Wednesday, September 11, 2019

थम नहीं रहा आरक्षण के प्रावधानों के उल्लंघन का मामला


सत्येन्द्र पीएस

केंद्र सरकार के तमाम आश्वासनों के बावजूद नौकरियों में आरक्षित वर्ग की नियुक्ति को लेकर गड़बड़ियां और धांधलियां रुकने का नाम नहीं ले रही हैं। ताजा मामला उत्तर प्रदेश के डिग्री कॉलेजों में असिस्टेंट प्रोफेसरों की भर्ती का है। राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग (एनसीबीसी) ने एक मामले की सुनवाई के दौरान पाया है कि इसमें आरक्षण के प्रावधानों का खुला उल्लंघन हुआ है। एनसीबीसी ने भर्ती के लिए चल रहा साक्षात्कार तत्काल रोक देने को कहा है। आयोग ने लिखित परीक्षा के परिणाम के आधार पर आरक्षण के प्रावधानों के मुताबिक उत्तीर्ण अभ्यर्थियों की सूची बनाकर साक्षात्कार कराने को कहा है।
उत्तर प्रदेश सरकार ने राज्य के महाविद्यालयों के रिक्त 1150 असिस्टेंट प्रोफेसर पदों पर भर्ती की प्रक्रिया शुरू की। 14 जुलाई 2016 तक इन पदों के लिए आवेदन आमंत्रित किए गए। इसके लिखित परीक्षा के परिणाम आने लगे तो विसंगतियां खुलकर सामने आईं। भर्ती प्रक्रिया में करीब हर विषय में अन्य पिछड़ा वर्ग की मेरिट अनारक्षित सीटों पर चयनित अभ्यर्थियों से ज्यादा थी। यानी कि सामान्य वर्ग की तुलना में आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थियों को ज्यादा अंक मिलने पर सलेक्ट किया गया था। इसे लेकर कुछ वेबसाइट्स पर खबरें चलीं। सोशल मीडिया पर बड़े पैमाने पर विरोध हुआ। सरकार को कुछ ज्ञापन भी भेजे गए। उत्तर प्रदेश उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग (यूपीएचईएससी) की ओर से कराई जा रही इस परीक्षा को लेकर सवाल खड़े होने शुरू हो गए कि आखिर यह अचंभा कैसे हो रहा है कि आरक्षण पाने वाले अभ्यर्थी ज्यादा अंक पाने पर सलेक्ट हो रहे हैं और बगैर आरक्षण वाले अभ्यर्थी कम अंक पाने पर सलेक्ट हो रहे हैं।
सोशल मीडिया, कुछ वेबसाइट्स की खबरों के बाद यह मामला एनसीबीसी के पास गया। एनसीबीसी ने पिछले 6 सितंबर को सुनवाई की। इसमें शिकायतकर्ता व उत्तर प्रदेश उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग की सचिव ने अपना अपना पक्ष रखा। सचिव द्वारा कोई प्रासंगिक अभिलेख प्रस्तुत न किए जाने के बाद आयोग ने साक्षात्कार रोक देने और 11 सितंबर को अगली सुनवाई की तिथि निर्धारित की थी।
आयोग के अध्यक्ष डॉ भगवान लाल साहनी और सदस्य कौशलेंद्र सिंह पटेल के पीठ ने 11 सितंबर को सुनवाई की। आयोग के सूत्रों ने बताया कि उत्तर प्रदेश उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग (यूपीएचईएससी) की सचिव ने एनसीबीसी को लिखित जानकारी दी कि जून 2018 में एक आंतरिक बैठक में यह फैसला किया गया कि आरक्षित वर्ग के लोगों का चयन आरक्षित श्रेणी में ही किया जाएगा।
यूपीएचईएससी ने आयोग की बैठक संख्या 1028 की जानकारी दी। 10 जून 2019 को हुई इस बैठक में यूपीएचईएससी ने कहा, “विज्ञापन संख्या 48 व विज्ञापन संख्या 47 में विज्ञापित सहायक आयार्य के आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थी यदि सामान्य श्रेणी के लिए निर्धारित कट ऑफ मार्क्स से अधिक अंक होने की स्थिति में आते हैं तो आरक्षित वर्ग की कट आफ मार्क्स के निर्धारण पर सम्यक विचार किया गया और सर्वसम्मति से निर्णय लिया गया कि आरक्षित वर्ग के अभ्यर्थी यदि सामान्य श्रेणी के लिए निर्धारित कट आफ मार्क्स से अधिक अंक धारित करते है, उस स्थिति में भी एक पद के सापेक्ष 5 अभ्यर्थियों को ही मेरिट के आधार पर साक्षात्कार के लिए आमंत्रित किया जाए। श्रेणीवार कट आफ मार्क में जितने भी अभ्यर्थी आएंगे, उनको सम्मिलित किया जाए।”
इस तरह से यूपीएचईएससी ने साफ कर दिया कि आरक्षित वर्ग को अनारक्षित या सामान्य श्रेणी के पदों पर नहीं बुलाया जाएगा। परिणाम आने लगे और आरक्षित वर्ग के तमाम ऐसे अभ्यर्थी साक्षात्कार के लिए नहीं बुलाए गए, जिन्हें अनारक्षित श्रेणी के अभ्यर्थियों की तुलना में ज्यादा अंक मिले थे।
एनसीबीसी ने पाया कि यूपीएचईएससी के इस अनुमोदन में आरक्षण के तमाम प्रावधानों व न्यायालय के फैसलों का उल्लंघन हुआ है। एनसीबीसी ने 2018 में आयोग को नरेंद्र मोदी सरकार से मिली संवैधानिक शक्तियों का हवाला देते हुए अनुशंसा की है कि विज्ञापन संख्या 47 की साक्षात्कार प्रक्रिया को अविलंब स्थगित किया जाए। एनसीबीसी ने कहा है कि आरक्षण अधिनियमों व आदेशों के मुताबिक साक्षात्कार के लिए फिर से मेरिट सूची बनाई जाए। मेरिट सूची इस तरह जारी की जाए कि अनारक्षित संवर्ग की अंतिम कट ऑफ के बराबर या उससे अधिक अंक पाने वाले समस्त अभ्यर्थियों (ओबीसी, अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति संवर्ग को शामिल करते हुए) को साक्षात्कार हेतु आमंत्रित किया जाए।
साथ ही एनसीबीसी ने कहा है कि विज्ञापन संख्या 47 के जिन विषयों के अंतिम परिणाम जारी किए जा चुके हैं, उनमें भी संशोधन कर ओबीसी/एससी/एसटी संवर्ग के उन अभ्यर्थियों को फिर से साक्षात्कार कर शामिल किया जाए, जिन्होंने अनारक्षित वर्ग की लिखित परीक्षा के अंतिम कट ऑफ के बराबर या उससे ज्यादा अंक अर्जित किया है और पहले के साक्षात्कार में वंचित कर दिए गए हैं।
राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग के इस फैसले के बाद भी उस प्रक्रिया में विसंगतियां साफ नजर आ रही हैं। यूपीएचईएससी
के उस विज्ञापन में कहा गया है कि आरक्षण का प्रावधान उच्च न्यायालय के 20 जुलाई 2009 के आदेश के मुताबिक किया गया है और इस सिलसिले में उच्चतम न्यायाल में अपील दाखिल की गई है और आरक्षण व्यवस्था शीर्ष न्यायालय के फैसले पर निर्भर होगा।
शीर्ष न्यायालय विश्वविद्यालयों में भर्ती में विभागवार रोस्टर की व्यवस्था जारी रखी थी। उसके बाद तमाम आंदोलनों व आश्वासनों, संसद में हंगामे के बाद केंद्र सरकार ने अध्यादेश निकालकर विभागवार आरक्षण के फैसले को बदल दिया और पूर्ववत 200 प्वाइंट रोस्टर बरकरार रखा है। यह अध्यादेश संसद के दोनों सदनों में पारित होकर संवैधानिक रूप ले चुका है।
उत्तर प्रदेश उच्चतर शिक्षा सेवा आयोग में असिस्टेंट प्रोफ़ेसरों की नियुक्ति प्रक्रिया में भी आरक्षित पदों की संख्या संबंधी गड़बड़ियाँ खुलकर सामने आई हैं। इतिहास में 38 पदों में से 32 अनारक्षित हैं, जबकि 4 पद ओबीसी और 2 पद एससी-एसटी के लिए आरक्षित हैं। भूगोल विषय के कुल 48 पद में 31 अनारक्षित, 12 ओबीसी और 5 पद एससी-एसटी के लिए आरक्षित रखे गए हैं। उर्दू में 11 पदों में से 9 सामान्य एक ओबीसी और एक पद एससी-एसटी के लिए है। राजनीति शास्त्र के कुल 121 पदों में से 92 सामान्य, 18 ओबीसी और 11 एससी-एसटी के लिए आरक्षित रखे गए हैं। यह पद कहीं से भी ओबीसी के लिए 27 प्रतिशत और एससी-एसटी के लिए 22.5 प्रतिशत आरक्षित पदों से मेल नहीं खाते हैं।
एनसीबीसी और यूपीएचईएससी दोनों ही जिम्मेदार आयोगों ने यह विचार नहीं किया कि 121 पदों में अगर ओबीसी के लिए 18 पद आरक्षित हैं तो इसमें 27 प्रतिशत आरक्षण का पालन कहां हुआ है। इसका कोई स्पष्टीकरण नहीं आया है कि 121 का 27 प्रतिशत किस गणित के हिसाब से 18 होता है। हालांकि उत्तर प्रदेश में ऐसा कारनामा हुआ है।
इस तरह से देखें तो सरकारी विभागों की हत्या कर या निजीकरण करके ही आरक्षण की हत्या नहीं की जा रही है, बल्कि जो संस्थान अभी सरकारी बचे हुए हैं, उनमें भी भर्तियों में गड़बड़ियां चरम पर हैं। वंचित तबके के लोग न इसे समझने में सक्षम हैं, न अपनी आवाज उठा पाने में सक्षम हैं, न इन धांधलियों के खिलाफ कोई व्यापक आंदोलन हो रहा है। हकमारी जारी है।



Saturday, August 3, 2019

रवीश कुमार को रैमन मैगसेसे तपती दोपहर में ठंडी हवा का एक झोंका है



सत्येन्द्र पीएस
भारत में करीब हर साल किसी न किसी को रैमन मैगसेसे मिलता है. तमाम तारीफें होती हैं. तमाम आलोचनाएं होती हैं. इस बीच रवीश कुमार को भी रैमन मैगसेसे पुरस्कार मिल गया. स्वाभाविक है कि किसी भी व्यक्ति को एशिया का सबसे बड़ा सम्मान मिलना खुशी देता है.
भारतीय जनता पार्टी के सत्ता में आने के बाद से देश में अलग तरह का माहौल बना है. अखबारों, चैनलों और सोशल मीडिया में जो लोग लिखते, बोलते और दिखते हैं, स्वाभाविक है कि उनका भी एक पक्ष होता है. अपना पक्ष। संस्थान के एक कर्मचारी की हैसियत से भी उसकी अपनी प्रतिबद्धता होती है. उसकी अपनी सीमाएं होती हैं. लेकिन 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद से स्वतंत्र जनपक्षधरता, सरकार के खिलाफ बोलना राष्ट्रद्रोह और मोदी विरोध के रूप में देखा जाने लगा है.

इंटरनेट के प्रभावी होने के बाद आम लोगों के साथ पत्रकारों को भी स्वतंत्र अभिव्यक्ति का एक अवसर मिला. करीब 12 साल पहले ब्लॉग का दौर आया था. उन दिनों इंटरनेट के लिए टाइपिंग ही बहुत मुश्किल हुआ करती थी. लेकिन ब्लॉगों को लोग बड़ी तेजी से अपना रहे थे और अपनी भावनाएं सामने रख रहे थे। दरअसल रवीश कुमार का मेरा परिचय ब्लॉग के दौर से ही हुआ। रवीश ही नहीं, उस समय ब्लॉग चलाने वाले कई नाम थे, जिनसे अच्छा इंटरैक्शन बना. रवीश कुमार का नई सड़क, आर. अनुराधा और दिलीप मंडल का रिजेक्ट माल, अविनाश दास का मोहल्ला, रेयाज उल हक का हाशिया, यशवंत सिंह का भड़ास, अनिल पुसादकर का अमीर धरती-गरीब लोग, हाशिया, कबाड़खाना, उड़नतश्तरी, शब्दों का सफ़र सहित दर्जनों ब्लॉग का मैं नियमित पाठक बन गया और तमाम ब्लॉगरों से दोस्ताना रिश्ते बने. हाशिया का तो मैं सबसे बड़ा फैन था, या कहें कि वेबसाइट्स की मौजूदा बमबारी में हाशिया ही एक ब्लॉग बचा है, जो मुझे नियमित पाठक बनाए हुए है. इन सभी ब्लॉगरों के लिखने में कुछ अपनापन सा लगता था। ऐसा लगता कि यह लोग कुछ ऐसी बात लिख रहे हैं, जो मेरी बात है. अखबारों से इतर. दशकों से घिसे पिटे और दलीय प्रतिबद्धता से इतर लोगों के विचार सामने आने लगे. बेशक इनमें से कुछ पत्रकार थे और कुछ गैर पत्रकार. लेकिन जुड़ाव की एक ही डोर थी, जन पक्षधरता, अपनी दिलचस्पी के विषय. यह आम लोगों की बात लिखने वाले लोग थे. तमाम लोगों के बारे में बाद में पता चला कि यह लोग बड़े संस्थानों में स्थापित पत्रकार हैं. यह लोग अपने संस्थानों से इतर अपने ब्लॉगों में दे रहे थे.

