Saturday, September 17, 2016

गोरक्षा के नाम पर शर्मसार होती मानवता


सत्येन्द्र पीएस


गोरक्षा के नाम पर गुजरात के ऊना में दलितों को बंधक बनाए जाने, बांधकर उनकी पिटाई किए जाने की घटना ने पूरी दुनिया में भारत को शर्मसार किया है। गाय की रक्षा के नाम पर मनुष्यों को मार दिए जाने की घटना दुनिया के किसी भी सभ्य समाज के लिए वीभत्स है।
हालांकि भारत में दलितों का उत्पीड़न नया नहीं है। लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सत्ता में प्रभावी होने पर गोरक्षा कुछ ज्यादा ही जोर पकड़ लेता है। इसके पहले जब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी थी, तब भी हरियाणा में कथित गोरक्षकों ने गाय का चमड़ा उतारने ले जा रहे दलितों की हत्या कर दी थी।
अब दोबारा नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में सरकार बनने और आरएसएस के प्रभावी होने के बाद से गोरक्षक सड़कों पर हैं। देश के तमाम इलाकों से गुंडागर्दी, हत्या, मारपीट की खबरें आनी शुरू हो गईं। उत्तर प्रदेश के दिल्ली से सटे नोएडा इलाके में अखलाक को निशाना बनाया गया। मंदिर की माइक से ऐलान हुआ कि अखलाक के फ्रिज में गाय का मांस रखा है। भीड़ जुटी। उसने फैसला कर दिया। अखलाक को पीट पीटकर मार डाला गया।
उसके बाद पंजाब का एक वीडियो वायरल हुआ, जिसमें ट्रक पर गाय लादकर ले जा रहे कुछ सिखों को कुछ लोग बड़ी बेरहमी से लाठी डंडों से पीट रहे थे। इसके अलावा स्थानीय स्तर पर गाय की रक्षा के नाम पर गाय ले जा रहे लोगों के उत्पीड़न की खबरें आती रहती हैं। गुजरात के उना में मरे जानवर का चमड़ा उतारने ले जा रहे दलितों की पिटाई का वीडियो वायरल होने के कुछ दिनों पहले भी राज्य में कुछ दलितों की पिटाई हो चुकी थी, लेकिन जब ऊना मामले ने तूल पकड़ा तब जाकर उस मामले में आरोपियों को गिरफ्तार किया गया।
साफ है कि कानून की धमक कहीं नहीं दिख रही है। कथित गोरक्षक गुंडों को लगता है कि उनकी सरकार बन गई है और वह हर हाल में सुरक्षित हैं। उन्हें किसी को भी मारने पीटने का पूरा अधिकार मिल गया है।
हालांकि इस बीच प्रधानमंत्री ने एक कार्यक्रम के दौरान अजीबोगरीब बयान दिया। उन्होंने कहा, “मुझे गोली मार दो, लेकिन मेरे दलित भाइयों को मत मारो।” आखिर इसका क्या मतलब निकाला जाए? क्या प्रधानमंत्री के हाथ में कोई ताकत नहीं रह गई है? क्या प्रधानमंत्री कहना चाह रहे हैं कि गोरक्षा के नाम पर पिटाई उचित है और कोई दलित चमड़ा उतारता है उसे पीटने के बजाय प्रधानमंत्री को पीटा जाए? क्या प्रधानमंत्री कानून की रक्षा में सक्षम नहीं हैं? क्या प्रधानमंत्री सीधे अपील नहीं कर सकते कि यह अपराध न किया जाए? क्या प्रधानमंत्री को सचमुच नहीं पता है कि यह कौन कर रहा है? ऐसे तमाम सवाल हैं, जो प्रधानमंत्री के बयान के बाद उठते हैं।
भारत में सदियों से जातीय भेदभाव है। एक जाति विशेष के लोग ही मरे हुए जानवरों को निपटाते हैं। किसान या किसी के घर कोई जानवर मरता है तो उस जाति विशेष के लोगों को पशु के मरने के पहले ही सूचना दे दी जाती है। वह पशुओं को सिवान में ले जाते हैं, उनकी खाल उतारते हैं। खाल बेचने से उन्हें कुछ धन मिल जाता है। हां, गरीबी के दौर में मरे हुए जानवरों का मांस भी वह तबका खाता था, लेकिन अब शायद मांस खाने की स्थिति नहीं है। ओम प्रकाश बाल्मीकि और प्रोफेसर तुलसीराम ने अपने प्रसिद्ध उपन्यासों में खाल उतारने और मरे हुए जानवरों का मांस हासिल करने के लिए गिद्धों और दलित महिलाओं के बीच संघर्ष के बारे में बताया है।
यह कितना दुखद है कि जो काम दलित करते आए हैं, और कोई तबका वह काम करने को तैयार नहीं है, उसके लिए भी उन्हें पीटा जाता है। शायद पीटा जाना हिंदुत्व या हिंदू संस्कृति का एक अभिन्न अंग है, जिसके तहत एक दुश्मन खोजना जरूरी होता है, जिससे हिंदुत्व को बचाना होता है।
इस हिंदुत्व की रक्षा के लिए वह काल्पनिक दुश्मन मुस्लिम हो सकता है, इसाई हो सकता है, दलित हो सकता है, या नास्तिक हो सकता है। कोई भी। कभी भी। कुछ भी। एक दुश्मन होना जरूरी है, जिससे जंग छेड़नी है। जंग इसलिए कि हिंदुत्व बच सके। यह पता नहीं कैसा हिंदुत्व है, जो गाय या मरी हुई गाय की खाल में रहता है, जिसे बचाने की कवायद की जाती है।
हिंदुत्व की रक्षा के अजब गजब रूप और अजब गजब दुश्मन रहे हैं। हिंदू देवी देवता हथियारों से लैस हैं। हर देवी देवता के हाथ में असलहे हैं। मुस्लिम नहीं थे, तब यह देवता धर्म की रक्षा के लिए लड़ते थे। आखिर किससे लड़ते थे? उल्लेख तो मिलता है कि वैदिक यज्ञों में गायों की बलि दी जाती थी। इस बलि प्रथा और खून खराबे की वजह से ही जैन और बौद्ध धर्म का उद्भव हुआ था, जो यज्ञों की हिंसा के पूरी तरह खिलाफ थे। आखिर में वे कौन लोग थे, जो वैदिक हिंसा के विरोधी थे और वैदिक यज्ञों को तहस नहस करने के लिए तत्पर रहते थे। इन्ही राक्षसों से यज्ञों की रक्षा के लिए वैदिक देवता हमेशा हथियार लिए फिरते थे।
अब नए दौर में गोरक्षा का प्रभार कुछ संगठनों ने संभाल लिया है। गोरक्षक दल, गोसेवा दल जैसे कितने संगठन आ गए हैं, जो अभी गोआतंकी बने घूम रहे हैं।
अहम बात यह है कि ऊना की घटना का जोरदार विरोध हुआ। गुजरात ही नहीं, महाराष्ट्र में भी तमाम रैलियां निकलीं। संसद में विपक्षी दलों ने इस मसले को उठाया। वहीं गुजरात में अहमदाबाद से ऊना तक की पदयात्रा और उसके बाद ऊना में सभा का आयोजन हुआ। युवा वकील जिग्नेश शाह इस आंदोलन के अगुआ बनकर उभरे। हालांकि पहले वह आम आदमी पार्टी से जुड़े थे, लेकिन विवादों के बाद उन्होने आम आदमी पार्टी से इस्तीफा देने की घोषणा कर दी। उन्होंने कहा कि सिर्फ दलित आंदोलन उनका मकसद है और गुजरात के आंदोलन में आम आदमी पार्टी की कोई भूमिका नहीं रही है।
इस आंदोलन के बाद गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल को पद छोड़ना पड़ा। भले ही सरकार ने तमाम अन्य वजहें गिनाईं, आनंदीबेन की उम्र का हवाला दिया गया। लेकिन माना जा रहा है कि पाटीदार आरक्षण आंदोलन के बाद दलित आंदोलन ने मुख्यमंत्री के इस्तीफे में अहम भूमिका निभाई।
