Friday, September 21, 2012

Ban on India Inc acquiring SC, ST land


New Delhi: In a significant ruling, the Supreme Court today said that the land belonging to scheduled castes (SCs) or tribes (STs) cannot be bought by non-dalits, including companies as such transactions are unconstitutional. A bench of justices K S Radhakrishnan and Dipak Misra gave the verdict on an appeal by the Rajasthan government against the state high court's order holding such a sale to be valid in law. The high court had passed its order on an appeal by a firm, Aanjaney Organic Herbal Pvt Ltd, against the refusal by the state authorities to recognise or grant mutation to the purchase of a plot by the company from a person belonging to scheduled caste. "The Act is a beneficial legislation which takes special care to protect the interest of the members of Schedule Caste and Schedule Tribe. "Section 42 (SC, ST Act) provides some general restrictions on sale, gift and bequest of the interest of Scheduled Caste and Scheduled Tribe, in the whole or part of their holding. "The reason for such general restrictions is not only to safeguard the interest of the members of Scheduled Caste and Scheduled Tribe, but also to see that they are not being exploited by the members of non-Scheduled Caste and Scheduled Tribe. "We find Section 42(b) of the Act has to be read along with the constitutional provisions and, if so read, the expression `who is not a member of the Scheduled Caste or Scheduled Tribe would mean a person other than those who has been included in the public notification as per Articles 341 and 342 of the Constitution," said Justice Radhakrishnan, writing the judgement for the bench. That property was purchased on September 26, 2005 through a registered sale deed for a consideration of Rs 60,000. The high court had held that such a transfer was valid as the company being a `juristic person' does not have a caste and, therefore, any transfer made by a Scheduled Caste person would not be hit by Section 42(b) of the Act. "If the contention of the company is accepted, it can purchase land from Scheduled Caste / Scheduled Tribe and then sell it to a non-Scheduled Caste and Schedule Tribe, a situation the legislature wanted to avoid. "A thing which cannot be done directly can not be done indirectly by over-reaching the statutory restriction. "We are, therefore, of the view that the reasoning of the high court that the respondent being a juristic person, the sale effected by a member of Scheduled Caste to a juristic person, which does not have a caste, is not hit by Section 42 of the Act, is untenable and gives a wrong interpretation to the above mentioned provision," the apex court said. source :http://www.financialexpress.com/news/ban-on-india-inc-acquiring-sc-st-land/1005539/3

Friday, August 10, 2012

उत्पादों के दाम बढ़ाकर आंदोलन का खर्च वसूल सकते हैं रामदेव


रामदेव छोटे कारोबारी हैं। विज्ञापन देने के बजाय वह सुर्खियां बटोरकर लोगों की नजर में रहते हैं। इसी बहाने अपने उत्पाद का प्रचार भी कर लेते हैं। बिल्कुल वैसे, जैसे कचहरी में तमाशा दिखाने वाला मदारी चूरन बेचकर चला जाता है। ज्यादा संभव है कि इस आंदोलन पर आए खर्च की भरपाई बाबा अपने 285
उत्पादों के दाम बढ़ाकर करें। एक पड़ताल...
सत्येन्द्र प्रताप सिंह
बाबा रामदेव ३ दिन के अनशन पर बैठे हैं। इस बार उनका धरने पर बैठने से पहले भी टोन डाउन था, अभी भी है। बैठने के पहले ही उन्होंने स्पष्ट कर दिया था कि सिर्फ तीन दिन अनशन चलेगा। अगर सरकार नहीं मानती तो आगे की रणनीति तय की जाएगी।
बाबा रामदेव के साथ इस बार ठीक-ठाक भीड़ है। भीड़ पहले भी थी, जब उन्हें अनशन छोड़कर भागना पडा था। उनके भीड़ की गणित दूसरी है। श्रद्धा औऱ कारोबार की छौंक। यूं तो वैसे भी यहां हजारों की संख्या में बाबा हैं और एक एक बाबा के लाखों चेले हैं, जो एक आह्वान पर जहां कहा जाए, जुटने को तैयार हो जाते हैं। लेकिन बाबा कभी पंगा नहीं लेते, सरकारें भी उनसे पंगा नहीं लेती हैं। आपसी सहमति है... सरकारें बाबाओं को खुलकर चरने देती है और बाबा लोग भी अपनी ताकत का जोश नहीं दिखाते।
दरअसल नए बाबा दलित ही साबित हुए हैं। पुराने मठाधीशों के उत्तराधिकारी तो मौज में रहते हैं, लेकिन किसी नए बाबा की बाबागीरी बहुत ज्यादा नहीं चल पाती। हालांकि यह दावे के साथ यह कहना सही नहीं होगा। इस बीच तमाम कथावाचक, छूकर इलाज करने वाले हुए, लेकिन परंपरागत या कहें कि पीढ़ी दर पीढ़ी वाली बाबागीरी व्यापक पैमाने पर विकसित करने में वह ज्यादा सफल नहीं हुए हैं।
बाबा रामदेव ने बाबागीरी का अलग कांसेप्ट दिया। बिल्कुल नया कांसेप्ट। हालांकि बाबागीरी भी एक कारोबार है, जिसमें किसी अदृश्य सत्ता का भय दिखाकर वसूली की जाती है। परेशान लोग औऱ डरते हैं और पैसे देकर आते हैं। मंदिरों में विभिन्न तरह की पूजा के पैकेज चलते हैं। इस कारोबार की तुलना में बिल्कुल अलग कारोबार है बाबा रामदेव का। जैसे एक उद्योगपति अपने उत्पाद तैयार करता है और बेचता है, वही काम बाबा रामदेव भी करते हैं। हालांकि यह कांसेप्ट किसी का भय दिखाकर वसूली की तुलना में मुझे बेहतर लगता है।
कारोबारी मॉडल
आइए बात करते हैं बाबा के कारोबारी मॉडल पर। बाबा ने योग, वाक्पटुता आदि के माध्यम से ठीक ठाक नाम कमाया। उन्होंने आयुर्वेद पर जोर देना शुरू किया। इस बीच बाबा ने दिव्य योग फार्मेसी भी खोल ली। इस उद्योग में उन्होंने हर कारोबारी मानक का ध्यान रखा है। बेहतरीन चिकित्सक, शोधकर्ता औऱ प्रोडक्ट बना रहे लोग। कारोबार जैसे जैसे जोर पकड़ता गया, बाबा ने इसका विस्तारकिया। मांग के मुताबिक आपूर्ति की। इस समय बाबा के दिव्य फार्मेसी के 285 उत्पाद हैं।
यही नहीं, बाबा पूरे कारोबारी कांसेप्ट मानते हैं। उन्होंने इलाजों का पैकेज भी दे रखा है। कुल ३२ भयंकर या कहें लाइलाज मानी जाने वाली बीमारियों का उपचार वह पैकेज के माध्यम से करते हैं। इसमें लीवर सिरोसिस से लेकर कैंसर तक के इलाज का ठेका शामिल है। हालांकि ऐसी कोई दावेदारी नहीं की गई है कि इस इलाज से बीमारी ठीक होगी। वह तो किसी भी चिकित्सा पद्धति में नहीं की जाती। लेकिन बाबा समय समय पर अपने योग शिविर के भाषणों में दावे भी करते रहते हैं। हर एक इलाज के लिए अलग-अलग पैकेज है।
विज्ञापन का तरीका
बाबा ने इस साम्राज्य के लिए किसी विज्ञापन का सहारा नहीं लिया। बस, अपने भाषणों में योग सिखाने के लिए जुटी भीड़ को वह अपनी विभिन्न दवाइयों की विशेषताएं बता देते हैं। इसके चलते उनका लाखों का विज्ञापन का खर्च बच जाता है। विज्ञापन का यह खर्च तब तक बचता रहेगा, जब तक बाबा चर्चा में रहेंगे। सुर्खियों में उनकी बने रहने की इच्छा के पीछे एक बड़ी वजह यह भी है। हां, पिछली बार केंद्र सरकार से बनते बनते बात बिगड़ गई थी, यह अलग मसला है।
बाबा एक बार फिर अपने कारोबार के प्रचार में निकले हैं। लोग उनकी बात सुन रहे हैं। इलाज में विश्वसनीयता बहुत मायने रखती है। अगर उसमें देशभक्ति और बेहतर व्यक्ति होने की छौंक लग जाए तो कोई मान ही नहीं सकता कि यह महज कारोबार का मामला है। इसमें प्राचीन ज्ञान विज्ञान से लेकर देशभक्ति और सरकार विरोधी गुस्सा को एख साथ भुनाने का मौका है।
अनशन में भीड़ की वजह
बाबा के अनशन में भीड़ जुटने की कई वजहें हैं। पहले.., योग के नाम पर उनके शिविर में दस पांच हजार तो यूं ही आ जाते हैं। दूसरे... बाबा के कारोबार का पूरा नेटवर्क है। उत्तर भारत के हर शहर में इनके उत्पादों की दुकानें हैं। हर जिले में इनके स्टाकिस्ट हैं। अगर गौर से देखें तो बाबा के स्टाकिस्टों ने इस आंदोलन में अहम भूमिका निभाई है। जहां पर इनके स्टाकिस्ट की दुकान या घर है, उस मोहल्ले में विरोध प्रदर्शन शिविर लग गए हैं। बूढ़ी महिलाएं, बूढे पुरुष, बच्चे वहां जमा हो रहे हैं... जिनके लिए बाबा के स्टाकिस्टों ने बेहतरीन प्रबंध कर रखा है। कारोबारी इस पर अच्छा निवेश कर रहे हैं। हालांकि यह खबर नहीं है कि स्टाकिस्टों को कोई निर्देश दिया गया है, लेकिन वह अपने जिलों से वाहनों आदि की पूरी व्यवस्था में लगे हैं। साथ ही रामलीला मैदान में भी भरपूर प्रबंध है, रहने और खाने का।
कारोबारी पूंजी
बाबा का कारोबार विभिन्न ट्रस्टों के माध्यम से चलता है। इसमें ४ विभिन्न ट्रस्ट शामिल हैं। पिछले साल जून महीने में बाबा की घोषणा के मुताबिक उनका कुल कारोबारी साम्राज्य १,१०० करोड़ रुपये के आसपास है। बाबा ने अपने कारोबार का ब्योरा अपनी वेबसाइट पर भी डाल रखा है औऱ उनका कहना है कि कारोबार में पूरी पारदर्शिता बरती जाती है। चार्टर्ड एकाउंटेंट अनिल अशोक एंड एसोसिएट्स ने उनके सभी ट्रस्टों की आडिट की है।
आयुर्वेद का कारोबार
देश में किसी भी जटिल इलाज के लिए शायद ही आयुर्वेद का सहारा लिया जाता हो, लेकिन कारोबार इतना तो है ही कि डाबर, वैद्यनाथ जैसी बड़ी कंपनियों से लेकर गली कूचे तक में आयुर्वेदिक दवाएं बनती हैं। लेकिन आज के कारोबार के हिसाब से देखें तो आयुर्वेद के मामले में रामदेव सभी कंपनियों को टक्कर देते नजर आ रहे हैं।
कहीं जेब पर न भारी पड़े आंदोलन?
स्वाभाविक है कि रामदेव ने जो कमाया है, उसी में से खर्च कर रहे हैं। बाबा रामदेव का कारोबार पूरी तरह से विश्वास पर ही चलता है। आज उनके पूरे स्टॉकिस्ट से लेकर खुदरा दुकानदार तक इस आंदोलन में निवेश कर रहे हैं। अब रामदेव के उत्पादों के ग्राहकों को देखना होगा कि आंदोलन पर आए खर्च की भरपाई उनकी जेब से कैसे की जाती है। बाबा रामदेव का आंदोलन खत्म होने के बाद पूरी संभावना है कि उनके उत्पादों की कीमतों में बढ़ोतरी हो। हालांकि पूरा मामला इलाज से न जुड़ा होकर श्रद्धा की छौंक भी है, इसलिए यह भी संभव है कि उनके शिष्य या कहें ग्राहक, यह भी तर्क दें कि अच्छे काज के लिए पैसे खर्च किए, थोड़े दाम बढ़ाकर वसूली कर रहे हैं तो उसमें बुरा क्या है?

Thursday, August 2, 2012

बिजली के ग्रिड फेल, सरकार पास!