मुझे याद नहीं कि उस दौर में रवीश कुमार बड़े पत्रकार बन चुके थे या नहीं. पहली बाद संस्थागत जनपक्षधर पत्रकारिता का उनका चेहरा तब सामने आया, जब वह रवीश की रिपोर्ट लेकर आने लगे. उन गलियों, मोहल्लों, टोलों, कस्बों में जाकर रिपोर्ट लाते थे, जो टीवी चैनलों पर दुर्लभ हुआ करती थी। उनकी वही चीज सामने टीवी स्क्रीन पर आने लगी, जिसकी झलक ब्लॉगों में मिलती थी। वह कार्यक्रम कांग्रेस यानी मनमोहन सिंह के शासनकाल में शुरू हुआ था. कार्यक्रम सीधे तौर पर कांग्रेस की नाकामियों को उजागर करते थे. हालांकि वह लिंचिंग का दौर नहीं था. इस समय रवीश की सोशल मीडिया पर लिंचिंग करने वाले भी संभवतः उन कांग्रेस विरोधी खबरों की प्रशंसा में वाह-वाह करते रहे होंगे (हालांकि इसे कांग्रेस विरोधी के बजाय सत्ता विरोधी कहना ज्यादा उचित होगा). लेकिन जनता की याद्दाश्त बहुत कमजोर होती है. नई नई समस्याएं, नई नई सूचनाएं आती हैं और पुरानी को लोग भूलते चले जाते हैं. संभवतः रवीश का विरोध करने वाले तमाम लोगों को यह याद नहीं होगा कि वह एक दौर में कांग्रेस सरकर की आंख की किरकिरी थे.

रवीश की रिपोर्ट कार्यक्रम को बंद कर दिया गया. यह याद नहीं कि कांग्रेस के समय में बंद किय़ा गया या भाजपा के शासन में. लेकिन उस कार्यक्रम की ज्यादातर रिपोर्टें, जो मैंने देखी हैं, वह कांग्रेस सरकार के ही विरोध में हुआ करती थीं. रिपोर्ट बंद होने के बाद रवीश का एक लेख भी आया था कि उनका प्रिय कार्यक्रम बंद किया जा रहा है. उन्हें अब गंदे बजबजाते मोहल्लों, रोती बिलखती अपनी मुसीबत बताती महिलाओं के बीच जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी. अब उन्हें मेकअप करके प्राइम टाइम में बैठना है.

रवीश कुमार ने प्राइम टाइम में क्या दिखाया, इसके बारे में मुझे बहुत जानकारी नहीं है. उसकी वजह यह है कि अपनी व्यस्तता या टीवी मोह खत्म होने की वजह से देखना संभव नहीं हो पाता था. हालांकि सूचना के तमाम माध्यमों के अलावा सोशल मीडिया के शेयर किए गए लिंक्स से यह देखने को मिल जाता था. उनमें कुछ ऐसी खबरें रहती थीं, जो सत्ता विरोधी होतीं. जन पक्षधरता वाली होतीं. हालांकि नरेंद्र मोदी सरकार के कार्यकाल के रवीश मोनोटोनस नजर आते हैं. चिढ़े-चिढ़े से. खीझे-खीझे से. ज्यादा संभव है कि सोशल मीडिया से लेकर ह्वाट्सऐप और तमाम संचार माध्यमों में गालियों और धमकियों ने उन्हें डराया हो, जिसके चलते वह भाजपा सरकार के खिलाफ सख्त होते चले गए हों और उनकी निराशा एकालाप बन गई हो.

स्वाभाविक है कि उनके संस्थान ने रवीश कुमार को संस्थान की ओर से बेहतर कर पाने का मौका मिला. बेहतर आवाज और शैली ने मदद की. रैमन मैगसेसे पाने के बाद भी और कई बार पहले भी रवीश ने स्वीकार किया है कि देश में हजारों की संख्या में ऐसे लोग हैं, जो बहुत बेहतर कर सकते हैं. लेकिन हर किसी को मौका नहीं मिल पाता है. रवीश में भी तमाम खामियां हैं. तमाम लोगों को वह एरोगेंट लगते हैं. व्यक्तिगत समस्याओं में लोगों की मदद न करने की भी शिकायतें होती हैं. इन सबके बावजूद पत्रकारिता के सूखे रेगिस्तान में रवीश एक हरे भरे वृक्ष नजर आते हैं. हालांकि बार बार यह खयाल भी आता है कि क्या लोगों को निष्पक्ष और भरोसे के काबिल पत्रकारिता की जरूरत है? यह भी संभव है कि समाचार माध्यम चलाने वाले बड़े कॉर्पोरेट्स ने सही खबरों व सूचनाओं के लिए अखबार और चैनल से इतर अपना अलग तंत्र विकसित कर लिया हो, क्योंकि सही खबर की जरूरत उन्हें आम आदमी से कहीं ज्यादा होती हैं. रवीश कुमार जैसे पत्रकारों की जरूरत आम आदमी को ज्यादा है, जो हर संचार माध्यम से जनता की आवाज आम लोगों के सामने रख सके.

Saturday, April 6, 2019

क्या था राज....

(पड़ोसी मुल्क को भले ही इसकी आदत हो लेकिन भारत में कभी भी सैन्य तख्तापलट की कल्पना भी नहीं की गई। हाल में एक अखबार में छपी सनसनीखेज रिपोर्ट ने सवाल उठा दिया है कि 16 जनवरी की रात को हुर्ई कवायद के पीछे क्या मकसद था। इसकी परतें खोलती अजय शुक्ला की रिपोर्ट)


चंद सवाल ऐसे होते हैं जिनका जवाब हमें नहीं मिल पाता। कुछ ऐसी ही बात इस सवाल से जुड़ी हुई है जिनका जवाब अब हमें शायद कभी नहीं मिल पाएगा। क्या 16 जनवरी को सेना प्रमुख ने वास्तव में अपने मुखिया रक्षा मंत्री ए के एंटनी को चेतावनी देने के मकसद से नई दिल्ली के आसपास के इलाके में दो सैन्य टुकडिय़ों को जुटाने की कवायद की थी? यह वही दिन था जब जनरल वी के सिंह ने अभूतपूर्व कदम उठाते हुए उच्चतम न्यायालय में अपनी उम्र से जुड़े विवादास्पद मामले में सरकार को चुनौती दी थी।
बुधवार को इस खबर की आंच ने पूरे देश भर में हलचल मचा दी। 'इंडियन एक्सप्रेस' अखबार में यह खबर छपी कि 16 जनवरी की कुहासे और कड़ाके की ठंड वाली रात में जब खुफिया एजेंसियों को यह अंदाजा हुआ कि हिसार की 33 वीं बख्तरबंद डिविजन की एक सैन्य टुकड़ी और आगरा की 50 वीं (स्वतंत्र) पैराशूट ब्रिगेड की एक विशेष सैन्य बल टुकड़ी अप्रत्याशित तरीके से देश की राजधानी की ओर बढ़ रही है जिससे देश के राजनैतिक हलके में घबराहट बढ़ गई थी।

इस रिपोर्ट के मुताबिक सरकार ने इस घटनाक्रम को 'अप्रत्याशित' और 'गैर अधिसूचित' करार देते हुए आनन-फानन में रक्षा सचिव शशिकांत शर्मा को भी मलेशिया से वापस बुलाया था। शर्मा जब दिल्ली पहुंचे तब उन्होंने सेना के सैन्य संचालन महानिदेशक (डीजीएमओ) लेफ्टिनेंट जनरल ए के चौधरी को अपने दफ्तर में देर रात एक बैठक के लिए बुलाया और उनसे इस पर रुख स्पष्ट करने को कहा कि 'यह चल क्या रहा है?' जनरल को यह ताकीद दी गई कि वह सेना की टुकडिय़ों को तुरंत वापस भेजें।
हालांकि इस अंग्रेजी अखबार ने अपनी इस रिपोर्ट में 'तख्तापलट' जैसे शब्द का इस्तेमाल नहीं किया था। लेकिन रिपोर्ट में इस बात पर जोर दिया गया था कि राजनैतिक-सैन्य रिश्ते में बने तनाव के माहौल के बीच सेना की इस हरकत से सरकार की नुमाइंदगी करने वाले प्रमुख लोगों ने 'गड़बड़ी की आशंका और घबराहट' महसूस की। इसके बाद सेना ने इस खबर का बड़े आक्रामक तरीके से खंडन किया।

सेना के बेहद ईमानदार और तेजतर्रार जनरलों में से एक लेफ्टिनेंट जनरल हरचरनजीत सिंह पनाग 2009 में सेवानिवृत होने तक एक सैन्य कमांडर थे, उन्होंने गुरुवार को ट्विटर पर लिखा कि जनरल सिंह ने सरकार को डराने के लिए यह योजना बनाई थी ताकि सरकार को यह अंदाजा हो जाए कि अगर वह उन्हें बाहर का रास्ता दिखाने की तैयारी में है तो तख्तापलट भी संभव हो सकता है। पनाग ने सुझाया कि चूंकि सेना की दो टुकडिय़ों का यह कदम उनकी नियमित अभ्यास प्रक्रिया का ही हिस्सा था, ऐसे में किसी द्वेषपूर्ण और बुरे इरादे की बात को विश्वसनीय ढंग से खारिज किया जा सकता है। सेना की इन्हीं टुकडिय़ों को केवल अभ्यास के आदेश दिए गए थे जिस पर आपत्ति जताने का कोई सवाल भी नहीं खड़ा होता और केवल चुनिंदा लोग ही इस कार्यवाही के असली मकसद के बारे में जानते हैं।
इसी से जुड़े पांच ट्वीट में पनाग ने इस कदम को एक 'प्रदर्शन' करार दिया जो 'दुश्मन की फैसला लेने की प्रक्रिया में बदलाव' लाने के लिए की गई कार्रवाई है। एक 'कवर प्लान' के जरिये इस पूरे घटनाक्रम का खंडन करने की स्थिति पैदा की गई, जिसके बारे में पनाग विस्तार से बताते हैं, 'दुश्मन को झांसा देने के लिए बनाई गई योजना के लिए एक विश्वसनीय बहाना बनाया जा सके।' इस सैन्य प्रदर्शन में हिस्सा लेने वाली सैन्य टुकडिय़ां इसके 'असली मकसद से वाकिफ नहीं थीं' लेकिन वरिष्ठ कमांडरों को इसका भान था। पनाग का कहना है कि नई दिल्ली की ओर सैन्य टुकडिय़ों का बढऩा एक 'सुनियोजित प्रदर्शन का हिस्सा था और इसके लिए उपयुक्त कवर योजना भी बना ली गई थी' जिसका मतलब यह है कि कोई दुश्मन किसी की रणनीति और योजना पर अमल न होने देने से पहले ही पलटवार कार्रवाई करना।

सरकार, सेना और मीडिया भी इस बात पर बड़े सावधान हैं और अगर पनाग की बात सही माने तो इसे करीब-करीब तख्तापलट जैसे अनुभव का नाम दिया जा सकता है। सार्वजनिक चर्चा में रिपोर्ट में लिखे गए 'सी' शब्द पर चर्चा हो रही है। इस रिपोर्ट को लिखने वाले इंडियन एक्सप्रेस के मुख्य संपादक शेखर गुप्ता ने एक टीवी पत्रकार के सवालों का जवाब देते हुए कहा, 'मैंने सी शब्द का इस्तेमाल जरूर किया है लेकिन इससे मेरा तात्पर्य क्यूरियस (उत्सुकता) था न कि कू (तख्तापलट)'।


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क्या वास्तव में यह सरकार और सेना के रिश्ते में आमूल परिवर्तन वाली ऐतिहासिक घटना है? क्या इतिहासकार 16 जनवरी को एक ऐसे दिन के रूप में देखेंगे जिस दिन जनरल सिंह ने सरकार की प्रक्रिया को अदालत में चुनौती दी और साथ-साथ (अगर पनाग सही हैं तो) दिल्ली की ओर कूच करके इसका हल निकालने की दृढ़ता दिखाई? फिलहाल ऐसा लगता है कि जनरल सिंह का सरकार के साथ चल रहा मतभेद सेना के लिए काफी फायदेमंद साबित हो रहा है। अब रक्षा मंत्रालय के अधिकारी बड़ी तत्परता से नीतियों, खरीद प्रक्रिया और पदोन्नति को मंजूरी दे रहे हैं जिसे कुछ मामलों में कई सालों से बेवजह लटकाया गया था।

20 मार्च को रक्षा मंत्रालय ने मेजर जनरल के लिए एक पदोन्नति बोर्ड के नतीजे को मंजूरी दी थी जिसे पिछले 6 महीने से निर्ममता से टाला गया था। 2 अप्रैल को इसी मंत्रालय ने लंबे समय से संशोधन की राह ताक रही डिफेंस ऑफसेट पॉलिसी में सुधार किया था। उसी दिन एंटनी ने हथियारों की खरीद से जुड़ी समीक्षा की थी और उन्होंने इनके जल्द परीक्षण कराने का आग्रह भी किया। हालांकि सैन्य बलों पर असैन्य नियंत्रण के लिए वित्त एक महत्त्वपूर्ण पहलू रहा है लेकिन एंटनी ने रक्षा सेवाओं को ज्यादा वित्तीय शक्तियां देने का सुझाव दिया है ताकि ज्यादा से ज्यादा उपकरण खरीदें जाएं और इन सेवाओं के तंत्र को ज्यादा सशक्त बनाया जाए।