इन आंदोलनों व विरोध प्रदर्शनों का असर जो भी नजर आ रहा हो, लेकिन भारतीय जनता पार्टी का मातृसंगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सेहत पर इससे कोई असर पड़ता नहीं दिख रहा है। आगरा में 21 अगस्त 2016 को आयोजित एक कार्यक्रम में गोरक्षकों पर उठ रहे सवाल को लेकर संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि गोरक्षा का काम कानून के दायरे में चल रहा है, अगर किसी को शंका होती है तो भला बुरा कह सकता है। उन्होंने कहा कि गोरक्षा के काम ही उनके लिए उत्तर है, जो पहले विरोधी थे वह भी गोरक्षा के काम को देखकर समर्थन में आ गए। भागवत ने कहा कि गोरक्षा की गतिविधियां चल रही हैं और आगे भी चलती रहेंगी, गोरक्षक अच्छा काम कर रहे हैं। आशय साफ है। आरएसएस समाज के ध्रुवीकरण के पक्ष में खड़ा है। गोरक्षा की आड़ में वह सियासी रोटियां सेंकने को तैयार है। उत्तर प्रदेश में अगले साल की शुरुआत में चुनाव होने को हैं और गुजरात मामला अभी शांत नहीं हुआ है। वहीं आरएसएस ने उत्तर प्रदेश के आगरा शहर से साफ संकेत दे लिया कि गोरक्षा के नाम पर जो चल रहा है, वह चलते रहना चाहिए।
प्रधानमंत्री के दलित प्रेम से भी यही छलकता हुआ दिख रहा है। उन्हें अखलाक की घटना स्वीकार्य है, दलितों के ऊपर सीधा हमला स्वीकार नहीं है। परोक्ष रूप से वह इस मामले को हिंदू और मुस्लिम ध्रुवीकरण तक ही सीमित रखना चाहते हैं। दलितों व पिछड़ों के बारे में प्रधानमंत्री की सोच का पता उनके 23 अगस्त 2016 के दिल्ली के एनडीएमसी हॉल में सभी 29 राज्यों और 7 केंद्रशासित प्रदेशों से आए पार्टी के नेताओं के सम्मेलन में दिए गए बयान से चलता है। मोदी ने कहा कि राष्ट्रवादी तो हमारे साथ हैं, हमें दलित और पिछड़ों को साथ लाना है। शायद उनका आशय यह था कि अपर कास्ट राष्ट्रवादी होता है और दलित पिछड़े अराष्ट्रवादी, राष्ट्रदोही या कुछ और हैं। वे राष्ट्रवादी नहीं हैं और उन्हें राष्ट्र से शायद कोई प्रेम नहीं है।
कुल मिलाकर सरकार का रोना धोना और दलित उत्पीड़न की घटनाओं का विरोध जताना एक दिखावटी कवायद ज्यादा बन गई है। शायद भाजपा आरएसएस और उनके अनुषंगी संगठनों को यह संदेश साफ जाता है कि उन्हें किसे पीटना है और किसके खिलाफ गुंडागर्दी करनी है। गुजरात में ऐसा हुआ भी। प्रधानमंत्री के लाख रोने गाने के बावजूद जब ऊना में दलित रैली खत्म हो रही थी तो दलितों पर हमले हो गए। दरबार यानी काठी दरबार गुजरात के क्षत्रिय हैं जिनकी सौराष्ट्र में कभी 250 से ज्याीदा रियासतें हुआ करती थीं। इस समुदाय ने ऊना की रैली से लौटते दलितों पर लाठी, तलवार और बंदूक से हमला किया।
गुजरात में दलित चेतना नई बात नहीं है। बड़ौदा के महाराज सयाजी राव गायकवाड़ ने 1882-83 में सभी के लिए अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान कर दिया था और बड़ौदा, नवसारी, पाटन व अमरेली में चार अंत्यएज स्कू ल व हॉस्टाल खुलवाए थे। 1939 में उनकी मृत्यु हुई। उसके बाद 1931 में बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर के अहमदाबाद आगमन के बाद से यहां आंबेडकरवादी विचारधारा का जो काम चालू हुआ, वह अभी जमीनी स्तसर पर चालू है। गुजरात में दलितों के घर में बाबा साहेब की तस्वींरों लगी हुई नजर आती हैं। कांग्रेस का मजदूर महाजन संघ, आर्य समाज, आंबेडकर का बनाया शेड्यूल कास्टी फेडरेशन, कांग्रेस का हरिजन सेवक संघ, बौद्ध महासंघ आदि तमाम संगठनों के मिले जुले काम ने दलितों की चेतना जगाने का काम किया है।
हालांकि गुजरात में बाबाओं का प्रकोप भी कम नहीं है। सौराष्ट्रस में भी काठियावाड़ के जो दलित हैं, उनमें अस्सीा प्रतिशत जैसलमेर के रामदेवरा धाम के भक्तड हैं। रामदेव स्वािमी जाति से क्षत्रिय थे, लेकिन दलितों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। गुजरात में रामदेव स्वा मी के दो मंदिर हैं। जामनगर से भावनगर तक के दलित वहां हर साल मंडप नामक त्योकहार में जाते हैं और अलग अलग जाति के लोगों के साथ मिलकर पूजा अर्चना करते हैं। इनके अलावा सवैयानाथ से लेकर जालाराम तक तमाम संत हुए, जिनकी भक्ति दलित करते हैं। इसमें संत की जाति नहीं देखी जाती। संतों की आराधना के मामले में दलितों के साथ भेदभाव गुजरात में मिट चुका है।
गुजरात के दलितों के बीच सामाजिक सुधार की जो प्रमुख धारा करीब सौ साल से मौजूद रही है, वह आज कहीं कहीं राष्ट्रावादी राजनीति के रूप में नजर आती है। सौराष्ट्र के दलितों के धर्मगुरु शम्भूतनाथ बापू हैं। वे राज्यिसभा में भाजपा सांसद हैं। पाकिस्तालन के सिंध में भी उनके करीब दो लाख अनुयायी रहते हैं। जाति से वे खुद दलित हैं और दलितों की जमकर हिमायत करते हैं, लेकिन अपनी पार्टी लाइन के खिलाफ कभी नहीं जाते। 21 जुलाई 2016 को राज्यलसभा में शम्भू नाथ बापू ने ऊना मामले पर जोरदार भाषण दिया, लेकिन उनका सामाजिक न्याूय बीजेपी की सत्ता की पुष्टि करने में लगा रहा। कुल मिलाकर दलित या शोषण का मसला अपने राजनीतिक स्वार्थ या विचारधारा के खांचे में बंधा हुआ नजर आता है।
इसके पहले भी गुजरात में दलित आंदोलन हुए हैं। 1980 के आसपास आरक्षण विरोधी आंदोलन हुआ था, जिसमें दलितों को निशाना बनाया गया। उस समय भी दलितों पर कहानियां लिखी गईं, उसे प्रचारित प्रसारित किया गया। दलितों ने प्रतिज्ञा की कि वे मरे जानवरों को नहीं उठाएंगे। हालांकि इसका कोई ठोस परिणाम सामने नहीं आया। तीन साल पहले जूनागढ़ में 80,000 दलितों ने एक साथ बौद्ध धर्म में दीक्षा लेकर तूफान खड़ा कर दिया था। इस पर भी कोई खास हलचल नहीं हुई।
फिलहाल इस आंदोलन से भाजपा के विरोधी खासे खुश हैं। खासकर गुजरात को लेकर कांग्रेस उत्साह में है। आम आदमी पार्टी भी इस मामले को भुनाने में लगी है। दलित वहीं के वहीं खड़े हैं। गुजरात में दलित चेतना अन्य राज्यों की तुलना में ज्यादा ही है। इसके बावजूद कांग्रेस व भाजपा दोनों ने ही दलितों को अलग थलग रखा है। माना जाता है कि दलित ज्यादातर कांग्रेस को अपना वोट देते हैं, लेकिन कांग्रेस के लिए भी गुजरात के दलित वोटर से ज्यादा कुछ नहीं हैं। अनुमान के मुताबिक राज्य में महज 6 प्रतिशत दलित हैं। ऐसे में न तो वह लोकतंत्र में वोट की राजनीति के सशक्त प्रहरी बन पा रहे हैं, न ही अपने संवैधानिक हक का इस्तेमाल कर पा रहे हैं। इन 6 प्रतिशत मतों की अन्य किसी वर्ग मसलन पिछड़े या मुस्लिम या किसी अन्य के साथ लाबीयिंग भी नहीं है, जिससे मतदान के वक्त ये सशक्त मतदाता बनकर कुछ कर दिखाने या राजनीतिक बदलाव लाने में सक्षम हों।
ऊना में दलितों पर हुए हमले और उसके असर को देखने के लिए अभी बहुत कुछ देखना बाकी है। अगर गुजरात के अलावा इसे पंजाब, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र के संदर्भ में देखें, जहां दलितों की निर्णायक आबादी है, तो इसके राजनीतिक निहितार्थ और असर देखना अभी बाकी है।