सत्येन्द्र प्रताप सिंह और भीम कुमार सिंह
भारत में बिजली की मांग लगातार बढ़ रही है। उत्पादन कम होने औऱ मांग ज्यादा होने की वजह से बिजली संकट है। हालांकि सरकारी आंकडों के मुताबिक आज भी तीस करोड़ भारतीयों को बिजली नसीब नहीं है। शहरीकरण, औद्योगीकरण, बिजली से चलने वाले सामानों की निर्भरता आदि तमाम कारण हैं, जिससे बिजली की मांग लगातार बढ़ रही है। हाल ही में ग्रिड फेल होने से बीस से ज्यादा राज्यों में हाहाकार रहा। तमाम अनछुए पक्ष हैं, जो बिजली के इस संकट के पीछे बड़ी वजह हैं। बिजली मंत्री सुशील कुमार शिंदे को ग्रिड संकट के साथ ही गृहमंत्री बना दिया गया। संभवतया वह सरकार की मंशा और जरूरतों के मुताबिक ही काम कर रहे थे, जिसकी वजह से पदोन्नति जरूरी थी।
आइए पहले आंकड़ों पर नजर डालते हैं... भारत में केंद्र सरकार, राज्य सरकारें और निजी कंपनियां बिजली का उत्पादन करती हैं। कुल उत्पादन में राज्य सरकारों (स्टेट सेक्टर) की उत्पादन क्षमता 86,275.40 मेगावाट केंद्र सरकार की उत्पादन क्षमता 62,073.63 मेगावाट औऱ निजी क्षेत्र की उत्पादन क्षमता 56,991.23 मेगावाट है। इन तीनों का उत्पादन प्रतिशत क्रमशः 42.01, 30.22 और 27.75 है। कुल मिलाकर भारत की उत्पादन क्षमता 2,05,340.26 मेगावाट है। अभी केंद्र औऱ राज्य सरकार व उनके प्रतिष्ठान ही ज्यादा बिजली उत्पादन कर रहे हैं।
बढ़ रही है उत्पादन में निजी क्षेत्र की भूमिका यह आंकडे़ यूं ही स्थिर रहने वाले नहीं हैं। बिजली उत्पादन में निजी क्षेत्र की हिस्सेदारी भी ठीक उसी तरह बढ़ रही है, जैसे अन्य क्षेत्रों में। इस क्षेत्र में भी देश की बड़ी बड़ी कंपनियां उतर चुकी हैं। राज्य सरकारों के साथ विभिन्न मॉडलों पर बिजली उत्पादन के लिए समझौते हो रहे हैं। यह हर राज्य में इतनी तेजी से हो रहा है कि आने वाले कुछ साल में निजी क्षेत्र सारी परियोजनाएं स्थापित होने के बाद इनकी हिस्सेदारी बिजली उत्पादन करने वाली सरकारी कंपनियों से ज्यादा हो जाएगी।
निश्चित रूप से बिजली कंपनियां मुनाफा कमाने के लिए उतर रही हैं। इनको सारी सुविधाएं सरकारें ही मुहैया कराती हैं। कर्ज की काउंटर गारंटी हो, बिजली की खरीद हो, या जमीन उपलब्ध कराने का मामला। बस अभी समस्या यह है कि नियंत्रित औऱ सब्सिडी वाला क्षेत्र होने की वजह से कंपनियां अपने मुताबिक, यानी मांग और आपूर्ति के आधार पर प्राइस सर्चिंग की सुविधा नहीं पा रही हैं।
बाजारीकरण की शुरुआत
विद्युत अधिनियम २००३ पेश किए जाने के बाद बिजली बाजार के हवाले होनी शुरू हुई थी। अधिनियम की धारा ४२ में खुले बाजार में बिजली की खरीद फरोख्त की अनुमति दे दी गई। केंद्रीय विद्युत नियामक आयोग से लाइसेंस हासिल करने के बाद ऐसा करना संभव बनाया गया। मामला बाजार में आया तो प्राइस डिस्कवरी भी मांग औऱ आपूर्ति के आधार पर हुई। कीमतें बहुत ज्यादा निकलीं। भारत में वितरण प्रणाली पर सरकारी नियंत्रण बहुत ज्यादा है। २७ जून २००८ को इंडियन एनर्जी एक्सचेंज का उदय हुआ। खुले बाजार में बिजली की खरीद फरोख्त शुरू हुई। राजनीतिक औऱ अन्य मजबूरियों के चलते राज्य सरकारों को खुले बाजार से बिजली खरीदना मजबूरी है। कभी कभी तो हालत यह होती है कि बिजली के दाम १५ रुपये प्रति यूनिट से ज्यादा पर पहुंच जाते हैं और निश्चित रूप से राज्य सरकारों के ऊपर इसका बोझ पड़ता है।
मुनाफे के लिए इंतजाम
ऐसा भी नहीं है कि सरकार ने निजी उत्पादन कंपनियों को लावारिस छोड़ रखा है। इस समय राज्य की बिजली वितरण कंपनियां भयंकर घाटे में हैं। राज्यों के बिजली बोर्डों पर बकाया 1.5 लाख करोड़ रुपये पर पहुंच गया है। इसके पुनर्गठन के लिए केंद्र सरकार राज्यों पर दबाव बनाने में जुटी है। चुनावी गणित को देखते हुए सरकारों ने इन्हें बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ा है, यह सही है। किसानों से लेकर कारोबारियों तक को सस्ती बिजली मुहैया कराई जा रही है। लेकिन इसकी भरपाई या इसका संतुलन बनाने की कोई खास मुहिम नहीं है। असल खेल निजी क्षेत्र का ही चल है। बिजली उत्पादकों को कुछ बिजली खुले बाजार के माध्यम से बेचने को छूट मिली है। उद्योगपति भी सरकार की सस्ती बिजली पर ही निर्भर हैं, और किसान, घरेलू उपभोग करने वाले अन्य लोग भी। लेकिन निजी क्षेत्र की बिजली के अगर खरीदार न मिलेंगे तो निजीकरण का खेल बिगड़ना तय है। अब राज्यों पर दबाव बढ़ाया जा रहा है कि अगर वह अपने लोगों को बिजली देना चाहते हैं तो महंगी बिजली खरीदें।
कोयले का खेल और सरकार का पैंतरा
देश की ज्यादातर बिजली कंपनियां ईंधन के लिए कोयले पर निर्भर हैं, जिसकी आपूर्ति मुख्य रूप से कोल इंडिया करती है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान जितनी तेजी से ताप विद्युत संयंत्र लगाए गए हैं, उसी तेजी से देश में कोयले का उत्पादन नहीं बढ़ा है। जाहिर है, कोयले की मांग और आपूर्ति में काफी अंतर आ गया है। ऐसी स्थिति में कोल इंडिया बिजली कंपनियों को उनकी जरूरत के हिसाब से कोयले की पर्याप्त आपूर्ति नहीं कर पा रही है, लिहाजा कंपनियों को कोयले का आयात करना पड़ता है जो बहुत महंगा सौदा है। जो कंपनियां ऐसा नहीं कर पातीं वे पूरी क्षमता पर उत्पादन नहीं करतीं।
इसी चलते इन कंपनियों ने तगड़ी खेमेबाजी की और कोयले की नियमित एवं पर्याप्त आपुर्ति सुनिश्चित कराने के लिए सरकार पर दबाव बनाया। अब चूंकि देश में कोयला उपलब्ध कराने वाली सबसे बड़ी कंपनी कोल इंडिया है, इस चलते इस दबाव का सबसे ज्यादा असर उसी पर हुआ क्योंकि वह सार्वजनिक क्षेत्र की इकाई है। प्रधानमंत्री कार्यालय ने कोल इंडिया से कहा कि वह अनिवार्य रूप से बिजली कंपनियों को उनकी जरूरत की कम-से-कम 80 फीसदी की कोयले की आपूर्ति करे। लेकिन कंपनी के निदेशक मंडल ने ऐसा भरोसा दिलाने में आनाकानी की। कंपनी की दलील थी कि कोयले की मांग जिस तरीके से बढ़ रही है, उसी हिसाब से उत्पादन नहीं बढ़ रहा है क्योंकि नये खदानों की मंजूरी बहुत मुश्किल से मिलती है।
दूसरी ओर सरकार पर बिजली कंपनियों का दबाव बदस्तूर बना रहा। वे सरकार को यह समझाने में सफल रहीं कि उनके लिए कोयले की आपूर्ति सुनिश्चित नहीं किए जाने की स्थिति में इस क्षेत्र में नया निवेश बाधित होगा और मौजूदा संयंत्रों से भी पूरी क्षमता पर उत्पादन नहीं हो सकेगा, जबकि देश में बिजली की मांग बढ़ती ही जा रही है।
दरअसल, यह मामला थोड़ा पेचीदा है। कोल इंडिया इस क्षेत्र की कंपनियों को उनकी जरूरत के 65 फीसदी कोयले की आपूर्ति करने में सक्षम है। ऐसे में उन्हें 15 फीसदी कोयले का आयात करना पड़ेगा, जिसकी लागत ज्यादा बैठेगी। जाहिर है, ऐसा करने पर उनके मुनाफे पर असर होगा। इसका अर्थ यह हुआ कि बिजली कंपनियों को देश में मांग और आपूर्ति में संतुलन की चिंता कम है और मुनाफा घटने की आशंका ज्यादा। उनके लिए यह परेशान होने की यह वाजिब वजह हो सकती है।
लेकिन इस मसले पर सरकार ने जितनी गंभीरता दिखाई, उसकी वजह समझ में नहीं आती। सरकार ने जब देखा कि कोल इंडिया का निदेशक मंडल कोयले की 80 फीसदी आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए तैयार नहीं होगी, तो उसने एक ऐतिहासिक कदम उठाया। उसने राष्ट्रपति की ओर से आदेश जारी करवाकर कोल इंडिया को निर्देश दिलवाया कि वह बिजली कंपनियों के साथ ईंधन आपूर्ति करार (एफएसए) करके उनके लिए 80 फीसदी कोयले की आपूर्ति सुनिश्चित करे और यदि कंपनी ऐसा करने में विफल रहती है तो उसे जुर्मान देना पड़ेगा। सीधी सी बात है कि कोल इंडिया बिजली कंपनियों को इस पैमाने पर कोयले की आपूर्ति सुनिश्चित करने में सक्षम नहीं है। उसकी क्षमता महज 65 फीसदी आपूर्ति सुनिश्चित करने की है। ऐसे में उसे अतिरिक्त 15 फीसदी कोयला आयात करना पड़ेगा क्योंकि फिलहाल उसके उत्पादन में इस कदर बढ़ोतरी की गुंजाइश नहीं है। इस स्थिति में निश्चित रूप से कोल इंडिया के मुनाफे पर तगड़ी मार पड़ेगी और इसका लाभ बिजली कंपनियों को मिलेगा।
कुछ यूं ध्वस्त होता है ग्रिड
आइए एक उदाहरण लेते हैं। मान लीजिए कि दिल्ली से लखनऊ का रेल भाड़ा 250 रुपये है। रेल विभाग आधी सीटें तत्काल कोटा में कर के उनके दाम 750 रुपये कर देता है। आपको लखनऊ यात्रा करनी है और दलाल या किसी अन्य माध्यम से आपको वह टिकट 500 रुपये में मिल जाए तो स्वाभाविक रूप से आप 750 रुपये का टिकट नहीं खरीदेंगे। भले ही यह थोड़ा बहुत गैर कानूनी हो. अगर रेल विभाग की 750 रुपये टिकट वाली सीटें खाली रह जाती हैं, तो वह दबाव बनाएगा कि 500 रुपये वाले अवैध टिकटों की बिक्री बंद कराई जाए, जिससे उसके 750 रुपये वाले टिकट बिक सकें।
जो हाल उस लखनऊ के यात्री का है, वही हाल राज्यों का है। खुले बाजार में बिकने वाली बिजली की मात्रा बढ़ाई जा रही है। राज्य की खस्ताहाल बिजली कंपनियों को महंगी बिजली खरीदनी पड़ती है। बिजली कटौती पर जनआंदोलन होने, विरोध प्रदर्शन होने की वजह से राज्यों पर दबाव होता है कि वह कटौती में कमी लाएं। ऐसे में खस्ताहाल बिजली कंपनियां अपने कोटे से ज्यादा बिजली ग्रिडों से खींचती हैं। हालांकि ग्रिड कोड भी बनाए गए हैं और अधिक बिजली खींचने पर जुर्माने के प्रावधान भी हैं। लेकिन राज्य सरकारों को यह सस्ता पड़ता है कि ग्रिड से ज्यादा बिजली खींच ली जाए और जुर्माना भर दिया जाए। जुर्माने के साथ भी यह बिजली खुले बाजार से बिजली खरीदने की तुलना में सस्ती पड़ती है। यही वजह है कि जब मांग चरम पर होती है तो ग्रिड ध्वस्त होने की घटनाएं होती हैं।
ऐसा नहीं है कि खुले बाजार में बिजली की बिक्री अब कम होने वाली है। जैसे जैसे बिजली उत्पादन में निजी क्षेत्र की हिस्सेदारी बढ़ेगी, इसकी मात्रा भी बढ़ेगी। खुले बाजार में बिजली की बिक्री ज्यादा होने पर खरीदार की जरूरत होगी। खरीदार भी ऐसे हों, जो हो-हल्ला न करें। चुपचाप खरीदें। यह तभी संभव है, जब वितरण प्रणाली पर सरकारों का नियंत्रण खत्म हो और कारोबारियों की इच्छा के मुताबिक बिजली दरें हों। उनके निवेश पर उन्हें मनचाहा मुनाफा हो। लेकिन अभी ऐसा संभव नहीं हो पा रहा है। राजनीतिक बाध्यताओं के चलते बिजली पर सरकार का नियंत्रण बरकरार है। साथ ही यह आम लोगों की जरूरत बन गई है। अगर सीधे इसे निजी क्षेत्र के हाथों सौंपा जाता है तो तीखे विरोध की संभावना बनती है। ऐसे में उत्पादन का निजीकरण, वितरण प्रणाली का निजीकरण फिर कंपनियों को दाम तय करने की छूट। यह सिलसिला लगातार चल रहा है।
सरकार की मंशा की जीत
सरकार की मंशा स्पष्ट है। बिजली का भी निजीकरण हो और कंपनियां उससे भी मुनाफा काटें। आम लोगों की निर्भरता इस पर बहुत ज्यादा बढ़ ही गई है। मजबूरी है कि लोग बिजली खऱीदेंगे, बाजार में मांग उसकी कीमत तय कर देगा। बिजली के ग्रिड फेल होने पर सरकार की अकर्मण्यता, मंत्री की विफलता आदि के चलते सरकार औऱ मंत्री को जनाक्रोश का सामना करना पड़ा। राज्य सरकारों पर भी आरोप लगे। साथ ही उपभोक्ता इसके लिए भी मानसिक रूप से तैयार हुए हैं कि निजी क्षेत्र को बिजली दिए जाने पर ही व्यवस्था सुधरेगी, सरकार, मंत्री, सरकारी कर्मचारी सब चोर हैं। स्वाभाविक रूप से बिजली मंत्री की जीत हुई है। सरकार ने उन्हें इसके लिए पुरस्कृत भी कर दिया है
(इसमे दिए गए आंकड़े सरकारी हैं, विश्लेषण औऱ विचार लेखक के हैं)

Wednesday, August 1, 2012

बिजली के ग्रिड फेल, सरकार पास!


सत्येन्द्र प्रताप सिंह और भीम कुमार सिंह
भारत में बिजली की मांग लगातार बढ़ रही है। उत्पादन कम होने औऱ मांग ज्यादा होने की वजह से बिजली संकट है। हालांकि सरकारी आंकडों के मुताबिक आज भी तीस करोड़ भारतीयों को बिजली नसीब नहीं है। शहरीकरण, औद्योगीकरण, बिजली से चलने वाले सामानों की निर्भरता आदि तमाम कारण हैं, जिससे बिजली की मांग लगातार बढ़ रही है। हाल ही में ग्रिड फेल होने से बीस से ज्यादा राज्यों में हाहाकार रहा। तमाम अनछुए पक्ष हैं, जो बिजली के इस संकट के पीछे बड़ी वजह हैं। बिजली मंत्री सुशील कुमार शिंदे को ग्रिड संकट के साथ ही गृहमंत्री बना दिया गया। संभवतया वह सरकार की मंशा और जरूरतों के मुताबिक ही काम कर रहे थे, जिसकी वजह से पदोन्नति जरूरी थी।
आइए पहले आंकड़ों पर नजर डालते हैं... भारत में केंद्र सरकार, राज्य सरकारें और निजी कंपनियां बिजली का उत्पादन करती हैं। कुल उत्पादन में राज्य सरकारों (स्टेट सेक्टर) की उत्पादन क्षमता 86,275.40 मेगावाट केंद्र सरकार की उत्पादन क्षमता 62,073.63 मेगावाट औऱ निजी क्षेत्र की उत्पादन क्षमता 56,991.23 मेगावाट है। इन तीनों का उत्पादन प्रतिशत क्रमशः 42.01, 30.22 और 27.75 है। कुल मिलाकर भारत की उत्पादन क्षमता 2,05,340.26 मेगावाट है। अभी केंद्र औऱ राज्य सरकार व उनके प्रतिष्ठान ही ज्यादा बिजली उत्पादन कर रहे हैं।
बढ़ रही है उत्पादन में निजी क्षेत्र की भूमिका यह आंकडे़ यूं ही स्थिर रहने वाले नहीं हैं। बिजली उत्पादन में निजी क्षेत्र की हिस्सेदारी भी ठीक उसी तरह बढ़ रही है, जैसे अन्य क्षेत्रों में। इस क्षेत्र में भी देश की बड़ी बड़ी कंपनियां उतर चुकी हैं। राज्य सरकारों के साथ विभिन्न मॉडलों पर बिजली उत्पादन के लिए समझौते हो रहे हैं। यह हर राज्य में इतनी तेजी से हो रहा है कि आने वाले कुछ साल में निजी क्षेत्र सारी परियोजनाएं स्थापित होने के बाद इनकी हिस्सेदारी बिजली उत्पादन करने वाली सरकारी कंपनियों से ज्यादा हो जाएगी।
निश्चित रूप से बिजली कंपनियां मुनाफा कमाने के लिए उतर रही हैं। इनको सारी सुविधाएं सरकारें ही मुहैया कराती हैं। कर्ज की काउंटर गारंटी हो, बिजली की खरीद हो, या जमीन उपलब्ध कराने का मामला। बस अभी समस्या यह है कि नियंत्रित औऱ सब्सिडी वाला क्षेत्र होने की वजह से कंपनियां अपने मुताबिक, यानी मांग और आपूर्ति के आधार पर प्राइस सर्चिंग की सुविधा नहीं पा रही हैं।
बाजारीकरण की शुरुआत
विद्युत अधिनियम २००३ पेश किए जाने के बाद बिजली बाजार के हवाले होनी शुरू हुई थी। अधिनियम की धारा ४२ में खुले बाजार में बिजली की खरीद फरोख्त की अनुमति दे दी गई। केंद्रीय विद्युत नियामक आयोग से लाइसेंस हासिल करने के बाद ऐसा करना संभव बनाया गया। मामला बाजार में आया तो प्राइस डिस्कवरी भी मांग औऱ आपूर्ति के आधार पर हुई। कीमतें बहुत ज्यादा निकलीं। भारत में वितरण प्रणाली पर सरकारी नियंत्रण बहुत ज्यादा है। २७ जून २००८ को इंडियन एनर्जी एक्सचेंज का उदय हुआ। खुले बाजार में बिजली की खरीद फरोख्त शुरू हुई। राजनीतिक औऱ अन्य मजबूरियों के चलते राज्य सरकारों को खुले बाजार से बिजली खरीदना मजबूरी है। कभी कभी तो हालत यह होती है कि बिजली के दाम १५ रुपये प्रति यूनिट से ज्यादा पर पहुंच जाते हैं और निश्चित रूप से राज्य सरकारों के ऊपर इसका बोझ पड़ता है।
मुनाफे के लिए इंतजाम
ऐसा भी नहीं है कि सरकार ने निजी उत्पादन कंपनियों को लावारिस छोड़ रखा है। इस समय राज्य की बिजली वितरण कंपनियां भयंकर घाटे में हैं। राज्यों के बिजली बोर्डों पर बकाया 1.5 लाख करोड़ रुपये पर पहुंच गया है। इसके पुनर्गठन के लिए केंद्र सरकार राज्यों पर दबाव बनाने में जुटी है। चुनावी गणित को देखते हुए सरकारों ने इन्हें बर्बाद करने में कोई कसर नहीं छोड़ा है, यह सही है। किसानों से लेकर कारोबारियों तक को सस्ती बिजली मुहैया कराई जा रही है। लेकिन इसकी भरपाई या इसका संतुलन बनाने की कोई खास मुहिम नहीं है। असल खेल निजी क्षेत्र का ही चल है। बिजली उत्पादकों को कुछ बिजली खुले बाजार के माध्यम से बेचने को छूट मिली है। उद्योगपति भी सरकार की सस्ती बिजली पर ही निर्भर हैं, और किसान, घरेलू उपभोग करने वाले अन्य लोग भी। लेकिन निजी क्षेत्र की बिजली के अगर खरीदार न मिलेंगे तो निजीकरण का खेल बिगड़ना तय है। अब राज्यों पर दबाव बढ़ाया जा रहा है कि अगर वह अपने लोगों को बिजली देना चाहते हैं तो महंगी बिजली खरीदें।
कोयले का खेल और सरकार का पैंतरा
देश की ज्यादातर बिजली कंपनियां ईंधन के लिए कोयले पर निर्भर हैं, जिसकी आपूर्ति मुख्य रूप से कोल इंडिया करती है। पिछले कुछ वर्षों के दौरान जितनी तेजी से ताप विद्युत संयंत्र लगाए गए हैं, उसी तेजी से देश में कोयले का उत्पादन नहीं बढ़ा है। जाहिर है, कोयले की मांग और आपूर्ति में काफी अंतर आ गया है। ऐसी स्थिति में कोल इंडिया बिजली कंपनियों को उनकी जरूरत के हिसाब से कोयले की पर्याप्त आपूर्ति नहीं कर पा रही है, लिहाजा कंपनियों को कोयले का आयात करना पड़ता है जो बहुत महंगा सौदा है। जो कंपनियां ऐसा नहीं कर पातीं वे पूरी क्षमता पर उत्पादन नहीं करतीं।
इसी चलते इन कंपनियों ने तगड़ी खेमेबाजी की और कोयले की नियमित एवं पर्याप्त आपुर्ति सुनिश्चित कराने के लिए सरकार पर दबाव बनाया। अब चूंकि देश में कोयला उपलब्ध कराने वाली सबसे बड़ी कंपनी कोल इंडिया है, इस चलते इस दबाव का सबसे ज्यादा असर उसी पर हुआ क्योंकि वह सार्वजनिक क्षेत्र की इकाई है। प्रधानमंत्री कार्यालय ने कोल इंडिया से कहा कि वह अनिवार्य रूप से बिजली कंपनियों को उनकी जरूरत की कम-से-कम 80 फीसदी की कोयले की आपूर्ति करे। लेकिन कंपनी के निदेशक मंडल ने ऐसा भरोसा दिलाने में आनाकानी की। कंपनी की दलील थी कि कोयले की मांग जिस तरीके से बढ़ रही है, उसी हिसाब से उत्पादन नहीं बढ़ रहा है क्योंकि नये खदानों की मंजूरी बहुत मुश्किल से मिलती है।
दूसरी ओर सरकार पर बिजली कंपनियों का दबाव बदस्तूर बना रहा। वे सरकार को यह समझाने में सफल रहीं कि उनके लिए कोयले की आपूर्ति सुनिश्चित नहीं किए जाने की स्थिति में इस क्षेत्र में नया निवेश बाधित होगा और मौजूदा संयंत्रों से भी पूरी क्षमता पर उत्पादन नहीं हो सकेगा, जबकि देश में बिजली की मांग बढ़ती ही जा रही है।
दरअसल, यह मामला थोड़ा पेचीदा है। कोल इंडिया इस क्षेत्र की कंपनियों को उनकी जरूरत के 65 फीसदी कोयले की आपूर्ति करने में सक्षम है। ऐसे में उन्हें 15 फीसदी कोयले का आयात करना पड़ेगा, जिसकी लागत ज्यादा बैठेगी। जाहिर है, ऐसा करने पर उनके मुनाफे पर असर होगा। इसका अर्थ यह हुआ कि बिजली कंपनियों को देश में मांग और आपूर्ति में संतुलन की चिंता कम है और मुनाफा घटने की आशंका ज्यादा। उनके लिए यह परेशान होने की यह वाजिब वजह हो सकती है।
लेकिन इस मसले पर सरकार ने जितनी गंभीरता दिखाई, उसकी वजह समझ में नहीं आती। सरकार ने जब देखा कि कोल इंडिया का निदेशक मंडल कोयले की 80 फीसदी आपूर्ति सुनिश्चित करने के लिए तैयार नहीं होगी, तो उसने एक ऐतिहासिक कदम उठाया। उसने राष्ट्रपति की ओर से आदेश जारी करवाकर कोल इंडिया को निर्देश दिलवाया कि वह बिजली कंपनियों के साथ ईंधन आपूर्ति करार (एफएसए) करके उनके लिए 80 फीसदी कोयले की आपूर्ति सुनिश्चित करे और यदि कंपनी ऐसा करने में विफल रहती है तो उसे जुर्मान देना पड़ेगा। सीधी सी बात है कि कोल इंडिया बिजली कंपनियों को इस पैमाने पर कोयले की आपूर्ति सुनिश्चित करने में सक्षम नहीं है। उसकी क्षमता महज 65 फीसदी आपूर्ति सुनिश्चित करने की है। ऐसे में उसे अतिरिक्त 15 फीसदी कोयला आयात करना पड़ेगा क्योंकि फिलहाल उसके उत्पादन में इस कदर बढ़ोतरी की गुंजाइश नहीं है। इस स्थिति में निश्चित रूप से कोल इंडिया के मुनाफे पर तगड़ी मार पड़ेगी और इसका लाभ बिजली कंपनियों को मिलेगा।
कुछ यूं ध्वस्त होता है ग्रिड
आइए एक उदाहरण लेते हैं। मान लीजिए कि दिल्ली से लखनऊ का रेल भाड़ा 250 रुपये है। रेल विभाग आधी सीटें तत्काल कोटा में कर के उनके दाम 750 रुपये कर देता है। आपको लखनऊ यात्रा करनी है और दलाल या किसी अन्य माध्यम से आपको वह टिकट 500 रुपये में मिल जाए तो स्वाभाविक रूप से आप 750 रुपये का टिकट नहीं खरीदेंगे। भले ही यह थोड़ा बहुत गैर कानूनी हो. अगर रेल विभाग की 750 रुपये टिकट वाली सीटें खाली रह जाती हैं, तो वह दबाव बनाएगा कि 500 रुपये वाले अवैध टिकटों की बिक्री बंद कराई जाए, जिससे उसके 750 रुपये वाले टिकट बिक सकें।
जो हाल उस लखनऊ के यात्री का है, वही हाल राज्यों का है। खुले बाजार में बिकने वाली बिजली की मात्रा बढ़ाई जा रही है। राज्य की खस्ताहाल बिजली कंपनियों को महंगी बिजली खरीदनी पड़ती है। बिजली कटौती पर जनआंदोलन होने, विरोध प्रदर्शन होने की वजह से राज्यों पर दबाव होता है कि वह कटौती में कमी लाएं। ऐसे में खस्ताहाल बिजली कंपनियां अपने कोटे से ज्यादा बिजली ग्रिडों से खींचती हैं। हालांकि ग्रिड कोड भी बनाए गए हैं और अधिक बिजली खींचने पर जुर्माने के प्रावधान भी हैं। लेकिन राज्य सरकारों को यह सस्ता पड़ता है कि ग्रिड से ज्यादा बिजली खींच ली जाए और जुर्माना भर दिया जाए। जुर्माने के साथ भी यह बिजली खुले बाजार से बिजली खरीदने की तुलना में सस्ती पड़ती है। यही वजह है कि जब मांग चरम पर होती है तो ग्रिड ध्वस्त होने की घटनाएं होती हैं।
ऐसा नहीं है कि खुले बाजार में बिजली की बिक्री अब कम होने वाली है। जैसे जैसे बिजली उत्पादन में निजी क्षेत्र की हिस्सेदारी बढ़ेगी, इसकी मात्रा भी बढ़ेगी। खुले बाजार में बिजली की बिक्री ज्यादा होने पर खरीदार की जरूरत होगी। खरीदार भी ऐसे हों, जो हो-हल्ला न करें। चुपचाप खरीदें। यह तभी संभव है, जब वितरण प्रणाली पर सरकारों का नियंत्रण खत्म हो और कारोबारियों की इच्छा के मुताबिक बिजली दरें हों। उनके निवेश पर उन्हें मनचाहा मुनाफा हो। लेकिन अभी ऐसा संभव नहीं हो पा रहा है। राजनीतिक बाध्यताओं के चलते बिजली पर सरकार का नियंत्रण बरकरार है। साथ ही यह आम लोगों की जरूरत बन गई है। अगर सीधे इसे निजी क्षेत्र के हाथों सौंपा जाता है तो तीखे विरोध की संभावना बनती है। ऐसे में उत्पादन का निजीकरण, वितरण प्रणाली का निजीकरण फिर कंपनियों को दाम तय करने की छूट। यह सिलसिला लगातार चल रहा है।
सरकार की मंशा की जीत
सरकार की मंशा स्पष्ट है। बिजली का भी निजीकरण हो और कंपनियां उससे भी मुनाफा काटें। आम लोगों की निर्भरता इस पर बहुत ज्यादा बढ़ ही गई है। मजबूरी है कि लोग बिजली खऱीदेंगे, बाजार में मांग उसकी कीमत तय कर देगा। बिजली के ग्रिड फेल होने पर सरकार की अकर्मण्यता, मंत्री की विफलता आदि के चलते सरकार औऱ मंत्री को जनाक्रोश का सामना करना पड़ा। राज्य सरकारों पर भी आरोप लगे। साथ ही उपभोक्ता इसके लिए भी मानसिक रूप से तैयार हुए हैं कि निजी क्षेत्र को बिजली दिए जाने पर ही व्यवस्था सुधरेगी, सरकार, मंत्री, सरकारी कर्मचारी सब चोर हैं। स्वाभाविक रूप से बिजली मंत्री की जीत हुई है। सरकार ने उन्हें इसके लिए पुरस्कृत भी कर दिया है
(इसमे दिए गए आंकड़े सरकारी हैं, विश्लेषण औऱ विचार लेखक के हैं)

