सबकी अपनी अपनी सोच है, विचारों के इन्हीं प्रवाह में जीवन चलता रहता है ... अविरल धारा की तरह...
Thursday, December 27, 2007
भुट्टो की हत्या के बाद की तस्वीर(रावलपिंडी)
AQ372 - Rawalpindi, - PAKISTAN : A supporter of former premier Benazir Bhutto cries as he sits among dead bodies after the bomb blast, in Rawalpindi 27 December 2007. Benazir Bhutto died in a suicide blast in after an election rally. AFP PHOTO/AAMIR QURESHI
पाकिस्तान के रावलपिंडी में बेनजीर की रैली के दौरान आत्मघाती विस्फोट हुआ। यह दृष्य विस्फोट के बाद का है, जिसमें एक समर्थक बिखरी पड़ी लाशों के सामने रो रहा है। ( सौजन्य-फोटो-एएफपी)
फ्लैश॥फ्लैश... बेनजीर भुट्टो की हत्या।
पाकिस्तान की पूर्व प्रधानमंत्री व पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की अध्यक्ष बेनजीर भुट्टो की हत्या। रैली में हुआ हमला।
फ्लैश॥फ्लैश... बेनजीर भुट्टो की हत्या।
पाकिस्तान की पूर्व प्रधानमंत्री व पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की अध्यक्ष बेनजीर भुट्टो की हत्या। रैली में हुआ हमला।
Friday, December 21, 2007
अजब जीवट हैं... फिर बस गए
सत्येन्द्र प्रताप
दिल्ली की सरकार ने तो उन्हें उजाड़ दिया था। और कोई जगह नहीं मिली। चार दिन भी नहीं बीते हैं, मूर्तियां फिर से बनने लगीं। खुले आसमान के नीचे। पहले पालीथीन की छाजन थी। अब नहीं है। एक युवक बैठा हुआ सरस्वती की मूर्ति बना रहा था। उसे छोटे बच्चे घेरे हुए थे।
उसी कुनबे से एक ११-१२ साल की बच्ची निकली। साथ में उससे कम उम्र के बच्चे थे। एक छोटा सा हारमोनियम लिए हुए। बड़ी बच्ची के हाथ में खपड़ा था। उसे आकार देने में जुट गई। शायद संगीत उपकरण बनाना चाहती है, जिसे बजाकर बच्चे बसों में भीख मांगते हैं।
उसी समय डीटीसी की एक बस आई। उसमें हारमोनियम के साथ बच्ची चढ़ी। साथ में तीन-चार साल का बच्चा था। कुछ देर तक गीत के धुन निकालती रही। हारमोनियम के साथ उसके गले से भी मोटी सी आवाज निकली। दिल के अरमां आंसुओं में बह गए। वही स्टाइल, जिसमें भीख मांगी जाती है। हारमोनियम अच्छा बज रहा था। छोटे बच्चे ने भीख मांगना शुरु किया। शुरु से अंत तक पूरे बस में पैसा न मिला। एक आदमी ने उसे गुड़ का छोटा टुकड़ा दिया। चेहरे पर मुस्कान लिए वह लौटा। उसने हारमोनियम बजा रही लड़की को खुश होकर दिखाया, लेकिन उसके चेहरे पर कोई प्रतिक्रिया नही हुई। वह फिर से बजाने और गाने लगी। शायद उसे कुनबे के अन्य सदस्यों की भूख का भी एहसास था। बच्चा गुड़ का टुकड़ा लेकर बैठ गया औऱ खाने लगा। गीत के धुन खत्म हुए। और लड़की ने भीख मांगना शुरु किया। लोगों के पैर छूने और विभिन्न तरह के दयनीय चेहरे बनाने पर भी उसे एक पाई न मिली। शायद बस में यात्रा कर रहे लोगों को इस दृश्य की आदत सी पड़ गई है। आशय बदल चुके हैं। बच्चे की मुस्कराहट और अपनी हार के साथ वह बस से उतर गई। उसके दिल के अरमां, सचमुच आंसुओं में बह चुके थे।
दिल्ली की सरकार ने तो उन्हें उजाड़ दिया था। और कोई जगह नहीं मिली। चार दिन भी नहीं बीते हैं, मूर्तियां फिर से बनने लगीं। खुले आसमान के नीचे। पहले पालीथीन की छाजन थी। अब नहीं है। एक युवक बैठा हुआ सरस्वती की मूर्ति बना रहा था। उसे छोटे बच्चे घेरे हुए थे।
उसी कुनबे से एक ११-१२ साल की बच्ची निकली। साथ में उससे कम उम्र के बच्चे थे। एक छोटा सा हारमोनियम लिए हुए। बड़ी बच्ची के हाथ में खपड़ा था। उसे आकार देने में जुट गई। शायद संगीत उपकरण बनाना चाहती है, जिसे बजाकर बच्चे बसों में भीख मांगते हैं।
उसी समय डीटीसी की एक बस आई। उसमें हारमोनियम के साथ बच्ची चढ़ी। साथ में तीन-चार साल का बच्चा था। कुछ देर तक गीत के धुन निकालती रही। हारमोनियम के साथ उसके गले से भी मोटी सी आवाज निकली। दिल के अरमां आंसुओं में बह गए। वही स्टाइल, जिसमें भीख मांगी जाती है। हारमोनियम अच्छा बज रहा था। छोटे बच्चे ने भीख मांगना शुरु किया। शुरु से अंत तक पूरे बस में पैसा न मिला। एक आदमी ने उसे गुड़ का छोटा टुकड़ा दिया। चेहरे पर मुस्कान लिए वह लौटा। उसने हारमोनियम बजा रही लड़की को खुश होकर दिखाया, लेकिन उसके चेहरे पर कोई प्रतिक्रिया नही हुई। वह फिर से बजाने और गाने लगी। शायद उसे कुनबे के अन्य सदस्यों की भूख का भी एहसास था। बच्चा गुड़ का टुकड़ा लेकर बैठ गया औऱ खाने लगा। गीत के धुन खत्म हुए। और लड़की ने भीख मांगना शुरु किया। लोगों के पैर छूने और विभिन्न तरह के दयनीय चेहरे बनाने पर भी उसे एक पाई न मिली। शायद बस में यात्रा कर रहे लोगों को इस दृश्य की आदत सी पड़ गई है। आशय बदल चुके हैं। बच्चे की मुस्कराहट और अपनी हार के साथ वह बस से उतर गई। उसके दिल के अरमां, सचमुच आंसुओं में बह चुके थे।