Friday, September 16, 2016

झूठे जग की झूठी प्रीत, कैसी हार और किसकी जीत




(सामाजिक न्याय के पुरोधा एक बार फिर खींचतान में फंस गए हैं। इनसे आस लगाए बैठा समाज निराश है। इन पुरोधाओं से उम्मीद थी कि यह हिंदुत्व, गाय, गोबर और गोमूत्र की राजनीति से निकालकर राह दिखाएंगे, लेकिन यह अपने ही विवादों में फंसे और पतनोन्मुख नजर आ रहे हैं।)

सत्येन्द्र पीएस

उत्तर प्रदेश में सत्तासीन समाजवादी पार्टी के मुखिया मुलायम सिंह यादव के परिवार में घमासान मची है। मुख्यमंत्री अखिलेश यादव ने दो कैबिनेट मंत्रियों गायत्री प्रसाद प्रजापति और राजकिशोर सिंह को बर्ख़ास्त कर दिया। गायत्री जहां मुलायम सिंह के करीबी माने जाते हैं, वहीं राजकिशोर शिवपाल सिंह यादव के खासमखास हैं। इसके पहले भी इस परिवार में कई बार टकराव की स्थिति आई है।
मऊ के विधायक मुख्तार अंसारी को शिवपाल ने सपा में शामिल होने की घोषणा की, वहीं अखिलेश ने इसके खिलाफ बयान दे दिया। आखिरकार मुलायम सिंह के हस्तक्षेप के बाद किसी तरह से बवाल टला। उसके कुछ दिन ही बीते थे कि शिवपाल ने इस्तीफे की पेशकश कर दी। मंत्रियों की बर्खास्तगी पर पार्टी अध्यक्ष मुलायम सिंह की प्रतिक्रिया थी कि यह जानकारी उन्हें समाचार माध्यमों से मिली।
मंत्रियों की बर्खास्तगी के विवाद को 24 घंटे भी नहीं बीते थे कि अखिलेश ने मुख्य सचिव दीपक सिंघल को हटा दिया। सिंघल ने दो महीने पहले ही मुख्य सचिव का पदभार ग्रहण किया था। उनकी जगह प्रमुख सचिव (वित्त) राहुल भटनागर को नया मुख्य सचिव नियुक्त किया गया। सिंघल को शिवपाल का करीबी माना जाता है, जो मुख्य सचिव बनने के पहले सिंचाई विभाग में प्रमुख सचिव थे। सिंचाई विभाग के मंत्री शिवपाल यादव हैं और माना जाता है कि उन्हीं के दबाव में सिंघल को मुख्य सचिव बनाया गया था। सपा के कुछ नेताओं का मानना है कि सिंघल सपा के राज्यसभा सदस्य अमर सिंह द्वारा दिल्ली में दिए गए रात्रिभोज में शामिल हुए थे, जिससे अखिलेश नाखुश थे।

उधर बिहार में अलग बवाल मचा है। राष्ट्रीय जनता दल के बाहुबली नेता शहाबुद्दीन जेल से रिहा हो गए। छूटते ही उन्होंने कहा कि नीतीश कुमार तो परिस्थितिवश मुख्यमंत्री बने हैं, नेता तो लालू प्रसाद हैं। वहीं नीतीश पर लगातार हमलावर रहे राजद उपाध्यक्ष रघुवंश प्रसाद सिंह ने भी शहाबुद्दीन का समर्थन कर दिया। हमले के बीच नीतीश ने कहा कि उन्हें कौन क्या कहता, उसकी वह परवाह नहीं करते। वहीं जदयू के वरिष्ठ नेता बिजेंद्र प्रसाद यादव व ललन सिंह ने मीडिया से बातचीत कर राजद प्रमुख लालू प्रसाद से अपील की कि गैर जिम्मेदाराना बयान देने वाले नेताओं पर लगाम लगाएं।

