सत्येन्द्र प्रताप
आदमी सभ्य हो रहा है। अच्छी बात है। आप ही जवाब दें। क्या हर कथित सभ्य को जिंदा रहने का हक है? मुंह में आवाज बची है क्या? इसी सभ्य आदमी से सवाल है। सरकार तो जवाब देने से रही।
पिछले तीन महीने से देख रहा था। नोयडा मोड़ बस स्टाप को। समसपुर जागीरगांव लिखा है उस स्टैंड पर। अक्षरधाम के दिव्य-भव्य मंदिर के पास। स्टैंड के ठीक पीछे मजदूरों के कुछ परिवार। रोज उन्हें प्लास्टर आफ पेरिस से भगवान या कुछ और बनाते देखता था। सबसे ज्यादा भगवान बनते थे, उसके बाद कुछ सुंदरियां वगैरह। खजुराहो शैली की।
दिल्ली सरकार ने उन्हें उजाड़ दिया। उन्होंने सरकारी जमीन पर अवैध कब्जा कर रखा था। क्या था कब्जा समझ में नहीं आता। पंद्रह बीस छोटे छोटे बच्चे, नंग-धड़ंग घूमते हुए। पांच छह महिलाएं और उतने ही पुरुष और कुछ बुजुर्ग वहां रहते थे। पालीथीन की छाजन डाले हुए।
आज कुछ बदला-बदला था दृष्य था। वे दुखी नहीं थे। खुश तो वे कभी रहते ही नहीं थे। केवल सामान को सहेज रहे थे। पता नहीं कहां से कुछ महिलाएं खाना भी खा रहीं थी। हो सकता है उन्होंने भीख मांगी हो। पेट तो मानता नहीं कि अवैध कब्जा हटाया गया है तो उस दिन कम से कम भूख न लगे। ठंड भी नहीं मानी होगी, लेकिन रात भर खुले आसमान के नीचे सोने के बाद भी कोई मरा नहीं। एक बच्चा भी नहीं मरा।
दिन कुछ मेहरबान है। धूप निकल आई है। सब कुछ बिखरा पड़ा है। कुछ ध्वस्त भगवान भी इधर-उधर पड़े हैं। एक छोटा सा बच्चा कुछ ढूंढ रहा है। कूड़े के ढेर में। मलबे में।
अजीब सा लगा यह दृष्य।
मुझे तो समझ में नहीं आता कि अब ये क्या करें। कहां जाएं। ये भी नहीं पता है कि कहां से ये लोग आए थे। रहते थे और मैं आफिस जाने के लिए बस का इंतजार करता रोज उन्हें देखता था।
अब क्या करेंगे ये लोग...
१- ऐसी ही शक्ल नजर आती है रोज, जब रेड लाइट पर कारों का काफिला खड़ा होता है। कोई महिला गोद में छोटा बच्चा और हाथ में कटोरा लिए इस कार से उस कार के बगल भागती नजर आती है। कुछ दानियों के शीशे खुलते हैं तो कुछ कारें हरी बत्ती होते ही सन्न से निकल जाती हैं।
२- ये लोग मर जाएं। सामूहिक रूप से आत्महत्या कर लें। लेकिन जीवट देश है यह। यहां ऐसी घटनाएं नहीं होतीं।
३- गलियों और बसों में चोरियां करें, पाकेट मारें या लोगों को लूटकर अपने पेट की आग बुझा लें।
४- हथियार उठा लें... नक्सली बन जाएं... आतंकवादी बन जाएं... किसी की हत्या करने का ठेका लेकर अपना पेट भरें या अपने अधिकार और निवाला छीनने के वालों को मार डालें।
प्लास्टर आफ पेरिस की मूर्तियां बनाने वाले इन कलाकारों का भी मन होगा कि अपने मेहनत से दो रोटी कमाएं। ऐसी इच्छा नहीं होती तो इन्हें पहले भी मेहनत नहीं करना चाहिए था। बहुत दिनों से अवैध निर्माण हटाने की बात चल रही थी। रेल लाइनों के किनारे छह मंजिला इमारतें बनी हैं। सब अवैध हैं। छोटे बिल्डरों ने बनाई। उन्हें गिराने की बात चल रही थी। बिल्डिंगे आखिर बनने ही क्यों दी गईं? सवाल तो यही था। हालांकि इनमें रहने वाले मजदूर थोड़े चालाक हो गए हैं और वे वोटर बन गए हैं। सरकार मजबूर हो गई। उन अवैध बिल्डिंगों को बख्श दिया गया। लेकिन निशाने पर आए वे गरीब, जो मेहनतकश हैं। अपने हुनर और मेहनत से रोटी कमाना चाहते हैं। संगठित नहीं हैं। संगठित होने का समय ही नहीं है। दिन रात महिलाएं पुरुष और बच्चे मूर्तियां बनाने और बेचने में ही गुजार देते हैं। पेट है कि भरता ही नहीं।
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