुक और ट्विटर पर #taxdenialsatyagraha हैशटैग से हस्तशिल्प पर लगने वाले कर के खिलाफ लिखा जा रहा है। <br />
इसके अलावा भी तमाम कर लगाए गए हैं, जो असंगत लगते हैं। सरकार ने तमाम लग्जरी उत्पादों, जैसे सोने के आयात, कारों आदि पर कर कम रखा है। वहीं तमिलनाडु में सबसे ज्यादा प्रचलित वेट ग्राइंडर को लग्जरी आयटम में डाल दिया।<br />
उत्तर भारत के ज्यादातर लोग वेट ग्राइंडर से परिचित नहीं होंगे। हालांकि दक्षिण का डोसा करीब हर भारतीय ने खा लिया है और वह लोगों की जीभ के स्वाद पर चढ़ चुका है। डोसे को बनाने के लिए जिस तरल खाद्य का इस्तेमाल किया जाता है, वह वेट ग्राइंडर से बनता है। कोयंबत्तूर का वेट ग्राइंडर उद्योग अपने ऊपर लगाए गए 28 प्रतिशत कर का विरोध कर रहा है। देश भर में यहीं से वेट ग्राइंडर की आपूर्ति होती है। मूल्यवर्धित कर (वैट) के तहत इस उद्योग पर 4 प्रतिशत कर था। कोयंबत्तूर वेट ग्राइंडर एंड एक्सेसरीज मैन्युफैक्चरिंग एसोसिएशन (सीओडब्लूएमए) के अध्यक्ष एम राधाकृष्णन ने एक आर्थिक अखबार बिजनेस स्टैंडर्ड को बताया, 'उत्तर भारत से अच्छी पूछताछ आ रही है, लेकिन 28 प्रतिशत कर लगने के बाद कोई भी खरीदना नहीं चाहेगा।'<br />
http://www.business-standard.com/article/economy-policy/gst-impact-wet-grinder-industry-fears-major-blow-with-28-rate-117060800756_1.html<br />
माना जाता है कि वाशिंग मशीन ने पूरी दुनिया में महिलाओं की जिंदगी बदल दी है। वाशिंग मशीन के चलते न सिर्फ महिलाओं की काम करने की रचनात्मक क्षमता बढ़ी, बल्कि इससे उनके समय का दुरुपयोग खत्म हुआ। इसी तरह से दक्षिण भारत में वेट ग्राइंडर ने महिलाओं की जिंदगी बदल दी। डोसा बनाने के लिए चावल पीसने, घोंटने, उसे मथकर खमीर उठाने की प्रक्रिया में महिलाओं की अच्छी खासी दुर्गति होती थी, लेकिन इस मशीन ने घंटों का काम मिनटों में करना शुरू कर दिया। राज्य के हर अमीर गरीब परिवार में वेट ग्राइंडर मिलती है। इतना ही नहीं, ठेले से लेकर छोटे मोटे रेस्टोरेंटों में भी इसका खूब इस्तेमाल होता है। <br />
वेट ग्राइंडर की महत्ता इससे समझी जा सकती है कि मौजूदा अन्नाद्रमुक सरकार ने चुनाव के पहले लोगों से वादा किया था कि अगर पार्टी चुनाव जीतती है तो वह हर परिवार को मुफ्त में वेट ग्राइंडर देगी। तमिलनाडु सरकार अपने चुनावी वादे के मुताबिक पिछले 4 साल से इसकी आपूर्ति लोगों को मुफ्त में कर रही है। इस दौरान राज्य सरकार ने 3,600 करोड़ रुपये के 1.8 करोड़ वेट ग्राइंडर कोयंबटूर के विनिर्माताओं से खरीदे हैं।<br />
सरकार के इस रवैये से क्षुब्ध उदय प्रकाश कहते हैं, “आज से 88 साल पहले अंग्रेज़ों ने नमक पर कर लगाया था। अब हस्त शिल्प, दस्तकारी, गांवों के लोगों के हाथों से बने सामग्री पर जीएसटी। आज अगर मध्यकाल के संत कबीर , रविदास, वचनकार, नाभादास, नानक या आज के भारत के महात्मा गांधी ही होते, तो टैक्स देना पड़ता। कैसी उलट बांसी है- तमाम बाबाओं के प्रोडक्ट्स पर टैक्स से छूट और संतों- गांव देहात, कस्बों और शहर के अंतरे-कोने में रहने वाले हस्तशिल्पियों के मेहनत के उत्पाद पर टैक्स। क्या एक और सत्याग्रह नहीं हो सकता? कर-अवज्ञा-सत्याग्रह ?”<br />
अभियान चलाने वाले सत्याग्रही कहते हैं कि आखिर स्वराज क्या है? स्वराज न तो हिंदुत्व है, न इस्लामवाद। यह राष्ट्रवाद भी नहीं है। स्वराज का सीधा सा मतलब स्वशासन से है। उनका कहना है कि अब स्वराज और स्वशासन को नष्ट किया जा रहा है। इस तरह के कर के माध्यम से लोगों के खुद के रोजगार व धंधे छीने जा रहे हैं, जिससे विदेशी कंपनियां ही नहीं बल्कि भारत की बहुराष्ट्रीय कंपनियों को फायदा मिले। <br />
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
</div>Satyendra PShttp://www.blogger.com/profile/06700215658741890531noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3124261744486772692.post-9582948340032568642017-09-06T04:12:00.000-07:002017-09-06T04:12:22.842-07:00गौरी लंकेश का आख़िरी संपादकीय<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
</div><i><b>(गौरी लंकेश की हत्या कर दी गई। अभी तक हत्या किए जाने की वजह नहीं पता है। संभव है कि यह हत्या किसी ने व्यक्तिगत दुश्मनी में की हो। संभव है कि उनके लेखन की वजह से की गई हो। हत्या तो हर हाल में निंदनीय है, लेकिन अगर कुछ लिखने की वजह से हत्या हो जाती है तो यह बेहद खतरनाक है। सामान्यतया विचार बदलते रहते हैं। तमाम मामलों में देखा गया है कि उदार लोग कट्टर हो जाते हैं। दक्षिणपंथी लोग वाम की दिशा में चले जाते हैं। तमाम वामपंथियों ने कांग्रेस और भाजपा का दामन थाम लिया। ऐसे में अगर वैचारिक हत्या की संस्कृति फैलती है तो यह बेहद खतरनाक है। गौरी ने अपने टेबलायड अखबार में जो आखिरी संपादकीय लिखा है, वह झूठ फैलाए जाने के खिलाफ है। खासकर उस विचारधारा के खिलाफ, जिसका शासन इस समय भारत में चल रहा है। इसे रवीश कुमार के ब्लॉग <a href="http://naisadak.org/last-editorial-of-gauri-lankesh/">कस्बा</a> से साभार लिया गया है।)</b></i><br />
<br />
<br />
<b>फेक न्यूज़ के ज़माने में</b><br />
<br />
इस हफ्ते के इश्यू में मेरे दोस्त डॉ वासु ने गोएबल्स की तरह इंडिया में फेक न्यूज़ बनाने की फैक्ट्री के बारे में लिखा है। झूठ की ऐसी फैक्ट्रियां ज़्यादातर मोदी भक्त ही चलाते हैं। झूठ की फैक्ट्री से जो नुकसान हो रहा है मैं उसके बारे में अपने संपादकीय में बताने का प्रयास करूंगी। अभी परसों ही गणेश चतुर्थी थी। उस दिन सोशल मीडिया में एक झूठ फैलाया गया। फैलाने वाले संघ के लोग थे। ये झूठ क्या है? झूठ ये है कि कर्नाटक सरकार जहां बोलेगी वहीं गणेश जी की प्रतिमा स्थापित करनी है, उसके पहले दस लाख का डिपाज़िट करना होगा, मूर्ति की ऊंचाई कितनी होगी, इसके लिए सरकार से अनुमति लेनी होगी, दूसरे धर्म के लोग जहां रहते हैं उन रास्तों से विसर्जन के लिए नहीं ले जा सकते हैं। पटाखे वगैरह नहीं छोड़ सकते हैं। संघ के लोगों ने इस झूठ को खूब फैलाया। ये झूठ इतना ज़ोर से फैल गया कि अंत में कर्नाटक के पुलिस प्रमुख आर के दत्ता को प्रेस बुलानी पड़ी और सफाई देनी पड़ी कि सरकार ने ऐसा कोई नियम नहीं बनाया है। ये सब झूठ है।<br />
<br />
इस झूठ का सोर्स जब हमने पता करने की कोशिश की तो वो जाकर पहुंचा POSTCARD.IN नाम की वेबसाइट पर। यह वेबसाइट पक्के हिन्दुत्ववादियों की है। इसका काम हर दिन फ़ेक न्यूज़ बनाकर बनाकर सोशल मीडिया में फैलाना है। 11 अगस्त को POSTCARD.IN में एक हेडिंग लगाई गई। कर्नाटक में तालिबान सरकार। इस हेडिंग के सहारे राज्य भर में झूठ फैलाने की कोशिश हुई। संघ के लोग इसमें कामयाब भी हुए। जो लोग किसी न किसी वजह से सिद्धारमैया सरकार से नाराज़ रहते हैं उन लोगों ने इस फ़ेक न्यूज़ को अपना हथियार बना लिया। सबसे आश्चर्य और खेद की बात है कि लोगों ने भी बग़ैर सोचे समझे इसे सही मान लिया। अपने कान, नाक और भेजे का इस्तमाल नहीं किया।<br />
<br />
पिछले सप्ताह जब कोर्ट ने राम रहीम नाम के एक ढोंगी बाबा को बलात्कार के मामले में सज़ा सुनाई तब उसके साथ बीजेपी के नेताओं की कई तस्वीरें सोशल मीडिया में वायर होने लगी। इस ढोंगी बाबा के साथ मोदी के साथ साथ हरियाणा के बीजेपी विधायकों की फोटो और वीडियो वायरल होने लगा। इससे बीजेपी और संघ परिवार परेशान हो गए। इसे काउंटर करने के लिए गुरमीत बाबा के बाज़ू में केरल के सीपीएम के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन के बैठे होने की तस्वीर वायरल करा दी गई। यह तस्वीर फोटोशाप थी। असली तस्वीर में कांग्रेस के नेता ओमन चांडी बैठे हैं लेकिन उनके धड़ पर विजयन का सर लगा दिया गया और संघ के लोगों ने इसे सोशल मीडिया में फैला दिया। शुक्र है संघ का यह तरीका कामयाब नहीं हुआ क्योंकि कुछ लोग तुरंत ही इसका ओरिजनल फोटो निकाल लाए और सोशल मीडिया में सच्चाई सामने रख दी।<br />
<br />
एक्चुअली, पिछले साल तक राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के फ़ेक न्यूज़ प्रोपेगैंडा को रोकने या सामने लाने वाला कोई नहीं था। अब बहुत से लोग इस तरह के काम में जुट गए हैं, जो कि अच्छी बात है। पहले इस तरह के फ़ेक न्यूज़ ही चलती रहती थी लेकिन अब फ़ेक न्यूज़ के साथ साथ असली न्यूज़ भी आनी शुरू हो गए हैं और लोग पढ़ भी रहे हैं।<br />
<br />
उदाहरण के लिए 15 अगस्त के दिन जब लाल क़िले से प्रधानमंत्री मोदी ने भाषण दिया तो उसका एक विश्लेषण 17 अगस्त को ख़ूब वायरल हुआ। ध्रुव राठी ने उसका विश्लेषण किया था। ध्रुव राठी देखने में तो कालेज के लड़के जैसा है लेकिन वो पिछले कई महीनों से मोदी के झूठ की पोल सोशल मीडिया में खोल देता है। पहले ये वीडियो हम जैसे लोगों को ही दिख रहा था,आम आदमी तक नहीं पहुंच रहा था लेकिन 17 अगस्ता के वीडियो एक दिन में एक लाख से ज़्यादा लोगों तक पहुंच गया। ( गौरी लंकेश अक्सर मोदी को बूसी बसिया लिखा करती थीं जिसका मतलब है जब भी मुंह खोलेंगे झूठ ही बोलेंगे)। ध्रुव राठी ने बताया कि राज्य सभा में ‘बूसी बसिया’ की सरकार ने राज्य सभा में महीना भर पहले कहा कि 33 लाख नए करदाता आए हैं। उससे भी पहले वित्त मंत्री जेटली ने 91 लाख नए करदाताओं के जुड़ने की बात कही थी। अंत में आर्थिक सर्वे में कहा गया कि सिर्फ 5 लाख 40 हज़ार नए करदाता जुड़े हैं। तो इसमें कौन सा सच है, यही सवाल ध्रुव राठी ने अपने वीडियो में उठाया है।<br />
<br />
आज की मेनस्ट्रीम मीडिया केंद्र सरकार और बीजेपी के दिए आंकड़ों को जस का तस वेद वाक्य की तरह फैलाती रहती है। मेन स्ट्रीम मीडिया के लिए सरकार का बोला हुआ वेद वाक्य हो गया है। उसमें भी जो टीवी न्यूज चैनल हैं, वो इस काम में दस कदम आगे हैं। उदाहरण के लिए, जब रामनाथ कोविंद ने राष्ट्रपति पद की शपथ ली तो उस दिन बहुत सारे अंग्रज़ी टीवी चैनलों ने ख़बर चलाई कि सिर्फ एक घंटे में ट्वीटर पर राष्ट्रपति कोविंद के फोलोअर की संख्या 30 लाख हो गई है। वो चिल्लाते रहे कि 30 लाख बढ़ गया, 30 लाख बढ़ गया। उनका मकसद यह बताना था कि कितने लोग कोविंद को सपोर्ट कर रहे हैं। बहुत से टीवी चैनल आज राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की टीम की तरह हो गए हैं। संघ का ही काम करते हैं। जबकि सच ये था कि उस दिन पूर्व राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी का सरकारी अकाउंट नए राष्ट्रपति के नाम हो गया। जब ये बदलाव हुआ तब राष्ट्रपति भवन के फोलोअर अब कोविंद के फोलोअर हो गए। इसमें एक बात और भी गौर करने वाली ये है कि प्रणब मुखर्जी को भी तीस लाख से भी ज्यादा लोग ट्वीटर पर फोलो करते थे।<br />
<br />
आज राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के इस तरह के फैलाए गए फ़ेक न्यूज़ की सच्चाई लाने के लिए बहुत से लोग सामने आ चुके हैं। ध्रुव राठी वीडियो के माध्यम से ये काम कर रहे हैं। प्रतीक सिन्हा altnews.in नाम की वेबसाइट से ये काम कर रहे हैं। होक्स स्लेयर, बूम और फैक्ट चेक नाम की वेबसाइट भी यही काम कर रही है। साथ ही साथ THEWIERE.IN, SCROLL.IN, NEWSLAUNDRY.COM, THEQUINT.COM जैसी वेबसाइट भी सक्रिय हैं। मैंने जिन लोगों ने नाम बताए हैं, उन सभी ने हाल ही में कई फ़ेक न्यूज़ की सच्चाई को उजागर किया है। इनके काम से संघ के लोग काफी परेशान हो गए हैं। इसमें और भी महत्व की बात यह है कि ये लोग पैसे के लिए काम नहीं कर रहे हैं। इनका एक ही मकसद है कि फासिस्ट लोगों के झूठ की फैक्ट्री को लोगों के सामने लाना।<br />
<br />
कुछ हफ्ते पहले बंगलुरू में ज़ोरदार बारिश हुई। उस टाइम पर संघ के लोगों ने एक फोटो वायरल कराया। कैप्शन में लिखा था कि नासा ने मंगल ग्रह पर लोगों के चलने का फोटो जारी किया है। बंगलुरू नगरपालिका बीबीएमसी ने बयान दिया कि ये मंगल ग्रह का फोटो नहीं है। संघ का मकसद था, मंगल ग्रह का बताकर बंगलुरू का मज़ाक उड़ाना। जिससे लोग यह समझें कि बंगलुरू में सिद्धारमैया की सरकार ने कोई काम नही किया, यहां के रास्ते खराब हो गए हैं, इस तरह के प्रोपेगैंडा करके झूठी खबर फैलाना संघ का मकसद था। लेकिन ये उनको भारी पड़ गया था क्योंकि ये फोटो बंगलुरू का नहीं, महाराष्ट्र का था, जहां बीजेपी की सरकार है।<br />
<br />
हाल ही में पश्चिम बंगाल में जब दंगे हुए तो आर एस एस के लोगों ने दो पोस्टर जारी किए। एक पोस्टर का कैप्शन था, बंगाल जल रहा है, उसमें प्रोपर्टी के जलने की तस्वीर थी। दूसरे फोटो में एक महीला की साड़ी खींची जा रही है और कैप्शन है बंगाल में हिन्दु महिलाओं के साथ अत्याचार हो रहा है। बहुत जल्दी ही इस फोटो का सच सामने आ गया। पहली तस्वीर 2002 के गुजरात दंगों की थी जब मुख्यमंत्री मोदी ही सरकार में थे। दूसरी तस्वीर में भोजपुरी सिनेमा के एक सीन की थी। सिर्फ आर एस एस ही नहीं बीजेपी के केंद्रीय मंत्री भी ऐसे फ़ेक न्यूज़ फैलाने में माहिर हैं। उदाहरण के लिए, केंद्रीय मंत्री नितिन गडकरी ने फोटो शेयर किया कि जिसमें कुछ लोग तिरंगे में आग लगा रहे थे। फोटो के कैप्शन पर लिखा था गणतंत्र के दिवस हैदराबाद में तिरंगे को आग लगाया जा रहा है। अभी गूगल इमेज सर्च एक नया अप्लिकेशन आया है, उसमें आप किसी भी तस्वीर को डालकर जान सकते हैं कि ये कहां और कब की है। प्रतीक सिन्हा ने यही काम किया और उस अप्लिकेशन के ज़रिये गडकरी के शेयर किए गए फोटो की सच्चाई उजागर कर दी। पता चला कि ये फोटो हैदराबाद का नहीं है। पाकिस्तान का है जहां एक प्रतिबंधित कट्टरपंथी संगठन भारत के विरोध में तिरंगे को जला रहा है।<br />
<br />
इसी तरह एक टीवी पैनल के डिस्कशन में बीजेपी के प्रवक्ता संबित पात्रा ने कहा कि सरहद पर सैनिकों को तिरंगा लहराने में कितनी मुश्किलें आती हैं, फिर जे एन यू जैसे विश्वविद्यालयों में तिरंगा लहराने में क्या समस्या है। यह सवाप पूछकर संबित ने एक तस्वीर दिखाई। बाद में पता चला कि यह एक मशहूर तस्वीर है मगर इसमें भारतीय नहीं, अमरीकी सैनिक हैं। दूसरे विश्व युद्ध के दौरान अमरीकी सैनिकों ने जब जापान के एक द्वीप पर क़ब्ज़ा किया तब उन्होंने अपना झंडा लहराया था। मगर फोटोशाप के ज़रिये संबित पात्रा लोगों को चकमा दे रहे थे। लेकिन ये उन्हें काफी भारी पड़ गया। ट्वीटर पर संबित पात्रा का लोगों ने काफी मज़ाक उड़ाया।<br />
<br />
केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल ने हाल ही में एक तस्वीर साझा की। लिखा कि भारत 50,000 किलोमीटर रास्तों पर सरकार ने तीस लाख एल ई डी बल्ब लगा दिए हैं। मगर जो तस्वीर उन्होंने लगाई वो फेक निकली। भारत की नहीं, 2009 में जापान की तस्वीर की थी। इसी गोयल ने पहले भी एक ट्वीट किया था कि कोयले की आपूर्ति में सरकार ने 25,900 करोड़ की बचत की है। उस ट्वीट की तस्वीर भी झूठी निकली।<br />
<br />
छत्तीसगढ़ के पी डब्ल्यू डी मंत्री राजेश मूणत ने एक ब्रिज का फोटो शेयर किया। अपनी सरकार की कामयाबी बताई। उस ट्वीट को 2000 लाइक मिले। बाद में पता चला कि वो तस्वीर छत्तीसगढ़ की नहीं, वियतनाम की है।<br />
<br />
ऐसे फ़ेक न्यूज़ फैलाने में हमारे कर्नाटक के आर एस एस और बीजेपी लीडर भी कुछ कम नहीं हैं। कर्नाटक के सांसद प्रताप सिम्हा ने एक रिपोर्ट शेयर किया, कहा कि ये टाइम्स आफ इंडिय मे आया है। उसकी हेडलाइन ये थी कि हिन्दू लड़की को मुसलमान ने चाकू मारकर हत्या कर दी। दुनिया भर को नैतिकता का ज्ञान देने वाले प्रताप सिम्हा ने सच्चाई जानने की ज़रा भी कोशिश नहीं की। किसी भी अखबार ने इस न्यूज को नहीं छापा था बल्कि फोटोशाप के ज़रिए किसी दूसरे न्यूज़ में हेडलाइन लगा दिया गया था और हिन्दू मुस्लिम रंग दिया गया। इसके लिए टाइम्स आफ इंडिया का नाम इस्तमाल किया गया। जब हंगामा हुआ कि ये तो फ़ेक न्यूज़ है तो सांसद ने डिलिट कर दिया मगर माफी नहीं मांगी। सांप्रादायिक झूठ फैलाने पर कोई पछतावा ज़ाहिर नहीं किया।<br />
<br />
जैसा कि मेरे दोस्त वासु ने इस बार के कॉलम में लिखा है, मैंने भी एक बिना समझे एक फ़ेक न्यूज़ शेयर कर दिया। पिछले रविवार पटना की अपनी रैली की तस्वीर लालू यादव ने फोटोशाप करके साझा कर दी। थोड़ी देर में दोस्त शशिधर ने बताया कि ये फोटो फर्ज़ी है। नकली है। मैंने तुरंत हटाया और ग़लती भी मानी। यही नहीं फेक और असली तस्वीर दोनों को एक साथ ट्वीट किया। इस गलती के पीछे सांप्रदियाक रूप से भड़काने या प्रोपेगैंडा करने की मंशा नहीं थी। फासिस्टों के ख़िलाफ़ लोग जमा हो रहे थे, इसका संदेश देना ही मेरा मकसद था। फाइनली, जो भी फ़ेक न्यूज़ को एक्सपोज़ करते हैं, उनको सलाम । मेरी ख़्वाहिश है कि उनकी संख्या और भी ज़्यादा हो।Satyendra PShttp://www.blogger.com/profile/06700215658741890531noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3124261744486772692.post-32861747300993167692017-04-26T23:26:00.000-07:002017-04-26T23:30:06.972-07:00धूल फांक रही हैं मंडल आयोग की 40 में से 38 सिफारिशें<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
</div><b>सत्येन्द्र पीएस </b><br />
<br />
<i>"गरीब का आंसू कुछ समय तक तो आंसू रहता है, लेकिन वही आंसू फिर तेजाब बन जाता है जो इतिहास के पन्नों को चीर करके धरती पर अपना व्यक्तित्व बनाता है। यॆ समझ लीजिए कि गरीब की आंख में जब तक आंसू हैं, आंसू हैं लेकिन जब आंसू सूख जाते हैं तो उसकी आंखें अंगार हो जाती हैं और इतिहास ने ये बताया है कि जब गरीबों की आंखें अंगार होती हैं तो सोने के भी महल पिघल करके पनालों में बहते हैं।" </i><br />
विश्वनाथ प्रताप सिंह, मंडल आयोग की सिफारिशें लागू करने के बाद 15 अगस्त 1990 को लाल किले की प्राचीर से<br />
