अभी तक सुनते थे कि आदिवासी ही बहुराष्ट्रीय कंपनियोंं की साजिश का शिकार हो रहे हैं, लेकिन किसान भी इनकी जद में हैं। जिस समय बीटी काटन पर बहस चल रही थी, देश के एक अग्रणी अंग्रेजी अखबार ने 2008 में किसानों के बीटी काटन से मालामाल होने की खबर छापी। पूरे पेज की उस खबर को 2011 में उस समय विज्ञापन के रूप में दिया गया, जब बीज विधेयक संसद में पेश नहीं हो सका। जाने माने पत्रकार पी साईनाथ ने इस खबर और विज्ञापन की खबर ली। झूठे आंकड़ों की कहानी लेकर आए और साजिशों का पर्दाफाश किया। पेश है खबर...
पी साईनाथ
करीब साढ़े तीन साल पहले जीन संवर्धित (जेनेटिकली मोडीफॉयड) बीजों के इस्तेमाल पर तगड़ी बहस छिड़ी हुई थी। यह मसला भारत के कोने-कोने में चर्चा में था। ठीक उसी समय एक समाचार ने इस तकनीक की सफलता के चमकदार असर पर खबर पेश की। टाइम्स ऑफ इंडिया ने 31 अक्टूबर 2008 के अंक में लिखा... "यहां पर आत्महत्या की कोई घटना नहीं हुई है। खेती बाड़ी से लोग अमीर हो रहे हैं। कपास के परंपरागत बीजों को छोड़कर बोलगार्ड या बीटी कॉटन अपनाने से पिछले 3-4 साल के दौरान यहां के गांवों (भांबराजा और अंटारागांव) में सामाजिक और आर्थिक क्रांति आई है।"
इसमें एक दिलचस्प पहलू और है। यही किस्सा इसी अखबार में अभी 9 महीने पहले शब्दशः एक बार फिर छपा। (28 अगस्त, 2011)। यह भी नहीं ध्यान रखा गया कि हो सकता है कि अब किसान कुछ अलग कहानी बयान कर रहे हों।
इस साल मार्च महीने में कृषि पर बनी संसद की स्थायी समिति ने इलाके का दौरा किया। भांबराजा गांव के गुस्साए किसानों की भीड़ में से आई आवाज ने समिति के सदस्यों को चौंका दिया। “हमारे गांव में आत्महत्या की 14 घटनाएं हुई हैं।” “इसमें ज्यादातर आत्महत्याएं बीटी के आने के बाद हुईं।” द हिंदू ने 2003 से 2009 के बीच आत्महत्या की 9 घटनाओं की पुष्टि की। यहां के सामाजिक कार्यकर्ताओं ने 5 औऱ घटनाएं गिनाईं। यह सभी घटनाएं 2002 के बाद की हैं, जब लोगों ने बीटी कॉटन को अपनाया था. उसके बाद टाइम्स आफ इंडिया ने किसानों के संपन्नता की कहानी लिखी थी। गांव वालों ने हतप्रभ सांसदों से कहा, “महोदय, ढेर सारी जमीनें खाली पड़ी हैं। तमाम लोगों का किसानी से भरोसा उठ गया है।” कुछ लोगों ने तो सोयाबीन की खेती अपना ली है, “कम से कम उसमें नुकसान की संभावना इतनी ज्यादा नहीं रहती”।
म्हाइको-मॉनसेंटो बायोटेक के बीटी कॉटन की खेती के “आदर्श गांव” से सैकड़ों किसान विस्थापित हो चुके हैं, जिसमें ज्यादा जमीन वाले किसान भी शामिल हैं। पिछले साल सितंबर महीने में हमारी पहली यात्रा के दौरान भांबराजा गांव के रामदास भोंड्रे ने भविष्यवाणी की थी, “अभी और ज्यादा लोग गांव छोड़ेंगे, क्योंकि किसानी मर रही है।”
