Thursday, December 27, 2007

भुट्टो की हत्या के बाद की तस्वीर(रावलपिंडी)


AQ372 - Rawalpindi, - PAKISTAN : A supporter of former premier Benazir Bhutto cries as he sits among dead bodies after the bomb blast, in Rawalpindi 27 December 2007. Benazir Bhutto died in a suicide blast in after an election rally. AFP PHOTO/AAMIR QURESHI
पाकिस्तान के रावलपिंडी में बेनजीर की रैली के दौरान आत्मघाती विस्फोट हुआ। यह दृष्य विस्फोट के बाद का है, जिसमें एक समर्थक बिखरी पड़ी लाशों के सामने रो रहा है। ( सौजन्य-फोटो-एएफपी)

फ्लैश॥फ्लैश... बेनजीर भुट्टो की हत्या।

पाकिस्तान की पूर्व प्रधानमंत्री व पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की अध्यक्ष बेनजीर भुट्टो की हत्या। रैली में हुआ हमला।

फ्लैश॥फ्लैश... बेनजीर भुट्टो की हत्या।

पाकिस्तान की पूर्व प्रधानमंत्री व पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की अध्यक्ष बेनजीर भुट्टो की हत्या। रैली में हुआ हमला।

Friday, December 21, 2007

अजब जीवट हैं... फिर बस गए

सत्येन्द्र प्रताप

दिल्ली की सरकार ने तो उन्हें उजाड़ दिया था। और कोई जगह नहीं मिली। चार दिन भी नहीं बीते हैं, मूर्तियां फिर से बनने लगीं। खुले आसमान के नीचे। पहले पालीथीन की छाजन थी। अब नहीं है। एक युवक बैठा हुआ सरस्वती की मूर्ति बना रहा था। उसे छोटे बच्चे घेरे हुए थे।
उसी कुनबे से एक ११-१२ साल की बच्ची निकली। साथ में उससे कम उम्र के बच्चे थे। एक छोटा सा हारमोनियम लिए हुए। बड़ी बच्ची के हाथ में खपड़ा था। उसे आकार देने में जुट गई। शायद संगीत उपकरण बनाना चाहती है, जिसे बजाकर बच्चे बसों में भीख मांगते हैं।
उसी समय डीटीसी की एक बस आई। उसमें हारमोनियम के साथ बच्ची चढ़ी। साथ में तीन-चार साल का बच्चा था। कुछ देर तक गीत के धुन निकालती रही। हारमोनियम के साथ उसके गले से भी मोटी सी आवाज निकली। दिल के अरमां आंसुओं में बह गए। वही स्टाइल, जिसमें भीख मांगी जाती है। हारमोनियम अच्छा बज रहा था। छोटे बच्चे ने भीख मांगना शुरु किया। शुरु से अंत तक पूरे बस में पैसा न मिला। एक आदमी ने उसे गुड़ का छोटा टुकड़ा दिया। चेहरे पर मुस्कान लिए वह लौटा। उसने हारमोनियम बजा रही लड़की को खुश होकर दिखाया, लेकिन उसके चेहरे पर कोई प्रतिक्रिया नही हुई। वह फिर से बजाने और गाने लगी। शायद उसे कुनबे के अन्य सदस्यों की भूख का भी एहसास था। बच्चा गुड़ का टुकड़ा लेकर बैठ गया औऱ खाने लगा। गीत के धुन खत्म हुए। और लड़की ने भीख मांगना शुरु किया। लोगों के पैर छूने और विभिन्न तरह के दयनीय चेहरे बनाने पर भी उसे एक पाई न मिली। शायद बस में यात्रा कर रहे लोगों को इस दृश्य की आदत सी पड़ गई है। आशय बदल चुके हैं। बच्चे की मुस्कराहट और अपनी हार के साथ वह बस से उतर गई। उसके दिल के अरमां, सचमुच आंसुओं में बह चुके थे।

Tuesday, December 18, 2007

मुंह से निवाला छीनती सरकार

सत्येन्द्र प्रताप
आदमी सभ्य हो रहा है। अच्छी बात है। आप ही जवाब दें। क्या हर कथित सभ्य को जिंदा रहने का हक है? मुंह में आवाज बची है क्या? इसी सभ्य आदमी से सवाल है। सरकार तो जवाब देने से रही।
पिछले तीन महीने से देख रहा था। नोयडा मोड़ बस स्टाप को। समसपुर जागीरगांव लिखा है उस स्टैंड पर। अक्षरधाम के दिव्य-भव्य मंदिर के पास। स्टैंड के ठीक पीछे मजदूरों के कुछ परिवार। रोज उन्हें प्लास्टर आफ पेरिस से भगवान या कुछ और बनाते देखता था। सबसे ज्यादा भगवान बनते थे, उसके बाद कुछ सुंदरियां वगैरह। खजुराहो शैली की।
दिल्ली सरकार ने उन्हें उजाड़ दिया। उन्होंने सरकारी जमीन पर अवैध कब्जा कर रखा था। क्या था कब्जा समझ में नहीं आता। पंद्रह बीस छोटे छोटे बच्चे, नंग-धड़ंग घूमते हुए। पांच छह महिलाएं और उतने ही पुरुष और कुछ बुजुर्ग वहां रहते थे। पालीथीन की छाजन डाले हुए।
आज कुछ बदला-बदला था दृष्य था। वे दुखी नहीं थे। खुश तो वे कभी रहते ही नहीं थे। केवल सामान को सहेज रहे थे। पता नहीं कहां से कुछ महिलाएं खाना भी खा रहीं थी। हो सकता है उन्होंने भीख मांगी हो। पेट तो मानता नहीं कि अवैध कब्जा हटाया गया है तो उस दिन कम से कम भूख न लगे। ठंड भी नहीं मानी होगी, लेकिन रात भर खुले आसमान के नीचे सोने के बाद भी कोई मरा नहीं। एक बच्चा भी नहीं मरा।
दिन कुछ मेहरबान है। धूप निकल आई है। सब कुछ बिखरा पड़ा है। कुछ ध्वस्त भगवान भी इधर-उधर पड़े हैं। एक छोटा सा बच्चा कुछ ढूंढ रहा है। कूड़े के ढेर में। मलबे में।
अजीब सा लगा यह दृष्य।
मुझे तो समझ में नहीं आता कि अब ये क्या करें। कहां जाएं। ये भी नहीं पता है कि कहां से ये लोग आए थे। रहते थे और मैं आफिस जाने के लिए बस का इंतजार करता रोज उन्हें देखता था।
अब क्या करेंगे ये लोग...
१- ऐसी ही शक्ल नजर आती है रोज, जब रेड लाइट पर कारों का काफिला खड़ा होता है। कोई महिला गोद में छोटा बच्चा और हाथ में कटोरा लिए इस कार से उस कार के बगल भागती नजर आती है। कुछ दानियों के शीशे खुलते हैं तो कुछ कारें हरी बत्ती होते ही सन्न से निकल जाती हैं।
२- ये लोग मर जाएं। सामूहिक रूप से आत्महत्या कर लें। लेकिन जीवट देश है यह। यहां ऐसी घटनाएं नहीं होतीं।
३- गलियों और बसों में चोरियां करें, पाकेट मारें या लोगों को लूटकर अपने पेट की आग बुझा लें।
४- हथियार उठा लें... नक्सली बन जाएं... आतंकवादी बन जाएं... किसी की हत्या करने का ठेका लेकर अपना पेट भरें या अपने अधिकार और निवाला छीनने के वालों को मार डालें।

प्लास्टर आफ पेरिस की मूर्तियां बनाने वाले इन कलाकारों का भी मन होगा कि अपने मेहनत से दो रोटी कमाएं। ऐसी इच्छा नहीं होती तो इन्हें पहले भी मेहनत नहीं करना चाहिए था। बहुत दिनों से अवैध निर्माण हटाने की बात चल रही थी। रेल लाइनों के किनारे छह मंजिला इमारतें बनी हैं। सब अवैध हैं। छोटे बिल्डरों ने बनाई। उन्हें गिराने की बात चल रही थी। बिल्डिंगे आखिर बनने ही क्यों दी गईं? सवाल तो यही था। हालांकि इनमें रहने वाले मजदूर थोड़े चालाक हो गए हैं और वे वोटर बन गए हैं। सरकार मजबूर हो गई। उन अवैध बिल्डिंगों को बख्श दिया गया। लेकिन निशाने पर आए वे गरीब, जो मेहनतकश हैं। अपने हुनर और मेहनत से रोटी कमाना चाहते हैं। संगठित नहीं हैं। संगठित होने का समय ही नहीं है। दिन रात महिलाएं पुरुष और बच्चे मूर्तियां बनाने और बेचने में ही गुजार देते हैं। पेट है कि भरता ही नहीं।

Saturday, December 15, 2007

अब मजदूरों पर गोली चलना भी खबर नहीं होती


सत्येन्द्र प्रताप

नोएडा में गोली चली। फैक्ट्री के गार्ड ने चलाई। उत्तेजित मजदूरों ने घुसकर तोड़फोड़ की। पुलिस आई, विरोध करने वालों की तोड़ाई की और सुरक्षा कड़ी कर दी गई। न कोई बहस न चर्चा। नामी गिरामी अखबारों ने एक कालम की खबर दी और कर्तव्यों की इतिश्री।

अखबार और चैनलों में खबर तभी होती है, जब मजदूरों पर गोली चले और दहाई में मौतें हों। ओबी वैन की रेंज में अगर कोई बच्चा गड्ढे में गिर जाए तो खबर। तात्कालिक समस्या है। खबर चलेगी- उसका असर होगा। गड्ढा पाट दिया जाएगा।

मजदूर जब अपना हक मांगता है तो लाला उसे लात मार देता है। अगर वो संगठित होता है तो लाला की सुरक्षा में लगी पुलिस की पिटाई पड़ती है। न्यूज बैल्यू भी तो नहीं है। अगर ये समस्या उठाई जाए तो उसका कोई हल तो निकलना नहीं है। बेरोजगारी तो दूर नहीं होनी है। क्या फायदा। मरने दो। मर जाएंगे, गरीबों की संख्या घट जाएगी। उतने ही गरीब बचेंगे जो लाला की चाकरी करके आराम से रोजी-रोटी चला लें। ज्यादा टिपिर-टिपिर करेंगे तो पीटने के लिए खाकी वर्दी है ही। अगर खाकी वालों का भी जमीर जाग गया तो निजी सुरक्षाबल रखने की कूबत तो है ही। उनसे पिटवा देंगे। तो कोई मतलब नहीं है ज्यादा टें-टें करने का।

Wednesday, December 12, 2007

58 वर्षीय वृद्धा ने जुड़वां बच्चों को जन्म दिया

विग्यान भी क्या कमाल करता है। कभी विश्वास न होने वाली घटना हो जाती है। ऐसा ही हुआ हरियाणा में । जिंद जिले के बुरैन गांव की ५८ साल की चमेली देवी पहली ऐसी महिला बन गई हैं, जिन्होंने वृद्धावस्था में जुड़वां बच्चों को जन्म दिया है। कृतिम गर्भाधान के जरिए ७५ साल के कपूर सिंह की पत्नी ने एक लड़का और एक लड़की को जन्म दिया।
बच्चे की चाह में कपूर ने चमेली से दूसरा ब्याह रचाया था। उनके ब्याह को ४४ साल हो गए हैं। आपरेशन करने वाले डा. अनुराग विश्नोई का कहना है कि यह पेंचीदा मामला था। हमने उच्च रक्तचाप के चलते काफी एहतियात बरता। चमेली देवी ने आईवीएफ-- इनवीट्रो फर्टिलाइजेशन के जरिए गर्भधारण किया था। चिकित्सकों के मुताबिक बच्चा जच्चा दोनो स्वस्थ हैं।
आप भी शुभकामनाएं दें।

यह मनुष्य था, इतने पर भी नहीं मरा था



सत्येन्द्र प्रताप
कवि त्रिलोचन. पिछले पंद्रह साल से कोई जानता भी न था कि कहां हैं. अचानक खबर मिली कि नहीं रहे. सोमवार, १० दिसंबर २००७. निगमबोध घाट पर मिले. मेरे जैसे आम आदमी से.
देश की आजादी के दौर को देखा था उन्होंने. लोगों को जीते हुए। एकमात्र कवि. जिसको देखा, कलम चलाने की इच्छा हुई तो उसी के मन, उसी की आत्मा में घुस गए। मानो त्रिलोचन आपबीती सुना रहे हैं. पिछले साल उनकी एक रचना भी प्रकाशित हुई. लेकिन गुमनामी के अंधेरे में ही रहे त्रिलोचन। अपने आखिरी दशक में.
उनकी तीन कविताएं...

भीख मांगते उसी त्रिलोचन को देखा कल
जिसको समझे था है तो है यह फौलादी.
ठेस-सी लगी मुझे, क्योंकि यह मन था आदी
नहीं, झेल जाता श्रद्धा की चोट अचंचल,
नहीं संभाल सका अपने को। जाकर पूछा,
'भिक्षा से क्या मिलता है.' 'जीवन.' क्या इसको
अच्छा आप समझते हैं. दुनिया में जिसको
अच्छा नहीं समझते हैं करते हैं, छूछा
पेट काम तो नहीं करेगा. 'मुझे आपसे
ऐसी आशा न थी.' आप ही कहें, क्या करूं,
खाली पेट भरूं, कुछ काम करूं कि चुप मरूं,
क्या अच्छा है. जीवन जीवन है प्रताप से,
स्वाभिमान ज्योतिष्क लोचनों में उतरा था,
यह मनुष्य था, इतने पर भी नहीं मरा था.

त्रिलोचन ने किसी से कहा नहीं। सब कुछ कहते ही गए. आम लोगों को भी बताते गए और भीख मांगकर जीने वालों को नसीहत देने वालों के सामने यक्ष प्रश्न खड़ा कर दिया.

दूसरी कविता
वही त्रिलोचन है, वह-जिस के तन पर गंदे
कपड़े हैं। कपड़े भी कैसे- फटे लटे हैं
यह भी फैशन है, फैशन से कटे कटे हैं.
कौन कह सकेगा इसका जीवन चंदे
पर अवलंबित है. चलना तो देखो इसका-
उठा हुआ सिर, चौड़ी छाती, लम्बी बाहें,
सधे कदमस तेजी, वे टेढ़ी मेढ़ी राहें
मानो डर से सिकुड़ रही हैं, किस का किस का
ध्यान इस समय खींच रहा है. कौन बताए,
क्या हलचल है इस के रुंघे रुंधाए जी में
कभी नहीं देखा है इसको चलते धीमे.
धुन का पक्का है, जो चेते वही चिताए.
जीवन इसका जो कुछ है पथ पर बिखरा है,
तप तप कर ही भट्ठी में सोना निखरा है.
कवि त्रिलोचन कहीं निराश नहीं है. हर दशक के उन लोगों को ही उन्होंने अपनी लेखनी से सम्मान दिया जो विकास और प्रगति की पहली सीढ़ी भी नहीं चढ़ पाया. संघर्ष करता रहा.
तीसरी कविता
बिस्तरा है न चारपाई है,
जिन्दगी खूब हमने पाई है.
कल अंधेरे में जिसने सर काटा,
नाम मत लो हमारा भाई है.
ठोकरें दर-ब-दर की थीं, हम थे,
कम नहीं हमने मुंह की खाई है.
कब तलक तीर वे नहीं छूते,
अब इसी बात पर लड़ाई है.
आदमी जी रहा है मरने को
सबसे ऊपर यही सचाई है.
कच्चे ही हो अभी अभी त्रिलोचन तुम
धुन कहां वह संभल के आई है.