मंडल आयोग की सरकारी नौकरियों में आरक्षण देने की सिर्फ एक सिफारिश लागू होने पर देश में ऐसा तूफान उठा, मानो अगर 52 प्रतिशत आबादी को कुछ जगह सरकारी नौकरियों में दे दी गई तो देश पर कोई आफत आ जाएगी। जगह जगह धरने प्रदर्शन हुए। कांग्रेस ने पिछले दरवाजे से आरक्षण विरोधियों का समर्थन किया। भाजपा ने कांग्रेस की रणनीति अपनाने के साथ उस समय की विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार को गिरा दिया।<br />
<b><blockquote>बहरहाल अब ओबीसी आरक्षण लागू होने के 25 साल बाद उसकी समीक्षा की मांग उठने लगी है। मंडल आयोग ने भी अपनी सिफारिश में कहा था कि सिफारिशें लागू होने के 20 साल बाद इसकी समीक्षा होनी चाहिए। हालांकि यह नहीं कहा था कि सिर्फ एक सिफारिश लागू करने के बाद ही समीक्षा हो जानी चाहिए कि उसका लाभ हुआ या नहीं। </blockquote></b><br />
<br />
अब जब आरक्षण विरोधी समीक्षा की मांग कर रहे हैं तो आरक्षण का आंशिक लाभ पाने वाला तबका भी आरक्षण की समीक्षा की मांग कर रहा है। अब वह तबका 100 प्रतिशत लेने और शेष 15 प्रतिशत आबादी को आरक्षण देने की मांग कर रहा है। शायद इंतजार करते करते गरीब के आंसू सूख चुके हैं।<br />
<a href="https://youtu.be/x94cu5gKiew"><i>"देश के 85 ओबीसी, एससी, एसटी अब 50 % पर नहीं मानने वाले, अब ये हर क्षेत्र में 100 % लेंगे। उसके बाद मानवता के आधार पर तुम्हे 15 % की भीख देंगे।"</i></a><br />
हिंदुत्व और मनुवाद की प्रयोगशाला बने उत्तर प्रदेश के गोरखपुर से आरक्षण को लेकर उठी डॉ हितेश सिंह की यह आवाज संदेश देती है। <br />
इस समय आरएसएस के विचारकों की ओर से रह रहकर आरक्षण की समीक्षा की बात होती है। अब नए तरह की समीक्षा सामने आई है कि आखिर संविधान में प्रावधान होने के बावजूद बेईमानी क्यों हो रही है। जिन लोगों का जातीय आधार पर सदियों से शोषण किया गया उनके लिए थोड़ा सा स्पेस देने में दिक्कत क्यों आ रही है ?<br />
<b><br />
<blockquote>यह सवाल उठना ऐसे दौर में लाज़िम है जब विभिन्न रिपोर्ट आ रही हैं कि देश के विश्व विद्यालयों, सरकारी संस्थानों, सरकारी विभागों में आरक्षण होने के बावजूद न तो 22.5 % sc, st का कोटा भरा है और न ही 27 % ओबीसी का कोटा भरा है। केंद्रीय सेवाओं में ओबीसी का प्रतिनिधित्व वर्ष 2016 में 14 फीसदी तक सिमट कर रह गया है। हालांकि वर्ष 2016 के ये आंकड़े 33 मंत्रालयों/विभागों के हैं, बाकी विभागों ने इस संदर्भ में रिपोर्ट डीओपीटी को नहीं दी है।</blockquote></b><br />
<br />
1931 की जनगणना के आधार पर मंडल आयोग ने 1980 में पेश अपनी रिपोर्ट में अनुमाम लगाया था कि देश में ओबीसी आरक्षण में आने वाली गैर द्विज जातियों की आबादी 52 प्रतिशत है। 1993 में मंडल आयोग की सिर्फ एक सिफारिश लागू की गई। 2008 में अर्जुन सिंह जब मानव संसाधन मंत्री थे तब एक और सिफारिश लागू हुई। शेष करीब 38 सिफारिशें धूल फांक रही हैं। उनको पूछने वाला कोई नहीं है।<br />
<br />
<b><blockquote>इतनी कम सुविधा में भी सदियों से सुविधा भोग रहे सुविधा भोगियों का कलेजा फटने लगा। सिर्फ 2 सिफारिशें लागू की गई। परिणाम यह हुआ कि ओबीसी तबके को बहुत सीमित लाभ हुआ। कुछ बच्चे पढ़ पाए। आरक्षण मिल रहा है और हमे भी जगह मिल सकती है इस उत्साह में तमाम बच्चे नौकरियां हासिल करने में सफल रहे, लेकिन सीमित दायरे में।</blockquote></b><br />
<br />
<i>मंडल आयोग ने नौकरियों में आरक्षण की सिफारिश में यह भी लिखा था, “हमारा यह तर्क नहीं है कि ओबीसी अभ्यर्थियों को कुछ हजार नौकरियां देकर हम देश की कुल आबादी के 52 प्रतिशत पिछड़े वर्ग को अगड़ा बनाने में सक्षम होंगे। लेकिन हम यह निश्चित रूप से मानते हैं कि यह सामाजिक पिछड़ेपन के खिलाफ लड़ाई का जरूरी हिस्सा है, जो पिछड़े लोगों के दिमाग में लड़ा जाएगा। भारत में सरकारी नौकरी को हमेशा से प्रतिष्ठा और ताकत का पैमाना माना जाता रहा है। सरकारी सेवाओं में ओबीसी का प्रतिनिधित्व बढ़ाकर हम उन्हें देश के प्रशासन में हिस्सेदारी की तत्काल अनुभूति देंगे। जब एक पिछड़े वर्ग का अभ्यर्थी कलेक्टर या वरिष्ठ पुलिस अधीक्षक होता है तो उसके पद से भौतिक लाभ उसके परिवार के सदस्यों तक सीमित होता है। लेकिन इसका मनोवैज्ञानिक असर बहुत व्यापक होता है। पूरे पिछड़ा वर्ग समाज को लगता है कि उसका सामाजिक स्तर ऊपर उठा है। भले ही पूरे समुदाय को ठोस या वास्तविक लाभ नहीं मिलता है, लेकिन उसे यह अनुभव होता है कि उसका “अपना आदमी” अब “सत्ता के गलियारे” में पहुंच गया है। यह उसके हौसले व मानसिक शक्ति को बढ़ाने का काम करता है।”</i> <br />
<br />
अब ज्योतिबा फुले, शाहू जी महराज, भीमराव अंबेडकर, काशीराम से आगे बढ़कर मामला नई पीढ़ी के हाथों में आ गया है। नई पीढ़ी स्वाभाविक रूप से ज्यादा तार्किक और ज्यादा आक्रामक तरीके से अपने हित और अहित की बात सोच रही है। लेकिन इसमें भी पेंच है। पिछड़े वर्ग को यह कहकर बरगलाया जा रहा है कि उसमें जो अमीर हैं, वही सारा लाभ ले जा रहे हैं। जबकि आंकड़े कहते हैं कि 27 प्रतिशत कोटा भी नहीं भरा जा सका है। खुले तौर पर बेइमानी हो रही है और देश की 52 प्रतिशत आबादी को अभी भी सुविधाओं से वंचित किया जा रहा है। <br />
<br />
<b><blockquote>निजी क्षेत्र में स्थिति और भयावह है। जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर सुखदेव थोराट के एक अध्ययन के मुताबिक निजी क्षेत्र में उन आवेदकों के चयनित होने की संभावना बहुत कम होती है, जिनकी जातीय टाइटल से यह पता चलता है कि वह अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति या पिछड़े वर्ग से आते हैं। </blockquote></b><br />
<br />
भेदभाव को इस तरह भी समझा जा सकता है कि ओबीसी, एसटी, एसटी के लोग बड़े पैमाने पर अपनी जाति छिपाते हैं। उच्च जाति यानी क्षत्रिय या ब्राह्मण होने के दावे करते हैं। उन दावों के समर्थन में हजारों तर्क इतिहास और भूगोल से खोदकर लाते हैं। लेकिन उच्च जाति होने का दावा और तर्क उनके जातीय समूह तक ही सिमटा होता है। समाज का कोई अन्य तबका, अन्य जाति उनके दावे को नहीं मानता और उस दावे का मजाक ही उड़ाता है। <br />
<blockquote><b>उदाहरण के लिए उत्तर प्रदेश की दो सशक्त पिछड़ी जातियां अहिर और कुर्मी खुद को क्षत्रिय होने का दावा करती हैं। लेकिन क्षत्रिय या ब्राह्मणों द्वारा उनके क्षत्रिय माने जाने की बात तो दूर, इनको कोई बढ़ई, लोहार, बरई, तेली तमोली, चमार, ढाढ़ी भी क्षत्रिय नहीं मानता। यह व्यावहारिक बात है। लेकिन इसके बावजूद यह तबका अपनी जाति ऊंची बताने, अपनी जाति व टाइटिल छिपाने की कवायद में रहता है कि सत्तासीन अपर कास्ट शायद इन्हें धोखे में ही सही, कुछ लाभ पहुंचा दे। </b></blockquote>मुस्लिम समुदाय के प्रति भेदभाव की खबरें तो अक्सर आती रहती हैं। ऐसे में निजी क्षेत्र में आरक्षण भी एक महत्त्वपूर्ण मसला बन गया है, जिससे बहुसंख्यक आबादी को मुख्य धारा में शामिल किया जा सके। <br />
कुल मिलाकर मौजूदा सत्तासीन दल भाजपा और उसके संरक्षक आरएसएस की पृष्ठभूमि देखें तो पिछड़े वर्ग के आरक्षण का विरोध का इनका लंबा इतिहास रहा है। अनुसूचित जाति के आरक्षण को तो इन्होंने बर्दाश्त कर लिया, लेकिन पिछड़ा वर्ग इन्हें कतई बर्दाश्त नहीं है। <br />
सरकार की नीतियां भी इस ओर इशारा करती हैं। किसानों की तरह तरह की मांगों पर सरकार बिल्कुल ध्यान नहीं दे रही है। सरकारी नौकरियां खत्म की जा रही हैं। जो सरकारी पद खाली हैं, उनकी वैकेंसी नहीं आ रही है। निजी क्षेत्र में संभावनाएं कम हो गई हैं। <br />
ऐसे में देश के पिछड़े वर्ग के लोग भी संगठित हो रहे हैं। पिछड़े वर्ग में आज भी किसान, छोटे मोटे कारोबार करने वाले, लघु व कुटीर उद्योग चलाने वाले लोग हैं। आज इस तबके की बर्बादी किसी से छिपी हुई नहीं है। इस तबके की ओर से असंगठित रूप से ही सही, विरोध हो रहा है। लोग विरोध में सड़कों पर उतर रहे हैं। इसकी पूरी संभावना है कि आने वाले दिनों में आंदोलन और तेज हो सकता है। <br />
<br />
<br />
https://youtu.be/x94cu5gKiew<br />
<br />
<br />
https://youtu.be/x94cu5gKiew<br />
<br />
<br />
Satyendra PShttp://www.blogger.com/profile/06700215658741890531noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3124261744486772692.post-25465150799701412812017-03-18T14:24:00.000-07:002017-03-18T14:24:02.737-07:00टेक सेवी मोदी और उनकी ढाई कदम की चाल से पस्त विपक्ष<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
</div><b>सत्येन्द्र पीएस</b><br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEihz_FN0QzYq6XYWnR_moVb8_ur902GzzkcaITLwc7_16pGkAsBNAJ9ZzYXa-NixmDNvjj7cDNVuFSANbbsLVjVKjMXT-QitjRV-tUWC_m9DV6TbsaB0nsyZfMUsfsWy6yCqilPRc5iayk/s1600/satyendra2020.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEihz_FN0QzYq6XYWnR_moVb8_ur902GzzkcaITLwc7_16pGkAsBNAJ9ZzYXa-NixmDNvjj7cDNVuFSANbbsLVjVKjMXT-QitjRV-tUWC_m9DV6TbsaB0nsyZfMUsfsWy6yCqilPRc5iayk/s320/satyendra2020.jpg" width="320" height="320" /></a></div>मैंने सबसे पहले नरेंद्र मोदी से सेल्फी शब्द सुना था। उसके बाद गूगल में खोजने पर पता चला कि मोबाइल में फ्रंट कैमरे आ गए हैं, उससे खुद की फोटो लेने को सेल्फी कहते हैं। हालांकि सेल्फी शब्द की हिंदी मैं उस समय नहीं खोज पाया था। <br />
यह उस समय की बात है, जब मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे। मोदी पर तमाम आर्टिकल और टीवी शो मैंने देखा। कई में यह बताया गया था कि मोदी शुरू से बहुत ज्यादा टेक सेवी हैं। वह लैपटॉप का इस्तेमाल करते हैं। अत्याधुनिक मोबाइल फोन रखते हैं। सोशल नेटवर्किंग साइट पर मौजूद रहते हैं। <br />
<br />
<b><i>हालांकि सबसे पहले ट्विटर के बारे में कांग्रेस के नेता शशि थरूर के माध्यम से मुझे जानकारी मिली थी। लेकिन कुछ महीनों बाद यह जानकारी आने लगी मोदी के ट्विटर पर फॉलोवर बहुत तेजी से बढ़ रहे हैं। उस समय ट्वीट नया नया ही था। ब्लॉग, फेसबुक होते हुए हम ट्विटर की ओर बढ़े थे। भारतीय नेताओं में टेक्नोलॉजी, सोशल साइट्स के मामले में मोदी सबसे तेज हैं। </i></b><br />
<br />
लोकसभा चुनाव जब शुरू हुआ तो मोदी ने फेसबुक और ट्विटर के माध्यम से प्रचार शुरू किया। कांग्रेस शासन काल में उन्होंने मीडिया के खिलाफ माहौल बनाने के साथ मीडिया को अपने पक्ष में बखूबी किया। बड़ी संख्या में अपने फॉलोवर तैयार किए। उस समय तक कांग्रेस या किसी अन्य भारतीय दल को यह एहसास नहीं था कि चुनाव ट्विटर और फेसबुक के माध्यम से लड़ा जा सकता है। राजनेता इसे हल्के में ले रहे थे और मोदी अपनी टेक टीम के साथ इसका बखूबी इस्तेमाल कर रहे थे। किसे ट्रोल कराना है, किस मीडिया पर्सन को निशाना बनाना है, यह पूरी टीम भावना के साथ तय होता था। जिस पर हमला करना है, उसे लहूलुहान और पस्त करने तक उसका पीछा किया जाता था। टीम कोई भी मसला छोड़ती और फेसबुक और ट्विटर पर फॉलोवर बने समर्थक इसे बहुत तेजी से लपक लेते। साथ ही तरह तरह की गालियों की बौछार शुरू होती और अगर कोई अन्य दल या विचारधारा का समर्थक होता तो वह भाग खड़ा होता।<br />
<br />
<i><b>राजनीतिक दलों में सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर मोदी समर्थकों का सबसे तेजी से आम आदमी पार्टी व उसके समर्थकों ने किया। तेजी से फेसबुक पर सदस्य बनाए। मिस्ड कॉल से पार्टी का कार्यकर्ता बनाकर लोगों के मोबाइल डेटा बेस तैयार किए। हालांकि पहले से आधार न होने की वजह से पार्टी सिर्फ दिल्ली तक सिमटी रह गई।</b> </i><br />
<br />
केंद्र में जब भाजपा सत्ता में आई और मोदी प्रधानमंत्री बने तो थोड़ा बहुत कांग्रेस की भी तंद्रा टूटी और वह भी सोशल साइट्स की ओर चली। यू ट्यूब पर विज्ञापन देना भी कांग्रेस ने शुरू किया। लेकिन रफ्तार बहुत सुस्त रही। लालू प्रसाद, नीतीश कुमार, अखिलेश यादव सहित तमाम दलों ने सोशल साइट्स का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। सोशल साइट्स इतनी प्रसिद्ध हो गईं कि राजनीतिक दल और सरकार भी ट्विटर और फेसबुक से खबरें देने लगे। आज हम इस दौर में जी रहे हैं कि तमाम खबरें और खबरों के लिए कोट्स ट्विटर से मिलते हैं। पार्टियों की ओर से जारी होने वाली प्रेस विज्ञप्ति और नेताओं के बयान की जगह ट्विटर पर किए गए उनके ट्वीट ही खबरों में बदल चुके हैं। हर अखबार, टीवी चैनल के बीट रिपोर्टर की नजर ट्विटर पर होती है। <br />
<br />
उत्तर प्रदेश का चुनाव आते आते करीब सभी दल सोशल साइट्स पर सक्रिय हो गए। समाजवादी पार्टी ने जहां सोशल साइट्स के लिए पूरी टीम लगा दी, वहीं बसपा के समर्थकों ने भी मोर्चा संभाल लिया। वहीं मोदी ने फिर नई रणनीति अपनाई। फेसबुक और ट्विटर तो पार्टी समर्थकों पर छोड़ दिया गया, जिन्हें समाज में “भक्त” के नाम से जाना जाता है। <br />
<br />
<blockquote>भक्त ऐसे तत्व होते हैं, जो बेरोजगार या रोजगार पाए युवा, बुजुर्ग, सेवानिवृत्त व्यक्ति कोई भी हो सकते हैं। इनका न तो पार्टी से कोई लेना देना होता है, न नीतियों से। प्रशासन से इन लोगों का काम कम ही पड़ता है। मोदी से भी इन्हें कोई खास काम नहीं है। भक्तों की चिंता सिर्फ कथित 'राष्ट्र' होता है। वह राष्ट्र की माला जपते हैं और उनका एक सूत्री कार्यक्रम होता है कि मोदी की प्रशंसा करें। </blockquote><br />
उत्तर प्रदेश के चुनाव में फेसबुक और ट्विटर को इसी तरह के भक्तों पर छोड़ दिया गया, जो सपा और बसपा की टीमों से लगातार मोर्चा संभाले रहे।<br />
<br />
<blockquote>राजनीतिक विश्लेषक अश्विनी कुमार श्रीवास्तव लिखते हैं कि भाजपा के ध्रुवीकरण की शातिर चाल में बसपा फंस गईं। उनका मानना है कि ध्रुवीकरण की रणनीति भाजपा ने पहले ही बना ली थी और इसके तहत मुस्लिमों को एक भी टिकट नहीं दिया। साथ ही गैर यादव पिछड़ा वर्ग, जो बसपा का बड़े पैमाने पर आधार वोट रहा है, उसे लुभाने की कवायद की। इस घाटे की भरपाई के लिए मायावती को मुस्लिम वोट खींचने की कवायद करने के लिए बाध्य किया। मायावती इस ट्रैप में फंस गईं और ज्यादा मुस्लिम उम्मीदवारों को टिकट देने का काम किया। इससे भाजपा को खुद को हिंदूवादी साबित करने व अति पिछड़े तबके को हिंदू बनाने का मौका मिला और वह पूरी तरह से अपनी इस रणनीति में कामयाब रही।</blockquote><br />
मोदी और उनकी तकनीकी पेशेवर टीम ने यूपी चुनाव में ह्वाट्स ऐप पर जोर दिया। लोगों के परिवारों, कार्यालय आदि के ग्रुप बनाने व व्यक्तिगत मैसेज, वीडियो भेजने के लिए व्हाट्स ऐप ने खासी जगह बना ली है। यह सब सेवाएं फेसबुक पर भी उपलब्ध हैं। लेकिन ग्रुप बनाने, इंस्टैंट मैसेजिंग, वीडियो शेयरिंग के मामले में यह ऐप बहुत ही कारगर और उपभोक्ताओं के अनुकूल है। <br />
<br />
मोदी की टीम ने ह्वाट्स ऐप के मुताबिक मैसेज और वीडियो पर जोर दिया। चुनाव के पहले भुगतान वाले ढेरों नेट पैक उपलब्ध थे, लेकिन चुनाव के तीन महीने पहले हाई स्पीड 4जी जियो कनेक्शन मुफ्त मिल गया। यह कनेक्शन मिलते ही ईरान, ईराक, सीरिया और पता नहीं किन किन देशों के वीडियो, तमाम धार्मिक सांप्रदायिक वीडियो स्मार्ट फोन पर आने लगे। जियो का 4 जी धकाधक उसे डाउनलोड और अपलोड करने में मदद करने लगा। <br />
<br />
<i><b>मैसेज सभी वही थे, जो आरएसएस अपने जन्म के समय से ही प्रसारित करता रहा है। इसमें नेहरू के मुस्लिम परिवार के होने से लेकर चौतरफा हिंदुओं पर हमले होने के मामले, अगले दो दशक में हिंदुओं के खत्म होने और मुसलमानों के बहुसंख्यक होने, विपक्षी नेताओं पर अश्लील चुटकुले, टिप्पणियां और वीडियो भेजने का काम बहुत बहुत तेजी से हुए। </b></i><br />
<br />
इस खेल को विपक्ष उस तेजी से नहीं समझ पाया, जितनी तेजी से उसे समझना चाहिए था। मिस्ड कॉल वाली सदस्यताओं ने पार्टी को बहुत बड़ी संख्या में मोबाइल डेटा बेस दिया और इन मोबाइलों पर भारी मात्रा में ध्रुवीकरण करने वाले मैसेज, वीडियो, चुटकुले, टिप्पणियां बड़े पैमाने पर लोगों को पहुंचाई गईं। <br />
<br />
इस तरह से तकनीक के मामले में मोदी ने एक बार फिर साबित कर दिया कि हमारी उभरती युवा पीढ़ी और टेक्नोक्रेट्स की तुलना में वह 62 साल की उम्र में भी बुड्ढे नहीं हुए हैं। <br />
<br />
और भाजपा ने उत्तर प्रदेश को 403 में से 325 सीटें जीतकर भारी बहुमत के साथ अपनी झोली में डाल लिया। विपक्ष के लिए बचा जाने माने शायर मोहम्मद इब्राहिम जौक का यह शेर..<br />
कम होंगे इस बिसात पे हम जैसे बद-क़िमार<br />
जो चाल हम चले सो निहायत बुरी चले<br />
<br />
(इस पर एक अलग लेख बनता है कि जब 2009 की हार के बाद जीवीएल नरसिम्हाराव इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन के खिलाफ लेख लिखने, लाल कृष्ण आडवाणी इसके विरोध प्रदर्शन में व्यस्त थे तो मोदी किस कदर खामोश रहे। उन्हें तो जैसे कोई फॉर्मूला मिल गया था। 2009 के लोकसभा चुनाव के बाद गुजरात में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन से जब निकाय चुनाव हुए तो भाजपा ने 70 प्रतिशत के करीब वोट हासिल कर एकतरफा निकाय चुनाव जीता था।)<br />
Satyendra PShttp://www.blogger.com/profile/06700215658741890531noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3124261744486772692.post-19060299846615887342017-03-11T23:50:00.000-08:002017-03-11T23:54:42.080-08:00बसपा क्यों हारी?<blockquote>“हम लोग बसपा को वोट देते रहे हैं। कई दशक से। ब्राह्मणवाद के खिलाफ हमारे परिवार ने अपना सब कुछ दांव पर लगा दिया। मायावती अब सतीश मिश्रा की गोदी में खेलती हैं। जिन ब्राह्मणवादियों से हम लड़ते थे, वो हमें गालियां देते हैं कि देखिए आपकी नेता क्या कर रही हैं। दलित हमें गाली देते हैं कि ये ब्राह्मणवाद की पालकी ढोते हैं। हमारे ऊपर चौतरफा मार पड़ रही है। अब बसपा को वोट देने का क्या मतलब बनता है?”</blockquote>यह पिछड़े वर्ग के बहुजन समाज पार्टी (बसपा) समर्थक का बयान है। इसमें कुछ गालियां जोड़ लें, जिन्हें हिंदी भाषा की बाध्यता के चलते यहां नहीं लिखा गया है। <br />