मोनसेंटो के बीटी कॉटन का स्तुतिगान 2008 में उस समय पूरे पृष्ठ पर आया था. सरकार अगस्त 2011 में बॉयोटेक रेगुलेटरी अथॉरिटी आफ इंडिया (बीआऱएआई) विधेयक संसद में पेश करने में सफल नहीं हुई थी। विधेयक पेश न किए जा सकने की घटना महत्त्वपूर्ण थी, क्योंकि इससे कृषि बायोटेक उद्योग को भविष्य में मिलने वाला मुनाफा प्रभावित हुआ था। उसके बाद ही इसके लिए गोलबंदी शुरू हो गई। 28 अगस्त 2011 को पूरे पेज की कहानी “ Reaping Gold through Bt Cotton” टाइम्स आफ इंडिया में आई। उसके बाद कंपनी की ओर से अखबारों में विज्ञापन आने लगे। ऐसा ही लगातार 29, 30, 31 अगस्त और 1 व 3 सितंबर को हुआ। बहरहाल यह विधेयक संसद में पेश नहीं हो सका। न तो मॉनसून सत्र में न ही शीतकालीन सत्र में, जबकि दोनों सत्रों में इसे सूची में रखा गया था। अन्य मसलों पर संसद में हंगामा होता रहा। कुछ लोगों ने इसके बदले मुनाफा कमाया, बीटी कॉटन के माध्यम से नहीं तो अखबारी कागज के माध्यम से।
कृषि पर बनी संसद की स्थायी समिति पर इन विज्ञापनों का कोई असर नहीं हुआ। समिति ने पहले भी जीन संवर्धित फसलों को अनुमति दिए जाने के मसले को देखा था। किसानों की आत्महत्या की बढ़ती घटनाओं की खबरों और विदर्भ के तनाव से परेशान समिति के सदस्यों ने इस इलाके का दौरा करने का मन बनाया। समिति में विभिन्न दलों के सदस्य शामिल थे।
भांबराजा गांव ने निश्चित रूप से इस समिति के अध्यक्ष और दिग्गज सांसद बासुदेव आचार्य का ध्यान खींचा था। आखिर ध्यान आकर्षित भी क्यों न करता, यह गांव तो म्हाइको मॉनसेंटो के करिश्मे से मालामाल हुआ गांव था! अन्य गांव मारेगांव-सोनेबर्डी था। लेकिन सांसदों को तब झटका लगा, जब इसमें से किसी गांव के लोग मालामाल नहीं नजर आए। करिश्मे का आभामंडल टूट चुका था। यहां के लोगों में फैली निराशा और तनाव सरकार की असफलता की कहानी बयां कर रहे थे।
यह मसला (और जैसा कि टाइम्स आफ इंडिया अपनी खबरों में दावा भी करता है) एक बार फिर जिंदा हुआ है, क्योंकि 2012 में बीटी कॉटन को 10 साल होने जा रहे हैं। पिछले साल 28 अगस्त को “Reaping Gold through Bt Cotton” नाम से आई कहानी को “ए कंज्यूमर कनेक्ट इनीशिएटिव” के रूप में पेश किया गया। अगर दूसरे शब्दों में कहें तो यह विज्ञापन था। पूरे पेज की इस खबर में पेशेवर पत्रकारों के नाम से खबरें और टाइम्स आफ इंडिया के फोटो थे। सबसे विरोधाभासी यह है कि जो खबर विज्ञापन में बदल चुकी थी, वह शब्दश टाइम्स आफ इंडिया के नागपुर संस्करण में 31 अक्टूबर 2008 को छप चुकी थी। आलोचकों ने इस दोहराव को हास्यास्पद बताया था। 28 अगस्त 2011 को छपी खबर इसी खबर के फिर से छप जाने के दोहराव जैसा लगा। लेकिन इसमें खास अंतर था। 2008 में छपी खबर को विज्ञापन के रूप में नहीं दिखाया गया था। दोनों संस्करणों में छपी खबर में एक समानता भी ध्यान देने योग्य है। उनमें लिखा गया था, “यवतमाल दौरे की व्यवस्था म्हाइको मोनसेंटो बायोटेक ने की थी।”