Sunday, December 9, 2007

दिल की नीलामी



यह दिल नीलाम होगा...
कीमत चालीस हजार डॉलर।
कीमती है ना।
वैसे तो बाजार में कितने दिल नीलाम होते हैं।
हर रोज.. हर घंटे...
पैसे की बलि वेदी पर चढ़ते हैं।
नीलामी के लिए यह दिल भी है
लेकिन अच्छे काम के लिए...
असली नहीं
चित्रकार की कल्पना है केवल।
समाज की सच्चाइयां दिखाती
नीलाम होगा।
टूटेगा नहीं।
पैसे मिलेंगे...
वह राहत पहुंचाएंगे..
उन दिलों को..
जो टूट चुके हैं एड्स की चपेट में आकर।
इसकी नीलामी होगी।
सोथवे आक्शन सेंटर पर
ब्रिटेन में नहीं, न्यूयार्क में।
आम दिन नहीं...
खास दिन।
दिल को धड़काने वाले दिन।
चौदह फरवरी के दिन।

चुनावी रंग में कहां कुछ याद रहा हमें



ओम कबीर

गुजरात के चुनावी रंग पूरे देश में छिटक गए हैं। हर तरफ चरचा है। कुरसी की। ऊंट किस करवट बैठेगा। सब इसी में मशगूल हैं। इस बीच कुछ महत्वपूणॆ मुद्दों पर पेंट पुत गया है। चुनावी पेंट। नंदीग्राम और तसलीमा आउट आफ फोकस हो चुके हैं। बाजार का यही अथॆशास्त्र। हम बाजार युग में जी रहे हैं। इससे यह भी पता चलता है। लेकिन मैं इस मुद्दे को उठा रहा हूं। न्याय करने की दृष्टि से। तसलीमा बड़ा मुद्दा था। नंदीग्राम से भी। तेजी से उभरा। जनआंदोलन की शक्ल अख्तियार कर लिया। राजनीति उबलने लगी। लोग सिर के ऊपर आसमान उठाने लगे। शांत हुआ तो कहीं खो गया। इतना चुपके से। पता भी न चला। तसलीमा कहां हैं यह मीडिया के लिए भी आउट आफ कांटेक्स्ट की बात है। तसलीमा से झगड़ा लोगों का उनकी किताब की चंद पंक्तियों को लेकर था। तथाकथित ईश निंदा का। किताब की चंद पंक्तियों ने नंदीग्राम की अमानवीयता को मात दे दी। आंदोलन के स्तर पर। हजारों बेघर लोगों का मुद्दा चंद पंक्तियों से छोटा दिखने लगा। हत्या, लूट, बलात्कार से भी बड़ी थीं ये पंक्तियां। नंदीग्राम भी मुद्दा बना लेकिन जनआंदोलन नहीं। तसलीमा की तरह। सियासी मुद्दा भी बना। लेकिन लाभदायक नहीं रहा। नेताओं का भी मोहभंग हो गया। बहुत जल्द। जैसे तसलीमा चढ़ीं और उतरीं। क्या हम नंदीग्राम को तसलीमा की तरह ही बड़ा मुद्दा नहीं बना सकते थे। तसलीमा सियासी मुद्दा थी। नंदीग्राम राजनीतिक जंग। जंग में हर चीज जायज होती है। पर हर चीज जायज भी नहीं होती। नंदीग्राम को प्रमाण पत्र की जरूरत नहीं।

Thursday, December 6, 2007

गंगा तू चली कहां


मानॊ तॊ मैं हूं मां गंगा न मानॊ तॊ बहता पानी ा यह सब आस्था पर है ा न जाने कितनी शदियॊं से जीवित और मत पाणियॊं का उद्धार कर रही हैा वॊ जब स्वग से पथ्वी पर अवतरित हुई तॊ उनके साथ ३३ कॊटी देवता भी देवपयाग आये ा लॊगॊं के पाप धॊते -धॊते मैली हॊ गयीा उसमें जसे डाला गया उसे मां ने बिना कुछ कहे अपने में समाहित कर लियाा काश मां अपने में भष्टाचार कॊ भी समा लेती तॊ आज समाज कितना अच्छा हॊता ा पुतर भले ही कुपतर बन जाए पर मां कभी कुमाता नहीं बनती ा वॊ अपने बच्चॊं की बस खुश देखना चाहती हैा हर गम सहती है लेकिन कुछ कहती नहींा वॊ तॊ उसके लायक बचचे ही उसे उसके नालायक बच्चॊं से उसकी र‌शा करते हैंा
गंगा मां ने भी कभी किसी से कुछ नहीं कहाा मां गंगा की सफाई पर करॊड़ॊं रुपये खरच हॊ गये हैं पर नतीजा शिफर ा अदालत कॊ कहना पड़ा बस करॊ अब गंगा के नाम पर कितना तर करॊगे अपने आप कॊ ा मां गंगा जब परवतॊं में अपने घर ऋषिकेश कॊ छॊड़कर मैदानी इलाकॊं में आती है तॊ उसके पहाडवासी बच्चे भी उसे पहचान नहीं पाते ा उनका कहना है कि हमारी मां तॊ अत्याधिक सुंदर है जॊ अपने बच्चॊं की प्यास बुझाती है उसका जल निमरल है ा लेकिन इसका जल तॊ गंदगी से पटा पड़ा हैा इसके किनारे रहने वाले तॊ पानी कॊ उबाल कर पीते हैा

जी करता है जग जीत लूं


सत्येन्द्र
अगर स्वतंत्रता असीमित हो तो नंगई बढ़ जाती है। स्वतंत्रता के साथ संयम भी उतना ही जरूरी है। एक तरफ ईरान में रात को बुर्का चेक करने के लिए महिला पुलिस निकलती है, तो पश्चिमी देशों में खुलेपन की कोई सीमा नहीं बचती। रुस में चुनाव हुए। प्रो क्रेमलिन ग्रुप नासी ने भी खुशी का इजहार किया। खुशी का आलम यह था कि मास्को के रेड स्क्वायर में रैली के दौरान बिकिनी पहनकर दौड़ लगाने लगी। हाल के पार्लियामेंट्री चुनावों में रूस के राष्ट्रपति ब्लादीमीर पुतिन की यूनाइटेड रूस पार्टी ने जीत हासिल की है। यूनाइटेड रूस ६४.१ प्रतिशत मत हासिल किए हैं।

Wednesday, December 5, 2007

गड्ढा

विवेक ध्यानी

भले ही आज इस मासूम पर कॊई ध्यान नहीं दे रहा हॊा बच्चे तॊ अपनी ही दुनिया में मस्त रहते हैं वॊ इस जहान के भ़ष्टाचार से दूर हैं ा लेकिन समाज में भ़ष्टाचार अपनी जड़े गहरी जमा चुका हैा चारॊ तरफ भ़ष्टाचार हावी है ा भ़‍ष्ट चारी ये भी हर जगह भ़ष्टाचार करता है ा बड़े तॊ संभल कर चले जाते हैं गिरता तॊ बच्चा है ा जॊ भविष्य है ा लेकिन भविष्य की किसे चिंता है सब वतॆमान में जी रहे हैं ा अपने कॊ प्रजातंत्र का चॊथा सतंभ कहने वाला मीडिया भी तभी जागता है जब कॊई प़िंस गढ्ढे में गिरता है तॊ उन्हें २४ घंटे के लिए ख़बर मिल जाती हैा सारा देश उस समय गढ्ढॊं कॊ कॊसता है ा फिर चाहे आम आदमी हॊ या फिर सीएम हर कॊई दुआ सलामती मांगता है ा अंगेजी की कहावत है पिवेंशन इज बैटर देन क्यॊर अथात वक्त रहते ऎसे गढ्ढॊं कॊ ढक दिया जाए तॊ कल का भविष्य कभी ऎसे गढ्ढॊं में नहीं गिरेगाा

अशोक बन गए हैं बुद्धदेव

कलिंग में तबाही मचाने के बाद जिस तरह अशोक ने माफी मांग ली थी। ठीक उसी तरह बुद्धदेव भी झुक गए हैं। उन्होंने नंदीग्राम के मामले में माफी मांग ली है। उन्होंने कहा है मैं शांति चाहता हूं। नंदीग्राम को तबाह करने के बाद बुद्धदेव ने पहली बार अपनी गलती स्वीकार की है। चलो वामपंथियों में से किसी ने तो अपनी गलती स्वीकार की। कई तो अभी भी पता नहीं कौन से कोने में छिपे बैठे हैं। कंलिंग में खूनखराबा मचाने के बाद अशोक का ह्दय परिवतॆन हो गया था। उन्होंने बौद्ध धमॆ अपना लिया था। तो क्या बुद्धदेव भी बदल गए हैं। क्या वो भी अब खूनखराबे का रास्ता छोड़कर शांति के पथ पर चलना चाहते हैं। क्या वो भी अहिंसा का रास्ता अपना लेंगे। खैर देखते हैं कि बुद्धदेव कितने दिनों तक अपने का‍‍डर को काबू में रख पाते हैं।

कुछ बदला है? जातिवाद? ब्राहमणवाद? -- पता नहीं

सत्येन्द्र

कुछ भी नहीं बदला है। हालात जस के तस हैं। जातिवाद भी उसी तरह है। पहले कुछ लोग करते थे, अब लगभग सभी करते हैं। गरीब हर जगह मारा जाता है। अपना हक मांगने वालों को नंगा किया जाता है। आरक्षण से रोजगार में कोई परिवतॆन नहीं आया है। अरे इस समय जितनी नौकरियां हैं, सभी अगर अनुसूचित जाति को दे दिया जाए तो भी वे बेरोजगार रह जाएंगे। आरक्षण लागू तो हो गया लेकिन लागू होने के बाद सभी संस्थान तो निजी हाथों में बिक चुके हैं। शिक्षा बिका, सार्वजनिक संस्थान बिके, बिजली विभाग भी आधा बिक गया है। जहां भी सरकारी आरक्षण लागू होता था, सब तो खत्म कर दिया गया है। तो कहां और किसका हक मारा जा रहा है? हां, बदलाव आया है। कुलबुलाहट बढ़ी है। सत्ता में दलितों की भागीदारी बढ़ी है। जब मंडल कमीशन की रिपोर्ट लागू की गई थी। उसके पहले तो कोई जातिवाद खत्म करने की बात शायद ही उठाता था। अब बिहार में सत्ता गई, यूपी में गई धीरे-धीरे दायरा बढ़ ही रहा है। तो स्वाभाविक है कि विकास की बात तो होगी ही। अब जाति के नाम पर वोट मांगना नाजायज होगा ही। विकास की बात की जाएगी। इस समय भी जातीय आधार पर स्थितियों का आंकलन करें तो कुछ खास नहीं बदला है। अभी तो यह दांडी वाले रास्ते पर भी नहीं बदला है, जहां ६१ साल के गांधी ७८ साल पहले, जातीय आधार पर भेदभाव खत्म करने की अपील कर आए थे। मधुकर जी ने भी दांडी मार्च किया। उसी रास्ते पर जिस पर गांधी चले थे। किताब लिखी- धुंधले पदचिन्ह। कुछ भी तो नहीं बदलाव नजर आता है। हां.. इतना फर्क जरूर पड़ा है। गांधी के बाद से लोग आवाज उठाने लगे हैं। चुपचाप नहीं सहते। कुछ अपना गांव-घर छोड़कर बाहर आते हैं। किसी तरह, जाति वगैरह छिपाते। प्राइवेट और सरकारी सेक्टर में काम करते हैं। ब्लागिंग भी करते हैं और सवर्णों सा अवर्णों को गरियाते हैं।स्थितियां तो जस की तस हैं, लेकिन पन्द्रह साल की उथल-पुथल ने लोगों को सोचने पर मजबूर जरूर किया है, लोगों में कुलबुलाहट जरूर है।

केसर के फूल


कश्मीर की वादियां इस समय पाकिस्तानी घुसपैठ के लिए जानी जाती हैं। लेकिन उसकी असली पहचान है केसर। कश्मीर का केसर पूरी दुनिया में भेजा जाता है। खेतों में केसर के फूल उग आए हैं। किसान उसे सहेज रहे हैं। वे चाहते हैं कि उसकी खुशबू दुनिया भर में फैल जाए।

मुझे दूध पिला दो ना, बड़ी भूख लगी है.