Monday, July 23, 2012

बस आंकड़े बनकर रह गई है किसानों की जिंदगी


पी. साईनाथ का 3 जुलाई के द हिंदू में प्रकाशित नया लेख. मनीष शांडिल्य का अनुवाद.
प्रमुख तथ्य
* 1995 से अब तक कुल 2,70,940 किसानों ने आत्महत्या की है.
* महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा किसान आत्महत्या करते है.
* आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या लगातार बढ़ रही है और कृषक आबादी घट रही है.
* इस समस्या से सबसे बुरी तरह प्रभावित पांच राज्य महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश हैं.
* उपरोक्त पांच राज्यों में सुखाड़ की आशंका के कारण अगले साल सामने आने वाले आंकड़े और भयावह हो सकते हैं.
* छत्तीसगढ़ सरकार के दावे के अनुसार राज्य में किसी भी किसान ने 2011 में आत्महत्या नहीं की है. जबकि 2010 में राज्य में 1126 किसानों ने आत्महत्या की थी.
राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के अनुसार 2011 में कम से कम 14,027 किसानों ने आत्महत्या की है. इस तरह 1995 के बाद से आत्महत्या करने वाले किसानों की कुल संख्या 2,70,940 हो चुकी है. महाराष्ट्र में एक बार फिर आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या में बढ़ोतरी दर्ज की गयी है. महाराष्ट्र में 2010 के मुकाबले 2011 में आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या 3141 से बढ़कर 3337 हो गई. (2009 में यह संख्या 2872 थी). बीते एक साल से राज्य स्तर पर आंकड़ों के साथ की जा रही भारी छेड़छाड़ के बावजूद यह भयावह आंकड़ा सामने आया है. आंकड़ों को कम कर बताने के लिए ‘किसान’ शब्द को फिर से परिभाषित भी किया गया. साथ ही सरकारों और प्रमुख बीज कंपनियों द्वारा मीडिया और अन्य मंचों पर महंगे अभियान भी चलाये गये थे जिसमें यह प्रचार किया गया कि उनके प्रयासों से हालात बहुत बेहतर हुए हैं. महाराष्ट्र एक दशक से भी अधिक समय से एक ऐसा राज्य बना हुआ है जहां सबसे ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है.
महाराष्ट्र में 1995 के बाद आत्महत्या करने वाले किसानों की कुल संख्या 54,000 का आंकड़ा छूने को है. इनमें से 33,752 किसानों ने 2003 के बाद आत्महत्या की है यानी इन नौ सालों में हर साल 3,750 किसानों ने आत्महत्या की. साथ ही महाराष्ट्र में 1995-2002 के बीच 20,066 किसानों ने आत्महत्या की थी यानी इन आठ सालों के दौरान हर साल 2,508 किसानों ने आत्महत्या की. उल्लेखनीय तथ्य यह है कि किसानों की आत्महत्या में भी वृद्धि हो रही है और देश भर में उनकी संख्या भी घट रही है. महाराष्ट्र में यह समस्या शहरीकरण के कारण और भी भयावह हो जाती है. गौरतलब है कि महाराष्ट्र देश का वह राज्य है जहां सबसे तेज गति से शहरीकरण हो रहा है. ‘बढ़ती आत्महत्या-सिकुड़ती जनसंख्या’ का समीकरण यह बताता है कि कृषक समुदाय पर दबाव बहुत बढ़ गया है. कुछ ही महीने बाद 2011 की जनगणना के आधार पर किसानों के जो आंकड़े प्राप्त होंगे उससे एक ज्यादा स्पष्ट तस्वीर सामने आयेगी. प्रति एक लाख किसानों में आत्महत्या करने वाले किसानों की संख्या के आधार पर आत्महत्या करने वाले किसानों का अनुपात निकाला जाता है. वर्तमान में राष्ट्रीय और राज्यवार, दोनों स्तरों पर यह अनुपात 2001 की पुरानी जनगणना पर ही आधारित है.
सबसे बुरी तरह प्रभावित पांच राज्यों का हाल
2011 के आत्महत्याओं का आंकड़ा बताता है कि छत्तीसगढ़ में किसी किसान ने आत्महत्या नहीं की है. इस कारण यह आंकड़ा संदिग्ध हो जाता है. किसी राज्य में किसान का आत्महत्या नहीं करना एक अच्छी खबर होनी चाहिए थी. लेकिन छत्तीसगढ़ में पिछले पांच वर्षों में 7,777 किसानों ने आत्महत्या की थी जिनमें 2010 में आत्महत्या करने वाले 1,126 किसान शामिल है. यह राज्य कई वर्षों से इन त्रासद मौतों से बहुत बुरी तरह प्रभावित राज्यों में से एक रहा है. किसानों की आत्महत्या की समस्या से सबसे बुरी तरह प्रभावित पांच राज्यों (महाराष्ट्र, कर्नाटक, आंध्र प्रदेश, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश) के आंकड़े 2011 में हुई कुल किसान आत्महत्याओं के 64 प्रतिशत के आसपास है. छत्तीसगढ़ के ‘शून्य’ के बावजूद 2010 के मुकाबले स्थिति में कोई उल्लेखनीय सुधार नहीं हुआ है. 2010 में इन पांच राज्यों की प्रतिशत हिस्सेदारी 66 प्रतिशत के करीब थी.
ऐसा हो सकता है कि छत्तीसगढ़ के आंकड़े सही समय पर एनसीआरबी को प्राप्त नहीं हुए हों. या इसका एक मतलब यह हो सकता है कि राज्य में किसानों की आत्महत्या संबंधी आंकड़ों में देर से छेड़छाड़ शुरू हुई हो. दूसरे राज्यों में यह खेल कई सालों से चल रहा है. महाराष्ट्र में प्रधानमंत्री की विदर्भ यात्रा के बाद 2007 से ऐसा किया जा रहा है. केंद्रीय कृषि मंत्री शरद पवार 2008 के बाद से संसद में किसानों से संबंधित एनसीआरबी के खौफनाक आंकड़ों को सामने रखने से परहेज कर रहे हैं. (लेकिन केंद्र सरकार अन्य सभी श्रेणियों के लिए एनसीआरबी को उद्धृत करती है). अब तो राज्य सरकारें भी एनसीआरबी को भेजे जाने वाले आंकड़ों में बड़े पैमाने पर हेरा-फेरी करने लगी हैं.
ऐसे में जबकि उपरोक्त पांच राज्यों पर सुखाड़ के काले बादल मंडरा रहे हैं, अगले साल सामने आने वाले आंकड़ों की भयावहता चिंता की लकीरों को और गहरा कर देती हैं. महाराष्ट्र में विदर्भ और मराठवाड़ा क्षेत्रों में हालात तो पहले से ही काफी बुरे हैं. (यह स्थिति अधिकारियों को आंकड़ों में ज्यादा हेरा-फेरी करने के लिए उकसाती है). यदि पिछले पांच वर्षों के छत्तीसगढ़ के वार्षिक औसत के आधार पर आकलन किया जाए तो राष्ट्रीय स्तर पर 2011 में आत्महत्या करने वाले किसानों की कुल संख्या 15,582 और उपरोक्त पांच राज्यों की कुल प्रतिशत हिस्सेदारी 68 प्रतिशत (10,524) के करीब हो जायेगी, जो अब तक की सबसे ऊंची प्रतिशत भागीदारी होगी. जब 1995 में पहली बार एनसीआरबी ने किसानों की आत्महत्या के आंकड़ों को अलग से सारणीबद्ध किया था, तब आत्महत्या करने वाले 56.04 फीसदी किसान उपरोक्त पांच राज्यों के थे.
2011 में पांच राज्यों में 2010 की तुलना में किसानों की आत्महत्या के आंकड़ों में 50 से अधिक की वृद्धि दर्ज हुई है. इन राज्यों में शामिल हैं: गुजरात (55), हरियाणा (87), मध्य प्रदेश (89), तमिलनाडु (82). अकेले महाराष्ट्र में 2010 की तुलना में 2011 में 196 की वृद्धि देखी गई है. साथ ही नौ राज्यों में किसानों की आत्महत्या की संख्या में 50 से अधिक की कमी भी दर्ज की गई है. 2011 में 2010 के मुकाबले कर्नाटक में 485, आंध्र प्रदेश में 319 और पश्चिम बंगाल में 186 की गिरावट दर्ज की गई है. लेकिन ये सभी राज्य छत्तीसगढ़ से ‘पीछे’ हैं जहां राज्य सरकार के दावे के अनुसार 2011 में किसी भी किसान ने आत्महत्या नहीं की है. गौरतलब है कि छत्तीसगढ़ में 2010 में 1126 किसानों ने आत्महत्या की थी.

Tuesday, June 19, 2012

वाम-दक्षिण के बीच फंसा बीमार ग्रीस


सत्येन्द्र प्रताप सिंह
ग्रीस बीमार है। खुली बाजार व्यवस्था के समर्थक उसका इलाज करने को तैयार हैं। दक्षिणपंथी राजनीतिक दल न्यू डेमोक्रेसी के सत्ता के करीब पहुंचने मात्र से ऐसी खबरें आने लगीं कि दुनिया को राहत मिल गई। उम्मीद बनी कि अगर न्यू डेमोक्रेसी के नेता एंटोनिस समरास सरकार बनाते हैं तो वह बेलआउट पैकेज स्वीकार कर लेंगे और चल रही आर्थिक नीतियों को आगे बढ़ाएंगे।
आइए ग्रीस के हाल फिलहाल की राजनीतिक यात्रा पर नजर डाल लें। सेना का शासन धराशायी होने के बाद1975 में हुए जनमत संग्रह में ग्रीस के लोगों ने राजशाही को अस्वीकार कर दिया। एंड्रियास पापांद्राऊ की पानहेलेनिक सोसलिस्ट मूवमेंट (पासोक) और कारामानलिस की दक्षिणपंथी न्यू डेमोक्रेसी ने वहां की राजनीति पर कब्जा जमा लिया। ग्रीस पर करीब 4 दशक से इन्हीं दलों का शासन है। लेकिन आर्थिक संकट बढ़ने के साथ ही जन अधिकारों से सरोकार रखने वाले दलों गोल्डन डान और सिरिजा ने मतों पर अपना कब्जा बढ़ाना शुरू किया (इन दलों को क्रमशः माओवादी और ट्राटस्कियन भी कहा जाता है)।
पिछले 6 मई को हुए आम चुनाव में ग्रीस में खंडित जनादेश मिला। कोई सरकार न बनने की वजह से पिछले रविवार को फिर चुनाव कराए गए। चुनाव के पहले आशंका जताई गई कि अगर सिरिजा चुनाव जीत जाती है तो आर्थिक सुधारों को खतरा है। भारत के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने चेताया कि ग्रीस संकट की वजह से डॉलर के मुकाबले रुपया कमजोर हुआ है। अगर बेलआउट समर्थक दक्षिणपंथी दल न्यू डेमोक्रेसी की जीत नहीं हुई तो इसका असर भारत पर भी पड़ेगा। इसी तरह प्रतिक्रिया जर्मनी की चांसलर एंजेला मर्केल और फ्रांस के राष्ट्रपति फ्रांसुआ ओलैंड ने भी दी थी।
बहरहाल न्यू डेमोक्रेसी की जीत से वैश्विक पूंजीवादी जगत उत्साह से लबरेज है। सभी मिलकर ग्रीस की अर्थव्यवस्था बचाने को तत्पर भी हैं। ग्रीस चाहता है कि उसे बेलआउट पैकेज के बदले लादी जा रही शर्तों में कुछ ढील मिल जाए। तत्काल प्रतिक्रिया देते हुए आईएमएफ की एक प्रवक्ता कोनी लोत्ज ने कहा कि वित्तीय बेल आउट पाने वाले देशों के लिए थोड़े बहुत तालमेल अस्वाभाविक नहीं हैं। उन्होंने कहा, “यह आर्थिक कार्यक्रम स्थायी नहीं हैं।” हालांकि जर्मनी की चांसलर मार्केल ने कोई जोरदार उत्साह नहीं दिखाया है। उन्होंने कहा है, “यह बहुत ही स्पष्ट है कि पिछले समय में सुधार संबंधी किए गए समझौते सही कदम थे और उन्हें आगे भी लागू किया जाना चाहिए।”
इस राहत पैकेज के बदले लादी जा रही शर्तों पर भी गौर करना जरूरी है। इसमें सरकारी नौकरियों में तत्काल 15,000 की कटौती और 2015 तक डेढ़ लाख सरकारी नौकरियां घटाने का लक्ष्य रखा गया है। साथ ही हर कर्मचारी के वेतन में 22 प्रतिशत की कटौती के साथ 2012 तक पेंशन में 30 करोड़ यूरो की कटौती करना है। सरकारी खर्च में कटौती के साथ निजी क्षेत्र को बढ़ावा देना भी शर्त में शामिल किया गया है।
ग्रीस की संसद में कुल 300 सीटें हैं। इस चुनाव में न्यू डेमोक्रेसी को 129 सीटें मिली हैं। पार्टी का दावा है कि वह इस बार सरकार बना लेगी। वहीं पसोक को 33 सीटें मिली हैं। वामपंथी दल सिरिजा को 71 सीटें, गोल्डन डान को 18, केकेई को 12, डेमोक्रेटिक लेफ्ट को 17 व इंडिपेंडेंट ग्रीक को 20 सीटें मिली हैं। ऐसे में पूंजीवाद की चपेट में आया डूबता ग्रीस अभी भी अनिश्चितता के भंवर में है। बेलआउट पैकेज ने अगर उल्टा असर दिखाया, ज्यादा पैसे आने से महंगाई दर बढ़ी और विकास दर नीचे गई तो फिर उसे कर्ज लौटाने के संकट से जूझना होगा। ऐसे में यह कहना बहुत मुश्किल है कि ग्रीस यूरो जोन में बना रह सकेगा या नहीं। साथ ही यह भी कहना मुश्किल है कि अल्पमत की सरकार कितने दिन तक खिंचेगी और दुर्दशाग्रस्त ग्रीक कब तक दक्षिणपंथी दलों पर भरोसा कायम रख सकेंगे।