कंपनी ने 2008 में छपे फीचर को पूरे पेज के न्यूज रिपोर्ट के रूप में पेश किया, जिसे टाइम्स आफ इंडिया ने किया था. पिछले सप्ताह म्हाइको मोनसेंटो बायोटेक इंडिया के प्रवक्ता ने द हिंदू से बातचीत में कहा, “2008 का कवरेज मीडिया के दौरे का परिणाम था, जिसे संपादकीय विवेक के साथ लिखा गया था। हमने सिर्फ आने जाने की व्यवस्था की थी।” “2011 में जो रिपोर्ट छपी, वह 2008 की रिपोर्ट ही थी, जिसमें कोई संपादन नहीं किया गया और इसे मार्केटिंग फीचर के रूप में छापा गया।” 2008 में “पूरे पेज की न्यूज रिपोर्ट” नागपुर संस्करण में आई थी। 2011 का “मार्केटिंग फीचर”, िजसे आप स्पेशल रिपोर्ट के हिस्से में क्लिक करके देख सकते हैं, कई संस्कऱणों में दिखा। लेकिन यह नागपुर में नहीं छपा, जिसके चलते निश्चित रूप से विस्मय पैदा होता है।
इस तरह से एक पूरा पेज तीन साल के भीतर दो बार दिखा। पहली बार खबर के रूप में और दूसरी बार विज्ञापन के रूप में। पहली बार इसे समाचार पत्र के स्टाफ रिपोर्टर और फोटोग्राफर के माध्यम से पेश किया गया। दूसरी बार विज्ञापन विभाग ने इसे पेश किया। पहली बार इस खबर के लिए यात्रा की व्यवस्था म्हाइको मोनसेंटो ने की। दूसरी बार म्हाइको मोनसेंटो ने इसके लिए विज्ञापन की व्यवस्था की। पहली बार यह हादसे के रूप में सामने आया और दूसरी बार एक तमाशे के रूप में।
कंपनी के प्रवक्ता इस मामले में उच्च स्तर के पारदर्शिता का दावा करते हैं। हमने कहा कि यह प्रकाशन 31 अक्टूबर 2008 में छपी खबर का रीप्रिंट है है। लेकिन प्रवक्ता ने ई मेल से भेजे गए अपने जवाब में इस विज्ञापन के समय के बारे में द हिंदू के सवालों पर चुप्पी साध ली। कंपनी ने कहा, “2011 हमने बीटी बीज को लेकर जन जागरूकता अभियान चलाया था, जो सीमित अवधि के लिए था। इसका उद्देश्य था कि लोगों को कृषि के क्षेत्र में बायोटेक्नोलाजी के महत्त्व की जानकारी मिल सके।” द हिंदू ने यह सवाल पूछा था कि जब संसद में बीआरएआई विधेयक पेश होना था, उसी समय यह अभियान क्यों चलाया गया, लेकिन इसका कोई जवाब नहीं मिला।
लेकिन मामला इससे भी आगे का है। गांव के लोगों का कहना है कि बीटी के जादू पर लिखी गई टाइम्स आफ इंडिया की खबर में भांबराजा या अंतरगांव की जो फोटो लगी थी, वह उस गांव की थी ही नहीं। गांव के किसान बबनराव गवांडे कहते हैं, “ इस फोटो में लोगों को देखकर यह लगता है कि फोटो भांबराजा की नहीं है। ”
काल्पनिक करिश्मा
टाइम्स आफ इंडिया की खबर में एक चैंपियन शिक्षित किसान नंदू राउत को पात्र बनाया गया है, जो एलआईसी एजेंट भी है। इसकी कमाई बीटी के करिश्मे की वजह से बढ़ी बताई गई है। पिछले साल सितंबर महीने में नंदू राउत ने मुझसे कहा था, “मैंने इसके पहले साल करीब 2 लाख रुपये कमाए थे।” उसने कहा, “इसमें से करीब 1.6 लाख रुपये पॉलिसी की बिक्री से आए थे।” संक्षेप में कहें तो उसने एलआईसी पॉलिसी के माध्यम से खेती से हुई कमाई की तुलना में करीब 4 गुना ज्यादा कमाया। नंदू के पास साढ़े सात एकड़ जमीन है और उसके परिवार में 4 सदस्य हैं।
लेकिन टाइम्स आफ इंडिया की खबर में कहा गया है कीटनाशकों के खर्च बच जाने की वजह से उसे प्रति एकड़ 20,000 रुपये अतिरिक्त कमाई हुई। वह 4 एकड़ में खेती करता है, इस तरह से उसे 80,000 रुपये का अतिरिक्त मुनाफा हुआ।
