सत्येन्द्र पीएस
गोरक्षा के नाम पर गुजरात के ऊना में दलितों को बंधक बनाए जाने, बांधकर उनकी पिटाई किए जाने की घटना ने पूरी दुनिया में भारत को शर्मसार किया है। गाय की रक्षा के नाम पर मनुष्यों को मार दिए जाने की घटना दुनिया के किसी भी सभ्य समाज के लिए वीभत्स है।
हालांकि भारत में दलितों का उत्पीड़न नया नहीं है। लेकिन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सत्ता में प्रभावी होने पर गोरक्षा कुछ ज्यादा ही जोर पकड़ लेता है। इसके पहले जब केंद्र में अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार बनी थी, तब भी हरियाणा में कथित गोरक्षकों ने गाय का चमड़ा उतारने ले जा रहे दलितों की हत्या कर दी थी।
अब दोबारा नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में सरकार बनने और आरएसएस के प्रभावी होने के बाद से गोरक्षक सड़कों पर हैं। देश के तमाम इलाकों से गुंडागर्दी, हत्या, मारपीट की खबरें आनी शुरू हो गईं। उत्तर प्रदेश के दिल्ली से सटे नोएडा इलाके में अखलाक को निशाना बनाया गया। मंदिर की माइक से ऐलान हुआ कि अखलाक के फ्रिज में गाय का मांस रखा है। भीड़ जुटी। उसने फैसला कर दिया। अखलाक को पीट पीटकर मार डाला गया।
उसके बाद पंजाब का एक वीडियो वायरल हुआ, जिसमें ट्रक पर गाय लादकर ले जा रहे कुछ सिखों को कुछ लोग बड़ी बेरहमी से लाठी डंडों से पीट रहे थे। इसके अलावा स्थानीय स्तर पर गाय की रक्षा के नाम पर गाय ले जा रहे लोगों के उत्पीड़न की खबरें आती रहती हैं। गुजरात के उना में मरे जानवर का चमड़ा उतारने ले जा रहे दलितों की पिटाई का वीडियो वायरल होने के कुछ दिनों पहले भी राज्य में कुछ दलितों की पिटाई हो चुकी थी, लेकिन जब ऊना मामले ने तूल पकड़ा तब जाकर उस मामले में आरोपियों को गिरफ्तार किया गया।
साफ है कि कानून की धमक कहीं नहीं दिख रही है। कथित गोरक्षक गुंडों को लगता है कि उनकी सरकार बन गई है और वह हर हाल में सुरक्षित हैं। उन्हें किसी को भी मारने पीटने का पूरा अधिकार मिल गया है।
हालांकि इस बीच प्रधानमंत्री ने एक कार्यक्रम के दौरान अजीबोगरीब बयान दिया। उन्होंने कहा, “मुझे गोली मार दो, लेकिन मेरे दलित भाइयों को मत मारो।” आखिर इसका क्या मतलब निकाला जाए? क्या प्रधानमंत्री के हाथ में कोई ताकत नहीं रह गई है? क्या प्रधानमंत्री कहना चाह रहे हैं कि गोरक्षा के नाम पर पिटाई उचित है और कोई दलित चमड़ा उतारता है उसे पीटने के बजाय प्रधानमंत्री को पीटा जाए? क्या प्रधानमंत्री कानून की रक्षा में सक्षम नहीं हैं? क्या प्रधानमंत्री सीधे अपील नहीं कर सकते कि यह अपराध न किया जाए? क्या प्रधानमंत्री को सचमुच नहीं पता है कि यह कौन कर रहा है? ऐसे तमाम सवाल हैं, जो प्रधानमंत्री के बयान के बाद उठते हैं।
भारत में सदियों से जातीय भेदभाव है। एक जाति विशेष के लोग ही मरे हुए जानवरों को निपटाते हैं। किसान या किसी के घर कोई जानवर मरता है तो उस जाति विशेष के लोगों को पशु के मरने के पहले ही सूचना दे दी जाती है। वह पशुओं को सिवान में ले जाते हैं, उनकी खाल उतारते हैं। खाल बेचने से उन्हें कुछ धन मिल जाता है। हां, गरीबी के दौर में मरे हुए जानवरों का मांस भी वह तबका खाता था, लेकिन अब शायद मांस खाने की स्थिति नहीं है। ओम प्रकाश बाल्मीकि और प्रोफेसर तुलसीराम ने अपने प्रसिद्ध उपन्यासों में खाल उतारने और मरे हुए जानवरों का मांस हासिल करने के लिए गिद्धों और दलित महिलाओं के बीच संघर्ष के बारे में बताया है।
