सत्येन्द्र
कुछ भी नहीं बदला है। हालात जस के तस हैं। जातिवाद भी उसी तरह है। पहले कुछ लोग करते थे, अब लगभग सभी करते हैं। गरीब हर जगह मारा जाता है। अपना हक मांगने वालों को नंगा किया जाता है। आरक्षण से रोजगार में कोई परिवतॆन नहीं आया है। अरे इस समय जितनी नौकरियां हैं, सभी अगर अनुसूचित जाति को दे दिया जाए तो भी वे बेरोजगार रह जाएंगे। आरक्षण लागू तो हो गया लेकिन लागू होने के बाद सभी संस्थान तो निजी हाथों में बिक चुके हैं। शिक्षा बिका, सार्वजनिक संस्थान बिके, बिजली विभाग भी आधा बिक गया है। जहां भी सरकारी आरक्षण लागू होता था, सब तो खत्म कर दिया गया है। तो कहां और किसका हक मारा जा रहा है? हां, बदलाव आया है। कुलबुलाहट बढ़ी है। सत्ता में दलितों की भागीदारी बढ़ी है। जब मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू की गई थी। उसके पहले तो कोई जातिवाद खत्म करने की बात शायद ही उठाता था। अब बिहार में सत्ता गई, यूपी में गई धीरे-धीरे दायरा बढ़ ही रहा है। तो स्वाभाविक है कि विकास की बात तो होगी ही। अब जाति के नाम पर वोट मांगना नाजायज होगा ही। विकास की बात की जाएगी। इस समय भी जातीय आधार पर स्थितियों का आंकलन करें तो कुछ खास नहीं बदला है। अभी तो यह दांडी वाले रास्ते पर भी नहीं बदला है, जहां ६१ साल के गांधी ७८ साल पहले, जातीय आधार पर भेदभाव खत्म करने की अपील कर आए थे। मधुकर जी ने भी दांडी मार्च किया। उसी रास्ते पर जिस पर गांधी चले थे। किताब लिखी- धुंधले पदचिन्ह। कुछ भी तो नहीं बदलाव नजर आता है। हां.. इतना फर्क जरूर पड़ा है। गांधी के बाद से लोग आवाज उठाने लगे हैं। चुपचाप नहीं सहते। कुछ अपना गांव-घर छोड़कर बाहर आते हैं। किसी तरह, जाति वगैरह छिपाते। प्राइवेट और सरकारी सेक्टर में काम करते हैं। ब्लागिंग भी करते हैं और सवर्णों सा अवर्णों को गरियाते हैं।स्थितियां तो जस की तस हैं, लेकिन पन्द्रह साल की उथल-पुथल ने लोगों को सोचने पर मजबूर जरूर किया है, लोगों में कुलबुलाहट जरूर है।
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