Thursday, April 24, 2008

किस करवट बैठेगी महंगाई, देखता है मूल्य सूचकांक

सत्येन्द्र प्रताप सिंह और कुमार नरोत्तम


मूल्य सूचकांक वस्तुओं और सेवाओं की एक नियत श्रेणी और किसी खास समयांतराल में औसत मूल्य गतिशीलता का मापक या संकेतक होता है।
इस खास श्रेणी में आनेवाली उपभोक्ता, थोक या उत्पादक मूल्य आदि में हो रहे परिवर्तन के आधार पर इनके मूल्य सूचकांक का निर्धारण किया जाता है। मूल्य सूचकांक में आर्थिक, क्षेत्रीय या क्षेत्र विशिष्ट गतिविधियों के कारण परिवर्तन होता है।
आज भारत में उपभोक्ता और थोक स्तरों पर मूल्यों की गतिशीलता मापने के लिए अलग-अलग सूचकांक है। राष्ट्रीय स्तर पर मूल्य सूचकांकों की मुख्यत: चार श्रेणियां मौजूद है। ये हैं- औद्योगिक कर्मियों के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई-आईडब्ल्यू), कृषि या ग्रामीण मजदूरों के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई-एएल या आरएल), शहरी अकुशल कर्मियों के लिए उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई- यूएनएमई)। ये सारे उपभोक्ता मूल्य सूचकांक हैं।
इसके अतिरिक्त जो चौथा मुख्य मूल्य सूचकांक है, वह है- थोक मूल्य सूचकांक।मूल्य सूचकांक द्वारा मुद्रास्फीति या महंगाई दर के आकलन का सीधा असर सरकार की नीतियों पर पड़ता है। उदाहरण के लिए अगर महंगाई दर बढ़ती है तो सरकार नियंत्रित जिंसों को- जैसे गेहूं, चावल आदि बाजार में उतार देती है, जिससे मांग और आपूर्ति संतुलित हो सके।
इसके अलावा भारतीय रिजर्व बैंक महंगाई बढ़ने पर ब्याज दरें बढ़ाता है, नकद आरक्षित अनुपात (सीआरआर) में बढ़ोतरी करता है, जिससे बाजार में धन के प्रवाह को कम किया जा सके। कुल मिलाकर परिस्थितियों के मुताबिक मांग और आपूर्ति के संतुलन को बरकरार रखने के लिए कदम उठाए जाते हैं।
थोक मूल्य सूचकांक
थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) संख्या अर्थव्यवस्था में थोक मूल्यों की गतिविधियों का मापक है। कुछ ऐसे भी राज्य हैं जिनके उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) और थोक मूल्य सूचकांक (डब्ल्यूपीआई) अलग-अलग होते हैं।
राज्यों के द्वारा जब थोक मूल्य सूचकांक का निर्धारण किया जाता है तो उसमें राज्य स्तर पर हो रहे लेनदेन को शामिल किया जाता है। वर्तमान में जो डब्ल्यूपीआई हैं, वे हैं-असम (आधार वर्ष 1993-94), बिहार (1991-92), हरियाणा (1980-81), कर्नाटक (1981-82), पंजाब (1979-82), उत्तरप्रदेश (1970-71) और पश्चिम बंगाल (1980-81)।
इसमें ज्यादातर राज्यों के सूचकांकों में कृषि जिंस लेनदेन और हस्तांतरण को ही शामिल किया जाता है, जिनका कारोबार स्थानीय स्तर पर होता है।