<blockquote>“छोटी जातियों के लोग बहुत खुश हैं। उनको लगता है कि ब्राह्मण, ठाकुर और बड़े लोग नोटबंदी से पूरी तरह बर्बाद हो गए हैं। उन्हें अपना फल, सब्जियां, दूध फेकना पड़ा। रिक्शेवालों की कमाई घट गई। फिर भी उन्हें आंतरिक खुशी है कि मोदी जी ने ऐसी चाल चली कि ब्राह्मण ठाकुर बर्बाद हो गए। नोटबंदी पूरी तरह भाजपा के पक्ष मे जा रही है।”</blockquote>यह भारतीय जनता पार्टी के उत्तर प्रदेश के एक बड़े नेता का बयान है। यह पूछे जाने पर कि उत्तर प्रदेश में नोटबंदी का क्या असर है, खासकर ग्रामीण इलाकों में, तो उन्होंने यह जवाब दिया था। <br />
<br />
करीब 2 महीने पहले के यह बयान सुनकर यह संकेत मिल रहे थे कि उत्तर प्रदेश में क्या हो सकता है। उत्तर प्रदेश घूम रहे तमाम लोग भी यह सूचना दे रहे थे कि बसपा बुरी तरह हार रही है। यह सूचनाएं व बयान देने वालों की निजता की रक्षा के लिए जरूरी है कि उनके नाम न लिखे जाएं। हां, उल्लेख करना इसलिए जरूरी है कि जमीनी हकीकत का पता चल सके और लोग रूबरू हो सकें कि आखिर हार की क्या वजह है। बसपा ने ऐसा क्या कर दिया, जिसकी वजह से उसके खिलाफ आंधी चली। अगर उत्तर प्रदेश चुनाव में भाजपा के समर्थन में आंधी चली है तो यह भी मानना होगा कि बसपा के खिलाफ भी उतना ही तगड़ा तूफान था। और बसपा उड़ गई।<br />
उत्तर प्रदेश चुनाव को लेकर मेरी राय बड़ी स्पष्ट थी। तमाम साथी, समीक्षक यह मानकर चल रहे थे कि त्रिशंकु विधानसभा होगी। मैंने यह बार बार दोहराया कि त्रिशंकु की कोई स्थिति उत्तर प्रदेश में नहीं है। या तो बसपा 300 पार कर जाएगी, या भाजपा। इन दोनों दलों में से इस चुनाव में एक का बर्बाद होना निश्चित है। ऐसा अनुमान लगाने की बड़ी वजह उपरोक्त दो बयान थे, जिसमें नोटबंदी का सार्थक असर और बसपा समर्थक पिछड़े वर्ग के मतदाताओं का बसपा के प्रति वैचारिक घृणा थी। बसपा के लोगों का कहना था कि उनके कुछ पिछड़े वोट भाजपा की ओर जा रहे हैं, लेकिन ब्राह्मण प्रत्याशियों को मिलने वाले वोट और मुस्लिम वोट मिलकर इसे कवर कर लेंगे। ऐसे में मेरी स्पष्ट राय थी कि अगर ब्राह्मण और मुस्लिम वोट एकतरफा बसपा को मिला (हालांकि पुराने अनुभव चींख चींखकर कह रहे थे कि ऐसा नहीं होने जा रहा है) तो वह सबका सूपड़ा साफ करेगी। अगर बसपा के प्रति ओबीसी की नफरत प्रभावी हुई तो वह मत भाजपा की ओर जाएंगे और बसपा पूरी तरह उड़ जाएगी। और वही हुआ।<br />
2007 में विधानसभा चुनाव में जीत के बाद से ही बसपा का समीकरण बदलना शुरू हो गया। पार्टी में निश्चित रूप से तमाम ब्राह्मण व ठाकुर नेता पहले से ही जुड़े हुए थे। लेकिन 2007 में सत्ता में आने के बाद से सतीश मिश्रा पार्टी में अहम हो गए। मायावती जब भी कोई प्रेस कान्फ्रेंस या आयोजन करतीं, सतीश मिश्र वहां खड़े नजर आते। इतना ही नहीं, उसके बाद हुए चुनावों में सतीश मिश्रा के रिश्तेदारों, परिवार वालों को जमकर लाभ पहुंचाया गया, उन्हें टिकट बांटे गए। बसपा का बहुजन, सर्वजन में बदल गया। <br />
सर्वजन में बदलना एक तकनीकी खामी है। सभी के लिए काम करना देवत्व की अवधारणा है। राजनीतिक दलों का एक पक्ष होता है कि उनका झुकाव किधर है। यहां तक भी ठीक था। बसपा की गलती तब शुरू हुई, जब पार्टी ने अति पिछड़े वर्ग की उपेक्षा शुरू कर दी, जो काशीराम के समय से ही पार्टी के कोर वोटर थे। शुरुआत में जब सोनेलाल पटेल से लेकर ओमप्रकाश राजभर जैसे नेता निकाले गए तो उनके समर्थकों ने यह मान लिया कि व्यक्तिगत महत्त्वाकांक्षा के चलते इन नेताओं को निकाल दिया गया है। बाद में पिछड़ों की यह उपेक्षा संगठनात्मक स्तर पर भी नजर आने लगी। टिकट बटवारे में यह साफ दिखने लगी। <br />
बसपा ने 2012 में सर्वजन समाज के जातीय समीकरण के मुताबिक टिकट बांटना शुरू किया। करारी शिकस्त के बाद भी पार्टी नहीं संभली और 2014 के लोक सभा चुनाव में भी उसी समीकरण पर भरोसा किया। 2017 के विधानसभा चुनाव में पार्टी पूरी तरह से और खुलेआम कांग्रेस के ब्राह्मण दलित मुस्लिम समीकरण पर उतर आई। टिकट बंटवारे में यही दिखाया गया कि कितने मुस्लिमों और कितने ब्राह्मणों को टिकट दिए गए। <br />
बसपा या मायावती के लिए ब्राह्मण, मुस्लिम और दलित समीकरण बिल्कुल मुफीद नहीं लगता। कांग्रेस के लिए तो यह ठीक है। वहां नेतृत्व ब्राह्मण का होता है, जहां मुस्लिम और दलित खुशी खुशी नेतृत्व स्वीकार करते रहे हैं। जहां बसपा नहीं है, वहां देश भर में कांग्रेस का आज भी यही समीकरण सफलता पूर्वक चल रहा है। लेकिन बसपा के साथ दिक्कत यह है कि ब्राह्मण या मुस्लिम कभी दलित नेतृत्व नहीं स्वीकार कर सकता, क्योंकि वह शासक जाति रही है। बसपा के रणनीतिकारों ने न सिर्फ 2017 के विधान सभा चुनाव में यह चूक की है, बल्कि 2012 के विधानसभा चुनाव और 2014 के लोकसभा चुनाव में भी यही किया था। बसपा बुरी तरह फेल रही। <br />
काशीराम का समीकरण बड़ा साफ था कि जिसकी जितनी संख्या भारी, उसकी उतनी हिस्सेदारी। उन्होंने पिछड़े वर्ग को लठैत बनाया। दलित तबका उस समय लाठी उठाने को तैयार नहीं था। ऐसे में दलितों का वोट और पिछड़ों की लाठी का समीकरण बना। काशीराम तक पिछड़ा वर्ग दलितों के रक्षक की भूमिका में था। लेकिन जैसे ही मायावती के हाथ सत्ता आई, सतीश मिश्र की भूमिका बढ़ी। पिछड़े वर्ग की लठैती वाली भूमिका खत्म हो गई। पिछड़े नेता एक एक कर निकाले जाते रहे। दलित समाज का नव बौद्धिक वर्ग पिछड़ों को ब्राह्मणवाद की पालकी ढोने वाला बताता रहा। पिछड़ों की बसपा के प्रति नफरत बढ़ती गई। उसकी चरम परिणति 2017 के विधानसभा चुनाव में दिखी। <br />
समाजवादी पार्टी का तो भविष्य करीब करीब पहले से ही साफ था। सोशल मीडिया से लेकर जमीनी स्तर तक उसके सिर्फ यादव समर्थक बचे। यादवों में भी जिन लोगों ने इलाहाबाद में त्रिस्तरीय आरक्षण की लड़ाई लड़ी या जेएनयू में अधिकारों के लिए संघर्ष कर रहे युवा सपा से उम्मीद छोड़ चुके थे। पारिवारिक कलह पहले से ही कोढ़ में खाज बन चुकी थी। ऐसे में उसका बेड़ा गर्क होना तय था। <br />
मायावती का कहना है कि ईवीएम के साथ छेड़छाड़ हुई। यह सही भी हो सकता है, गलत भी हो सकता है। तकनीक के इस युग में ईवीएम सेट करना शायद संभव हो कि आप बसपा को वोट करें और वह भाजपा को चला जाए। लेकिन यह कहकर कछुए की तरह अपनी खोल में गर्दन छिपा लेने से जान बचने की संभावना कम है।<br />
<blockquote>पूर्वांचल के जाने माने छात्र नेता पवन सिंह कहते हैं कि बसपा को अति पिछड़े वर्ग का वोट नहीं मिला है। मुस्लिमों का भी वोट नहीं मिला है। यह पूछे जाने पर कि क्या आपके पास बूथ स्तर पर आंकड़ा है कि ऐसा हुआ है ? या मीडिया में चल रही खबरों के आधार पर ऐसा कह रहे हैं, उन्होंने कई गांवों के आंकड़े गिना डाले। उन्होंने दावा किया कि जिस विधानसभा में वह मतदाता हैं, उनके तमाम गांवों के आंकड़ों से यही लगता है कि अति पिछड़े वर्ग का एकतरफा वोट भारतीय जनता पार्टी को मिला है, जबकि मुस्लिम वोट समाजवादी पार्टी के प्रत्याशी को मिला है। उनका कहना है कि ऐसी स्थिति कमोबेश पूर्वी उत्तर प्रदेश के हर जिले में रही है। साथ ही वह बताते हैं कि ब्राह्मण बनिया और कायस्थ का एकमुश्त वोट भारतीय जनता पार्टी को मिला है। उन्होंने कहा कि भाजपा से जीतने वाले उम्मीदवार ऐसे हैं, जिन्हें विधानसभा में कितनी पंचायतें, कितने थाने हैं, यह भी नहीं पता होगा, जनता से उनका कोई लेना देना नहीं है, लेकिन मोदी के नाम पर वोट पड़ा है। सभी भाईचारा खत्म हो गया। किसी के लिए काम कराना, किसी के सुख दुख में शामिल होना कोई फैक्टर नहीं रहा, सिर्फ और सिर्फ मोदी के लिए लोगों ने अपना प्रेम दिखाया। </blockquote>उनका कहना है कि कथित सवर्ण जातियों को तो उनकी मनचाही जातीय पार्टी मिल ही गई थी। हालांकि पवन सिंह ठाकुरों के बारे में कुछ भी नहीं कहते कि वह किधर गए।<br />
<blockquote>बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के लिए संघर्षरत एचएल दुसाध कहते हैं कि इन दलों को अपने मुद्दे पर लौटना होगा, दूसरा कोई रास्ता नहीं है कि यह दल अपने को बचा सकें। परिवार और जाति से ऊपर उठकर वंचित तबके की राजनीति करनी होगी। उनकी रोजी रोजगार के लिए लड़ना होगा, तभी यह दल फिर से जगह बना सकते हैं।</blockquote>बहरहाल बसपा को अब शून्य से नहीं दोहरे शून्य से शुरुआत करनी है। एक लोकसभा का शून्य, और अब उसमें विधानसभा का भी शून्य जुड़ गया। सपा का भी कमोबेश यही हाल है। सपा और बसपा को कम से कम यह समझना होगा कि सामाजिक न्याय की राजनीति, हिस्सेदारी की राजनीति ही बचा सकती है। जातीय समीकरण बनाना न सपा के लिए संभव है और न बसपा के लिए। भाजपा और आरएसएस स्वाभाविक ब्राह्मणवादी राजनीतिक संगठन है। वह 5,000 साल से जाति के खिलाड़ी रहे हैं। उन्होंने पूरे समाज को 10,000 से ज्यादा जातियों में बांट रखा है। जाति पर चुनाव खेलने पर वही जीतेंगे। <br />
<br />
<b>बल्ली सिंह चीमा की कुछ पंक्तियां बहुत सामयिक हैं</b><br />
<i>तय करो किस ओर हो तुम, तय करो किस ओर हो<br />
आदमी के पक्ष में हो या कि आदमखोर हो।<br />
खुद को पसीने में भिगोना ही नहीं है जिंदगी<br />
रेंगकर मर-मर के जीना ही नहीं है जिंदगी<br />
कुछ करो कि जिंदगी की डोर न कमजोर हो<br />
तय करो किस ओर हो तुम, तय करो किस ओर हो<br />
खोलो आंखें फंस न जाना तुम सुनहरे जाल में,<br />
भेड़िये भी घूमते हैं आदमी की खाल में, <br />
जिंदगी का गीत हो या मौत का कोई शोर हो। <br />
तय करो किस ओर हो तुम, तय करो किस ओर हो।<br />
सूट और लंगोटियों के बीच युद्ध होगा जरूर<br />
झोपड़ों और कोठियों के बीच युद्ध होगा जरूर<br />
इससे पहले युद्ध शुरू हो, तय करो किस ओऱ हो<br />
तय करो किस ओर हो तुम, तय करो किस ओर हो<br />
आदमी के पक्ष में हो या कि आदमखोर हो।</i><br />
<br />
<br />
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
</div>Satyendra PShttp://www.blogger.com/profile/06700215658741890531noreply@blogger.com3tag:blogger.com,1999:blog-3124261744486772692.post-91529967705447427462016-09-17T11:11:00.001-07:002016-09-17T11:11:57.979-07:00गोरक्षा के नाम पर शर्मसार होती मानवता<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
</div><b>सत्येन्द्र पीएस</b> <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj-mb-VLGylT1Wo4zx46hRwXbSHWbDGqyhPYKvzDz4ukz9hf6O-u5zE6teIgpL6ColjFivNl0sYRzqtCPmwJ2GxqwApBoWP9Ps_X5x-5PpF39cZ6ko0zDQmcPOUCZzRpL-1J9OBJAqxouU/s1600/satp1.jpg" imageanchor="1" style="clear: left; float: left; margin-bottom: 1em; margin-right: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEj-mb-VLGylT1Wo4zx46hRwXbSHWbDGqyhPYKvzDz4ukz9hf6O-u5zE6teIgpL6ColjFivNl0sYRzqtCPmwJ2GxqwApBoWP9Ps_X5x-5PpF39cZ6ko0zDQmcPOUCZzRpL-1J9OBJAqxouU/s320/satp1.jpg" width="240" height="320" /></a></div><br />
<br />
गोरक्षा के नाम पर गुजरात के ऊना में दलितों को बंधक बनाए जाने, बांधकर उनकी पिटाई किए जाने की घटना ने पूरी दुनिया में भारत को शर्मसार किया है। गाय की रक्षा के नाम पर मनुष्यों को मार दिए जाने की घटना दुनिया के किसी भी सभ्य समाज के लिए वीभत्स है।<br />
हालांकि भारत में दलितों का उत्पीड़न नया नहीं है। लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सत्ता में प्रभावी होने पर गोरक्षा कुछ ज्यादा ही जोर पकड़ लेता है। इसके पहले जब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी थी, तब भी हरियाणा में कथित गोरक्षकों ने गाय का चमड़ा उतारने ले जा रहे दलितों की हत्या कर दी थी। <br />
अब दोबारा नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में सरकार बनने और आरएसएस के प्रभावी होने के बाद से गोरक्षक सड़कों पर हैं। देश के तमाम इलाकों से गुंडागर्दी, हत्या, मारपीट की खबरें आनी शुरू हो गईं। उत्तर प्रदेश के दिल्ली से सटे नोएडा इलाके में अखलाक को निशाना बनाया गया। मंदिर की माइक से ऐलान हुआ कि अखलाक के फ्रिज में गाय का मांस रखा है। भीड़ जुटी। उसने फैसला कर दिया। अखलाक को पीट पीटकर मार डाला गया। <br />
उसके बाद पंजाब का एक वीडियो वायरल हुआ, जिसमें ट्रक पर गाय लादकर ले जा रहे कुछ सिखों को कुछ लोग बड़ी बेरहमी से लाठी डंडों से पीट रहे थे। इसके अलावा स्थानीय स्तर पर गाय की रक्षा के नाम पर गाय ले जा रहे लोगों के उत्पीड़न की खबरें आती रहती हैं। गुजरात के उना में मरे जानवर का चमड़ा उतारने ले जा रहे दलितों की पिटाई का वीडियो वायरल होने के कुछ दिनों पहले भी राज्य में कुछ दलितों की पिटाई हो चुकी थी, लेकिन जब ऊना मामले ने तूल पकड़ा तब जाकर उस मामले में आरोपियों को गिरफ्तार किया गया। <br />
साफ है कि कानून की धमक कहीं नहीं दिख रही है। कथित गोरक्षक गुंडों को लगता है कि उनकी सरकार बन गई है और वह हर हाल में सुरक्षित हैं। उन्हें किसी को भी मारने पीटने का पूरा अधिकार मिल गया है। <br />
हालांकि इस बीच प्रधानमंत्री ने एक कार्यक्रम के दौरान अजीबोगरीब बयान दिया। उन्होंने कहा, “मुझे गोली मार दो, लेकिन मेरे दलित भाइयों को मत मारो।” आखिर इसका क्या मतलब निकाला जाए? क्या प्रधानमंत्री के हाथ में कोई ताकत नहीं रह गई है? क्या प्रधानमंत्री कहना चाह रहे हैं कि गोरक्षा के नाम पर पिटाई उचित है और कोई दलित चमड़ा उतारता है उसे पीटने के बजाय प्रधानमंत्री को पीटा जाए? क्या प्रधानमंत्री कानून की रक्षा में सक्षम नहीं हैं? क्या प्रधानमंत्री सीधे अपील नहीं कर सकते कि यह अपराध न किया जाए? क्या प्रधानमंत्री को सचमुच नहीं पता है कि यह कौन कर रहा है? ऐसे तमाम सवाल हैं, जो प्रधानमंत्री के बयान के बाद उठते हैं।<br />
भारत में सदियों से जातीय भेदभाव है। एक जाति विशेष के लोग ही मरे हुए जानवरों को निपटाते हैं। किसान या किसी के घर कोई जानवर मरता है तो उस जाति विशेष के लोगों को पशु के मरने के पहले ही सूचना दे दी जाती है। वह पशुओं को सिवान में ले जाते हैं, उनकी खाल उतारते हैं। खाल बेचने से उन्हें कुछ धन मिल जाता है। हां, गरीबी के दौर में मरे हुए जानवरों का मांस भी वह तबका खाता था, लेकिन अब शायद मांस खाने की स्थिति नहीं है। ओम प्रकाश बाल्मीकि और प्रोफेसर तुलसीराम ने अपने प्रसिद्ध उपन्यासों में खाल उतारने और मरे हुए जानवरों का मांस हासिल करने के लिए गिद्धों और दलित महिलाओं के बीच संघर्ष के बारे में बताया है।<br />
यह कितना दुखद है कि जो काम दलित करते आए हैं, और कोई तबका वह काम करने को तैयार नहीं है, उसके लिए भी उन्हें पीटा जाता है। शायद पीटा जाना हिंदुत्व या हिंदू संस्कृति का एक अभिन्न अंग है, जिसके तहत एक दुश्मन खोजना जरूरी होता है, जिससे हिंदुत्व को बचाना होता है। <br />
इस हिंदुत्व की रक्षा के लिए वह काल्पनिक दुश्मन मुस्लिम हो सकता है, इसाई हो सकता है, दलित हो सकता है, या नास्तिक हो सकता है। कोई भी। कभी भी। कुछ भी। एक दुश्मन होना जरूरी है, जिससे जंग छेड़नी है। जंग इसलिए कि हिंदुत्व बच सके। यह पता नहीं कैसा हिंदुत्व है, जो गाय या मरी हुई गाय की खाल में रहता है, जिसे बचाने की कवायद की जाती है। <br />
हिंदुत्व की रक्षा के अजब गजब रूप और अजब गजब दुश्मन रहे हैं। हिंदू देवी देवता हथियारों से लैस हैं। हर देवी देवता के हाथ में असलहे हैं। मुस्लिम नहीं थे, तब यह देवता धर्म की रक्षा के लिए लड़ते थे। आखिर किससे लड़ते थे? उल्लेख तो मिलता है कि वैदिक यज्ञों में गायों की बलि दी जाती थी। इस बलि प्रथा और खून खराबे की वजह से ही जैन और बौद्ध धर्म का उद्भव हुआ था, जो यज्ञों की हिंसा के पूरी तरह खिलाफ थे। आखिर में वे कौन लोग थे, जो वैदिक हिंसा के विरोधी थे और वैदिक यज्ञों को तहस नहस करने के लिए तत्पर रहते थे। इन्ही राक्षसों से यज्ञों की रक्षा के लिए वैदिक देवता हमेशा हथियार लिए फिरते थे। <br />
अब नए दौर में गोरक्षा का प्रभार कुछ संगठनों ने संभाल लिया है। गोरक्षक दल, गोसेवा दल जैसे कितने संगठन आ गए हैं, जो अभी गोआतंकी बने घूम रहे हैं। <br />
अहम बात यह है कि ऊना की घटना का जोरदार विरोध हुआ। गुजरात ही नहीं, महाराष्ट्र में भी तमाम रैलियां निकलीं। संसद में विपक्षी दलों ने इस मसले को उठाया। वहीं गुजरात में अहमदाबाद से ऊना तक की पदयात्रा और उसके बाद ऊना में सभा का आयोजन हुआ। युवा वकील जिग्नेश शाह इस आंदोलन के अगुआ बनकर उभरे। हालांकि पहले वह आम आदमी पार्टी से जुड़े थे, लेकिन विवादों के बाद उन्होने आम आदमी पार्टी से इस्तीफा देने की घोषणा कर दी। उन्होंने कहा कि सिर्फ दलित आंदोलन उनका मकसद है और गुजरात के आंदोलन में आम आदमी पार्टी की कोई भूमिका नहीं रही है। <br />
इस आंदोलन के बाद गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल को पद छोड़ना पड़ा। भले ही सरकार ने तमाम अन्य वजहें गिनाईं, आनंदीबेन की उम्र का हवाला दिया गया। लेकिन माना जा रहा है कि पाटीदार आरक्षण आंदोलन के बाद दलित आंदोलन ने मुख्यमंत्री के इस्तीफे में अहम भूमिका निभाई। <br />
इन आंदोलनों व विरोध प्रदर्शनों का असर जो भी नजर आ रहा हो, लेकिन भारतीय जनता पार्टी का मातृसंगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सेहत पर इससे कोई असर पड़ता नहीं दिख रहा है। आगरा में 21 अगस्त 2016 को आयोजित एक कार्यक्रम में गोरक्षकों पर उठ रहे सवाल को लेकर संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि गोरक्षा का काम कानून के दायरे में चल रहा है, अगर किसी को शंका होती है तो भला बुरा कह सकता है। उन्होंने कहा कि गोरक्षा के काम ही उनके लिए उत्तर है, जो पहले विरोधी थे वह भी गोरक्षा के काम को देखकर समर्थन में आ गए। भागवत ने कहा कि गोरक्षा की गतिविधियां चल रही हैं और आगे भी चलती रहेंगी, गोरक्षक अच्छा काम कर रहे हैं। आशय साफ है। आरएसएस समाज के ध्रुवीकरण के पक्ष में खड़ा है। गोरक्षा की आड़ में वह सियासी रोटियां सेंकने को तैयार है। उत्तर प्रदेश में अगले साल की शुरुआत में चुनाव होने को हैं और गुजरात मामला अभी शांत नहीं हुआ है। वहीं आरएसएस ने उत्तर प्रदेश के आगरा शहर से साफ संकेत दे लिया कि गोरक्षा के नाम पर जो चल रहा है, वह चलते रहना चाहिए। <br />