यह कितना दुखद है कि जो काम दलित करते आए हैं, और कोई तबका वह काम करने को तैयार नहीं है, उसके लिए भी उन्हें पीटा जाता है। शायद पीटा जाना हिंदुत्व या हिंदू संस्कृति का एक अभिन्न अंग है, जिसके तहत एक दुश्मन खोजना जरूरी होता है, जिससे हिंदुत्व को बचाना होता है।
इस हिंदुत्व की रक्षा के लिए वह काल्पनिक दुश्मन मुस्लिम हो सकता है, इसाई हो सकता है, दलित हो सकता है, या नास्तिक हो सकता है। कोई भी। कभी भी। कुछ भी। एक दुश्मन होना जरूरी है, जिससे जंग छेड़नी है। जंग इसलिए कि हिंदुत्व बच सके। यह पता नहीं कैसा हिंदुत्व है, जो गाय या मरी हुई गाय की खाल में रहता है, जिसे बचाने की कवायद की जाती है।
हिंदुत्व की रक्षा के अजब गजब रूप और अजब गजब दुश्मन रहे हैं। हिंदू देवी देवता हथियारों से लैस हैं। हर देवी देवता के हाथ में असलहे हैं। मुस्लिम नहीं थे, तब यह देवता धर्म की रक्षा के लिए लड़ते थे। आखिर किससे लड़ते थे? उल्लेख तो मिलता है कि वैदिक यज्ञों में गायों की बलि दी जाती थी। इस बलि प्रथा और खून खराबे की वजह से ही जैन और बौद्ध धर्म का उद्भव हुआ था, जो यज्ञों की हिंसा के पूरी तरह खिलाफ थे। आखिर में वे कौन लोग थे, जो वैदिक हिंसा के विरोधी थे और वैदिक यज्ञों को तहस नहस करने के लिए तत्पर रहते थे। इन्ही राक्षसों से यज्ञों की रक्षा के लिए वैदिक देवता हमेशा हथियार लिए फिरते थे।
अब नए दौर में गोरक्षा का प्रभार कुछ संगठनों ने संभाल लिया है। गोरक्षक दल, गोसेवा दल जैसे कितने संगठन आ गए हैं, जो अभी गोआतंकी बने घूम रहे हैं।
अहम बात यह है कि ऊना की घटना का जोरदार विरोध हुआ। गुजरात ही नहीं, महाराष्ट्र में भी तमाम रैलियां निकलीं। संसद में विपक्षी दलों ने इस मसले को उठाया। वहीं गुजरात में अहमदाबाद से ऊना तक की पदयात्रा और उसके बाद ऊना में सभा का आयोजन हुआ। युवा वकील जिग्नेश शाह इस आंदोलन के अगुआ बनकर उभरे। हालांकि पहले वह आम आदमी पार्टी से जुड़े थे, लेकिन विवादों के बाद उन्होने आम आदमी पार्टी से इस्तीफा देने की घोषणा कर दी। उन्होंने कहा कि सिर्फ दलित आंदोलन उनका मकसद है और गुजरात के आंदोलन में आम आदमी पार्टी की कोई भूमिका नहीं रही है।
इस आंदोलन के बाद गुजरात की मुख्यमंत्री आनंदीबेन पटेल को पद छोड़ना पड़ा। भले ही सरकार ने तमाम अन्य वजहें गिनाईं, आनंदीबेन की उम्र का हवाला दिया गया। लेकिन माना जा रहा है कि पाटीदार आरक्षण आंदोलन के बाद दलित आंदोलन ने मुख्यमंत्री के इस्तीफे में अहम भूमिका निभाई।