Tuesday, May 15, 2012

मायावती और शाहखर्ची


मायावती की शाहखर्ची को लेकर समय-समय पर लोगों को मिर्गी के दौरे पड़ते रहते हैं। खर्च और लोग भी करते हं, लेकिन मामला दलित का हो तो उसे पचा पाना मुश्किल होता है। कॉरपोरेट जगत की एक भव्य पार्टी पर जितना खर्च किया जाता है वह रकम मायावती के घर की साज-सज्जा से संबंधित पूरे बजट के लिए पर्याप्त होगी। कारोबारी जगत को निकट से समझने वाले सोमशेखर सुंदरेशन ने बहुत बेहतरीन ढंग से इस मामले की पड़ताल की है- सत्येन्द्र)
सोमशेखर सुंदरेशन
उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रहते हुए मायावती के घर पर हुए खर्च की खबरें पिछले सप्ताह सभी राष्टï्रीय अखबारों के पहले पृष्ठï पर थीं। अचानक देश के मध्य वर्ग की अंतरात्मा जाग उठी और सभी लोग व्याकुल हो उठे, खास तौर पर कॉरपोरेट क्षेत्र के कर्मचारी। वे यह बात नहीं पचा पा रहे थे कि किसी दलित की विलासितापूर्ण जीवनशैली पर सार्वजनिक धन की इस तरह बरबादी की गई।
मायावती की खर्च करने की प्रवृत्ति ने पिछले साल भी जबरदस्त सुर्खियां बटोरी थीं। विकीलिक्स ने एक देशी राजनयिक से बातचीत पर आधारित यह रोचक खबर वेबसाइट पर डाली कि किस तरह केवल मायावती के बेशकीमती जूते लाने के लिए लखनऊ से एक खाली विमान मुंबई के लिए रवाना हुआ था। पूर्व मुख्यमंत्री ने इस रिपोर्ट का खंडन किया था। फिर भी, यदि निरपेक्ष नजरिया रखें और सुनी-सुनाई बातों पर गौर न करें तो मायावती एक विशिष्टï श्रेणी की हस्तियों में शुमार होंगी, न केवल राजनीतिक दुनिया में, बल्कि कॉरपोरेट जगत में भी। जिन लोगों को राज्य का शासन चलाने के लिए चुना जाता है, उन पर ऐसे लोगों की तुलना में ज्यादा ध्यान दिया जाता है जो सूचीबद्घ कंपनियों का प्रशासन संभालने के लिए चयनित होते हैं।
केवल लोक प्रशासन राज्य का मामला नहीं होता, बल्कि शेयर बाजारों में सूचीबद्घ कंपनियों का प्रशासन भी ऐसा ही मसला होता है, जिसमें सार्वजनिक धन लगा होता है। इस तरह कॉरपोरेट प्रशासन भी समान रूप से लोक शासन का हिस्सा हुआ। यदि करदाताओं के खर्चों पर विलासितापूर्ण जीवनशैली उचित नहीं है तो सार्वजनिक शेयरधारकों और जमाकर्ताओं के खर्च पर भी ऐसी जीवनशैली को सही नहीं ठहराया जा सकता। यहां मुद्दा केवल जीवनशैली का नहीं है। बल्कि यह उन लोगों से संबंधित मसला भी है जो शानदार जीवनशैली बनाए रखने के लिए बिलों की रकम बढ़ाते जाते हैं।
इस तरह के विषय पर चर्चा आगे बढ़ाएं तो कॉरपोरेट जगत में भी मायावती जैसे उदाहरण भरे पड़े हैं। कुछ उदाहरण तो ऐसे भी मिल जाएंगे, जिनके मुकाबले मायावती बेहतर नजर आएंगी। आपने सुना होगा कि एक सूचीबद्घ कंपनी के अध्यक्ष ऐसे हैं, जिनके लिए कारखाने के नजदीक उगने वाले एक विशेष फल लाने के वास्ते कॉरपोरेट हवाई जहाज उड़ान भरता है। ऐसी कई कहानियां प्रचलित हैं जो उन कॉरपोरेट जेट विमानों से संबंधित हैं जो स्थानीय बाजारों में उपलब्ध विशेष सूखे फलों के वास्ते दूसरे देशों के लिए उड़ान भरते हैं क्योंकि प्रवर्तक की पत्नी को वह बहुत पसंद है।
आपने ऐसी सूचीबद्घ कंपनियों के बारे में भी सुना होगा, जो दर्जी से समय पर सूट मंगवाने के लिए आईआईएम में शिक्षा प्राप्त महंगे रंगरूट रखते हैं। ऐसे मामलों की भी कमी नहीं हैं, जहां अध्यक्ष के लिए वीजा और पासपोर्ट का इंतजाम करने के लिए ट्रैवल एजेंटों, दूतावासों के कर्मचारियों और पासपोर्ट अधिकारियों पर समय और धन की बेशुमार बरबादी की जाती है। यह लागत भी अंतत: सार्वजनिक शेयरधारकों को ही उठानी पड़ता है। लेकिन, वरिष्ठï कॉरपोरेट नौकरशाहों (आईएएस अधिकारियों के समकक्ष) का कहना है कि केवल वही नहीं, बल्कि दूसरे लोग भी धन की बरबादी करते हैं क्योंकि खामियां तो पूरी व्यवस्था में हैं। यह कहना आसान है और संभवत: सुविधाजनक भी, लेकिन दोनों मामलों में बारीक अंतर है। कई लोग इस राय से सहमत होंगे कि निजी क्षेत्र के होने के नाते सूचीबद्घ कंपनियां वैध तरीके से अधिकारियों पर ज्यादा खर्च कर सकती हैं। फिर भी, सार्वजनिक धन का इस्तेमाल करने का मसला हमेशा प्रशासन से जुड़ा हुआ रहेगा, चाहे बात कॉरपोरेट प्रशासन की हो या फिर राज्य शासन की।
यह कहना समान रूप से उचित है कि उच्च और निम्न वर्गों के बीच संघर्ष चलता रहता है। लेकिन, इसके साथ-साथ यह भी उतना ही सही है कि भारत निश्चित रूप से इस मामले में काफी पिछड़ा हुआ है। अधिकारों को लागू करने के मामले में 183 देशों की फेहरिस्त में हम 182वें पायदान पर हैं। यह सूची विश्व बैंक और अंतरराष्टï्रीय वित्त निगम ने संयुक्त रूप से प्रकाशित की है। यदि क्षतिपूर्ति से संबंधि किसी मुकदमे की पहली सुनवाई में 20 वर्षों का लंबा समय लग जाता है तो ऐसे में हैरानी नहीं होनी चाहिए कि किसी सूचीबद्घ कंपनी द्वारा फिल्मी सितारों और राजनीतिक हस्तियों के निजी दौरों के लिए कॉरपोरेट जेट का इंतजाम करने में होने वाले खर्च पर सवाल उठाने में कोई सक्षम नहीं होगा।
बहरहाल मूल मसले पर आते हैं। दिलचस्प है कि कॉरपोरेट जगत की एक भव्य पार्टी पर जितना खर्च किया जाता है वह रकम मायावती के घर की साज-सज्जा से संबंधित पूरे बजट के लिए पर्याप्त होगी। वरिष्ठï कॉरपोरेट हस्तियों का जन्मदिन मनाने के लिए ऐसी ही भव्य दावतें दी जाती हैं। वरिष्ठï मीडिया पेशेवर इस तरह की दावतों को बड़ी बेपरवाही से कवर करते हैं, जबकि मायावती की ओर से दी जाने वाली पार्टियों की रिपोर्टिंग बारीकी से की जाती है। इसी तरह मीडिया में कंपनियों के मुख्य कार्याधिकारियों के वेतन-भत्तों और विनम्रता का बखान करते समय एक तरह का संतुलन रखा जाता है, लेकिन मायावती जैसी हस्तियों के मामले में इसकी कमी देखी जाती है।
यह मायावती की अनुचित शैली का बचाव करने की कोशिश नहीं है, बल्कि केवल यह याद दिलाने के लिए है कि पत्थर वही फेंक सकता है जिसने पाप न किए हों।
लेखक जेएसए, एडवोकेट्स ऐंड सॉलिसिटर्स के पार्टनर हैं और यह उनकी निजी राय है

Monday, May 14, 2012

कंपनियां यूं कराती हैं खबरों का प्रबंधन!