Tuesday, December 4, 2007

अब क्या है जिसकी परदादारी


ओम कबीर
हर चेहरे से परदा गिर जाता है। कुछ का देर, तो कुछ का सबेर। लोग तो कह रहे थे कि तसलीमा मामले को उछालकर नंदीग्राम मामले पर परदा डाला जा रहा है। अब क्या बचा है, जिसकी परदादारी है। लोगों से अब क्या छुपा है। जो है सबके सामने है। अब ढोंग रचने से भी क्या फायदा। हर रंग उभर कर साफ नजर आ रहा है। कल तक जो गुजरात दंगे जैसे मुद्दे पर हिंदूवादियों की खिंचाई कर रहे थे, वही अब मुंह छिपाने के लिए परदे की ओट ढूंढ रहे हैं। गुजरात तो सबके सामने था। खुला खेल। नंदीग्राम में तो सब कुछ छिपकर हुआ। परदे के पीछे से हमला। उन्हें लगता था कि यह परदा हमेशा उनके चेहरे रहेगा। वो परदा भी गिर गया। अपने को बुद्धिजीवी कहने वाले शरमशार हैं। तसलीमा को शरण देने की कीमत मांगी गई है। वो भी सभ्य समाज को शरमशार कर देने वाली। अपनी लेखनी को कुंद करने की कीमत। सभ्य कहलाने वाले तथाकथित बुद्धिजीवी पहले अपने को वामपंथी कहलाना गवॆ समझते थे। अब शरमशार हैं। समझ में नहीं आता तसलीमा झुकी हैं या राजनीति का सिर नीचा हुआ है। वामपंथियों का सिर तो पहले ही झुका हुआ था। सांप्रदायिकता के खिलाफ नारा बुलंद करने वाले उसके तलवे तले दबे जा रहे हैं। वामपंथी अपने को आम आदमी से ऊपर समझते थे। अब शरम को भी पीछे छोड़ चुके हैं। इस मामले में उन्हें परदे की भी जरूरत नहीं। नंगापन भा रहा है। वो तो पहले भी अपनी बुराई नहीं सुनते थे, अब गालियों से उन्हें डर लगने लगा है। वामपंथी कहलाने से अब वे शरमाने भी लगे हैं। अभी बहुत से परदे गिरने बाकी हैं। तब तक, जब तक कि एक भी शरीर बचा है।

Monday, December 3, 2007

कुछ टूटा है, जिसका दूर तक असर है




ओम कबीर
कुछ टूटता है तो उसका असर होना लाजमी है। वक्त के साथ टूटता है तो ददॆ के साथ दाग भी छोड़ जाता हैं। पिछले दिनों नंदीग्राम ने बहुत कुछ टूटा। ददॆ के साथ। दूर तक असर भी छोड़ गया। वक्त पर कुछ निशान छोड़ गया। पिछले दिनों पश्चिम बंगाल के राज्यपाल गोपालकृष्ण गांधी नंदीग्राम के दौरे पर गए। वहां उनकी चप्पल टूट गई। उनकी चप्पल का मरम्मत करता मोची और बगल में बैठ कर अपनी चप्पल ठीक करवाते गांधी की तस्वीर देश के लगभग सभी अखबारों में छपी। पूरे देश ने उसे देखा। नहीं देखा तो उसके पीछे का ददॆ। जो बहुत पहले ही अपने निशान उस तस्वीर के पीछे छोड़ गया था। उस ददॆ की गूंज बहुत लंबे समय तक सुनाई देगी। चप्पलें तो फिर भी ठीक हो सकती हैं। मरम्मत हो सकती हैं। पर उस ददॆ का क्या। जो उनके ऊपर एक निशान छोड़ गया है। क्या उसके लिए भी कोई मोची मिलेगा। क्या धागों और सुईयों से उस जख्म को भरा जा सकता है। फिर उस मरहम को हम कहां से लाएंगे। जो वक्त को ददॆ को भर दे। उस निशान को हमेशा के लिए मिटा दे। और कह दे जो हुआ वह महज एक हादसा था। और हम उसे भुला दें।

Sunday, December 2, 2007

देर से आंख खुलने का सियापा है क्या...



अखिलेश
इतनी हाय तौबा काहे मचाये हो बबुआ, माकपा को नहीं जानते थे का, ई त बहुते पहिले एक्सपोज़ हो चुकी है.....याद नहीं आ रहा है का... अच्छा त याद दिला देते हैं....कानू सान्याल और चारु मजूमदार को याद करो बाबू....नक्स आन्दोलन याद करो. ....बबुआ याद करो, इन्हीं तथाकथित वामपंथियों ने किस तरह नयी व्यवस्था का सपना देखने वालो से उनकी आँखे छीनने कि कोशिश कि थी.....अब काहे का सियापा ....लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि हाथ में दारु और लिंग के पास कट्टा खोंस कर हिदू धर्म की रक्षा करने निकले लोंगो को वामपंथियो को गरियाने दिया जाये.......

चिलम का मजा ही कुछ और है



वाह दादा, क्या बात है। इस बुढ़उती में भी इतना लंबा कश। हो भी क्यों न। राजनीतिक रैली में जो भाग लेने आए हैं। लगता है, चाचा नेहरू और गांधी बाबा की याद अभी भी ताजा है।

Thursday, November 29, 2007

चाकलेट खाओ, लड़की पाओ नमकीन खाओ, लड़का पाओ



पता नहीं कैसे-कैसे शोध करते हैं शोधकर्ता। दक्षिण अफ्रीका के प्रिटोरिया विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने कहा है कि लड़की पैदा करने के लिए चाकलेट और लड़का पैदा करने के लिए नमकीन, चिप्स वगैरह खाना लाभदायक होता है। ब्रिटिश अखबार डेली मेल की एक रिपोर्ट में शोधकर्ताओं के हवाले से कहा गया है कि अगर महिलाएं लड़की पैदा करने की चाहत रखती हैं तो उन्हे खानपान में शुगर की मात्रा बढ़ा देनी चाहिए। इसके लिए चाकलेट खाना फायदेमंद रहेगा।
चूहों पर किए गए शोध के आधार पर शोधकर्ताओं की रिपोर्ट में कहा गया है कि गर्भस्थ शिशु के लिंग निर्धारण में खानपान की अहम भूमिका होती है। हालांकि शोधकर्ता अभी रक्त में शर्करा की उस मात्रा का सटीक अनुमान नहीं लगा पाए हैं, जो बच्चे का लिंग निर्धारक होता है।

Friday, November 23, 2007

कोर्ट पर हमला क्यों?


सत्येन्द्र प्रताप

वाराणसी में हुए संकटमोचन और रेलवे स्टेशनों पर विस्फोट के बाद जोरदार आंदोलन चला। भारत में दहशतगर्दी के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ था जब गांव-गिराव से आई महिलाओं के एक दल ने आतंकवादियों के खिलाफ फतवा जारी किए जाने की मांग उठा दी थी। बाद में तो विरोध का अनूठा दौर चल पड़ा था। संकटमोचन मंदिर में मुस्लिमों ने हनुमानचालीसा का पाठ किया और जबर्दस्त एकता दिखाई। मुस्लिम उलेमाओं ने एक कदम आगे बढ़कर दहशतगर्दों के खिलाफ़ फतवा जारी कर दिया।
इसी क्रम में न्यायालयों में पेश किए जाने वाले संदिग्धों के विरोध का भी दौर चला और वकीलों ने इसकी शुरुआत की। लखनऊ, वाराणसी और फैजाबाद में वकीलों ने अलग-अलग मौकों पर आतंकवादियों की पिटाई की थी।शुरुआत वाराणसी से हुई। अधिवक्ताओं ने पिछले साल सात मार्च को आरोपियों के साथ हाथापाई की और उसकी टोपी छीनकर जला डाली। आरोपी को न्यायालय में पेश करने में पुलिस को खासी मशक्कत करनी पड़ी। फैजाबाद में वकीलों ने अयोध्या में अस्थायी राम मंदिर पर हमले के आरोपियों का मुकदमा लड़ने से इनकार कर दिया। कुछ दिन पहले लखनऊ कचहरी में जैश ए मोहम्मद से संबद्ध आतंकियों की पिटाई की थी।
अब राजधानी लखनऊ के अलावा काशी तथा फैजाबाद के कचहरी परिसर बम विस्फोटों से थर्रा उठे हैं। यह सीधा हमला है आतंकियों का विरोध करने वालों पर। कश्मीर के बाद यह परम्परा देश के अन्य भागों में भी फैलती जा रही है। नीति-निर्धारकों और चरमपंथियों का समर्थन करने वालों को एक बार फिर सोचा होगा कि वे देश में क्या हालात बनाना चाह रहे हैं।

भुखमरी


यह फोटो बहुत पुरानी है, फिर भी भेज रहा हूं क्योंकि इस फोटो को दुनियां के सामने लाने वाले फोटोग्राफर से भी दर्द सहा नहीं गया। उसने आत्महत्या कर ली। लेकिन पेश कर चुका था एक ऐसा फोटो जिससे किसी भी संवेदनशील आदमी का कलेजा बैठ जाए।
यह फोटो १९९४ में सूडान में फैली भुखमरी के दौरान लिया गया था। फोटो यूनाइटेड नेशन्स के फूड कैंप से महज़ एक किलोमीटर की दूरी पर लिया गया। एक बच्चा मरने की कगार पर है और गिद्ध इंतजार में है कि बच्चा मरे और उसे खाया जाए। इस फोटो के लिए केविन कार्टर को वर्ष १९९४ का पुलित्जर पुरस्कार दिया गया था।
दुनिया ये नहीं जानती कि उस बच्चे का क्या हस्र हुआ। फोटोग्राफर भी नहीं। यह फोटो दुनियां के सामने लाने के तीन महीने बाद ही केविन कार्टर ने आत्महत्या कर ली थी।

Wednesday, November 21, 2007

पहल


मधुकर उपाध्याय

सूरज रोज उगता है। तय दिशा से। नियत समय पर। सबके लिए। अपनी ओर से वह सबकी खातिर एक नया दिन लेकर आता है। सूरज की चमक में कमी नहीं होती। भेदभाव नहीं होता। वह आता है तो सब साफ़-साफ़ दिखने लगता है। कुतुबमीनार से लेकर संसद और कारखानों से दफ्तर तक। ऊंची इमारतों और झुग्गियों को उसकी चमक में बराबर का हिस्सा मिलता है। यही तो सूरत का काम है। यही काम अखबार का भी है। सब साफ दिखा देना। बताना कि जो साफ़ नहीं है, वह साफ क्यों नहीं है? और नहीं है तो कैसे होगा? अखबार रोज सुबह उगते हैं लेकिन अब उनका उगना घटना नहीं होता। सूरज की तरह तो बिल्कुल नहीं। कुछ गायब लगता है, जैसे चमक-दमक में खो गया है। असली दुनिया की तस्वीर से कतई अलग।आज का सूरज कुछ नए पन्ने जोड़कर उगा है। नए अखबार की शक्ल में। उम्मीद के साथ। सबको साथ लेकर। तबके, धर्म, आयवर्ग और कौमी रुझानों से बेपरवाह। सबको समेटता। सब उजागर करता। यही मंशा है और यही कोशिश। कुल मिलाकर यही आज समाज है।हमें सूरज होने या बनने की गलतफहमी नहीं है। हम उससे अलग हैं। इस मायने में कि हम आपके पास हैं। सूरज की चमक से कोई हिस्सा छूट जाए तो आप उसे बता नहीं सकते। हमें बता सकते हैं।आज समाज में आपका स्वागत करते हुए हम बस एक बात कहना चाहते हैं। अब तक आप अखबार पढ़ते थे। अब समाज को पढ़िए। पूरा समाज। हम उसी में शामिल हैं।
(आज समाज के पहले अंक में।)

Sunday, November 18, 2007

आखिरी कोशिश

(यह फोटो बांग्लादेश में आए तूफान के बाद का है। कितना संघषॆ किया होगा इस आदमी ने, जान बचाने की। डाल पकड़ी कि आसरा बने। उस डाल ने भी पेंड़ का साथ छोड़ दिया। मृतक का परिजन उसी डाल के सहारे शव को बाहर निकालने की कोशिश कर रहा है। बच्चे को सहारा देने वाला तो चला गया, अब बच्चा उसी डाल का सहारा ले रहा है, शव को बाहर निकालने के लिए।)



जिंदगी भी अजीब है.
प्रकृति,
मनुष्य को हमेशा समझाने की कोशिश करती है.
वह पीटती है-
एक ही लाठी से.
चाहे अमीर हो,या गरीब.
हिन्दू हो...
या मुसलमान।
दिखाती है-
कि तुम क्या हो?
कोशिश करती है समझाने की।
आदमी...
घमंड में जीता है।
वह जीता है
और दूसरों की जिंदगी देखता है।
लेकिन मौत...!
किसी को नहीं पहचानती।
आदमी कोशिश करता है, हर वक्त बचने की।
आखिरी कोशिश!
भले ही वह नाकाम हो जाए।
मौत के सामने,
कितनी बेबस...है यह ज़िंदगी!

-सत्येन्द्र प्रताप

Saturday, November 17, 2007


सत्येन्द्र प्रताप

हर देश में सरकारें, शिक्षा को बेचने की तैयारी में हैं । छात्र इसका विरोध करने में लगे हैं। हाल ही में यूनान के छात्र-छात्राओं ने सरकार के विश्वविद्यालयों के निजीकरण के फैसले के खिलाफ झंडा बुलंद करते हुए अनोखा विरोध किया था, जिसमें एक पूंजीपति को सिगरेट पीते, छात्रों को कंटीले तार में बांधकर ले जाते दिखाया गया था। अब फ्रांस में भी छात्रों ने इसके खिलाफ आवाज उठाई है। फ्रांस की सरकार ने एक कानून बनाया है जिसके तहत वहां के विश्वविद्यालयों को निजी व्यवसाय के निकट लाने की बात कही गई है। १५ नवंबर को छात्र-छात्राओं को देश के सभी ८५ विश्वविद्यालयों में विरोध प्रदर्शन किया। ३१ विश्वविद्यालय पूरी तरह से बंद रहे। छात्रों के इस संघर्ष को वैश्विक स्तर पर समर्थन की जरूरत है जिससे शिक्षा के बाजारीकरण को रोका जा सके। शिक्षा के क्षेत्र में भारत सरकार भी निवेश करती है, लेकिन यहां भी इसमें धीरे-धीरे जहर घोले जाने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। यहां पर सीधे तौर पर तो कोई फैसला नहीं आया है, लेकिन सरकारी विद्यालयों में शिक्षा का स्तर गिराकर आम लोगों को निजी शिक्षण संस्थानों की ओर ढ़केला जा रहा है।

Friday, November 16, 2007

नाम प्रभावित करते हैं परीक्षा के अंक


सत्येन्द्र प्रताप

पता नहीं यह सही है या गलत, लेकिन अमेरिका के शोधकर्ताओं ने सर्वे के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है। नाम के पहले अक्षर में जादुई करिश्मा होता है। अमेरिका के दो शोधकर्ताओं ने प्रबंधन छात्रों और विधि छात्रों के ग्रेड पर अध्ययन किया है।

इन वैज्ञानिकों ने अपनी शोध रिपोर्ट में खुलासा किया है कि जिन संस्थानों की ग्रेडिंग (दर्जा) पद्धति की सर्वोच्च श्रेणी वहां के छात्रों के नाम के पहले अक्षर से मेल खाते हैं, उनकी सफलता का रिकॉर्ड ऊंचा रहता है।

उदाहरण के लिए प्रबंधन संस्थानों में ग्रेडिंग पद्धति ए, बी, सी, डी के हिसाब से होती है। इनमें सबसे अच्छा ग्रेड ‘ए’ और ‘बी’ होता है। तो इस हिसाब से जिन छात्रों का नाम ‘ए’ या ‘बी’ से शुरू होता है उनका प्रदर्शन उन छात्रों से बेहतर होता है जिनका नाम ‘बी’ या ‘सी’ से शुरू होता है।

कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के लीफ नेल्सन और येल विश्वविद्यालय के जोसेफ सिमोंस ने अपने शोध में पाया कि जब विधि के छात्रों पर यही अध्ययन किया गया तो इस बार उन छात्रों का प्रदर्शन सर्वश्रेष्ठ नहीं था जिनके नाम ‘ए’ या ‘बी’ अक्षर से शुरू होते हैं। इसकी वजह यह है कि यहां ग्रेडिंग के लिए ‘ए’ या ‘बी’ रैंकिंग पद्धति का इस्तेमाल नहीं किया जाता है।

हालांकि इस अध्ययन में यह भी कहा गया है कि कोई छात्र अगर अपने नाम को लेकर सजग हो जाता है तो परिणाम मनमाफिक होने की सम्भावना कम होती है।

इस अध्ययन रिपोर्ट को ‘साइकोलॉजिकल साइंस’ जर्नल में प्रकाशित किया गया है। वैज्ञानिकों ने इस सिद्धांत को ‘नाम अक्षर प्रभाव’ नाम दिया है।