शुक्र है कि लालू प्रसाद का बयान आ गया कि गठबंधन के सर्वमान्य नेता नीतीश कुमार हैं। इसमें कहीं से किसी को संदेह की जरूरत नहीं है। रघुवंश बाबू की लगातार बयानबाजी पर भी उन्होंने अपना पक्ष साफ करते हुए कहा गया है कि पार्टी नेताओं को मीडिया में ऐसी बयानबाजी से बचने को कहा गया है, लेकिन बड़े नेता कुछ न कुछ बोल रहे हैं। हालांकि शहाबुद्दीन के बयान में लालू को कोई खामी नजर नहीं आई और उन्होंने कहा कि अपने दल के प्रमुख की प्रशंसा करना कहीं से गलत नहीं है!
उत्तर प्रदेश और बिहार के यह दो नेता लालू प्रसाद और मुलायम सिंह सामाजिक न्याय के पहरुआ माने जाते हैं। पिछड़े वर्ग के लोग जब भी खुद को पीड़ित या दबा महसूस करते हैं, मुंह उठाकर इन दो नेताओं की ओर देखते हैं। 2014 के चुनाव में भारतीय जनता पार्टी / आरएसएस की शानदार जीत के बाद जब पिछड़ा तबका हाशिए पर महसूस करने लगा तो उसने इन नेताओं की ओर देखा। बिहार में विधान सभा चुनाव होने वाले थे। लालू प्रसाद और नीतीश कुमार ने सक्रिय कोशिश करना शुरू किया कि समाजवादियों को एक झंडे के नीचे लाया जाए। तमाम बैठकें हुईं। पुराने जनता दली नेताओं ने मिलकर मुलायम सिंह यादव को महागठबंधन का नेता भी घोषित कर दिया। सामाजिक न्याय के पुरोधाओं से उम्मीद की जाने लगी कि राष्ट्रीय स्तर पर कोई कामन मिनिमम प्रोग्राम बनेगा और अब पिछड़े वर्ग का राजनीतिक अस्तित्व बचाया जा सकेगा।

बिहार विधानसभा चुनाव के पहले ही महागठबंधन की हवा निकल गई। सपा में शिवपाल लॉबी जहां संयुक्त एकता के पक्ष में थी, वहीं रामगोपाल-अखिलेश लॉबी इसके खिलाफ थी। रामगोपाल यादव ने सार्वजनिक बयान भी दिया कि दलों का विलय व्यावहारिक नहीं है। आखिरकार सपा अलग हो गई। इसके बावजूद शिवपाल यादव ने व्यक्तिगत स्तर पर जाकर राजद और जदयू गठबंधन का प्रचार किया। फिर भी एका की हवा निकल चुकी थी। मुलायम कुनबे में शिवपाल यादव जमीनी नेता रहे हैं। जब नेता जी दिल्ली और राष्ट्रीय स्तर की राजनीति करते थे तो उन्हें पहले विधानसभा और फिर लोकसभा में पहुंचाने के लिए स्थानीय लेवल पर लठैती करने का काम शिवपाल यादव संभालते थे।

अगर मुलायम के किसी जीवनीकार ने ईमानदारी दिखाई होगी तो इस पहलू पर जरूर प्रकाश डाला होगा कि मुलायम सिंह यादव को राष्ट्रीय स्तर पर नेताजी बनाने में शिवपाल नींव के पत्थर थे। बावजूद इसके, जब सपा 2012 में विधानसभा चुनाव जीती तो अचानक अखिलेश यादव ने शिवपाल को पीछे छोड़ दिया। बिहार में लालू प्रसाद के बड़े बेटे तेज प्रताप यादव कैबिनेट मंत्री हैं, वहीं तेजस्वी यादव उप मुख्यमंत्री। मतलब नीतीश कुमार के बाद दूसरे स्थान पर। लालू प्रसाद के दल में भी निश्चित रूप से रघुबंश बाबू और अब्दुल बारी सिद्दीकी को भी उम्मीदें रही होंगी, भले ही ये नेता लालू प्रसाद के परिवार के नहीं रहे हैं। बहरहाल लालू प्रसाद के दोनों पुत्र ठीक उसी तरह राजद के सबसे बड़े नेता बन गए, जैसे मुलायम सिंह के पुत्र अखिलेश यादव बने थे।

पिछड़ा वर्ग विकल्पहीन है। शरद यादव का जनाधार नहीं है, जिनके परिवार के बारे में कोई जानता नहीं। परिवारवाद से कोसों दूर नीतीश कुमार का रुख साफ नहीं रहता। लगातार 17 साल भाजपा के साथ रहे और लोकसभा चुनाव के पहले धर्मनिरपेक्षता के नाम पर अलग हो गए। नीतीश कुमार ने न तो कभी पिछड़े वर्ग के पक्ष में खुलकर बयान दिया और न ही वर्गीय हित को लेकर कोई आंदोलन या लड़ाई छेड़ी। वहीं मुलायम और लालू ने शुरुआती दिनों में पिछड़े वर्ग के लिए समाज में खुलकर लोहा लिया। बाद में यह दोनों यादव नेता हुए। इनकी सीमाएं सिमटते सिमटते अब अपने परिवार के नेता तक पहुंच गई। निश्चित रूप से इस आइडेंडिटी पॉलिटिक्स ने उत्तर प्रदेश और बिहार में कांग्रेस को और उसके बाद भाजपा को शीर्षासन करा दिया। यह दोनों दल जीत के लिए तरस गए।

स्वाभाविक है कि नेताओं को जनता का जबरदस्त प्यार मिला। नेताओं ने प्यार वापस भी किया। कुछ हद तक पिछड़े वर्ग का उत्थान भी हुआ। विभिन्न क्षेत्रों में पिछड़े चेहरे दिखाई देने लगे। अब पिछड़े वर्ग के युवा पढ़ रहे हैं। चीजों को अपने नजरिए से समझ रहे हैं। एका भी बनी है। तमाम विश्वविद्यालयों में पिछड़े वर्ग के छात्रनेता निकल रहे हैं। हालांकि इन कुनबों की राजनीति और आपसी खींचतान में एक निराशा नजर आती है। स्वाभाविक रूप से लालू प्रसाद से उम्मीद थी कि बिहार विधानसभा चुनाव के बाद वह दिल्ली में बैठेंगे और केंद्र की राजनीति करेंगे। उसी तरह से मुलायम सिंह यादव से भी उम्मीद थी कि वह राष्ट्रीय स्तर पर एकता बनाकर केंद्रीय राजनीति में सशक्त हस्तक्षेप करेंगे।

इन ताजा विवादों से वंचित तबके, या कहें कि इन नेताओं से आस लगाए बैठे लोगों की उम्मीदें तार तार हो रही हैं। एक राजनीतिक हताशा सामने आ रही है कि अब आगे क्या ? क्या कोई नेता ऐसा आएगा, जो संकीर्णताओं से ऊपर उठकर पिछड़े वर्ग का नेता बने। पूरे समाज का नेता तो बनना दूर, पारिवारिक विवादों में उलझी क्षेत्रवादी राजनीति एक बार फिर अपने समर्थकों को निराशा की गर्त में ढकेल रही है।

इस काली आधी रात को बेगम अख्तर का गाया गीत ही बेहतर नजर आ रहा है....
झूठे जग की झूठी प्रीत।
दुनिया का दिन रैन का सपना
मोह नगर में चैन का सपना,
रूप अनूप है नैन का सपना
कैसी हार और किसकी जीत

Tuesday, September 13, 2016

आखिर कौन लोग हैं जो यह प्रचारित कर रहे हैं कि दलितों के असल शोषक पिछड़े वर्ग के लोग हैं ?