अभी तक सुनते थे कि आदिवासी ही बहुराष्ट्रीय कंपनियोंं की साजिश का शिकार हो रहे हैं, लेकिन किसान भी इनकी जद में हैं। जिस समय बीटी काटन पर बहस चल रही थी, देश के एक अग्रणी अंग्रेजी अखबार ने 2008 में किसानों के बीटी काटन से मालामाल होने की खबर छापी। पूरे पेज की उस खबर को 2011 में उस समय विज्ञापन के रूप में दिया गया, जब बीज विधेयक संसद में पेश नहीं हो सका। जाने माने पत्रकार पी साईनाथ ने इस खबर और विज्ञापन की खबर ली। झूठे आंकड़ों की कहानी लेकर आए और साजिशों का पर्दाफाश किया। पेश है खबर...
पी साईनाथ
करीब साढ़े तीन साल पहले जीन संवर्धित (जेनेटिकली मोडीफॉयड) बीजों के इस्तेमाल पर तगड़ी बहस छिड़ी हुई थी। यह मसला भारत के कोने-कोने में चर्चा में था। ठीक उसी समय एक समाचार ने इस तकनीक की सफलता के चमकदार असर पर खबर पेश की। टाइम्स ऑफ इंडिया ने 31 अक्टूबर 2008 के अंक में लिखा... "यहां पर आत्महत्या की कोई घटना नहीं हुई है। खेती बाड़ी से लोग अमीर हो रहे हैं। कपास के परंपरागत बीजों को छोड़कर बोलगार्ड या बीटी कॉटन अपनाने से पिछले 3-4 साल के दौरान यहां के गांवों (भांबराजा और अंटारागांव) में सामाजिक और आर्थिक क्रांति आई है।"
इसमें एक दिलचस्प पहलू और है। यही किस्सा इसी अखबार में अभी 9 महीने पहले शब्दशः एक बार फिर छपा। (28 अगस्त, 2011)। यह भी नहीं ध्यान रखा गया कि हो सकता है कि अब किसान कुछ अलग कहानी बयान कर रहे हों।
इस साल मार्च महीने में कृषि पर बनी संसद की स्थायी समिति ने इलाके का दौरा किया। भांबराजा गांव के गुस्साए किसानों की भीड़ में से आई आवाज ने समिति के सदस्यों को चौंका दिया। “हमारे गांव में आत्महत्या की 14 घटनाएं हुई हैं।” “इसमें ज्यादातर आत्महत्याएं बीटी के आने के बाद हुईं।” द हिंदू ने 2003 से 2009 के बीच आत्महत्या की 9 घटनाओं की पुष्टि की। यहां के सामाजिक कार्यकर्ताओं ने 5 औऱ घटनाएं गिनाईं। यह सभी घटनाएं 2002 के बाद की हैं, जब लोगों ने बीटी कॉटन को अपनाया था. उसके बाद टाइम्स आफ इंडिया ने किसानों के संपन्नता की कहानी लिखी थी। गांव वालों ने हतप्रभ सांसदों से कहा, “महोदय, ढेर सारी जमीनें खाली पड़ी हैं। तमाम लोगों का किसानी से भरोसा उठ गया है।” कुछ लोगों ने तो सोयाबीन की खेती अपना ली है, “कम से कम उसमें नुकसान की संभावना इतनी ज्यादा नहीं रहती”।
म्हाइको-मॉनसेंटो बायोटेक के बीटी कॉटन की खेती के “आदर्श गांव” से सैकड़ों किसान विस्थापित हो चुके हैं, जिसमें ज्यादा जमीन वाले किसान भी शामिल हैं। पिछले साल सितंबर महीने में हमारी पहली यात्रा के दौरान भांबराजा गांव के रामदास भोंड्रे ने भविष्यवाणी की थी, “अभी और ज्यादा लोग गांव छोड़ेंगे, क्योंकि किसानी मर रही है।”
मोनसेंटो के बीटी कॉटन का स्तुतिगान 2008 में उस समय पूरे पृष्ठ पर आया था. सरकार अगस्त 2011 में बॉयोटेक रेगुलेटरी अथॉरिटी आफ इंडिया (बीआऱएआई) विधेयक संसद में पेश करने में सफल नहीं हुई थी। विधेयक पेश न किए जा सकने की घटना महत्त्वपूर्ण थी, क्योंकि इससे कृषि बायोटेक उद्योग को भविष्य में मिलने वाला मुनाफा प्रभावित हुआ था। उसके बाद ही इसके लिए गोलबंदी शुरू हो गई। 28 अगस्त 2011 को पूरे पेज की कहानी “ Reaping Gold through Bt Cotton” टाइम्स आफ इंडिया में आई। उसके बाद कंपनी की ओर से अखबारों में विज्ञापन आने लगे। ऐसा ही लगातार 29, 30, 31 अगस्त और 1 व 3 सितंबर को हुआ। बहरहाल यह विधेयक संसद में पेश नहीं हो सका। न तो मॉनसून सत्र में न ही शीतकालीन सत्र में, जबकि दोनों सत्रों में इसे सूची में रखा गया था। अन्य मसलों पर संसद में हंगामा होता रहा। कुछ लोगों ने इसके बदले मुनाफा कमाया, बीटी कॉटन के माध्यम से नहीं तो अखबारी कागज के माध्यम से।
कृषि पर बनी संसद की स्थायी समिति पर इन विज्ञापनों का कोई असर नहीं हुआ। समिति ने पहले भी जीन संवर्धित फसलों को अनुमति दिए जाने के मसले को देखा था। किसानों की आत्महत्या की बढ़ती घटनाओं की खबरों और विदर्भ के तनाव से परेशान समिति के सदस्यों ने इस इलाके का दौरा करने का मन बनाया। समिति में विभिन्न दलों के सदस्य शामिल थे।
भांबराजा गांव ने निश्चित रूप से इस समिति के अध्यक्ष और दिग्गज सांसद बासुदेव आचार्य का ध्यान खींचा था। आखिर ध्यान आकर्षित भी क्यों न करता, यह गांव तो म्हाइको मॉनसेंटो के करिश्मे से मालामाल हुआ गांव था! अन्य गांव मारेगांव-सोनेबर्डी था। लेकिन सांसदों को तब झटका लगा, जब इसमें से किसी गांव के लोग मालामाल नहीं नजर आए। करिश्मे का आभामंडल टूट चुका था। यहां के लोगों में फैली निराशा और तनाव सरकार की असफलता की कहानी बयां कर रहे थे।
यह मसला (और जैसा कि टाइम्स आफ इंडिया अपनी खबरों में दावा भी करता है) एक बार फिर जिंदा हुआ है, क्योंकि 2012 में बीटी कॉटन को 10 साल होने जा रहे हैं। पिछले साल 28 अगस्त को “Reaping Gold through Bt Cotton” नाम से आई कहानी को “ए कंज्यूमर कनेक्ट इनीशिएटिव” के रूप में पेश किया गया। अगर दूसरे शब्दों में कहें तो यह विज्ञापन था। पूरे पेज की इस खबर में पेशेवर पत्रकारों के नाम से खबरें और टाइम्स आफ इंडिया के फोटो थे। सबसे विरोधाभासी यह है कि जो खबर विज्ञापन में बदल चुकी थी, वह शब्दश टाइम्स आफ इंडिया के नागपुर संस्करण में 31 अक्टूबर 2008 को छप चुकी थी। आलोचकों ने इस दोहराव को हास्यास्पद बताया था। 28 अगस्त 2011 को छपी खबर इसी खबर के फिर से छप जाने के दोहराव जैसा लगा। लेकिन इसमें खास अंतर था। 2008 में छपी खबर को विज्ञापन के रूप में नहीं दिखाया गया था। दोनों संस्करणों में छपी खबर में एक समानता भी ध्यान देने योग्य है। उनमें लिखा गया था, “यवतमाल दौरे की व्यवस्था म्हाइको मोनसेंटो बायोटेक ने की थी।”
कंपनी ने 2008 में छपे फीचर को पूरे पेज के न्यूज रिपोर्ट के रूप में पेश किया, जिसे टाइम्स आफ इंडिया ने किया था. पिछले सप्ताह म्हाइको मोनसेंटो बायोटेक इंडिया के प्रवक्ता ने द हिंदू से बातचीत में कहा, “2008 का कवरेज मीडिया के दौरे का परिणाम था, जिसे संपादकीय विवेक के साथ लिखा गया था। हमने सिर्फ आने जाने की व्यवस्था की थी।” “2011 में जो रिपोर्ट छपी, वह 2008 की रिपोर्ट ही थी, जिसमें कोई संपादन नहीं किया गया और इसे मार्केटिंग फीचर के रूप में छापा गया।” 2008 में “पूरे पेज की न्यूज रिपोर्ट” नागपुर संस्करण में आई थी। 2011 का “मार्केटिंग फीचर”, िजसे आप स्पेशल रिपोर्ट के हिस्से में क्लिक करके देख सकते हैं, कई संस्कऱणों में दिखा। लेकिन यह नागपुर में नहीं छपा, जिसके चलते निश्चित रूप से विस्मय पैदा होता है।
इस तरह से एक पूरा पेज तीन साल के भीतर दो बार दिखा। पहली बार खबर के रूप में और दूसरी बार विज्ञापन के रूप में। पहली बार इसे समाचार पत्र के स्टाफ रिपोर्टर और फोटोग्राफर के माध्यम से पेश किया गया। दूसरी बार विज्ञापन विभाग ने इसे पेश किया। पहली बार इस खबर के लिए यात्रा की व्यवस्था म्हाइको मोनसेंटो ने की। दूसरी बार म्हाइको मोनसेंटो ने इसके लिए विज्ञापन की व्यवस्था की। पहली बार यह हादसे के रूप में सामने आया और दूसरी बार एक तमाशे के रूप में।
कंपनी के प्रवक्ता इस मामले में उच्च स्तर के पारदर्शिता का दावा करते हैं। हमने कहा कि यह प्रकाशन 31 अक्टूबर 2008 में छपी खबर का रीप्रिंट है है। लेकिन प्रवक्ता ने ई मेल से भेजे गए अपने जवाब में इस विज्ञापन के समय के बारे में द हिंदू के सवालों पर चुप्पी साध ली। कंपनी ने कहा, “2011 हमने बीटी बीज को लेकर जन जागरूकता अभियान चलाया था, जो सीमित अवधि के लिए था। इसका उद्देश्य था कि लोगों को कृषि के क्षेत्र में बायोटेक्नोलाजी के महत्त्व की जानकारी मिल सके।” द हिंदू ने यह सवाल पूछा था कि जब संसद में बीआरएआई विधेयक पेश होना था, उसी समय यह अभियान क्यों चलाया गया, लेकिन इसका कोई जवाब नहीं मिला।
लेकिन मामला इससे भी आगे का है। गांव के लोगों का कहना है कि बीटी के जादू पर लिखी गई टाइम्स आफ इंडिया की खबर में भांबराजा या अंतरगांव की जो फोटो लगी थी, वह उस गांव की थी ही नहीं। गांव के किसान बबनराव गवांडे कहते हैं, “ इस फोटो में लोगों को देखकर यह लगता है कि फोटो भांबराजा की नहीं है। ”
काल्पनिक करिश्मा
टाइम्स आफ इंडिया की खबर में एक चैंपियन शिक्षित किसान नंदू राउत को पात्र बनाया गया है, जो एलआईसी एजेंट भी है। इसकी कमाई बीटी के करिश्मे की वजह से बढ़ी बताई गई है। पिछले साल सितंबर महीने में नंदू राउत ने मुझसे कहा था, “मैंने इसके पहले साल करीब 2 लाख रुपये कमाए थे।” उसने कहा, “इसमें से करीब 1.6 लाख रुपये पॉलिसी की बिक्री से आए थे।” संक्षेप में कहें तो उसने एलआईसी पॉलिसी के माध्यम से खेती से हुई कमाई की तुलना में करीब 4 गुना ज्यादा कमाया। नंदू के पास साढ़े सात एकड़ जमीन है और उसके परिवार में 4 सदस्य हैं।
लेकिन टाइम्स आफ इंडिया की खबर में कहा गया है कीटनाशकों के खर्च बच जाने की वजह से उसे प्रति एकड़ 20,000 रुपये अतिरिक्त कमाई हुई। वह 4 एकड़ में खेती करता है, इस तरह से उसे 80,000 रुपये का अतिरिक्त मुनाफा हुआ।
इससे अलग भांबराजा गांव के किसान गुस्से से कहते हैं, “हमें एक किसान दिखा दो, जिसका प्रति एकड़ कुल मुनाफा भी 20,000 रुपये हो।” पूरे गांव में किए गए सर्वे, जिस पर राउत ने भी हस्ताक्षर किए हैं, उनकी कमाई की अलग कहानी कहता है। सर्वे की यह प्रति द हिंदू के पास भी है।
भांबराजा और मारेगांव के किसानों को बीटी के करिश्मे से हुए फायदे की कहानी को केंद्रीय कृषि मंत्रालय के आंकड़े भी झुठलाते हैं। 19 दिसंबर 2011 को शरद पवार ने संसद में कहा, “विदर्भ में करीब 1.2 क्विंटल प्रति हेक्टेयर काटन लिंट का उत्पादन होता है।” इतने कम उत्पादन का आंकड़ा चौंकाने वाला है। इस आंकड़े का दोगुना भी कम होगा। किसान अपनी फसल को कच्चे कपास के रूप में बेचते हैं। 100 किलो कच्ची कपास में 35 किलो लिंट निकलती है और 65 किलो कपास बीज होता है। पवार के दिए गए आंकड़े कहते हैं कि 3.5 क्विंटल कच्चे कपास का उत्पादन प्रति हेक्टेयर होता है। पवार का कहना है कि किसानों को अधिकतम 4,200 रुपये प्रति क्विंटल मिल रहे हैं। इस तरह से वह मानते हैं कि किसानों को करीब उतना ही मिल रहा है, जितना कि उनका उत्पादन लागत होता है, जिसकी वजह से ऐसी गंभीर समस्या पैदा हुई है। अगर पवार के आंक़डे सही हैं तो नंदू रावत की कमाई 5,900 रुपये प्रति एकड़ से ज्यादा नहीं हो सकती। अगर इसमें से 1.5 पैकेट बीज के करीब 1,400 रुपये व अन्य उत्पादन लागत निकाल दें तो उसके पास करीब कुछ भी नहीं बचता। जबकि टाइम्स आफ इंडिया के मुताबिक इसकी कमाई 20,000 रुपये प्रति एकड़ से ज्यादा है।
कमाई के इस असाधारण दावे के बारे में पूछे जाने पर म्हाइको मोनसेंटो के प्रवक्ता ने कहा, “हम एमएमबी इंडिया के सहकर्मियों के बयानों के साथ हैं, जैसा कि खबर में प्रकाशित किया गया है।”
दिलचस्प है कि पूरे पेज की इस खबर में एक पैराग्राफ का एक बयान है, जिसमें 20,000 रुपये प्रति एकड़ से ज्यादा कमाई या किसी अन्य आंकड़े का कोई जिक्र नहीं है। इसमें महज इतना कहा गया है कि बीटी की वजह से कपास की खेती करने वाले उत्पादकों की आमदनी बढ़ी है और बीटी का रकबा भी बढ़ा है। इसमें प्रति एकड़ पैदावार के बारे में नहीं बताया गया है। इसमें दो गांवों में किसी के भी आत्महत्या न करने के बारे में भी कुछ नहीं कहा गया है। इस तरह से कंपनी बड़ी सावधानी से टाइम्स आफ इंडिया के दावों से खुद को अलग करती है, लेकिन इसका इस्तेमाल बड़ी चालाकी से मार्केटिंग फीचर के रूप में करती है।
इन दावों के बारे में एमएमबी के प्रवक्ता का कहना है, “यह जानकारी पत्रकारों ने किसानों से सीधे बातचीत और किसानों के व्यक्तिगत अनुभवों से जुटाई है। पत्रकार गांव में गए थे, उन्होंने किसानों से बातचीत करके रिपोर्ट तैयार की औऱ उसमें किसानों के बयान भी दिए।”
खबर के बाद विज्ञापन बन चुके एक पेज के दावों के मुताबिक नंदू रावत की बोलगार्ड-2 की प्रति एक़ड़ उत्पादकता 20 क्विंटल होनी चाहिए, जो कृषि मंत्री शरद पवार के बताए 1.4 क्विंटल औसत की तुलना में 14 गुना ज्यादा है.
पवार का मानना है कि विदर्भ इलाके में बारिश के पानी पर निर्भरता की वजह से पैदावार कम होती है, क्योंकि कपास की दो से तीन बार सिंचाई की जरूरत होती है। हालांकि वह इस सवाल पर खामोश हो जाते हैं कि महाराष्ट्र में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी व कांग्रेस की सरकार है, ऐसे में एक सूखे इलाके में बीटी काटन को क्यों बढ़ावा दिया जा रहा है। अगर हम टाइम्स आफ इंडिया की मानें तो नंदू नकदी की ढेर पर बैठा है, लेकिन कृषि मंत्री की बात पर यकीन करें तो वह मुश्किल से अपनी जान बचा रहा है।
म्हाइको मोनसेंटो बायोटेक के 2011 के ठीक इसी सप्ताह में दिल्ली के एक अखबार में छपे विज्ञापन पर विवाद हुआ था। एक विज्ञापन पर एडवर्टाइजिंग स्टैंडर्ड काउंसिल आफ इंडिया (एएससीआई) के पास शिकायत पहुंची, जिसमें भारतीय किसानों को भारी मुनाफे का दावा किया गया था। एएससीआई ने पाया कि विज्ञापन में किए गए दावे पुष्ट नहीं हैं। एमएमबी के प्रवक्ता ने कहा कि कंपनी ने एएससीआई की ओर से उठाए गए मसलों को संज्ञान में लिया और उसके मुताबिक विज्ञापन में बदलाव किया गया।
हम स्थायी समिति के सांसदों के साथ जब मार्च में गांव के दौरे से लौट रहे थे तो एक बार फिर नंदू से मिले। उसने कहा, “आज की तारीख में फिलहाल मैं यही सलाह दूंगा कि यहां बीटी काटन का इस्तेमाल न करें, क्योंकि यह असिंचित इलाका है। अब हालात बहुत खराब हो गए हैं।” उसने सांसदों के साथ बैठक में एक भी सवाल नहीं उठाए और हा कि वह इतनी देर से आए हैं कि कुछ कर नहीं सकते।
टाइम्स आफ इंडिया की एक खबर में एक किसान मंगू चव्हाण अपने बयान में कहता है, “हम अब महाजनों के चंगुल से दूर हैं। अब किसी को उनकी जरूरत नहीं होती।” यह अंतरगांव के किसान का बयान है, जहां बीटी काटन के चलते लोगों की अमीरी दिखाई गई है। लेकिन भांबराजा के 365 किसान परिवारों और अंतरगांव के 150 परिवारों पर किए गए अध्ययन के आंकड़े कुछ और ही बयां करते हैं। यह अध्ययन विदर्भ जन आंदोलन समिति ने किए हैं। समिति के प्रमुख किशोर तिवारी कहते हैं, “बैंक खाते रखने वाले ज्यादातर किसान डिफाल्टर हो चुके हैं औऱ 60 प्रतिशत किसान साहूकारों के कर्ज तले दबे हैं।”
महाराष्ट्र सरकार ने पूरी कोशिश की कि सांसदों को “आदर्श गांव” भांबराजा और मारेगांव न जाने दिया जाए। बहरहाल, समिति के अध्यक्ष बासुदेव आचार्य और उनके सहयोगी वहां जाने को तत्पर थे। सांसदों के दौरे से प्रोत्साहित गांव वाले खुलकर बोले। महाराष्ट्र में 1995 से 2010 के बीच 50,000 से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है। राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक यह सबसे खराब स्थिति है। विदर्भ में लंबे समय से इस तरह की मौतें हो रही हैं। अब किसान भी नीतिगत मसलों पर आवाज उठाने लगे हैं, जिसकी वजह से गांवों में तनाव बढ़ा है।
किसी भी किसान ने यह नहीं कहा कि आत्महत्या की घटनाओं या संकट की वजह केवल बीटी काटन है। लेकिन गांववाले इसके करिश्मे के तमाम दावों की हवा निकालते हैं। उनकी कुछ प्रतिक्रियाएं तो सांसदों के लिए खबर की तरह आईं, न कि भुगतान की गई खबर या मार्केटिंग फीचर के रूप में।

Saturday, May 12, 2012

सिर जो झुका रहा है, वह भी है घोंघा बसन्त

(फेसबुक फ्रेंडों के पहले मेरे ब्लॉग फ्रेंड हुआ करते थे, अब भी हैं, लेकिन उधर सक्रियता कम होने की वजह से मामला सुस्त है। अंबेडकर के कार्टून को मुझे बहुत स्पष्ट समझाने में मेरी मदद की मेरे पुराने ब्लॉग फ्रेंड दिनेश राय द्विवेदी ने। अगर आपको भी समझने में कोई दिक्कत हो तो इस लेख से मदद जरूर लें। ऐसा लगता है कि शंकर असल में यही दिखाना चाह रहे थे, कार्टून की बाकी व्याख्याएं अतार्किक और बवाली हैं- जिसमें मेरे भी तमाम तर्क हैं)
दिनेशराय द्विवेदी
घोंघा एक विशेष प्रकार का जंतु है जो अपने जीवन का अधिकांश एक कड़े खोल में बिता देता है। इस के शरीर का अधिकांश हिस्सा सदैव ही खोल में बंद रहता है। जब इसे आहार आदि कार्यों के लिए विचरण करना होता है तो यह शरीर का निचला हिस्सा ही बाहर निकालता है जिस में इस के पाद (पैर) होते हैं और जिन की सहायता से यह चलता है। जैसे ही किसी आसन्न खतरे का आभास होता है यह अपने शरीर को पूरी तरह से खोल में छिपा लेता है। खतरे के पल्ले केवल कड़ा खोल पड़ता है। खतरे की संभावना मात्र से खोल में छिपने की इस की प्रवृत्ति पर अनेक लेखकों ने अपनी कलम चलाई है। इसे आधार बना कर सब से खूबसूरत कहानी महान रूसी कथाकार अंतोन चेखोव की ‘दी मेन इन दी केस’ है जिस के हिन्दी अनुवाद का शीर्षक ही ‘घोंघा’ है। इस कहानी को पढ़ कर मनुष्य की घोंघा प्रवृत्ति का अच्छा ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।
खतरे से बचने के लिए कड़े खोल का निर्माण करने और खतरे की आशंका मात्र से खोल में छुप जाने की इस घोंघा प्रवृत्ति को व्यंग्य की धार बनाने का उपयोग साहित्य में अनेक लोगों ने किया है। लेकिन घोंघे की चाल की विशिष्ठता का उपयोग बिरले ही देखा गया है। विभिन्न प्रजाति के स्थलीय घोंघों की चाल नापे जाने पर प्राप्त परिणामों के अनुसार उन की न्यूनतम चाल 0.0028 मील प्रतिसैकंड और अधिकतम चाल 0.013 मील प्रति सैंकंड है। इस अधिकतम चाल से कोई भी घोंघा एक घंटे में 21 मीटर से अधिक दूरी नहीं चल सकता। पिछली सदी के महान भारतीय व्यंग्य चित्रकार केशव शंकर पिल्लई ने घोंघे की चाल का अपने व्यंग्य चित्र में जिस तरह से उपयोग किया उस का कोई सानी नहीं है। इस व्यंग्य चित्र में भारतीय राजनीति की दो महान हस्तियाँ सम्मिलित थीं। इस व्यंग्य चित्र को सामाजिक विज्ञान की पाठ्य पुस्तक में सम्मिलित किए जाने को कुछ लोगों ने प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लिया और उसे पुस्तक से हटाने की मांग को ले कर संसद में हंगामा खड़ा किया। सरकार इस विवाद के सामने बेदम नजर आई। विभागीय मंत्री जी को खेद व्यक्त करते हुए उस व्यंग्य चित्र को पाठ्यपुस्तक से हटाने की घोषणा करनी पड़ी। भारतीय संसद नित नए प्रहसनों के लिए पहले ही कम ख्यात नहीं है। इस नए प्रहसन ने संसद की छवि में चार चांद और लगा दिए।
इस व्यंग्य चित्र में घोंघे को निर्मित होते हुए संविधान के रूप में दिखाया गया है। संविधान के इस घोंघे पर संविधान सभा के सभापति डा. भीमराव अम्बेडकर सवार हैं और चाबुक चला रहे हैं जिस से घोंघा दौड़ने लगे और शीघ्रता से अपनी मंजिल तय कर सके। घोंघे की इस चाल से तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू भी प्रसन्न नहीं हैं और वे भी चाबुक ले कर घोंघे पर पिले पड़े हैं। सारे भारत की जनता इन दोनों महान नेताओं की इस चाबुकमार पर हँस रही है। इस व्यंग्य चित्र से प्रदर्शित हो रहा है कि दोनों महान नेताओं को संविधान का निर्माण संपन्न होने की इतनी व्यग्रता है कि वे यह भी विस्मृत कर गए कि यह जल��दबाजी में करने का नहीं अपितु तसल्ली से करने का काम है, इसीलिए संविधान को यहाँ घोंघे के रूप में दिखाया गया है। चाहे कितने ही चाबुक बरसाए जाएँ घोंघा तो अपनी चाल से ही चलेगा, उसे दौड़ाया नहीं जा सकता। अब घोंघे को चाबुक मार कर दौड़ाने का प्रयत्न तो एक मूर्खतापूर्ण कृत्य ही कहा जा सकता है। वास्तव में कोई ऐसा करे और उसे देखने वाला उस पर हँसे न तो क्या करे? इस व्यंग्य चित्र में दोनों महान नेताओं के इस कृत्य पर जनता का हँसना एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया के रूप में सामने आया है।
इस व्यंग्य चित्र से न तो डाक्टर भीमराव अंबेडकर की प्रतिष्ठा को कोई आँच पहुँचती है और न ही नेहरू के सम्मान पर। हाँ उन की स्वाभाविक व्यग्रता जनता के सामने हँसी का कारण अवश्य बनती है। यह व्यंग्य चित्र दोनों नेताओं की व्यग्रता को जनता के प्रति उन की प्रतिबद्धता और कर्तव्यनिष्ठता के रूप में प्रदर्शित करता है। मुझे तो लगता है कि यदि किसी पाठ्य पुस्तक में व्यंग्य चित्रों के माध्यम से तत्कालीन राजनीति को समझाने की कोशिश की जाए तो इस व्यंग्य चित्र को अवश्य ही उस में शामिल होना चाहिए। पाठ्यपुस्तक निर्माताओं ने यही किया भी था।
संसद में जब यह प्रश्न उठा तो सरकार को उस का सामना करना चाहिए था और उस मुद्दे पर हंगामा नहीं बहस होनी चाहिए थी। सदन में उपस्थित विद्वान सांसदों को इस मामले की विवेचना को सदन के समक्ष रखना चाहिए था। यदि फिर भी संतुष्टि नहीं होती तो इस मामले को साहित्य और कला के मर्मज्ञों की एक समिति बना कर उस के हवाले करना चाहिए था और उस की समालोचना की प्रतीक्षा करनी चाहिए थी। लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ। डा. भीमराव अम्बेडकर को भगवान का दर्जा दे कर अपनी राजनीति भाँजने वाले लोगों का खुद डा. अम्बेडकर से क्या लेना देना? उन का मकसद तो संसद में हंगामे की तलवारें भांज कर वीर कहाना मात्र था। सरकारी पक्ष ने बाँकों के इस प्रहसन को एक गंभीर चुनौती के रूप में स्वीकार करने के स्थान पर उसे अपनी गलती के रूप में स्वीकार करते हुए सीधे सीधे आत्मसमर्पण कर दिया। जैसे जूता मंदिर में प्रवेश नहीं पा सकता, व्यंग्य चित्र का पाठ्य पुस्तक में क्या काम? मंदिर में जूते के प्रवेश नही पा सकने से उस का महत्व कम नहीं हो जाता। अपितु जो व्यक्ति जूते को बाहर छोड़ कर जाता है उसका ध्यान भगवान की प्रार्थना में कम और जूते में अधिक रहता है।
इस घर में पहले भी कम नहीं थे घोंघा बसन्त।
अब जिधर भी देखो नजर आते हैं घोंघा बसन्त।।
चाबुक जो थामे है, वह तो है घोंघा बसन्त।
सिर जो झुका रहा है, वह भी है घोंघा बसन्त।।
http://blogs.navbharattimes.indiatimes.com/dineshraidwivedi/entry/%E0%A4%B8-%E0%A4%B0-%E0%A4%9C-%E0%A4%9D-%E0%A4%95-%E0%A4%B0%E0%A4%B9-%E0%A4%B9-%E0%A4%B5%E0%A4%B9-%E0%A4%AD-%E0%A4%B9-%E0%A4%98-%E0%A4%98-%E0%A4%AC%E0%A4%B8%E0%A4%A8-%E0%A4%A4