थोक मूल्य सूचकांक की गणना का परिचय
एक बार अगर थोक मूल्य की संकल्पना को परिभाषित कर दिया जाए और आधार वर्ष का निर्धारण हो जाए तो उसके बाद सामग्रियों का निर्धारण, सामग्रियों के भार का आवंटन, श्रेणी या उप-श्रेणी स्तर आदि के जरिए इसे पूरा किया जाता है। इसके साथ ही आधार मूल्य एकत्र करना, वर्तमान मूल्य, सामग्री की विशिष्टता का निर्धारण, मूल्य आंकडा स्रोत और आंकडा संग्रह की प्रक्रिया का निष्पादन किया जाता है। इन चरणों के बारे में हम निम्नलिखित तरीके से विस्तार से चर्चा करेंगे-
थोक मूल्य सूचकांक की संकल्पना
थोक मूल्य सूचकांक को हर विभाग अलग-अलग तरीके से इस्तेमाल करता है। कृषि और गैर-कृषि जिंस कारोबार के लिए कोई एक तरह की परिभाषा नही है और इसलिए जमे हुए बाजार से भी हम इसके आंकड़े लेकर पूरी तरह से आश्वस्त नहीं हो सकते हैं।
कृषि जिंस
व्यावहारिक तौर पर देखें तो मुख्य तौर पर तीन तरह के थोक बाजार होते हैं- प्राथमिक, द्वितीयक और कृ षि क्षेत्रों में प्रयुक्त होने वाले टर्मिनल। इन सारे थोक बाजारों में मूल्य की गतिशीलता और मूल्य के स्तरों में परिवर्तनीयता होती है। टर्मिनल बाजार में मूल्य की गतिशीलता से ही खुदरा दामों का निर्धारण किया जाता है। इन सारे विकल्पों में कृषि जिंसों के थोक लेनदेन के आधार पर ही थोक मूल्य का निर्धारण किया जाता है लेकिन प्राथमिक बाजार को आधार बनाया जाता है।
कृषि मंत्रालय थोक मूल्य को इस तरह परिभाषित करता है- थोक मूल्य वह दर है जिसमें खरीदारी के लेनदेन, जिसका इस्तेमाल आगे की खरीद के लिए किया जाता है, प्रभावित हो । बहुत सारी थोक मूल्य सूचकांक संग्रह करने वाली एजेंसियां कृषि मंत्रालय की इस परिभाषा को आधार मानती है।
वैसे आकस्मिक दरों, करों और शुल्कों के संदर्भ में ये मानदंड बदलते रहते हैं। आंध्रप्रदेश में भारीय शुल्क, बैग की कीमत और बिक्री कर के आधार पर आकस्मिक शुल्क तय किए जाते हैं। गुजरात में थोक मूल्य के अंतर्गत ही पैकिंग शुल्क और करों को शामिल कर लिया जाता है। पंजाब और तमिलनाडु में आकस्मिक लागतों को थोक मूल्य सूचकांक के तौर पर शामिल किया जाता है। हरियाणा में कृषि जिंस कारोबार के अंतर्गत आढ़त, भार और लॉरी चार्ज आदि को सम्मिलित किया जाता है।
गैर-कृषि जिंस
गैर-कृषि जिंस के तहत निर्माण वस्तुएं आती हैं लेकिन इसके साथ एक दिक्कत यह है कि गैर-कृषि जिंस का कोई स्थापित स्रोत बाजार में उपलब्ध नही होता है। ऐसा भी देखा जाता है कि कभी-कभी थोक विक्रेता को इन गैर कृ षि जिंसों के बीच मार्जिन के लिए काफी अरसे तक इंतजार करना पड़ता है।