सत्येन्द्र पीएस

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में स्टूडेंट यूनियन चुनाव के बाद एक चर्चा जोरों पर है। बापसा (बिरसा अंबेडकर, फुले स्टूडेंट एसोसिएशन) दलित आदिवासी और मुस्लिम का संगठन है। बापसा को आरएसएस ने खड़ा किया, जिससे वाम दलों के वोट काटे जा सकें। बापसा उग्र वामपंथियों का संगठन है, खासकर इसके पीछे माओवादियों का वह तबका खड़ा है जो संविधान और मौजूदा भारतीय प्रणाली में विश्वास नहीं रखता।
बापसा, बापसा, बापसा। कुल मिलाकर बापसा चर्चा में है।
बहरहाल... नवोदित विद्यार्थी संगठन ने दलित-पिछड़े का मसला भी छेड़ दिया है। जेएनयू में चर्चा रही कि इस संगठन से पिछड़ा वर्ग बाहर है। कैंपस में यह भी चर्चा रही कि बापसा पिछड़ों को ही दलितों का सबसे बड़ा शोषक मानती है।

हालांकि दलित शब्द भ्रामक और असंवैधानिक है। इसकी अलग अलग व्याख्याएं की जा सकती हैं। लेकिन अगर समाज में कहीं भी दलित कहा जाए तो उसका मतलब अनुसूचित जातियों से ही होता है। कुछ मामलों में अनुसूचित जनजातियों को भी दलित कहा जाता है। कम से कम उत्तर भारत के किसी भी राज्य में अन्य पिछड़ा वर्ग (ओबीसी) अपने को दलित नहीं मानता।
मुझे याद है कि 1991 में विश्वनाथ प्रताप सिंह सरकार द्वारा मंडल आयोग की सिफारिशें स्वीकार किए जाने के बाद जब मंडल विरोधी आंदोलन चला तो इसमें आधे से ज्यादा छात्र पिछड़े वर्ग के हुआ करते थे। एक सामान्य धारणा थी कि विपिया ने हमारा सब कुछ छीन लिया और अब चमार सियार ही नौकरी पाएंगे। यह अपर कास्ट ही नहीं, उनके साथ कंधे से कंधा मिलाकर ओबीसी स्टूडेंट्स कहते थे।
धीरे-धीरे मामला साफ हुआ। उच्च जाति, खासकर जोर शोर से क्षत्रिय बनने की कवायद में लगी हजारों की संख्या में जातियों ने एक हद तक खुद को ओबीसी मान लिया।
हालांकि ओबीसी में वर्ग चेतना आज भी नहीं है। ओबीसी राजनीति जाति चेतना तक ही सिमटी रही। राज्य स्तर पर दबंग ओबीसी जातियां अपनी जाति को एकीकृत कर और तमाम अन्य पिछड़ी जातियों के नेताओं का क्लस्टर बनाकर, मुस्लिम समुदाय का वोट खींचकर सत्ता में आती और जाती रहीं। खासकर उत्तर प्रदेश और बिहार का समीकरण तो कुछ ऐसा ही रहा। मंडल आयोग की सिफारिशें लागू होने के करीब 25 साल बाद भी अभी ओबीसी वर्ग नहीं बन सका, जिसका वर्ग हित हो। हालांकि यह वर्ग बनने की प्रक्रिया में है।

अन्य पिछड़े वर्ग की सोच सामंती है और यह तबका कथित उच्च वर्ण से भी ज्यादा दलितों का शोषण करता है, यह चर्चा बापसा तक ही सीमित नहीं है। उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनाव के पहले सोशल मीडिया पर जबरदस्त चर्चा है कि पिछड़ा वर्ग ही दलितों का दुश्मन नंबर वन है।

इतना ही नहीं, बसपा छोड़कर बाहर जाने वाले नेताओं ने यह दावा किया कि बसपा अब दलित-ब्राह्मण-मुस्लिम समीकरण पर चल रही है। उसे न तो बसपा से टिकट मिलने की संभावना है, न सम्मान। सोशल मीडिया पर सक्रिय दलित युवा और लेखक भी यह पूरे जोश के साथ लिखते हैं कि ब्राह्मणवाद का असल वाहक या कहें कि रीढ़ पिछड़ा वर्ग है।
यह अपने आप में भ्रामक और खतरनाक प्रवृत्ति लगती है, जब यह प्रचारित किया जा रहा है कि दलितों के असल शोषक पिछड़े ही हैं।
वहीं दलित वर्ग का एक तबका (कुछ को यह कहने में आपत्ति होती है और वह खुद को बहुजन विचारक कहना पसंद करते हैं, हालांकि उत्तर प्रदेश में बहुजन समाज पार्टी ही अब सर्वजन के नारे के साथ आगे बढ़ रही है) इसे पूरे उत्साह के साथ कह रहा है कि सवर्ण से ज्यादा दलितों का शोषण ओबीसी करता है।
आइए दलित पिछड़े तबके के स्वतंत्रता के बाद की राजनीति को खंगाल लेते हैं। मंडल आयोग लागू होने के बाद ओबीसी में जो भी जातियां शामिल की गई हैं, वे ज्यादातर कांग्रेस के खिलाफ रही हैं। चाहे वह जेपी आंदोलन हो या वीपी आंदोलन या मोदी आंदोलन। जब जब कांग्रेस सत्ता से बाहर हुई है, किसी न किसी बहाने ओबीसी में शामिल जातियां एकत्र हुईं, उसके बाद कांग्रेस परास्त हुई। यह अलग बात है कि ओबीसी तबका कभी यूनिटी नहीं बना पाया और वह वर्ग के रूप में कभी एकत्र नहीं हुआ। ध्यान देने वाली बात यह है कि भाजपा के अस्तित्व में आने के पहले भी ओबीसी जातियां कांग्रेस के खिलाफ रही हैं। वहीं यह खुली सी बात है कि अब तक कांग्रेस ने ब्राह्मणवादी राजनीति की है। स्वतंत्रता के पूर्व तो अंग्रेज मान चुके थे और तमाम इतिहासकारों ने लिखा भी कि कांग्रेस हिंदुओं की पार्टी है और मुस्लिम लीग मुसलमानों की। हां, कांग्रेस के हिंदू कौन लोग थे, यह उनके नेतृत्व करने वाले तबके को देखकर समझा जा सकता है।
डॉ भीमराव आंबेडकर कांग्रेस को पूरी तरह ब्राह्मणवादी और जातिवाद का पोषक मानते थे। जाति व्यवस्था, हिंदुत्व आदि को श्रेष्ठ बताने के चलते उन्होंने तमाम लेखों में मोहनदास करमचंद गांधी की खिंचाई की है।
साथ ही आर्य समाज के पुरोधाओं के साथ आंबेडकर के पत्र व्यवहार भी पठनीय हैं, जो दलितों और पिछड़ों के शोषण को लेकर एक नजरिया पेश करते हैं।
आज की स्थिति पर गौर करें तो अनुसूचित जनजाति भी एक वर्ग के रूप में संगठित नहीं हो पाया है। हालांकि अगर उत्तर प्रदेश व बिहार को छोड़ दें तो राजस्थान, मध्य प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, गुजरात, उत्तराखंड सहित तमाम राज्यों में, जहां कांग्रेस सत्ता पक्ष या विपक्ष में है, वहां अनुसूचित जाति या कहें कि दलित मतदाता कांग्रेस के साथ है। वही कांग्रेस, जिसे आंबेडकर से लेकर बड़े बड़े दलित चिंतकों ने सवर्णो की, ब्राह्मणों की पार्टी करार दिया था।
कांशीराम ने दलित पिछड़ा पसमांदा को एकजुट करने के लिए बुद्ध से शब्द और विचार उधार लिया और "बहुजन" शब्द को स्थापित किया। कांशीराम के बहुजन की बात होती है तो उसमें अलग से बताने की जरूरत नहीं रहती कि किनकी की जा रही है।
कांशीराम ने जेनयू में कहा था, ‘दलित शब्द भिखारी का प्रतीक है, मैंने अपने समाज को जोड़ने के लिए, उसको मांगने वाला से देने वाला बनाने के लिए तो बहुजन शब्द इस्तेमाल किया और आप लोग फिर से दलित पिछड़ा को अलग अलग करने की ब्राह्मणवादी परियोजना का हिस्सा बन गए।’ इस तरह से कांशीराम ने दलित-बहुजन शब्द का इस्तेमाल करने वाले लोगों को कड़ा जवाब दिया था और साफ किया था कि बहुजन की परिभाषा में देश की 85 प्रतिशत आबादी आ जाती है, चाहे वह किसी धर्म से जुड़ा हुआ हो।

