Wednesday, December 14, 2011

गॉड इज़ नॉट ग्रेट


डॉ दुर्गाप्रसाद अग्रवाल



इन दिनों धर्म की भूमिका की पड़ताल करने वाली अनेक मह्त्वपूर्ण किताबें आई हैं। सैम हैरिस की द एण्ड ऑफ़ फ़ेथ (2005) और रिचार्ड डॉकिन्स की द गॉड डेल्यूज़न (2006) पिछले दिनों बहु चर्चित रही हैं। इसी परम्परा को आगे बढाती है क्रिस्टोफ़र हिचेन्स की किताब ‘गॉड इज़ नॉट ग्रेट : हाऊ रिलीजन पॉइज़न्स एवरीथिंग’ । 1 मई 2007 को प्रकाशित यह किताब अपने प्रकाशन के एक सप्ताह के भीतर ही अमेज़न डॉट कॉम की बेस्ट सेलर सूची में तीसरी पायदान पर पहुंच गई। 13 अप्रेल 1949 को इंग्लैण्ड में जन्मे और अब अमरीकी नागरिक क्रिस्टोफ़र एरिक हिचेन्स की छवि मूर्ति भंजक, नास्तिक और कर्मकाण्ड विरोधी की रही है। मदर टेरेसा तक को कट्टर, रूढिवादी और फ़्रॉड कहकर वे अपने मिजाज़ का परिचय पहले ही दे चुके हैं। इस किताब में तो उन्होंने किसी भी धर्म गुरू को नहीं बख्शा है, चाहे वह दलाई लामा हो या रेवरेण्ड मार्टिन लूथर किंग जूनियर! यहां तक कि महात्मा गान्धी भी उनके प्रहारों से नहीं बच पाये हैं। बस एक अपवाद हैं सेण्ट फ़्रांसिस।
इस किताब का उप शीर्षक (हाऊ रिलीजन पॉइज़न्स एवरीथिंग) इसकी मूल स्थापना को उजागर करने के लिए काफ़ी है। हिचेन्स मानते हैं और अनेक उदाहरण देकर स्थापित करते हैं कि धर्म सब कुछ को जहरीला बनाता है, और दुनिया धर्म के बगैर ज़्यादा बेहतर हो सकती है। हिचेन्स के अनुसार धर्म हिंसक, अतार्किक, असहिष्णु, नस्लवाद, कबीलावाद और धर्मान्धता से जुडा, अज्ञान में आकण्ठ डूबा, मुक्त चिंतन के प्रति आक्रामक, स्त्री विरोधी और बाल-पीडक है। जैसे इतना ही काफ़ी न हो, वे धर्म को मानवीकृत, हत्यारा, भय से उपजा और भय के ही निर्मम दबाव के कारण टिका हुआ बताते हैं। द गॉड डेल्यूज़न के लेखक डॉकिन्स के स्वर में स्वर मिलाकर वे भी धर्म शिक्षा को बाल अपचार की श्रेणी में शुमार करते हैं। हिचेन्स धार्मिक आस्था को खतरनाक यौनिक दमन का परिणाम भी मानते हैं, कारण भी। इन सब कारणों से वे बहुत ज़ोर देकर कहते हैं कि धर्म को हटाइए और जिज्ञासा वृत्ति, मुक्त मन और विचारों की खोज को सम्मान दीजिए।

हिचेन्स यह भी स्थापित करते हैं कि धर्म की जडें केवल और केवल इच्छा पूर्ति में है। इसी आधार पर वे धर्म को मानव-निर्मित बताते हुए कहते हैं कि एक नैतिक जीवन धर्म के बगैर भी/ही जिया जा सकता है। हिचेन्स बर्ट्रेण्ड रसेल की किताब व्हाई आई एम नॉट ए क्रिश्चियन की चिन्तन परम्परा को आगे बढाते हुए विज्ञान एवम तर्क पर आधारित धर्म निरपेक्ष जीवन की वक़ालत करते हैं। हिचेन्स जब तर्क की बात करते हैं और समकालीन यौनिकता तथा यौनिक दमन को प्राचीन धार्मिक विश्वासों से जोडकर विश्लेषित करते हैं तो प्रभावित करते हैं। जब वे विभिन्न युद्धों और तानाशाही निज़ामों में धर्म की संलग्नता के ब्यौरे देते हैं तो उनकी बात में दम लगता है। लेकिन जब वे धर्म की एक अति सरलीकृत छवि बनाते हैं और फ़िर उस पर पिल पडते हैं तो बावज़ूद उनकी तेज़ाबी भाषा और दिलचस्प अन्दाज़े बयां के, हमारी असहमतियां उभरने लगती हैं। तब लगता है कि एक समीक्षक ने यह कहकर कोई ज़्यादती नहीं की है कि हिचेन्स अपने विषय से पूरी तरह अनभिज्ञ हैं।