साभारः बिज़नेस स्टैंडर्ड

Wednesday, April 23, 2008

छोटा कितना दर्जा, बड़ा कितना दुख


मधुकर उपाध्याय

...औरतों के खिलाफ जुल्म का मसला कितना बड़ा है, मैं यह महसूस करके भौचक्की रह जाती हूं। हर उस औरत के मुकाबले, जो जुल्म के खिलाफ लड़ती है और बच निकलती है, कितनी औरतें रेत में दफन हो जाती हैं, बिना किसी कद्र और कीमत के, यहां तक कि कब्र के बिना भी। तकलीफ की इस दुनिया में मेरा दुख कितना छोटा है।...

पाकिस्तान की मुख्तारन माई का ये दुख दरअसल उतना छोटा नहीं है। बहुत बड़ा है। इसकी कई मिसालें इस्लामी देशों में फैली हुई मिलती हैं। एशिया से अफ्रीका तक। ऐसा शायद पहली बार हुआ है, जब इस्लामी देशों की औरतों की बात किताबों की शक्ल में लिख कर कही गई है। इनमें से कई किताबें औरतों की लिखी हुई हैं।
मुख्तारन माई की किताब ...इन द नेम ऑफ ऑनर... तकरीबन दो साल पहले आई थी। उसी के साथ सोमालिया की एक लड़की अयान हिरसी अली की किताब आई ...इनफिडेल... और उसके बाद खालिद हुसैनी की किताब ... थाउजेन्ड स्प्लैंडिड सन्स...। इस बीच दो किताबें और आईं। जॉर्डन की एक महिला नोरमा खोरी ने ...फोरबिडन लव... और इरान की अज़र नफ़ीसी ने ...रीडिंग लोलिता इन तेहरान... लिखी। एक और किताब नार्वे की आस्ने सेयरेस्ताद की थी, ...द बुकसेलर ऑफ काबुल...।
इन किताबों को एक धागा जोड़ता है- इस्लामी देशों में औरतों की स्थिति। इस पर पहले भी काफी कुछ लिखा गया है, लेकिन इन किताबों को एक साथ पढ़ना तस्वीर को बेहतर ढंग से सामने रखता है। शायद इसलिए भी कि इन्हें महिलाओं की स्थिति बयान करने के

मूल इरादे से नहीं लिखा गया। उनके सामने देश, समाज और दुनिया के समीकरण थे, जिसे उन लेखकों ने अपने ढंग से सामने रखा। महिलाएं पात्रों की तरह आईं और अंत तक आते-आते उनकी भूमिका महत्वपूर्ण हो गई। यह भी कम आश्चर्यजनक नहीं है कि इनमें से खालिद हुसैनी को छोड़कर बाकी सब लेखिकाएं हैं। महिलाओं की जटिल दुनिया तक उनकी पहुंच संभवतः इसीलिए आसान रही होगी।
अयान हिरसी अली का उपन्यास ... इनफिडेल... आत्मकथात्मक है। सोमालिया में उसके जन्म से लेकर अमेरिका जाने तक। किताब कई जगह इतनी तीखी है कि पढ़ते हुए झुंझलाहट होती है, गुस्सा आता है और सवाल उठता है कि जो जैसा है, वैसा क्यों है?

अयान का बचपन, जाहिर है, सोमालिया में गुजरा। पिता बहुत संपन्न नहीं थे लेकिन हालात बहुत खराब भी नहीं थी। इतना जरूर था कि अयान को इस्लामी जीवन जीने की तालीम मिली थी। सिर पर दुपट्टा, बदन पूरा ढ़का हुआ और सवाल करने पर एक अघोषित पाबंदी। अब्बा ने कनाडा के एक लड़के के साथ उसका निकाह तय कर दिया पर अयान को पूरी ज़िंदगी की गुलामी पसंद नहीं थी। किसी तरह वह सोमालिया से निकलकर हालैंड पहुंच गई। जान पर खतरा होने की गलतबयानी करके उसने शरणार्थी का दर्जा हासिल किया और उसके बाद उसने जिंदगी के नए अर्थ ढूंढ़े। सोमालिया की दूसरी महिलाओं की मदद के लिए डच भाषा सीखी और हॉलैंड की नागरिकता हासिल की। दुभाषिये की तरह सरकारी नौकरी की। एक राजनीतिक दल के नेता की शोध सचिव बनी। चुनाव लड़ी और संसद सदस्य बन गई। महिलाओं की स्थिति पर हिरसी के बयानों ने उसके इतने दुश्मन बना दिए कि उसे कड़ी सुरक्षा में रहने के अलावा कई बार दूसरे देशों में शरण लेनी पड़ी। अंततः शरणार्थी का दर्जा हासिल करने के समय बोला गया झूठ सामने आया और हिरसी की नागरिकता छीन ली गई। संसद सदस्यता भी चली गई, लेकिन तब तक उसे अमेरिका में काम मिल गया था। अयान के लिए सांसद बनने से ज्यादा महत्वपूर्ण इस्लाम में महिलाओं के अधिकार और उनकी स्थिति का मुद्दा था और नए काम में उसे यही करने का मौका मिल रहा था। ...इनफिडेल... में हिरसी अली ने अपनी बात बहुत बेबाकी औऱ ईमानदारी से रखी है। नतीजतन वह विवादों के घेरे में आ गई। कठिन स्थितियों, विपन्नता और रूढ़ मानसिकता से जूझने और कामयाब होने की इस अद्भुत आत्मकथा के कई हिस्से निश्चित रूप से विवादास्पद हैं, लेकिन शायद साफगोई की अपेक्षा करने वालों को वे उस तरह नहीं अखरेंगे।