वहीं बापसा या अन्य तमाम संगठनों के दलित का कंसेप्ट साफ नहीं है। कम से कम पिछड़ा वर्ग अपने को न तो दलित समझता है और न वह दलित है। और आज की राजनीति की हकीकत यह है कि जब तक कांशीराम वाला बहुजन (मायावती का सर्वजन नहीं) एक साथ नहीं आता है, तब तक वंचित तबके की मजबूती नहीं होने वाली है।

भारतीय जनता पार्टी के सत्ता में आने, उसके प्रति पिछड़े वर्ग का प्रेम सर्वविदित है। हालांकि केंद्र सरकार के ढाई साल के कार्यकाल के दौरान खासकर पिछड़े वर्ग में सरकार के प्रति मोहभंग साफ नजर आ रहा है। किसान और निम्न मध्यम वर्ग पर तगड़ी मार पड़ी है। चाहे रेल भाड़ा बढ़ने का मामला हो, अनाज के न्यूनतम समर्थन मूल्य, गन्ने का उचित एवं लाभकारी मूल्य न बढ़ने का मामला हो, मार इसी तबके पर पड़ रही है। किसानों के खेत में जब प्याज होती है तो वह आज एक रुपये किलो बिक रही है, वहीं उन किसानों को सहारा देने वाले, सिपाही, क्लर्क, फौजी, अर्धसैनिक बल सहित निजी क्षेत्र में कम वेतन पर काम कर शहरों में रह रहे उनके भाई बंधु 15 रुपये किलो प्याज खरीदते हैं। किसानों की खेती करने की लागत बढ़ी है और असंतोष बढ़ा है। ध्यान रहे कि गांवों में अब पिछड़े वर्ग की संख्या ही ज्यादा मिलती है। खेत मजदूर और उच्च सवर्ण कहे जाने वाले ज्यादातर लोग गांवों से निकल चुके हैं। साफ है कि खासकर हिंदी पट्टी में हर हर मोदी का नारा लगाने वाले ग्रामीण तबाह हैं।
लेकिन इस बीच यूपी का चुनाव आते आते दलित और पिछड़े तबके को लड़ाने का मकसद क्या हो सकता है? आखिर यह विमर्श किसने छेड़ दिया है कि दलित वर्ग का सबसे बड़ा दुश्मन ओबीसी है? यह खतरनाक विमर्श है, जिसमें ओबीसी व एससी दोनों ही वर्ग को खासा नुकसान होने जा रहा है।