इससे अलग भांबराजा गांव के किसान गुस्से से कहते हैं, “हमें एक किसान दिखा दो, जिसका प्रति एकड़ कुल मुनाफा भी 20,000 रुपये हो।” पूरे गांव में किए गए सर्वे, जिस पर राउत ने भी हस्ताक्षर किए हैं, उनकी कमाई की अलग कहानी कहता है। सर्वे की यह प्रति द हिंदू के पास भी है।
भांबराजा और मारेगांव के किसानों को बीटी के करिश्मे से हुए फायदे की कहानी को केंद्रीय कृषि मंत्रालय के आंकड़े भी झुठलाते हैं। 19 दिसंबर 2011 को शरद पवार ने संसद में कहा, “विदर्भ में करीब 1.2 क्विंटल प्रति हेक्टेयर काटन लिंट का उत्पादन होता है।” इतने कम उत्पादन का आंकड़ा चौंकाने वाला है। इस आंकड़े का दोगुना भी कम होगा। किसान अपनी फसल को कच्चे कपास के रूप में बेचते हैं। 100 किलो कच्ची कपास में 35 किलो लिंट निकलती है और 65 किलो कपास बीज होता है। पवार के दिए गए आंकड़े कहते हैं कि 3.5 क्विंटल कच्चे कपास का उत्पादन प्रति हेक्टेयर होता है। पवार का कहना है कि किसानों को अधिकतम 4,200 रुपये प्रति क्विंटल मिल रहे हैं। इस तरह से वह मानते हैं कि किसानों को करीब उतना ही मिल रहा है, जितना कि उनका उत्पादन लागत होता है, जिसकी वजह से ऐसी गंभीर समस्या पैदा हुई है। अगर पवार के आंक़डे सही हैं तो नंदू रावत की कमाई 5,900 रुपये प्रति एकड़ से ज्यादा नहीं हो सकती। अगर इसमें से 1.5 पैकेट बीज के करीब 1,400 रुपये व अन्य उत्पादन लागत निकाल दें तो उसके पास करीब कुछ भी नहीं बचता। जबकि टाइम्स आफ इंडिया के मुताबिक इसकी कमाई 20,000 रुपये प्रति एकड़ से ज्यादा है।
कमाई के इस असाधारण दावे के बारे में पूछे जाने पर म्हाइको मोनसेंटो के प्रवक्ता ने कहा, “हम एमएमबी इंडिया के सहकर्मियों के बयानों के साथ हैं, जैसा कि खबर में प्रकाशित किया गया है।”
दिलचस्प है कि पूरे पेज की इस खबर में एक पैराग्राफ का एक बयान है, जिसमें 20,000 रुपये प्रति एकड़ से ज्यादा कमाई या किसी अन्य आंकड़े का कोई जिक्र नहीं है। इसमें महज इतना कहा गया है कि बीटी की वजह से कपास की खेती करने वाले उत्पादकों की आमदनी बढ़ी है और बीटी का रकबा भी बढ़ा है। इसमें प्रति एकड़ पैदावार के बारे में नहीं बताया गया है। इसमें दो गांवों में किसी के भी आत्महत्या न करने के बारे में भी कुछ नहीं कहा गया है। इस तरह से कंपनी बड़ी सावधानी से टाइम्स आफ इंडिया के दावों से खुद को अलग करती है, लेकिन इसका इस्तेमाल बड़ी चालाकी से मार्केटिंग फीचर के रूप में करती है।
इन दावों के बारे में एमएमबी के प्रवक्ता का कहना है, “यह जानकारी पत्रकारों ने किसानों से सीधे बातचीत और किसानों के व्यक्तिगत अनुभवों से जुटाई है। पत्रकार गांव में गए थे, उन्होंने किसानों से बातचीत करके रिपोर्ट तैयार की औऱ उसमें किसानों के बयान भी दिए।”
खबर के बाद विज्ञापन बन चुके एक पेज के दावों के मुताबिक नंदू रावत की बोलगार्ड-2 की प्रति एक़ड़ उत्पादकता 20 क्विंटल होनी चाहिए, जो कृषि मंत्री शरद पवार के बताए 1.4 क्विंटल औसत की तुलना में 14 गुना ज्यादा है.