सेना की 15 वर्षीय दीर्घावधि एकीकृत दृष्टिकोण योजना, एक अहम दस्तावेज है जिसमें देसी तकनीक के आधार पर हथियारों के विकास और खरीद के लिए एक खाका तैयार किया गया है। सूत्रों का कहना है कि इसे जल्द ही मंजूरी मिल सकती है। एक ओर नरेश चंद्रा समिति रक्षा तैयारी और उच्च स्तर के रक्षा संगठनों की पुनर्संरचना से जुड़ी अपनी सिफारिशों को अंतिम रूप दे रही है वहीं अंदरूनी सूत्रों ने इस बात पर दांव लगाना शुरू कर दिया है कि सरकार लंबे समय से विभिन्न समितियों और मंत्री समूहों द्वारा दिए जा रहे इस सुझाव को संभवत: स्वीकार सकती है कि तीन स्तर के सेना प्रमुखों से ऊपर एक 'चीफ ऑफ दि डिफेंस स्टॉफ' की नियुक्ति की जाए। यह प्रस्तावित पद पांच सितारा जनरल वाला होगा जिसके हाथ में थल, जल एवं वायु तीनो सेनाओं की कमान होगी।
फिलहाल सेना, सेनाध्यक्ष और सरकार के बीच चल रहे विवाद और रक्षा मंत्रालय से जुड़े इस तथाकथित संवेदनशील वाकये के बीच किसी ताल्लुक से साफ तौर पर इनकार कर रही है। हालांकि सेवारत जनरल जोरदार तरीके से इंडियन एक्सप्रेस के लेख से उभर रहे आरोपों को खारिज कर रहे हैं जिसके मुताबिक जनरल सिंह ने सरकार पर गैरकानूनी तरीके से दबाव बनाया।

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फिलहाल सेना मुख्यालय में सेवारत अधिकारी जोर देकर कहते हैं कि यह बिलकुल गलत बात है कि राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीआर) में किसी भी वक्त सेना की हलचल से पहले रक्षा मंत्रालय द्वारा पूर्व जरूरी मंजूरी का कोई प्रावधान या नियम है। सैन्य संचालन के समन्वय से जुड़े एक ब्रिगेडियर का कहना है, 'सेना की टुकडिय़ां रोजाना दिल्ली की ओर, दिल्ली में और दिल्ली के इर्द-गिर्द होती हैं। इनमें फायरिंग या प्रशिक्षण के लिए जा रही टुकडिय़ों के काफिले के साथ-साथ एक केंद्र से दूसरे केंद्र की ओर स्थानांतरित हो रही टुकडिय़ों का काफिला भी होता है। हर कॉम्बैट टुकड़ी को हर दो या तीन साल में ऐसा करना ही होता है। इन टुकडिय़ों के काफिले को प्रशासनिक औपचारिकताएं पूरी करने के लिए दिल्ली में रुकना पड़ता है।'

सेवारत अधिकारी यह सवाल भी उठाते हैं कि आखिर दिल्ली की ओर आ रही दो टुकडिय़ों (बमुश्किल 500 जवान) को कैसे एक खतरे के तौर पर देखा जा सकता है, जब दो फ्रंटलाइन इन्फैंट्री ब्रिगेड और एक आर्टिलरी ब्रिगेड (10,000 से भी ज्यादा जवान) स्थायी रूप से राजधानी में तैनात रहते हैं। दिल्ली में इस स्थायी सैन्य जमाव में जनवरी में कुछ और हजार अतिरिक्त जवान तब और जुड़ जाते हैं जिन्हें सेना दिवस और गणतंत्र दिवस की परेड में शामिल होना होता है। एक अधिकारी सवाल करते हैं, 'चलिए एक क्षण को यह मान भी लिया जाए कि कुछ उन्मादी सेना प्रमुख तख्तापलट चाहते थे और वह दिल्ली में मौजूद सैनिकों के अलावा कुछ और सैनिक चाहते थे। ऐसे में वह हिसार (165 किलोमीटर दूर) और आगरा (204 किलोमीटर दूर) से सैनिकों को क्यों जमा करते जब महज 70 किलोमीटर की दूरी पर मेरठ में पूरी इन्फैंट्री डिविजन मौजूद है।'

यहां तक कि किसी कल्पित तख्तापलट पर हो रही चर्चा की संवेदनशीलता को देखते हुए पहचान गुप्त रखने की शर्त पर हाल में सेवानिवृत्त हुए एक लेफ्टिनेंट जनरल कहते हैं , 'किसी भी सफल सैन्य तख्तापलट के लिए सभी छह भौगोलिक सैन्य कमानों के अलावा वायु सेना प्रमुख के सक्रिय सहयोग की दरकार होगी। यहां तक कि अगर एक भी कमान के प्रमुख की इस पर सहमति नहीं होगी तो भी यह संभव नहीं होगा और ऐसा सोचना बिलकुल मूर्खतापूर्ण होगा कि भावी सेनाध्यक्ष और पूर्वी कमान के प्रमुख लेफ्टिनेंट जनरल विक्रम सिंह खुद को किसी भी तख्तापलट के साथ जोड़ेंगे-ऐसे में कोई भी कोशिश तुरंत वफादारों और विद्रोहियों के बीच गृहयुद्घ में तब्दील हो जाएगी।'

हालांकि भारत में एक कामयाब सैन्य तख्तापलट की कल्पना करना शायद मुश्किल है, लेकिन मौजूदा फितूर किसी असल तख्तापलट की गुंजाइश का मसला नहीं है बल्कि जैसा कि पनाग कहते हैं, एक कमजोर सरकार की कलाई मरोड़कर उस पर हल्का सा सैन्य दबाव डालने की खयाली पुलाव हो सकता है। एक पूर्व सेनाध्यक्ष कहते हैं, 'हिसार और आगरा से इन दो टुकडिय़ों को बुलाने के पीछे के इरादों को निश्चित रूप से निर्धारित करना अगर असंभव नहीं तो कम से कम मुश्किल जरूर होगा। कागजी कार्यवाही ही यह बताएगी कि यह अभ्यास वैधानिक आदेश का हिस्सा था या नहीं। इस कदम के पीछे के इरादे ही मायने रखते हैं और इरादे इंसानी दिमाग में होते हैं।'
उनका कहना है कि यहां पर सरकार और सेना के बीच रिश्ते मायने रखते हैं। पूर्व सेनाध्यक्ष कहते हैं, 'पंजाब में अलगाववाद से लडऩे के लिए मुझे दिल्ली के रास्ते 3-4 पूरी डिविजन गुजारनी पड़ती थीं। उससे एक पल के लिए भी असैन्य प्रशासन के लिए साथ कोई तनाव नहीं हुआ। सेना और सरकार के बीच उस वक्त रिश्ते जैसे भी हों लेकिन हमारे बीच कोई संदेह नहीं था।'


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यही वजह है कि किसी देश के नागरिक-सैन्य संबंध निश्चित रूप से बेहतर स्थापित ढांचे, प्रक्रिया और प्रभाव चक्र पर आधारित होने चाहिए न कि मौजूदा मिजाज के हिसाब से जो हालात और घटनाओं से बदल सकते हैं। भारत में सरकार और सेना के बीच सीमा रेखा की कुछ समझ या सार्वजनिक चर्चा होती है जिसमें दोनों की जिम्मेदारी और संपर्क भी तय है। लेखक सैमुअल हंटिंगटन ने वर्ष 1957 में आई अपनी कालजयी कृति 'द सोल्जर ऐंड द स्टेट' में सेना के 'वस्तुनिष्ठ नियंत्रण' की अवधारणा पेश की। सभी सफलतम लोकतंत्रों में लागू असैन्य नियंत्रण का यह ढांचा सेना को अपने दायरे में पूरी स्वायत्तता मुहैया कराता है। अपने पेशेवर क्षेत्र में अपना प्रभुत्व रखने वाली सेना और इस तरह से 'वस्तुनिष्ठ नियंत्रण' स्वयंसिद्घ हो जाता है और वह राजनैतिक दायरे में खुद को शामिल नहीं करती। हालांकि असैन्य नियंत्रण सेना के रोजमर्रा के फैसलों को प्रभावित करने के बजाय व्यापक राजनैतिक मुद्दों के हिसाब से होता है। इसके उलट 'व्यक्तिपरक नियंत्रण' बाधित असैन्य नियंत्रण के जरिये सेना के प्रभाव को बेअसर करता है, विस्तृत असैन्य पकड़ सेना के आंतरिक मामलों में दखल देने लगती है। व्यक्तिपरक नियंत्रण 'सेना के असैन्यकरण' का संकेत देता है जबकि वस्तुनिष्ठ नियंत्रण 'सेना के सैन्यकरण' के लिए लक्षित होता है जो पेशेवर अंदाज और उसके दायरे में उसकी जिम्मेदारी को प्रोत्साहित करता है।
भारतीय सेना और रक्षा मंत्रालय या भारत सरकार के साथ इसके संबंधों के ढांचे पर नजर रखने वाले छात्र और विश्लेषक एकमत रूप से इस बात पर सहमत हैं कि पिछले कुछ वक्त के दौरान 'वस्तुनिष्ठ नियंत्रण' की सीमा का उल्लंघन हुआ है। दीर्घ अवधि की योजना से लेकर हथियार खरीद, प्रोन्नति और सेना के अधिकारियों की जन्म तिथि, सब पर असैन्य नौकरशाही हावी है। किसी भी सैन्य अधिकारी से उसकी सबसे बड़ी नाराजगी की वजह पूछिए लगभग निश्चित रूप से यही जवाब आएगा, 'बाबू' यानी नौकरशाह।

हालांकि भारत में सैन्य तख्तापलट बहुत मुश्किल है और संसदीय लोकतंत्र के ढांचे को लेकर शिकायतों और आक्रोश पर सेना एक दायरे में ही प्रतिक्रिया देती है। एक अन्य चर्चित पुस्तक 'सोल्जर्स इन पॉलिटिक्स, मिलिट्री कूज एंड गवर्नमेंट्स' के लेखक एरिक नॉर्डलिंगर तर्क देते हैं कि आमतौर पर सरकार की नाकामी सैन्य तख्तापलट की वजह बनती हैं। सैन्य दखल के वास्तविक कारण उन मामलों में होने वाला असैन्य दखल है जिन पर सेना अपना वैधानिक अधिकार मानती है, पर्याप्त बजटीय सहायता, आंतरिक मामलों में उसकी स्वायत्तता, प्रतिद्वंद्वी संगठन द्वारा उसकी जिम्मेदारी के अतिक्रमण रोकने का उसका अधिकार और खुद उसकी निरंतरता। क्या यह एक व्यापक बहस का समय है?

साभार- बिजनेस स्टैंडर्ड


Wednesday, March 27, 2019

एंटी सैटेलाइट मिसाइल का राजनीतिकरण



सत्येन्द्र पीएस


भारत अब आधिकारिक रूप से उन देशों के क्लब में शामिल हो गया है, जिनके पास अंतरिक्ष में किसी सैटेलाइल को मार गिराने की क्षमता है। भारत ने एंटी सैटेलाइट मिसाइल से एक लाइव सैटेलाइट को मार गिराया, जो अंतरिक्ष में 300 किलोमीटर दूर लो अर्थ ऑर्बिट में स्थित थी। यह क्षमता अब तक रूस, अमेरिका और चीन के पास थी। निश्चित रूप से भारत के हिसाब से यह बड़ी उपलब्धि है।

तकनीक में बहुत आगे बढ़ चुकी है दुनिया
पिछले 2 दशक में विश्व ने अंतरिक्ष के क्षेत्र में सबसे ज्यादा प्रगति की है। इसकी वजह से हमारे हाथों में सैटेलाइट मोबाइल आए हैं और एक छोटा सा उपकरण लेकर हम दुनिया के किसी कोने में बैठे अपने किसी भी रिश्तेदार या परिचित से बात कर लेते हैं। वहीं हमारे एटीएम से लेकर पूरी बैंकिंग व्यवस्था को सैटेलाइट्स ने बदल दी है। यह एक दूसरे से इंटरलिंक हैं और हम एक चिप लगे डेबिट या क्रेडिट कार्ड के माध्यम से भारत या दुनिया के किसी कोने से अपना धन आसानी से किसी एटीएम से निकाल लेते हैं। इसमें कोई मानवीय हस्तक्षेप नहीं होता है। यह तकनीक इतनी प्रबल हो गई है, जो एक सामान्य मनुष्य के सिर्फ परिकल्पना में है। हम कहीं जा रहे होते हैं और गूगल मैप ऑन करते हैं, गूगल मैप में अपना गंतव्य स्थल सेट कर देते हैं। गूगल मैप को हमारे देश के चप्पे चप्पे की जानकारी है। अगर हम 10 मीटर भी आगे बढ़ जाते हैं तो गूगल मैप सिगनल देने लगता है कि आपने गलत राह पकड़ ली है और वह यू-टर्न लेने को कहता है, या किसी दूसरे रास्ते की मैपिंग दिखाने लगता है। कहने का आशय यह है कि तकनीक ने 21वीं सदी के मनुष्य को पूरी तरह से सैटेलाइट गाइडेड बना दिया है।