Friday, August 26, 2016

दलित आंदोलन और मौजूदा आक्रोश



सत्येन्द्र पीएस


गोरक्षा के नाम पर गुजरात के ऊना में दलितों को बंधक बनाए जाने, बांधकर उनकी पिटाई किए जाने की घटना ने पूरी दुनिया में भारत को शर्मसार किया है। गाय की रक्षा के नाम पर मनुष्यों को मार दिए जाने की घटना दुनिया के किसी भी सभ्य समाज के लिए वीभत्स है।
हालांकि भारत में दलितों का उत्पीड़न नया नहीं है। लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सत्ता में प्रभावी होने पर गोरक्षा कुछ ज्यादा ही जोर पकड़ लेता है। इसके पहले जब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी थी, तब भी हरियाणा में कथित गोरक्षकों ने गाय का चमड़ा उतारने ले जा रहे दलितों की हत्या कर दी थी।
अब दोबारा नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में सरकार बनने और आरएसएस के प्रभावी होने के बाद से गोरक्षक सड़कों पर हैं। देश के तमाम इलाकों से गुंडागर्दी, हत्या, मारपीट की खबरें आनी शुरू हो गईं। उत्तर प्रदेश के दिल्ली से सटे नोएडा इलाके में अखलाक को निशाना बनाया गया। मंदिर की माइक से ऐलान हुआ कि अखलाक के फ्रिज में गाय का मांस रखा है। भीड़ जुटी। उसने फैसला कर दिया। अखलाक को पीट पीटकर मार डाला गया।
उसके बाद पंजाब का एक वीडियो वायरल हुआ, जिसमें ट्रक पर गाय लादकर ले जा रहे कुछ सिखों को कुछ लोग बड़ी बेरहमी से लाठी डंडों से पीट रहे थे। इसके अलावा स्थानीय स्तर पर गाय की रक्षा के नाम पर गाय ले जा रहे लोगों के उत्पीड़न की खबरें आती रहती हैं। गुजरात के उना में मरे जानवर का चमड़ा उतारने ले जा रहे दलितों की पिटाई का वीडियो वायरल होने के कुछ दिनों पहले भी राज्य में कुछ दलितों की पिटाई हो चुकी थी, लेकिन जब ऊना मामले ने तूल पकड़ा तब जाकर उस मामले में आरोपियों को गिरफ्तार किया गया।
साफ है कि कानून की धमक कहीं नहीं दिख रही है। कथित गोरक्षक गुंडों को लगता है कि उनकी सरकार बन गई है और वह हर हाल में सुरक्षित हैं। उन्हें किसी को भी मारने पीटने का पूरा अधिकार मिल गया है।
हालांकि इस बीच प्रधानमंत्री ने एक कार्यक्रम के दौरान अजीबोगरीब बयान दिया। उन्होंने कहा, “मुझे गोली मार दो, लेकिन मेरे दलित भाइयों को मत मारो।” आखिर इसका क्या मतलब निकाला जाए? क्या प्रधानमंत्री के हाथ में कोई ताकत नहीं रह गई है? क्या प्रधानमंत्री कहना चाह रहे हैं कि गोरक्षा के नाम पर पिटाई उचित है और कोई दलित चमड़ा उतारता है उसे पीटने के बजाय प्रधानमंत्री को पीटा जाए? क्या प्रधानमंत्री कानून की रक्षा में सक्षम नहीं हैं? क्या प्रधानमंत्री सीधे अपील नहीं कर सकते कि यह अपराध न किया जाए? क्या प्रधानमंत्री को सचमुच नहीं पता है कि यह कौन कर रहा है? ऐसे तमाम सवाल हैं, जो प्रधानमंत्री के बयान के बाद उठते हैं।
भारत में सदियों से जातीय भेदभाव है। एक जाति विशेष के लोग ही मरे हुए जानवरों को निपटाते हैं। किसान या किसी के घर कोई जानवर मरता है तो उस जाति विशेष के लोगों को पशु के मरने के पहले ही सूचना दे दी जाती है। वह पशुओं को सिवान में ले जाते हैं, उनकी खाल उतारते हैं। खाल बेचने से उन्हें कुछ धन मिल जाता है। हां, गरीबी के दौर में मरे हुए जानवरों का मांस भी वह तबका खाता था, लेकिन अब शायद मांस खाने की स्थिति नहीं है। ओम प्रकाश बाल्मीकि और प्रोफेसर तुलसीराम ने अपने प्रसिद्ध उपन्यासों में खाल उतारने और मरे हुए जानवरों का मांस हासिल करने के लिए गिद्धों और दलित महिलाओं के बीच संघर्ष के बारे में बताया है।
यह कितना दुखद है कि जो काम दलित करते आए हैं, और कोई तबका वह काम करने को तैयार नहीं है, उसके लिए भी उन्हें पीटा जाता है। शायद पीटा जाना हिंदुत्व या हिंदू संस्कृति का एक अभिन्न अंग है, जिसके तहत एक दुश्मन खोजना जरूरी होता है, जिससे हिंदुत्व को बचाना होता है।
इस हिंदुत्व की रक्षा के लिए वह काल्पनिक दुश्मन मुस्लिम हो सकता है, इसाई हो सकता है, दलित हो सकता है, या नास्तिक हो सकता है। कोई भी। कभी भी। कुछ भी। एक दुश्मन होना जरूरी है, जिससे जंग छेड़नी है। जंग इसलिए कि हिंदुत्व बच सके। यह पता नहीं कैसा हिंदुत्व है, जो गाय या मरी हुई गाय की खाल में रहता है, जिसे बचाने की कवायद की जाती है।
हिंदुत्व की रक्षा के अजब गजब रूप और अजब गजब दुश्मन रहे हैं। हिंदू देवी देवता हथियारों से लैस हैं। हर देवी देवता के हाथ में असलहे हैं। मुस्लिम नहीं थे, तब यह देवता धर्म की रक्षा के लिए लड़ते थे। आखिर किससे लड़ते थे? उल्लेख तो मिलता है कि वैदिक यज्ञों में गायों की बलि दी जाती थी। इस बलि प्रथा और खून खराबे की वजह से ही जैन और बौद्ध धर्म का उद्भव हुआ था, जो यज्ञों की हिंसा के पूरी तरह खिलाफ थे। आखिर में वे कौन लोग थे, जो वैदिक हिंसा के विरोधी थे और वैदिक यज्ञों को तहस नहस करने के लिए तत्पर रहते थे। इन्ही राक्षसों से यज्ञों की रक्षा के लिए वैदिक देवता हमेशा हथियार लिए फिरते थे।
अब नए दौर में गोरक्षा का प्रभार कुछ संगठनों ने संभाल लिया है। गोरक्षक दल, गोसेवा दल जैसे कितने संगठन आ गए हैं, जो अभी गोआतंकी बने घूम रहे हैं।
अहम बात यह है कि ऊना की घटना का जोरदार विरोध हुआ। गुजरात ही नहीं, महाराष्ट्र में भी तमाम रैलियां निकलीं। संसद में विपक्षी दलों ने इस मसले को उठाया। वहीं गुजरात में अहमदाबाद से ऊना तक की पदयात्रा और उसके बाद ऊना में सभा का आयोजन हुआ। युवा वकील जिग्नेश शाह इस आंदोलन के अगुआ बनकर उभरे। हालांकि पहले वह आम आदमी पार्टी से जुड़े थे, लेकिन विवादों के बाद उन्होने आम आदमी पार्टी से इस्तीफा देने की घोषणा कर दी। उन्होंने कहा कि सिर्फ दलित आंदोलन उनका मकसद है और गुजरात के आंदोलन में आम आदमी पार्टी की कोई भूमिका नहीं रही है।
इस आंदोलन के बाद गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल को पद छोड़ना पड़ा। भले ही सरकार ने तमाम अन्य वजहें गिनाईं, आनंदीबेन की उम्र का हवाला दिया गया। लेकिन माना जा रहा है कि पाटीदार आरक्षण आंदोलन के बाद दलित आंदोलन ने मुख्यमंत्री के इस्तीफे में अहम भूमिका निभाई।