प्रधानमंत्री के दलित प्रेम से भी यही छलकता हुआ दिख रहा है। उन्हें अखलाक की घटना स्वीकार्य है, दलितों के ऊपर सीधा हमला स्वीकार नहीं है। परोक्ष रूप से वह इस मामले को हिंदू और मुस्लिम ध्रुवीकरण तक ही सीमित रखना चाहते हैं। दलितों व पिछड़ों के बारे में प्रधानमंत्री की सोच का पता उनके 23 अगस्त 2016 के दिल्ली के एनडीएमसी हॉल में सभी 29 राज्यों और 7 केंद्रशासित प्रदेशों से आए पार्टी के नेताओं के सम्मेलन में दिए गए बयान से चलता है। मोदी ने कहा कि राष्ट्रवादी तो हमारे साथ हैं, हमें दलित और पिछड़ों को साथ लाना है। शायद उनका आशय यह था कि अपर कास्ट राष्ट्रवादी होता है और दलित पिछड़े अराष्ट्रवादी, राष्ट्रदोही या कुछ और हैं। वे राष्ट्रवादी नहीं हैं और उन्हें राष्ट्र से शायद कोई प्रेम नहीं है।<br />
कुल मिलाकर सरकार का रोना धोना और दलित उत्पीड़न की घटनाओं का विरोध जताना एक दिखावटी कवायद ज्यादा बन गई है। शायद भाजपा आरएसएस और उनके अनुषंगी संगठनों को यह संदेश साफ जाता है कि उन्हें किसे पीटना है और किसके खिलाफ गुंडागर्दी करनी है। गुजरात में ऐसा हुआ भी। प्रधानमंत्री के लाख रोने गाने के बावजूद जब ऊना में दलित रैली खत्म हो रही थी तो दलितों पर हमले हो गए। दरबार यानी काठी दरबार गुजरात के क्षत्रिय हैं जिनकी सौराष्ट्र में कभी 250 से ज्याीदा रियासतें हुआ करती थीं। इस समुदाय ने ऊना की रैली से लौटते दलितों पर लाठी, तलवार और बंदूक से हमला किया।<br />
गुजरात में दलित चेतना नई बात नहीं है। बड़ौदा के महाराज सयाजी राव गायकवाड़ ने 1882-83 में सभी के लिए अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान कर दिया था और बड़ौदा, नवसारी, पाटन व अमरेली में चार अंत्यएज स्कू ल व हॉस्टाल खुलवाए थे। 1939 में उनकी मृत्यु हुई। उसके बाद 1931 में बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर के अहमदाबाद आगमन के बाद से यहां आंबेडकरवादी विचारधारा का जो काम चालू हुआ, वह अभी जमीनी स्तसर पर चालू है। गुजरात में दलितों के घर में बाबा साहेब की तस्वींरों लगी हुई नजर आती हैं। कांग्रेस का मजदूर महाजन संघ, आर्य समाज, आंबेडकर का बनाया शेड्यूल कास्टी फेडरेशन, कांग्रेस का हरिजन सेवक संघ, बौद्ध महासंघ आदि तमाम संगठनों के मिले जुले काम ने दलितों की चेतना जगाने का काम किया है। <br />
हालांकि गुजरात में बाबाओं का प्रकोप भी कम नहीं है। सौराष्ट्रस में भी काठियावाड़ के जो दलित हैं, उनमें अस्सीा प्रतिशत जैसलमेर के रामदेवरा धाम के भक्तड हैं। रामदेव स्वािमी जाति से क्षत्रिय थे, लेकिन दलितों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। गुजरात में रामदेव स्वा मी के दो मंदिर हैं। जामनगर से भावनगर तक के दलित वहां हर साल मंडप नामक त्योकहार में जाते हैं और अलग अलग जाति के लोगों के साथ मिलकर पूजा अर्चना करते हैं। इनके अलावा सवैयानाथ से लेकर जालाराम तक तमाम संत हुए, जिनकी भक्ति दलित करते हैं। इसमें संत की जाति नहीं देखी जाती। संतों की आराधना के मामले में दलितों के साथ भेदभाव गुजरात में मिट चुका है। <br />
गुजरात के दलितों के बीच सामाजिक सुधार की जो प्रमुख धारा करीब सौ साल से मौजूद रही है, वह आज कहीं कहीं राष्ट्रावादी राजनीति के रूप में नजर आती है। सौराष्ट्र के दलितों के धर्मगुरु शम्भूतनाथ बापू हैं। वे राज्यिसभा में भाजपा सांसद हैं। पाकिस्तालन के सिंध में भी उनके करीब दो लाख अनुयायी रहते हैं। जाति से वे खुद दलित हैं और दलितों की जमकर हिमायत करते हैं, लेकिन अपनी पार्टी लाइन के खिलाफ कभी नहीं जाते। 21 जुलाई 2016 को राज्यलसभा में शम्भू नाथ बापू ने ऊना मामले पर जोरदार भाषण दिया, लेकिन उनका सामाजिक न्याूय बीजेपी की सत्ता की पुष्टि करने में लगा रहा। कुल मिलाकर दलित या शोषण का मसला अपने राजनीतिक स्वार्थ या विचारधारा के खांचे में बंधा हुआ नजर आता है। <br />
इसके पहले भी गुजरात में दलित आंदोलन हुए हैं। 1980 के आसपास आरक्षण विरोधी आंदोलन हुआ था, जिसमें दलितों को निशाना बनाया गया। उस समय भी दलितों पर कहानियां लिखी गईं, उसे प्रचारित प्रसारित किया गया। दलितों ने प्रतिज्ञा की कि वे मरे जानवरों को नहीं उठाएंगे। हालांकि इसका कोई ठोस परिणाम सामने नहीं आया। तीन साल पहले जूनागढ़ में 80,000 दलितों ने एक साथ बौद्ध धर्म में दीक्षा लेकर तूफान खड़ा कर दिया था। इस पर भी कोई खास हलचल नहीं हुई।<br />
फिलहाल इस आंदोलन से भाजपा के विरोधी खासे खुश हैं। खासकर गुजरात को लेकर कांग्रेस उत्साह में है। आम आदमी पार्टी भी इस मामले को भुनाने में लगी है। दलित वहीं के वहीं खड़े हैं। गुजरात में दलित चेतना अन्य राज्यों की तुलना में ज्यादा ही है। इसके बावजूद कांग्रेस व भाजपा दोनों ने ही दलितों को अलग थलग रखा है। माना जाता है कि दलित ज्यादातर कांग्रेस को अपना वोट देते हैं, लेकिन कांग्रेस के लिए भी गुजरात के दलित वोटर से ज्यादा कुछ नहीं हैं। अनुमान के मुताबिक राज्य में महज 6 प्रतिशत दलित हैं। ऐसे में न तो वह लोकतंत्र में वोट की राजनीति के सशक्त प्रहरी बन पा रहे हैं, न ही अपने संवैधानिक हक का इस्तेमाल कर पा रहे हैं। इन 6 प्रतिशत मतों की अन्य किसी वर्ग मसलन पिछड़े या मुस्लिम या किसी अन्य के साथ लाबीयिंग भी नहीं है, जिससे मतदान के वक्त ये सशक्त मतदाता बनकर कुछ कर दिखाने या राजनीतिक बदलाव लाने में सक्षम हों। <br />
ऊना में दलितों पर हुए हमले और उसके असर को देखने के लिए अभी बहुत कुछ देखना बाकी है। अगर गुजरात के अलावा इसे पंजाब, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र के संदर्भ में देखें, जहां दलितों की निर्णायक आबादी है, तो इसके राजनीतिक निहितार्थ और असर देखना अभी बाकी है।<br />
Satyendra PShttp://www.blogger.com/profile/06700215658741890531noreply@blogger.com1tag:blogger.com,1999:blog-3124261744486772692.post-31750512272927097522016-09-16T14:13:00.000-07:002016-09-16T14:13:15.626-07:00झूठे जग की झूठी प्रीत, कैसी हार और किसकी जीत<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
</div><br />
<br />
<i>(सामाजिक न्याय के पुरोधा एक बार फिर खींचतान में फंस गए हैं। इनसे आस लगाए बैठा समाज निराश है। इन पुरोधाओं से उम्मीद थी कि यह हिंदुत्व, गाय, गोबर और गोमूत्र की राजनीति से निकालकर राह दिखाएंगे, लेकिन यह अपने ही विवादों में फंसे और पतनोन्मुख नजर आ रहे हैं।) </i><br />
<br />
<b>सत्येन्द्र पीएस </b> <div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi7AFceYdio_hgymhyjuptDb05XxrOd-n6f9Qk_XIbfcNfjG6qZfZknVVfKnCQENt-QYnzMXX3J9wyMCzJnkEUS38UGLbLeYTxl0yjByCo2375iQiy0Y9siUmzcNotIO7WeUdsSITxLY1o/s1600/satp1.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEi7AFceYdio_hgymhyjuptDb05XxrOd-n6f9Qk_XIbfcNfjG6qZfZknVVfKnCQENt-QYnzMXX3J9wyMCzJnkEUS38UGLbLeYTxl0yjByCo2375iQiy0Y9siUmzcNotIO7WeUdsSITxLY1o/s320/satp1.jpg" width="240" height="320" /></a></div><br />
उत्तर प्रदेश में सत्तासीन समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव के परिवार में घमासान मची है। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने दो कैबिनेट मंत्रियों गायत्री प्रसाद प्रजापति और राजकिशोर सिंह को बर्ख़ास्त कर दिया। गायत्री जहां मुलायम सिंह के करीबी माने जाते हैं, वहीं राजकिशोर शिवपाल सिंह यादव के खासमखास हैं। इसके पहले भी इस परिवार में कई बार टकराव की स्थिति आई है। <br />
मऊ के विधायक मुख्तार अंसारी को शिवपाल ने सपा में शामिल होने की घोषणा की, वहीं अखिलेश ने इसके खिलाफ बयान दे दिया। आखिरकार मुलायम सिंह के हस्तक्षेप के बाद किसी तरह से बवाल टला। उसके कुछ दिन ही बीते थे कि शिवपाल ने इस्तीफे की पेशकश कर दी। मंत्रियों की बर्खास्तगी पर पार्टी अध्यक्ष मुलायम सिंह की प्रतिक्रिया थी कि यह जानकारी उन्हें समाचार माध्यमों से मिली। <br />
मंत्रियों की बर्खास्तगी के विवाद को 24 घंटे भी नहीं बीते थे कि अखिलेश ने मुख्य सचिव दीपक सिंघल को हटा दिया। सिंघल ने दो महीने पहले ही मुख्य सचिव का पदभार ग्रहण किया था। उनकी जगह प्रमुख सचिव (वित्त) राहुल भटनागर को नया मुख्य सचिव नियुक्त किया गया। सिंघल को शिवपाल का करीबी माना जाता है, जो मुख्य सचिव बनने के पहले सिंचाई विभाग में प्रमुख सचिव थे। सिंचाई विभाग के मंत्री शिवपाल यादव हैं और माना जाता है कि उन्हीं के दबाव में सिंघल को मुख्य सचिव बनाया गया था। सपा के कुछ नेताओं का मानना है कि सिंघल सपा के राज्यसभा सदस्य अमर सिंह द्वारा दिल्ली में दिए गए रात्रिभोज में शामिल हुए थे, जिससे अखिलेश नाखुश थे। <br />
<br />
उधर बिहार में अलग बवाल मचा है। राष्ट्रीय जनता दल के बाहुबली नेता शहाबुद्दीन जेल से रिहा हो गए। छूटते ही उन्होंने कहा कि नीतीश कुमार तो परिस्थितिवश मुख्यमंत्री बने हैं, नेता तो लालू प्रसाद हैं। वहीं नीतीश पर लगातार हमलावर रहे राजद उपाध्यक्ष रघुवंश प्रसाद सिंह ने भी शहाबुद्दीन का समर्थन कर दिया। हमले के बीच नीतीश ने कहा कि उन्हें कौन क्या कहता, उसकी वह परवाह नहीं करते। वहीं जदयू के वरिष्ठ नेता बिजेंद्र प्रसाद यादव व ललन सिंह ने मीडिया से बातचीत कर राजद प्रमुख लालू प्रसाद से अपील की कि गैर जिम्मेदाराना बयान देने वाले नेताओं पर लगाम लगाएं। <br />
<br />
शुक्र है कि लालू प्रसाद का बयान आ गया कि गठबंधन के सर्वमान्य नेता नीतीश कुमार हैं। इसमें कहीं से किसी को संदेह की जरूरत नहीं है। रघुवंश बाबू की लगातार बयानबाजी पर भी उन्होंने अपना पक्ष साफ करते हुए कहा गया है कि पार्टी नेताओं को मीडिया में ऐसी बयानबाजी से बचने को कहा गया है, लेकिन बड़े नेता कुछ न कुछ बोल रहे हैं। हालांकि शहाबुद्दीन के बयान में लालू को कोई खामी नजर नहीं आई और उन्होंने कहा कि अपने दल के प्रमुख की प्रशंसा करना कहीं से गलत नहीं है! <br />
उत्तर प्रदेश और बिहार के यह दो नेता लालू प्रसाद और मुलायम सिंह सामाजिक न्याय के पहरुआ माने जाते हैं। पिछड़े वर्ग के लोग जब भी खुद को पीड़ित या दबा महसूस करते हैं, मुंह उठाकर इन दो नेताओं की ओर देखते हैं। 2014 के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी / आरएसएस की शानदार जीत के बाद जब पिछड़ा तबका हाशिए पर महसूस करने लगा तो उसने इन नेताओं की ओर देखा। बिहार में विधान सभा चुनाव होने वाले थे। लालू प्रसाद और नीतीश कुमार ने सक्रिय कोशिश करना शुरू किया कि समाजवादियों को एक झंडे के नीचे लाया जाए। तमाम बैठकें हुईं। पुराने जनता दली नेताओं ने मिलकर मुलायम सिंह यादव को महागठबंधन का नेता भी घोषित कर दिया। सामाजिक न्याय के पुरोधाओं से उम्मीद की जाने लगी कि राष्ट्रीय स्तर पर कोई कामन मिनिमम प्रोग्राम बनेगा और अब पिछड़े वर्ग का राजनीतिक अस्तित्व बचाया जा सकेगा।<br />
<br />
बिहार विधानसभा चुनाव के पहले ही महागठबंधन की हवा निकल गई। सपा में शिवपाल लॉबी जहां संयुक्त एकता के पक्ष में थी, वहीं रामगोपाल-अखिलेश लॉबी इसके खिलाफ थी। रामगोपाल यादव ने सार्वजनिक बयान भी दिया कि दलों का विलय व्यावहारिक नहीं है। आखिरकार सपा अलग हो गई। इसके बावजूद शिवपाल यादव ने व्यक्तिगत स्तर पर जाकर राजद और जदयू गठबंधन का प्रचार किया। फिर भी एका की हवा निकल चुकी थी। मुलायम कुनबे में शिवपाल यादव जमीनी नेता रहे हैं। जब नेता जी दिल्ली और राष्ट्रीय स्तर की राजनीति करते थे तो उन्हें पहले विधानसभा और फिर लोकसभा में पहुंचाने के लिए स्थानीय लेवल पर लठैती करने का काम शिवपाल यादव संभालते थे। <br />
<br />
अगर मुलायम के किसी जीवनीकार ने ईमानदारी दिखाई होगी तो इस पहलू पर जरूर प्रकाश डाला होगा कि मुलायम सिंह यादव को राष्ट्रीय स्तर पर नेताजी बनाने में शिवपाल नींव के पत्थर थे। बावजूद इसके, जब सपा 2012 में विधानसभा चुनाव जीती तो अचानक अखिलेश यादव ने शिवपाल को पीछे छोड़ दिया। बिहार में लालू प्रसाद के बड़े बेटे तेज प्रताप यादव कैबिनेट मंत्री हैं, वहीं तेजस्वी यादव उप मुख्यमंत्री। मतलब नीतीश कुमार के बाद दूसरे स्थान पर। लालू प्रसाद के दल में भी निश्चित रूप से रघुबंश बाबू और अब्दुल बारी सिद्दीकी को भी उम्मीदें रही होंगी, भले ही ये नेता लालू प्रसाद के परिवार के नहीं रहे हैं। बहरहाल लालू प्रसाद के दोनों पुत्र ठीक उसी तरह राजद के सबसे बड़े नेता बन गए, जैसे मुलायम सिंह के पुत्र अखिलेश यादव बने थे। <br />
<br />
पिछड़ा वर्ग विकल्पहीन है। शरद यादव का जनाधार नहीं है, जिनके परिवार के बारे में कोई जानता नहीं। परिवारवाद से कोसों दूर नीतीश कुमार का रुख साफ नहीं रहता। लगातार 17 साल भाजपा के साथ रहे और लोकसभा चुनाव के पहले धर्मनिरपेक्षता के नाम पर अलग हो गए। नीतीश कुमार ने न तो कभी पिछड़े वर्ग के पक्ष में खुलकर बयान दिया और न ही वर्गीय हित को लेकर कोई आंदोलन या लड़ाई छेड़ी। वहीं मुलायम और लालू ने शुरुआती दिनों में पिछड़े वर्ग के लिए समाज में खुलकर लोहा लिया। बाद में यह दोनों यादव नेता हुए। इनकी सीमाएं सिमटते सिमटते अब अपने परिवार के नेता तक पहुंच गई। निश्चित रूप से इस आइडेंडिटी पॉलिटिक्स ने उत्तर प्रदेश और बिहार में कांग्रेस को और उसके बाद भाजपा को शीर्षासन करा दिया। यह दोनों दल जीत के लिए तरस गए। <br />
<br />
स्वाभाविक है कि नेताओं को जनता का जबरदस्त प्यार मिला। नेताओं ने प्यार वापस भी किया। कुछ हद तक पिछड़े वर्ग का उत्थान भी हुआ। विभिन्न क्षेत्रों में पिछड़े चेहरे दिखाई देने लगे। अब पिछड़े वर्ग के युवा पढ़ रहे हैं। चीजों को अपने नजरिए से समझ रहे हैं। एका भी बनी है। तमाम विश्वविद्यालयों में पिछड़े वर्ग के छात्रनेता निकल रहे हैं। हालांकि इन कुनबों की राजनीति और आपसी खींचतान में एक निराशा नजर आती है। स्वाभाविक रूप से लालू प्रसाद से उम्मीद थी कि बिहार विधानसभा चुनाव के बाद वह दिल्ली में बैठेंगे और केंद्र की राजनीति करेंगे। उसी तरह से मुलायम सिंह यादव से भी उम्मीद थी कि वह राष्ट्रीय स्तर पर एकता बनाकर केंद्रीय राजनीति में सशक्त हस्तक्षेप करेंगे। <br />
<br />
इन ताजा विवादों से वंचित तबके, या कहें कि इन नेताओं से आस लगाए बैठे लोगों की उम्मीदें तार तार हो रही हैं। एक राजनीतिक हताशा सामने आ रही है कि अब आगे क्या ? क्या कोई नेता ऐसा आएगा, जो संकीर्णताओं से ऊपर उठकर पिछड़े वर्ग का नेता बने। पूरे समाज का नेता तो बनना दूर, पारिवारिक विवादों में उलझी क्षेत्रवादी राजनीति एक बार फिर अपने समर्थकों को निराशा की गर्त में ढकेल रही है। <br />
<br />
<a href="http://http://www.hastakshep.com/hindi/2016/09/14/%e0%a4%9d%e0%a5%82%e0%a4%a0%e0%a5%87-%e0%a4%9c%e0%a4%97-%e0%a4%95%e0%a5%80-%e0%a4%9d%e0%a5%82%e0%a4%a0%e0%a5%80-%e0%a4%aa%e0%a5%8d%e0%a4%b0%e0%a5%80%e0%a4%a4-%e0%a4%95%e0%a5%88%e0%a4%b8%e0%a5%80#.V9xgRjWPi1u">इस काली आधी रात को बेगम अख्तर का गाया गीत ही बेहतर नजर आ रहा है.... <br />
झूठे जग की झूठी प्रीत। <br />
दुनिया का दिन रैन का सपना<br />
मोह नगर में चैन का सपना, <br />
रूप अनूप है नैन का सपना <br />
कैसी हार और किसकी जीत</a><br />
Satyendra PShttp://www.blogger.com/profile/06700215658741890531noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3124261744486772692.post-944981308966802712016-09-13T13:07:00.001-07:002016-09-13T13:07:23.449-07:00आखिर कौन लोग हैं जो यह प्रचारित कर रहे हैं कि दलितों के असल शोषक पिछड़े वर्ग के लोग हैं ?<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
</div><b>सत्येन्द्र पीएस</b><br />
<br />
<div class="separator" style="clear: both; text-align: center;"><a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg2W8iSfrFpm7NRwMCE6L93C7UXRpaND-8R6-u6uegqs3HqKI9FXnI8q-LHfLWDn1oUWAg0-g5R68LWj6fBQxSd-q7qFU9OAwd5sP5MjNSSyNd7GRtdMixMUNGL2zC7leflv8SDsh_T7wo/s1600/satp1.jpg" imageanchor="1" style="clear: right; float: right; margin-bottom: 1em; margin-left: 1em;"><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEg2W8iSfrFpm7NRwMCE6L93C7UXRpaND-8R6-u6uegqs3HqKI9FXnI8q-LHfLWDn1oUWAg0-g5R68LWj6fBQxSd-q7qFU9OAwd5sP5MjNSSyNd7GRtdMixMUNGL2zC7leflv8SDsh_T7wo/s200/satp1.jpg" width="150" height="200" /></a></div>जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में स्टूडेंट यूनियन चुनाव के बाद एक चर्चा जोरों पर है। बापसा (बिरसा अंबेडकर, फुले स्टूडेंट एसोसिएशन) दलित आदिवासी और मुस्लिम का संगठन है। बापसा को आरएसएस ने खड़ा किया, जिससे वाम दलों के वोट काटे जा सकें। बापसा उग्र वामपंथियों का संगठन है, खासकर इसके पीछे माओवादियों का वह तबका खड़ा है जो संविधान और मौजूदा भारतीय प्रणाली में विश्वास नहीं रखता। <br />
बापसा, बापसा, बापसा। कुल मिलाकर बापसा चर्चा में है। <br />
<blockquote>बहरहाल... नवोदित विद्यार्थी संगठन ने दलित-पिछड़े का मसला भी छेड़ दिया है। जेएनयू में चर्चा रही कि इस संगठन से पिछड़ा वर्ग बाहर है। कैंपस में यह भी चर्चा रही कि बापसा पिछड़ों को ही दलितों का सबसे बड़ा शोषक मानती है। </blockquote><br />
हालांकि दलित शब्द भ्रामक और असंवैधानिक है। इसकी अलग अलग व्याख्याएं की जा सकती हैं। लेकिन अगर समाज में कहीं भी दलित कहा जाए तो उसका मतलब अनुसूचित जातियों से ही होता है। कुछ मामलों में अनुसूचित जनजातियों को भी दलित कहा जाता है। कम से कम उत्तर भारत के किसी भी राज्य में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) अपने को दलित नहीं मानता।<br />