स्वाभाविक है कि तकनीक ने लोगों की जिंदगी आसान की है। हम इन तकनीकों पर पूरी तरह से विकसित देशों यानी अमेरिका, जापान, दक्षिण कोरिया और यहां तक कि चीन पर निर्भर हैं। हमारे एटीएम का संचालन चीनी तकनीक करती है। मोबाइल पर पिछले 3 साल में चीन की कंपनियों का कब्जा हो गया है और आपके हाथ में तो ओप्पो, विवो, मोटो, का फोन होता है, वह चीनी कंपनियां हैं। और अगर पूरा मोबाइल चीन का नहीं है तो कम से कम उसे खोलने पर बैट्री पर मेड इन चाइना लिखा पाया जाता है। ऐसी स्थिति में अगर भारत के वैज्ञानिकों ने अंतरिक्ष के क्षेत्र में कोई तकनीक हासिल कर ली है तो इससे बड़ी खुशी की कोई बात नहीं हो सकती है। इससे उम्मीदों का दरवाजा खुलता है कि भले ही हम चीन, रूस और अमेरिका द्वारा यह उपलब्धि हासिल करने के दशकों बाद स्वदेशी तकनीक से ऐसा करने में सफल हुए हैं, लेकिन यह संभावना है कि हम कुछ बेहतर कर सकते हैं।



देश के नाम संबोधन की घोषणा से भय का माहौल

एंटी सैटेलाइट मिसाइल की घोषणा करने के पहले जिस तरह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने माहौल बनाया, वह अद्भुत है। मोदी ने सुबह सबेरे ट्वीट किया कि मैं 11.45 से 12 बजे के बीच देश को काफी महत्त्वपूर्ण संदेश के साथ देश को संबोधित करूंगा। उसके बाद कई घंटे तक इस ट्वीट का मजाक बना रहा। लोगों को 8 नवंबर 2016 को की गई नोटबंदी की याद आ गई, जब अचानक प्रधानमंत्री टीवी पर नमूदार हुए और उन्होंने कहा कि अब 500 और 1,000 रुपये के नोट लीगल टेंडर नहीं होंगे। कुछ लोगों को लगा कि 2,000 रुपये का नोट बंद होने वाला है। कुछ लोगों ने सोचा कि पाकिस्तान पर कोई एयर स्ट्राइक होने वाला है। तरह तरह की आशंकाएं और मजाक सोशल मीडिया पर चले। इतना ही नहीं इस घबराहट के बीच 12.34 बजे दोपहर बीएसई पर सेंसेक्स 100 अंक नीचे चला गया, जो सुबह 200 अंकों की बढ़त पर कारोबार कर रहा था। अगर देखा जाए तो जनता को ही नहीं, बाजार को भी आशंका थी कि प्रधानमंत्री को कोई नया दौरा पड़ा है और वह राष्ट्र के नाम पर संबोधन में कोई नया पागलपन करने वाले हैं, जिससे देश की अर्थव्यवस्था तबाह होगी। हालांकि जब एंटी सैटेलाइट की घोषणा हुई तो बिजनेस कम्युनिटी ने राहत की सांस ली और मोदी के भाषण के दौरान बाजार 212 अंक चढ़ गया और रक्षा से जुड़े शेयरों में खास तेजी देखी गई।




प्रधानमंत्री की घोषणा के बाद मिली राहत
प्रधानमंत्री की इस घोषणा से घंटों तक आशंकाओं में गोते लगाते भारत के जनमानस को राहत मिली। तमाम लोगों ने आसमान की तरफ देखा और ऊपर वाले को धन्यवाद दिया कि देश पर कोई नई मुसीबत नहीं आई। तमाम लोगों ने आसमान में देखकर गर्व महसूस किया कि अब हम बहुत ताकतवर हो गए हैं। चुनाव के बीच इस तरह से ताकतवर होने का प्रधानमंत्री ने संभवतः इसलिए एहसास दिलाया कि उसके कुछ वोट बढ़ सकेंगे। पाकिस्तान पर सर्जिकल स्ट्राइक से माहौल नहीं बन पा रहा था, जिसके बाद प्रधानमंत्री ने यह दिखाने की कवायद की, जैसे उन्होंने और उनकी पार्टी ने कोई विशेष उपलब्धि हासिल कर ली है और देश मजबूत हुआ है।
प्रधानमंत्री ने एंटी सैटेलाइट मिसाइल का राजनीतिक इस्तेमाल किया, डीआरडीओ के वैज्ञानिकों की उपलब्धि को अपनी उपलब्धि बताने की कवायद की है, यह राजनीति में नई गिरावट कही जा सकती है। लेकिन इसमें सबसे ज्यादा ध्यान देने वाली बात यह है कि सरकार ने स्वायत्त संस्थानों को नष्ट करने की कवायद की है। एंटी सैटेलाइट मिसाइल के परीक्षण के कुछ घंटे बाद रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (डीआरडीओ) के पूर्व महानिदेशक विजय कुमार सारस्वत नमूदार हुए। सारस्वत इस समय नीति आयोग के सदस्य के रूप में सरकार द्वारा उपकृत हैं। उन्होंने कहा कि 2012 में यूपीए सरकार से अग्नि 5 के परीक्षण के समय ही एंटी सैटेलाइट मिसाइल के परीक्षण की अनुमति मांगी गई थी, लेकिन नहीं मिली। मंजूरी मिल जाती तो हम तभी ए-सैट की क्षमता हासिल कर चुके होते।


संस्थानों का खतरनाक राजनीतिकरण
इस बयान से लगता है कि सरकार न सिर्फ संस्थानों का राजनीतिकरण कर रही है बल्कि जनरल वीके सिंह जैसे सेना के अधिकारियों, राजकुमार सिंह जैसे आईएएस अधिकारियों, सत्यपाल सिंह जैसे आईपीएस अधिकारियों को सांसद और फिर मंत्री बनाकर उपकृत करने की कड़ी में अन्य तमाम अधिकारियों को नेता बन जाने की पेशकश कर रही है। अब तक संस्थानों को राजनीति से मुक्त रखा गया था, जो शांत माहौल में अपना काम करते थे, लेकिन भाजपा और मोदी सरकार ने संदेश दे दिया है कि अगर उनके पक्ष में अधिकारी बयान देते हैं और पहले की सरकारों की आलोचना करते हैं तो उन्हें पुरस्कार दिया जाएगा।
इस क्रम में विजय कुमार सारस्वत की नई एंट्री है। सारस्वत ने डीआरडीओ के प्रमुख रहते हुए 2012 में इंडिया टुडे पत्रिका को दिए गए भारी भरकम साक्षात्कार में कहा था कि भारत ने एंटी सैटेलाइट मिसाइल तैयार कर लिया है और अब वह अंतरिक्ष में लाइव किसी सैटेलाइट को मार गिराने में सक्षम है। प्रधानमंत्री ने जब राष्ट्र के नाम संबोधन कर इस एंटी सैटेलाइट मिसाइल का राजनीतिकरण कर दिया, उसके तुरंत बाद कांग्रेस के आधिकारिक ट्विटर हैंडल से ट्वीट कर कहा गया कि 1962 में पं. जवाहर लाल नेहरू द्वारा स्थापित किए गए भारतीय अंतरिक्ष कार्यक्रम और इंदिरा गाँधी के द्वारा स्थापित किए गए भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन ने हमेशा अपनी उपलब्धियों से भारत को गौरवान्वित किया है। केंद्र सरकार को लगा कि कांग्रेस इसका श्रेय लेने की कोशिश कर रही है। इस पर केंद्र सरकार की ओर से केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने जोरदार पलटवार किया, वहां तक तो ठीक है। लेकिन सरकार ने सारस्वत को मैदान में उतार दिया।

टाइमिंग पर सवाल तो उठेंगे ही
ऐसे में सारस्वत से सवाल पूछा जाना लाजिम है कि अगर 2012 में उपलब्धि हासिल हो गई थी और मई 2014 में भाजपा की सरकार बन गई तो ताकतवर प्रधानमंत्री मोदी ने 2014 में ही परीक्षण की अनुमति क्यों नहीं दे दी? सारस्वत की सरकार से नजदीकी इससे समझी जा सकती है कि उन्हें मोदी ने नीति आयोग का सदस्य बनाकर उपकृत कर रखा है। ऐसे में उन्होंने यह सलाह तत्काल ही क्यों नहीं दी कि कांग्रेस इसके परीक्षण की अनुमति न देकर करीब डेढ़ साल की देरी कर चुकी है, अब यह परीक्षण तत्काल हो जाना चाहिए। यह सवाल उठना लाजिम है कि इतनी बेहतरीन टाइमिंग सारस्वत और उनकी टीम ने किस तरह से निर्धारित कराई कि एक पूरी तरह से तैयार एंटी सैटेलाइट मिसाइल का परीक्षण तब हो सका है, जब लोकसभा चुनाव के लिए मतदान शुरू होने में 14 दिन बचे हैं और 11 अप्रैल 2019 को लोकसभा चुनाव के पहले चरण के लिए मतदान होना है।


प्रधानमंत्री का ऐलान
प्रधानमंत्री ने 27 मार्च 2019 को ऐलान किया कि भारत ने अंतरिक्ष में एंटी सैटेलाइट मिसाइल से एक लाइव सैटेलाइट को मार गिराते हुए आज अपना नाम अंतरिक्ष महाशक्ति के तौर पर दर्ज कराया और ऐसी क्षमता हासिल करने वाला दुनिया का चौथा देश बन गया। प्रधानमंत्री ने कहा हर राष्ट्र की विकास यात्रा में कुछ ऐसे पल आते हैं जो उसके लिए अत्यधिक गौरव वाले होते हैं और आने वाली पीढय़िों पर उनका असर होता है। आज कुछ ऐसा ही समय है। मोदी ने राष्ट्र के नाम संदेश में कहा कहा, “मिशन शक्ति के तहत भारत ने स्वदेशी एंटी सैटेलाइट मिसाइल ए सैट से तीन मिनट में एक लाइव सैटेलाइट को सफलतापूर्वक मार गिराया। उन्होंने बाद में ट्वीट किया मिशन शक्ति की सफलता के लिए हर किसी को बधाई।”
मोदी ने कहा कि हमने जो नई क्षमता हासिल की है, यह किसी के विरूद्ध नहीं है बल्कि तेज गति से बढ़ रहे हिन्दुस्तान की रक्षात्मक पहल है। उन्होंने वैज्ञानिकों को इस उपलब्धि के लिए बधाई दी और उनकी सराहना भी की। प्रधानमंत्री ने यह भी कहा कि इससे किसी अंतरराष्ट्रीय कानून या संधि का उल्लंघन नहीं हुआ है। भारत हमेशा से अंतरिक्ष में हथियारों की होड़ के विरूद्ध रहा है और इससे (उपग्रह मार गिराने से) देश की इस नीति में कोई परिवर्तन नहीं आया है। मोदी ने कहा कि मिशन शक्ति एक अत्यंत जटिल ऑपरेशन था जिसमें उच्च कोटि की तकनीकी क्षमता की आवश्यकता थी। वैज्ञानिकों द्वारा निर्धारित सभी लक्ष्य और उद्देश्य प्राप्त कर लिए गए हैं।
कांग्रेस ने भारत की उपग्रह रोधी मिसाइल क्षमता के सफल इस्तेमाल के लिए वैज्ञानिकों को बधाई देते हुए केंद्र सरकार पर वैज्ञानिकों की इस उपलब्धि का भी श्रेय लेने की कोशिश करने का आरोप लगाया। ग्रेस के मुख्य प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने कहा, “रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन (डीआरडीओ) के वैज्ञानिकों को इस उपलब्धि के लिए बहुत-बहुत मुबारक और शुभकामनाएं। भारत ने एक और मील का पत्थर कायम किया है। यह क्षमता 2012 में डीआरडीओ ने हासिल कर ली थी। इसके बाद आज इसका व्यावहारिक परीक्षण किया गया।” उपग्रह रोधी मिसाइल की सफलता की घोषणा स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा किए जाने के कारण इस उपलब्धि से चुनावी
लाभ लेने के आरोपों के बारे में पूछने पर सुरजेवाला ने कहा, “जब सब कुछ खोने लगे, जब राजनीतिक धरातल खिसक जाए, जब कुछ भी हासिल न हो रहा हो, जब 15 लाख रुपए वाले जुमलों की पोल खुल जाए, जब किसान इंसाफ मांगे, और जब कांग्रेस की न्याय योजना से घबराहट शुरू हो जाए तो उस हड़बड़ी में कुछ भी करना पड़ता है।” उन्होंने कहा कि इससे पहले भी उपग्रह प्रक्षेपण से लेकर अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में अनगिनत उपलब्धियां हासिल की गई हैं और आगे भी यह सिलसिला जारी रहेगा। उन्होंने कहा, “हमारे वैज्ञानिकों की उपलब्धियों के लिए सभी सरकारों का डीआरडीओ को पूरा सहयोग और समर्थन रहा। लेकिन यह शायद पहला मौका है जबकि प्रधानमंत्री ने वैज्ञानिकों की उपलब्धि को सार्वजनिक किया। यह वही व्यक्ति है जिसने हिंदुस्तान एयरोनोटिक्स लिमिटेड को नष्ट कर दिया।”