इन आंदोलनों व विरोध प्रदर्शनों का असर जो भी नजर आ रहा हो, लेकिन भारतीय जनता पार्टी का मातृसंगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सेहत पर इससे कोई असर पड़ता नहीं दिख रहा है। आगरा में 21 अगस्त 2016 को आयोजित एक कार्यक्रम में गोरक्षकों पर उठ रहे सवाल को लेकर संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि गोरक्षा का काम कानून के दायरे में चल रहा है, अगर किसी को शंका होती है तो भला बुरा कह सकता है। उन्होंने कहा कि गोरक्षा के काम ही उनके लिए उत्तर है, जो पहले विरोधी थे वह भी गोरक्षा के काम को देखकर समर्थन में आ गए। भागवत ने कहा कि गोरक्षा की गतिविधियां चल रही हैं और आगे भी चलती रहेंगी, गोरक्षक अच्छा काम कर रहे हैं। आशय साफ है। आरएसएस समाज के ध्रुवीकरण के पक्ष में खड़ा है। गोरक्षा की आड़ में वह सियासी रोटियां सेंकने को तैयार है। उत्तर प्रदेश में अगले साल की शुरुआत में चुनाव होने को हैं और गुजरात मामला अभी शांत नहीं हुआ है। वहीं आरएसएस ने उत्तर प्रदेश के आगरा शहर से साफ संकेत दे लिया कि गोरक्षा के नाम पर जो चल रहा है, वह चलते रहना चाहिए।
प्रधानमंत्री के दलित प्रेम से भी यही छलकता हुआ दिख रहा है। उन्हें अखलाक की घटना स्वीकार्य है, दलितों के ऊपर सीधा हमला स्वीकार नहीं है। परोक्ष रूप से वह इस मामले को हिंदू और मुस्लिम ध्रुवीकरण तक ही सीमित रखना चाहते हैं। दलितों व पिछड़ों के बारे में प्रधानमंत्री की सोच का पता उनके 23 अगस्त 2016 के दिल्ली के एनडीएमसी हॉल में सभी 29 राज्यों और 7 केंद्रशासित प्रदेशों से आए पार्टी के नेताओं के सम्मेलन में दिए गए बयान से चलता है। मोदी ने कहा कि राष्ट्रवादी तो हमारे साथ हैं, हमें दलित और पिछड़ों को साथ लाना है। शायद उनका आशय यह था कि अपर कास्ट राष्ट्रवादी होता है और दलित पिछड़े अराष्ट्रवादी, राष्ट्रदोही या कुछ और हैं। वे राष्ट्रवादी नहीं हैं और उन्हें राष्ट्र से शायद कोई प्रेम नहीं है।
कुल मिलाकर सरकार का रोना धोना और दलित उत्पीड़न की घटनाओं का विरोध जताना एक दिखावटी कवायद ज्यादा बन गई है। शायद भाजपा आरएसएस और उनके अनुषंगी संगठनों को यह संदेश साफ जाता है कि उन्हें किसे पीटना है और किसके खिलाफ गुंडागर्दी करनी है। गुजरात में ऐसा हुआ भी। प्रधानमंत्री के लाख रोने गाने के बावजूद जब ऊना में दलित रैली खत्म हो रही थी तो दलितों पर हमले हो गए। दरबार यानी काठी दरबार गुजरात के क्षत्रिय हैं जिनकी सौराष्ट्र में कभी 250 से ज्याीदा रियासतें हुआ करती थीं। इस समुदाय ने ऊना की रैली से लौटते दलितों पर लाठी, तलवार और बंदूक से हमला किया।
गुजरात में दलित चेतना नई बात नहीं है। बड़ौदा के महाराज सयाजी राव गायकवाड़ ने 1882-83 में सभी के लिए अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान कर दिया था और बड़ौदा, नवसारी, पाटन व अमरेली में चार अंत्यएज स्कू ल व हॉस्टाल खुलवाए थे। 1939 में उनकी मृत्यु हुई। उसके बाद 1931 में बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर के अहमदाबाद आगमन के बाद से यहां आंबेडकरवादी विचारधारा का जो काम चालू हुआ, वह अभी जमीनी स्तसर पर चालू है। गुजरात में दलितों के घर में बाबा साहेब की तस्वींरों लगी हुई नजर आती हैं। कांग्रेस का मजदूर महाजन संघ, आर्य समाज, आंबेडकर का बनाया शेड्यूल कास्टी फेडरेशन, कांग्रेस का हरिजन सेवक संघ, बौद्ध महासंघ आदि तमाम संगठनों के मिले जुले काम ने दलितों की चेतना जगाने का काम किया है।
हालांकि गुजरात में बाबाओं का प्रकोप भी कम नहीं है। सौराष्ट्रस में भी काठियावाड़ के जो दलित हैं, उनमें अस्सीा प्रतिशत जैसलमेर के रामदेवरा धाम के भक्तड हैं। रामदेव स्वािमी जाति से क्षत्रिय थे, लेकिन दलितों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। गुजरात में रामदेव स्वा मी के दो मंदिर हैं। जामनगर से भावनगर तक के दलित वहां हर साल मंडप नामक त्योकहार में जाते हैं और अलग अलग जाति के लोगों के साथ मिलकर पूजा अर्चना करते हैं। इनके अलावा सवैयानाथ से लेकर जालाराम तक तमाम संत हुए, जिनकी भक्ति दलित करते हैं। इसमें संत की जाति नहीं देखी जाती। संतों की आराधना के मामले में दलितों के साथ भेदभाव गुजरात में मिट चुका है।
गुजरात के दलितों के बीच सामाजिक सुधार की जो प्रमुख धारा करीब सौ साल से मौजूद रही है, वह आज कहीं कहीं राष्ट्रावादी राजनीति के रूप में नजर आती है। सौराष्ट्र के दलितों के धर्मगुरु शम्भूतनाथ बापू हैं। वे राज्यिसभा में भाजपा सांसद हैं। पाकिस्तालन के सिंध में भी उनके करीब दो लाख अनुयायी रहते हैं। जाति से वे खुद दलित हैं और दलितों की जमकर हिमायत करते हैं, लेकिन अपनी पार्टी लाइन के खिलाफ कभी नहीं जाते। 21 जुलाई 2016 को राज्यलसभा में शम्भू नाथ बापू ने ऊना मामले पर जोरदार भाषण दिया, लेकिन उनका सामाजिक न्याूय बीजेपी की सत्ता की पुष्टि करने में लगा रहा। कुल मिलाकर दलित या शोषण का मसला अपने राजनीतिक स्वार्थ या विचारधारा के खांचे में बंधा हुआ नजर आता है।
इसके पहले भी गुजरात में दलित आंदोलन हुए हैं। 1980 के आसपास आरक्षण विरोधी आंदोलन हुआ था, जिसमें दलितों को निशाना बनाया गया। उस समय भी दलितों पर कहानियां लिखी गईं, उसे प्रचारित प्रसारित किया गया। दलितों ने प्रतिज्ञा की कि वे मरे जानवरों को नहीं उठाएंगे। हालांकि इसका कोई ठोस परिणाम सामने नहीं आया। तीन साल पहले जूनागढ़ में 80,000 दलितों ने एक साथ बौद्ध धर्म में दीक्षा लेकर तूफान खड़ा कर दिया था। इस पर भी कोई खास हलचल नहीं हुई।
फिलहाल इस आंदोलन से भाजपा के विरोधी खासे खुश हैं। खासकर गुजरात को लेकर कांग्रेस उत्साह में है। आम आदमी पार्टी भी इस मामले को भुनाने में लगी है। दलित वहीं के वहीं खड़े हैं। गुजरात में दलित चेतना अन्य राज्यों की तुलना में ज्यादा ही है। इसके बावजूद कांग्रेस व भाजपा दोनों ने ही दलितों को अलग थलग रखा है। माना जाता है कि दलित ज्यादातर कांग्रेस को अपना वोट देते हैं, लेकिन कांग्रेस के लिए भी गुजरात के दलित वोटर से ज्यादा कुछ नहीं हैं। अनुमान के मुताबिक राज्य में महज 6 प्रतिशत दलित हैं। ऐसे में न तो वह लोकतंत्र में वोट की राजनीति के सशक्त प्रहरी बन पा रहे हैं, न ही अपने संवैधानिक हक का इस्तेमाल कर पा रहे हैं। इन 6 प्रतिशत मतों की अन्य किसी वर्ग मसलन पिछड़े या मुस्लिम या किसी अन्य के साथ लाबीयिंग भी नहीं है, जिससे मतदान के वक्त ये सशक्त मतदाता बनकर कुछ कर दिखाने या राजनीतिक बदलाव लाने में सक्षम हों।
ऊना में दलितों पर हुए हमले और उसके असर को देखने के लिए अभी बहुत कुछ देखना बाकी है। अगर गुजरात के अलावा इसे पंजाब, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र के संदर्भ में देखें, जहां दलितों की निर्णायक आबादी है, तो इसके राजनीतिक निहितार्थ और असर देखना अभी बाकी है।