मुझे याद है कि 1991 में विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार द्वारा मंडल आयोग की सिफारिशें स्वीकार किए जाने के बाद जब मंडल विरोधी आंदोलन चला तो इसमें आधे से ज्यादा छात्र पिछड़े वर्ग के हुआ करते थे। एक सामान्य धारणा थी कि विपिया ने हमारा सब कुछ छीन लिया और अब चमार सियार ही नौकरी पाएंगे। यह अपर कास्ट ही नहीं, उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर ओबीसी स्टूडेंट्स कहते थे। <br />
धीरे-धीरे मामला साफ हुआ। उच्च जाति, खासकर जोर शोर से क्षत्रिय बनने की कवायद में लगी हजारों की संख्या में जातियों ने एक हद तक खुद को ओबीसी मान लिया। <br />
हालांकि ओबीसी में वर्ग चेतना आज भी नहीं है। ओबीसी राजनीति जाति चेतना तक ही सिमटी रही। राज्य स्तर पर दबंग ओबीसी जातियां अपनी जाति को एकीकृत कर और तमाम अन्य पिछड़ी जातियों के नेताओं का क्लस्टर बनाकर, मुस्लिम समुदाय का वोट खींचकर सत्ता में आती और जाती रहीं। खासकर उत्तर प्रदेश और बिहार का समीकरण तो कुछ ऐसा ही रहा। मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के करीब 25 साल बाद भी अभी ओबीसी वर्ग नहीं बन सका, जिसका वर्ग हित हो। हालांकि यह वर्ग बनने की प्रक्रिया में है।<br />
<br />
<blockquote>अन्य पिछड़े वर्ग की सोच सामंती है और यह तबका कथित उच्च वर्ण से भी ज्यादा दलितों का शोषण करता है, यह चर्चा बापसा तक ही सीमित नहीं है। उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव के पहले सोशल मीडिया पर जबरदस्त चर्चा है कि पिछड़ा वर्ग ही दलितों का दुश्मन नंबर वन है। </blockquote><br />
इतना ही नहीं, बसपा छोड़कर बाहर जाने वाले नेताओं ने यह दावा किया कि बसपा अब दलित-ब्राह्मण-मुस्लिम समीकरण पर चल रही है। उसे न तो बसपा से टिकट मिलने की संभावना है, न सम्मान। सोशल मीडिया पर सक्रिय दलित युवा और लेखक भी यह पूरे जोश के साथ लिखते हैं कि ब्राह्मणवाद का असल वाहक या कहें कि रीढ़ पिछड़ा वर्ग है। <br />
<blockquote>यह अपने आप में भ्रामक और खतरनाक प्रवृत्ति लगती है, जब यह प्रचारित किया जा रहा है कि दलितों के असल शोषक पिछड़े ही हैं। </blockquote>वहीं दलित वर्ग का एक तबका (कुछ को यह कहने में आपत्ति होती है और वह खुद को बहुजन विचारक कहना पसंद करते हैं, हालांकि उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी ही अब सर्वजन के नारे के साथ आगे बढ़ रही है) इसे पूरे उत्साह के साथ कह रहा है कि सवर्ण से ज्यादा दलितों का शोषण ओबीसी करता है। <br />
आइए दलित पिछड़े तबके के स्वतंत्रता के बाद की राजनीति को खंगाल लेते हैं। मंडल आयोग लागू होने के बाद ओबीसी में जो भी जातियां शामिल की गई हैं, वे ज्यादातर कांग्रेस के खिलाफ रही हैं। चाहे वह जेपी आंदोलन हो या वीपी आंदोलन या मोदी आंदोलन। जब जब कांग्रेस सत्ता से बाहर हुई है, किसी न किसी बहाने ओबीसी में शामिल जातियां एकत्र हुईं, उसके बाद कांग्रेस परास्त हुई। यह अलग बात है कि ओबीसी तबका कभी यूनिटी नहीं बना पाया और वह वर्ग के रूप में कभी एकत्र नहीं हुआ। ध्यान देने वाली बात यह है कि भाजपा के अस्तित्व में आने के पहले भी ओबीसी जातियां कांग्रेस के खिलाफ रही हैं। वहीं यह खुली सी बात है कि अब तक कांग्रेस ने ब्राह्मणवादी राजनीति की है। स्वतंत्रता के पूर्व तो अंग्रेज मान चुके थे और तमाम इतिहासकारों ने लिखा भी कि कांग्रेस हिंदुओं की पार्टी है और मुस्लिम लीग मुसलमानों की। हां, कांग्रेस के हिंदू कौन लोग थे, यह उनके नेतृत्व करने वाले तबके को देखकर समझा जा सकता है। <br />
<blockquote>डॉ भीमराव आंबेडकर कांग्रेस को पूरी तरह ब्राह्मणवादी और जातिवाद का पोषक मानते थे। जाति व्यवस्था, हिंदुत्व आदि को श्रेष्ठ बताने के चलते उन्होंने तमाम लेखों में मोहनदास करमचंद गांधी की खिंचाई की है।</blockquote>साथ ही आर्य समाज के पुरोधाओं के साथ आंबेडकर के पत्र व्यवहार भी पठनीय हैं, जो दलितों और पिछड़ों के शोषण को लेकर एक नजरिया पेश करते हैं। <br />
आज की स्थिति पर गौर करें तो अनुसूचित जनजाति भी एक वर्ग के रूप में संगठित नहीं हो पाया है। हालांकि अगर उत्तर प्रदेश व बिहार को छोड़ दें तो राजस्थान, मध्य प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, गुजरात, उत्तराखंड सहित तमाम राज्यों में, जहां कांग्रेस सत्ता पक्ष या विपक्ष में है, वहां अनुसूचित जाति या कहें कि दलित मतदाता कांग्रेस के साथ है। वही कांग्रेस, जिसे आंबेडकर से लेकर बड़े बड़े दलित चिंतकों ने सवर्णो की, ब्राह्मणों की पार्टी करार दिया था। <br />
<blockquote>कांशीराम ने दलित पिछड़ा पसमांदा को एकजुट करने के लिए बुद्ध से शब्द और विचार उधार लिया और "बहुजन" शब्द को स्थापित किया। कांशीराम के बहुजन की बात होती है तो उसमें अलग से बताने की जरूरत नहीं रहती कि किनकी की जा रही है।</blockquote>कांशीराम ने जेनयू में कहा था, ‘दलित शब्द भिखारी का प्रतीक है, मैंने अपने समाज को जोड़ने के लिए, उसको मांगने वाला से देने वाला बनाने के लिए तो बहुजन शब्द इस्तेमाल किया और आप लोग फिर से दलित पिछड़ा को अलग अलग करने की ब्राह्मणवादी परियोजना का हिस्सा बन गए।’ इस तरह से कांशीराम ने दलित-बहुजन शब्द का इस्तेमाल करने वाले लोगों को कड़ा जवाब दिया था और साफ किया था कि बहुजन की परिभाषा में देश की 85 प्रतिशत आबादी आ जाती है, चाहे वह किसी धर्म से जुड़ा हुआ हो। <br />
<br />
<blockquote>वहीं बापसा या अन्य तमाम संगठनों के दलित का कंसेप्ट साफ नहीं है। कम से कम पिछड़ा वर्ग अपने को न तो दलित समझता है और न वह दलित है। और आज की राजनीति की हकीकत यह है कि जब तक कांशीराम वाला बहुजन (मायावती का सर्वजन नहीं) एक साथ नहीं आता है, तब तक वंचित तबके की मजबूती नहीं होने वाली है।</blockquote><br />
भारतीय जनता पार्टी के सत्ता में आने, उसके प्रति पिछड़े वर्ग का प्रेम सर्वविदित है। हालांकि केंद्र सरकार के ढाई साल के कार्यकाल के दौरान खासकर पिछड़े वर्ग में सरकार के प्रति मोहभंग साफ नजर आ रहा है। किसान और निम्न मध्यम वर्ग पर तगड़ी मार पड़ी है। चाहे रेल भाड़ा बढ़ने का मामला हो, अनाज के न्यूनतम समर्थन मूल्य, गन्ने का उचित एवं लाभकारी मूल्य न बढ़ने का मामला हो, मार इसी तबके पर पड़ रही है। किसानों के खेत में जब प्याज होती है तो वह आज एक रुपये किलो बिक रही है, वहीं उन किसानों को सहारा देने वाले, सिपाही, क्लर्क, फौजी, अर्धसैनिक बल सहित निजी क्षेत्र में कम वेतन पर काम कर शहरों में रह रहे उनके भाई बंधु 15 रुपये किलो प्याज खरीदते हैं। किसानों की खेती करने की लागत बढ़ी है और असंतोष बढ़ा है। ध्यान रहे कि गांवों में अब पिछड़े वर्ग की संख्या ही ज्यादा मिलती है। खेत मजदूर और उच्च सवर्ण कहे जाने वाले ज्यादातर लोग गांवों से निकल चुके हैं। साफ है कि खासकर हिंदी पट्टी में हर हर मोदी का नारा लगाने वाले ग्रामीण तबाह हैं। <br />
लेकिन इस बीच यूपी का चुनाव आते आते दलित और पिछड़े तबके को लड़ाने का मकसद क्या हो सकता है? आखिर यह विमर्श किसने छेड़ दिया है कि दलित वर्ग का सबसे बड़ा दुश्मन ओबीसी है? यह खतरनाक विमर्श है, जिसमें ओबीसी व एससी दोनों ही वर्ग को खासा नुकसान होने जा रहा है। <br />
<br />
Satyendra PShttp://www.blogger.com/profile/06700215658741890531noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3124261744486772692.post-13103559887162253402016-08-26T22:30:00.000-07:002016-08-26T22:30:29.740-07:00दलित आंदोलन और मौजूदा आक्रोश<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
</div><br />
<b>सत्येन्द्र पीएस</b><br />
<br />
<a href="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhDaJZK3QqMZZqM_cDrk_Zb_fnH4Ug9ajHcjnanxa8yX9CJrwBep9wubBGcR7LZmaUR1MSViiFh5ArheR5_7YfkIjAt-e0tmsJIH55-BxXP582ytJadOBYcb7dq77n8IsvnVvRdFuCUsPc/s1600/satp1.jpg" imageanchor="1" ><img border="0" src="https://blogger.googleusercontent.com/img/b/R29vZ2xl/AVvXsEhDaJZK3QqMZZqM_cDrk_Zb_fnH4Ug9ajHcjnanxa8yX9CJrwBep9wubBGcR7LZmaUR1MSViiFh5ArheR5_7YfkIjAt-e0tmsJIH55-BxXP582ytJadOBYcb7dq77n8IsvnVvRdFuCUsPc/s320/satp1.jpg" width="240" height="320" /></a><br />
गोरक्षा के नाम पर गुजरात के ऊना में दलितों को बंधक बनाए जाने, बांधकर उनकी पिटाई किए जाने की घटना ने पूरी दुनिया में भारत को शर्मसार किया है। गाय की रक्षा के नाम पर मनुष्यों को मार दिए जाने की घटना दुनिया के किसी भी सभ्य समाज के लिए वीभत्स है।<br />
हालांकि भारत में दलितों का उत्पीड़न नया नहीं है। लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सत्ता में प्रभावी होने पर गोरक्षा कुछ ज्यादा ही जोर पकड़ लेता है। इसके पहले जब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी थी, तब भी हरियाणा में कथित गोरक्षकों ने गाय का चमड़ा उतारने ले जा रहे दलितों की हत्या कर दी थी। <br />
अब दोबारा नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में सरकार बनने और आरएसएस के प्रभावी होने के बाद से गोरक्षक सड़कों पर हैं। देश के तमाम इलाकों से गुंडागर्दी, हत्या, मारपीट की खबरें आनी शुरू हो गईं। उत्तर प्रदेश के दिल्ली से सटे नोएडा इलाके में अखलाक को निशाना बनाया गया। मंदिर की माइक से ऐलान हुआ कि अखलाक के फ्रिज में गाय का मांस रखा है। भीड़ जुटी। उसने फैसला कर दिया। अखलाक को पीट पीटकर मार डाला गया। <br />
उसके बाद पंजाब का एक वीडियो वायरल हुआ, जिसमें ट्रक पर गाय लादकर ले जा रहे कुछ सिखों को कुछ लोग बड़ी बेरहमी से लाठी डंडों से पीट रहे थे। इसके अलावा स्थानीय स्तर पर गाय की रक्षा के नाम पर गाय ले जा रहे लोगों के उत्पीड़न की खबरें आती रहती हैं। गुजरात के उना में मरे जानवर का चमड़ा उतारने ले जा रहे दलितों की पिटाई का वीडियो वायरल होने के कुछ दिनों पहले भी राज्य में कुछ दलितों की पिटाई हो चुकी थी, लेकिन जब ऊना मामले ने तूल पकड़ा तब जाकर उस मामले में आरोपियों को गिरफ्तार किया गया। <br />
साफ है कि कानून की धमक कहीं नहीं दिख रही है। कथित गोरक्षक गुंडों को लगता है कि उनकी सरकार बन गई है और वह हर हाल में सुरक्षित हैं। उन्हें किसी को भी मारने पीटने का पूरा अधिकार मिल गया है। <br />
हालांकि इस बीच प्रधानमंत्री ने एक कार्यक्रम के दौरान अजीबोगरीब बयान दिया। उन्होंने कहा, “मुझे गोली मार दो, लेकिन मेरे दलित भाइयों को मत मारो।” आखिर इसका क्या मतलब निकाला जाए? क्या प्रधानमंत्री के हाथ में कोई ताकत नहीं रह गई है? क्या प्रधानमंत्री कहना चाह रहे हैं कि गोरक्षा के नाम पर पिटाई उचित है और कोई दलित चमड़ा उतारता है उसे पीटने के बजाय प्रधानमंत्री को पीटा जाए? क्या प्रधानमंत्री कानून की रक्षा में सक्षम नहीं हैं? क्या प्रधानमंत्री सीधे अपील नहीं कर सकते कि यह अपराध न किया जाए? क्या प्रधानमंत्री को सचमुच नहीं पता है कि यह कौन कर रहा है? ऐसे तमाम सवाल हैं, जो प्रधानमंत्री के बयान के बाद उठते हैं।<br />
भारत में सदियों से जातीय भेदभाव है। एक जाति विशेष के लोग ही मरे हुए जानवरों को निपटाते हैं। किसान या किसी के घर कोई जानवर मरता है तो उस जाति विशेष के लोगों को पशु के मरने के पहले ही सूचना दे दी जाती है। वह पशुओं को सिवान में ले जाते हैं, उनकी खाल उतारते हैं। खाल बेचने से उन्हें कुछ धन मिल जाता है। हां, गरीबी के दौर में मरे हुए जानवरों का मांस भी वह तबका खाता था, लेकिन अब शायद मांस खाने की स्थिति नहीं है। ओम प्रकाश बाल्मीकि और प्रोफेसर तुलसीराम ने अपने प्रसिद्ध उपन्यासों में खाल उतारने और मरे हुए जानवरों का मांस हासिल करने के लिए गिद्धों और दलित महिलाओं के बीच संघर्ष के बारे में बताया है।<br />
यह कितना दुखद है कि जो काम दलित करते आए हैं, और कोई तबका वह काम करने को तैयार नहीं है, उसके लिए भी उन्हें पीटा जाता है। शायद पीटा जाना हिंदुत्व या हिंदू संस्कृति का एक अभिन्न अंग है, जिसके तहत एक दुश्मन खोजना जरूरी होता है, जिससे हिंदुत्व को बचाना होता है। <br />
इस हिंदुत्व की रक्षा के लिए वह काल्पनिक दुश्मन मुस्लिम हो सकता है, इसाई हो सकता है, दलित हो सकता है, या नास्तिक हो सकता है। कोई भी। कभी भी। कुछ भी। एक दुश्मन होना जरूरी है, जिससे जंग छेड़नी है। जंग इसलिए कि हिंदुत्व बच सके। यह पता नहीं कैसा हिंदुत्व है, जो गाय या मरी हुई गाय की खाल में रहता है, जिसे बचाने की कवायद की जाती है। <br />
हिंदुत्व की रक्षा के अजब गजब रूप और अजब गजब दुश्मन रहे हैं। हिंदू देवी देवता हथियारों से लैस हैं। हर देवी देवता के हाथ में असलहे हैं। मुस्लिम नहीं थे, तब यह देवता धर्म की रक्षा के लिए लड़ते थे। आखिर किससे लड़ते थे? उल्लेख तो मिलता है कि वैदिक यज्ञों में गायों की बलि दी जाती थी। इस बलि प्रथा और खून खराबे की वजह से ही जैन और बौद्ध धर्म का उद्भव हुआ था, जो यज्ञों की हिंसा के पूरी तरह खिलाफ थे। आखिर में वे कौन लोग थे, जो वैदिक हिंसा के विरोधी थे और वैदिक यज्ञों को तहस नहस करने के लिए तत्पर रहते थे। इन्ही राक्षसों से यज्ञों की रक्षा के लिए वैदिक देवता हमेशा हथियार लिए फिरते थे। <br />
अब नए दौर में गोरक्षा का प्रभार कुछ संगठनों ने संभाल लिया है। गोरक्षक दल, गोसेवा दल जैसे कितने संगठन आ गए हैं, जो अभी गोआतंकी बने घूम रहे हैं। <br />
अहम बात यह है कि ऊना की घटना का जोरदार विरोध हुआ। गुजरात ही नहीं, महाराष्ट्र में भी तमाम रैलियां निकलीं। संसद में विपक्षी दलों ने इस मसले को उठाया। वहीं गुजरात में अहमदाबाद से ऊना तक की पदयात्रा और उसके बाद ऊना में सभा का आयोजन हुआ। युवा वकील जिग्नेश शाह इस आंदोलन के अगुआ बनकर उभरे। हालांकि पहले वह आम आदमी पार्टी से जुड़े थे, लेकिन विवादों के बाद उन्होने आम आदमी पार्टी से इस्तीफा देने की घोषणा कर दी। उन्होंने कहा कि सिर्फ दलित आंदोलन उनका मकसद है और गुजरात के आंदोलन में आम आदमी पार्टी की कोई भूमिका नहीं रही है। <br />
इस आंदोलन के बाद गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल को पद छोड़ना पड़ा। भले ही सरकार ने तमाम अन्य वजहें गिनाईं, आनंदीबेन की उम्र का हवाला दिया गया। लेकिन माना जा रहा है कि पाटीदार आरक्षण आंदोलन के बाद दलित आंदोलन ने मुख्यमंत्री के इस्तीफे में अहम भूमिका निभाई। <br />
इन आंदोलनों व विरोध प्रदर्शनों का असर जो भी नजर आ रहा हो, लेकिन भारतीय जनता पार्टी का मातृसंगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सेहत पर इससे कोई असर पड़ता नहीं दिख रहा है। आगरा में 21 अगस्त 2016 को आयोजित एक कार्यक्रम में गोरक्षकों पर उठ रहे सवाल को लेकर संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि गोरक्षा का काम कानून के दायरे में चल रहा है, अगर किसी को शंका होती है तो भला बुरा कह सकता है। उन्होंने कहा कि गोरक्षा के काम ही उनके लिए उत्तर है, जो पहले विरोधी थे वह भी गोरक्षा के काम को देखकर समर्थन में आ गए। भागवत ने कहा कि गोरक्षा की गतिविधियां चल रही हैं और आगे भी चलती रहेंगी, गोरक्षक अच्छा काम कर रहे हैं। आशय साफ है। आरएसएस समाज के ध्रुवीकरण के पक्ष में खड़ा है। गोरक्षा की आड़ में वह सियासी रोटियां सेंकने को तैयार है। उत्तर प्रदेश में अगले साल की शुरुआत में चुनाव होने को हैं और गुजरात मामला अभी शांत नहीं हुआ है। वहीं आरएसएस ने उत्तर प्रदेश के आगरा शहर से साफ संकेत दे लिया कि गोरक्षा के नाम पर जो चल रहा है, वह चलते रहना चाहिए। <br />
प्रधानमंत्री के दलित प्रेम से भी यही छलकता हुआ दिख रहा है। उन्हें अखलाक की घटना स्वीकार्य है, दलितों के ऊपर सीधा हमला स्वीकार नहीं है। परोक्ष रूप से वह इस मामले को हिंदू और मुस्लिम ध्रुवीकरण तक ही सीमित रखना चाहते हैं। दलितों व पिछड़ों के बारे में प्रधानमंत्री की सोच का पता उनके 23 अगस्त 2016 के दिल्ली के एनडीएमसी हॉल में सभी 29 राज्यों और 7 केंद्रशासित प्रदेशों से आए पार्टी के नेताओं के सम्मेलन में दिए गए बयान से चलता है। मोदी ने कहा कि राष्ट्रवादी तो हमारे साथ हैं, हमें दलित और पिछड़ों को साथ लाना है। शायद उनका आशय यह था कि अपर कास्ट राष्ट्रवादी होता है और दलित पिछड़े अराष्ट्रवादी, राष्ट्रदोही या कुछ और हैं। वे राष्ट्रवादी नहीं हैं और उन्हें राष्ट्र से शायद कोई प्रेम नहीं है।<br />
कुल मिलाकर सरकार का रोना धोना और दलित उत्पीड़न की घटनाओं का विरोध जताना एक दिखावटी कवायद ज्यादा बन गई है। शायद भाजपा आरएसएस और उनके अनुषंगी संगठनों को यह संदेश साफ जाता है कि उन्हें किसे पीटना है और किसके खिलाफ गुंडागर्दी करनी है। गुजरात में ऐसा हुआ भी। प्रधानमंत्री के लाख रोने गाने के बावजूद जब ऊना में दलित रैली खत्म हो रही थी तो दलितों पर हमले हो गए। दरबार यानी काठी दरबार गुजरात के क्षत्रिय हैं जिनकी सौराष्ट्र में कभी 250 से ज्याीदा रियासतें हुआ करती थीं। इस समुदाय ने ऊना की रैली से लौटते दलितों पर लाठी, तलवार और बंदूक से हमला किया।<br />
गुजरात में दलित चेतना नई बात नहीं है। बड़ौदा के महाराज सयाजी राव गायकवाड़ ने 1882-83 में सभी के लिए अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान कर दिया था और बड़ौदा, नवसारी, पाटन व अमरेली में चार अंत्यएज स्कू ल व हॉस्टाल खुलवाए थे। 1939 में उनकी मृत्यु हुई। उसके बाद 1931 में बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर के अहमदाबाद आगमन के बाद से यहां आंबेडकरवादी विचारधारा का जो काम चालू हुआ, वह अभी जमीनी स्तसर पर चालू है। गुजरात में दलितों के घर में बाबा साहेब की तस्वींरों लगी हुई नजर आती हैं। कांग्रेस का मजदूर महाजन संघ, आर्य समाज, आंबेडकर का बनाया शेड्यूल कास्टी फेडरेशन, कांग्रेस का हरिजन सेवक संघ, बौद्ध महासंघ आदि तमाम संगठनों के मिले जुले काम ने दलितों की चेतना जगाने का काम किया है। <br />