Tuesday, December 18, 2007
मुंह से निवाला छीनती सरकार
सत्येन्द्र प्रताप
आदमी सभ्य हो रहा है। अच्छी बात है। आप ही जवाब दें। क्या हर कथित सभ्य को जिंदा रहने का हक है? मुंह में आवाज बची है क्या? इसी सभ्य आदमी से सवाल है। सरकार तो जवाब देने से रही।
पिछले तीन महीने से देख रहा था। नोयडा मोड़ बस स्टाप को। समसपुर जागीरगांव लिखा है उस स्टैंड पर। अक्षरधाम के दिव्य-भव्य मंदिर के पास। स्टैंड के ठीक पीछे मजदूरों के कुछ परिवार। रोज उन्हें प्लास्टर आफ पेरिस से भगवान या कुछ और बनाते देखता था। सबसे ज्यादा भगवान बनते थे, उसके बाद कुछ सुंदरियां वगैरह। खजुराहो शैली की।
दिल्ली सरकार ने उन्हें उजाड़ दिया। उन्होंने सरकारी जमीन पर अवैध कब्जा कर रखा था। क्या था कब्जा समझ में नहीं आता। पंद्रह बीस छोटे छोटे बच्चे, नंग-धड़ंग घूमते हुए। पांच छह महिलाएं और उतने ही पुरुष और कुछ बुजुर्ग वहां रहते थे। पालीथीन की छाजन डाले हुए।
आज कुछ बदला-बदला था दृष्य था। वे दुखी नहीं थे। खुश तो वे कभी रहते ही नहीं थे। केवल सामान को सहेज रहे थे। पता नहीं कहां से कुछ महिलाएं खाना भी खा रहीं थी। हो सकता है उन्होंने भीख मांगी हो। पेट तो मानता नहीं कि अवैध कब्जा हटाया गया है तो उस दिन कम से कम भूख न लगे। ठंड भी नहीं मानी होगी, लेकिन रात भर खुले आसमान के नीचे सोने के बाद भी कोई मरा नहीं। एक बच्चा भी नहीं मरा।
दिन कुछ मेहरबान है। धूप निकल आई है। सब कुछ बिखरा पड़ा है। कुछ ध्वस्त भगवान भी इधर-उधर पड़े हैं। एक छोटा सा बच्चा कुछ ढूंढ रहा है। कूड़े के ढेर में। मलबे में।
अजीब सा लगा यह दृष्य।
मुझे तो समझ में नहीं आता कि अब ये क्या करें। कहां जाएं। ये भी नहीं पता है कि कहां से ये लोग आए थे। रहते थे और मैं आफिस जाने के लिए बस का इंतजार करता रोज उन्हें देखता था।
अब क्या करेंगे ये लोग...
१- ऐसी ही शक्ल नजर आती है रोज, जब रेड लाइट पर कारों का काफिला खड़ा होता है। कोई महिला गोद में छोटा बच्चा और हाथ में कटोरा लिए इस कार से उस कार के बगल भागती नजर आती है। कुछ दानियों के शीशे खुलते हैं तो कुछ कारें हरी बत्ती होते ही सन्न से निकल जाती हैं।
२- ये लोग मर जाएं। सामूहिक रूप से आत्महत्या कर लें। लेकिन जीवट देश है यह। यहां ऐसी घटनाएं नहीं होतीं।
३- गलियों और बसों में चोरियां करें, पाकेट मारें या लोगों को लूटकर अपने पेट की आग बुझा लें।
४- हथियार उठा लें... नक्सली बन जाएं... आतंकवादी बन जाएं... किसी की हत्या करने का ठेका लेकर अपना पेट भरें या अपने अधिकार और निवाला छीनने के वालों को मार डालें।
प्लास्टर आफ पेरिस की मूर्तियां बनाने वाले इन कलाकारों का भी मन होगा कि अपने मेहनत से दो रोटी कमाएं। ऐसी इच्छा नहीं होती तो इन्हें पहले भी मेहनत नहीं करना चाहिए था। बहुत दिनों से अवैध निर्माण हटाने की बात चल रही थी। रेल लाइनों के किनारे छह मंजिला इमारतें बनी हैं। सब अवैध हैं। छोटे बिल्डरों ने बनाई। उन्हें गिराने की बात चल रही थी। बिल्डिंगे आखिर बनने ही क्यों दी गईं? सवाल तो यही था। हालांकि इनमें रहने वाले मजदूर थोड़े चालाक हो गए हैं और वे वोटर बन गए हैं। सरकार मजबूर हो गई। उन अवैध बिल्डिंगों को बख्श दिया गया। लेकिन निशाने पर आए वे गरीब, जो मेहनतकश हैं। अपने हुनर और मेहनत से रोटी कमाना चाहते हैं। संगठित नहीं हैं। संगठित होने का समय ही नहीं है। दिन रात महिलाएं पुरुष और बच्चे मूर्तियां बनाने और बेचने में ही गुजार देते हैं। पेट है कि भरता ही नहीं।
आदमी सभ्य हो रहा है। अच्छी बात है। आप ही जवाब दें। क्या हर कथित सभ्य को जिंदा रहने का हक है? मुंह में आवाज बची है क्या? इसी सभ्य आदमी से सवाल है। सरकार तो जवाब देने से रही।
