Tuesday, August 9, 2011

ऐसे भारतीय, जिनकी समस्या का अंत नहीं


गर देश का अमन ऐसा होता है

कि कर्ज के पहाड़ों से फिसलते पत्थरों की तरह

टूटता रहे अस्तित्व हमारा

और मजूरी के मुंह पर थूकती रहे

कीमतों की बेशर्म हंसी

कि अपने रक्त से नहाना ही तीर्थ का पुण्य हो

तो हमें अमन से खतरा है।

-पाश

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मासिक धर्म के समय औरतों को बहुत सतर्क रहना होता है। शहरी इलाकों में औरतें सैनेटरी नैपकिन का प्रयोग करती हैं। गांवों की बात कीजिए। जंगली इलाकों में देखें कि औरतें क्या करती हैं। केरल प्रदेश में औरतें चार-पांच गज के लंबे कपड़े का टुकड़ा अपनी कमर में बांधती हैं, जिसे लुंगी कहा जाता है। इस लुंगी के कई आवरण होते हैं। मासिक धर्म के दिनों में निकलने वाले खराब खून को यही लुंगी सोख लेती है।

गुजरात के कूच इलाके में लड़कियां और औरतें दस-दस मीटर लंबे कपड़े के टुकड़े कमर पर बांधती हैं। ये कपड़े बहुरंगी होते हैं। वहां पानी की कमी होती है तो महीनों अपने परिधान धोने का जुगाड़ गुजराती बहनें नहीं कर पाती हैं।

उत्तर प्रदेश में पहाड़ी औरतें सैनेटरी नैपकिन खुद बनाती हैं। वे कपड़े का जो पैड बनाती हैं, उसमें राख भरती हैं। वहीं मैदानी इलाकों में महिलाएं राख के बजाय सूखे गोबर का प्रयोग करती हैं।

राजस्थान की आदिवासी महिलाएं जो पैड बनाती हैं, उसमें बालू भरती हैं।

"जंगल जंगल लूट मची है" पुस्तक का एक अंश

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अमरेंद्र किशोर की पुस्तक जंगल जंगल लूट मची है, विभिन्न इलाकों के आदिवासियों की समस्याओं और सरकारी उदासीनता की कलई खोलती है। हालांकि संपूर्ण पुस्तक पढ़ने पर तमाम तरह के भ्रम होते हैं और होने भी चाहिए, क्योंकि हर इलाके में आदिवासियों के शोषण के अलग अलग कारण हैं। गरीबी, अशिक्षा, स्वास्थ्य की खराब हालात, अंधविश्वास आदि के बारे में इस किताब में विस्तार से प्रकाश डाला गया है। हालांकि इस पुस्तक में आदिवासियों के भीतर से खोजे जा रहे राजनीतिक समाधान या समस्याओं से निजात को सरकारी उदासीनता या सक्रियता तक ही सीमित रखा गया है। कहीं कहीं कारोबारी शोषण का भी उल्लेख है। कुल मिलाकर किताब इस मायने में पठनीय है कि आदिवासियों पर कलम बहुत ही कम चली है और इससे स्थानीय स्तर की जमीनी समस्याओं के बारे में जानकारी मिलती है।

पुस्तक- जंगल जंगल लूट मची है
प्रथम संस्करण- 2005
प्रकाशक- राधाक्रिष्ण प्रकाशन प्राइवेट लिमिटेड
7-31, अंसारी रोड, दरियागंज, नई दिल्ली 110002



6 comments:

  1. जाकिर जी, प्रवीन जी धन्यवाद। पुस्तक पढ़ने में तमाम दिक्कतें हुईं। भारी भरकम भाषा। स्पष्ट दिशा का अभाव। फिर भी कुल मिलाकर पठनीय है। डंडा जी, ऐसी व्यवस्था को खत्म करने के लिए बदलाव की जरूरत है।

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