हालांकि गुजरात में बाबाओं का प्रकोप भी कम नहीं है। सौराष्ट्रस में भी काठियावाड़ के जो दलित हैं, उनमें अस्सीा प्रतिशत जैसलमेर के रामदेवरा धाम के भक्तड हैं। रामदेव स्वािमी जाति से क्षत्रिय थे, लेकिन दलितों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। गुजरात में रामदेव स्वा मी के दो मंदिर हैं। जामनगर से भावनगर तक के दलित वहां हर साल मंडप नामक त्योकहार में जाते हैं और अलग अलग जाति के लोगों के साथ मिलकर पूजा अर्चना करते हैं। इनके अलावा सवैयानाथ से लेकर जालाराम तक तमाम संत हुए, जिनकी भक्ति दलित करते हैं। इसमें संत की जाति नहीं देखी जाती। संतों की आराधना के मामले में दलितों के साथ भेदभाव गुजरात में मिट चुका है। <br />
गुजरात के दलितों के बीच सामाजिक सुधार की जो प्रमुख धारा करीब सौ साल से मौजूद रही है, वह आज कहीं कहीं राष्ट्रावादी राजनीति के रूप में नजर आती है। सौराष्ट्र के दलितों के धर्मगुरु शम्भूतनाथ बापू हैं। वे राज्यिसभा में भाजपा सांसद हैं। पाकिस्तालन के सिंध में भी उनके करीब दो लाख अनुयायी रहते हैं। जाति से वे खुद दलित हैं और दलितों की जमकर हिमायत करते हैं, लेकिन अपनी पार्टी लाइन के खिलाफ कभी नहीं जाते। 21 जुलाई 2016 को राज्यलसभा में शम्भू नाथ बापू ने ऊना मामले पर जोरदार भाषण दिया, लेकिन उनका सामाजिक न्याूय बीजेपी की सत्ता की पुष्टि करने में लगा रहा। कुल मिलाकर दलित या शोषण का मसला अपने राजनीतिक स्वार्थ या विचारधारा के खांचे में बंधा हुआ नजर आता है। <br />
इसके पहले भी गुजरात में दलित आंदोलन हुए हैं। 1980 के आसपास आरक्षण विरोधी आंदोलन हुआ था, जिसमें दलितों को निशाना बनाया गया। उस समय भी दलितों पर कहानियां लिखी गईं, उसे प्रचारित प्रसारित किया गया। दलितों ने प्रतिज्ञा की कि वे मरे जानवरों को नहीं उठाएंगे। हालांकि इसका कोई ठोस परिणाम सामने नहीं आया। तीन साल पहले जूनागढ़ में 80,000 दलितों ने एक साथ बौद्ध धर्म में दीक्षा लेकर तूफान खड़ा कर दिया था। इस पर भी कोई खास हलचल नहीं हुई।<br />
फिलहाल इस आंदोलन से भाजपा के विरोधी खासे खुश हैं। खासकर गुजरात को लेकर कांग्रेस उत्साह में है। आम आदमी पार्टी भी इस मामले को भुनाने में लगी है। दलित वहीं के वहीं खड़े हैं। गुजरात में दलित चेतना अन्य राज्यों की तुलना में ज्यादा ही है। इसके बावजूद कांग्रेस व भाजपा दोनों ने ही दलितों को अलग थलग रखा है। माना जाता है कि दलित ज्यादातर कांग्रेस को अपना वोट देते हैं, लेकिन कांग्रेस के लिए भी गुजरात के दलित वोटर से ज्यादा कुछ नहीं हैं। अनुमान के मुताबिक राज्य में महज 6 प्रतिशत दलित हैं। ऐसे में न तो वह लोकतंत्र में वोट की राजनीति के सशक्त प्रहरी बन पा रहे हैं, न ही अपने संवैधानिक हक का इस्तेमाल कर पा रहे हैं। इन 6 प्रतिशत मतों की अन्य किसी वर्ग मसलन पिछड़े या मुस्लिम या किसी अन्य के साथ लाबीयिंग भी नहीं है, जिससे मतदान के वक्त ये सशक्त मतदाता बनकर कुछ कर दिखाने या राजनीतिक बदलाव लाने में सक्षम हों। <br />
ऊना में दलितों पर हुए हमले और उसके असर को देखने के लिए अभी बहुत कुछ देखना बाकी है। अगर गुजरात के अलावा इसे पंजाब, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र के संदर्भ में देखें, जहां दलितों की निर्णायक आबादी है, तो इसके राजनीतिक निहितार्थ और असर देखना अभी बाकी है।<br />
Satyendra PShttp://www.blogger.com/profile/06700215658741890531noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3124261744486772692.post-78069217894034507002015-11-16T03:11:00.000-08:002015-11-16T03:11:26.128-08:00बिहार चुनाव और आर्थिक समीकरण<i><b><i></i></b>सत्येन्द्र प्रताप सिंह</i><br />
<br />
<blockquote></blockquote>दिल्ली से बिहार के बक्सर जिले में अपने मित्र के लिए चुनाव प्रचार करके वापस पहुंचे आलोक कुमार अभी थकान उतार रहे हैं। गांव गिरांव के मतदाताओं ने उन्हें शारीरिक से ज्यादा मानसिक रूप से थका दिया। उनके मित्र भारतीय जनता पार्टी से किस्मत आजमा रहे थे, जो महज 8000 मतों से चुनाव हार चुके हैं। <br />
<blockquote></blockquote>आलोक बताते हैं कि दिल्ली से समीक्षा करने और स्थानीय स्तर पर लोगों से बात करने में खासा अंतर है। गांव में कहीं गोबध का मसला नहीं था। आरक्षण भी कोई मसला नहीं था। गाय के बारे में लोगों का जवाब यह होता था कि हम लोग तो बूढ़ी गाय को शुरू से ही बेच देते हैं। उसे कौन ले जाता है, क्या करता है, हमें नहीं मालूम। यही हाल आरक्षण का रहा। स्थानीय लोगों ने कहा कि भारतीय जनता पार्टी सत्ता में और मजबूत होती है तब भी आरक्षण नहीं खत्म कर पाएगी। कोई भी राजनीतिक दल इस समय इतना जोखिम नहीं लेगा कि आरक्षण खत्म करने के बारे में विचार करे। <br />
तो आखिर कौन सा मसला रहा, जिसने बिहार में भाजपा की मिट्टी पलीत कर दी। जिस भाजपा और नरेंद्र मोदी को जनता ने एक साल पहले सिर आखों पर बिठाया था, उसे क्यों जमीन से उखाड़ फेंका?<br />
<blockquote></blockquote>आलोक बताते हैं कि सबसे बड़ा मसला जेब का है। वह गुस्से में कहते हैं कि पब्लिक हरामखोर हो गई है। उन्हें गैस सब्सिडी चाहिए, मनरेगा का पैसा चाहिए, वृद्धावस्था पेंशन, बेसहारा पेंशन चाहिए। कुल मिलाकर इतने पैसे जेब में आने जरूरी हैं कि लोग आराम से अपने घर का खर्च चला सकें। केंद्र सरकार ने इसमें कटौती कर दी। गांवों में धन आना बंद हो गया। कांग्रेस के समय में आखिरी दो साल तक लोग महंगाई से तबाह थे, जिसके चलते सरकार को उखाड़ फेंका था। नई सरकार से भी उन्हें इस मोर्चे पर<a href="http://hindi.business-standard.com/storypage.php?autono=110915"> कोई राहत नहीं मिल सकी</a>। <br />
<blockquote></blockquote>लोगों की सही आर्थिक स्थिति और जेब की हालत के बारे में सबसे बड़ा पैमाना जेब का होता है। अभी हाल में दीपावली और दशहरा में एफएमसीजी कंपनियों के बिक्री के आंकड़े यही कह रहे हैं कि कस्बों और गांवों में स्थिति खराब रही। बड़े शहरों में जहां कंपनियों ने जबरदस्त बिक्री की, वहीं छोटे शहरों और कस्बाई इलाकों में उन्हें निराशा हाथ लगी। <br />
<blockquote></blockquote>गैस सब्सिडी खाते में भेजने की मार भी भाजपा को झेलनी पड़ी है। भले ही इसे कांग्रेस ने शुरू किया था, लेकिन इसके दुष्प्रभाव भाजपा के शासन में व्यापक तौर पर नजर आया। जनता सवाल पूछ रही है कि ज्यादा गैस लेकर हम क्या करेंगे, गैस आखिर में पीना नहीं है कि सस्ती मिली तो दो गिलास ज्यादा पी ली। पहले से कांग्रेस सरकार में महंगाई ने तबाह कर रखा था, अब और कचूमर निकल गई। खाते में पैसे आने से क्या होता है? वह कब आ रहा है, कितना आ रहा है, पता ही नहीं चलता। यह पूछे जाने पर कि दुकानदार सब्सिडी वाली रसोई गैस का इस्तेमाल करते थे, वह दुरुपयोग रुक गया। इसके जवाब में स्थानीय लोग कहते हैं कि चाय बनाने वाला उसका इस्तेमाल करता था तो वह चाय समोसे थोड़ा सस्ता देता था, उसने भी उसी अनुपात में दाम बढ़ा दिया, हमें क्या फायदा मिल गया इससे?<br />
<blockquote></blockquote>मामला यहीं तक नहीं है। केंद्र सरकार से लोगों की उम्मीदें भी बहुत ज्यादा हैं। उन्हें रोजी रोजगार की चाह है। उन्हें वेतन बढ़ने की उम्मीद है। ग्रामीण लोगों का कहना है कि खाते खुल गए, लेकिन उसमें पैसे कहां हैं? सस्ता बीमा तो ठीक है, लेकिन उसके लिए जान दे दें क्या? काला धन कहां है? बिहारी मतदाताओं के अजीब अजीब सवाल हैं। आपके हर जवाब पर उनका सवाल खड़ा मिला। <br />
<blockquote></blockquote>चुनाव के दौरान बिहार में सक्रिय रहे समाजसेवी राकेश कुमार सिंह कहते हैं कि प्रधानमंत्री के भाषण इस समय बिहार के मतदाताओं को चिढ़ाते हुए नजर आए। उन्हें नरेंद्र मोदी के वादे जुमला और जोकरई लग रहे थे। सिंह कहते हैं कि मोदी का भाषण सुनकर तमाम लोगों ने मतदान का मन बदला। उन्हें लगा कि यह व्यक्ति तो सिर्फ कांग्रेस या पहले से सत्तासीन दलों को गालियां दे रहा है! कोई नई योजना नहीं है। डेढ़ साल में कुछ भी नहीं मिल सका। वही पुराना भाषण, वही पुराने वादे। उसके साथ लफ्फाजी और पूर्व नेताओं को गालियां देने की धार और बढ़ी है। सिंह कहते हैं कि इसने लोगों को अच्छा खासा चिढ़ाया है। <br />
<blockquote></blockquote>बिहार में डेढ़ दशक से पत्रकारिता में सक्रिय आशीष झा भी कुछ ऐसा ही कहते हैं। झा का कहना है कि महिलाओं ने इस बार दाल और तेल का हिसाब सरकार से ले लिया। वह बताते हैं कि तमाम ऐसे परिवार हैं, जिनके सब्सिडी वाले गैस सिलेंडर कैंसिल हो गए। उन्हें पूरे दाम पर गैस खरीदनी पड़ रही है। उनकी कोई सुनवाई नहीं है। एजेंसी से लेकर जिला पूर्ति कार्यालय तक चक्कर लगा रहे हैं, लेकिन निरस्त हो गया तो फिर सब्सिडी से बाहर। उनका कहना है कि पैसे न आने से परिवारों में रोजमर्रा का खर्च चलाने को लेकर तनाव बढ़ा है। परिवारों में रोज झगड़े हो रहे हैं। जब महिलाएं मतदान करने निकलीं तो लोग इस बात को समझ भी न पाए कि यह थोक वोट किसके पक्ष में जा रहा है और किसके खिलाफ। जब परिणाम आया तो यह साफ हो गया कि बिहार में महिला मतदाता एक अलग जाति बन चुकी है। आने वाले चुनावों में शायद महिलाओं को लेकर राजनीतिक दलों को गंभीर और महिला केंद्रित रणनीति बनाने की जरूरत पड़ सकती है। <br />
<blockquote></blockquote>आलोक कहते हैं कि लोग नीतीश कुमार और नरेंद्र मोदी के कामों की तुलना करते नजर आए। ग्रामीण सवाल पूछते नजर आए कि आखिर डेढ़ साल में मोदी सरकार ने ऐसा क्या कर दिया, जिसके चलते उन्हें वोट दे दिया जाए। वहीं नीतीश कुमार का काम भारी पड़ रहा था, चाहे वह सड़कों का निर्माण हो, या लड़कियों को साइकिल देना। <br />
<blockquote></blockquote>आखिर प्रधानमंत्री की रैली में <a href="http://www.bhaskar.com/news/c-268-454051-pt0171-NOR.html">लाख लोगों तक जुटने वाली भीड़</a> मतों में तब्दील क्यों नहीं हो पाई? बिहार चुनाव प्रचार में सक्रिय लोगों ने<a href="http://www.prabhatkhabar.com/news/banka/story/546898.html"> भीड़</a> की गणित भी बताई। पार्टी भीड़ जुटाने वाले ठेकेदार लोगों को प्रति व्यक्ति 500 रुपये देती थी। इसमें से भेजने वाला व्यक्ति 300 रुपये में अपना मुनाफा, वाहन पर आने वाला व्यय और दिन भर के खाने और नाश्ते का व्यय निकालता था। भाषण सुनने जाने वाले व्यक्ति को 200 रुपये नकद मिलते थे। इसके अलावा भाषण के दौरान नजदीक के पेड़ों पर चढ़ जाने, खंभों पर चढ़ जाने वालों को 50 रुपये अतिरिक्त दिए जाते थे। इस तरह लोग सपरिवार शहर घूमने के लिए निकल जाते थे। कहीं कहीं ग्रामीण लोग इतनी शर्त रख देते थे कि ले जाने वाली गाड़ी शाम को निकले, जिससे लोग बाजार में खरीदारी जैसे काम आराम से निपटा सकें। <br />
<blockquote></blockquote>कुल मिलाकर देखें तो बिहार के चुनाव परिणाम ने स्पष्ट किया है कि अगर सरकार ने जेब पर हमला किया तो उसे कहीं से कोई ढील नहीं मिलने वाली है। भावनात्मक मसलों, जातीय मसलों का दौर खत्म हो रहा है। गांवों से लेकर शहरों तक मतदाता अपना हित बहुत गंभीरता से देख रहा है। सरकार को भी अब दिखावे से आगे बढ़कर काम करना होगा। मतदाताओं को जीडीपी में बढ़ोतरी ज्यादा समझ में नहीं आती, उन्हें अपनी रोजी रोटी और रोजगार ज्यादा समझ में आ रहा है कि उसमें किस तरह से बेहतरी आए। <br />
<br />
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br />
</div>Satyendra PShttp://www.blogger.com/profile/06700215658741890531noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3124261744486772692.post-9731740860384197512015-11-13T01:11:00.000-08:002015-11-13T01:11:39.487-08:00असहिष्णुता का भ्रमजाल<br />
<br />
<blockquote></blockquote><b>सत्येन्द्र पीएस</b><br />
<br />
<blockquote></blockquote>भारत की भूमि पर न सही, ब्रिटेन जाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कह ही दिया कि असहिष्णुता किसी भी स्थिति में स्वीकार्य नहीं है। बुद्ध और गांधी की धरती पर छोटी से छोटी घटना पर कड़ी कार्रवाई की जाएगी। <br />
<blockquote></blockquote>असहिष्णुता या इन्टालरेंस शब्द भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) का प्रिय शब्द रहा है। जहां तक मुझे याद आता है, विपक्ष में रहते हुए वरिष्ठ नेता लालकृष्ण आडवाणी और मौजूदा गृहमंत्री राजनाथ सिंह इस शब्द का भरपूर इस्तेमाल करते थे। जब भी देश में कोई आतंकवादी वारदात होती थी या नक्सली हमला होता था, ये नेता अक्सर इस शब्द का इस्तेमाल करते थे कि भारत को जीरो टालरेंस की पॉलिसी अपनानी होगी। साथ ही हिंदी में सहिष्णुता शब्द का इस्तेमाल आरएसएस से जुड़े संत सन्यासी खूब इस्तेमाल करते रहे हैं। मौका बेमौका दोहराते रहे हैं कि हिंदू समाज कब तक सहिष्णु बना रहेगा, कब तक अपने धर्म पर हमले बर्दाश्त करेगा।<br />
<blockquote></blockquote>भाजपा के सत्ता में आने के बाद इस इन्टालरेंस ने व्यापक रूप ले लिया। आतंकवादियों के मामले में सरकार सफल हुई हो या नहीं, सरकार ने अपने विरोधियों को कुचलने के लिए इसका खूब इस्तेमाल किया। लोकसभा चुनाव के पहले जहां नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में पार्टी के भीतर उग्र होकर इन्टालरेंस दिखाते हुए सभी बुजुर्ग नेताओं की असहमतियों और उनके सुझावों को दरकिनार कर उन्हें बेकार साबित कर दिया, वहीं इनके समर्थकों ने सोशल मीडिया पर सक्रियता दिखाते हुए विरोधियों को भला बुरा कहने, गालियां और धमकियां देने का रिकॉर्ड बनाया। चुनाव पूर्व के सोशल वेबसाइट्स पर गौर करें तो देश के बड़े नेताओं को जमकर गालियां दी गईं। उन पर व्यक्तिगत आरोप लगाए गए। बड़े बड़े नेताओं के विकृत फोटो, उनके बारे में तमाम ऊल-जुलूल बातें लिखी जाने लगीं। ये हमले इतने तेज थे कि ऐसा लगता है कि पूरी टीम लगी हुई थी, जो सक्रिय होकर इस काम को अंजाम दे रही हो।<br />
<blockquote></blockquote>भाजपा के नए युग में कमान संभाले लोगों ने विपक्ष के वरिष्ठ नेताओं को भरपूर निशाना बनाया। खासकर वे नेता इस अभियान के ज्यादा शिकार बने, जो सोशल मीडिया पर खासे सक्रिय थे। कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह का उदाहरण अहम है, जिनके ट्विटर और फेसबुक हैंडल पर सबसे ज्यादा गालियां दी गईं। इतना ही नहीं, समाचार माध्यमों/अखबारों की जिन वेबसाइट्स पर सबसे ज्यादा हिट्स आती हैं, यानी जो सर्वाधिक पढ़ी जाने वाली वेबसाइट्स हैं, उन पर अगर भाजपा विरोधी खबर आती थी, उस पर भाजपा की यह टीम पूरी ताकत के साथ टूट पड़ती थी। विरोध एवं गालियों की पूरी सिरीज चल पड़ती थी। इन अभियानों का पूरा लाभ भाजपा को मिला और लोकसभा चुनाव बाद पूर्ण बहुमत से सत्ता में आ गई।<br />
<blockquote></blockquote>असहिष्णुता के इस माहौल को भाजपा के दल ने सत्ता में आने के बाद भी बनाए रखा। चुनाव के दौरान ऊल जुलूल बयान देने वाले गिरिराज सिंह, साध्वी निरंजन ज्योति जैसे लोग जहां मंत्रिमंडल में शामिल किए गए, वहीं अन्य तमाम छुटभैये नेताओं को भी भरपूर बढ़ावा दिया गया कि वे गाली गलौज वाले तरीके से किसी भी विरोध को निपटाएं और समाज में इस कदर भय फैलाएं, जिससे विरोध में कोई आवाज न उठने पाए।<br />
<blockquote></blockquote>भाजपा के इस रवैये के शिकार लेखक तबका बना। स्वतंत्र रूप से लेखन का कार्य करने वाले और सोशल मीडिया पर सक्रिय लोगों को गालियां और धमकियां दिए जाने की घटनाएं आम हो गईं। बीच बीच में किसी बड़ी घटना पर सरकार में बैठे मंत्री बूस्टर डोज भी देते रहे। चाहे वह नोएडा के अखलाक की हत्या के बाद केंद्रीय मंत्री महेश शर्मा का बयान हो, जिन्होंने कहा कि गलतफहमी में दुर्घटना हो गई, या फरीदाबाद में दलित परिवार के जलने की घटना, जिसमें केंद्रीय मंत्री वीके सिंह ने कहा कि किसी कुत्ते को अगर कोई ढेला मार दे तो उस पर प्रधानमंत्री बयान नहीं देंगे।<br />
<blockquote></blockquote>इन सब घटनाओं और इसे लेकर सरकार के रवैये से समाज में एक ऐसे तबके की संख्या बढ़ती गई, जो स्वतः स्फूर्त सोशल साइट्स या कोई हिंदू समूह बनाकर लोगों को धमकियां देने, नारेबाजी करने या बयान देने का काम करने लगा। उस तबके को यह भरोसा हो चला कि उनके इस असंवैधानिक, अमानवीय, असंवेदनशील कार्य को सरकार का समर्थन है। इतना ही नहीं, अगर चर्चा में बने रहा जाए तो सरकार उसे पुरस्कृत भी कर सकती है। <br />
इस असहिष्णुता के विरोध में जब हिंदी के प्रसिद्ध साहित्यकार उदय प्रकाश ने बगावत की और साहित्य अकादमी पुरस्कार लौटा दिया तो साहित्य जगत की ओर से पुरस्कार वापस करने वालों की पूरी सिरीज ही बन गई। नयनतारा सहगल से लेकर अशोक वाजपेयी और तमाम नाम सामने आए और दर्जनों लेखकों, साहित्यकारों ने पुरस्कार वापस किए। <br />
<blockquote></blockquote>आखिरकार भारत के राष्ट्रपति को बयान देना पड़ा। प्रणव मुखर्जी ने कहा कि भारत में असहिष्णुता बढ़ रही है, जो भारतीय संस्कृति के विपरीत है। बिहार चुनाव के दबाव में प्रधानमंत्री ने नोएडा के अखलाक की हत्या पर तो कुछ नहीं बोला, लेकिन चुनावी रैली में इतना जरूर कहा कि राष्ट्रपति महोदय ने जो कहा, वह ठीक है।<br />
लेकिन सरकार ने साहित्य जगत से बातचीत की कोई कवायद नहीं की। किसी ने उदय प्रकाश या किसी साहित्यकार से संपर्क नहीं किया कि आखिर उन्हें समस्या क्या है। संपर्क करके समस्या जानना तो दूर, सरकार ने इतना कहने की भी जहमत नहीं उठाई कि साहित्य जगत से जुड़े विद्वान पुरस्कार लौटाने जैसे कदम न उठाएं, केंद्र सरकार राज्यों को एडवाइजरी जारी कर रही है कि ऐसी घटनाओं से सख्ती से निपटा जाए। प्रधानमंत्री के खास माने जाने वाले और वित्त मंत्री अरुण जेटली ने बयान दिया कि कोई असहिष्णुता नहीं है, जो भी साहित्यकार अपने सम्मान वापस कर रहे हैं, वे अलग विचारधारा वाले हैं और सरकार का महज विरोध करने के लिए इस तरह के कदम उठा रहे हैं। <br />