Tuesday, November 13, 2007

निकम्मों के लिए खतरे की घंटी


देश के निकम्मों, सावधान हो जाओ। अब न तो चार्वाक दर्शन चलेगा और न ही मलूकदास की कविता, जिसमें सबके दाता राम होते हैं। भारतीय न्यायालय का डंडा चल पड़ा है। बचना मुश्किल।

गरीबी और नकारापन के कारण अपनी पहली पत्नी और उसके बच्चों को भरण-पोषण न देने पर मेरठ की एक अदालत ने एक व्यक्ति को जेल में मेहनत, मजदूरी की सजा सुनाई है। अभियोजन के अनुसार मेरठ जिले के कस्बा किठौर निवासी सलीम की शादी जिले के मुंडाली थाना अन्तर्गत ग्राम सफियाबाद लोटी की रहने वाली दिलजहान से 28 जून 1991 में हुई थी।
दूसरी शादी कर लेने और अपने परिवार का खर्च न उठाने पर परिवार न्यायालय के न्यायाधीश ने पत्नी का 450 रुपया और उसके तीन अव्यस्क बच्चों का भरण-पोषण 350 रुपए प्रत्येक के हिसाब से 1500 रुपए प्रतिमाह देने का आदेश गत 31 जनवरी 2001 को पारित किया था। अदालत के आदेश के बावजूद भरण-पोषण का एक भी पैसा न देने और अदालत में उपस्थित न होने के कारण सजायाफ्ता सलीम के विरुद्ध कई वारंट और रिकवरी वारंट भी जारी किए गए, लेकिन सलीम कोई चल-अचल संपत्ति न होने और रोजी के तौर पर कोई काम न करने की बात करता रहा। गत एक सितंबर 2007 को इसी न्यायालय ने कारावास का दंड देकर उसे मेरठ जेल भिजवा दिया। जहां वह इन दिनों अपनी सजा काट रहा है। परिवार न्यायाधीश आर.एस. यादव की अदालत में दिलजहान की खराब आर्थिक स्थिति को देखते हुए मेरठ जिला जेल के जेलर को आज आदेश दिए कि 40 वर्षीय सलीम को जेल में ही मेहनत, मजदूरी करवाकर कमाए गए तमाम पैसे को अदालत में जमा करवाया जाए जिससे गुजारा भत्ते के तौर पर उसकी पत्नी और बच्चों को दिया जा सके। अदालत ने अपने फैसले में यह भी आदेश दिए है कि भरण पोषण भत्ते की पूरी रकम अदा हो जाने तक उसे जेल में ही रखा जाए। अदालत ने यह भी स्वीकार किया है कि सलीम मन, बुद्धि और शरीर से स्वस्थ व्यक्ति है और सिर्फ नकारापन के कारण मेहनत, मजदूरी करके गुजारा भत्ता नहीं दे रहा है।
इस मामले में वादी दिलजहान के अधिवक्ता वी.के. गुप्ता ने बताया कि अदालत ने उच्चतम न्यायालय की ठक्कर एवं एस. नटराजन बैंच द्वारा वर्ष 1989 में 128 सीआरपीसी के तहत कुलदीप कौर बनाम सुन्दर सिंह मामले की रलिंग को आधार मानकर यह फैसला सुनाया है। अदालत के इस निर्णय से यह सवाल भी उठ गया है कि बकाया 1 लाख 18 हजार 500 रुपये और प्रति माह 1500 रुपए के गुजारे भत्ते की रकम क्या वह पूरी उम्र जेल में चक्की पीसकर चुका पाएगा? क्योंकि जिला जेल में मजदूरी के औसतन दस रुपए प्रतिदिन दिए जाने का प्रावधान है। उन्होंने कहा कि अदालत के आदेशों पर यदि पालन हुआ तो सलीम पूरी जिन्दगी जेल में बिताकर भी गुजारा भत्ते की पूरी रकम अदा नहीं कर पाएगा।
(साभार-जोश१८)

गाय का धमाका


आपने लैंड स्लाइड की खबरें पढ़ी हैं, पेंड़ गिरने, बिल्डिंग ढहने की खबर पढ़ी है, लेकिन अगर कार पर गाय आ गिरे तो क्या होगा। सोच भी नहीं सकते कि इस तरह की भी दुर्घटना हो सकती है। लेकिन ऐसा हुआ ।
जी हां, ऐसा ही वाकया वाशिंगटन प्रांत में कार में यात्रा कर रहे एक जोड़े के साथ हुआ। इस जोड़े की कार पर गाय आ गिरी।
यह विचित्र घटना चार्ल्स एवरसन के साथ हुई। उन्होंने वेनात्ची वर्ल्ड नामक अखबार से बातचीत करते हुए कहा कि अचानक मेरी कार की छतरी के अगले हिस्से पर कोई चीज जोर से टकराई। मुझे इसका अहसास नहीं था कि मेरी कार से टकराने वाली चीज गाय होगी। ऐसा लगा जैसे मेरी कार पर किसी ने बम फेंक दिया हो। उन्होंने कहा कि इस गाय का वजन करीब 270 किलोग्राम होगा। इसके असर से कार के शीशे टूट गए और उसका अगला हिस्सा भी बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गया। अगर यह गाय मेरी कार के बीच में गिरती तो मैं और मेरी पत्नी मारे जाते। यह गाय सड़क के किनारे स्थित एक छोटी पहाड़ी से फिसलकर कार पर गिरी थी।

Monday, November 12, 2007

प्राकृतिक असंतुलन की मार झेल रहे हैं पंक्षी


A dying bird covered in oil lies at the Black Sea shore in Port Kavkaz, 12 November 2007, some 160 km from Krasnodar after a heavy storm। The bodies of three sailors washed ashore Monday after a ferocious Black Sea storm sank five ships, including an oil tanker, raising fears of severe environmental damage to the virtually landlocked sea.

Friday, November 9, 2007

भयानक संकटः यह आचरण का




लीजिए कविता झेलिए। मेरी लिखी हुई नहीं है इसलिए आपको अगर गाली देना हो तो "प्रताप राव कदम" को दें। हालांकि मुझे बहुत पसंद आई है।


जिन्हें इस खयाल से भी परहेज
उन्होंने ही कहा
धर्म का इस तरह इस्तेमाल गलत
दिन भर लगाते ग्राहकों को चूना,
उन्होंने भी दुकान पर लिखवाया,
ग्राहक हमारा भगवान है।
दहेज की मंडी में वह मंहगा बिका,
कहता था जो
प्रेम के खातिर कुछ भी करेगा।
जो कहते हैं
वे न इधर हैं न उधर
कामकाज औऱ घर
यह चतुराई है
नहीं उनका डर।

और आखिर में शानदार लाइनें देखिये जिसके कारण मैं इस कविता को आप तक पहुंचा रहा हूं।


शब्द निरर्थक
खोखल में से आ रही आवाज़
एक कहता कुछ, करता कुछ औऱ
दूसरा उससे कतई अलग नहीं
बिकने-खरीदने की पंसारी भाषा
चमक-दमक रैपर में लिपटी
भयानक संकटः यह आचरण का।

Thursday, November 8, 2007

समलैंगिकों के लिए होटल ???



सत्येन्द्र प्रताप

दुनिया भी अजीब है। अमीर लोगों के शौक। पहले तो समलैंगिकों के लिए विवाह करने के लिए छूट मांगी गई और अब उनके लिए पांच सितारा होटल भी खुल गया।

कोई गरीब आदमी रोटी मांगता है, मुफ्त शिक्षा की माँग करता है, उद्योगपतियों द्वारा कब्जियाई गई जमीन के लिए मुआवजा मांगता है तो देश चाहे जो हो, उसे गोली ही खानी पड़ती है। लेकिन इन विकृत मानसिकता वालों के लिए आंदोलन चले, उनकी मांगों को माना भी गया और होटल खुला, वो भी पांच सितारा। अर्जेंटीना की राजधानी ब्यूनस-आयर्स मे समलैंगिकों के होटल खोला गया है! पांच सितारा होटल। ४८ कमरे हैं। पारदर्शी तल वाला स्विमिंग पुल है, साथ ही बार, रेस्टोरेंट भी. यह होटल शहर के सबसे पुराने इलाके san telmo मे खोला गया है।

Wednesday, October 31, 2007

कितना बदल गया इंसान


देश की कुछ घटनाएं जो कवि प्रदीप के मशहूर गीत की याद दिलाती हैं.. देख तेरे संसार की हालत क्या हो गई भगवान, कितना बदल गया इंसान।


सट्टे में लिप्त छह सिपाही निलंबित


फर्रुखाबाद। उत्तर प्रदेश के फर्रुखाबाद में जुए के धंधे में लिप्त छह पुलिसकर्मियों को कल निलंबित कर दिया गया और तीन थाना प्रभारियों एवं पुलिस क्षेत्राधिकारी को कार्य में सुधार लाने के लिए नोटिस जारी किया गया।

पुलिस अधीक्षक श्रीमती लक्ष्मी सिंह ने यहां बताया कि शहरी क्षेत्र में कल सट्टे के धंधे का भंडाफोड़ करके एक महिला समेत आठ लोगों को गिरफ्तार किया गया था। मौके से पुलिस ने करीब सवा तीन लाख रुपये की सट्टा पर्ची बरामद की थी। सट्टे में लिप्त पाये गये छह पुलिसकर्मियों को आज निलंबित कर दिया ।

निलंबित पुलिसकर्मियों में एसओजी के महाराज सिंह, श्यामाबाबू, कायम सिंह के अलावा कोतवाली का चालक ललित दुबे, सिपाही कमलेश कुमार तथा रामदास राठौर शामिल हैं।


लूटपाट का आरोपी थानाध्यक्ष निलम्बित

गाजीपुर। उत्तर प्रदेश के गाजीपुर में मकान में घुसकर लूटपाट और मारपीट करने के आरोप में आज एक थानाध्यक्ष को निलम्बित कर दिया गया।

पुलिस सूत्रों ने यहां बताया कि दिलदारनगर क्षेत्र के उसिया गांव में अपने सहकर्मियों के साथ एक मकान पर धावा बोलकर महिलाओं और बच्चों के साथ मारपीट और लूटपाट करने के आरोप में आज थानाध्यक्ष नीरज कुमार सिंह को निलम्बित कर दिया गया।

लूटपाट के मामले में पुलिस कार्यवाही जारी है।


छात्रवृत्ति घोटाले में प्राचार्य समेत 15 निलंबित

भोपाल। मध्यप्रदेश सरकार ने इंदौर के शासकीय कला, वाणिज्य महाविद्यालय में छात्रवृत्ति घोटाले के एक मामले में सख्त कदम उठाते हुये प्राचार्य सहित 15 शासकीय सेवकों को तत्काल प्रभाव से निलंबित कर दिया है।

आधिकारिक जानकारी के अनुसार इन लोगों को फर्जी दस्तावेज तैयार कर छात्रवृत्ति की राशि का दुरूपयोग और गबन करने तथा कर्तव्य के प्रति गंभीर लापरवाही बरतने का दोषी पाया गया।

इन लोगों को दोषी पाये जाने पर संयुक्त विभागीय जांच भी संस्थापित की गयी है। निलंबित कर्मचारियों का मुख्यालय नेत्रीय अतिरिक्त संचालक कार्यालय उच्च शिक्षा इंदौर निर्धारित किया गया है।

(

साभार : जोश १८)

Tuesday, October 30, 2007

वाह, क्या बात है




संयुक्त राज्य अमेरिका में कुत्तों की सजावट पर आयोजित एक प्रदर्शनी में मशहूर पॉप गायिका ब्रिटनी स्पीयर्स का भेष बनाए एक कुतिया।

पति भी हैं शोषण के शिकार


भले ही यह बात सुनने में अटपटी लगे कि पत्‍नी पति का शोषण करती है लेकिन आंकडों के अनुसार उत्तरप्रदेश में पत्‍नी द्वारा पति के शोषण के मामलों में बढोत्तरी हुई है।
आगरा की पारिवारिक अदालत के आंकडों पर नजर डाले जाने से यह बात उजागर हुई है कि पत्‍नी के मुकाबले पति शोषण के शिकार अधिक हैं।
शारीरिक हो या मानसिक शोषण दोनों ही तरीकों से आज की पत्‍नी, पति पर हावी रहने की कोशिश करती नजर आ रही हैं। सूत्रों के अनुसार इस अदालत में ज्यादातर पत्‍नी से परेशान पतियों के मामले सामने आते हैं। अधिकतर लोगों की शिकायत रहती है कि उनकी पत्‍नी उनका शारीरिक और मानसिक शोषण करती हैं। इन मामलों की संख्या बढ़ती जा रही है। पिछले आंकडों को देखें तो कुछ समय से पत्‍नी से आजिज पुरूष की संख्या में वृद्धि हो रही है। प्राप्त आंकडों के अनुसार वर्ष 2005 में महिलाओं के खिलाफ 550 मुकदमें दाखिल किए गए जबकि पुरूषों के खिलाफ 409 मामले ही दर्ज हुए। वर्ष 2006 में महिलाओं के खिलाफ 640 मुकदमें दाखिल किए गए जबकि महिलाओं के खिलाफ मात्र 417 मामले दर्ज हुए।इस वर्ष गत 13 जुलाई तक महिलाओं के खिलाफ 475 मुकदमें दाखिल किए गए हैं जबकि पत्‍नी को तंग करने वाले पुरूषों के खिलाफ 176 मामले ही दाखिल किए जा चुके हैं।
(साभार- जोश १८)

Saturday, October 27, 2007

मांस और शराब का शौकीन बकरा




बारगढ (उडीसा)। अगर आप यह सोचते हैं कि बकरे विशुद्घ रूप से शाकाहारी होते हैं तो मंटू नामक बकरे से मिल कर आपकी धारणा गलत हो सकती है। यह बकरा न सिर्फ मांस खाता है बल्कि छक कर शराब भी पीता है।

ढाई साल का यह बकरा राजधानी भुवनेश्वर से 350 किलोमीटर दूर साना बडा ढाबा में रहता है। ढाबा के मालिक साना नाइक ने कहा कि मंटू नामक उनका बकरा जन्म से ही इस ढाबे में रह रहा है और धीरे-धीरे इस बकरे को मांसाहारी व्यंजन खाने की लत लग गई। यहां इस बकरे को प्यार से मंटू कहकर पुकारा जाता है।

इस बकरे को घास पसंद नहीं है। यहां आने वाले ग्राहक जब बचा-खुचा गोश्त या हड्डी फेंकते हैं तो बकरा कुत्ते की तरह घूम- घूम कर उसका लुत्फ उठाता है। उन्होंने बताया कि इस बकरे को बकरों और मुर्गों का मांस काफी पसंद है।

इस बकरे की यह आदत ही उसके लिए प्राणरक्षक बन गई है। उन्होंने कहा कि उसकी इस विचित्र आदत से प्रभावित होकर हमने उसे नहीं मारने का फैसला किया है।