पिछले तीन महीने से देख रहा था। नोयडा मोड़ बस स्टाप को। समसपुर जागीरगांव लिखा है उस स्टैंड पर। अक्षरधाम के दिव्य-भव्य मंदिर के पास। स्टैंड के ठीक पीछे मजदूरों के कुछ परिवार। रोज उन्हें प्लास्टर आफ पेरिस से भगवान या कुछ और बनाते देखता था। सबसे ज्यादा भगवान बनते थे, उसके बाद कुछ सुंदरियां वगैरह। खजुराहो शैली की।
दिल्ली सरकार ने उन्हें उजाड़ दिया। उन्होंने सरकारी जमीन पर अवैध कब्जा कर रखा था। क्या था कब्जा समझ में नहीं आता। पंद्रह बीस छोटे छोटे बच्चे, नंग-धड़ंग घूमते हुए। पांच छह महिलाएं और उतने ही पुरुष और कुछ बुजुर्ग वहां रहते थे। पालीथीन की छाजन डाले हुए।
आज कुछ बदला-बदला था दृष्य था। वे दुखी नहीं थे। खुश तो वे कभी रहते ही नहीं थे। केवल सामान को सहेज रहे थे। पता नहीं कहां से कुछ महिलाएं खाना भी खा रहीं थी। हो सकता है उन्होंने भीख मांगी हो। पेट तो मानता नहीं कि अवैध कब्जा हटाया गया है तो उस दिन कम से कम भूख न लगे। ठंड भी नहीं मानी होगी, लेकिन रात भर खुले आसमान के नीचे सोने के बाद भी कोई मरा नहीं। एक बच्चा भी नहीं मरा।
दिन कुछ मेहरबान है। धूप निकल आई है। सब कुछ बिखरा पड़ा है। कुछ ध्वस्त भगवान भी इधर-उधर पड़े हैं। एक छोटा सा बच्चा कुछ ढूंढ रहा है। कूड़े के ढेर में। मलबे में।
अजीब सा लगा यह दृष्य।
मुझे तो समझ में नहीं आता कि अब ये क्या करें। कहां जाएं। ये भी नहीं पता है कि कहां से ये लोग आए थे। रहते थे और मैं आफिस जाने के लिए बस का इंतजार करता रोज उन्हें देखता था।
अब क्या करेंगे ये लोग...
१- ऐसी ही शक्ल नजर आती है रोज, जब रेड लाइट पर कारों का काफिला खड़ा होता है। कोई महिला गोद में छोटा बच्चा और हाथ में कटोरा लिए इस कार से उस कार के बगल भागती नजर आती है। कुछ दानियों के शीशे खुलते हैं तो कुछ कारें हरी बत्ती होते ही सन्न से निकल जाती हैं।
२- ये लोग मर जाएं। सामूहिक रूप से आत्महत्या कर लें। लेकिन जीवट देश है यह। यहां ऐसी घटनाएं नहीं होतीं।
३- गलियों और बसों में चोरियां करें, पाकेट मारें या लोगों को लूटकर अपने पेट की आग बुझा लें।
४- हथियार उठा लें... नक्सली बन जाएं... आतंकवादी बन जाएं... किसी की हत्या करने का ठेका लेकर अपना पेट भरें या अपने अधिकार और निवाला छीनने के वालों को मार डालें।
प्लास्टर आफ पेरिस की मूर्तियां बनाने वाले इन कलाकारों का भी मन होगा कि अपने मेहनत से दो रोटी कमाएं। ऐसी इच्छा नहीं होती तो इन्हें पहले भी मेहनत नहीं करना चाहिए था। बहुत दिनों से अवैध निर्माण हटाने की बात चल रही थी। रेल लाइनों के किनारे छह मंजिला इमारतें बनी हैं। सब अवैध हैं। छोटे बिल्डरों ने बनाई। उन्हें गिराने की बात चल रही थी। बिल्डिंगे आखिर बनने ही क्यों दी गईं? सवाल तो यही था। हालांकि इनमें रहने वाले मजदूर थोड़े चालाक हो गए हैं और वे वोटर बन गए हैं। सरकार मजबूर हो गई। उन अवैध बिल्डिंगों को बख्श दिया गया। लेकिन निशाने पर आए वे गरीब, जो मेहनतकश हैं। अपने हुनर और मेहनत से रोटी कमाना चाहते हैं। संगठित नहीं हैं। संगठित होने का समय ही नहीं है। दिन रात महिलाएं पुरुष और बच्चे मूर्तियां बनाने और बेचने में ही गुजार देते हैं। पेट है कि भरता ही नहीं।
Saturday, December 15, 2007
अब मजदूरों पर गोली चलना भी खबर नहीं होती
सत्येन्द्र प्रताप
नोएडा में गोली चली। फैक्ट्री के गार्ड ने चलाई। उत्तेजित मजदूरों ने घुसकर तोड़फोड़ की। पुलिस आई, विरोध करने वालों की तोड़ाई की और सुरक्षा कड़ी कर दी गई। न कोई बहस न चर्चा। नामी गिरामी अखबारों ने एक कालम की खबर दी और कर्तव्यों की इतिश्री।
अखबार और चैनलों में खबर तभी होती है, जब मजदूरों पर गोली चले और दहाई में मौतें हों। ओबी वैन की रेंज में अगर कोई बच्चा गड्ढे में गिर जाए तो खबर। तात्कालिक समस्या है। खबर चलेगी- उसका असर होगा। गड्ढा पाट दिया जाएगा।
मजदूर जब अपना हक मांगता है तो लाला उसे लात मार देता है। अगर वो संगठित होता है तो लाला की सुरक्षा में लगी पुलिस की पिटाई पड़ती है। न्यूज बैल्यू भी तो नहीं है। अगर ये समस्या उठाई जाए तो उसका कोई हल तो निकलना नहीं है। बेरोजगारी तो दूर नहीं होनी है। क्या फायदा। मरने दो। मर जाएंगे, गरीबों की संख्या घट जाएगी। उतने ही गरीब बचेंगे जो लाला की चाकरी करके आराम से रोजी-रोटी चला लें। ज्यादा टिपिर-टिपिर करेंगे तो पीटने के लिए खाकी वर्दी है ही। अगर खाकी वालों का भी जमीर जाग गया तो निजी सुरक्षाबल रखने की कूबत तो है ही। उनसे पिटवा देंगे। तो कोई मतलब नहीं है ज्यादा टें-टें करने का।