आस्ने सेयरेस्ताद की ...द बुकसेलर ऑफ काबुल... भी आत्मकथात्मक है। पत्रकार की तरह काम करने वाली आस्ने रिपोर्टिंग के लिए काबुल पहुंची तो एक दुकान देखकर हैरान रह गईं। रूसी, तालिबानी, मुजाहिदीन और अमेरिकी हमलों से तबाह अफगानिस्तान की राजधानी में किताब की एक बड़ी दुकान। आस्ने को समझ में नहीं आया कि ऐसी ध्वस्त अर्थव्यवस्था, तनाव और लगातार बम धमाकों के बीच आखिर कौन किताब खरीदता और पढ़ता होगा।

उसने यह सवाल दुकान के मालिक मोहम्मद शाह रईस से पूछा। जवाब संतोषजनक नहीं लगा। फिर उसने रईस के सामने एक प्रस्ताव रखा कि वह चार महीने उसके परिवार के साथ रहना चाहती है। उसके घर में। रईस राजी हो गया। नॉर्वे लौटकर उसने अपनी किताब पूरी की। किताब में रईस का नाम बदलकर सुल्तान खान कर दिया लेकिन घटनाक्रम नहीं बदला।
पूरी किताब में सुल्तान खान एक पढ़े-लिखे अंग्रेजी बोलने वाले संपन्न अफगानी की तरह आता है, लेकिन घर की चहारदीवारी के भीतर उसका रूप बदला हुआ होता है। अपने परिवार, पत्नी और बेटियों के साथ वह अक्सर क्रूर होता है और कई बार आक्रामक भी। बहन घर में गुलाम की तरह रहती है। औरतों को टूटे फर्नीचर की तरह इधर-उधर फेंक दिया जाता है। किसी संमृद्ध अफगानी के घर के अंदर का ऐसा विवरण इससे पहले उपलब्ध नहीं था।