नाइक का मानना है कि इस बकरे के अनोखेपन से प्रभावित होकर भी ग्राहक उनके ढाबे में आते हैं। बकरे ने एक-दो बार बची-खुची शराब क्या चख ली, इसे शराब पीने की लत लग गई है।

शराब पीने के बाद यह स्वभाव से बंदर बन जाता है और अपने मालिक के इशारों पर एक से बढकर एक करतब दिखाता है। नाइक ने कहा कि अगर आप इस बकरे को मुर्दा बनने का निर्देश देंगे तो यह जमीन पर ऐसे लेट जाएगा जैसे मरा हुआ बकरा लेटा हुआ हो। जब आप इसे लड़ने का निर्देश देंगे तो वह दीवारों से टक्कर मारना शुरू कर देता है।

उसकी ऐसी शरारतों से ग्राहक प्रभावित हुए बगैर नहीं रहते। ऐसे में कई ग्राहक खुश होकर उसे मांस और शराब भी परोसते हैं।

यहां आने वाले एक ग्राहक सत्य मोहंती ने कहा कि यह बकरा इस होटल में आकर्षण का केंद्र बन गया है। मैं तो इसी बकरे से प्रभावित होकर यहां मन बहलाव के लिए खाना खाने आता हूं।
(साभार ः जोश१८)

देख लो भइया, ये हाल है तुम्हारी दुनिया का।




चीन के बीजिंग शहर में प्रदूषण का धुंध इस कदर छा गया है कि सड़क पर खड़े होकर बहुमंिजली इमारत का ऊपरी हिस्सा देखना मुश्किल हो गया है। चीन में अगले साल ओलंपिक खेल होने जा रहा है और उससे जुड़े अधिकारियों ने उद्योगों से होने वाले वायु प्रदूषण पर चेतावनी भी दी है।

Friday, October 26, 2007

सबूत लपेटकर फांसी पर लटकाया

satyendra




सीरियाः अलेपो के उत्तरी शहर में १८ से २३ साल के पांच युवकों को सार्वजनिक रूप से फांसी पर लटकाया गया।ये युवक हत्या के मामले में दोषी पाए गए थे। फांसी पर लटकाए गए युवकों के शरीर पर उनके अपराधों के बारे में विस्तृत रूप से लिखकर लपेट दिया गया था।

Thursday, October 25, 2007

जय हनुमान


Acapulco, - MEXICO : A cliff diver jumps from "La Quebrada" cliff in Acapulco, Mexico, on September 30th, 2007. The tradition of "La Quebrada" goes back to 1934, when two neighbours of Acapulco challenged themselves to demonstrate their courage and decided to measure their forces by throwing themselves to the sea from the stop of a cliff. The rivalry between those two men ended first in a reckless spectacle, and later in a form of earning a living. The myth of "La Quebrada" was born, and today it is almost a religion for its followers.

Tuesday, October 23, 2007

बीड़ी जलइले िजगर से पिया....




यूनान में शिक्षा के निजीकरण के िवरोध में सड़कों पर उतरे छात्र-छात्राओं का अनोखा विरोध

बड़ा पढ़वइया है रे ये तो


GERMANY : An Amazon employee packs the German version of the latest book of the Harry Potter series 'Harry Potter and the Deathly Hallows', authored by J. K. Rowling, 23 October 2007 at the Amazon logistic center in Bad Hersfeld, eastern Germany.

वाह भाई, क्या बात है !


सुंदरता का ऐसा पऱदर्शन देखकर युवा तो दांतों तले उंगिलयां दबाएंगे ही

पत्रकार का प्रेमपत्र



सत्येन्द्र प्रताप
सामान्यतया प्रेमपत्रों में लड़के -लड़िकयां साथ में जीने और मरने की कसमें खाते हैं, वादे करते हैं और वीभत्स तो तब होता है जब पत्र इतना लंबा होता है िक प्रेमी या प्रेिमका उसकी गंभीरता नहीं समझते और लंबे पत्र पर अिधक समय न देने के कारण जोड़े में से एक भगवान को प्यारा हो जाता है.
अगर पत्रकार की प्रेिमका हो तो वह कैसे समझाए। सच पूछें तो वह अपने व्यावसाियक कौशल का प्रयोग करके कम शब्दों में सारी बातें कह देगा और अगर शब्द ज्यादा भी लिखने पड़े तो खास-खास बातें तो वह पढ़वाने में सफल तो हो ही जाएगा.

पहले की पत्रकािरता करने वाले लोग अपने प्रेमपत्र में पहले पैराग्राफ में इंट्रो जरुर िलखेंगे. साथ ही पत्र को सजाने के िलए कैची हेिडंग, उसके बाद क्रासर, अगर क्रासर भी लुभाने में सफल नहीं हुआ तो िकसी पार्क में गलबिहयां डाले प्रेमिका के साथ का फोटो हो तो वह ज्यादा प्रभावी सािबत होगा और प्रेमिका के इमोशन को झकझोर कर रख देगा.
नया अखबारनवीस होगा तो उसमें कुछ मूलभूत परिवर्तन कर देगा. पहला, वह कुछ अंगऱेजी के शब्द डालेगा िजससे प्रेमिका को अपनी बात समझा सके. समस्या अभी खत्म नहीं हुई क्योंिक वक्त की भी कमी है और पढ़ने के िलए ज्यादा समय भी नहीं है. फोटो तो बड़ा सा डालना होगा िजससे पत्र हाथ में आते ही भावनाएं जाग जाएं. अगर फोटो का अभाव है तो इंट्रो कसा हुआ हो, साथ ही टेक्स्ट कम होना बेहद जरुरी है.

अलग अलग अखबारों के पत्रकार अलग अलग तरीके से प्रेमपत्र िलखेंगे. िहन्दुस्तान में होगा तो बाबा कामदेव का प्रभाव, भास्कर में हुआ तो फांट से अलग िदखने की कोिशश, जागरण का हुआ तो ठूंसकर टेक्स्ट भरेगा, नवभारत टाइम्स का हुआ तो अंगऱेजी झाड़कर अपनी बेचारगी दशाॆएगा, अगर आज समाज का हुआ तो हेिडंग के नीचे जंप हेड जरूर मारेगा, चाहे डबल कालम का लव लेटर हो या चार कालम का.

आम आदमी भी प्रेम पत्र िलखने के इन नुस्खों को अपना सकते हैं, िजससे प्रेमी प्रेमिका की आपसी समझ बढ़ेगी और प्यार में लव लेटर के खतरे से पूरी तरह से बचा जा सकेगा.

तो कामदेव की आराधना के साथ शुरु करिये प्रेमपत्र लिखना. सफलता के िलए शुभकामनाएं.

Saturday, October 6, 2007

स्कूप से कम नहीं रामकहानी सीताराम












सत्येन्द्र प्रताप
मधुकर उपाध्याय की 'राम कहानी सीताराम' एक ऐसे सिपाही की आत्मकथा है जिसने ब्रिटिश हुकूमत की ४८ साल तक सेवा की. अंगऱेजी हुकूमत का विस्तार देखा और आपस में लड़ती स्थानीय रियासतों का पराभव. सिपाही से सूबेदार बने सीताराम ने अपनी आत्मकथा अवधी मूल में सन १८६० के आसपास लिखी थी जिसमें उसने तत्कालीन समाज, अपनी समझ के मुताबिक़ अंग्रेजों की विस्तार नीति, ठगी प्रथा, अफगान युद्ध और १८५७ के गदर के बारे में लिखा है. अवधी में लिखी गई आत्मकथा का अंग्रेजी में अनुवाद एक ब्रिटिश अधिकारी जेम्स नारगेट ने किया और १८६३ में प्रकाशित कराया.
अंग्रेजी में लिखी गई पुस्तक फ्राम सिपाय टु सूबेदार के पहले सीताराम की अवधी में लिखी गई आत्मकथा इस मायने में महत्वपूर्ण है कि गद्य साहित्य में आत्मकथा है जो भारतीय लेखन में उस जमाने के लिहाज से नई विधा है. सीताराम ने अपनी किताब की शुरुआत उस समय से की है जब वह अंग्रेजों की फौज में काम करने वाले अपने मामा के आभामंडल से प्रभावित होकर सेना में शािमल हुआ। फैजाबाद के तिलोई गांव में जन्मे सीताराम ने सेना में शामिल होने की इच्छा से लेकर सूबेदार के रूप में पेंशनर बनने के अपने अड़तालीस साल के जीवनकाल की कथा या कहें गाथा लिखी है जिसमें उसने अपने सैन्य अभियानों के बारे में विस्तार से वर्णन किया है.
सीताराम बहुत ही कम पढ़ा लिखा था लेकिन जिस तरह उसने घटनाओं का वर्णन िकया है, एक साहित्यकार भी उसकी लेखनी का कायल हो जाए. भाषा सरस और सरल के साथ गवईं किस्से की तरह पूरी किताब में प्रवाहित है. एक उदाहरण देिखए...
सबेरे आसमान िबल्कुल साफ था। दूर दूर तक बादल दिखाई नहीं दे रहे थे। मुझे याद है, वह १० अक्टूबर १९१२ का िदन था। सबेरे छह बजे मैं मामा के साथ िनकला,एक ऐसी दुनिया में जाने के िलए, जो मेरे लिए बिल्कुल अनजान थी. हम िनकलने वाले थे तो अम्मा ने मुझे िलपटा िलया, चूमा और कपड़े के थैले में रखकर सोने की छह मोहरें पकड़ा दीं. अम्मा ने मान िलया था िक मुझसे अलग होना उनकी किस्मत में लिखा है और वह िबना कुछ बोले चुपचाप खड़ी रहीं. सिसक-सिसक कर रोती रहीं. घर से चला तो मेरे पास सामान के नाम पर घोड़ी, मोहरों वाली थैली, कांसे का एक गहरा बर्तन, रस्सी -बाल्टी, तीन कटोिरयां, लोहे का एक बर्तन और एक चम्मच, दो जोड़ी कपड़े, नई पगड़ी, छोटा गंड़ासा और एक जोड़ी जूते थे.
सीताराम की आत्मकथा में किताब में अंग्रेजों के नाम भी भारतीय उच्चारण के साथ ही बदले-बदले नजर आते हैं, मसलन अजूटन साहब,अडम्स साहब, बर्रमपील साहब, मरतिंदल साहब... आिद आिद. हालांिक कथाक्रम और खासकर अफगान और ठगों के िखलाफ अभियान के बारे में िजस तरह पुख्ता और ऐितहािसक जानकारी दी गई है उसे पढ़कर यह संदेह होता है कि एक कम पढ़े िलखे और िसपाही के पद पर काम करने वाला आदमी ऐसी िकताब सकता है.
आलोचकों ने इस पुस्तक के बारे में यहां तक कहा है कि यह Fabricated & False है. इस िकताब में तमाम ऐसे तथ्य हैं जो यह िसद्ध करते हैं िक लेखक की स्थानीय संस्कृति में गहरी पैठ थी। मसलन समाज में छुआछूत और शुद्धि का प्रकरण..इस तरह का वर्णन सीताराम ने कई बार किया है...
एक रोज शाम को मैं अपने घायल होने का िकस्सा सुना रहा था. उसी में जंगल में भैंस चराने वाली लड़की का जिक्र आया, जिसने पानी पिलाकर मेरी जान बचाई थी. पुजारी जी मेरी बात सुन रहे थे। बोले िक मैनें जैसा बताया, लगता है वह लड़की बहुत नीची जाति की थी और उसका िनकाला पानी पीने से मेरा धर्म भ्रष्ट हो गया।मैने बहुत समझाया कि बर्तन मेरा था लेिकन वह जोर-जोर से बोलने लगे और बहुत सी उल्टी-सीधी बातें कही. देखते-देखते बात पूरे गांव में फैल गई. हर आदमी मुझसे कटकर रहने लगा। कोई साथ हुक्का पीने को तैयार नहीं. मैं पुजारी पंडित दिलीपराम के पास गया। उन्होंने भी बात सुनने के बाद कहा कि मेरा धर्म भ्रष्ट हो गयाऔर मैं जात से गिर गया. वह मेरी बात सुनने को तैयार नहीं थे. मुझपर अपने ही घर में घुसने पर पाबंदी लगा दी गई. मैं दुखी हो गया. बाबू ने बहुत जोर लगाकर पंचायत बुलाई और कहा कि फैसला पंचों को करना चािहए. बाद में पंडित जी लोगों ने पूजा-पाठ किया, कई दिन उपवास कराया और तब जाकर मुझे शुद्ध माना गया। ब्राहमणों को भोज-भात कराने और दक्षिणा देने में सारे पैसे खत्म हो गए जो मैने चार साल में कमाए थे.
यह वर्णन उस समय का है जब सीताराम िपंडारियों से युद्ध करते हुए घायल होने के बाद घर लौटा था. संभवतया इस तरह का बर्णन वही व्यक्ति कर सकता है िजसने उस समाज को जिया हो. ( मुझे अपने गांव में १९८५ में हुई एक घटना याद आती है जब मैं दस साल का था और महज पांचवीं कक्षा का छात्र था। गांव के ही दुखरन शुक्ल की िबटिया, बिट्टू मुझसे दो साल वरिष्ठ। महज सातवीं कक्षा की छात्रा थी. उसकी एक प्रिय बछिया थी जो बीमारी के चलते घास नहीं चर रही थी. उसने गुस्से में आकर बछिया को मुंगरी से मार िदया. बाद में उसने वह घटना मुझे भी बताई. वह बहुत दुखी थी कि आिखर उसने अपनी प्रिय बछिया को क्यों मारा. बाद में उसने कुछ और बच्चों से कह िदया। छह महीने बाद बछिया मर गई. धीरे धीरे गांव में यह चर्चा फैली कि ...िबट्टुआ बछिया का मुंगरी से मारे रही यही से बछिया मरि गै है... पहले बच्चे उसे अशुद्ध मानकर तरजनी पर मध्यमा उंगली चढाते थे िक उसके छूने से अपवित्र न हो जाएं. बाद में समाज ने बिट्टू का हुक्का पानी बंद कर दिया. मैने अम्मा से पूछा था िक वो तो हुक्का पीती ही नहीं तो उसका हुक्का कैसे बंद किया? मुझे बताया गया िक उसे पाप का भागी मानकर समाज से वहिष्कृत कर िदया गया है. जब उसके पिता से कहा गया कि उसको शुद्ध करने के िलए भोज करें तो वे भोज देने की हालत में नहीं थे. समाज ने दुखरन सुकुल के पूरे परिवार का हुक्का पानी बंद कर दिया. लड़की की शादी की बात आई. समाज ने उस परिवार का बहिष्कार कर दिया था. पंडित जी को मजबूरन हुक्का पानी खोलवाने के िलए भोज देना पड़ा। मुझे याद है िक भोज के िलए पैसा कमाने वे पंजाब के िकसी िजले में मजदूरी करने गए थे.)
िकताब में अंग्रेजों की फौज और उनके िनयमों की भूिर-भूिर प्रशंसा की गई है. सीताराम ने खुद भी कहा है िक उसने वह िकताब नारगेट के कहने पर िलखी थी. साथ ही भारत में नमक का कर्ज अदा करने की परम्परा रही है. ऐसे में भले ही उसका बेटा िवद्रोह के चलते गोिलयों का िशकार हुआ लेिकन सीताराम उसे ही रास्ते से भटका हुआ बताता है. हालांिक अपनी आत्मकथा में उसने तीन बार इस बात पर आश्चर्य जताया है िक अंग्रेज बहादुर िकसी दुश्मन को जान से नहीं मारते ऐसी लड़ाई से क्या फायदा.
रामकहानी सीताराम, भारतीय समाज और संस्कृित, तत्कालीन इितहास के बारे में एक आम िसपाही की सोच को व्यक्त करती है। पुस्तक इस मायने में भी महत्वपूर्ण हो जाती है िक यह अवधी भाषा में िलखी गई आत्मकथा की पहली पुस्तक है.
इस िकताब के लेखक की िवद्वत्ता के बारे में अगर िवचार िकया जाए तो भारतीय समाज में ऐसे तमाम किव, लेखक हुए हैं िजन्होंने मामूली िशक्षा हािसल की थी लेिकन समाज के बारे में शसक्त िंचंतन िकया. अवधी भाषा में कृष्ण लीला के बारे में गाया जाने वाला वह किवत्त मुझे याद है जो बचपन में मैने सुनी थी.
हम जात रिहन अगरी-डगरी,
िफर लउिट परिन मथुरा नगरी.
मथुरा के लोग बड़े रगरी,
वै फोरत हैं िसर की गगरी..
आम लोगों द्वारा गाई जाने वाली यह किवता भी शायद िकसी कम पढ़े िलखे व्यिक्त ने की होगी, लेिकन ग्राह्य और गूढ़ अथॆ वाली हैं ये पंिक्तया.
सीताराम ने इस पुस्तक में अंग्रेजों द्वारा िहन्दुस्तािनयों से दुर्व्यवहार का भी वर्णन िकया है। साथ ही वह पदोन्नित न िदए जाने को भी लेकर खासा दुखी नजर आता है। अंितम अध्याय में तो उसने न्यायप्रिय कहे जाने वाले अंग्रेजी शासन की बिखया उधेड़ दी है. उसने कारण भी बताया है िक भारतीय अिधकारी क्यों भ्रष्ट हैं. िकताब में एक जगह लेखक ने अंग्रेजों के उस िरवाज का वर्णन िकया है िजसमें दो अंग्रेजों के बीच झगड़ा होने पर वे एक दूसरे पर गोली चलाते हैं. यह िकताब सािहत्य जगत, समाजशास्त्र और इितहास तीनों िवधाओं के िलए महत्वपूर्ण है.
पुस्तक में मधुकर जी ने बहुत ही ग्राह्य िहंदी का पऱयोग िकया है जो पढ़ने और समझने में आसान है.
पुस्तक : रामकहानी सीताराम
लेखक : मधुकर उपाध्याय
मूल्य : ६० रुपये
प्रकाशक : वाणी प्रकाशन