<blockquote></blockquote>दिलचस्प है कि राष्ट्रपति से लेकर तमाम गणमान्य लोगों ने असहिष्णुता बढ़ने की बात कही। लेकिन जैसे ही फिल्म कलाकार शाहरुख खान ने समाज में असहिष्णुता बढ़ने की बात कही, उन्हें विदेशी एजेंट घोषित कर दिया गया। जिम्मेदार पदों पर बैठे भाजपा नेताओं ने उन्हें पाकिस्तान भेजे जाने की धमकी/सलाह दे डाली। सरकार इस तरह की धमकियों पर खामोश बैठी रही। <br />
<blockquote></blockquote>अब प्रधानमंत्री के ब्रिटेन में दिए गए बयान पर आते हैं। मोदी देश के पहले प्रधानमंत्री बन गए हैं, जिनकी बात पर विश्वास करने के पहले कई बार सोचना पड़ता है कि वह क्या कह रहे हैं। क्यों कह रहे हैं। उसके निहितार्थ क्या हैं। निहितार्थ हैं भी या यूं ही बात कही जा रही है। उन्होंने किन बातों पर कहा है कि असहिष्णुता बर्दाश्त नहीं की जा सकती। छोटी से छोटी घटनाओं पर भी नजर रखी जाएगी?<br />
<blockquote></blockquote>हाल में बिहार में भाजपा बुरी तरह चुनाव हारी है। इसके चलते पार्टी के भीतर घमासान शुरू हो गई है। परोक्ष रूप से चुनाव पूर्व मोदी द्वारा मुसलमानों को कुत्ते का पिल्ला, सत्ता में आने के बाद जनरल वीके सिंह द्वारा दलितों को कुत्ता कहने का क्रम बिहार में हार के बाद भाजपा नेताओं ने एक दूसरे को कुत्ता कहना शुरू कर दिया। पार्टी महासचिव कैलाश विजयवर्गीय और वरिष्ठ नेता शत्रुघ्न सिन्हा के बयान इसकी बानगी है। साथ ही पार्टी के वरिष्ठ नेताओं लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, यशवंत सिन्हा और शांता कुमार ने बाकायदा बयान जारी करके भाजपा के मौजूदा प्रभावी लोगों के खिलाफ मोर्चा खोल दिया।<br />
<blockquote></blockquote>संदेह होता है कि अखलाक, कलबुर्गी की हत्याओं या उदय प्रकाश के दर्द का एहसास करते हुए मोदी ने ब्रिटेन में बयान दिया है या कोई और वजह है? प्रधानमंत्री और उनके खास माने जाने वाले भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के खिलाफ पार्टी के भीतर विरोध तेजी से उभरकर सामने आ रहा है। कहीं ऐसा तो नहीं कि मोदी अपने ही दल के वरिष्ठ नेताओं की इस असहिष्णुता के खिलाफ कार्रवाई का मन बना रहे हैं और उनके असहिष्णु बयानों के चलते इन्हें जेल में ठूंस देने की तैयारी में हैं!<br />
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on"><br /></div>Satyendra PShttp://www.blogger.com/profile/06700215658741890531noreply@blogger.com1Southern Asia25.03764 76.456308700000022-28.319115 -6.1608787999999777 78.394395 159.07349620000002tag:blogger.com,1999:blog-3124261744486772692.post-54618290706922922082015-04-10T22:30:00.000-07:002015-04-10T22:30:12.796-07:00जमीन की लूट में हाशिये पर आदिवासी
<b>सत्येन्द्र </b>
<blockquote></blockquote>केंद्र सरकार ने भूमि अधिग्रहण विधेयक पेश किया है। इसे वह किसान हितैषी भी बता रही है। इस पर विपक्ष राजी नहीं है। उसका कहना है कि विधेयक किसान विरोधी है। दिलचस्प है कि हाशिये पर रहे आदिवासियों की चर्चा कहीं नहीं हो रही है। न तो सरकार इन आदिवासियों की बात कर रही है और न ही विपक्ष। वहीं असल लड़ाई आदिवासियों की है, जिनसे जमीन लेकर खनन किया जाना है। कोयला, लौह अयस्क व अन्य प्राकृतिक खनिजों के लिए आदिवासी क्षेत्रों की जमीनों की जरूरत सरकार व उद्योग जगत को है।
<blockquote></blockquote>दरअसल असली लड़ाई आदिवासियों की जमीन छीनने को लेकर ही है। खेती वाली भूमि के अधिग्रहण की जरूरत कम है। जहां अधिग्रहण होता भी है, शहरी इलाकों के नजदीक के किसानों को मुआवजा दे दिया जाता है। लेकिन इस अधिनियम में आदिवासियों की स्थिति क्या है, यह सवाल बहुत महत्त्वपूर्ण है। खासकर ऐसी स्थिति में सवाल और भी महत्त्वपूर्ण है, जब छत्तीसगढ़, ओडिशा, झारखंड से लेकर देश का एक बड़ा हिस्सा कथित लाल गलियारे में तब्दील हो चुका है। कथित नक्सलियों और भारत सरकार के सैन्य बलों के बीच खूनी संघर्ष हो रहे हैं।
<blockquote></blockquote>खुद को किसान हितैषी बताने वाली केंद्र सरकार ने <a href="http://www.business-standard.com/article/economy-policy/govt-against-consent-of-tribals-for-displacement-115033100028_1.html ">विश्वबैंक</a> से कहा है कि वह बैंक द्वारा वित्त पोषित परियोजनाओं से विस्थापित होने वाले आदिवासियों से पूर्व सहमति लेने, उन्हें स्वतंत्र रूप से राय देने और परियोजना के बारे में उनको पूरी जानकारी दिए जाने संबंधी अनिवार्यता को लेकर 'सहज' नहीं है। राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) सरकार की ओर से बैंक को दी गई यह प्रस्तुतीकरण ऐसे समय में आई है, जब सरकार आदिवासियों के परंपरागत वन क्षेत्र को उद्योगों को सौंपे जाने को लेकर आदिवासियों से सहमति लिए जाने की जरूरत खत्म करने पर काम कर रही है।
<blockquote></blockquote>इसके पीछे राजग सरकार ने विश्व बैंक के सामने तर्क दिया है कि भारत के घरेलू कानून और नियम हैं, जो आदिवासियों के हितों की रक्षा करते हैं, जिसमें 'कुछ मामलों में' सहमति लेने का अधिकार भी शामिल है। साथ ही बैंक अपनी शर्तें रखने के बजाय घरेलू कानून पर भी गौर कर सकता है। लेकिन अगर घरेलू स्थिति देखें तो राजग सरकार तमाम कार्यकारी आदेश पारित कर रही है, जिससे ज्यादातर मामलों में आदिवासियों को अपनी वनभूमि की रक्षा करने के लिए वीटो पावर से वंचित होना पड़ेगा। वर्तमान में वन अधिकार अधिनियम के तहत जब उद्योगों को या विकास परियोजनाओं के लिए आदिवासियों की परंपरागत वन भूमि लेनी होती है तो सरकार को ग्राम सभाओं से अनुमति लेनी होती है। जून 2014 से सरकार इन प्रावधानों को नरम करने पर काम कर रही है। हालांकि आदिवासी मामलों का मंत्रालय इसका पुरजोर विरोध कर रहा है।
<i><blockquote></blockquote>सरकार ने जो मौजूदा भूमि अध्यादेश पेश किया है उसमें आदिवासियों की गैर वन्य भूमि के मामले में सहमति की जरूरत सिर्फ खंड 5 और 6 क्षेत्रों तक सीमित है और इसका विस्तार देश के सभी आदिवासी भूमि तक नहीं है। सरकार यह बदलाव इन दावों के साथ कर रही है कि अंग्रेजों का बनाया गया कानून शोषण युक्त है। वह बूढ़ा हो चुका है। उसमें बदलाव की जरूरत है, जिससे भारत विकास के पथ पर चल सके। आखिर इन तर्कों की हकीकत क्या है, जिन्हें तथ्यों के आधार पर परखना होगा। आदिवासियों ने जमीन पर कब्जे को लेकर अंग्रेजों से मोर्चा लिया है। यूं कहें कि आम राजे महराजों की सरकारें तो अंग्रेजों से अपना राजपाठ गंवाती गईं, लेकिन आदिवासियों ने कुछ इस कदर मोर्चा संभाला कि अंग्रेज हुकूमत को वन क्षेत्र और भारत के खनिज संसाधन करीब करीब छोड़ने पड़े। उन्हें आदिवासी विद्रोहियों से जगह जगह समझौते करने पड़े। उनकी सहमति के बगैर वन्य क्षेत्र में प्रवेश कानूनन निषेध हो गया। उस समय जब बंगाल विधान परिषद में चर्चा हुई, उसमें न केवल आदिवासियों, बल्कि किसानों के हितों की भी व्यापक चर्चा हुई, जिसके बाद <a href="http://www.dolr.nic.in/hyperlink/acq.htm ">1894</a> का भूमि कानून आया था। उस कानून की मजबूती ही कहेंगे कि स्वतंत्रता के बाद भी उस कानून में बहुत मामूली फेरबदल किए जा सके, वर्ना कानून की स्थिति यथावत है। </i>
<blockquote></blockquote>केंद्र सरकार भूमि अधिग्रहण विधेयक पर अड़ी है। कांग्रेस के नेतृत्व वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार भी आदिवासी इलाकों में जमीन अधिग्रहण को लेकर अड़ी थी। लाल गलियारे की तमाम परियोजनाएं ठहर सी गईं। सरकार के लिए उन क्षेत्रों में घुसना मुश्किल हो गया। लेकिन मौजूदा सरकार इस कदर विधेयक को लेकर प्रतिबद्ध है कि उसे संविधान की धज्जियां उड़ाने में भी कोई गुरेज नहीं है। संविधान में प्रावधान है कि संसद के दोनों सदन चल रहे हों, उस समय अध्यादेश नहीं लाया जा सकता। 5 अप्रैल को भूमि अध्यादेश की अवधि खत्म हो रही थी, और राज्यसभा में विधेयक पारित नहीं हुआ था। संसद के दोनों सदन भी चल रहे थे। ऐसे में सरकार अध्यादेश नहीं ला सकती थी। इस बाधा को हटाने के लिए सरकार ने राज्यसभा का <a href="http://aajtak.intoday.in/story/rajyasabha-session-over-after-president-approoval-1-805307.html">सत्रावसान</a> कर दिया, जिससे फिर से अध्यादेश लाया जा सके। यह खुले तौर पर संविधान की धज्जियां उड़ाने जैसा है, क्योंकि संविधान की मंशा यह थी कि अध्यादेश केवल आपात स्थिति में लाया जाए, अन्यथा संसद में चर्चा के बाद ही कानून बनाया जाना चाहिए।
<blockquote></blockquote>आखिरकार केंद्र सरकार अध्यादेश ले आई। यह समझना मुश्किल है कि <a href="http://www.thehindu.com/news/national/cabinet-clears-repromulgation-of-land-ordinance/article7054403.ece">अध्यादेश</a> क्यों लाया गया है। इसमें वह 6 <a href="http://www.business-standard.com/article/economy-policy/land-ordinance-2-0-gets-cabinet-go-ahead-115033101432_1.html">बदलाव</a> भी शामिल किए गए हैं, जो केंद्र सरकार ने लोकसभा में भूमि अधिग्रहण विधेयक पेश करते समय किए थे। इसमें आदिवासियों का कोई जिक्र नहीं है। कुछ लुभावने मसलों पर रंगरोगन कर दिया गया है, जिन पर विपक्षी दल सरकार को घेर रहे थे।
<blockquote></blockquote>सरकार का एक तर्क यह भी है कि भूमि अधिग्रहण न हो पाने के कारण तमाम बुनियादी ढांचा परियोजनाएं ठप पड़ी हैं, क्योंकि संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार के जनवरी 2014 में लाए गए भूमि अधिग्रहण कानून के चलते अधिग्रहण में दिक्कतें हो रही हैं। हालांकि उद्योग जगत के सर्वे की ही बात करें तो स्थिति कुछ और ही बयान कर रही है। आंकड़े बताते हैं कि भूमि अधिग्रहण न होने की वजह से बहुत मामूली परियोजनाएं फंसी हैं, जबकि ज्यादातर परियोजनाएं भूमि अधिग्रहण से <a href="http://www.business-standard.com/article/pti-stories/roll-out-delay-hikes-mfg-projects-cost-by-rs-4-5-lakh-cr-114081000137_1.html">इतर दिक्कतों</a>, जैसे <a href="http://www.business-standard.com/article/companies/clearance-delays-push-rcf-s-project-cost-by-rs-500-cr-114041300253_1.html">पर्यावरण की मंजूरी</a> न मिलने, <a href="http://www.business-standard.com/article/pti-stories/roll-out-delay-hikes-mfg-projects-cost-by-rs-4-5-lakh-cr-114081000137_1.html">वैश्विक मंदी</a> के चलते धन न मिलने आदि जैसी वजहों से फंसी हैं।
<blockquote></blockquote>भारत सरकार खुद तो आदिवासियों के अधिकार छीनने पर तुली ही है, विदेश से उद्योग को मिलने वाली फंडिंग के मामले में भी वह आदिवासियों की उपेक्षा करने को तैयार है। वह विश्व बैंक की शर्तों में भी फेरबदल चाहती है। एमनेस्टी इंडिया की बिजनेस और मानवाधिकार शोधकर्ता <a href="http://www.amnesty.org.in/show/news/india-regressive-changes-to-land-acquisition-law-must-not-be-enacted/">अरुणा चंद्रशेखर</a> कहती हैं, 'इससे यह पता चलता है कि सरकार अपने नागरिकोंं की बात सुनने को भी इच्छुक नहीं है। यह चिंता का विषय है कि सरकार फैसले से आदिवासियों की जमीन और उनके संसाधनों पर असर पड़ रहा है और ऐसे मामले में सरकार उनसे सहमति नहीं लेना चाहती।'
<blockquote>अपने ही नागरियों के एक तबके के प्रति सरकार का यह रुख काफी खतरनाक है। विकास के नाम पर सरकार यह कर रही है। दिलचस्प है कि सरकार के इस फैसले से सिर्फ और सिर्फ उन आदिवासियों पर असर पड़ने जा रहा है जो इस समय वन्य क्षेत्रों में रहते हैं। स्वतंत्रता के बाद किसान जो जमीन जोतता था, वह उसके नाम कर दी गई। उसे उस जमीन को बेचने, खरीदने का हक मिल गया। वह राजा, अंग्रेज सरकार या जमींदार को लगान देने की बजाय अपनी चुनी सरकार को लगान देने लगा। वहीं स्वतंत्रता के बाद भी वन क्षेत्र में रहने वाले लोगों के नाम वे वन नहीं किए गए। अंग्रेजों ने उन्हें कुछ हक दिए थे कि वन से जब उन्हें हटाया जाए तो उनसे सहमति ली जाए। तमाम वन कानून उन्हें त्रस्त करते रहते हैं और प्रशासन उन्हें वनोत्पाद लेने से भी रोकते हैं। अब सरकार की मंशा कहीं और ज्यादा खतरनाक हो रही है।
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br /></div>
Satyendra PShttp://www.blogger.com/profile/06700215658741890531noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3124261744486772692.post-41604851610768239212015-03-09T03:06:00.000-07:002015-03-09T03:08:04.329-07:00सामाजिक न्याय की मछलियां<b>(बदलते राजनीतिक माहौल और भाजपा के सत्ता में आने के बाद सभी प्रमुख दलों के कोमा में पहुंच जाने के बाद दिलीप मंडल का यह लेख एक नई दिशा देता है। इसमें सेक्युलरिज्म और सामाजिक न्याय की ताकत की व्याख्या की गई है। जनसत्ता में प्रकाशित लेख)<i></i></b>
<blockquote><b>दिलीप मंडल</b></blockquote>
<blockquote>मछलियां पानी में होती हैं, तो वे जिंदा रहती हैं और उनमें काफी ताकत होती है। लेकिन वही मछलियां जब पानी के बाहर होती हैं तो छटपटा कर दम तोड़ देती हैं। ‘जनता परिवार’ की कुछ पार्टियों ने हाल में एका की जो कवायद की है, उसमें सेक्युलरवाद को मूल विचार के तौर पर पेश किया जा रहा है। यह इन पार्टियों का पानी से बाहर आना या पानी से बाहर बने रहना है। सेक्युलरिज्म का खोखला नारा इन पार्टियों के लिए मारक साबित हो सकता है।</blockquote>
<blockquote>सेक्युलरिज्म इन पार्टियों का केंद्रीय विचार नहीं है। ये पार्टियां या तो सामाजिक न्याय के अपने केंद्रीय विचार को भूल चुकी हैं, या फिर अपने पुराने स्वरूप में लौट पाना इनके लिए असहज हो गया है। ये पार्टियां सेक्युलरिज्म के नाम पर एकजुट होने की कोशिश कर रही हैं, लेकिन वे भूल रही हैं कि सेक्युलरिज्म के मैदान में भाजपा उन्हें और कांग्रेस और माकपा जैसे दलों को लगातार पटक रही है। भाजपा ने सेक्युलरिज्म का राजनीतिक अनुवाद ‘मुसलिम तुष्टीकरण’ के रूप में किया है और इस अनुवाद को हिंदू मतदाताओं ने खारिज नहीं किया है। अगर भाजपा के हिंदू बहुसंख्यकवाद से अन्य पार्टियों का अल्पसंख्यक सेक्युलरवाद टकराएगा, तो इस मुकाबले में जीतने वाले का अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है।</blockquote>
<blockquote>सेक्युलरिज्म को दरअसल कभी राजनीतिक नारा होना ही नहीं चाहिए था। यूरोपीय सामाजिक लोकतंत्र की शब्दावली से आए इस शब्द का भारत आते-आते अर्थ भी बदल चुका है। बल्कि अर्थ का अनर्थ हो चुका है। यह शब्द यूरोप में चर्च और राजकाज की शक्तियों के संघर्ष के दौरान चलन में आया था। इसका अर्थ है कि राजकाज में धर्म (यूरोपीय अर्थ में चर्च) का हस्तक्षेप नहीं होना चाहिए। चर्च और राजनीति के संघर्ष में आखिरकार राजनीति की जीत हुई और चर्च ने अपने कदम पीछे खींच लिए। चर्च की दादागीरी के खिलाफ आधुनिक शासन व्यवस्था की ऐतिहासिक जीत के बाद से ही सेक्युलरिज्म शब्द दुनिया भर में लोकप्रिय हुआ।</blockquote>
<blockquote>लेकिन भारत का सेक्युलरवाद राजकाज और धर्म का अलग होना नहीं है। भारत में इस शब्द का अनुवाद सर्वधर्म-समभाव की शक्ल में हुआ। यानी राज्य या शासन हर धर्म को बराबर नजर से देखेगा और बराबर महत्त्व देगा। लगभग अस्सी फीसद हिंदू आबादी वाले देश में सर्वधर्म-समभाव के नारे का हिंदू वर्चस्व में तब्दील हो जाना स्वाभाविक ही था। आजादी के बाद कांग्रेस के शासन में भी हिंदू प्रतीकों और मान्यताओं को राजकाज में मान्यता मिली। सरकारी कामकाज की शुरुआत और उद्घाटन से लेकर लोकार्पण तक में नारियल फोड़ने, सरस्वती वंदना करने, राष्ट्रपतियों के द्वारा मंदिरों को दान देने से लेकर सरकार द्वारा मंदिरों के पुनरुद्धार कराने तक की पूरी शृंखला है, जो यह बताती है कि राजकाज में हिंदुत्व के हस्तक्षेप की शुरुआत भाजपा ने नहीं की है। यहां तक कि माकपा ने भी पश्चिम बंगाल में अपने तीन दशक से अधिक लंबे शासन में बेहद हिंदू तरीके से राजकाज चलाया और दुर्गापूजा समितियों में कम्युनिस्ट हिस्सेदारी के माध्यम से सांस्कृतिक हस्तक्षेप किया।
</blockquote>
<blockquote>हिंदू तुष्टीकरण की शक्ल में भारतीय सेक्युलरवाद का जो प्रयोग कांग्रेस ने लंबे समय तक किया, उसी को भाजपा आगे बढ़ा रही है। भाजपा की शब्दावली में अपेक्षया तीखापन जरूर है, लेकिन इसे भारतीय सेक्युलरवाद का ही थोड़ा चटक रंग माना जा सकता है। कांग्रेस हिंदू वर्चस्ववाद पर अमल कर रही थी और भाजपा भी प्रकारांतर से इसी काम को कर रही है। सेक्युलर हिंदू वर्चस्ववाद के प्रयोग के ये दो मॉडल हैं। इसमें से कांग्रेसी मॉडल की खासियत यह है कि उसने जो शब्दावली और नारे गढ़े हैं, वे मुसलमानों को आहत नहीं करते और इस वजह से उसे मुसलमानों का समर्थन मिलता रहा।
हिंदू तुष्टीकरण के साथ कांग्रेस मुसलमानों को दंगों का भय दिखाती रही और सुरक्षा प्रदान करने के नाम पर उनके वोट भी लेती रही। हालांकि उसका यह खेल 1990, और खासकर नरसिंह राव के शासनकाल में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद उत्तर प्रदेश और बिहार में पूरी तरह टूट गया, जहां सामाजिक न्याय की राजनीतिक शक्तियों ने मुसलमानों को गोलबंद कर लिया।</blockquote>