मैं काबुल के इंटरकांटिनेंटल होटल में रईस से मिला। उनकी एक दुकान होटल में भी है। जिक्र ...द बुकसेलर ऑफ काबुल... का आया तो रईस बिफर पड़े। कहा, ... आस्ने ने बहुत नाइंसाफी की है। सुल्तान खान मैं ही हूं। आस्ने की वजह से मैं पूरी दुनिया में बदनाम हो गया। उसने न सिर्फ मुझे, बल्कि मेरे मुल्क को भी बदनाम किया है। मैं उस पर मुकदमा करूंगा।... रईस से काफी देर बातचीत होती रही। उसी दौरान पता चला कि उन्होंने एक बार खुद किताब लिखकर उस किताब का जवाब देने के बारे में सोचा था। नॉर्वे के कई नाकामयाब चक्कर लगाने के बाद अब शायद उन्होंने अपनी किताब पूरी कर ली है।
अपने पहले उपन्यास ...काइट रनर... से चर्चा में आए खालिद हुसैनी की नई किताब ...थाउजेंड स्प्लेंडिड संस... की पृष्ठभूमि भी अफगानिस्तान ही है। पूरा बचपन काबुल और हेरात के आसपास बिताने वाले खालिद इस समय अमेरिका में रहते हैं। उनकी किताब एक तरह से अफगानिस्तान की पिछले तीस साल की कहानी है। सोवियत आक्रमण से लेकर तालिबान और उसके बाद तक। दो पीढ़ियों की यह कहानी लगभग जादुई सम्मोहन के साथ पाठक को बांधे रखती है, जिसमें तबाही, बर्बादी और दुखद घटनाक्रमों के बीच ज़िंदगी और खुशियां तलाश करते चरित्र हैं। यानी कि तकरीबन हर पन्ने पर इतिहास और ज़िंदगी साथ-साथ चलते हैं। किताब चार हिस्सों में बंटी हुई है। पहला हिस्सा एक महिला चरित्र मरियम, दूसरा और चौथा हिस्सा एक अन्य महिला चरित्र लैला पर है और तीसरा मरियम और लैला की साझा कहानी है।
पश्चिमी अफगानिस्तान में हेरात के एक गांव में मरियम अपनी मां के साथ रहती है। पिता ने दूसरी शादी कर ली है। अमीर है और हेरात में रहता है। वह मरियम से मिलने तक से इनकार कर देता है। बाद में मरियम की शादी काबुल के एक मोची रशीद से होती है। मरियम शादी करके काबुल आती है। उसी के घर की गली में लैला रहती है, एक ताजिक लड़की। उसका एक दोस्त है तारिक। उसके संबंध बहुत करीबी हैं, शारीरिक तक। कुछ दिन के बाद तारिक का परिवार काबुल से चला जाता है। लैला के मां-बाप काबुल छोड़ने को होते हैं कि एक बम धमाके में मारे जाते हैं। घायल लैला को रशीद बचाता है। अपने घर में रखता है और बाद में उससे शादी कर लेता है। इसलिए कि मरियम उसके बच्चे की मां नहीं बन सकती। मरियम के साथ उसका व्यवहार दिन-ब-दिन खराब और क्रूर होता जाता है। लैला मां बनती है, लेकिन वह जानती है कि पिता रशीद नहीं, तारिक है। एक दिन तारिक अचानक लौट आता है। बाद में रशीद को सच्चाई पता चलती है और वह लैला के साथ भी उसी तरह क्रूर हो जाता है। एक रोज जब वह लैला को जान से मारने पर आमादा होता है, मरियम बेलचे से रशीद की हत्या कर देती है। बाद में वह खुद को तालिबान को सौंप देती है और उसे फांसी हो जाती है। तारिक लैला को लेकर हेरात जाता है, जहां मरियम को दफनाया गया था। दोनों वहीं अपनी बेटी का नामकरण करते हैं- मरियम।
वह चाहे लैला और तारिक हों या सुल्तान खान की अनाम बीवी और बहन, या फिर अयान हिरसी अली- उनका दुख और समाज में उनका दर्जा नहीं बदलता। भौगोलिक परिवर्तनों से उसमें कोई फर्क नहीं आता। सोमालिया के रेगिस्तान से लेकर अफगान पहाड़ियों तक।

क्या समाज में वाकई नई सोच की जगह नहीं बची है? या फिर यथास्थितिवादी और कठमुल्ला इस कदर हावी हैं कि नई रोशनी वहां तक पहुंच नहीं पा रही।