Saturday, September 29, 2007

बड़े पत्रकारों की यौन कुंठा का आिखर दवा क्या है


सत्येन्द्र प्रताप

एक राष्ट्रीय अखबार केस्थानीय संपादक के बारे में खबर आई िक वे लड़की के साथ रंगरेिलयां बनाते हुए देखे गए।कहा जा रहा है िक क्लाउन टाइम्स नाम से िनकलने वाले एक स्थानीय अखबार के रिपोर्टर ने खबर भी फाइल कर दी थी। हालांिक इस तरह की खबरें अखबार और चैनल की दुनिया में आम है और आए िदन आती रही हैं। लेिकन िदल्ली और बड़े महानगरों से जाकर छोटे शहरों में पत्रकािरता का गुर िसखाने वाले स्थानीय संपादकों ने ये खेल शुरु कर दिया है । राष्ट्रीय चैनलों के कुछ नामी िगरामी हस्तियों के तो अपने जूिनयर और ट्रेनी लड़कियों के तो एबार्शन कराए जाने तक की कनफुसकी होती रहती है।
खबर की दुिनया में जब अखबार में किसी लड़के और लड़की के बारे में रंगरेिलयां मनाते हुए धरे गए, खबर लगती है तो उन्हें बहुत हेय दृष्टि से देखा जाता है।लेिकन उन िविद्वानों का क्या िकया जाए जो नौकरी देने की स्थिति में रहते हैं और जब कोई लड़की उनसे नौकरी मांगने आती है तो उसके सौन्दर्य को योग्यता का मानदंड बनाया जाता है और अगर वह लड़की समझौता करने को तैयार हो जाती है तो उसे प्रोन्नति मिलने और बड़ी पत्रकार बनने में देर नहीं लगती।
एक नामी िगरामी तेज - तर्रार और युवा स्थानीय संपादक के बारे में सभी पत्रकार कहते हैं िक वह ले-आउट डिजाइन के निर्विवाद रुप से िवशेषग्य हैं, हरिवंश जी के प्रभात खबर की ले आउट उन्होंने ही तैयार की थी लेिकन साथ ही यह भी जोड़ा जाता है िक वह बहुत ही रंगीन िमजाज थे, पुरबिया अंदाज में कहा जाए तो, लंगोट के कच्चे थे।
महिलाओं के प्रति यौन िंहसा की खबर तमाम प्राइवेट और सरकारी सेक्टर से आती है। न्यायालय से लेकर संसद तक इस मुद्दे पर बहस भी होती है। लेिकन नतीजा कुछ भी नहीं । अगर कुंिठत व्यक्ति उच्च पदासीन है तो मामले दब जाते हैं और अगर कोई छोटा आदमी है तो उसे पुिलस भी पकड़ती है और अपमािनत भी होना पड़ता है।
अगर पत्रकारिता की बात करें तो जैसे ही हम िदल्ली मुंबई जैसे महानगरों से बाहर िनकलते हैं तो खबरों के प्रति लोगों का नजरिया बहुत ही पवित्र होता है। लोग अखबार में भी खबरें ही पढ़ना चाहते हैं जो उनके जीवन और उनके िहतों से जुड़ी हों, सनसनी फैलाने वाली सामग्री कोई भी पसंद नहीं करता। पत्रकारों के प्रति लोगों का नजिरया भी अच्छा है और अखबार के माध्यम से वे अपनी समस्याओं का समाधान चाहते हैं। अगर रंगरेिलयां जैसी खबरें वे अपने पूज्य संपादकों या पत्रकारों के बारे में सुनते या पढ़ते हैं तो उनका नजरिया भी बदल जाता है। हालांिक महानगरों में िहक्की गजट टाइप के ही अखबार छपते हैं जिसमें फिल्मी नायक नायिकाओं के प्रसंग छपते हैं।
यौनकुंिठत उच्चपदों पर बैठे पत्रकारों वरिष्ठ पत्रकारों की कुंठा का कोई हल नजर नहीं ता। बार बार कहा जा रहा है कि प्रतिस्पर्धा बढ़ रही है , योग्य लोगों की जरुरत है, लेकिन वहीं बड़े पदों पर शराब और शबाब के शौकीन वृद्ध रंगीलों के िकस्से बढ़ते ही जा रहे हैं।

Wednesday, September 26, 2007

ये क्या क्रिकेट-क्रिकेट लगा रखा है?


सत्येन्द्र प्रताप
पहले टेस्ट मैच बहुत ही झेलाऊ था, फिर पचास ओवर का मैच शुरु हुआ, वह भी झेलाऊ सािबत हुआ तो २०-२० आ गया। क्या खेल है भाई। भारत पािकस्तान का मैच जोहान्सबर्ग में और सन्नाटा िदल्ली की सड़कों पर । मुझे तो इस बत की खुशी हुई िक आिफस से िनकला तो खाली बस िमल गई, सड़क पर सन्नाटा पसरा था।मोहल्ले में पहुंचा तो पटाखों के कागज से सड़कें पट गईं थीं और लोग पटाखे पर पटाखे दागे जा रहे थे।
अरे भाई कोई मुझे भी तो बताए िक आिखर इस खेल में क्या मजा है? कहने को तो इस खेल में २२ िखलाड़ी होते हैं , लेिकन खेलते दो ही हैं। उसमें भी एक लड़का जो गेंद फेकता है वह कुछ मेहनत करता है,दूसरा पटरा नुमा एक उपकरण लेकर खड़ा रहता है। फील्ड में ग्यारह िखलाड़ी बल्लेबाजी कर रहे िखलाड़ी का मुंह ताकते रहते हैं कि कुछ तो रोजगार दो ।
खेल का टाइम भी क्या खाक कम िकया गया है? हाकी और फुटबाल एक से डेढ़ घंटे में निपट जाता है और उसपर भी जो खेलता है उसका एंड़ी का पसीना माथे पर आ जाता है यहां तो भाई लोग मौज करते हैं। हां, धूप मेंखड़े होकर पसीना जरुर बहाते हैं। वैसे अगर जाड़े का वक्त हुआ तो धूप में खड़े होना भी मजेदार अनुभव हो जाता है। बस खड़े रहो और लोगों का मुंह िनहारते रहो। हालांिक िरकी पांिटग जैसे िखलाड़ी जब खड़े-खड़े बोर हो जाते हैं तो वहीं अपनी जगह पर कूदने लगते हैं।
िखलाड़ी भी अजीब-अजीब होते हैं। पहले वाल्श और एंब्रोज थे, दोनों िमलकर बारह ओवर फेंक देते थे और रोजगार देते थे िवकेट कीपर को , बैिटंग करने वाला बंदा तो अपना मुंह हाथ पैर बचाने में ही लगा रहता था। रािबन भाई को कैसे भुलाया जा सकता था, अगर कभी गलती से पचास रन बना िदया मुंह से झाग फेंक देते थे, लगता था कि बेचारे ने मेहनत की है। पािकस्तान के एक भाई साहब थे इंजमाम, क्या कहने , उन्हें तो दौड़ने में भी आलस आता था। ज्यादातर वे आधी िपच तक पहुंचते और उन्हें मुआ अंपायर उंगली कर देता था। वो भी समझ नहीं पाते कि आिखर क्या दुश्मनी है उनसे।
अब तो िवग्यापन कंपनियों की बांछें िखल गई हैं क्योंिक तीन घंटे के क्रिकेट का बुखार भारत के युवकों पर चढ़ गया है। िवश्वकप में भारत पािकस्तान की दुर्दशा से तो उनका दिवाला िनकल गया था। अब आर्थिक अखबारों में सर्वे पर सर्वे आ रहा है िक बड़ा मजा है इस क्रिकेट में। कंपनियों की भी बल्ले-बल्ले है.
हालांिक अगर क्रिकेट को २०-२० की जगह पर दो िखलाड़ियों का मैच कर दिया जाए तो मजा दुगुना हो जाए। अगर सामने लांग आन और लांगआफ पर गेंद जाए तो गेंदवाज उसे पकड़ कर लाए और अगर लेग आन लेग आफ और पीछे की ओर गेंद जाए तो बल्लेबाज उसे पकड़ कर लाए। ये मैच पांच ओवर में ही िनपट जाएगा और िखलाड़ी खेलते हुए भी लगेंगे। दस बीस हजार का टिकट लगाकर क्रिकेट के दीवानों को फील्ड के बाहरी िहस्से पर फील्डिंग के लिए भी लगाया जा सकता है।साथ ही िनयमों में भी बदलाव की जरुरत है। पीछे गेंद जाने पर बालर को रन िमले और आगे की ओर गेंद जाने पर बैट्समैन को ... वगैरा वगैरा। अगर इस तरह का क्रिकेट होने लगे तो सही बताएं गुरु मुझे भी देखने में मजा आ जाए।

Wednesday, September 19, 2007

दमन का दौर और ईरान में मानवाधिकार


सत्येन्द्र प्रताप
नोबेल
शांति पुरस्कार से सम्मानित शीरीन ऐबादी ने आजदेह मोआवेनी के साथ मिलकर "आज का इरान - क्रान्ति और आशा की दास्तान" नामक पुस्तक मे इरान के चार शाशन कालों का वर्णन किया है . शीरीन ने ईरान में शासन के विभिन्न दौर देखे हैं।वास्तव में यह पुस्तव उनकी आत्मकथा है, जिसने महिला स्वतंत्रता के साथ ईरान के शाशकों द्वारा थोपे गए इस्लामी कानून के दंश को झेला है। विद्रोह का दौर और जनता की आशा के विपरीत चल रही सरकार औऱ ईराकी हमले के साथ-साथ पश्चिमी देशों के हस्तक्षेप का खेल, ईरान में चलता रहा है। कभी जिंदा रहने की घुटन तो कभी इस्लामी कानूनों के माध्यम से ही मानवाधिकारों के लिए संघर्ष का एक लंबा दौर देखा और विश्व के विभिन्न देशों के मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का सम्मान पाते हुए एबादी को विश्व का सबसे सम्मानपूर्ण ...नोबेल शान्ति पुरस्कार... मिला।

किताब की शुरुआत उन्नीस अगस्त १९५३ से हुई है जब लोकप्रिय मुसादेघ की जनवादी सरकार का तख्ता पलट कर शाह के समर्थकों ने राष्ट्रीय रेडियो नेटवर्क पर कब्जा जमा लिया। एबादी का कहना है कि इसके पीछे अमेरिका की तेल राजनीति का हाथ था।एबादी ने धनी माता पिता और उनके खुले विचारों का लाभ उठाया और मात्र तेइस साल की उम्र में कानून की डिग्री पूरी करके जज बनने में सफल रहीं। उस दौर में शाह की सरकार के विरोध चल रहे थे और खुफिया पुलिस ...सावाक... का जनता के आम जीवन में जबर्दस्त हस्तक्षेप था। हर आदमी खुफिया पुलिस की नज़र में महसूस करता था।