इन आंदोलनों व विरोध प्रदर्शनों का असर जो भी नजर आ रहा हो, लेकिन भारतीय जनता पार्टी का मातृसंगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सेहत पर इससे कोई असर पड़ता नहीं दिख रहा है। आगरा में 21 अगस्त 2016 को आयोजित एक कार्यक्रम में गोरक्षकों पर उठ रहे सवाल को लेकर संघ प्रमुख मोहन भागवत ने कहा कि गोरक्षा का काम कानून के दायरे में चल रहा है, अगर किसी को शंका होती है तो भला बुरा कह सकता है। उन्होंने कहा कि गोरक्षा के काम ही उनके लिए उत्तर है, जो पहले विरोधी थे वह भी गोरक्षा के काम को देखकर समर्थन में आ गए। भागवत ने कहा कि गोरक्षा की गतिविधियां चल रही हैं और आगे भी चलती रहेंगी, गोरक्षक अच्छा काम कर रहे हैं। आशय साफ है। आरएसएस समाज के ध्रुवीकरण के पक्ष में खड़ा है। गोरक्षा की आड़ में वह सियासी रोटियां सेंकने को तैयार है। उत्तर प्रदेश में अगले साल की शुरुआत में चुनाव होने को हैं और गुजरात मामला अभी शांत नहीं हुआ है। वहीं आरएसएस ने उत्तर प्रदेश के आगरा शहर से साफ संकेत दे लिया कि गोरक्षा के नाम पर जो चल रहा है, वह चलते रहना चाहिए।
प्रधानमंत्री के दलित प्रेम से भी यही छलकता हुआ दिख रहा है। उन्हें अखलाक की घटना स्वीकार्य है, दलितों के ऊपर सीधा हमला स्वीकार नहीं है। परोक्ष रूप से वह इस मामले को हिंदू और मुस्लिम ध्रुवीकरण तक ही सीमित रखना चाहते हैं। दलितों व पिछड़ों के बारे में प्रधानमंत्री की सोच का पता उनके 23 अगस्त 2016 के दिल्ली के एनडीएमसी हॉल में सभी 29 राज्यों और 7 केंद्रशासित प्रदेशों से आए पार्टी के नेताओं के सम्मेलन में दिए गए बयान से चलता है। मोदी ने कहा कि राष्ट्रवादी तो हमारे साथ हैं, हमें दलित और पिछड़ों को साथ लाना है। शायद उनका आशय यह था कि अपर कास्ट राष्ट्रवादी होता है और दलित पिछड़े अराष्ट्रवादी, राष्ट्रदोही या कुछ और हैं। वे राष्ट्रवादी नहीं हैं और उन्हें राष्ट्र से शायद कोई प्रेम नहीं है।
कुल मिलाकर सरकार का रोना धोना और दलित उत्पीड़न की घटनाओं का विरोध जताना एक दिखावटी कवायद ज्यादा बन गई है। शायद भाजपा आरएसएस और उनके अनुषंगी संगठनों को यह संदेश साफ जाता है कि उन्हें किसे पीटना है और किसके खिलाफ गुंडागर्दी करनी है। गुजरात में ऐसा हुआ भी। प्रधानमंत्री के लाख रोने गाने के बावजूद जब ऊना में दलित रैली खत्म हो रही थी तो दलितों पर हमले हो गए। दरबार यानी काठी दरबार गुजरात के क्षत्रिय हैं जिनकी सौराष्ट्र में कभी 250 से ज्याीदा रियासतें हुआ करती थीं। इस समुदाय ने ऊना की रैली से लौटते दलितों पर लाठी, तलवार और बंदूक से हमला किया।
गुजरात में दलित चेतना नई बात नहीं है। बड़ौदा के महाराज सयाजी राव गायकवाड़ ने 1882-83 में सभी के लिए अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान कर दिया था और बड़ौदा, नवसारी, पाटन व अमरेली में चार अंत्यएज स्कू ल व हॉस्टाल खुलवाए थे। 1939 में उनकी मृत्यु हुई। उसके बाद 1931 में बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर के अहमदाबाद आगमन के बाद से यहां आंबेडकरवादी विचारधारा का जो काम चालू हुआ, वह अभी जमीनी स्तसर पर चालू है। गुजरात में दलितों के घर में बाबा साहेब की तस्वींरों लगी हुई नजर आती हैं। कांग्रेस का मजदूर महाजन संघ, आर्य समाज, आंबेडकर का बनाया शेड्यूल कास्टी फेडरेशन, कांग्रेस का हरिजन सेवक संघ, बौद्ध महासंघ आदि तमाम संगठनों के मिले जुले काम ने दलितों की चेतना जगाने का काम किया है।