Tuesday, April 22, 2008

क्रेजी क्रिकेट

क्रेजी क्रिकेट। जी हां। हर तरफ पागलपन का माहौल। मैदान पर। टीवी पर और गली-मुहल्लों में। आईपीएल का रोमांच सबके सर चढ़कर बोल रहा है। दनादन छक्के। झटपट गिरते विकेट। और हर रोमांचक लम्हों पर देशी गानों पर थिरकती विदेशी बालाएं। मौजा ही मौजा करती हुईं। लगता है हर तरफ मौज ही मौज है। उपर से क्रिकेट में बालीवुड का तड़का। और क्या चाहिए। क्रेजी होने के लिए। सभी कुछ तो मौजूद है यहां। लेकिन सब कुछ होने के बावजूद लगता है लगता कुछ नहीं है। वो है देशभक्ति का अहसास। अंतरराष्ट्रीय मैच के दौरान जब भारतीय धुरंधर दूसरे देश के बालरों की बखिया उधेड़ते हैं, तो वो अहसास ही कुछ अलग होता है। या जब ईंशात शर्मा जैसे बालर पोंटिग की गिल्लियां बिखेरते हैं, जो मन बाग-बाग हो उठता है। मन करता है इन फिरंगियों को मजा चखा दें। लेकिन आईपीएल में न जाने क्यों फर्क ही नहीं पड़ता। कोई भी जीते। कोई भी हारे। हमें क्या। हमें मजा चाहिए और वो हमें मिल रहा है। आईपीएल के मैच के दौरान कई बार ऐसे मौके आए, जब लगा कि शायद यह जज्बा लोगों से गायब हो गया है। मंगलवार को डेक्कन चार्जर्स के खिलाफ जब वीरू ने अर्धशतक ठोका। तो हैदराबाद के मैदान में मौजूद दर्शकों ने उनका अभिवादन नहीं किया। इस पर वीरू ने हाथ उठाकर कहा क्या हुआ दोस्तों मैं तुम्हारा वीरू। लेकिन मैदान में सन्नाटा छाया रहा। इसी वीरू ने जब दक्षिण अफ्रीका के खिलाफ ३१९ रन की पारी खेली थी। तो देश क्या विदेश में भी भारतीय झूम उठे थे। और मैदान पर मौजूद दर्शकों की तो बात ही छोड़ दीजिए। सब के सब क्रेजी हुए पड़े थे। ऐसे में क्या यह मान लिया जाए कि आईपीएल हमारे क्रेजी दर्शकों में दीवार खड़ी कर रहा है। लोग देश को छोड़, प्रांतीय टीमों से जुड़ गए हैं। आईपीएल की टीमों के एडवरटिजमेंट से तो यही जाहिर होता है। जैसे एक डेंटिस्ट के यहां एक मरीज अपने दांत दिखाने आता है। इसी दौरान डाक्टर मरीज से पूछता है कि आप कौन सी टीम को सपोर्ट करते हैं। इस पर मरीज कहता है दिल्ली डेयरडेविल्स। डाक्टर नर्स की ओर देखता है। और कहता है इनके एक दांत नहीं। पांच दांत उखाड़ दो। इस पर मरीज घबरा जाता है, और डाक्टर रेपिस्ट जैसी हंसी के साथ कहता है। मैं मुंबई इंडियन। क्या पता कुछ दिनों बाद इस तरह की घटनाएं मैदान पर दिखाई दें। लोग अपनी टीम को लेकर इतने संवेदनशील हो उठे कि अपनी टीम के खिलाफ एक शब्द न सुन सकें। क्या पता डेक्कन चार्जर्स के प्रशंसक और नाइट राइडर्स के फैंस के बीच झगड़ा हो जाए और बात खून-खराबे तक पहुंच जाए। जैसा आमतौर पर पश्चिमी देशों में फुटबाल मैच के दौरान दिखाई देता है। मैनचेस्टर युनाइटेड के प्रशंसक या तो आर्सनल के फैंस को पीट देते हैं। या फिर आर्सनल के मैनचेस्टर युनाइटेड को।
मैं तो विदेश नहीं गया हूं, लेकिन मेरा दोस्त इंग्लैंड गया था। वहां जब वो कैब में बैठकर लिवरपूल जा रहा था। तो रास्ते में उसने कैब ड्राइवर से पूछा आप कौन सी टीम को सपोर्ट करते हैं। इस पर कैब ड्राइवर ने कहा लिवरपूल। इसके बाद ड्राइवर ने पूछा आप। मेरा दोस्त बोला। मैनचेस्टर युनाइटेड। इस पर कैब ड्राइवर पीछे मुड़ा और कहा सो यू आर माई राइवल। अगर तुमने अब कोई भी हरकत की तो मैं तुम्हारा वो हश्र करूंगा कि तुम जिंदगी भर याद रखोगे। इसके बाद मेरा दोस्त चुपचाप बैठ गया और कुछ नहीं बोला। क्या पता कुछ दिनों बाद यहां के लोगों में भी प्रांतीय टीमों के लेकर इसी तरह की दीवार खड़ी हो जाए। है भगवान पहले से जाति-धर्म की इतनी दीवारें हैं। अब और नहीं। दर्शकों के बीच अगर यह दीवार खड़ी हो गई तो क्या पता सचिन तेंदुलकर के छक्के पर मुंबई वाला ही ताली बजाए और दिल्ली वाला खामोश बैठा रहे। या मुंबई वाले के ज्यादा उछलने पर उसे दूसरे टीम के समर्थक पीट भी दें। अगर ऐसा हुआ तो वो दिन शायद इस खेल और उसकी आत्मा के लिए सबसे शर्मनाक दिन होगा।


भूपेंद्र सिंह