तार्किक है किताब में कार्टून डाला जाना

(अंबेडकर पर छपे एक कार्टून पर 50-70 साल बाद बवाल हो गया। कार्टून किताब में डाला गया, इसलिए। हिमांशु पंड्या ने इस पर एक बहुत धारदार, शानदार और तार्किक लेख लिखा। अगर ऐसी किताबें आएं तो निश्चित रूप से छात्रों की तर्कशक्ति बढ़ेगी और वह शानदार तरीके से सीख सकेंगे।)
हिमांशु पंड्या
जिस किताब में छपे कार्टून पर विवाद हो रहा है, उसमें कुल बत्तीस कार्टून हैं। इसके अतिरिक्त दो एनिमेटेड बाल चरित्र भी हैं - उन्नी और मुन्नी। मैं सबसे पहले बड़े ही मशीनी ढंग से इनमें से कुछ कार्टूनों का कच्चा चिट्ठा आपके सामने प्रस्तुत करूँगा, फिर अंत में थोड़ी सी अपनी बात।
# नेहरु पर सबसे ज्यादा (पन्द्रह) कार्टून हैं। ये स्वाभाविक है क्योंकि किताब है : भारत का संविधान : सिद्धांत और व्यवहार। # एक राज्यपालों की नियुक्ति पर है। उसमें नेहरू जी किक मारकर एक नेता को राजभवन में पहुंचा रहे हैं। # एक भाषा विवाद पर है, उसमें राजर्षि टंडन आदि चार नेता एक अहिन्दी भाषी पर बैठे सवारी कर रहे हैं। # एक में संसद साहूकार की तरह बैठी है और नेहरू, प्रसाद, मौलाना आज़ाद, जगजीवन राम, मोरारजी देसाई आदि भिखारी की तरह लाइन लगाकर खड़े हैं। यह विभिन्न मंत्रालयों को धन आवंटित करने की एकमेव ताकत संसद के पास होने पर व्यंग्य है। # एक में वयस्क मताधिकार का हाथी है जिसे दुबले पतले नेहरू खींचने की असफल कोशिश कर रहे हैं। # एक में नोटों की बारिश हो रही है या तूफ़ान सा आ रहा है जिसमें नेहरू, मौलाना आजाद, मोरारजी आदि नेता, एक सरदार बलदेव सिंह, एक अन्य सरदार, एक शायद पन्त एक जगजीवन राम और एक और प्रमुख नेता जो मैं भूल रहा हूँ कौन - तैर रहे हैं। टैगलाइन है - इलेक्शन इन द एयर।
# एक में नेहरू हैरान परेशान म्यूजिक कंडक्टर बने दो ओर गर्दन एक साथ घुमा रहे हैं। एक ओर जन-गण-मन बजा रहे आंबेडकर, मौलाना, पन्त, शायद मेनन, और एक वही चरित्र जो पिछले कार्टून में भी मैं पहचान नहीं पाया, हैं। ये लोग ट्रम्पेट, वायलिन आदि बजा रहे हैं जबकि दूसरी ओर वंदे मातरम गा रहे दक्षिणपंथी समूह के लोग हैं। श्यामाप्रसाद मुखर्जी बजाने वालों की मंडली से खिसककर गाने वालों की मंडली में जा रहे हैं। # एक में चार राजनीतिज्ञ नेहरु, पटेल, प्रसाद और एक और नेता भीमकाय कॉंग्रेस का प्रतिनिधित्त्व करते हुए एक लिलिपुटनुमा विपक्ष को घेरकर खड़े हैं। यह चुनाव और प्रतिनिधित्त्व की दिक्कतें बताने वाले अध्याय में है। # ऊपरवाले कार्टून के ठीक उलट है ये कार्टून जिसमें नेहरु को कुछ भीमकाय पहलवाननुमा लोगों ने घेर रखा है, लग रहा है ये अखाड़ा है और नेहरु गिरे पड़े हैं। घेरे खड़े लोगों के नाम हैं - विशाल आंध्रा, महा गुजरात, संयुक्त कर्नाटक, बृहनमहाराष्ट्र। ये कार्टून नए राज्यों के निर्माण के लिए लगी होड़ के समय का है।
### कवर पर बना कार्टून सबसे तीखा है। आश्चर्य है इससे किसी की भावनाएं आहत क्यों नहीं हुईं। यह आर. के. लक्ष्मण का है। इसमें उनका कॉमन मैन सो रहा है, दीवार पर तस्वीरें टंगी हैं - नेहरु, शास्त्री, मोरारजी, इंदिरा, चरण सिंह, वी.पी.सिंह, चंद्रशेखर, राव, अटल बिहारी और देवैगोडा... और टीवी से आवाजें आ रही हैं - "unity, democracy, secularism, equality, industrial growth, economic progress, trade, foreign collaboration, export increase, ...we have passenger cars, computers, mobile phones, pagers etc... thus there has been spectacular progress... and now we are determined to remove poverty, provide drinking water, shelter, food, schools, hospitals...
कार्टून छोड़िये, इस किताब में उन्नी और मुन्नी जो सवाल पूछते हैं, वे किसी को भी परेशान करने के लिए काफी हैं। वे एकबारगी तो संविधान की संप्रभुता को चुनौती देते तक प्रतीत होते हैं। मसलन, उन्नी का ये सवाल - क्या यह संविधान उधार का था? हम ऐसा संविधान क्यों नहीं बना सके जिसमें कहीं से कुछ भी उधार न लिया गया हो? या ये सवाल (किसकी भावनाएं आहत करेगा आप सोचें) - मुझे समझ में नहीं आता कि खिलाड़ी, कलाकार और वैज्ञानिकों को मनोनीत करने का प्रावधान क्यों है? वे किसका प्रतिनिधित्त्व करते हैं? और क्या वे वास्तव में राज्यसभा की कार्यवाही में कुछ खास योगदान दे पाते हैं? या मुन्नी का ये सवाल देखें - सर्वोच्च न्यायालय को अपने ही फैसले बदलने की इजाज़त क्यों दी गयी है? क्या ऐसा यह मानकर किया गया है कि अदालत से भी चूक हो सकती है? एक जगह सरकार की शक्ति और उस पर अंकुश के प्रावधान पढ़कर उन्नी पूछता है - ओह! तो पहले आप एक राक्षस बनाएँ फिर खुद को उससे बचाने की चिंता करने लगे। मैं तो यही कहूँगा कि फिर इस राक्षस जैसी सरकार को बनाया ही क्यों जाए?
किताब में अनेक असुविधाजनक तथ्य शामिल किये गए हैं। उदाहरणार्थ, किताब में बहुदलीय प्रणाली को समझाते हुए ये आंकड़े सहित उदाहरण दिया गया है कि चौरासी में कॉंग्रेस को अड़तालीस फीसदी मत मिलने के बावजूद अस्सी फीसदी सीटें मिलीं। इनमें से हर सवाल से टकराते हुए किताब उनका तार्किक कारण, ज़रूरत और संगती समझाती है। यानी किताब अपने खिलाफ उठ सकने वाली हर असहमति या आशंका को जगह देना लोकतंत्र का तकाजा मानती है। वह उनसे कतराती नहीं, उन्हें दरी के नीचे छिपाती नहीं, बल्कि बच्चों को उन पर विचार करने और उस आशंका का यथासंभव तार्किक समाधान करने की कोशिश करती है। उदाहरण के लिए जिस कार्टून पर विवाद है, वह संविधान निर्माण में लगने वाली देरी के सन्दर्भ में है। किताब में इस पर पूरे तीन पेज खर्च किये गए हैं, विस्तार से समझाया गया है कि संविधान सभा में सभी वर्गों और विचारधाराओं के लोगों को शामिल किया गया। उनके बीच हर मुद्दे पर गहराई से चर्चा हुई। संविधान सभा की विवेकपूर्ण बहसें हमारे लिए गर्व का विषय हैं, किताब ये बताती है। मानवाधिकार वाले अध्याय में सोमनाथ लाहिड़ी को (चित्र सहित) उद्धृत किया गया है कि अनेक मौलिक अधिकार एक सिपाही के दृष्टिकोण से बनाए गए हैं यानी अधिकार कम हैं, उन पर प्रतिबन्ध ज्यादा हैं। सरदार हुकुम सिंह को (चित्र सहित) उद्धृत करते हुए अल्पसंख्यकों के अधिकारों का सवाल उठाया गया है। किताब इन सब बहसों को छूती है। सबसे महत्त्वपूर्ण बात ये है कि जहाँ देर के कारण गिनाए गए हैं, वहाँ ये रेखांकित किया गया है कि संविधान में केवल एक ही प्रावधान था जो बिना वाद-विवाद सर्वसम्मति से पास हो गया - सार्वभौम मताधिकार। किताब में इस पर टिप्पणी है – “इस सभा की लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति निष्ठा का इससे बढ़िया व्यावहारिक रूप कुछ और नहीं हो सकता था।”
बच्चों को उपदेशों की खुराक नहीं चाहिए, उन्हें सहभागिता की चुनौती चाहिए। उपदेशों का खोखलापन हर बच्चा जानता है। यह और दो हज़ार पांच में बनी अन्य किताबें बच्चों को नियम/ सूत्र/ आंकड़े/ तथ्य रटाना नहीं चाहतीं। प्रसंगवश पाठ्यचर्या दो हज़ार पांच की पृष्ठभूमि में यशपाल कमेटी की रिपोर्ट थी। बच्चे आत्महत्या कर रहे थे, उनका बस्ता भारी होता जा रहा था, पढ़ाई उनके लिए सूचनाओं का भण्डार हो गयी थी, जिसे उन्हें रटना और उगल देना था। ऐसे में इस तरह के कार्टून और सवाल एक नयी बयार लेकर आये। ज्ञान एक अनवरत प्रक्रिया है, यदि ज्ञान कोई पोटली में भरी चीज़ है जिसे बच्चे को सिर्फ ‘पाना’ है तो पिछली पीढ़ी का ज्ञान अगली पीढ़ी की सीमा बन जाएगा। किताब बच्चे को अंतिम सत्य की तरह नहीं मिलनी चाहिये, उसे उससे पार जाने, नए क्षितिज छूने की आकांक्षा मिलनी चाहिए।
किताब अप्रश्नेय नहीं है और न ही कोई महापुरुष। कोई भी - गांधी, नेहरु, अम्बेडकर, मार्क्स... अगर कोई भी असुविधाजनक तथ्य छुपाएंगे तो कल जब वह जानेगा तो इस धोखे को महसूस कर ज़रूर प्रतिपक्षी विचार के साथ जाएगा। उसे सवालों का सामना करना और अपनी समझ/ विवेक से फैसला लेने दीजिए। यह किताब बच्चों को किताब के पार सोचने के लिए लगातार सवाल देती चलती है, उदाहरणार्थ यह सवाल - (क्या आप इससे पहले इस सवाल की कल्पना भी कर सकते थे?) क्या आप मानते हैं कि निम्न परिस्थितियाँ स्वतंत्रता के अधिकार पर प्रतिबंधों की मांग करती हैं? अपने उत्तर के समर्थन में तर्क दें – क* शहर में साम्प्रदायिक दंगों के बाद लोग शान्ति मार्च के लिए एकत्र हुए हैं। ख* दलितों को मंदिर प्रवेश की मनाही है। मंदिर में जबरदस्ती प्रवेश के लिए एक जुलूस का आयोजन किया जा रहा है। ग* सैंकड़ों आदिवासियों ने अपने परम्परागत अस्त्रों तीर-कमान और कुल्हाड़ी के साथ सड़क जाम कर रखा है। वे मांग कर रहे हैं कि एक उद्योग के लिए अधिग्रहीत खाली जमीं उन्हें लौटाई जाए। घ* किसी जाती की पंचायत की बैठक यह तय करने के लिए बुलाई गयी है कि जाती से बाहर विवाह करने के लिए एक नवदंपत्ति को क्या दंड दिया जाए।
अब आखिर में, जिन्हें लगता है कि बच्चे का बचपन बचाए रखना सबसे ज़रूरी है और वो कहीं दूषित न हो जाए, उन्हें छान्दोग्य उपनिषद का रैक्व आख्यान पढ़ना चाहिए। मेरी विनम्र राय में बच्चे को यथार्थ से दूर रखकर हम सामाजिक भेदों से बेपरवाह, मिथकीय राष्ट्रवाद से बज्बजाई, संवादहीनता के टापू पर बैठी आत्मकेंद्रित पीढ़ी ही तैयार करेंगे। तब, कहीं देर न हो जाए।