Wednesday, December 12, 2007
58 वर्षीय वृद्धा ने जुड़वां बच्चों को जन्म दिया
विग्यान भी क्या कमाल करता है। कभी विश्वास न होने वाली घटना हो जाती है। ऐसा ही हुआ हरियाणा में । जिंद जिले के बुरैन गांव की ५८ साल की चमेली देवी पहली ऐसी महिला बन गई हैं, जिन्होंने वृद्धावस्था में जुड़वां बच्चों को जन्म दिया है। कृतिम गर्भाधान के जरिए ७५ साल के कपूर सिंह की पत्नी ने एक लड़का और एक लड़की को जन्म दिया।
बच्चे की चाह में कपूर ने चमेली से दूसरा ब्याह रचाया था। उनके ब्याह को ४४ साल हो गए हैं। आपरेशन करने वाले डा. अनुराग विश्नोई का कहना है कि यह पेंचीदा मामला था। हमने उच्च रक्तचाप के चलते काफी एहतियात बरता। चमेली देवी ने आईवीएफ-- इनवीट्रो फर्टिलाइजेशन के जरिए गर्भधारण किया था। चिकित्सकों के मुताबिक बच्चा जच्चा दोनो स्वस्थ हैं।
आप भी शुभकामनाएं दें।
बच्चे की चाह में कपूर ने चमेली से दूसरा ब्याह रचाया था। उनके ब्याह को ४४ साल हो गए हैं। आपरेशन करने वाले डा. अनुराग विश्नोई का कहना है कि यह पेंचीदा मामला था। हमने उच्च रक्तचाप के चलते काफी एहतियात बरता। चमेली देवी ने आईवीएफ-- इनवीट्रो फर्टिलाइजेशन के जरिए गर्भधारण किया था। चिकित्सकों के मुताबिक बच्चा जच्चा दोनो स्वस्थ हैं।
आप भी शुभकामनाएं दें।
यह मनुष्य था, इतने पर भी नहीं मरा था
सत्येन्द्र प्रताप
कवि त्रिलोचन. पिछले पंद्रह साल से कोई जानता भी न था कि कहां हैं. अचानक खबर मिली कि नहीं रहे. सोमवार, १० दिसंबर २००७. निगमबोध घाट पर मिले. मेरे जैसे आम आदमी से.
देश की आजादी के दौर को देखा था उन्होंने. लोगों को जीते हुए। एकमात्र कवि. जिसको देखा, कलम चलाने की इच्छा हुई तो उसी के मन, उसी की आत्मा में घुस गए। मानो त्रिलोचन आपबीती सुना रहे हैं. पिछले साल उनकी एक रचना भी प्रकाशित हुई. लेकिन गुमनामी के अंधेरे में ही रहे त्रिलोचन। अपने आखिरी दशक में.
उनकी तीन कविताएं...
भीख मांगते उसी त्रिलोचन को देखा कल
जिसको समझे था है तो है यह फौलादी.
ठेस-सी लगी मुझे, क्योंकि यह मन था आदी
नहीं, झेल जाता श्रद्धा की चोट अचंचल,
नहीं संभाल सका अपने को। जाकर पूछा,
'भिक्षा से क्या मिलता है.' 'जीवन.' क्या इसको
अच्छा आप समझते हैं. दुनिया में जिसको
अच्छा नहीं समझते हैं करते हैं, छूछा
पेट काम तो नहीं करेगा. 'मुझे आपसे
ऐसी आशा न थी.' आप ही कहें, क्या करूं,
खाली पेट भरूं, कुछ काम करूं कि चुप मरूं,
क्या अच्छा है. जीवन जीवन है प्रताप से,
स्वाभिमान ज्योतिष्क लोचनों में उतरा था,
यह मनुष्य था, इतने पर भी नहीं मरा था.
त्रिलोचन ने किसी से कहा नहीं। सब कुछ कहते ही गए. आम लोगों को भी बताते गए और भीख मांगकर जीने वालों को नसीहत देने वालों के सामने यक्ष प्रश्न खड़ा कर दिया.
दूसरी कविता
वही त्रिलोचन है, वह-जिस के तन पर गंदे
कपड़े हैं। कपड़े भी कैसे- फटे लटे हैं
यह भी फैशन है, फैशन से कटे कटे हैं.
कौन कह सकेगा इसका जीवन चंदे
पर अवलंबित है. चलना तो देखो इसका-
उठा हुआ सिर, चौड़ी छाती, लम्बी बाहें,
सधे कदमस तेजी, वे टेढ़ी मेढ़ी राहें
मानो डर से सिकुड़ रही हैं, किस का किस का
ध्यान इस समय खींच रहा है. कौन बताए,
क्या हलचल है इस के रुंघे रुंधाए जी में
कभी नहीं देखा है इसको चलते धीमे.
धुन का पक्का है, जो चेते वही चिताए.
जीवन इसका जो कुछ है पथ पर बिखरा है,
तप तप कर ही भट्ठी में सोना निखरा है.
कवि त्रिलोचन कहीं निराश नहीं है. हर दशक के उन लोगों को ही उन्होंने अपनी लेखनी से सम्मान दिया जो विकास और प्रगति की पहली सीढ़ी भी नहीं चढ़ पाया. संघर्ष करता रहा.
तीसरी कविता
बिस्तरा है न चारपाई है,
जिन्दगी खूब हमने पाई है.
कल अंधेरे में जिसने सर काटा,
नाम मत लो हमारा भाई है.
ठोकरें दर-ब-दर की थीं, हम थे,
कम नहीं हमने मुंह की खाई है.
कब तलक तीर वे नहीं छूते,
अब इसी बात पर लड़ाई है.
आदमी जी रहा है मरने को
सबसे ऊपर यही सचाई है.