सन उन्नीस सौ सत्तर के बाद शाह के शाशन का विरोध बढ़ता जा रहा था और लोग खुलकर सत्ता के विरोध में आने लगे थे । १९७८ की गर्मियों में शाह का विरोध इतना बढ़ा कि रमजान के अंत तक दस लाख लोग सड़कों पर उतर आए। विरोधियों का नेतृत्व करने वाले अयातु्ल्ला खोमैनी ने बयान दिया कि लोग सरकारी मंत्रालय में जाकर मंत्रियों को खदेड़ दें। एबादी कहती हैं कि एक जज होने के बावजूद जब वे विरोधियों के पक्ष में आईं तो कानून मंत्री ने गुस्से से कहा कि तुम्हे मालूम है कि आज तुम जिनका साथ दे रही हो वे कल अगर सत्ता में आते हैं तो तुम्हारी नौकरी छीन लेंगे? शीरीन ने कहा था कि ... मैं एक मुक्त ईरानी जिन्दगी जीना चाहूंगी, गुलाम बनाए वकील की नहीं...। हालात खराब होते देखकर १६ जनवरी १९७९ की सुबह शाह देश के बाहर चले गए औऱ साथ में एक छोटे से बक्से में ईरान की मिट्टी भी ले गए। खुशियां मनाते ईरानियों के बीच शाह के चले जाने के सोलह दिन बाद १ फरवरी १९७९ को अयातुल्ला खोमैनी ने एयर फ्रांस से चलकर ईरान की धरती पर पांव रखा। क्रांति का पहला कड़वा स्वाद ईरान की महिलाओं ने उस समय चखा जब नए सत्ताधारियों ने स्कार्फ से सिर ढ़कने का आह्वान किया। यह चेतावनी थी कि क्रांति अपनी बहनों को खा सकती है(क्रांति के दौर में औरतें एक दूसरे को बहन कहकर पुकारती थीं)। शीरीन को भी कुछ ही दिनों में क्रांति का दंश झेलना पड़ा, क्योंकि सत्तासीन सरकार ईरान में महिला जजों को बर्दाश्त नहीं कर सकती थी। उन्हें न्याय की कुर्सी से हटाकर मंत्रालय में क्लर्क की भांति बैठा दिया गया। खोमैनी के शाशन में ही ईराक ने साम्राज्यवादी विस्तार का उद्देश्य लेकर इरान पर हमला किया और ईरान ने बचाव करने के लिए जंग छेड़ी। लंबे चले इस युद्ध में धर्म के नाम पर छोटे-छोटे बच्चों को भी युद्ध में झोंका गया। विदेशी हमला तो एक तरफ था, अपनी ही सरकार ने मुजाहिदीन ए खलग आरगेनाइजेशन(एम के ओ) के नाम से खोमैनी सरकार का विरोध कर रहे लोगों को कुचलने में अपनी पूरी ताकत झोंक दी। सरकार द्वारा एम के ओ के सदस्यों के संदेह में हजारों लोगों को मौत के घाट उतार दिया, हर तरह से कानून की धज्जियां उड़ाई जाती रहीं। शीरीन कहती हैं कि उस दौर में भी उन्होंने इस्लामी कानून के हवाले से ही ईरान की खोमैनी सरकार का विरोध किया। बिना मुकदमा चलाए शीरीन के नाबालिग भतीजे को एमकेओ का सदस्य बताकर फांसी पर चढ़ा दिया गया।जजों की कुर्सियों पर अनपढ़ धर्माधिकारियों का कब्जा हो चुका था।

इस बीच शीरीन, अपने खिलाफ चल रहे षड़यंत्रों और फंसाने की कोशिशों का भी जिक्र करती हैं जो पुस्तक को जीवंत औऱ पठनीय बनाता है। मानवाधिकारों की रक्षा करने की कोशिशों के दौरान उनके पास इस्लामी गणतंत्र के एजेंट भेजे जाते रहे। घुटन के माहौल और दमन के दौर के बीच तेईस मई १९९७ को इस्लामी गणतंत्र को दूसरा मौका देने के लिए इरानी जनता ने मतदान किया।राष्ट्रपति के चुनाव में मोहम्मद खातमी को चुनाव लड़ने के लिए किसी तरह मुल्लाओं ने स्वीकृति दे दी।ईरान की जनता ने शान्ति से इसे उत्सव के रुप में लिया औऱ अस्सी फीसदी लोगों ने खातमी के पक्ष में मतदान कर सुधारों की जरुऱत पर मुहर लगा दी। हालांकि खातमी सुधारवादी हैं लेकिन इसके बावजूद आम लोगों की आशाओं के मुताबिक सुधार कर पाने में सक्षम नहीं हैं।शीरीन का कहना है कि पहले की तुलना में आम लोगों का दमन कुछ कम जरुर हुआ है लेकिन तानाशाह परम्परावादी विभिन्न षड़यंत्रों के माध्यम सुधार की रफ्तार को पीछे ढ़केलने से नहीं चूकते। इस पुस्तक में बड़ी साफगोई से शीरीन ने न केवल निजी जीवन, बल्कि सत्ता के परिवर्तनों को नज़दीक से देखते हुए साफगोई से देश की हालात पेश करने की कोशिश की है। मीडिया के स्थानीयकरण के इस दौर में निकट पड़ोसी ईरान के बदलते दौर को देखने में ये किताब पाठकों के लिए सहायक साबित होगी। साथ ही आतंकवाद औऱ स्वतंत्रता पर इस्लामी रवैये और मुस्लिम कानूनों में मानवाधिकारों की रक्षा के अध्याय की पूरी जानकारी देती है।

पुस्तक परिचय
किताब- आज का ईरान , लेखिकाः शीरीन एबादी


Friday, September 14, 2007

पाकिस्तान में खुफिया एजेंसी आई एस आई की समानान्तर सरकार चलती है- नवाज


सत्येन्द्र प्रताप
पाकिस्तान के अखबार दैनिक जंग के राजनीतिक संपादक सुहैल वड़ाएच ने.. गद्दार कौन - नवाज शरीफ की कहानी उनकी जुबानी.. पुस्तक में पाकिस्तान के पूर्व प्रधानमंत्री नवाज शरीफ और उनके करीबियों के साक्षात्कारों को संकलित किया है. इस पुस्तक में नवाज शरीफ ,उनके छोटे भाई और पंजाब के मुख्यमंत्री रहे शहबाज शरीफ, नवाज की बेगम कुलसुम नवाज ,पुत्र हुसैन नवाज छोटे बेटे हसन नवाज, नवाज के करीबी सेनाधिकारी- सेना सचिव ब्रिगेडियर जावेद मलिक और दामाद कैप्टन सफदर के साछात्कार शामिल हैं.
पुस्तक में बड़ी बेबाकी से पाकिस्तान की आंतरिक स्थिति और विदेशी संबंधों में झांकने की कोशिश की गई है. साथ ही भारत से अलग होने और पाकिस्तान के निर्माण से लेकर आज तक, सत्ता और विदेशनीति में आई एस आई की भूमिका के बारे में पूर्व प्रधानमंत्री की राय जानने की कोशिश है. नवाज पर संपत्ति अर्जित करने और सत्ता के दुरुपयोग पर भी उनकी राय जानने की स्पस्ट कोशिश की गई है । ये साछात्कार उस समय लिए गए हैं जब नवाज, जद्दा और लंदन में निर्वासित जीवन बिता रहे थे.
पुस्तक के पहले अध्याय में नवाज शरीफ द्वारा पाकिस्तान में परमाणु परीक्षण किए जाने के फैसले पर सवाल किए गए हैं. उस समय सेना के चीफ आफ आर्मी स्टाफ जनरल जहांगीर करामत थे. नवाज ने परमाणु विस्फोट करने से पहले उनसे राय मांगी थी. नवाज का कहना है कि जनरल जहांगीर इस मामले में काफी उहापोह की हालत में थे और प्रतिबंधों को लेकर खासे चिंतित थे. वावजूद इसके, नवाज ने धमाके करने का निर्णय लिया.
भारत- पाक संबंधों पर नवाज का कहना है कि उन्होंने भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी से बैकडोर चैनल बनाकर बातचीत शुरु की थी और वातचीत के सकारात्मक परिणाम थे लेकिन इसमें भी सेना और आई एस आई ने खासी अडंगेबाजी की ।उनका मानना है कि युद्ध से भारत और पाकिस्तान के बीच चल रहा कश्मीर विवाद कभी नहीं सुलझ सकता है.
परमाणु विस्फोटों के बाद जनरल जहांगीर करामत को हटाकर परवेज मुशर्रफ को चीफ आफ आर्मी स्टाफ बनाने का फैसला भी नवाज का ही था. सत्ता से हटाए जाने के बाद नवाज स्वीकार करते हैं कि परवेज मुशर्रफ को सेना प्रमुख बनाया जाना जल्दबाजी में किया गया फैसला था, जिसमें तीन सेनाधिकारियों की वरिष्ठता का ध्यान न रखते हुए उन्होने मुशर्रफ को सेना प्रमुख बना दिया था.
नवाज शरीफ का कहना है कि मुशर्रफ को सेना प्रमुख पद से हटाए जाने के समय स्थितियां बेहद प्रतिकूल थीं। सेना ने उन्हें जानकारी दिए बिना कश्मीर में सेनाएं भेज दीं और करगिल की चोटियों पर सेना ने कब्जा जमा लिया. नवाज का कहना है कि कारिगल में सेना के भारतीय सेना से लड़ाई के बारे में सूचना उन्हें भारतीय प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी से मिली थी।इसके पहले हमें यही बताया जाता रहा कि वहां मुजाहिदीन लड़ रहे हैं. जब भारतीय सेनाओ ने बमबारी शुरु की तो मुशर्रफ भागे-भागे आए और कहा कि हमें बचा लीजिए। इसके बाद ही उन्हें प्रोत्साहन देने के लिए मोर्चे पर जाना पड़ा और युद्ध को रोकने के लिए अमेरिका के राष्टपति के पास जाना पड़ा। पाकिस्तानी सेना लगातार चौकियां खो रही थी और उनके पास कोई संसाधन नहीं थे. इस हालात में भी भारत को युद्ध रोकना पड़ा. हमने उस समय अटल बिहारी वाजपेयी को नीचा दिखाया ( इसी साक्षात्कार के बाद भारत में विपक्षी दलों ने तत्कालीन प्रधानमंत्री का कड़ा विरोध किया था).
नवाज शरीफ ने अपने एक साछात्कार में बड़ी बेबाकी से कहा है कि पाकिस्तान की खुफिया एजेंसी आई एस आई बेलगाम हो गई है और राजनीतिक नेतृत्व से किसी तरह का राय नहीं लेती. पाकिस्तान में गलत काम तो खुफिया एजेंसियां करती हैं और उसका जबाब सरकार को देना पड़ता है. जिस भी देश में पाकिस्तान का नेता जाता है, उससे यही कहा जाता है कि आई एस आई विभिन्न हरकतें कर रही है. आई एस आई की मीटिंग में तो एक वरिष्ठ अधिकारी ने ये भी राय दे डाली कि देश की आर्थिक हालात को सुधारने के लिए सरकार की सरपरस्ती में ड्रग्स विदेशों में भेजी जाएं. सैनिक सत्ताओं के बार-बार सत्ता हथियाने के चलते ऐसा हुआ है. इस प्रवृत्ति को खत्म करने की जरुरत है.
नवाज के छोटे भाईशहबाज शरीफ ने बातचीत के दौरान पाकिस्तान से बाहर जाने,सउदी अरब से डील और पंजाब प्रांत का मुख्यमंत्री बनाए जाने सहित विभिन्न मुद्दों पर बातचीत हुई. इसमें पंजाब प्रांत के नेता और नवाज के पारिवारिक मित्र चौधरी सुजात हुसेन से मतभेदों का मुद्दा शामिल रहा. साथ ही मुस्लिम कानूनों और उसपर मौलवियों से मतभेदों के बारे में भी बेबाकी से बातचीत हुई है.
इस किताब में बेगम कुलसुम नवाज से लिए गए वे इंटरव्यू शामिल हैं जो २००० में लाहौर,२००१ में जद्दा और २००६ में लंदन प्रवास के दौरान किए गए. कुलसुम ने उस समय मोर्चा संभाला था जब नवाज शरीफ को जेल में बंद कर दिया गया। कुलसुम का राजनीति में कभी हस्तछेप नहीं रहा और आज भी वे इस पर कायम हैं कि वे राजनीति में नहीं आएंगी. हालांकि सेना के दमन के दौर में उन्होंने अपनी पार्टी की कमान संभाली और जनता को बखूबी समझाया कि सेना ने टेकओवर कर के गलत किया है.
नवाज शरीफ के पुत्र हुसेन नवाज ने अपने साक्षात्कार के दौरान कहा है कि वे सेना द्वारा टेकओवर किए जाने के समय अपने पिता के साथ मौजूद थे. उन्होने मुशर्रफ को हटाए जाने वाले पत्र के मसौदे में भी अपनी राय दी थी. छोटे भाई हसन नवाज उन दिनों लंदन में पढ़ाई कर रहा था. जब उसे टेकओवर की सूचना मिली कि टेकओवर हो गया है और नवाज को बंदी बना लिया गया है जो सउदी अरब सहित नवाज के सभी मित्र देशों में तत्काल संपकर्क किया और पूरे मामले को मीजिया के सामने ले आए.
ब्रिगेडियर जावेद मलिक, नवाज सरकार में सेना सचिव के पद पर काम कर रहे थे। वे भी नवाज सरकार की जर नीतियों का बचाव करते नजर आते हैं।। कारिगल के बारे में उन्होने कहा कि जबनवाज शरीफ नेवाजपेयी के साथ लाहौर घोषणापत्र पर हस्ताछर किया तो पाकिस्तान की सेना ने दराज और कारिगल पर कब्जा जमा लिया था या कब्जे की तैयारी में थे. उनके मुताबिक सेना का ये फैसला मूर्खतापूर्ण था।पाकिस्तान की सेना का मानना है कि अगर वे दराज कारगिल का रास्ता रोक देंगे तो भारत को दबाव में लेना आसान हो जाएगा लेकिन ये तर्क मूर्खतापूर्ण था. साथ ही उन्होंने कहा कि सेना, पाकिस्तान के प्रधानमंत्री की जासूसी भी करती रहती है. नवाज के सुर में सुर मिलाते हुए उन्होंने कहाकि कारगिल में जांच के डर से सेना प्रमुख ने टेकओवर कर लिया. इस किताब में दामाद कैप्टन सफदर का भी साक्षात्कार दर्ज है जिसमें उन्होंने नवाज को बेद नरमदिल और देश की चिंता करने वाला प्रधानमंत्री बताया है.
कुल मिलाकर इस किताब में साछात्कारों के माध्यम से नवाज ने सेना सरकार के आरोपों से खुद का जोरदार बचाव तो किया ही है। सेना के स्टेबलिशमेंट सेल की तानाशाही, बेलगाम आई एस आई, और विदेश नीति पर खुलकर चर्चा की है. पाकिस्तान की राजनीति का एक पहलू जानने के लिए ये किताब बेहद उपयोगी है जिसमें नवाज शरीफ की ओर से शासन में सेना के हस्तछेप और उससे होने वाली हानियों कीबेबाक चर्चा की गई है. पुस्तक से सुहैल वडाएच की पत्रकारीय छमता भी उभरकर सामने आई है और उन्होंने सैकड़ों सवालों के माध्यम से हर पहलू को छूने की कोशिश की है.

किताबः गद्दार कौन-नवाज शरीफ की कहानी, उनकी जुबानी
लेखकः सुहैल वड़ाएच

Saturday, September 8, 2007

ये कैसा प्यार?