Friday, May 4, 2012

अबूझ है अबूझमाड़ की चुनौती


आदिति फडणीस
माओवादियों ने उड़ीसा के विधायक झीना हिकाका को अपनी गिरफ्त से छोड़ दिया है। हिकाका माओवादियों की मदद से ही विधायक चुने गए थे। उनके बदले में राज्य सरकार ने सिर्फ एक माओवादी महिला को छोड़ा है। छत्तीसगढ़ में भी माओवादियों ने भारतीय प्रशासनिक सेवा (आईएएस) के अधिकारी एलेक्स पॉल मेनन को अपनी गिरफ्त से आजाद कर दिया है। हालांकि उन्होंने किसी को नुकसान नहीं पहुंचाया, पर हर बात माओवादी अपहरणों को तिकड़म ही साबित करती है। बहरहाल माओवादी वह सब कुछ कर रहे हैं जिनसे वे अपने इलाके की हदबंदी तय कर सकते हों। जिसे वे अपना 'राज्य' कह सकते हों।
अबूझमाड़ माओवादियों का 'राज्य' है। इसका वास्तविक आकार एक अबूझ पहेली है। यह इलाका करीब 10,000 से 15,000 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है जो आकार में फिजी या साइप्रस के बराबर है-जो बस्तर के जंगलों वाले दूरदराज के क्षेत्र से लेकर आंध्र प्रदेश के आदिलाबाद, खमम और पूर्वी गोदावरी जिलों और महाराष्ट्र के चंद्रपुर और गढ़चिरौली से लेकर मध्य प्रदेश के बालाघाट और ओडिशा के मलकानगिरि तक फैला हुआ है। इस इलाके के क्षेत्रों का कभी सर्वेक्षण नहीं हुआ, यहां तक कि 15वीं शताब्दी के मध्य में मुगल सम्राट अकबर द्वारा भी इसका सर्वेक्षण नहीं कराया गया जिन्होंने भारत का पहला राजस्व सर्वेक्षण कराया था। भारत के पहले महासर्वेक्षक एडवर्ड एवरेस्ट भी वर्ष 1872 से 1880 के बीच अबूझमाड़ की समस्त स्थलाकृति का आकलन करने में नाकाम रहे थे। खुफिया एजेंसियों के अनुसार अबूझमाड़ में माओवादियों के सभी बड़े प्रतिष्ठान मौजूद हैं जिनमें हथियार निर्माण इकाइयों से लेकर छापामार प्रशिक्षण केंद्र भी शामिल हैं। यह शीर्ष नेताओं के लिए भी सुरक्षित पनाहगाह है। राज्य के एक वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने कहा, 'यह इलाका भारी उत्खनन वाला है और सुरक्षा एजेंसियों के लिए काम करना लगभग असंभव सा है।'
माओवादी भी अपने परिचालन इलाके का विस्तार कर रहे हैं। इस क्षेत्र की तेजी से बढ़ती हुई अर्थव्यवस्था ने कच्चे माल की मांग में इजाफा कर दिया है। तापीय ऊर्जा और इस्पात में निवेश के लिए छत्तीसगढ़ पसंदीदा ठिकाना है। सेल, एस्सार, टाटा और जिंदल में राज्य में बड़ी कोयला और लौह अयस्क खदानों को हासिल करने की होड़ में लगी हुई हैं। छत्तीसगढ़ में अपनाई जा रही नई तिकड़में दूसरे खनन इलाकों में अपना वर्चस्व दिखाने की कोशिश लगती हैं। हीरा-पट्टी के रूप में पहचाने जाने वाले रायपुर जिले में एक शीर्ष माओवादी नेता की हालिया गिरफ्तारी से इस पर मुहर भी लग जाती है। उनके हित केवल जंगल तक ही सीमित नहीं हैं बल्कि खनन और औद्योगिक इलाकों तक हैं। सरगुजा जिले के सिरीडीह और मानिपत इलाकों के बॉक्साइट समृद्घ क्षेत्र में जहां हिंडाल्को और वेदांत की भारत एल्युमीनियम जैसी कंपनियों के संयंत्र हैं, वहां भी उन्होंने अपनी मौजूदगी दिखाई है। छत्तीसगढ़ में उद्योगों के विरोध के अलावा विद्रोहियों ने राज्य की अर्थव्यवस्था पर भी मार की है। इन हालात में कृषि करना असंभव है। और न ही राज्य अपने वन उत्पादों के लिहाज से लाभान्वित हो पा रहा है। क्षेत्र के लिए भारी बजट खर्च ही नहीं हो पाता। छत्तीसगढ़ सरकार के गृह विभाग का 450 करोड़ रुपये का 30 फीसदी हिस्सा माओवादियों के खिलाफ अभियान पर खर्च हो जाता है।
ये समूह कैसे संचालन करते हैं? पिछले एक दशक से माओवादी आंदोलन की तस्वीर काफी बदली है जहां गठजोड़ और एकीकरण में तेजी आई। छोटे समूहों ने खुद को बड़े समूहों के साथ संबद्घ कर लिया, कार्यकर्ताओं ने विरोधियों का दामन थाम लिया और गुटों की लड़ाई में कई वफादारों को जान गंवानी पड़ी, इसने माओवादियों को यह सोचने पर भी मजबूर कर दिया कि वे साथ मिलकर कैसे अपनी ताकत का बेहतर इस्तेमाल कर सकते हैं।
मगर व्यापक स्तर पर समूहों के बीच बेहतर समन्वय है जो पहले कभी इतना सहज नहीं था। तकरीबन 36 साल बाद ओडिशा-झारखंड सीमा के किसी जंगली इलाके में हुई सीपीआई (माओवादी) की नवीं कांग्रेस में विशेष आर्थिक क्षेत्रों (सेज), जंगल और आदिवासियों की जमीन अधिग्रहण कर उस पर औद्योगीकरण का विरोध करने का फैसला किया गया। छत्तीसगढ़ में माओवादी पहले ही बस्तर में इस्पात संयंत्र लगाने के लिए टाटा और एस्सार को चेतावनी दे चुके हैं। सूत्रों के अनुसार कांग्रेस में कलिंग नगर, सिंगुर, नंदीग्राम और पोलावरम (आंध्र प्रदेश) में भी विरोध करने का फैसला किया गया। कुछ और खास परियोजनाओं पर उनकी टेढ़ी नजर है, इससे यह चुनौती और भयावह बन जाती है।
माओवादियों को कैसे मात दी जा सकती है-क्या उन्हें दी जानी चाहिए? यह समझना मुश्किल नहीं कि नक्सलवादी वहीं पनपेंगे जहां विकास और लोकतंत्र का नामोनिशां नहीं होगा। उनका तर्क है कि उनके संसाधनों से ही आर्थिक तेजी आई है और वे उसके लाभ से वंचित रह गए। अलगाववाद से निपटने में व्यापक अनुभव रखने वाले ब्रिगेडियर बसंत पंवार सैन्य तर्क के साथ कहते हैं, 'आप सैन्य तरीके से नक्सलवादियों को मात दे सकते हैं। आखिरकार वे क्या करते हैं-वे खनन के लिए राष्ट्रीय खनिज विकास निगम के गोदाम में रखे विस्फोटक लूटते हैं, पुलिस चौकियों से राइफल, एलएमजी और एके 47 लूटते हैं? लेकिन इन इलाकों में सैन्य दखल के लिए सरकार को इच्छाशक्ति दिखानी होगी। इन इलाकों में ऐसा करना ही होगा-क्योंकि यदि ऐसा नहीं किया जाता तो नक्सलवादी और उभरेंगे।' नक्सल प्रभाव में सरगुजा जिले में किए गए अर्थशास्त्री ज्यां द्रेज के सर्वेक्षण में इसका जवाब रोजगार सृजन बताया गया है। जो लोग नक्सलवाद से इत्तफाक नहीं रखते उनको संगठित करने के विचार का दुर्भाग्यपूर्ण पहलू यही है कि वे नक्सली हमलों की भेंट चढ़ जाते हैं। आदिवासी जंगल को अपना घर मानते हैं, फिलहाल उन्हें नक्सली हमलों से बचाने के लिए विशेष शिविरों में रखा जा रहा है। एक बात तो तय है: चाहे कितनी भी पुलिसिया या सैन्य कार्रवाई क्यों न कर ली जाए नक्सलवादी आंदोलन के उभार को नहीं रोका जा सकता। पंवार कहते हैं, 'ऐसा नहीं कि सैन्य चुनौती बड़ी है। असल में हमारी जवाबी कार्रवाई कमजोर है।' साभारः http://hindi.business-standard.com/hin/storypage.php?autono=58347

Friday, March 30, 2012

We are with you comrade Chandrashekhar


(Just I got a old story on Comrade Chandrashekhar. I am sharing it on the eve of Martyr's Day of A real student's leader)

KAUSHALYA DEVI is not a political leader and she is not rich. Still, she commands obvious respect from the man on the street in this small town in northwest Bihar — whether it is the rickshaw puller or the roadside hawker. After all, her son’s statue
graces the town’s Gopalganj More Chowk.

Chandrashekhar Prasad was an office bearer of the CPI (ML). While studying at the Jawaharlal Nehru University in New Delhi, he was elected president of the student’s union twice. He was 34 when he was gunned down, allegedly by men belonging to Mohammad Shahabuddin’s gang.

Shahabuddin is a member of the Rashtriya Janata Dal (RJD)and represents Siwan in the Lok Sabha. He was recently convicted by a special fast track court in Siwan in two
cases of abduction. Gopalganj More Chowk, a small junction from where the highway to Gopalganj (RJD chief Laloo Prasad’s home) leads off, is now officially called Chandrashekhar Chowk.

“Shahabuddin will surely be convicted and hanged for the murder. It is the prayers of many mothers and widows in Siwan who lost their beloveds over the years by his bullets,” 72-year-old Kaushalya Devi told TEHELKA at her small house in Bindusar village, four kilometres from Siwan town.

The CPI (ML) leadership greeted Shahabuddin’s convictions with great joy, but their enthusiasm is not shared by her. “The party says the convictions are the victory of the downtrodden or the proletariat. There is no such thing. The murders by Shahabuddin were all for political reasons: to capture power.

Like Shahabuddin, it was pure politics for the CPI (ML) too. The same ugly politics continues even today,” she said. It wouldn’t be too much of an exaggeration to say that after her husband, a sergeant in the Air Force, died of cardiac arrest in 1973, she only lived for her sevenyear- old son. She only got Rs 150 as pension but she made sure that her son was educated well.

He first attended the Sainik School in Jhumri-Tilaiya, then went to the National Defence Academy in Pune and then to JNU.“I was sad when he came back to Siwan after finishing his studies at JNU to become a fulltime activist of the CPI (ML),” she said. “But his passion for national politics and sincere love for the poor convinced me that he had a noble purpose in life. Seeing his selfless work, I stopped telling him to take up a government job.

Ten years after his murder, I realise how selfish the political party is.” She lives alone in her two-room house at Bindusar. A visit by a CPI (ML) activist is rare.

“For the CPI (ML), my value as a useful political weapon was over. Today, nobody in the party is bothered about how Chandrashekhar’s old mother lives,” she said. “The party made full use of me during the two-three years after my son’s murder. The CPI (ML) has been thriving on the politics of dead bodies.”

Soon after Chandrashekhar was killed, people from across the country and even abroad flocked to Siwan and participated in processions. T-shirts bearing Chandrashekhar’s image were distributed by the CPI (ML).

“I was very sad to see party cadres, even senior leaders, selling these T-shirts secretly at very high prices,” Kaushalya Devi said. She had returned the Rs 1-lakh compensation given to her by the prime minister.WHEN THE Siwan unit of CPI (ML) decided to install a statue of Chandrashekhar, they asked her to “donate” Rs 40,000.

“They almost forced me to donate the amount. Then they forgot about the statue. After three years of constant complaining, they installed it last year,” she said. She had to complain to the party general secretary Dipankar Bhattacharya to get it installed. “The statue was installed by the people who didn’t even pay for a funeral shroud when his body was brought for the cremation. I had to pay for it,” she said.

She has donated a piece of land close to Chandrashekhar’s memorial for a school and a library. It still remains a dream. “Setting the school up is nowhere in sight. The memorial lies neglected,” she said.

Kaushalya Devi holds the CPI (ML) responsible for her son’s murder. “When there were constant threats and warnings to my son from the Shahabuddin gang, several party workers had been in touch with Shahabuddin.

The party never cared for his security. The CPI (ML) leader who had lodged the FIR after Chandrashekhar’s murder later turned hostile and joined Shahabuddin’s gang,”
she said. “Sometimes, I see the party’s hand in my son’s murder.”

The CPI (ML) leadership says that her charges are “a grieving mother’s emotional outbursts”. The CPI (ML) Bihar secretary Nand Kishore was the Siwan regional secretary when Chandrashekhar was killed. “She is the mother of all the CPI (ML) workers. We respect her highly,” he told TEHELKA. “There is no truth in what she is
saying. The delay in installing the statue was due to the difficulty in finding a suitable site and the fear of Shahabuddin.

As far as Chandrashekhar’s security goes, all CPI (ML) workers in Siwan were under severe threat during those days.” CPI (ML) general secretary Dipankar Bhattacharya was apologetic. “I am unaware of any such activities by party workers.

The party is with Chandrashekhar’s mother, and will look after her well. I will look into her grievances,” he said.

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(Chandrashekar Prasad was an Indian student leader from Jawaharlal Nehru University, a president of its students' union and an activist of the Communist Party of India (Marxist-Leninist) Liberation. He was shot dead on March 31, 1997 while addressing street corner meetings in the north-Bihar district town of Siwan in support of a strike called by his party. His assassination led to large student protests in India.
Education
Born at bindusar village in Siwan in a poor kushwaha family, Chandrashekhar was an only child. His father who was in the army died when he was a boy, and his widowed mother worked hard to pay for his education. Following his initial education in Siwan, he studied at the Sainik School Tilaiya. He joined the Indian National Defence Academy but soon left it, telling his mother in a letter that he wanted to be an activist. He joined the University of Patna before joining JNU.
Early years
From early in his student life Chandrashekhar was involved in student activism. In the mid-1980s he became the vice-president of the Bihar unit of the All India Students Federation, the student organisation of the Communist Party of India(CPI).
Soon after, he became disillusioned with what he believed to be the reformist and parliamentarist politics of the CPI and grew sympathetic to CPI-ML(Liberation).
Jawaharlal Nehru University
After joining JNU Chandrashekar played a very important role in the building of AISA, the newly formed student organization of the CPI-ML(Liberation), there.
He was elected to the JNU Students Union three times in a row, first as vice-president in 1993-94, then as president for successive terms in 1994-95 and 1995-96.
As leader of JNU Students' Union (JNUSU), Chandrashekar led a number of different campaigns for students' rights. The old admission policy of affirmative action for students from backward areas was restored. Students thwarted the JNU administration's bid to bring up privatisation in academic council meetings. Chandrashekar made serious attempts to forge close ties with student movements in other universities and institutions.
In 1995 he represented India in the UN-sponsored youth conference in Seoul, where he formed a group of third world representatives inside the conference and moved several resolutions against United States imperialism, eventually staging a walkout in protest. Risking the wrath of Korean authorities, he contacted many outlawed left-wing student leaders and even addressed a huge rally of students on the issue of Korean reunification.
Assassination and Protests

At the end of his stint in JNU, Chandrashekar opted to return to Siwan as a full-time party activist. The Janata Dal (now the Rashtriya Janata Dal), which ran the government in the province of Bihar, had been waging a campaign against leading activists of the CPI-ML. More than 70 people, including leaders of the district committee, had been killed between 1990 and 1996.
On March 31, 1997 Chandrashekhar and another activist Shyam Narain Yadav were shot dead while addressing street corner meetings in support of a strike called by their party.
The CPI-ML (Liberation) alleges that the assassination was carried out at the behest of Mohammed Shahabuddin, the then Member of Parliament from Siwan who belonged to the Janata Dal.
There were protests of thousands of students against the assassination in Delhi as well as in Bihar. Students participating in one protest in Delhi were illegally fired upon by Sadhu Yadav, the brother-in-law of the then Chief Minister of Bihar.
Memorial

In JNU one of the four G Parthasarathi Endowment Fellowship is awarded in the memory of Chandrashekhar Prasad . The fellowship of Rs.1000 per month, awarded to students initially for a period of one year, renewable by another year on the basis of academic performance, is granted students coming from economically weaker sections of society, particularly Scheduled Caste/Scheduled Tribe/Backward Class, and disabled students. )

Friday, March 9, 2012

भिंड में आईपीएस अधिकारी पर हमला

मुरैना में खनिज माफिया द्वारा कल एक आईपीएस अधिकारी की ट्रेक्टर ट्राली से कुचलकर की गई हत्या के बाद भिंड में ही शराब माफिया द्वारा ही एक आईपीएस अधिकारी पर हमला किए जाने का मामला सामने आया है। पुलिस सूत्रों के अनुसार कल होली के अवसर पर शुष्क दिवस (ड्राय डे) था और सभी शराब दुकानदारों को दुकान बंद करने के निर्देश थे लेकिन इस दौरान लहार एवं इटावा मार्ग पर शराब माफिया द्वारा दुकानों को खोलकर शराब बेचे जाने की सूचना पर अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक जयदेवन के नेतृत्व में एक पुलिस पार्टी वहां पहुंची थी। सूत्रों के अनुसार पुलिस पार्टी ने जब अवैध रुप से बेची जा रही शराब की बिक्री को रोकने का प्रयास किया तो वहां मौजूद शराब माफिया ने पुलिस पार्टी पर पत्थरों एवं लाठियों से हमला बोल दिया जिससे पुलिस पार्टी को बेरंग वापस लौटना पडा और शराब की अवैध बिक्री जारी रही। जिले की देहात थाना पुलिस ने भाजपा के पूर्व विधायक नरेन्द्र सिंह सहित उनके आठ समर्थकों के खिलाफ नामजद एवं लगभग डेढ दर्जन अज्ञात आरोपियों के खिलाफ शासकीय कार्य में बाधा पहुंचाने का प्रकरण दर्ज कर लिया है लेकिन अभी तक किसी की गिरफ्तारी नहीं हो सकी है। दूसरी तरफ जिला कलेक्टर अखिलेश श्रीवास्तव ने जिला आबकारी अधिकारी ए.रंगशाही के खिलाफ जिला मुख्यालय में अनुपस्थित रहने तथा शराब की अवैध बिक्री रोकने में असफल रहने को लेकर कारण बताओ नोटिस जारी किया है। ( भाषा )

Monday, January 23, 2012

किसानों की प्रेतात्माएँ हमारे साथ...