कच्चे ही हो अभी अभी त्रिलोचन तुम
धुन कहां वह संभल के आई है.
Sunday, December 9, 2007
दिल की नीलामी
यह दिल नीलाम होगा...
कीमत चालीस हजार डॉलर।
कीमती है ना।
वैसे तो बाजार में कितने दिल नीलाम होते हैं।
हर रोज.. हर घंटे...
पैसे की बलि वेदी पर चढ़ते हैं।
नीलामी के लिए यह दिल भी है
लेकिन अच्छे काम के लिए...
असली नहीं
चित्रकार की कल्पना है केवल।
समाज की सच्चाइयां दिखाती
नीलाम होगा।
टूटेगा नहीं।
पैसे मिलेंगे...
वह राहत पहुंचाएंगे..
उन दिलों को..
जो टूट चुके हैं एड्स की चपेट में आकर।
इसकी नीलामी होगी।
सोथवे आक्शन सेंटर पर
ब्रिटेन में नहीं, न्यूयार्क में।
आम दिन नहीं...
खास दिन।
दिल को धड़काने वाले दिन।
चौदह फरवरी के दिन।
चुनावी रंग में कहां कुछ याद रहा हमें
ओम कबीर
गुजरात के चुनावी रंग पूरे देश में छिटक गए हैं। हर तरफ चरचा है। कुरसी की। ऊंट किस करवट बैठेगा। सब इसी में मशगूल हैं। इस बीच कुछ महत्वपूणॆ मुद्दों पर पेंट पुत गया है। चुनावी पेंट। नंदीग्राम और तसलीमा आउट आफ फोकस हो चुके हैं। बाजार का यही अथॆशास्त्र। हम बाजार युग में जी रहे हैं। इससे यह भी पता चलता है। लेकिन मैं इस मुद्दे को उठा रहा हूं। न्याय करने की दृष्टि से। तसलीमा बड़ा मुद्दा था। नंदीग्राम से भी। तेजी से उभरा। जनआंदोलन की शक्ल अख्तियार कर लिया। राजनीति उबलने लगी। लोग सिर के ऊपर आसमान उठाने लगे। शांत हुआ तो कहीं खो गया। इतना चुपके से। पता भी न चला। तसलीमा कहां हैं यह मीडिया के लिए भी आउट आफ कांटेक्स्ट की बात है। तसलीमा से झगड़ा लोगों का उनकी किताब की चंद पंक्तियों को लेकर था। तथाकथित ईश निंदा का। किताब की चंद पंक्तियों ने नंदीग्राम की अमानवीयता को मात दे दी। आंदोलन के स्तर पर। हजारों बेघर लोगों का मुद्दा चंद पंक्तियों से छोटा दिखने लगा। हत्या, लूट, बलात्कार से भी बड़ी थीं ये पंक्तियां। नंदीग्राम भी मुद्दा बना लेकिन जनआंदोलन नहीं। तसलीमा की तरह। सियासी मुद्दा भी बना। लेकिन लाभदायक नहीं रहा। नेताओं का भी मोहभंग हो गया। बहुत जल्द। जैसे तसलीमा चढ़ीं और उतरीं। क्या हम नंदीग्राम को तसलीमा की तरह ही बड़ा मुद्दा नहीं बना सकते थे। तसलीमा सियासी मुद्दा थी। नंदीग्राम राजनीतिक जंग। जंग में हर चीज जायज होती है। पर हर चीज जायज भी नहीं होती। नंदीग्राम को प्रमाण पत्र की जरूरत नहीं।
Thursday, December 6, 2007
गंगा तू चली कहां
मानॊ तॊ मैं हूं मां गंगा न मानॊ तॊ बहता पानी ा यह सब आस्था पर है ा न जाने कितनी शदियॊं से जीवित और मत पाणियॊं का उद्धार कर रही हैा वॊ जब स्वग से पथ्वी पर अवतरित हुई तॊ उनके साथ ३३ कॊटी देवता भी देवपयाग आये ा लॊगॊं के पाप धॊते -धॊते मैली हॊ गयीा उसमें जसे डाला गया उसे मां ने बिना कुछ कहे अपने में समाहित कर लियाा काश मां अपने में भष्टाचार कॊ भी समा लेती तॊ आज समाज कितना अच्छा हॊता ा पुतर भले ही कुपतर बन जाए पर मां कभी कुमाता नहीं बनती ा वॊ अपने बच्चॊं की बस खुश देखना चाहती हैा हर गम सहती है लेकिन कुछ कहती नहींा वॊ तॊ उसके लायक बचचे ही उसे उसके नालायक बच्चॊं से उसकी रशा करते हैंा
गंगा मां ने भी कभी किसी से कुछ नहीं कहाा मां गंगा की सफाई पर करॊड़ॊं रुपये खरच हॊ गये हैं पर नतीजा शिफर ा अदालत कॊ कहना पड़ा बस करॊ अब गंगा के नाम पर कितना तर करॊगे अपने आप कॊ ा मां गंगा जब परवतॊं में अपने घर ऋषिकेश कॊ छॊड़कर मैदानी इलाकॊं में आती है तॊ उसके पहाडवासी बच्चे भी उसे पहचान नहीं पाते ा उनका कहना है कि हमारी मां तॊ अत्याधिक सुंदर है जॊ अपने बच्चॊं की प्यास बुझाती है उसका जल निमरल है ा लेकिन इसका जल तॊ गंदगी से पटा पड़ा हैा इसके किनारे रहने वाले तॊ पानी कॊ उबाल कर पीते हैा
जी करता है जग जीत लूं
सत्येन्द्र
अगर स्वतंत्रता असीमित हो तो नंगई बढ़ जाती है। स्वतंत्रता के साथ संयम भी उतना ही जरूरी है। एक तरफ ईरान में रात को बुर्का चेक करने के लिए महिला पुलिस निकलती है, तो पश्चिमी देशों में खुलेपन की कोई सीमा नहीं बचती। रुस में चुनाव हुए। प्रो क्रेमलिन ग्रुप नासी ने भी खुशी का इजहार किया। खुशी का आलम यह था कि मास्को के रेड स्क्वायर में रैली के दौरान बिकिनी पहनकर दौड़ लगाने लगी। हाल के पार्लियामेंट्री चुनावों में रूस के राष्ट्रपति ब्लादीमीर पुतिन की यूनाइटेड रूस पार्टी ने जीत हासिल की है। यूनाइटेड रूस ६४.१ प्रतिशत मत हासिल किए हैं।