गडबड यह हुई है कि हिचेन्स ने धर्म को पूरी तरह सरलीकृत कर डाला है। उनके लिए धर्म और कर्मकाण्ड जैसे एक ही हैं। अगर धर्म वाकई वह है जो हिचेन्स बता रहे हैं तो तो निश्चय ही उसका न होना बेहतर है। दुनिया ऐसे लोगों से भरी पडी है जो यह मानते हैं कि धर्म का अर्थ ऐसे ईश्वर में अन्ध श्रद्धा है जो प्रार्थना करने पर वरदान या शाप दे देता है। ऐसे बेपढे, रूढिवादी लोग ही विज्ञान और तर्क को शैतान के पंजे मानते हैं। सवाल यह है कि क्या धर्म को इस तरह परिभाषित करना उचित और तर्क संगत है? क्या कर्म काण्ड और शाप-वरदान से आगे धर्म है ही नहीं? हिचेन्स शायद यही कहना चाहते है। और यहीं हमें उनसे असहमत होना पडता है।

मुझे इस किताब की सबसे बडी ताकत भी इसी बात में लगती है कि यह अपने पाठक में गहरी असहमति जगाती है। न केवल असहमति, गहरी प्रश्नाकुलता भी। इससे बडी सार्थकता किसी किताब की और हो भी क्या सकती है! किसी किताब या किसी विचारक से यह उम्मीद करना कि उसके पास आपके सारे सवालों के जवाब होंगे निराश होने की दिशा में अग्रसर होना है। दुनिया के किसी भी विचारक और किसी भी किताब ने यह नहीं किया है। लेकिन हर उम्दा किताब, हर सुलझा विचारक आपके ठहरे हुए सोच में हलचल पैदा करने का महत्वपूर्ण काम करता है। इस किताब ने भी यही किया है.

courtsy: http://dpagrawal.blogspot.com/2007_08_26_archive.html

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God is Not Great: how religion poisons everything


Matt Buchanan

A few weeks before the events of September 11, 2001, Christopher Hitchens sat on a panel with Dennis Prager, a US religious broadcaster, who challenged him to a "straight yes/no question". Prager asked Hitchens to imagine himself standing in the street of a strange city at dusk as a large group of men approached him. Would he feel safer, or less safe, Prager wanted to know, if he knew the men had emerged from a prayer meeting?

After noting that it wasn't possible to answer "yes" or "no" to such a question, Hitchens writes: "I was able to answer it as if it was not hypothetical. Just to stay within the letter 'B', I have had that experience in Belfast, Beirut, Bombay, Belgrade, Bethlehem and Baghdad. In each case I can say absolutely, and can give my reasons, why I would feel immediately threatened if I thought that the group of men approaching me in the dusk had come from religious observance."

In Belfast, Hitchens saw locals terrorised for "no other reason than membership of another confession". In Belgrade, he'd seen Croatian Roman Catholics slug it out with Christian Orthodox Serbs. In Beirut, a suicide bomber's severed head stared at him in the street outside the French embassy. And so on.

Hitchens relates this in his second chapter, Religion Kills, an overture preceding a thundering 300-page cannonade; a thrillingly fearless, impressively wide-ranging, thoroughly bilious and angry book against the idea of God, the practice of religion and the vast majority of the planet "stupid" enough to believe. It's a call, too, in an age of flourishing fundamentalisms, for a new Enlightenment, a call partially lost in the demolition.

It's a book to boot an agnostic off the fence, to invigorate atheists and anti-theists; believers will find it challenging, perhaps diabolical, most certainly offensive. But then Hitchens not only has previous form - in 2002 he accepted the invitation of the Vatican to act as Devil's Advocate arguing the case against the beatification of Mother Teresa (her support of the prohibition on condoms Hitchens thought unconscionable in an environment rife with AIDS) - he is also a laureate of contempt. He means to start a fight.

Hitchens found atheism young. God is Not Great starts with a nine-year-old Hitchens fuming at his scripture teacher Mrs Jean Watts for telling him that God "has made all the trees and grass to be green, which is exactly the colour that is most restful to our eyes. Imagine if instead, the vegetation was all purple, or orange, how awful that would be."
Author
Christopher Hitchens
Genre
Spirituality/Religion
Publisher
Allen & Unwin
Pages
307
RRP
$29.95
courtsy: http://www.smh.com.au/news/book-reviews/god-is-not-great-how-religion-poisons-everything/2007/05/25/1179601648057.html

3 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

ईश्वर को स्वयं ही परिभाषित कर उसका खंडन करने में बहुत ऊर्जा खर्च होती होगी।

dinesh aggarwal said...

मान्वर इतनी बहुमूल्य जानकारी से अवगत कराने
के लिये आपका हृदय से आभार।
मैंने अपने अनुभव के आधार अपन ब्लॉग पर कुछ
कृपया आकर अपनी टिप्पणी देकर अनुग्रहीत करें।

dinesh aggarwal said...

मान्वर इतनी बहुमूल्य जानकारी से अवगत कराने
के लिये आपका हृदय से आभार।
मैंने अपने अनुभव के आधार अपन ब्लॉग पर कुछ
कृपया आकर अपनी टिप्पणी देकर अनुग्रहीत करें।