अरुंधती रॉय

ये मकान है या घर? नए हिंदुस्‍तान का कोई तीर्थ है या फिर प्रेतों के रहने का गोदाम? मुंबई के आल्‍टामाउंट रोड पर जब से एंटिला बना है, अपने भीतर एक रहस्‍य और खतरे को छुपाए लगातार ये सवाल छोड़े हुए है। इसके आने के बाद से चीज़ें काफी कुछ बदल गई हैं यहां। मुझे यहां लाने वाला दोस्‍त कहता है, 'ये लो, आ गया। हमारे नए बादशाह को सलाम करो।'

एंटिला भारत के सबसे अमीर आदमी मुकेश अंबानी का घर है। मैं इसके बारे में पढ़ा करती थी कि ये अब तक का सबसे महंगा घर है, जिसमें 27 माले हैं, तीन हेलीपैड, नौ लिफ्ट, झूलते हुए बागीचे, बॉलरूम, वेदर रूम, जिम, छह फ्लोर की पार्किंग और 600 नौकर। लेकिन खड़े बागीचे की कल्‍पना तो मैंने कभी की ही नहीं थी- घास की एक विशाल दीवार जो धातु के विशालकाय जाल में अंटी हुई है। उसके कुछ हिस्‍सों में घास सूखी थी और तिनके नीचे गिरने से पहले ही एक आयताकार जाली में फंस जा रहे थे। कोई गंदगी नहीं। यहां ''ट्रिकल डाउन'' काम नहीं करता। हम वहां से निकलने लगे, तो मेरी नज़र पास की एक इमारत पर लटके बोर्ड पर पड़ी, उस पर लिखा था, ''बैंक ऑफ इंडिया''।

हां, यहां ''ट्रिकल डाउन'' तो बेकार है, लेकिन ''गश अप'' कारगर है। पेले जाओ। यही वजह है कि सवा अरब के देश में सबसे अमीर सौ लोगों का देश के एक-चौथाई सकल घरेलू उत्‍पाद पर कब्‍ज़ा है।

हिंदुस्‍तान में हमारे जैसे 30 करोड़ लोग, जो आर्थिक सुधारों से उपजे मध्‍यवर्ग यानी बाजार की पैदाइश हैं, उन ढाई लाख किसानों की प्रेतात्‍माओं के साथ रहते हैं, जिन्‍होंने कर्ज के बोझ तले अपनी जान दे दी। हमारे साथ चिपटे हैं उन 80 करोड़ लोगों के प्रेत, जिन्‍हें बेदखल कर डाला गया, जिनका सब कुछ छीन लिया गया, जो रोज़ाना 25 रुपए से भी कम पर जि़ंदा हैं ताकि हमारे लिए रास्‍ते बनाए जा सकें।

अकेले अंबानी की अपनी औकात 20 अरब डॉलर से भी ज्‍यादा की है। सैंतालीस अरब डॉलर की बाजार पूंजी वाली रिलायंस इंडस्‍ट्रीज़ लिमिटेड में उनकी मालिकाना हिस्‍सेदारी है। इसके अलावा दुनिया भर में इस कंपनी के कारोबारी हित फैले हैं। आरआईएल के पास इनफोटेल नाम की कंपनी का 95 फीसदी हिस्‍सा भी है, जिसने कुछ हफ्ते पहले ही एक मीडिया समूह में बड़ी हिस्‍सेदारी खरीदी थी। ये मीडिया समूह समाचार और मनोरंजन चैनल चलाता है। 4जी ब्रॉडबैंड का लाइसेंस अकेले इनफोटेल के पास है। इसके अलावा आरआईएल के पास अपनी एक क्रिकेट टीम भी है।

आरआईएल उन मुट्ठी भर कंपनियों में से एक है जो इस देश को चलाती हैं। इनमें कुछ खानदानी कारोबारी हैं। इसके अलावा दूसरी कंपनियों में टाटा, जिंदल, वेदांता, मित्‍तल, इनफोसिस, एस्‍सार और दूसरी वाली रिलायंस (एडीएजी) है जिसके मालिक मुकेश के भाई अनिल हैं। इन कंपनियों के बीच आगे बढ़ने की होड़ अब यूरोप, मध्‍य एशिया, अफ्रीका और लातिन अमेरिका तक फैल चुकी है।

मसलन, टाटा की अस्‍सी देशों में सौ से ज्‍यादा कंपनियां हैं। भारत में निजी क्षेत्र की बिजली कंपनियों में टाटा सबसे बड़ी है।

''गश अप'' का मंत्र किसी कारोबारी को दूसरे क्षेत्र के कारोबार में मालिकाना लेने से नहीं रोकता है, लिहाज़ा आपके पास जितना ज्‍यादा है, आप उतना ही ज्‍यादा और कमा सकते हैं। इस सिलसिले में हालांकि एक के बाद एक इतने दर्दनाक घपले-घोटाले सामने आए हैं जिनसे साफ हुआ है कि कॉरपोरेशन किस तरह नेताओं को, जजों को, नौकरशाहों और यहां तक कि मीडिया घरानों को खरीद लेते हैं, इस लोकतंत्र को खोखला कर देते हैं। बस, कुछ रवायतें बची रह जाती हैं। बॉक्‍साइट, आइरन ओर, तेल, गैस के बड़े-बड़े भंडार जिनकी कीमत खरबों डॉलर में है, कौडि़यों के मोल इन निगमों को बेच दिए गए हैं। ऐसा लगता है कि हाथ घुमाकर मुक्‍त बाज़ार का कान पकड़ने की शर्म तक नहीं बरती गई। भ्रष्‍ट नेताओं और निगमों के गिरोह ने इन भंडारों और इनके वास्‍तविक बाज़ार मूल्‍य को इतना कम कर के आंका कि जनता की अरबों की गाढ़ी कमाई इनकी जेब डकार गई है।

इससे जो असंतोष उपजा है, उससे निपटने के लिए इन निगमों ने अपने शातिर तरीके ईजाद किए हैं। अपने मुनाफे का एक छटांक वे अस्‍पतालों, शिक्षण संस्‍थानों और ट्रस्‍टों को चलाने में खर्च कर देते हैं। ये संस्‍थान बदले में एनजीओ, अकादमिकों, पत्रकारों, कलाकारों, फिल्‍मकारों, साहित्यिक आयोजनों और यहां तक कि विरोध प्रदर्शनों व आंदोलनों को फंडिंग करते हैं। ये दरअसल धर्मार्थ कार्य के बहाने समाज में राय कायम करने वाली ताकतों को अपने प्रभाव में लेने की कवायद है। इन्‍होंने रोज़मर्रा के हालात में इस तरह घुसपैठ बना ली है, सहज से सहज चीज़ों पर ऐसे कब्‍ज़ा कर लिया है कि इन्‍हें चुनौती देना दरअसल खुद ''यथार्थ'' को चुनौती देने जैसा अजीबोगरीब (या कहें रूमानी) लगता है। इसके बाद तो इनका रास्‍ता बेहद आसान हो जाता है, कह सकते हैं कि इनके अलावा कोई चारा ही नहीं रह जाता।

मसलन, देश के दो सबसे बड़े चैरिटेबल ट्रस्‍ट टाटा चलाता है (उसने पांच करोड़ डॉलर हारवर्ड बिज़नेस स्‍कूल को दान में दिया)। माइनिंग, मेटल और बिजली के क्षेत्र में बड़ी हिस्‍सेदारी रखने वाला जिंदल समूह जिंदल ग्‍लोबल लॉ स्‍कूल चलाता है। जल्‍दी ही ये समूह जिंदल स्‍कूल ऑफ गवर्नमेंट एंड पब्लिक पॉलिसी भी खोलेगा। सॉफ्टवेयर कंपनी इनफोसिस के मुनाफे से बना न्‍यू इंडिया फाउंडेशन सामाजिक विज्ञानियों को पुरस्‍कार और वजीफे देता है। अब ऐसा लगता है कि मार्क्‍स का क्रांतिकारी सर्वहारा पूंजीवाद की कब्र नहीं खोदेगा, बल्कि खुद पूंजीवाद के पगलाए महंत इस काम को करेंगे, जिन्‍होंने एक विचारधारा को आस्‍था में तब्‍दील कर डाला है। ऐसा लगता है कि उन्‍हें सच्‍चाई दिखाई ही नहीं देती, सही गलत में अंतर करने की ताकत ही नहीं रह गई। मसलन, क्‍लाइमेट चेंज को ही लें, कितना सीधा सा विज्ञान है कि पूंजीवाद (चीन वाली वेरायटी भी) इस धरती को नष्‍ट कर रहा है। उन्‍हें ये बात समझ ही नहीं आती। ''ट्रिकल डाउन'' तो बेकार हो ही चुका था। अब ''गश अप'' की बारी है। ये संकट में है।

मुंबई के गहराते काले आकाश पर जब सांध्‍य तारा उग रहा होता है, तभी एंटिला के भुतहे दरवाज़े पर लिनेन की करारी शर्ट में लकदक खड़खड़ाते वॉकी-टॉकी थामे दरबान नज़र आते हैं। आंखें चौंधियाने वाली बत्तियां भभक उठती हैं। शायद, प्रेतलीला का वक्‍त हो चला है।

(साभार: फाइनेंशियल टाइम्‍स, http://janpath.blogspot.com/2012/01/blog-post_23.html?spref=fb)
(अनुवाद: अभिषेक श्रीवास्‍तव)

Monday, January 2, 2012

'The people who created the crisis will not be the ones that come up with a solution'

Arundhati Roy:
The prize-winning author of The God of Small Things talks about why she is drawn to the Occupy movement and the need to reclaim language and meaning


Arun Gupta
guardian.co.uk, Wednesday 30 November


Sitting in a car parked at a gas station on the outskirts of Houston, Texas, my colleague Michelle holds an audio recorder to my cellphone. At the other end of the line is Arundhati Roy, author of the Booker Prize-winning The God of Small Things, who is some 2,000 miles away, driving to Boston.

"This is uniquely American," I remark to Roy about interviewing her while both in cars but thousands of miles apart. Having driven some 7,000 miles and visited 23 cities (and counting) in reporting on the Occupy movement, it's become apparent that the US is essentially an oil-based economy in which we shuttle goods we no longer make around a continental land mass, creating poverty-level dead-end jobs in the service sector.

This is the secret behind the Occupy Wall Street movement that Roy visited before the police crackdowns started. Sure, ending pervasive corporate control of the political system is on the lips of almost every occupier we meet. But this is nothing new. What's different is most Americans now live in poverty, on the edge, or fear a descent into the abyss. It's why a majority (at least of those who have an opinion) still support Occupy Wall Street even after weeks of disinformation and repression.

In this exclusive interview for the Guardian, Roy offers her thoughts on Occupy Wall Street, the role of the imagination, reclaiming language, and what is next for a movement that has reshaped America's political discourse and seized the world's attention.

AG: Why did you want to visit Occupy Wall Street and what are your impressions of it?

AR: How could I not want to visit? Given what I've been doing for so many years, it seems to me, intellectually and theoretically, quite predictable this was going to happen here at some point. But still I cannot deny myself the surprise and delight that it has happened. And I wanted to, obviously, see for myself the extent and size and texture and nature of it. So the first time I went there, because all those tents were up, it seemed more like a squat than a protest to me, but it began to reveal itself in a while. Some people were holding the ground and it was the hub for other people to organise, to think through things. As I said when I spoke at the People's University, it seems to me to be introducing a new political language into the United States, a language that would be considered blasphemous only a while ago.

AG: Do you think that the Occupy movement should be defined by occupying one particular space or by occupying spaces?

AR: I don't think the whole protest is only about occupying physical territory, but about reigniting a new political imagination. I don't think the state will allow people to occupy a particular space unless it feels that allowing that will end up in a kind of complacency, and the effectiveness and urgency of the protest will be lost. The fact that in New York and other places where people are being beaten and evicted suggests nervousness and confusion in the ruling establishment. I think the movement will, or at least should, become a protean movement of ideas, as well as action, where the element of surprise remains with the protesters. We need to preserve the element of an intellectual ambush and a physical manifestation that takes the government and the police by surprise. It has to keep re-imagining itself, because holding territory may not be something the movement will be allowed to do in a state as powerful and violent as the United States.

AG: At the same, occupying public spaces did capture the public imagination. Why do you think that is?

AR: I think you had a whole subcutaneous discontent that these movements suddenly began to epitomise. The Occupy movement found places where people who were feeling that anger could come and share it – and that is, as we all know, extremely important in any political movement. The Occupy sites became a way you could gauge the levels of anger and discontent.

AG: You mentioned that they are under attack. Dozens of occupations have been shut down, evicted, at least temporarily, in the last week. What do you see as the next phase for this movement?

AR: I don't know whether I'm qualified to answer that, because I'm not somebody who spends a lot of time here in the United States, but I suspect that it will keep reassembling in different ways and the anger created by the repression will, in fact, expand the movement. But eventually, the greater danger to the movement is that it may dovetail into the presidential election campaign that's coming up. I've seen that happen before in the antiwar movement here, and I see it happening all the time in India. Eventually, all the energy goes into trying to campaign for the "better guy", in this case Barack Obama, who's actually expanding wars all over the world. Election campaigns seem to siphon away political anger and even basic political intelligence into this great vaudeville, after which we all end up in exactly the same place.

AG: Your essays, such as "The Greater Common Good" and "Walking with the Comrades", concern corporations, the military and state violently occupying other people's lands in India. How do those occupations and resistances relate to the Occupy Wall Street movement?

AR: I hope that that the people in the Occupy movement are politically aware enough to know that their being excluded from the obscene amassing of wealth of US corporations is part of the same system of the exclusion and war that is being waged by these corporations in places like India, Africa and the Middle East. Ever since the Great Depression, we know that one of the key ways in which the US economy has stimulated growth is by manufacturing weapons and exporting war to other countries. So, whether this movement is a movement for justice for the excluded in the United States, or whether it is a movement against an international system of global finance that is manufacturing levels of hunger and poverty on an unimaginable scale, remains to be seen.

AG: You've written about the need for a different imagination than that of capitalism. Can you talk about that?

AR: We often confuse or loosely use the ideas of crony capitalism or neoliberalism to actually avoid using the word "capitalism", but once you've actually seen, let's say, what's happening in India and the United States – that this model of US economics packaged in a carton that says "democracy" is being forced on countries all over the world, militarily if necessary, has in the United States itself resulted in 400 of the richest people owning wealth equivalent [to that] of half of the population. Thousands are losing their jobs and homes, while corporations are being bailed out with billions of dollars.

In India, 100 of the richest people own assets worth 25% of the gross domestic product. There's something terribly wrong. No individual and no corporation should be allowed to amass that kind of unlimited wealth, including bestselling writers like myself, who are showered with royalties. Money need not be our only reward. Corporations that are turning over these huge profits can own everything: the media, the universities, the mines, the weapons industry, insurance hospitals, drug companies, non-governmental organisations. They can buy judges, journalists, politicians, publishing houses, television stations, bookshops and even activists. This kind of monopoly, this cross-ownership of businesses, has to stop.

The whole privatisation of health and education, of natural resources and essential infrastructure – all of this is so twisted and so antithetical to anything that would place the interests of human beings or the environment at the center of what ought to be a government concern – should stop. The amassing of unfettered wealth of individuals and corporations should stop. The inheritance of rich people's wealth by their children should stop. The expropriators should have their wealth expropriated and redistributed.


AG: What would the different imagination look like?

AR: The home minister of India has said that he wants 70% of the Indian population in the cities, which means moving something like 500 million people off their land. That cannot be done without India turning into a military state. But in the forests of central India and in many, many rural areas, a huge battle is being waged. Millions of people are being driven off their lands by mining companies, by dams, by infrastructure companies, and a huge battle is being waged. These are not people who have been co-opted into consumer culture, into the western notions of civilisation and progress. They are fighting for their lands and their livelihoods, refusing to be looted so that someone somewhere far away may "progress" at their cost.

India has millions of internally displaced people. And now, they are putting their bodies on the line and fighting back. They are being killed and imprisoned in their thousands. Theirs is a battle of the imagination, a battle for the redefinition of the meaning of civilisation, of the meaning of happiness, of the meaning of fulfilment. And this battle demands that the world see that, at some stage, as the water tables are dropping and the minerals that remain in the mountains are being taken out, we are going to confront a crisis from which we cannot return. The people who created the crisis in the first place will not be the ones that come up with a solution.

That is why we must pay close attention to those with another imagination: an imagination outside of capitalism, as well as communism. We will soon have to admit that those people, like the millions of indigenous people fighting to prevent the takeover of their lands and the destruction of their environment – the people who still know the secrets of sustainable living – are not relics of the past, but the guides to our future.


AG: In the United States, as I'm sure you're aware, political discourse is obsessed with the middle class, but the Occupy movement has made the poor and homeless visible for the first time in decades in the public discourse. Could you comment on that?

AR: It's so much a reversal of what you see in India. In India, the poverty is so vast that the state cannot control it. It can beat people, but it can't prevent the poor from flooding the roads, the cities, the parks and railway station platforms. Whereas, here, the poor have been invisibilised, because obviously this model of success that has been held out to the world must not show the poor, it must not show the condition of black people. It can only the successful ones, basketball players, musicians, Condoleezza Rice, Colin Powell. But I think the time will come when the movement will have to somehow formulate something more than just anger.

AG: As a writer, what do you make of the term "occupation", which has now somehow been reclaimed as a positive term when it's always been one of the most heinous terms in political language?

AR: As a writer, I've often said that, among the other things that we need to reclaim, other than the obscene wealth of billionaires, is language. Language has been deployed to mean the exact opposite of what it really means when they talk about democracy or freedom. So I think that turning the word "occupation" on its head would be a good thing, though I would say that it needs a little more work. We ought to say, "Occupy Wall Street, not Iraq," "Occupy Wall Street, not Afghanistan," "Occupy Wall Street, not Palestine." The two need to be put together. Otherwise people might not read the signs.

AG: As a novelist, you write a lot in terms of motivations and how characters interpret reality. Around the country, many occupiers we've talked to seem unable to reconcile their desires about Obama with what Obama really represents. When I talk to them about Obama's record, they say, "Oh, his hands are tied; the Republicans are to blame, it's not his fault." Why do you think people react like this, even at the occupations?

AR: Even in India, we have the same problem. We have a right wing that is so vicious and so openly wicked, which is the Baratiya Janata party (BJP), and then we have the Congress party, which does almost worse things, but does it by night. And people feel that the only choices they have are to vote for this or for that. And my point is that, whoever you vote for, it doesn't have to consume all the oxygen in the political debate. It's just an artificial theatre, which in a way is designed to subsume the anger and to make you feel that this is all that you're supposed to think about and talk about, when, in fact, you're trapped between two kinds of washing powder that are owned by the same company.

Democracy no longer means what it was meant to. It has been taken back into the workshop. Each of its institutions has been hollowed out, and it has been returned to us as a vehicle for the free market, of the corporations. For the corporations, by the corporations. Even if we do vote, we should just spend less time and intellectual energy on our choices and keep our eye on the ball.


AG: So it's also a failure of the imagination?

AR: It's walking into a pretty elaborate trap. But it happens everywhere, and it will continue to happen. Even I know that if I go back to India, and tomorrow the BJP comes to power, personally I'll be in a lot more trouble than with the Congress [party] in power. But systemically, in terms of what is being done, there's no difference, because they collaborate completely, all the time. So I'm not going to waste even three minutes of my time, if I have to speak, asking people to vote for this one or for that one.

AG: One question that a lot of people have asked me: when is your next novel coming out?

AR: I have no answer to that question … I really don't know. Novels are such mysterious and amorphous and tender things. And here we are with our crash helmets on, with concertina wire all around us.


AG: So this inspires you, as a novelist, the movement?

AR: Well, it comforts me, let's just say. I feel in so many ways rewarded for having done what I did, along with hundreds of other people, even the times when it seemed futile.

• Michelle Fawcett contributed to this article. She and Arun Gupta are covering the Occupy movement nationwide for Salon, Alternet and other outlets. Their work is available at occupyusatoday.com

courtesy : http://www.guardian.co.uk/world/2011/nov/30/arundhati-roy-interview