Wednesday, December 5, 2007
गड्ढा
विवेक ध्यानी
भले ही आज इस मासूम पर कॊई ध्यान नहीं दे रहा हॊा बच्चे तॊ अपनी ही दुनिया में मस्त रहते हैं वॊ इस जहान के भ़ष्टाचार से दूर हैं ा लेकिन समाज में भ़ष्टाचार अपनी जड़े गहरी जमा चुका हैा चारॊ तरफ भ़ष्टाचार हावी है ा भ़ष्ट चारी ये भी हर जगह भ़ष्टाचार करता है ा बड़े तॊ संभल कर चले जाते हैं गिरता तॊ बच्चा है ा जॊ भविष्य है ा लेकिन भविष्य की किसे चिंता है सब वतॆमान में जी रहे हैं ा अपने कॊ प्रजातंत्र का चॊथा सतंभ कहने वाला मीडिया भी तभी जागता है जब कॊई प़िंस गढ्ढे में गिरता है तॊ उन्हें २४ घंटे के लिए ख़बर मिल जाती हैा सारा देश उस समय गढ्ढॊं कॊ कॊसता है ा फिर चाहे आम आदमी हॊ या फिर सीएम हर कॊई दुआ सलामती मांगता है ा अंगेजी की कहावत है पिवेंशन इज बैटर देन क्यॊर अथात वक्त रहते ऎसे गढ्ढॊं कॊ ढक दिया जाए तॊ कल का भविष्य कभी ऎसे गढ्ढॊं में नहीं गिरेगाा
भले ही आज इस मासूम पर कॊई ध्यान नहीं दे रहा हॊा बच्चे तॊ अपनी ही दुनिया में मस्त रहते हैं वॊ इस जहान के भ़ष्टाचार से दूर हैं ा लेकिन समाज में भ़ष्टाचार अपनी जड़े गहरी जमा चुका हैा चारॊ तरफ भ़ष्टाचार हावी है ा भ़ष्ट चारी ये भी हर जगह भ़ष्टाचार करता है ा बड़े तॊ संभल कर चले जाते हैं गिरता तॊ बच्चा है ा जॊ भविष्य है ा लेकिन भविष्य की किसे चिंता है सब वतॆमान में जी रहे हैं ा अपने कॊ प्रजातंत्र का चॊथा सतंभ कहने वाला मीडिया भी तभी जागता है जब कॊई प़िंस गढ्ढे में गिरता है तॊ उन्हें २४ घंटे के लिए ख़बर मिल जाती हैा सारा देश उस समय गढ्ढॊं कॊ कॊसता है ा फिर चाहे आम आदमी हॊ या फिर सीएम हर कॊई दुआ सलामती मांगता है ा अंगेजी की कहावत है पिवेंशन इज बैटर देन क्यॊर अथात वक्त रहते ऎसे गढ्ढॊं कॊ ढक दिया जाए तॊ कल का भविष्य कभी ऎसे गढ्ढॊं में नहीं गिरेगाा
अशोक बन गए हैं बुद्धदेव
कलिंग में तबाही मचाने के बाद जिस तरह अशोक ने माफी मांग ली थी। ठीक उसी तरह बुद्धदेव भी झुक गए हैं। उन्होंने नंदीग्राम के मामले में माफी मांग ली है। उन्होंने कहा है मैं शांति चाहता हूं। नंदीग्राम को तबाह करने के बाद बुद्धदेव ने पहली बार अपनी गलती स्वीकार की है। चलो वामपंथियों में से किसी ने तो अपनी गलती स्वीकार की। कई तो अभी भी पता नहीं कौन से कोने में छिपे बैठे हैं। कंलिंग में खूनखराबा मचाने के बाद अशोक का ह्दय परिवतॆन हो गया था। उन्होंने बौद्ध धमॆ अपना लिया था। तो क्या बुद्धदेव भी बदल गए हैं। क्या वो भी अब खूनखराबे का रास्ता छोड़कर शांति के पथ पर चलना चाहते हैं। क्या वो भी अहिंसा का रास्ता अपना लेंगे। खैर देखते हैं कि बुद्धदेव कितने दिनों तक अपने काडर को काबू में रख पाते हैं।
कुछ बदला है? जातिवाद? ब्राहमणवाद? -- पता नहीं
सत्येन्द्र
कुछ भी नहीं बदला है। हालात जस के तस हैं। जातिवाद भी उसी तरह है। पहले कुछ लोग करते थे, अब लगभग सभी करते हैं। गरीब हर जगह मारा जाता है। अपना हक मांगने वालों को नंगा किया जाता है। आरक्षण से रोजगार में कोई परिवतॆन नहीं आया है। अरे इस समय जितनी नौकरियां हैं, सभी अगर अनुसूचित जाति को दे दिया जाए तो भी वे बेरोजगार रह जाएंगे। आरक्षण लागू तो हो गया लेकिन लागू होने के बाद सभी संस्थान तो निजी हाथों में बिक चुके हैं। शिक्षा बिका, सार्वजनिक संस्थान बिके, बिजली विभाग भी आधा बिक गया है। जहां भी सरकारी आरक्षण लागू होता था, सब तो खत्म कर दिया गया है। तो कहां और किसका हक मारा जा रहा है? हां, बदलाव आया है। कुलबुलाहट बढ़ी है। सत्ता में दलितों की भागीदारी बढ़ी है। जब मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू की गई थी। उसके पहले तो कोई जातिवाद खत्म करने की बात शायद ही उठाता था। अब बिहार में सत्ता गई, यूपी में गई धीरे-धीरे दायरा बढ़ ही रहा है। तो स्वाभाविक है कि विकास की बात तो होगी ही। अब जाति के नाम पर वोट मांगना नाजायज होगा ही। विकास की बात की जाएगी। इस समय भी जातीय आधार पर स्थितियों का आंकलन करें तो कुछ खास नहीं बदला है। अभी तो यह दांडी वाले रास्ते पर भी नहीं बदला है, जहां ६१ साल के गांधी ७८ साल पहले, जातीय आधार पर भेदभाव खत्म करने की अपील कर आए थे। मधुकर जी ने भी दांडी मार्च किया। उसी रास्ते पर जिस पर गांधी चले थे। किताब लिखी- धुंधले पदचिन्ह। कुछ भी तो नहीं बदलाव नजर आता है। हां.. इतना फर्क जरूर पड़ा है। गांधी के बाद से लोग आवाज उठाने लगे हैं। चुपचाप नहीं सहते। कुछ अपना गांव-घर छोड़कर बाहर आते हैं। किसी तरह, जाति वगैरह छिपाते। प्राइवेट और सरकारी सेक्टर में काम करते हैं। ब्लागिंग भी करते हैं और सवर्णों सा अवर्णों को गरियाते हैं।