और भी सुंदरता है इस दुनियां में कुत्ते के सिवा

Thursday, September 6, 2007

हीनभावना कर रही है हिंदी की दुर्दशा


सत्येन्द्र प्रताप

आजकल अखबारनवीसों की ये सोच बन गई है कि सभी लोग अंग्रेजी ही जानते हैं, हिंदी के हर शब्द कठिन होते हैं और वे आम लोगों की समझ से परे है. दिल्ली के हिंदी पत्रकारों में ये भावना सिर चढ़कर बोल रही है. हिंदी लिखने में वे हिंदी और अन्ग्रेज़ी की खिचड़ी तैयार करते हैं और हिंदी पाठकों को परोस देते हैं. नगर निगम को एम सी डी, झुग्गी झोपड़ी को जे जे घोटाले को स्कैम , और जाने क्या क्या.यह सही है कि देश के ढाई िजलों में ही खड़ी बाली प्रचलित थी और वह भी दिल्ली के आसपास के इलाकों में. उससे आगे बढने पर कौरवी, ब्रज,अवधी, भोजपुरी, मैथिली सहित कोस कोस पर बानी और पानी बदलता रहता है. लम्बी कोशिश के बाद भारतेंदु बाबू, मुंशी प्रेमचंद,आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, जयशंकर प्रसाद जैसे गैर हिंदी भाषियों ने हिंदी को नया आयाम दिया और उम्मीद थी कि पूरा देश उसे स्वीकार कर लेगा. जब भाषाविद् कहते थे कि हिंदी के पास शब्द नहीं है, कोई निबंध नहीं है , उन दिनों आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने क्लिष्ट निबंध लिखे, जयशंकर प्रसाद ने उद्देश्यपरक कविताएं लिखीं, निराला ने राम की शक्ति पूजा जैसी कविता लिखी, आज अखबार के संपादक शिवप्रसाद गुप्त के नेत्रित्व में काम करने वाली टीम ने नये शब्द ढूंढे, प्रेसीडेंट के लिए राष्ट्रपति शब्द का प्रयोग उनमे से एक है. अगर हिंदी के पत्रकार , उर्दू सहित अन्य देशी भाषाओं का प्रयोग कर हिंदी को आसान बनाने की कोशिश करते तो बात कुछ समझ में आने वाली थी, लेकिन अंग्रेजी का प्रयोग कर हिंदी को आसान बनाने का तरीका कहीं से गले नहीं उतरता. एक बात जरूर है कि स्वतंत्रता के बाद भी शासकों की भाषा रही अंग्रेजी को आम भारतीयों में जो सीखने की ललक है, उसे जरूर भुनाया जा रहा है. डेढ़ सौ साल की लंबी कोशिश के बाद हिंदी, एक संपन्न भाषा के रूप में िबकसित हो सकी है लेिकन अब इसी की कमाई खाने वाले हिंदी के पत्रकार इसे नष्ट करने की कोिशश में लगे हैं। आने वाले दिनों में अखबार का पंजीकरण करने वाली संस्था, किसी अखबार का हिंदी भाषा में पंजीकरण भी नहीं करेगी.हिंदी भाषा के पत्रकारों के लिए राष्ट्रपति शब्द वेरी टिपिकल एन्ड हार्ड है, इसके प्लेस पर वन्स अगेन प्रेसीडेंट लिखना स्टार्ट कर दें, हिंदी के रीडर्स को सुविधा होगी

Friday, August 31, 2007

बन टांगिया मजदूरों की दुर्दशा


बन टांगिया मजदूरों की दुर्दशा
सरकारें देश भर में वृक्षारोपण के लिए करोडो रुपये खर्च करती है, लेकिन वन समाप्त होते जा रहे हैं. वनों को लगाने वाले बन टांगिया मजदूरों का आज बुरा हाल है जिन्होंने अंग्रेजों के ज़माने मे गोरखपुर मंडल को पेड लगाकर हरा भरा किया था. मंडल मे ३५ हजार से अधिक बन टांगिया मजदूर अपने ही देश मे निर्वासित जीवन जीने को विवश हैं. उन्हें राशनकार्ड, बेसिक शिक्षा,पानी जैसी मूलभूत सुविधाएं भी उपलब्ध नही हैं.आख़िर स्वतंत्र भारत में भी ये परतंत्र हैं.
घर के मारल बन मे गइली, बन में लागल आग.
बन बेचारा का करे , करमवे फूटल बाय.

ये अभिव्यक्ति एक बन टांगिया किसान की सहज अभिव्यक्ति है। महाराजगंज और गोरखपुर जिले के ४५१५ परिवारों के ३५ हजार बन टांगिया किसान दोनो जिलों के जंगलों मे आबाद हैं. नौ दशक पहले इनके पुरखों ने जंगल लगाने के लिए यहाँ डेरा डाला था. इस समय इनकी चौथी पीढ़ी चल रही है. सुविधाविहिन हालत मे घने जंगलों कि छाव मे इनकी तीन पीढी गुजर चुकी है. इनके गाव राजस्व गावं नही हैं इसलिये इन्हें सरकार की किसी योजना का लाभ नही मिलता है. हम स्वतंत्रता की ६० वी वर्षगांठ मना चुके , लेकिन अपने ही देश मे बन टांगिया मजदूरों की त्रासदी देख रहे हैं. आख़िर इसके लिए जिम्मेदार कौन है?
ये मजदूर अपने गावं मे पक्का या स्थाई निर्माण नही करा सकते, न तो हन्द्पम्प न पक्का चबूतरा -- फूस की झोपड़ी ही डाल सकते हैं. सरकारी स्कूल और स्वास्थ्य केंद्र के बारे मे तो सोचा भी नही जा सकता है. आज ये उन अधिकारों से भी वंचित हैं जो इन्हें देश का सामान्य नागरिक होने के नाते मिलना चाहिए. बैंक मे इनका खाता नही खुलता, तहसील से अधिवास प्रमाण पत्र नही मिलता,जाति प्रमाण पत्र भी नही मिलता जिससे इन्हें पिछड़े या अनुसूचित होने का लाभ मिल सके.
हालांकि राजनीतिक दलों ने वोट के लिए कुछ इलाक़ों मे इन्हें मतदाता सूची मे दर्ज करा दिया है, लेकिन कुछ इलाक़ों मे वे वोटर भी नही बन पाए हैं. इनके साथ एक समस्या ये भी है की बन टांगिया विभिन्न जातियों के हैं इसलिये इनका कोई वोटबैंक नही है और ना ही ये संगठित हैं.गोरखपुर के तिन्कोनिया रेंज मे ५ महाराजगंज के लक्ष्मीपुर, निचलोल ,मिठौरा ,कम्पिअरगंज ,फरेंदा,श्याम्दयूरवा व पनियारा विकासखंड मे बन टांगिया मजदूरों के गावं आबाद हैं. इसमे ५६% केवट व मल्लाह ,१५ % अनुसूचित जाति व १०% पिछडी जाति के लोग हैं. ये लोकसभा व विधान सभा मे तो वोट दे सकते हैं लेकिन अपनी ग्राम पंचायत नही चुन सकते हैं.
आख़िर ये कब गुलामी से मुक्त होंगे और कब मिलेगी इन्हें भारत की नागरिकता ? ७० साल के जयराम कहते हैं की उन्हें तो पता भी नही की देश और दुनिया की प्रगति क्या है ? जवान लड़के लडकियां मजदूरी करते हैं जिससे पेट की आग बुझ जाती है लेकिन दुखों का कोई अंत नही दिखाई देता लेकिन इनकी उमीदें अभी भी बरकरार हैं कि कही दो गज जमीन मिल जाये जिसे ये अपना कह सकें. अख़्तर "वामिक" ने सही ही कहा है :
ख्वाबों को अपनी आखों से कैसे जुदा करें?
जो जिंदगी से खौफजदा हो वो क्या करे?
सत्येंद्र प्रताप

Monday, August 13, 2007

...यूं ही कभू लब खोलें हैं



आने वाली नसलें तुम पे रश्क करेंगी हमअसरों
जब उनको ये ध्यान आयेगा तुमने फिराक को देखा था .
इसे आप चाहें तो नार्सिसिया की इंतहां कह सकते हैं. जैसा मैने लोगों से सुना है अगर उस भरोसा कर सकूं तो मानना होगा वास्तव में फिराक साहब आत्ममुग्धता के बहुत हद तक शिकार थे भी. यूँ इसमें कितना सच है और कितना फ़साना, यह तो मैं नहीं जानता और इस पर कोई टिप्पणी भी नहीं करूंगा कि आत्ममुग्ध होना सही है या ग़लत, पर हाँ इस बात का मलाल मुझे जरूर है कि मैं फिराक को नहीं देख सका. हालांकि चाहता तो देख सकता था क्या? शायद हाँ, शायद नहीं.... ये अलग है कि फिराक उन थोड़े से लोगों मैं शामिल हैं जो अपने जीते जी किंवदंती बन गए,पर फिराक के बारे में मैं जान ही तब पाया जब उनका निधन हुआ। 1982 में जब फिराक साहब का निधन हुआ तब मैं छठे दर्जे में पढता था. सुबह-सुबह आकाशवाणी के प्रादेशिक समाचार में उनके निधन की खबर जानकर पिताजी बहुत दुखी हुए थे। यूँ रेडियो बहुत लोगों के मरने-जीने की बात किया करता था, पर उस पर पिताजी पर कोई फर्क पड़ते मैं नहीं देखता था. आखिर ऐसा क्या था कि वह फिराक साहब के निधन से दुखी हुए. मेरे बालमन में यह कुतूहल उठना स्वाभाविक था. पिताजी दुखी हुए इसका मतलब यह था कि फिराक साहब सिर्फ बडे नहीं, कुछ खास आदमी थे. पूछने पर पिताजी ने बातें तो तमाम बताएँ, पर मेरी समझ में कम ही आईं. लब्बो-लुआब जो मैं समझ पाया वह यह था कि फिराक गोरखपुरी एक बडे शायर थे और उर्दू व अन्ग्रेज़ी के बडे विद्वान भी थे. मूलतः वह गोरखपुर जिले की बांसगाँव तहसील के रहने वाले थे. बावजूद इसके पिताजी ने भी उन्हें देखा नहीं था. यूँ फिराक साहब का गुल-ए-नगमा पिताजी के पास था और उसके शेर वह अक्सर सुनाते रहते थे. बात-बात पर वह उससे उद्धरण देते थे और शायद इसीलिए फिराक को न जानते हुए भी उनके कई शेर मुझे तभी याद हो गए थे. इनमें एक शेर मुझे खासा पसंद था और वह है :
किसी का कौन हुआ यूँ तो उम्र भर फिर भी
ये हुस्न-ओ-इश्क सब तो धोका है मगर फिर भी.
ये अलग बात है कि तब इसके अर्थ की कोई परछाईं भी मेरी पकड़ में नहीं आने वाली थी. फिराक साहब और उनका गुल-ए-नगमा मुझे समझ में आना शुरू हुआ तब जब मैने दसवीं पर कर गया. जैसे-जैसे बड़ा होता गया फिराक साहब अपनी शायरी के जरिए मेरे भी ज्यादा अजीज होते गए. फिराक, उनकी शायरी, उनके क्रांतिकारी कारनामे और उनसे जुडे तमाम सच्चे-झूठे किस्से. खास तौर से कॉलेज के दिनों में तो हम लोगों ने फिराक के असल अशआर की जगह उनकी पैरोदियाँ ख़ूब बनाईं. पैरोडियों के बनाने में जैसा मनमानापन सभी करते हैं हमने भी किया.पर अब सोचते हैं तो लगता है कि जिन्दगी की जैसी गहरी समझ फिराक को थी, कम रचनाकारों को ही हो सकती है. कहने को लोग कुछ भी कहें, पर यही नार्सिसिया फिराक की शायरी जान भी है. जब वह कहते हैं :
क्या रिहाई क्या है हमीं में हर आलमचल पडे तो सेहरा है रूक गए तो ज़िंदा है। वैसे फिराक की यह नार्सिसिया ठहराव की नहीं है। यह मुक्ति, अपने से पर किसी और अस्तित्व के तलाश की और उससे जुडाव की ओर ले जाने की नार्सिसिया है. यह वह रास्ता है जो अस्तित्ववाद की ओर ले जाता है. वह शायद अस्ति की तलाश से उपजी बेचैनी ही है जो उन्हें यह कहने को मजबूर करती है:शामें किसी को मांगती हैं आज भी 'फिराक'गो ज़िंदगी में यूं तो मुझे कोई कमी नहीं अस्ति की खोज उनकी शायरी लक्ष्य है तो प्रेम शायद उसका रास्ता. ऐसा मुझे लगता है. कदम-कदम पर वह अपनी तासीर में अस्तित्ववाद की ओर बढते दिखाई देते हैं :तुम मुखातिब भी हो करीब भी हो

तुमको देखूं कि तुमसे बात करूं या फिर जब वह कहते हैं :आज उन्हें मेहरबां पा करखुश हुए और जी में डर भी गए.द्वंद्व का यह आलम फिराक में हर तरफ है. तभी तो प्रेम का साफ-साफ जिक्र आने पर भी वह कहते हैं:मासूम है मुहब्बत लेकिन इसी के हाथों
ऐ जान-ए-इश्क मैने तेरा बुरा भी चाहाफिर वही फिराक यह भी कहते हैं :हम से क्या हो सका मुहब्बत मेंखैर तुमने तो बेवफाई की.व्यवहार में फिराक जो भी रहें हों, पर यकीनन शायरी में तो वह मुझे आत्ममुग्धता के शिकार नहीं, आत्मविश्लेषण और आत्मानुसंधान के आग्रही नजर आते हैं.लीजिए इस अलाहदा शायर की एक गजल आपके लिए भी :
अब अक्सर चुप-चुप से रहे हैं यूं ही कभू लब खोलें हैंपहले "फिराक" को देखा होता अब तो बहुत कम बोले हैं
दिन में हम को देखने वालो अपने अपने हैं ओकात
जाओ ना तुम इन खुश्क आंखों पर हम रातों को रो ले हैं
फितरत मेरी इश्क-ओ-मुहब्बत किस्मत मेरी तनहाई
कहने की नौबत ही ना आई हम भी कसू के हो ले हैं
बाग़ में वो ख्वाब-आवर आलम मौज-ए-सबा के इशारों पर
डाली डाली नौरस पत्ते सहस सहज जब डोले हैं
उफ़ वो लबों पर मौज-ए-तबस्सुम जैसे करवटें लें कौंधें
हाय वो आलम जुम्बिश-ए-मिज़गां जब फित्ने पर तोले हैं
इन रातों को हरीम-ए-नाज़ का इक आलम होए है नदीम
खल्वत में वो नर्म उंगलियां बंद-ए-काबा जब खोलें हैं
गम का फ़साना सुनाने वालो आख़िर-ए-शब् आराम करो
कल ये कहानी फिर छेडेंगे हम भी ज़रा अब सो ले हैं
हम लोग अब तो पराए से हैं कुछ तो बताओ हाल-ए-"फिराक"
अब तो तुम्हीं को प्यार करे हैं अब तो तुम्हीं से बोले
ईस्टदेव सांकृत्यायन