युद्ध के समय कारगर तकनीक
यह एक ऐसी तकनीक है, जो किसी देश के साथ युद्ध की स्थिति में कारगर है। अगर इस तकनीक को हासिल कर लिया जाए तो युद्ध के दौरान दुश्मन देश के सैटेलाइट को ध्वस्त कर उसकी पूरी संचार प्रणाली को तबाह किया जा सकता है। इसके चलते अंतरराष्ट्रीय समुदाय इसे युद्ध की स्थिति में आगे बढ़ने की होड़ मानता है। हालांकि विकसित देश अब इतने आगे बढ़ चुके हैं कि वे एक बग या वायरस डालकर किसी देश की पूरी बैंकिंग प्रणाली तक नष्ट कर सकते हैं या उसे अपने कब्जे में ले सकते हैं। वहीं गूगल को भारत के चप्पे चप्पे की लोकेशन पता है और कौन सा व्यक्ति किस गली में किस मकान में रहता है, इसका डेटा अमेरिका के पास मौजूद है। इसे आप अपने मोबाइल में अमेरिकी गूगल मैप खोलकर अपनी लोकेशन पर क्लिक करके जान सकते हैं कि तकनीक कहां तक पहुंच चुकी है। ऐसे में वैश्विक समुदाय मानवोपयोगी तकनीकी विकास के अलावा किसी ऐसी तकनीक का ऐलान नहीं करता, जिससे युद्धोन्माद या भय का वातावरण बने। विकसित देशों ने एंटी सैटेलाइट मिसाइल कई दशक पहले बना ली थी, तो स्वाभाविक रूप से वह इसके बहुत आगे का शोध कर चुके होंगे, उनका परीक्षण भी कर चुके होंगे, लेकिन इसका ऐलान नहीं किया जाता और किसी आपात स्थिति में उसका प्रयोग कर लिया जाता है, जैसे अमेरिका ने द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान 1945 में हिरोशिमा और नागाशाकी में परमाणु बम गिराकर अपनी ताकत दिखा दी थी, जिसका ढिंढोरा अटल बिहारी वाजपेयी सरकार ने 11 से 13 मई 2018 को पोखरण परीक्षण करके पीटा था।


विदेश मंत्रालय का स्पष्टीकरण

ऐसी स्थिति में विदेश मंत्रालय को भी सामने आना पड़ा। विदेश मंत्रालय ने बताया कि यह डीआरडीओ का प्रौद्योगिकी मिशन था और इस मिशन में उपयोग किया गया उपग्रह निचली कक्षा में मौजूद भारत के उपग्रहों में से एक था। इसमें बताया गया, परीक्षण पूरी तरह से सफल रहा और योजना के तहत सभी मानदंडों को पूरा किया। यह पूरी तरह से स्वदेशी प्रौद्योगिकी पर आधारित था। इसमें स्पष्ट किया गया है कि भारत का परीक्षण किसी देश को निशाना बनाकर नहीं किया गया है। यह परीक्षण क्यों किया गया, इस सवाल के जवाब में कहा गया कि यह परीक्षण इसलिए किया गया ताकि भारत के अपने अंतरिक्ष संबंधी परिसंपत्तियों की सुरक्षा की क्षमता की पुष्टि की जा सके। यह सरकार की जिम्मेदारी है कि हम बाहरी अंतरिक्ष में अपने देश के हितों की रक्षा कर सकें। मंत्रालय ने यह स्पष्ट किया कि भारत का इरादा बाहरी अंतरिक्ष में हथियारों की दौड़ में शामिल होना नहीं है और उसने हमेशा इस बात का पालन किया है कि अंतरिक्ष का केवल शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए ही इस्तेमाल किया जाए।

इसमें कहा गया है कि भारत बाहरी अंतरिक्ष के शस्त्रीकरण के खिलाफ है और अंतरिक्ष आधारित परिसंपत्तियों की सुरक्षा के अंतरराष्ट्रीय प्रयासों का समर्थन करता है। क्या भारत बाहरी अंतरिक्ष में हथियारों की दौड़ में प्रवेश कर रहा है, इस सवाल के जवाब में विदेश मंत्रालय ने कहा कि भारत मानता है कि बाहरी अंतरिक्ष मानवता की साझी धरोहर है और यह सभी राष्ट्रों की जिम्मेदारी है कि इसका संरक्षण किया जाए और अंतरराष्ट्रीय प्रौद्योगिकी में हुई उन्नति के लाभ को प्रोत्साहित किया जाए। मंत्रालय ने कहा कि भारत बाहरी अंतरिक्ष से जुड़ी सभी अंतरराष्ट्रीय संधियों का पक्षकार है। भारत ने इस क्षेत्र में पारदर्शिता एवं विश्वास बहाली के अनेक उपायों को लागू किया है। भारत बाहरी अंतरिक्ष में पहले हथियारों का प्रयोग नहीं करने के संयुक्त राष्ट्र महासभा के प्रस्ताव का समर्थन करता है। इसमें कहा गया है कि भारत भविष्य में बाहरी अंतरिक्ष में हथियारों की दौड़ को रोकने के लिए अंतरराष्ट्रीय कानून का मसौदा तैयार करने में भूमिका अदा करने की उम्मीद करता है।

Wednesday, March 14, 2018

गोरखपुर में संघ के गले की हड्डी बना सामाजिक न्याय


सत्येन्द्र पीएस

गोरखपुर का मठ धराशायी हो गया। इसकी मठाधीशी 1989 के बाद से ही भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) संभाल रही थी। यह भारत की राजनीति की बड़ी परिघटना है, जो राजनीति की दिशा तय करने में अहम हो सकती है। ऐसे में इस जीत को लेकर कयास लगाया जाना स्वाभाविक है। गोरखपुर के इतिहास में यह भी पहली घटना है कि स्वतंत्रता के बाद से पहली बार वहां गैर ब्राह्मण, गैर ठाकुर सांसद प्रवीण कुमार निषाद बने हैं।

1989 में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार बनी। 1991 में पीवी नरसिंहराव प्रधानमंत्री बने। 1996 में 13 दिन की अटल बिहारी वाजपेयी सरकार के बाद हरदनहल्ली डोड्डागौड़ा देवगौड़ा प्रधानमंत्री बने। 1998 में आम चुनाव के बाद अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बने। 2004 में मनमोहन सिंह प्रधानमंत्री बने और 2009 में कांग्रेस के कामयाब होने पर फिर से सरदार को भारत का सरदार बनने का मौका मिला। 2014 में कांग्रेस के पिटने के बाद नरेंद्र मोदी प्रधानमंत्री बने।

लेकिन गोरखपुर में 1989 सिर्फ और सिर्फ भाजपा, हिंदू महासभा का कब्जा रहा। कोई असर नहीं पड़ा कि जनता दल सरकार बना रही है, कांग्रेस सरकार बना रही है या संयुक्त मोर्चे की सरकार है। पहले लगातार महंत अवैद्यनाथ चुनाव जीतते रहे और 1998 के बाद से योगी आदित्यनाथ चुनाव जीतने लगे। अवैद्यनाथ के निधन के बाद योगी आदित्यनाथ महंत बन गए और 2017 में भाजपा की यूपी में जीत के बाद आदित्यनाथ मुख्यमंत्री भी हो गए।

इसके पहले भी गोरखपुर आरएसएस और दक्षिणपंथियों के हिंदुत्व की प्रयोगशाला रहा है। गोरखनाथ मंदिर के महंत दिग्विजयनाथ हिंदू महासभा और घोड़ा मय सवार चुनाव चिह्न पर 1967 में सांसद बने थे और बाद में 1970-71 में महंत अवैद्यनाथ सांसद बने। उसके बाद कांग्रेस, भारतीय लोक दल के सांसद हुए। 1989 में मंदिर की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा फिर जागी। जब विश्वनाथ प्रताप सिंह ने जनता दल बनाई तो गठजोड़ में गोरखपुर की सीट जनता दल के खाते में गई और महंत अवैद्यनाथ ने हिंदू महासभा से चुनाव लड़कर जीत दर्ज की। उसके बाद जितने भी लोकसभा चुनाव हुए, मंदिर के महंत भाजपा से चुनाव लड़ते रहे और जीतते रहे।

इसके अलावा गोरखपुर पर गीता प्रेस का भी असर है। वहां से धेरों धार्मिक पुस्तकें छपती हैं। रामचरित मानस के अलावा तमाम धार्मिक पुस्तकें हैं जो गीता प्रेस छापता है। अत्यंत सस्ती या कहें कि बिल्कुल मुफ्त होने के कारण उन किताबों की पहुंच स्थानीय लोगों तक आसानी से हो जाती है और उससे धार्मिक भावनाएं भी भरपूर पैदा होती हैं।

गीता प्रेस और गोरखनाथ मठ के मठाधीशों की राजनीतिक महत्त्वाकांक्षा ने गोरखपुर को हिंदुत्व का अखाड़ा बना दिया और उसका परिणाम यह हुआ कि 1989 से लेकर 2018 के उपचुनाव तक लगातार गोरखपुर संसदीय सीट पर मठ पर कब्जा बना रहा।
फिर आखिर ऐसा क्या बदलाव हो गया, जिसकी वजह से भाजपा का यह मठ ऐसे समय में उजड़ गया, जब यहां के मठाधीश ही राज्य के मुख्यमंत्री हैं? तरह तरह के कयास लगाए जा रहे हैं। आदित्यनाथ का कैंडीडेट न होना, आदित्यनाथ को कमजोर करने के लिए भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व द्वारा कैंडीडेट को हरा दिया जाना, सपा-बसपा गठबंधन आदि आदि। तमाम तर्क हैं, तर्कों की अपनी अपनी व्याख्याएं हैं। यह भी एक तर्क है कि ईवीएम छेड़छाड़ न कर भाजपा सरकार ने उपचुनाव जीत जाने दिया, जिससे कि लोकसभा चुनाव में आसानी से धांधली की जा सके। यह सब तर्क हैं और तर्कों के पक्ष में तमाम तर्क-वितर्क हैं।

गोरखपुर ब्राह्मण बनाम ठाकुर का गढ़ रहा है। पहले भी कभी ठाकुर और कभी ब्राह्मण जीतते रहे हैं। कांग्रेस बारी बारी से ब्राह्मण और ठाकुर कैंडीडेट ट्राई करती रही थी। गोरखनाथ मंदिर ने जब ठाकुरवाद के साथ हिंदुत्व का काक्टेल किया तो उन्होंने अजेय बढ़त बना ली। कई बार मनोज तिवारी से लेकर हरिशंकर तिवारी तक को आजमाने की कोशिश की गई, लेकिन कभी भी सफलता नहीं मिली। इस बीच समाजवादी पार्टी ने पिछड़े वर्ग के निषाद प्रत्याशियों पर दांव खेले। बसपा ने पिछड़े वर्ग के सैथवार प्रत्याशी केदारनाथ सिंह पर दांव खेला, लेकिन कुल मिलाकर असफलता ही हाथ लगी। ठाकुरवाद और हिंदुत्व के कॉक्टेल की तोड़ कोई नहीं तोड़ सका।

इस बीच गोरखपुर विश्वविद्यालय की छात्र राजनीति में भी ठाकुर बनाम ब्राह्मण चलता रहा। छात्र संघ चुनाव में कोई प्रत्याशी पंडी जी का होता था और कोई बाऊ साहेब का। और अंग्रेजों के जमाने के जेलर की तरह आधे वोटर इधर और आधे उधर बंट जाते थे। करीब सभी पदों पर ब्राह्मण और ठाकुर प्रत्याशी जीत जाते। पहली बार इस समीकरण को उपाध्यक्ष पद के प्रत्याशी के रूप में मौजूदा बसपा नेता विश्वजीत सिंह ने तोड़ा था और वह विश्वविद्यालय उपाध्यक्ष बनने में सफल रहे थे। हालांकि उसके बाद कुछ वर्षों तक चुनाव नहीं हुआ और कभी हुआ भी तो छात्र फिर से आधे इधर और आधे उधर में बंटते रहे।

2014 की नरेंद्र मोदी सरकार गोरखपुर की छात्र राजनीति में टर्निंग प्वाइंट था, जब पिछड़े और दलित वर्ग के कुछ बच्चे समझने लगे कि यह खेल गड़बड़ है। इतना ही नहीं, आंकड़े भी आने लगे कि 1989 के बाद संसद और राज्य विधानसभाओं में पिछड़े वर्ग के सांसदों और विधायकों के चुनाव में लगातार बढ़ रही थी, लेकिन भाजपा के पूर्ण बहुमत आने के साथ ही उल्टी गंगा बहने लगी। 2014 में संसद में पिछड़े वर्ग के सांसदों की संख्या 1989 के बाद सबसे कम हो गई। गोरखपुर के कुछ छात्र इसे लेकर न सिर्फ चिंतित हुए बल्कि उन्होंने संगठित होने का काम भी शुरू कर दिया।

दर्शन शास्त्र के छात्र रहे हितेश सिंह ने यह पहल की। उन्होंने न सिर्फ गोरखपुर विश्वविद्यालयों के छात्रों की जातीय स्थिति और उनकी सोच को देखा, बल्कि उन्होंने बताना शुरू किया कि अगर कोशिश की जाए तो चुनाव जीता भी जा सकता है। शुरुआत हुई फूलन देवी की जयंती मनाने से। गोरखपुर के आसपास निषाद बड़ी संख्या में हैं और ओबीसी आरक्षण के बाद विश्वविद्यालय में भी ठीक ठाक संख्या में पहुंचते हैं। उसके बाद शाहू जी जयंती, अंबेडकर जयंती, फुले जयंती के माध्यम से दलितों पिछड़ों की एका बनाने की कवायद विश्वविद्यालय में हुई। मुस्लिम छात्रों को जोड़ने की भी कवायद हुई, जो 1991 में हुए दंगों के बाद से अलग कट चुके थे। गोरखपुर में स्थिति यह हुई थी कि 1991 के बाद से जो भी हिंदू मुस्लिम मिक्स कॉलोनियां थीं, वहां अगर मुस्लिम कम हैं तो उन्होंने घर और जमीन बेचकर मुस्लिम बहुल इलाके में अपना आशियाना बसा लिया और जिन इलाकों में हिंदू कम संख्या में थे, उन्होंने अपने मकान बेचकर हिंदू बहुल इलाके में घर खरीद लिए। ऐसे में हिंदू मुस्लिम पूरी तरह से अलग अलग टापू पर बस चुके हैं। इन अलग टापू पर बसे विद्यार्थियों को भी दलित पिछड़े छात्रों ने जोड़ना शुरू किया।