स्थितियां तो जस की तस हैं, लेकिन पन्द्रह साल की उथल-पुथल ने लोगों को सोचने पर मजबूर जरूर किया है, लोगों में कुलबुलाहट जरूर है।
कुछ भी नहीं बदला है। हालात जस के तस हैं। जातिवाद भी उसी तरह है। पहले कुछ लोग करते थे, अब लगभग सभी करते हैं। गरीब हर जगह मारा जाता है। अपना हक मांगने वालों को नंगा किया जाता है। आरक्षण से रोजगार में कोई परिवतॆन नहीं आया है। अरे इस समय जितनी नौकरियां हैं, सभी अगर अनुसूचित जाति को दे दिया जाए तो भी वे बेरोजगार रह जाएंगे। आरक्षण लागू तो हो गया लेकिन लागू होने के बाद सभी संस्थान तो निजी हाथों में बिक चुके हैं। शिक्षा बिका, सार्वजनिक संस्थान बिके, बिजली विभाग भी आधा बिक गया है। जहां भी सरकारी आरक्षण लागू होता था, सब तो खत्म कर दिया गया है। तो कहां और किसका हक मारा जा रहा है? हां, बदलाव आया है। कुलबुलाहट बढ़ी है। सत्ता में दलितों की भागीदारी बढ़ी है। जब मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू की गई थी। उसके पहले तो कोई जातिवाद खत्म करने की बात शायद ही उठाता था। अब बिहार में सत्ता गई, यूपी में गई धीरे-धीरे दायरा बढ़ ही रहा है। तो स्वाभाविक है कि विकास की बात तो होगी ही। अब जाति के नाम पर वोट मांगना नाजायज होगा ही। विकास की बात की जाएगी। इस समय भी जातीय आधार पर स्थितियों का आंकलन करें तो कुछ खास नहीं बदला है। अभी तो यह दांडी वाले रास्ते पर भी नहीं बदला है, जहां ६१ साल के गांधी ७८ साल पहले, जातीय आधार पर भेदभाव खत्म करने की अपील कर आए थे। मधुकर जी ने भी दांडी मार्च किया। उसी रास्ते पर जिस पर गांधी चले थे। किताब लिखी- धुंधले पदचिन्ह। कुछ भी तो नहीं बदलाव नजर आता है। हां.. इतना फर्क जरूर पड़ा है। गांधी के बाद से लोग आवाज उठाने लगे हैं। चुपचाप नहीं सहते। कुछ अपना गांव-घर छोड़कर बाहर आते हैं। किसी तरह, जाति वगैरह छिपाते। प्राइवेट और सरकारी सेक्टर में काम करते हैं। ब्लागिंग भी करते हैं और सवर्णों सा अवर्णों को गरियाते हैं।स्थितियां तो जस की तस हैं, लेकिन पन्द्रह साल की उथल-पुथल ने लोगों को सोचने पर मजबूर जरूर किया है, लोगों में कुलबुलाहट जरूर है।
केसर के फूल
कश्मीर की वादियां इस समय पाकिस्तानी घुसपैठ के लिए जानी जाती हैं। लेकिन उसकी असली पहचान है केसर। कश्मीर का केसर पूरी दुनिया में भेजा जाता है। खेतों में केसर के फूल उग आए हैं। किसान उसे सहेज रहे हैं। वे चाहते हैं कि उसकी खुशबू दुनिया भर में फैल जाए।
Tuesday, December 4, 2007
अब क्या है जिसकी परदादारी
ओम कबीर
हर चेहरे से परदा गिर जाता है। कुछ का देर, तो कुछ का सबेर। लोग तो कह रहे थे कि तसलीमा मामले को उछालकर नंदीग्राम मामले पर परदा डाला जा रहा है। अब क्या बचा है, जिसकी परदादारी है। लोगों से अब क्या छुपा है। जो है सबके सामने है। अब ढोंग रचने से भी क्या फायदा। हर रंग उभर कर साफ नजर आ रहा है। कल तक जो गुजरात दंगे जैसे मुद्दे पर हिंदूवादियों की खिंचाई कर रहे थे, वही अब मुंह छिपाने के लिए परदे की ओट ढूंढ रहे हैं। गुजरात तो सबके सामने था। खुला खेल। नंदीग्राम में तो सब कुछ छिपकर हुआ। परदे के पीछे से हमला। उन्हें लगता था कि यह परदा हमेशा उनके चेहरे रहेगा। वो परदा भी गिर गया। अपने को बुद्धिजीवी कहने वाले शरमशार हैं। तसलीमा को शरण देने की कीमत मांगी गई है। वो भी सभ्य समाज को शरमशार कर देने वाली। अपनी लेखनी को कुंद करने की कीमत। सभ्य कहलाने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी पहले अपने को वामपंथी कहलाना गवॆ समझते थे। अब शरमशार हैं। समझ में नहीं आता तसलीमा झुकी हैं या राजनीति का सिर नीचा हुआ है। वामपंथियों का सिर तो पहले ही झुका हुआ था। सांप्रदायिकता के खिलाफ नारा बुलंद करने वाले उसके तलवे तले दबे जा रहे हैं। वामपंथी अपने को आम आदमी से ऊपर समझते थे। अब शरम को भी पीछे छोड़ चुके हैं। इस मामले में उन्हें परदे की भी जरूरत नहीं। नंगापन भा रहा है। वो तो पहले भी अपनी बुराई नहीं सुनते थे, अब गालियों से उन्हें डर लगने लगा है। वामपंथी कहलाने से अब वे शरमाने भी लगे हैं। अभी बहुत से परदे गिरने बाकी हैं। तब तक, जब तक कि एक भी शरीर बचा है।