<blockquote>इसके बाद से कांग्रेस को लोकसभा में कभी अपने दम पर बहुमत नहीं मिला। कांग्रेस अब भी हिंदू वर्चस्ववाद और मुसलमानों की गोलबंदी को एक साथ साधने की कोशिश में आड़ा-तिरछा चल रही है और उसे संतुलन का रास्ता मिल नहीं रहा है। भाजपा इस मायने में कांग्रेस से अलग है कि उसके बहुसंख्यक वर्चस्ववादी मॉडल में मुसलमानों के लिए कोई जगह नहीं है। इसलिए मुसलमान वोट खोने का उसे भय भी नहीं है। जाहिर है, भाजपा को सेक्युलरवाद के नारे से कोई भय नहीं लगता। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार तक भाजपा ने फिर भी एक झीना-सा आवरण ओढ़ रखा था, जिसकी वजह से उसका सांप्रदायिक चेहरा धुंधला दिखता था। उस समय लालकृष्ण आडवाणी के बजाय वाजपेयी का प्रधानमंत्री बनना, जॉर्ज फर्नांडीज का राजग का मुखिया होना, विवादास्पद मुद््दों से दूरी बनाए रखना आदि राजनीतिक और रणनीतिक मजबूरी थी। सोलहवीं लोकसभा में 281 सीटों पर बैठी भाजपा की अब ऐसी कोई मजबूरी नहीं है। इन सीटों की जीत के लिए भाजपा को अल्पसंख्यक वोटों का मोहताज नहीं होना पड़ा।
</blockquote>
<blockquote>भाजपा ने सोलहवीं लोकसभा के नतीजों से साबित किया है कि सिर्फ हिंदू वोट के एक हिस्से के बूते इस देश में बहुमत की सरकार बन सकती है। इसने पूरी अल्पसंख्यक राजनीति को सिर के बल खड़ा कर दिया है। साथ ही इसने सेक्युलरिज्म के नारे का दम भी निकाल दिया है। सेक्युलरिज्म के नाम पर भाजपा-विरोध की एक बड़ी सीमा यह भी है कि भाजपा को लेकर 1992 के बाद सामने आया सेक्युलरिज्म का ‘मत छुओ वाद’ बहुत ‘सेलेक्टिव’ है। भारतीय राजनीतिक परिदृश्य में कांग्रेस, कम्युनिस्ट पार्टियों और लालू प्रसाद और मुलायम सिंह यादव को छोड़ दें तो सभी दलों और नेताओं ने किसी न किसी दौर में भाजपा के नेतृत्व में चलना स्वीकार किया है। नीतीश कुमार और शरद यादव कुछ महीने पहले तक भाजपा के साथ राजग में सहजता से मौजूद थे। ओमप्रकाश चौटाला भी भाजपा के साथ राजनीति कर चुके हैं। इसलिए भाजपा-विरोध एक राजनीतिक नारा तो है, लेकिन इसे सेक्युलरवाद का वैचारिक मुलम्मा नहीं चढ़ाया जा सकता।
</blockquote>
<blockquote>ऐसे में भाजपा की काट, अल्पसंख्यक वोट और तथाकथित सेक्युलरवाद में देखने वालों के हाथ निराशा के अलावा कुछ भी लगने वाला नहीं है। सारा अल्पसंख्यक वोट एकजुट होकर भी बहुसंख्यक वोट के एक हिस्से से हल्का पड़ सकता है। जाहिर है, भाजपा-विरोध की राजनीति को सफल होने के लिए सेक्युलरवाद से परे किसी और राजनीतिक व्याकरण और समीकरण की जरूरत है। भारत का हिंदू, अगर हिंदू मतदाता बन कर वोट करता है और भाजपा अगर इन मतदाताओं की प्रतिनिधि पार्टी है, तो भाजपा-शासन के लंबे समय तक चलने की संभावना या आशंका से इनकार नहीं किया जा सकता।
</blockquote>
<b><blockquote>अल्पसंख्यक वोट भाजपा को हराने में कारगर हो सकता है, बशर्ते हिंदू मतदाताओं का एक हिस्सा अन्य पार्टियों से जुड़े। यानी हिंदू मतों के विभाजन के बिना उन राज्यों में गैर-भाजपा राजनीति का कोई भविष्य नहीं है, जहां हिंदू आबादी बहुसंख्यक है। क्या भारतीय राजनीति के किसी पिछले या पुराने मॉडल में गैर-भाजपा राजनीति के सूत्र मिल सकते हैं? इसके लिए हमें 1990 के दौर में जाना होगा। भाजपा के वर्तमान उभार की तरह का ही एक भारी जन-उभार उस दौर में राम जन्मभूमि आंदोलन के पक्ष में हुआ था। ऐसा लग रहा था मानो भाजपा ने राजसूय यज्ञ का घोड़ा छोड़ दिया हो, जो लगातार सूबा-दर-सूबा फतह करता जा रहा हो। लेकिन वह दौर भारतीय राजनीति में सामाजिक न्याय की नई पहल के तौर पर भी जाना जाता है।</blockquote></b>
<blockquote>राममनोहर लोहिया के गैर-कांग्रेसवाद की राजनीति उत्तर प्रदेश से लेकर बिहार और कई अन्य राज्यों में ओबीसी नेतृत्व को मजबूत कर रही थी। केंद्र सरकार की नौकरियों में ओबीसी आरक्षण लागू किए जाने से भी नई सामाजिक शक्तियों का विस्फोट हो रहा था। यह सारा घटनाक्रम हिंदुओं को सिर्फ हिंदू होकर वोट करने में बाधक साबित हो रहा था।</blockquote>
<blockquote>सन 1992 में बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद भाजपा-शासित चार राज्यों में राष्ट्रपति शासन लगाया गया और जब 1993 में वहां दोबारा चुनाव हुए तो भाजपा उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और हिमाचल प्रदेश का चुनाव हार गई और राजस्थान में कांग्रेस से मामूली बढ़त हासिल कर किसी तरह वहां की सरकार बचा पाई।</blockquote>
<blockquote>लेकिन सामाजिक न्याय की राजनीति कालांतर में कमजोर पड़ती चली गई। जमात की राजनीति खास जातियों की राजनीति और बाद में चुने हुए परिवारों की राजनीति बन गई। वंचित जातियों के बीच तरक्की, समृद्धि और शक्तिशाली होने की उम्मीद जगा कर, सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले दल कुछ और ही करने लगे। इस बीच भाजपा ने नरेंद्र मोदी की शक्ल में एक ओबीसी चेहरा सामने लाकर सामाजिक न्याय की कमजोर पड़ी चुकी राजनीति की रही-सही जान भी निकाल दी।</blockquote>
<b><blockquote>अब सवाल उठता है कि क्या आने वाले विधानसभा चुनावों और अगले लोकसभा चुनाव के लिए गैर-भाजपा दलों के पास कोई रणनीति है? भाजपा अपनी गलतियों से हार जाएगी, यह सोच कर राजनीति नहीं हो सकती। क्योंकि यह बिल्कुल मुमकिन है कि भाजपा ऐसी कोई गलती न करे, या हो सकता है कि अपनी राजनीति को और मजबूत कर ले। मौजूदा समय में गैर-भाजपा खेमे में ऐसी कोई राजनीति होती नजर नहीं आती।</blockquote></b>
<blockquote>कांग्रेस और बाकी विपक्षी दलों ने विपक्ष का स्थान खाली-सा छोड़ दिया है। भाजपा का थोड़ा-बहुत वैचारिक विपक्ष, भाजपा के मूल संगठन आरएसएस के एक हिस्से से आ रहा है।</blockquote>
<b><i><blockquote>विकल्पहीनता की ऐसी स्थिति में भाजपा-विरोधी पार्टियां सामाजिक न्याय की राजनीति में अपनी कामयाबी के सूत्र तलाश सकती हैं। वैसे भी कोई हिंदू, सिर्फ हिंदू नहीं होता। उसकी कोई न कोई जाति-बिरादरी भी होती है। उसकी यह पहचान हिंदू होने की पहचान से कहीं ज्यादा टिकाऊ है, क्योंकि धर्म बदलने से या घर वापसी से भी उसकी यह पहचान नहीं मिटती। शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण का कोटा सख्ती से लागू करने, आरक्षण का प्रतिशत बढ़ा कर तमिलनाडु की तरह उनहत्तर फीसद पर ले जाने, जातिवार जनगणना करा कर सामाजिक न्याय के नारे को विकास-कार्यक्रमों से जोड़ने, भूमि सुधार करने और सबके लिए समान शिक्षा जैसे अधूरे कार्यभार को अपने हाथ में लेकर गैर-भाजपा राजनीति फिर से अपना खोया इकबाल वापस हासिल कर सकती है। भाजपा को इन राजनीतिक कार्यक्रमों के आधार पर घेरना मुमकिन है। ऐसा होते ही भाजपा अपना मूल सवर्ण अभिजन हिंदू वोट बचाए रखने और वंचित जातियों को जोड़ने के दोहरे एजेंडे के द्वंद्व में घिर जाएगी।</blockquote></i></b>
<blockquote>वर्तमान समय में, सेक्युलर बनाम गैर-सेक्युलर की राजनीति भाजपा की राजनीति है। हिंदू आबादी को हिंदू मतदाता बनाने के लिए भाजपा को इसकी जरूरत है। गैर-भाजपावाद के सूत्र सेक्युलरिज्म में नहीं हैं। गैर-भाजपावाद के सूत्र, हो सकता है सामाजिक न्याय की राजनीति में हों। कभी सामाजिक न्याय की राजनीति से अपनी छाप छोड़ने वाली पार्टियों और नेताओं को अपनी राजनीति में वापस लौटना चाहिए। मछलियां पानी में लौट कर ही जिंदा रह सकती हैं। सेक्युलरिज्म की सूखी धरती उनके प्राण हर लेगी।</blockquote>
<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br /></div>
Satyendra PShttp://www.blogger.com/profile/06700215658741890531noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3124261744486772692.post-59342918472868019622014-04-09T03:03:00.000-07:002014-04-09T03:03:03.381-07:00<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br /></div>
<b>बिहार में 'राम' भरोसे भाजपा</b>
<blockquote></blockquote>सत्येन्द्र प्रताप सिंह
<blockquote></blockquote>सोशल इंजीनियरिंग वाले बिहार में भारतीय जनता पार्टी को पसीने छूट रहे हैं। पार्टी ने राज्य में उच्च जाति के उन मतदाताओं के बीच अच्छी पैठ बना ली है, जो लोग लालू प्रसाद के लंबे शासनकाल से दुखी थे और सत्ता के करीब आने के लिए लालायित थे। लेकिन नीतीश कुमार के जनता दल यूनाइटेड से अलग होते ही भाजपा का नशा काफूर हो गया। अब उसे दलितों और पिछड़ों को लुभाने के लिए राम विलास पासवान और राम कृपाल यादव जैसे नेताओं की शरण में जाना पड़ रहा है, जो राज्य के सोशल इंजीनियरिंग फार्मूले के मुखौटे के रूप में जाने जाते हैं। भाजपा शायद यह साबित करना चाहती है कि वह पिछड़ों-दलितों के खिलाफ नहीं है। भले ही पार्टी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी ने जानबूझकर या अनजाने में अपनी पहली ही रैली में संदेश देने की कोशिश की थी कि बिहार का 'सवर्ण काल' वापस आएगा।
<blockquote></blockquote>हालांकि मंडल आयोग आने के साथ ही भाजपा ने भांप लिया था कि उसका हिंदुत्व या मुस्लिम विरोधी कार्ड नहीं चलने वाला है। यही वजह है कि उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश, गुजरात में पिछड़े वर्ग के नेता आजमाए गए। यहां तक कि दक्षिण का द्वार भी पिछड़े वर्ग के नेताओं के जरिये ही खुला। वहीं कांग्रेस मंडल आंदोलन को समय पर नहीं भांप पाई और लगातार पिछड़ती गई। 'इंडियाज साइलेंट रिवॉल्यूशनÓ नामक पुस्तक में क्रिस्टोफे जैफ्रेलॉट ने राजनीति की बदलती अवधारणा का जिक्र करते हुए कहते हैं कि अब हर दल की मजबूरी बन गई है कि वह समाज के उन तबकों से जुड़े लोगों को स्थान दे, जिन्हें लंबे समय सत्ता से वंचित रखा गया। हिंदी पट्टी में कांग्रेस की नाकामी को उन्होंने इसी रूप में देखा है कि कांग्रेस इस बदलाव को समझने में नाकाम रही।
<blockquote></blockquote>भाजपा बिहार में पिछड़े और दलित तबके के नेताओं को वह मुकाम नहीं दे पाई, जो उसे चुनावी नैया पार करा सकें। शायद इसकी वजह यह थी कि लालू प्रसाद कार्यकाल में लंबे समय से सत्ता पर काबिज रहे जिस तबके को सत्ता से दूर किया गया था, भाजपा उस वर्ग पर एकाधिकार चाहती थी। पार्टी इसमें सफल भी हुई। लेकिन पिछड़े और दलित तबके के जिन नेताओं को पार्टी ने विकसित करने की कोशिश की, वे पार्टी में दलित प्रकोष्ठ तक ही सिमटे रहे। पिछड़े वर्ग के चेहरे के रूप में नरेंद्र मोदी को पेश कर भाजपा देश भर में इस तबके के लोगोंं का मत खींचना चाहती है, लेकिन बिहार में उसे खासी दिक्कत आ रही है।
<blockquote></blockquote>इस दिक्कत की बड़ी वजह यह है कि बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में सत्ता में वंचित तबके की हिस्सेदारी बढ़ी है। न केवल राज्य स्तर के नेतृत्व में चेहरे बदल गए हैं, बल्कि ग्राम प्रधान और जिला स्तर के नेताओं में भी इस तबके का अच्छा खासा दबदबा है। ऐसी स्थिति में इन दो बड़े राज्यों में सिर्फ मोदी का मुखौटा दलितों व पिछड़ों को लुभाने में सफल होगा, इसे लेकर भाजपा आश्वस्त नहीं है और वह सोशल इंजीनियरिंग के आंदोलन से जुड़े चेहरों को पार्टी से जोडऩा चाहती है।
<blockquote></blockquote>हालांकि यह कहना अभी भी कठिन है कि खुद के टिकट या अपने बच्चों को राजनीति में स्थापित करने की आस लेकर भाजपा से जुडऩे वाले सोशल इंजीनियरिंग के बूढ़े हो चुके चेहरे भाजपा से मतदाताओं को जोडऩे में कितना सफल होंगे। Satyendra PShttp://www.blogger.com/profile/06700215658741890531noreply@blogger.com0tag:blogger.com,1999:blog-3124261744486772692.post-90999805082613686912014-04-09T03:01:00.000-07:002014-04-09T03:01:53.955-07:00शेयर बाजार में लुटते लोग<div dir="ltr" style="text-align: left;" trbidi="on">
<br /></div>
<b><blockquote></blockquote>सत्येन्द्र प्रताप सिंह</b>
<i><blockquote></blockquote>सामान्यतया यह माना जाता है कि शेयर बाजार किसी कंपनी की प्रगति, उसकी बैलेंस शीट, उसकी भविष्य की संभावनाओं के आधार पर काम करता है। हालांकि यह एक आदर्श धारणा है। हकीकत यह है कि इनसाइटर ट्रेडिंग, सूचनाओं के लीकेज और बड़े निवेशकों द्वारा किसी कंपनी के शेयर में जानबूझकर अनावश्यक तेजी लाने और जब जनता के पैसे से उस शेयर के दाम बढ़ जाएं तो अचानक पैसे खींचकर शेयर गिरा देने के मुताबिक कंपनियों के शेयरों के भाव घटते बढ़ते हैं।
<blockquote></blockquote>इसी का एक उदाहरण हाल ही में सन फार्मा और रैनबैक्सी के सौदों में देखने को मिला। दोनों कंपनियों के बीच हुए सौदे के महज कुछ दिन पहले रैनबैक्सी के शेयरों की भारी खरीद फरोख्त हुई। दिलचस्प यह रहा कि पिछले हफ्ते रैनबैक्सी के शेयर मंगलवार को 370 रुपये पर थे, जो शुक्रवार तक बढ़कर 459 रुपये प्रति शेयर पर पहुंच गए। दिलचस्प है कि रैनबैक्सी के शेयर उसी दाम के करीब आकर रुक गए, जिस मूल्य पर सौदे की घोषणा की गई। साफ दिखता है कि रैनबैक्सी के विलय सौदे के मूल्यांकन की जानकारी बाजार को पहले से थी, जिसके चलते ऐसा संभव हो सका।
<blockquote></blockquote>इस कारोबारी बेइमानी के बारे में सेबी जांच कर रहा है। लेकिन.... परिणाम के बारे में क्या कहा जा सकता है..... इनसाइडर ट्रेडिंग, भेदिया कारोबार, भारी खरीद के जरिये शेयर बाजार में आम निवेशकोंं को ठगने का बहुत तगड़ा कारोबार नजर आता है। </i>
<blockquote></blockquote><a href="http://hindi.business-standard.com/storypage.php?autono=84813">विलय सौदे पर सेबी की नजर</a>
<blockquote></blockquote>समी मोडक और सचिन मामबटा / मुंबई April 08, 2014
<blockquote></blockquote>दिग्गज दवा कंपनी सन फार्मास्युटिकल्स और रैनबैक्सी लैबोरेटरीज के विलय सौदे की पूंजी बाजार नियामक भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) प्रारंभिक जांच कर सकती है। दरअसल सेबी 4 अरब डॉलर के इस सौदे में इस बात की पड़ताल कर सकती है कि कहीं इसमें भेदिया कारोबार के नियमों का तो उल्लंघन नहीं हुआ है। सन-रैनबैक्सी सौदे की घोषणा से कुछ दिनों पहले ही रैनबैक्सी के शेयरों की खासी खरीद-फरोख्त के बाद सेबी इस दिशा में कदम उठाने की तैयारी कर रहा है।
<blockquote></blockquote>सेबी से जुड़े एक सूत्र ने बताया, 'शेयरों की खरीद-फरोख्त में आई तेजी इस बात की ओर इशारा करती है कि कुछ निश्चित इकाइयों को इस सौदे के बारे में अंदरुनी जानकारी रही हो। अगर इस बारे में कोई प्रमाण मिलते हैं तो कार्रवाई की जाएगी।' सन फार्मा द्वारा रैनबैक्सी के अधिग्रहण की घोषणा से पहले तीन कारोबारी सत्रों में रैनबैक्सी का शेयर करीब 24 फीसदी तक चढ़ गया था। सन ने रद्द सौदा शेयरों के जरिये करने की घोषणा की है। बीते हफ्ते मंगलवार को रैनबैक्सी का शेयर 370.70 रुपये पर बंद हुआ था जो शुक्रवार तक बढ़कर 459.55 रुपये पर पहुंच गया जबकि इस सौदे की घोषणा सोमवार को की गई।
<blockquote></blockquote>सूत्रों के मुताबिक सेबी, सन फार्मा, रैनबैक्सी और इस सौदे से जुड़े अन्य मध्यस्थतों को पत्र लिखकर इस बारे में इस बात की जानकारी मांग सकता है कि इस सौदे के बारे में किन-किन लोगों/इकाइयों को जानकारी थी। रैनबैक्सी के शेयरों में सौदे की घोषणा से पहले तेजी तो आई लेकिन शेयर भाव उस स्तर के करीब थम गया जिस मूल्य पर सौदे की घोषणा की गई। इससे संकेत मिलता है कि बाजार को इस सौदे के मूल्यांकन की जानकारी हो सकती है। विलय सौदे के तहत रैनबैक्सी के प्रति शेयर का मूल्य 457 रुपये हो सकता है। इस बारे में जानकारी के लिए सेबी के प्रवक्ता को ईमेल भेजा गया लेकिन फिलहाल उनका जवाब नहीं आया है।
<blockquote></blockquote>इस बीच, प्रोक्सी सलाहकार फर्मों ने कहा कि सेबी को इस मामले में भेदिया कारोबार से जुड़ी सभी संभावनाओं को देखना चाहिए। इनगवर्न रिसर्च सर्विसेज के प्रबंध निदेशक श्रीराम सुब्रमणयन ने कहा, 'सेबी उन ब्रोकरों की जांच कर सकता है जहां बड़ी मात्रा में शेयरों की खरीद हुई है। अगर इस बारे में कोई शिकायत दर्ज नहीं होती है तब भी सेबी स्वत: संज्ञान लेते हुए इसकी जांच कर सकता है।' कॉर्पोरेट गवर्नेंस फर्म स्टेकहोल्डर इम्पावरमेंट सर्विसेज के प्रबंध निदेशक जे एन गुप्ता ने कहा कि अगर इसमें किसी तरह की अनियमितता रही है तो इसकी जांच की जानी चाहिए।
<b><blockquote></blockquote>रद्द होगी सिल्वरस्ट्रीट की रैनबैक्सी में शेयरधारिता</b>
<blockquote></blockquote>विलय के समय सन फार्मा समूह की कंपनी सिल्वरस्ट्रीट डेवलपरर्स की रैनबैक्सी में शेयरधारिता को रद्द कर दी जाएगी। ब्लूमबर्ग के आंकड़ों के मुताबिक सिल्वरस्ट्रीट ने मार्च तिमाही के दौरान रैनबैक्सी में करीब 60 लाख शेयर खरीदे हैं, जिनका मूल्य करीब 270 करोड़ रुपये है। यह खरीद औसतन 375 रुपये शेयर भाव पर की गई है। हालांकि सन फार्मा ने कहा कि यह सौदा भेदिया कारोबार के दायरे में नहीं आएगा क्योंकि विलय के बाद इन शेयरों को रद्द कर दिया जाएगा और इसके बार नई इकाई के शेयर सिल्वरस्ट्रीट को जारी नहीं किए जाएंगे।
<b><blockquote></blockquote>सीसीआई भी कर सकता है सौदे की जांच</b>
<blockquote></blockquote>अग्रणी दवा कंपनियों सन फार्मा और रैनबैक्सी के एकीकरण को भारतीय प्रतिस्पर्धा आयोग की कड़ी जांच का सामना करना पड़ सकता है। आधिकारिक सूत्रों और कॉरपोरेट वकीलों के मुताबिक, सन में रैनबैक्सी के प्रस्तावित विलय के लिए विस्तृत जांच की दरकार होगी। सौदे में जटिल क्षेत्र भी शामिल हैं, जो प्रतिस्पर्धा पर असर डाल सकते हैं। प्रस्तावित सौदे की कीमत 4 अरब डॉलर है, जिसमें रैनबैक्सी के 80 करोड़ डॉलर का कर्ज सन फार्मा के खाते में हस्तांतरण शामिल है।
<blockquote></blockquote>के के शर्मा लॉ ऑफिसेस के चेयरमैन और सीसीआई के पूर्व महानिदेशक के के शर्मा ने कहा, इस सौदे की निश्चित तौर पर सीसीआई की तरफ से विस्तृत जांच की दरकार होगी क्योंकि यह दो अग्रणी दवा कंपनियों के एक साथ आने का मामला है, जो पहले एक दूसरे से प्रतिस्पर्धा करती रही हैं। लॉ फर्म विभिन्न कंपनियों को प्रतिस्पर्धा के मसले पर रणनीतिक परामर्श मुहैया कराती है। सीसीआई एक निश्चित सीमा से ऊपर वाले विलय व अधिग्रहण सौदों पर नजर रखता है।
<blockquote></blockquote>सौजन्य- http://hindi.business-standard.com/storypage.php?autono=84813
Satyendra PShttp://www.blogger.com/profile/06700215658741890531noreply@blogger.com1