इसका परिणाम भी आया। सामाजिक न्याय के लिए लड़ रहे विद्यार्थियों ने विश्वविद्यालय चुनाव आते आते अपने प्रत्याशी उतार दिए। प्रत्याशी उतारे जाने तक किसी को कोई भान नहीं था कि गोरखपुर की राजनीति किस तरह बदल रही है। वजह यह थी कि न तो इसका कोई औपचारिक नाम था, न कोई गठजोड़, न कोई पार्टी कार्यालय, न किसी का वरदहस्त। बस इतना ही था कि विद्यार्थी उदा देवी पासी, फूलन देवी, सावित्री बाई फुले, ज्योतिबा फुले, भीम राव अंबेडकर, शाहू जी महराज की जयंती मनाते। उन्हें याद करते। उन पर चर्चा करते और सामाजिक न्याय के सपने देखते। लेकिन 2016 के चुनाव में सामाजिक न्याय अघोषित प्रत्याशी अरविंद कुमार उर्भ अमन यादव अध्यक्ष पद पर विजयी रहे। मंत्री पद पर पवन कुमार अपने एक हमनाम पवन कुमार पांडेय के चलते बहुत मामूली मत से हारे। मंत्री पद पर स्वतंत्र उम्मीदवार ऋचा चौधरी जीतने में कामयाब रहीं। वहीं पुस्तकालय मंत्री के पद पर आमिर खान जीत गए। उपाध्यक्ष पद के लिए सामाजिक न्याय वालों ने कोई प्रत्याशी नहीं उतारा था, जिसका फायदा सपा छात्र सभा के अमित यादव को मिला और वह एक स्वतंत्र प्रत्याशी अखिल देव त्रिपाठी से महज 20 मतों से हार गए। गोरखपुर की छात्र राजनीति के इतिहास में पहली बार अध्यक्ष और मंत्री पद पर पिछड़े वर्ग के विद्यार्थी जीतने में कामयाब हुए। पिछड़े वर्ग के सैंथवार जाति से ताल्लुक रखने वाले हितेश सिंह को साथ मिला अनुसूचित जाति में चमार जाति के युवा नेता धीरेंद्र प्रताप का। धीरेंद्र प्रताप बहुजन राजनीति करते हैं। अच्छे बॉडी बिल्डर हैं। अन्य विद्यार्थियों को शारीरिक शैष्ठव में निपुण बनाते हैं। साथ ही बुद्धलैंड की मांग कर रहे हैं। उन्होंने बुद्धलैंड राज्य निर्माण आंदोलन समिति बना रखी है।

चुनाव में अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद के प्रत्याशियों का बहुत बुरा हाल हुआ। भारतीय जनता पार्टी भले ही विधानसभा चुनाव जीत गई, लेकिन शहर से लेकर गांव तक लोगों को यह सताने लगा कि विश्वविद्यालय से निकले विद्यार्थी गोरखपुर की ब्राह्मण-क्षत्रिय राजनीति और मठ व हिंदुत्व के कॉक्टेल से अलग संकेत दे रहे हैं।

2017 में जब सामाजिक न्याय के ग्रुप ने गोरखपुर में आक्रामक तरीके से प्रचार शुरू किया तो चुनाव स्थगित करने के माहौल बनाए जाने लगे। विद्यार्थियों का आंदोलन अद्भुत एका पैदा कर रहा था। उत्तर प्रदेश के उप मुख्यमंत्री दिनेश शर्मा खुद गोरखपुर आए। उन्होंने कुछ मानकों का हवाला देकर चुनाव कराने से ही इनकार कर दिया।

विद्यार्थियों को तो गोरखपुर में चुनाव नहीं लड़ने दिया गया, लेकिन भाजपा पर इसका खौफ भरपूर हुआ। छात्रों ने राजनीतिक स्तर पर संगठन और तेज किया। पहले सपा में रहे काली शंकर यादव ने अपने नाम के सामने काली शंकर ओबीसी लगा दिया। हितेश सिंह की कवायद के बाद गोरखपुर में लोकसभा चुनाव के ठीक पहले त्रिशक्ति सम्मेलन हुआ, जिसमें ओबीसी से जुड़ी तमाम जातियों ने हिस्सा लिया और कहा कि जो भी दल हमारी भागीदारी बढ़ाने की मांग करेगा, हम उसे समर्थन करेंगे।

इस बीच गोरखपुर से सपा ने निषाद पार्टी से गठजोड़ कर प्रवीण कुमार निषाद को सपा प्रत्याशी घोषित कर दिया। उसके दूसरे दिन काली शंकर ने प्रेस कान्फ्रेंस कर प्रवीण कुमार को समर्थन देने की घोषणा कर दी। इसके अलावा चौधरी अजित सिंह के राष्ट्रीय लोक दल ने भी सपा के प्रत्याशी को समर्थन देने की घोषणा कर दी। भाजपा की जीत में अहम भूमिका निभाने वाले सैंथवार जाति के गंगा सिंह सैंथवार ने प्रवीण कुमार के साथ संयुक्त प्रेस वार्ता करके समर्थन की घोषणा की, जो लोकदल के पूर्वी उत्तर प्रदेश के प्रमुख हैं। इसके अलावा बसपा अध्यय मायावती की ओर से हरी झंडी मिलते ही बसपा के कार्यकर्ता भी समर्थन में आ गए। गोरखपुर में बसपा के नेता शिवांग सिंह बताते हैं कि बहन जी की घोषणा के बाद ही हम लोग सड़कों पर आ गए और सपा के प्रत्याशी का प्रचार करना शुरू कर दिया गया।

डॉ हितेश सिंह कहते हैं कि विद्यार्थियों का जागरूक होना बहुत मायने रखता है। महज 4 साल में दलित पिछड़े वर्ग के विद्यार्थियों में गांव गांव में यह अलख जगा दी कि मठ के महंत आदित्यनाथ के सांसद रहने से गोरखपुर रसातल में जा रहा है। हितेश कहते हैं, “अगर योगी आदित्यनाथ के करीब 15 साल के काल में उनके संसद में दिए भाषणों को सुनें तो उनकी प्राथमिकता पर आईएसआई, हिंदू मुस्लिम विवाद अहम रहता था। यहां तक कि वह अपने मसले को लेकर संसद में रोए भी। वहीं गोरखपुर में पिछले 30 साल से औसतन हर साल 700 बच्चे दिमागी बुखार से मर जाते हैं, गोरखपुर रेलवे मुख्यालय कई भागों में विभाजित हुआ, रोजगार छिन गया, फर्टिलाइजर बंद हो गया, मेडिकल कॉलेज को हर साल बंद करने की धमकी मिलती रही। यह सब मुद्दे आदित्यनाथ के लिए गौड़ रहे।”

गोरखपुर में भाजपा की हार ने यह साबित कर दिया है कि भाजपा का छात्र राजनीति से भय नाहक नहीं है। चाहे जेएनयू हो, चाहे हैदराबाद हो, चाहे इलाहाबाद। भाजपा के एजेंडे पर लगातार छात्र राजनीति रहती है। दिलचस्प है कि भाजपा को वहां कोई दिक्कत नहीं हो रही है, जहां कांग्रेस के छात्र संगठन हैं। कम्युनिस्ट छात्र संगठन भाजपा को असहज करते हैं। और अगर कहीं सामाजिक न्याय की राजनीति करने वाले छात्र नेता उभरने लगते हैं तो वह भाजपा के लिए गले की हड्डी है।

और अब सामाजिक न्याय नाम की हड्डी भाजपा के गले में अटक चुकी है। दो उपचुनाव जीतने के बाद सपा के अध्यक्ष अखिलेश यादव ने मीडिया से बातचीत में कहा कि जिसकी आबादी सबसे ज्यादा है, उसे संघी लोग कीड़ा मकोड़ा समझते हैं। सपा बसपा के लोगों को सांप छछूंदर बोला। यादव ने आज घोषणा की कि सामाजिक न्याय विकास में बाधक नहीं है, विकास एजेंडा में रहेगा, लेकिन यह सामाजिक न्याय के साथ होगा।


Tuesday, January 16, 2018

आरक्षण विरोधियों ने मंडल आयोग की रिपोर्ट लागू होने के पहले अनुसूचित जाति का आरक्षण खत्म करने के लिए बनाया था वीपी सरकार पर दबाव

(यह लेख 1990 में वीपी सिंह सरकार द्वारा अन्य पिछड़े वर्ग के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने के बाद केदारनाथ सिंह के विभिन्न भाषणों का अंश है। केदारनाथ सिंह 1989 में पिपराइच विधानसभा क्षेत्र से जनता दल विधायक थे और वीपी सिंह के अहम साथियों में से एक रहे हैं। लेखक की कवायद है कि उसकी अविकल प्रस्तुति की जाए, जिससे मूल भावना में कोई बदलाव न हो। वीपी सिंह सरकार गिराए जाने को लेकर इस लेख से एक नया नजरिया सामने आता है कि किस तरह से विरोधियों ने मंडल आयोग की सिफारिश लागू होने के पहले ही आरक्षण के मसले पर वीपी सिंह सरकार को घेरना शुरू कर दिया था- सत्येन्द्र पीएस)


