जिंदगी भी अजीब है.
प्रकृति,
मनुष्य को हमेशा समझाने की कोशिश करती है.
वह पीटती है-
एक ही लाठी से.
चाहे अमीर हो,या गरीब.
हिन्दू हो...
या मुसलमान।
दिखाती है-
कि तुम क्या हो?
कोशिश करती है समझाने की।
आदमी...
घमंड में जीता है।
वह जीता है
और दूसरों की जिंदगी देखता है।
लेकिन मौत...!
किसी को नहीं पहचानती।
आदमी कोशिश करता है, हर वक्त बचने की।
आखिरी कोशिश!
भले ही वह नाकाम हो जाए।
मौत के सामने,
कितनी बेबस...है यह ज़िंदगी!
-सत्येन्द्र प्रताप
3 comments:
सत्येन्द्र जी नमस्कार,
प्रकृति और मनुष्य के बीच में एक दूसरे को नीचा दिखाने की दौड़ तो सदा से चलती आई है.
मनुष्य के जीवन का लक्ष्य ही है प्रकृति द्वारा प्रस्तुत बाधाओं को पार करना.
ऐसे में ये कहना की जिंदगी बेबस है - थोड़ा ग़लत होगा.
बाकी रही घमंड में जीने की बात तो किसी का गर्व दूसरों को घमंड प्रतीत हो सकता है!
सौरभ
सौरभ जी, जहां तक बेबस जिंदगी की बात है, वह सच्चाई है। और रही बात प्रकृति और मानव के होड़ की तो वह वास्तव में है ही नहीं। प्रकृति तो हमेशा जीवित रहने का समर्थन करती है । यकीन मानिए अगर प्रकृति आपके साथ होड़ करती, तो आप अस्तित्व में ही न आ पाते।
प्रकृति, कभी भी बाधाएं नहीं खड़ा करती। बल्कि मनुष्य उसके लिए बाधाएं खड़ी करता है। प्रकृति तो सिर्फ उसका जवाब देती है।
आपने बात की गर्व और घमंड की, जहां तक मेरा विचार है। किसी का गर्व दूसरे के लिए घमंड नहीं हो सकता। अगर कोई किसी के गर्व को उसका घमंड कहे तो यह उसकी जलन होती है। वास्तव में वह उस आदमी के सामने खुद को तुच्छ समझने लगता है। अगर सकारात्मक तरीके से सोचें कि मुझे उस आदमी जैसा बनना है तो आपको उस आदमी का गर्व कभी घमंड नहीं नजर आएगा।
सत्येंद्रजी देखिये ये पूरी कहानी सोचने के एक दृष्टिकोण पर निर्भर करती है !
और मेरा नजरिया तो यह कहता है कि जिंदगी बेबस नहीं है.
यह सच है कि "अगर प्रकृति आपके साथ होड़ करती, तो आप अस्तित्व में ही न आ पाते." और यह भी कि "मनुष्य उसके लिए बाधाएं खड़ी करता है" मगर यह ग़लत है कि "प्रकृति, कभी भी बाधाएं नहीं खड़ा करती".
यह बात आप दुर्गम इलाकों में रोज प्रकृति से रोज संघर्ष करके जीवन यापन करने वाले लोगों से कहें तो आपको सही जवाब मिलेगा.
बाकी गर्व और घमंड के बीच में एक छोटी सी विभाजन रेखा है - यही मेरा अभिप्राय था.
धन्यवाद,
सौरभ
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