हर चेहरे से परदा गिर जाता है। कुछ का देर, तो कुछ का सबेर। लोग तो कह रहे थे कि तसलीमा मामले को उछालकर नंदीग्राम मामले पर परदा डाला जा रहा है। अब क्या बचा है, जिसकी परदादारी है। लोगों से अब क्या छुपा है। जो है सबके सामने है। अब ढोंग रचने से भी क्या फायदा। हर रंग उभर कर साफ नजर आ रहा है। कल तक जो गुजरात दंगे जैसे मुद्दे पर हिंदूवादियों की खिंचाई कर रहे थे, वही अब मुंह छिपाने के लिए परदे की ओट ढूंढ रहे हैं। गुजरात तो सबके सामने था। खुला खेल। नंदीग्राम में तो सब कुछ छिपकर हुआ। परदे के पीछे से हमला। उन्हें लगता था कि यह परदा हमेशा उनके चेहरे रहेगा। वो परदा भी गिर गया। अपने को बुद्धिजीवी कहने वाले शरमशार हैं। तसलीमा को शरण देने की कीमत मांगी गई है। वो भी सभ्य समाज को शरमशार कर देने वाली। अपनी लेखनी को कुंद करने की कीमत। सभ्य कहलाने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी पहले अपने को वामपंथी कहलाना गवॆ समझते थे। अब शरमशार हैं। समझ में नहीं आता तसलीमा झुकी हैं या राजनीति का सिर नीचा हुआ है। वामपंथियों का सिर तो पहले ही झुका हुआ था। सांप्रदायिकता के खिलाफ नारा बुलंद करने वाले उसके तलवे तले दबे जा रहे हैं। वामपंथी अपने को आम आदमी से ऊपर समझते थे। अब शरम को भी पीछे छोड़ चुके हैं। इस मामले में उन्हें परदे की भी जरूरत नहीं। नंगापन भा रहा है। वो तो पहले भी अपनी बुराई नहीं सुनते थे, अब गालियों से उन्हें डर लगने लगा है। वामपंथी कहलाने से अब वे शरमाने भी लगे हैं। अभी बहुत से परदे गिरने बाकी हैं। तब तक, जब तक कि एक भी शरीर बचा है।
Monday, December 3, 2007
कुछ टूटा है, जिसका दूर तक असर है
ओम कबीर
कुछ टूटता है तो उसका असर होना लाजमी है। वक्त के साथ टूटता है तो ददॆ के साथ दाग भी छोड़ जाता हैं। पिछले दिनों नंदीग्राम ने बहुत कुछ टूटा। ददॆ के साथ। दूर तक असर भी छोड़ गया। वक्त पर कुछ निशान छोड़ गया। पिछले दिनों पश्चिम बंगाल के राज्यपाल गोपालकृष्ण गांधी नंदीग्राम के दौरे पर गए। वहां उनकी चप्पल टूट गई। उनकी चप्पल का मरम्मत करता मोची और बगल में बैठ कर अपनी चप्पल ठीक करवाते गांधी की तस्वीर देश के लगभग सभी अखबारों में छपी। पूरे देश ने उसे देखा। नहीं देखा तो उसके पीछे का ददॆ। जो बहुत पहले ही अपने निशान उस तस्वीर के पीछे छोड़ गया था। उस ददॆ की गूंज बहुत लंबे समय तक सुनाई देगी। चप्पलें तो फिर भी ठीक हो सकती हैं। मरम्मत हो सकती हैं। पर उस ददॆ का क्या। जो उनके ऊपर एक निशान छोड़ गया है। क्या उसके लिए भी कोई मोची मिलेगा। क्या धागों और सुईयों से उस जख्म को भरा जा सकता है। फिर उस मरहम को हम कहां से लाएंगे। जो वक्त को ददॆ को भर दे। उस निशान को हमेशा के लिए मिटा दे। और कह दे जो हुआ वह महज एक हादसा था। और हम उसे भुला दें।
Sunday, December 2, 2007
देर से आंख खुलने का सियापा है क्या...
अखिलेश
इतनी हाय तौबा काहे मचाये हो बबुआ, माकपा को नहीं जानते थे का, ई त बहुते पहिले एक्सपोज़ हो चुकी है.....याद नहीं आ रहा है का... अच्छा त याद दिला देते हैं....कानू सान्याल और चारु मजूमदार को याद करो बाबू....नक्सल आन्दोलन याद करो. ....बबुआ याद करो, इन्हीं तथाकथित वामपंथियों ने किस तरह नयी व्यवस्था का सपना देखने वालो से उनकी आँखे छीनने कि कोशिश कि थी.....अब काहे का सियापा ....लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि हाथ में दारु और लिंग के पास कट्टा खोंस कर हिदू धर्म की रक्षा करने निकले लोंगो को वामपंथियो को गरियाने दिया जाये.......
चिलम का मजा ही कुछ और है
वाह दादा, क्या बात है। इस बुढ़उती में भी इतना लंबा कश। हो भी क्यों न। राजनीतिक रैली में जो भाग लेने आए हैं। लगता है, चाचा नेहरू और गांधी बाबा की याद अभी भी ताजा है।
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