केदारनाथ सिंह

आरक्षण विरोधी मुहिम चलाने वाले जनता दल के पूर्व प्रधानमंत्री वीपी सिंह पर आरोप लगाते हैं कि अनुसूचित जाति, जनजाति का आरक्षण कायम रखते हुए मंडल आयोग की सिफारिशों के आधार पर अन्य पिछड़े वर्ग को 27 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने से देश के अंदर जातीय तनाव पैदा हो गया है। इसमें कितनी सत्यता है, इसका विवेचन आवश्यक है। जनता दल व हमारे सरीखे लोग जहां सामाजिक न्याय के लिए आरक्षण को एक आवश्यकता महसूस करते हैं वहीं आरक्षण विरोधी आंदोलन चलाने वाले तत्व इसे अनुचित करार देते हैं। आरक्षण उचित नहीं है, इस पर आरक्षण विरोधी अपना तर्क प्रस्तुत कर सकते हैं परंतु जातीय दुर्भावना उभारने में किसका हाथ रहा है, पिछली घटनाओं के आधार पर यह स्पष्ट रूप से कहा जा सकता है कि आरक्षण विरोधी आंदोलन चलाने वाले लोग कुलीन तंत्र के घोर पोषक हैं और एक जाति विशेष के अलावा किसी को भी सत्ता में भागीदारी नहीं देना चाहते हैं।
संविधान लागू होने के साथ ही अनुसूचित जाति एवं जनजाति के लिए उनकी जनसंख्या के अनुपात में आरक्षण की व्यवस्था की गई थी। यह व्यवस्था स्वर्गीय पंडित जवाहरलाल नेहरू, उनकी पुत्री स्वर्गीय श्रीमती इंदिरा गांधी व उनके पौत्र श्री राजीव गांधी के समय भी लागू रही। क्या कारण है कि उनके समय में आरक्षण विरोधी मुहिम चलाने वाले कुलीन तंत्र के लोग खामोश बैठे रहे? अब जब गैर ब्राह्मण सत्ता परिवर्तन के बाद सत्ता में आया है तो यह तत्व आरक्षण विरोधी मुहिम चलाने का काम करते हैं।
पिछली घटनाओं पर अगर नजर डालें तो मामला साफ हो जाता है। सन 1977 में आपातकाल की ज्यादतियों से ऊबकर जब जनता ने जनता पार्टी को सत्ता सौंपी तो उस समय जगन्नाथ मिश्र के स्थान पर एक नाई के लड़के कर्पूरी ठाकुर बिहार के मुख्यमंत्री बने। इसी तरह उत्तर प्रदेश में पंडित नारायण दत्त तिवारी को हटाकर पिछड़ी जाति के राम नरेश यादव मुख्यमंत्री बने। केंद्र में इंदिरा गांधी की जगह मोरारजी देसाई के नेतृत्व में सरकार बनी। उस समय 1977-78 में आरक्षण विरोधी आंदोलन चलाकर आरक्षण विरोधियों द्वारा जातीय दुर्भावना का प्रदर्शन किया गया। लोकसभा व विधानसभाओं में आरक्षण की अवधि को 10 साल के लिए बढ़ाया जाना था, जिसका विरोध शुरू हो गया, जबकि आरक्षण 1980 में बढ़ाया जाना था।
अगर आरक्षण विरोधियों ने उस समय विरोध शुरू किया था तो उन्हें विरोध जारी रखना चाहिए था। लेकिन 1980 में इंदिरा गांधी के सत्ता में आते ही आरक्षण विरोधी आंदोलन वापस ले लिया गया, जबकि उस समय आरक्षण की अवधि 10 साल के लिए बढ़ाई जानी थी।
आरक्षण विरोधी तत्व 10 साल तक खामोश रहे। जैसे ही सत्ता में गैर ब्राह्मण वर्ग का दबदबा हुआ और 1989 में बिहार में लालू प्रसाद, उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव और देश के प्रधानमंत्री वीपी सिंह बने, आरक्षण विरोधी आंदोलन फिर शुरू हो गया। आरक्षण विरोधी तत्व वीपी सिंह के सत्ता संभालने के बाद 5 दिन तक भी खामोश नहीं बैठ सके।
यह कौन सा मानदंड है? यह किसी के समझ में आने वाली चीज नहीं है। कोई चीज यदि किसी की नजर में गलत है तो उसकी नजर में जब तक कोई परिवर्तन नहीं होता, गलत ही रहेगी। आरक्षण व्यवस्था ब्राह्मणवादी शाशन व्यवस्था के अंतर्गत उचित करार दिया जाए और गैर ब्राह्मणवादी शासन में अनुचित करार दिया जाए, यह जातीय दुर्भावना नहीं तो और क्या है।
राजीव गांधी और उसके पहले के शासनकाल में जो आरक्षण व्यवस्था अनुसूचित जाति के लोगों के लिए थी, उसमें वीपी सिंह ने कोई बदलाव नहीं किया, सत्ता में आने पर उसमें कोई बढ़ोतरी नहीं की। इसके बावजूद वीपी सिंह को 5 दिन भी कुर्सी पर चैन न लेने देने का क्या कारण है? यदि कुर्सी पर बैठते ही तत्काल कोई परिवर्तन किया गया होता तो आरक्षण विरोधी मुहिम चलाने का कोई औचित्य होता। मंडल आयोग की सिफारिशें भी उस समय लागू नहीं की गई थीं। फिर भी आरक्षण विरोधी आंदोलन चला दिया गया।
कुलीनतंत्र के पोषकों ने जनता दल की सरकारों व वीपी सिंह के समक्ष ऐसी स्थिति उत्पन्न कर दी, जिसका समाधान ढूंढना कठिन हो गया। वास्तव में तथाकथित कुलीन तंत्र जो तिकड़म करके अपने को अनुसूचित जाति का ठेकेदार समझता था, उसने एक सुनियोजित षड़यंत्र के द्वारा एक खतरनाक जाल फेंकने का काम किया। देश के अंदर इस आंदोलन को चलाकर राष्ट्र की संपत्ति बर्बाद की गई। बस व ट्रेनें फूंकी गईं। देश के अंदर हिंसक वारदातें हुईं। इन घटनाओं में जाने अनजाने में पिछड़े वर्ग ने भी शिरकत की। कुल मिलाकर कुलीन तंत्र ने वीपी सिंह के सामने ऐसी स्थिति खड़ी कर दी कि वे घबराकर अनुसूचित जाति का आरक्षण खत्म कर दें और अनुसूचित जाति के लोग उनकी गोद में बैठ जाएं या वीपी सिंह सत्ता से हट जाएं। ऐसी स्थिति में वीपी सिंह और उनके केंद्रीय मंत्रिमंडल ने दूरदर्शिता का परिचय देतेहुए अपने चुनावी घोषणापत्र के मुताबिक 7 अगस्त 1990 को अन्य पिछड़े वर्ग के लिए 27 प्रतिशत आरक्षण दिए जाने की घोषणा की।
इससे अलग थलग पड़े अनुसूचित जाति को सुरक्षा की गारंटी मिली और पिछड़े वर्ग के गरीब लोगों को सामाजिक न्याय मिलने का अवसर प्राप्त हुआ। परिणाम यहहुआ कि इन कुलीन तंत्र के साथ में पिछड़े वर्ग के जो लोग आरक्षण विरोधी मुहिम में शामिल थे और भ्रमित थे, उनका नजरिया साफ हो गया और आरक्षण विरोधी आंदोलन फीका पड़ गया।
आरक्षण विरोधी आंदोलन की आड़ में ऐसे भी उदाहरण आए हैं कि नौनिहाल बच्चे बच्चियों को जिंदा जलाकर आत्मदाह का ढोंग रचाने का जघन्य अपराध किया गया। इससे निकृष्ट तत्व समाज को और कहां मिल सकते हैं?
कुलीन तंत्र के पोषकों ने वीपी सिंह और उनकी सरकार को लंगड़ी मारकर गिराने की कोशिश की, लेकिन वीपी सिंह ने इसके जबावमें ऐसा धोबियापाट मारा कि यह लोग चारों खाने चित्त हो गए। धोबियापाट से घायल कुलीन तंत्र केलोग बौखला गए और वीपी सिंह व जनता दल के नेताओं, कार्यकर्ताओं पर कातिलाना हमले शुरू हो गए। बम फेके गए। काफिले पर ईंट पत्थर बरसाए गए। अगर यह कुलीन तंत्र ठाकुर जाति को बर्दाश्त नहींकर सका तो और किसी दूसरी जाति को कहां ठिकाना मिलेगा?
कुलीन तंत्र अपनी तिकड़म से हजारों साल से राज करते रहे हैं। देश में नगण्य संख्या में रहते हुए भी सत्ता को नहीं छोड़ना चाहते और लोकतंत्र का हनन कर रहे हैं। लोकतांत्रिक व्यवस्था में चुनी हुई सरकारों पर इन्हें आस्था नहीं है। इस मुद्दे पर हारने के बाद इस चालाक कुलीनतंत्र ने गुपचुप तरीके से अलग योजना बनाई।
जारी.....


Monday, December 25, 2017

सहकर्मियों के संरक्षक और यारों के यार थे शेखर


स्मृतिशेष

सत्येन्द्र पीएस


प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और वेब मीडिया के धुरंधर खिलाड़ी शशांक शेखर त्रिपाठी नहीं रहे। यह बार बार कहने, सुनने, फोटो देखने पर भी अहसास कर पाना मुश्किल होता है। करीब दस दिन पहले लखनऊ के पत्रकार साथी कुमार सौवीर ने अपनी फेसबुक वाल पर लिखा कि शेखर कौशांबी के यशोदा अस्पताल में भर्ती हैं। यूं तो यशोदा हॉस्पिटल का नाम सुनकर हल्की सिहरन होती है कि जब कोई गंभीर मामला होता है, तभी इस पांच सितारा मल्टी स्पेशलिटी हॉस्पिटल में जाता है, लेकिन शेखर का मकान कौशांबी में ही है। ऐसे में बात आई-गई हो गई। फिर 5 दिन बाद शेखर के एक साथी प्रभु राजदान ने शाम को घबराई हालत में फोन किया और कहा कि आपको पता है कि शेखर त्रिपाठी हॉस्पिटल में एडमिट हैं?

(निगमबोध घाट पर शशांक शेखर त्रिपाठी का शव ले जाते उनके मित्र व परिजन)

फिर मैं गंभीर हुआ। प्रभु ने बताया कि इंटेंसिव केयर यूनिट (आईसीयू) में वेंटिलेटर पर हैं। बोल पाने में सक्षम नहीं हैं। उस समय ऑफिस से अस्पताल तो न जा सका, लेकिन दूसरे रोज करीब साढ़े 10 बजे पहुंचा। रिसेप्शन पर पता चला कि आईसीयू में मिलने का वक्त सुबह साढ़े 9 से 10 बजे के बीच होता है। मैंने प्रभु को फिर फोन मिलाया और उन्होंने शेखर के बड़े बेटे शिवम का मोबाइल नंबर दिया। फोन पर बात हुई तो रिसेप्शन पर ही मुलाकात हो गई। शिवम ने बताया कि हॉस्पिटल में मिलने का वक्त निर्धारित है और उसके अलावा मिलने नहीं देते हैं। सिर्फ मुझे जाने देते हैं।
बातचीत में ही पता चला कि करीब 10 रोज पहले पेट में हल्का दर्द शुरू हुआ था। 3-4 रोज दर्द चला। उसके बाद शेखर बताने लगे कि कॉन्सटीपेशन हो गया है। टॉयलेट साफ नहीं हो रही है। करीब 2 रोज यह प्रक्रिया चली। फिर अचानक एक रोज बाथरूम में बेहोश हो गए और उन्हें यशोदा हॉस्पिटल लाया गया।

(अंतिम संस्कार की कवायद)

पेट की ढेर सारी जांच हुई। डॉक्टरों ने बताया कि इंटेस्टाइन यानी आंत में क्लॉटिंग है। उस समय शेखर का शुगर लेवल भी ज्यादा था। लेकिन डॉक्टरों ने ऑपरेशन करने का फैसला किया। ऑपरेशन थियेटर में जाते जाते शेखर मुस्कराते हुए गए। वरिष्ठ पत्रकार और चंडीगढ़ से प्रकाशित हिंदी ट्रिब्यून के संपादक डॉ उपेंद्र बताते हैं कि कहकर गए थे कि 10 मिनट का ऑपरेशन होता है, सब ठीक हो जाएगा। सबको आश्वस्त करके ऑपरेशन थिएटर में गए थे।
डॉक्टरों के मुताबिक क्लॉटिंग की वजह से गैंगरीन हो गया था। आंत पूरी काली पड़ गई थी। इन्फेक्शन वाला पूरा हिस्सा चिकित्सकों ने निकाल दिया। लेकिन उसके बाद शुगर का स्तर बढ़ने, पेशाब होने, सांस में तकलीफ के कारण उन्हें आईसीयू में रखा गया। चिकित्सकों का कहना है कि इन्फेक्शन होने की वजह से शुगर कंट्रोल नहीं हो रहा था और दवा का डोज बढ़ाकर किसी तरह शुगर कंट्रोल किया जा रहा था और इन्फेक्शन खत्म करने की कवायद की जा रही थी। इस तरह से यह कवायद एक सप्ताह चली और आखिरकार 24 दिसंबर 2017 को दोपहर करीब 2 बजे यशोदा अस्पताल के चिकित्सकों ने उन्हें मृत घोषित कर दिया।
एक रोज पहले देखने गया तो हॉस्पिटल की व्यवस्था ने मुझे आईसीयू में देखने जाने नहीं दिया। शेखर के परिजन हर संभव कवायद कर रहे थे कि वह उठ खड़े हों। उनकी पत्नी रिसेप्शन पर लगी साईं बाबा की मूर्ति के सामने कोई किताब लेकर पाठ कर रही थीं। दोनों बच्चे शनि देवता समेत कई देवताओं के यहां माथा नवा रहे थे। मेरे सामने ही दूध लाया गया, जिसे शेखर के हाथ से छुआकर किसी देवता को चढ़ाया गया।

(अंतिम संस्कार के बाद शेखर के पुराने साथी, सहकर्मी प्रभु राजदान, डॉ उपेंद्र व अन्य)

उनके बड़े बेटे से देर तक बात होती रही। अपने बारे में बताया कि किस तरह से चिकित्सक धमकाते हैं। यह भी कहा कि करीब 5 बार मुझसे और मेरे परिजनों से इलाज के दौरान लिखवाया गया कि आप मर ही जाएंगे और मैं मुस्कुराते हुए लिखता था और मन में यही सोचता था कि किसी भी हाल में मरेंगे तो नहीं ही। आते आते उनके बेटे से मैंने यही कहा कि कुछ नहीं होगा। बहुत आईसीयू देखा है। डॉक्टर सब पागल होते हैं। शेखर जी जल्द ही आईसीयू से बाहर होंगे। मेरी बात सुनकर शिवम मुस्कराया तो राहत महसूस हुई।
दूसरे रोज साढ़े नौ बजे अस्पताल पहुंच गया। शेखर जी का छोटा बेटा आईसीयू में उनके बगल में खड़ा था। एक तरफ मैं खड़ा हो गया। स्तब्ध सा खड़ा था। आईसीयू तो ठीक, लेकिन शेखर बोल-बतिया और पहचान नहीं रहे हैं, यह देखकर बड़ी निराशा हुई। लोगों ने बताया कि ऑपरेशन के बाद से ही यही हालात है। मैं इतना दुखी और निराश था कि वहां रुक नहीं पाया। दोपहर होते होते फेसबुक के माध्यम से ही पहली सूचना मिली कि शेखर का निधन हो गया।
ऐसे भी कोई जाता है भला... हममें से तमाम लोग हैं जिनके पेट में दर्द होता रहता है। अक्सर लोग पेट दर्द की एकाध गोली खा लेते हैं। लेकिन डॉक्टर को शायद की कोई दिखाता है। शेखर चेन स्मोकिंग करते थे। शुगर की प्रॉब्लम थी। लेकिन पेट में पहले से कोई प्रॉब्लम नहीं था। आखिर कैसे कोई यह अहसास कर ले कि बीमारी इस दिशा में ले जाएगी। सब कुछ अचानक हुआ।
शेखर से मेरा पहला सामना वाराणसी में 2004-05 के आसपास हुआ। वह उन दिनों हिंदुस्तान अखबार के स्थानीय संपादक थे। काशी हिंदू विश्वविद्यालय (बीएचयू) के सुरक्षाकर्मी और प्रॉक्टोरियल बोर्ड पत्रकारों व फोटोग्राफरों से मारपीट में कुख्यात थे। उस समय में ईटीवी उत्तर प्रदेश के लिए खबरें भेजता था। बीएचयू में करीब रोजाना ही आना जाना होता था। ऐसे में सुरक्षाकर्मियों को भी झेलना पड़ता था। एक रोज हिंदुस्तान अखबार के एक फोटोग्राफर और कुछ रिपोर्टरों के साथ बीएचयू के सुरक्षाकर्मियों से हाथापाई हो गई। सभी पत्रकार व फोटोग्राफर आंदोलित थे। यह देखकर आश्चर्य हुआ कि हिंदुस्तान अखबार के स्थानीय संपादक शेखर त्रिपाठी पत्रकारों को लीड कर रहे हैं। न सिर्फ वह लीड कर रहे थे बल्कि नारेबाजी में भी शामिल हो रहे थे। बढ़ता हंगामा देखकर कुलपति ने शेखर को बातचीत के लिए आमंत्रित किया। लेकिन वह नहीं गए। बहुत देर तक पत्रकार कुलपति के आवास को घेरे रहे। आखिरकार बीच बचाव में यह सहमति बनी कि हर अखबार के प्रतिनिधि कुलपति से एक साथ मिलेंगे। उसके बाद कुलपति से वार्ता हुई। कुलपति ने घटना के लिए व्यक्तिगत रूप से खेद जताया और आश्वासन दिया कि आइंदा इस तरह की घटना न हो, इसका पूरा ध्यान रखा जाएगा। तब जाकर शेखर कुलपति आवास से हटे थे।