हालांकि गुजरात में बाबाओं का प्रकोप भी कम नहीं है। सौराष्ट्रस में भी काठियावाड़ के जो दलित हैं, उनमें अस्सीा प्रतिशत जैसलमेर के रामदेवरा धाम के भक्तड हैं। रामदेव स्वािमी जाति से क्षत्रिय थे, लेकिन दलितों को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। गुजरात में रामदेव स्वा मी के दो मंदिर हैं। जामनगर से भावनगर तक के दलित वहां हर साल मंडप नामक त्योकहार में जाते हैं और अलग अलग जाति के लोगों के साथ मिलकर पूजा अर्चना करते हैं। इनके अलावा सवैयानाथ से लेकर जालाराम तक तमाम संत हुए, जिनकी भक्ति दलित करते हैं। इसमें संत की जाति नहीं देखी जाती। संतों की आराधना के मामले में दलितों के साथ भेदभाव गुजरात में मिट चुका है।
गुजरात के दलितों के बीच सामाजिक सुधार की जो प्रमुख धारा करीब सौ साल से मौजूद रही है, वह आज कहीं कहीं राष्ट्रावादी राजनीति के रूप में नजर आती है। सौराष्ट्र के दलितों के धर्मगुरु शम्भूतनाथ बापू हैं। वे राज्यिसभा में भाजपा सांसद हैं। पाकिस्तालन के सिंध में भी उनके करीब दो लाख अनुयायी रहते हैं। जाति से वे खुद दलित हैं और दलितों की जमकर हिमायत करते हैं, लेकिन अपनी पार्टी लाइन के खिलाफ कभी नहीं जाते। 21 जुलाई 2016 को राज्यलसभा में शम्भू नाथ बापू ने ऊना मामले पर जोरदार भाषण दिया, लेकिन उनका सामाजिक न्याूय बीजेपी की सत्ता की पुष्टि करने में लगा रहा। कुल मिलाकर दलित या शोषण का मसला अपने राजनीतिक स्वार्थ या विचारधारा के खांचे में बंधा हुआ नजर आता है।
इसके पहले भी गुजरात में दलित आंदोलन हुए हैं। 1980 के आसपास आरक्षण विरोधी आंदोलन हुआ था, जिसमें दलितों को निशाना बनाया गया। उस समय भी दलितों पर कहानियां लिखी गईं, उसे प्रचारित प्रसारित किया गया। दलितों ने प्रतिज्ञा की कि वे मरे जानवरों को नहीं उठाएंगे। हालांकि इसका कोई ठोस परिणाम सामने नहीं आया। तीन साल पहले जूनागढ़ में 80,000 दलितों ने एक साथ बौद्ध धर्म में दीक्षा लेकर तूफान खड़ा कर दिया था। इस पर भी कोई खास हलचल नहीं हुई।
फिलहाल इस आंदोलन से भाजपा के विरोधी खासे खुश हैं। खासकर गुजरात को लेकर कांग्रेस उत्साह में है। आम आदमी पार्टी भी इस मामले को भुनाने में लगी है। दलित वहीं के वहीं खड़े हैं। गुजरात में दलित चेतना अन्य राज्यों की तुलना में ज्यादा ही है। इसके बावजूद कांग्रेस व भाजपा दोनों ने ही दलितों को अलग थलग रखा है। माना जाता है कि दलित ज्यादातर कांग्रेस को अपना वोट देते हैं, लेकिन कांग्रेस के लिए भी गुजरात के दलित वोटर से ज्यादा कुछ नहीं हैं। अनुमान के मुताबिक राज्य में महज 6 प्रतिशत दलित हैं। ऐसे में न तो वह लोकतंत्र में वोट की राजनीति के सशक्त प्रहरी बन पा रहे हैं, न ही अपने संवैधानिक हक का इस्तेमाल कर पा रहे हैं। इन 6 प्रतिशत मतों की अन्य किसी वर्ग मसलन पिछड़े या मुस्लिम या किसी अन्य के साथ लाबीयिंग भी नहीं है, जिससे मतदान के वक्त ये सशक्त मतदाता बनकर कुछ कर दिखाने या राजनीतिक बदलाव लाने में सक्षम हों।
ऊना में दलितों पर हुए हमले और उसके असर को देखने के लिए अभी बहुत कुछ देखना बाकी है। अगर गुजरात के अलावा इसे पंजाब, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र के संदर्भ में देखें, जहां दलितों की निर्णायक आबादी है, तो इसके राजनीतिक निहितार्थ और असर देखना अभी बाकी है।