पवार का मानना है कि विदर्भ इलाके में बारिश के पानी पर निर्भरता की वजह से पैदावार कम होती है, क्योंकि कपास की दो से तीन बार सिंचाई की जरूरत होती है। हालांकि वह इस सवाल पर खामोश हो जाते हैं कि महाराष्ट्र में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी व कांग्रेस की सरकार है, ऐसे में एक सूखे इलाके में बीटी काटन को क्यों बढ़ावा दिया जा रहा है।
अगर हम टाइम्स आफ इंडिया की मानें तो नंदू नकदी की ढेर पर बैठा है, लेकिन कृषि मंत्री की बात पर यकीन करें तो वह मुश्किल से अपनी जान बचा रहा है।
म्हाइको मोनसेंटो बायोटेक के 2011 के ठीक इसी सप्ताह में दिल्ली के एक अखबार में छपे विज्ञापन पर विवाद हुआ था। एक विज्ञापन पर एडवर्टाइजिंग स्टैंडर्ड काउंसिल आफ इंडिया (एएससीआई) के पास शिकायत पहुंची, जिसमें भारतीय किसानों को भारी मुनाफे का दावा किया गया था। एएससीआई ने पाया कि विज्ञापन में किए गए दावे पुष्ट नहीं हैं। एमएमबी के प्रवक्ता ने कहा कि कंपनी ने एएससीआई की ओर से उठाए गए मसलों को संज्ञान में लिया और उसके मुताबिक विज्ञापन में बदलाव किया गया।
हम स्थायी समिति के सांसदों के साथ जब मार्च में गांव के दौरे से लौट रहे थे तो एक बार फिर नंदू से मिले। उसने कहा, “आज की तारीख में फिलहाल मैं यही सलाह दूंगा कि यहां बीटी काटन का इस्तेमाल न करें, क्योंकि यह असिंचित इलाका है। अब हालात बहुत खराब हो गए हैं।” उसने सांसदों के साथ बैठक में एक भी सवाल नहीं उठाए और हा कि वह इतनी देर से आए हैं कि कुछ कर नहीं सकते।
टाइम्स आफ इंडिया की एक खबर में एक किसान मंगू चव्हाण अपने बयान में कहता है, “हम अब महाजनों के चंगुल से दूर हैं। अब किसी को उनकी जरूरत नहीं होती।” यह अंतरगांव के किसान का बयान है, जहां बीटी काटन के चलते लोगों की अमीरी दिखाई गई है। लेकिन भांबराजा के 365 किसान परिवारों और अंतरगांव के 150 परिवारों पर किए गए अध्ययन के आंकड़े कुछ और ही बयां करते हैं। यह अध्ययन विदर्भ जन आंदोलन समिति ने किए हैं। समिति के प्रमुख किशोर तिवारी कहते हैं, “बैंक खाते रखने वाले ज्यादातर किसान डिफाल्टर हो चुके हैं औऱ 60 प्रतिशत किसान साहूकारों के कर्ज तले दबे हैं।”
महाराष्ट्र सरकार ने पूरी कोशिश की कि सांसदों को “आदर्श गांव” भांबराजा और मारेगांव न जाने दिया जाए। बहरहाल, समिति के अध्यक्ष बासुदेव आचार्य और उनके सहयोगी वहां जाने को तत्पर थे। सांसदों के दौरे से प्रोत्साहित गांव वाले खुलकर बोले। महाराष्ट्र में 1995 से 2010 के बीच 50,000 से ज्यादा किसानों ने आत्महत्या की है। राष्ट्रीय अपराध ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक यह सबसे खराब स्थिति है। विदर्भ में लंबे समय से इस तरह की मौतें हो रही हैं। अब किसान भी नीतिगत मसलों पर आवाज उठाने लगे हैं, जिसकी वजह से गांवों में तनाव बढ़ा है।
किसी भी किसान ने यह नहीं कहा कि आत्महत्या की घटनाओं या संकट की वजह केवल बीटी काटन है। लेकिन गांववाले इसके करिश्मे के तमाम दावों की हवा निकालते हैं। उनकी कुछ प्रतिक्रियाएं तो सांसदों के लिए खबर की तरह आईं, न कि भुगतान की गई खबर या मार्केटिंग फीचर के रूप में।
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