(मुखाग्नि देने के पूर्व की धार्मिक कवायद में शेखर त्रिपाठी के दोनों पुत्र, रिश्तेदार)

हिंदुस्तान टाइम्स के प्रभारी प्रभु राजदान से मेरी अच्छी मित्रता थी। मित्रता क्या, बनारस में हम लोग एक ही कमरे में रहते थे। उन्हीं के सामने शेखर त्रिपाठी भी बैठते थे और मेरा करीब करीब रोजाना ही हिंदुस्तान कार्यालय जाना होता था क्योंकि काम पूरा करने के बाद मैं और प्रभु एक साथ ही कमरे पर जाते थे। धीरे धीरे करके शेखर त्रिपाठी से भी बातचीत होने लगी और ठीक ठाक संबंध बन गए।
हालांकि उन संबंधों को घनिष्ट संबंध नहीं कहा जा सकता था, लेकिन शेखर ने जिस तरह हिंदुस्तान बनारस में टीम बनाई और अखबार की दिशा दशा बदली, वह खासा आकर्षक था। उन दिनों शेखर त्रिपाठी की टीम में रिपोर्टिंग कर चुके कुमार सौवीर कहते हैं कि शेखर ने हमें खबरें लिखना सिखाया। वह खुद बहुत कम लिखते, लेकिन खबर किसे कहते हैं, उसकी जबरदस्त समझ थी। उन दिनों काशी की संस्कृति पर चल रही एक सिरीज की याद दिलाते हुए सौवीर बताते हैं कि शेखर ने ऊपर 6 कॉलम में बनारस की खबर लगाई। समूह संपादक मृणाल पांडे की किसी विषय पर दी गई टिप्पणी को महज दो कॉलम स्थान दिया। सौवीर कहते हैं कि यह सोच पाना भी मुश्किल है कि कोई स्थानीय संपादक अपने समूह संपादक के लिखे को दरकिनार कर एक बहुत छोटे से रिपोर्टर की खबर से अखबार भर दे।
शेखर त्रिपाठी ने हिंदुस्तान अखबार में संपादक रहते खेती बाड़ी को खास महत्त्व दिया। इसको इसतरह से समझा जा सकता है कि उन दिनों हिंदुस्तान वाराणसी में मुख्य संवाददाता रहे डॉ. उपेंद्र से खेती-बाड़ी पर रोजाना एक खबर लिखवाई जाती थी। उस मौसम में जो भी फसल बोई जाने वाली रहती, या बोई जा चुकी रहती, उसके रखरखाव से लेकर रोगों, रोगों के रोकथाम के तरीकों पर डॉ उपेंद्र की खबर आती थी। इसके अलावा खेती को किस तरह से कमर्शियल बनाया जाए, किसानों की आमदनी किस तरह से बढ़े, यह शेखर की दिलचस्पी के मुख्य विषय रहते थे। बीएचयू के इंस्टीट्यूट आफ एग्रीकल्चरल साइंस के प्रोफेसरों के अलावा आस पास के जितने भी कृषि शोध संस्थान थे, उनके विशेषज्ञों की राय लेकर डॉ उपेंद्र खबरें लिखा करते थे।
इसके अलावा काशी की बुनकरी पर शेखर त्रिपाठी की जबरदस्त नजर रहती थी। प्रशासन की अकर्मण्यता के खिलाफ खबरें खूब लिखवाई जातीं। जिलाधिकारी से लेकर बुनकरी से जुड़े जितने भी अधिकारी रहते, उनकी जवाबदेही, सरकार द्वारा दिए जा रहे धन के उचित इस्तेमाल होने या न होने पर खबरें लिखी जाती थीं। कालीन का शहर कहे जाने वाले भदोही से शेखर ने खूब खबरें कराईं। खबरें इतनी तीखी होती थीं कि तमाम गुमनाम पत्र और फोन आने लगे और यहां तक कि दिल्ली मुख्यालय तक शिकायत पहुंच गई कि भदोही का रिपोर्टर पैसे लेता है और पैसे न देने पर खिलाफ में झूठी खबरें लिखता है।

(अपने साथियों, सहकर्मियों, परिजनों को छोड़ लकड़ियों के ढेर में छिपे शेखर)

उन दिनों को याद करते हुए भदोही में रिपोर्टर रहे सुरेश गांधी कहते हैं कि मेरी तो नौकरी ही जाने वाली थी। हाथ पांव फूल गए कि इन तमाम झूठे आरोपों का क्या जवाब दे सकता हूं। दिल्ली मुख्यालय से गांधी से मांगे गए स्पष्टीकरण का सुरेश गांधी की जगह शेखर त्रिपाठी ने खुद जवाब भेजा। सुरेश गांधी कहते हैं, “मेरा उनसे तो व्यक्तिगत जुड़ाव था, उन्होंने ही मुझे भदोही का न सिर्फ ब्यूरो चीफ बनाया बल्कि मेरी शिकायत किए जाने पर डीएम-एसपी की जमकर बखिया उधेड़ी थी। यहां तक हिन्दुस्तान की समूह संपादक रही मृणाल पांडेय द्वारा जारी मेरी शिकायती पत्र के जवाब में कहा था मैं सुरेश गांधी को व्यक्तिगत जानता हूं, उसके जैसा तो कोई पूर्वांचल मंर नहीं हैं, वह जवाबी लेटर आज भी मैं संभाल कर रखे हूं।“
अपने अधीनस्तों के साथ हर हाल में खड़े रहना शेखर की आदत में शामिल था। हिंदुस्तान वाराणसी के बाद उन्होंने दैनिक जागरण लखनऊ में स्थानीय संपादक का कार्यभार संभाला। दैनिक जागरण में भी पत्रकारों के लिए किसी से भी लड़ जाने के किस्से बहुत विख्यात हैं। जागरण लखनऊ में उनके साथ काम कर चुके नरेंद्र मिश्रा बताते हैं कि लखनऊ में एक बार आईबीएन के ब्यूरो चीफ रहे शलभ मणि त्रिपाठी से पुलिस के सर्किल अधिकारी से हाथापाईं हो गई। पत्रकारों ने प्रशासन के खिलाफ रात में ही प्रदर्शन शुरू कर दिया। रात में वरमूडा और टीशर्ट पहने शेखर त्रिपाठी खुद पहुंच गए पत्रकारों के विरोध प्रदर्शन में। उसके बाद तो जागरण की पूरी टीम ही पहुंच गई। यह जानकर कि जागरण के स्थानीय संपादक खुद प्रदर्शन में आए हैं, प्रशासनिक अधिकारियों के हाथ पांव फूल गए। तत्कालीन एसएसपी ने शेखर से कहा कि आपको यहां नहीं आना चाहिए था, आप घर जाएं। अधिकारी के कहने का आशय जो भी रहा हो, लेकिन शेखर ने उन्हें बहुत तेज डांटा और कहा कि अगर हम अपने रिपोर्टर्स के लिए नहीं खड़े होंगे तो कौन खड़ा होगा, कौन सुनेगा उनकी। उस दिन कोयाद कतते हुए नरेंद्र मिश्र कहते हैं कि उसके बाद तो हम पत्रकारों का सीना चौड़ा हो गया और इतना तीखा विरोध प्रदर्शन हुआ कि प्रशासन को झुकना पड़ा सीओ का तत्काल ट्रांसफर किया गया, इलाके के एसओ को लाइन हाजिर किया गया। नरेंद्र मिश्र बताते हैं कि उन दिनों मायावती उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री थीं और किसी के लिए यह कल्पना करना भी कठिन था कि पत्रकारों के विरोध प्रदर्शन से किसी अधिकारी का बाल बांका हो सकता है, लेकिन शेखर त्रिपाठी ने जो ताकत दी, उससे हम लोग कार्रवाई करा पाने में सफल हो पाए।

(अंतिम गंतव्य स्थल, जहां परिजन छोड़ आते हैं)

उसके बाद शेखर त्रिपाठी दिल्ली में दैनिक जागरण की डिजिटल टीम के प्रभारी हो गए। मैं पहले से ही दिल्ली में था। जागरण आना जाना अक्सर होता था। या यूं कहें कि शेखर त्रिपाठी और डॉ उपेंद्र से मिलने ही जागरण जाना होता था। जब भी मिलते तो वह आर्थिक खबरों के बारे में ही बात करते। शेयर बाजार, कंपनियों, देश की अर्थव्यवस्था आदि आदि। मैं भी जहां तक संभव हो पाता, उन्हें बताने की कोशिश करता था। फिर बाहर निकल जाते, सिगरेट और चाय पीने। जागरण दफ्तर के आगे एक पकौड़े की दुकान हुआ करती थी, जहां वह भूख लगी होने अक्सर पकौड़े खिलाया करते थे। सिगरेट और चाय तो होती ही थी। हालांकि हाल के दो-तीन साल से लगातार मेरा स्वास्थ्य खराब होने और डॉ उपेंद्र के चंडीगढ़ चले जाने पर जागरण आना जाना करीब छूट गया था, लेकिन फिर भी सूचनाएं मिलती रहती थीं।
हाल में शेखर त्रिपाठी जागरण की वेबसाइट पर एक खबर लिखे जाने को लेकर चर्चा में आए। ट्रिब्यून हिंदी के संपादक और शेखर के करीबी रहे डॉ उपेंद्र कहते हैं, “शेखर त्रिपाठी, दैनिक जागरण के इंटरनेट एडीटर थे, और दैनिक जागरण लखनऊ के संपादक, दैनिक हिंदुस्तान वाराणसी के संपादक, आज तक एडीटोरियल टीम के सदस्य रहे। फाइटर इतने जबरदस्त कि कभी हार नहीं मानी। कभी गलत बातों से समझौता नहीं किया। किंतु जागरण डॉट कॉम के संपादक रूप में दायित्व निभाते संस्थान हित में वह दोष अपने ऊपर ले लिया जिसके लिए वे जिम्मेदार ही नहीं थे। चुनाव सर्वेक्षण प्रकाशन के केस में एक रात की गिरफ्तारी और फिर हाईकोर्ट में पेंडिंग केस के कारण बीते छह महीने से संपादकीय कारोबार से दूर रहने की लाचारी ने उन्हें तोड़ दिया।”
यह शेखर की आदत ही थी कि वह कभी अपने अधीनस्थ को नहीं फंसने देते थे। स्थानीय अधिकारियों, नेताओं, माफिया, अपने संस्थान के वरिष्ठों से अपने जूनियर सहयोगियों के लिए भिड़ जाते थे। जागरण वेबसाइट में सर्वे आने का मामला भी निश्चित रूप से उनसे सीधे तौर पर नहीं जुड़ा था। विभिन्न माध्यमों से खबरें आती हैं और वह लगती जाती हैं। लेकिन टीम का प्रभारी होने के नाते उन्होंने मरते दम तक जवाबदेही अपने ऊपर ली।

(और यूं सबको छोड़कर अग्नि में समाकर अनंत में विलीन हो गए शेखर)

पत्रकारिता जगत में इस शेखर जैसे जिंदादिल इंसान कम ही देखने को मिलते हैं। बेलौस, बेखौफ गाड़ी लेकर रातभर घूमना, पहाड़ों की सैर करना, बाइकिंग उनकी आदत में शुमार था। उनके ठहाकों, मुस्कुराते चेहरे के तो जूनियर से लेकर सीनियर तक सभी सहकर्मी कायल थे। वरिष्ठ पत्रकार अकु श्रीवास्तकव लिखते हैं, “जिंदगी ऐसी है पहेली… कभी तो रुलाए.. कभी तो हंसाए.. शेखर ने रोना तो सीखा ही नहीं था। मस्ती उनकी जिंदगी का हिस्सा रही। जिम्मेदारी उन्होंने हंस हंस कर ली और जो दूसरों की मदद कर सकते थे, की। 35 साल से ज्यादा जानता रहा, गायब भी रहे... पर सुध लेते रहे। उनके प्रशंसकों की लंबी फेहरिस्त है। लार्जर देन लाइफ जीने वाले 6 फुटे दोस्त को प्रणाम।”
अपने सहकर्मियों की दाल रोटी की चिंता से लेकर पत्रकारीय दायित्व तक पर नजर रखने वाले और जहां तक बन पड़े, लीक से हटकर मदद करने वाले पत्रकार बिड़ले ही मिलते हैं।
आप बहुत याद आएंगे शेखर।