Tuesday, May 15, 2012

मायावती और शाहखर्ची


मायावती की शाहखर्ची को लेकर समय-समय पर लोगों को मिर्गी के दौरे पड़ते रहते हैं। खर्च और लोग भी करते हं, लेकिन मामला दलित का हो तो उसे पचा पाना मुश्किल होता है। कॉरपोरेट जगत की एक भव्य पार्टी पर जितना खर्च किया जाता है वह रकम मायावती के घर की साज-सज्जा से संबंधित पूरे बजट के लिए पर्याप्त होगी। कारोबारी जगत को निकट से समझने वाले सोमशेखर सुंदरेशन ने बहुत बेहतरीन ढंग से इस मामले की पड़ताल की है- सत्येन्द्र)
सोमशेखर सुंदरेशन
उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रहते हुए मायावती के घर पर हुए खर्च की खबरें पिछले सप्ताह सभी राष्टï्रीय अखबारों के पहले पृष्ठï पर थीं। अचानक देश के मध्य वर्ग की अंतरात्मा जाग उठी और सभी लोग व्याकुल हो उठे, खास तौर पर कॉरपोरेट क्षेत्र के कर्मचारी। वे यह बात नहीं पचा पा रहे थे कि किसी दलित की विलासितापूर्ण जीवनशैली पर सार्वजनिक धन की इस तरह बरबादी की गई।
मायावती की खर्च करने की प्रवृत्ति ने पिछले साल भी जबरदस्त सुर्खियां बटोरी थीं। विकीलिक्स ने एक देशी राजनयिक से बातचीत पर आधारित यह रोचक खबर वेबसाइट पर डाली कि किस तरह केवल मायावती के बेशकीमती जूते लाने के लिए लखनऊ से एक खाली विमान मुंबई के लिए रवाना हुआ था। पूर्व मुख्यमंत्री ने इस रिपोर्ट का खंडन किया था। फिर भी, यदि निरपेक्ष नजरिया रखें और सुनी-सुनाई बातों पर गौर न करें तो मायावती एक विशिष्टï श्रेणी की हस्तियों में शुमार होंगी, न केवल राजनीतिक दुनिया में, बल्कि कॉरपोरेट जगत में भी। जिन लोगों को राज्य का शासन चलाने के लिए चुना जाता है, उन पर ऐसे लोगों की तुलना में ज्यादा ध्यान दिया जाता है जो सूचीबद्घ कंपनियों का प्रशासन संभालने के लिए चयनित होते हैं।
केवल लोक प्रशासन राज्य का मामला नहीं होता, बल्कि शेयर बाजारों में सूचीबद्घ कंपनियों का प्रशासन भी ऐसा ही मसला होता है, जिसमें सार्वजनिक धन लगा होता है। इस तरह कॉरपोरेट प्रशासन भी समान रूप से लोक शासन का हिस्सा हुआ। यदि करदाताओं के खर्चों पर विलासितापूर्ण जीवनशैली उचित नहीं है तो सार्वजनिक शेयरधारकों और जमाकर्ताओं के खर्च पर भी ऐसी जीवनशैली को सही नहीं ठहराया जा सकता। यहां मुद्दा केवल जीवनशैली का नहीं है। बल्कि यह उन लोगों से संबंधित मसला भी है जो शानदार जीवनशैली बनाए रखने के लिए बिलों की रकम बढ़ाते जाते हैं।
इस तरह के विषय पर चर्चा आगे बढ़ाएं तो कॉरपोरेट जगत में भी मायावती जैसे उदाहरण भरे पड़े हैं। कुछ उदाहरण तो ऐसे भी मिल जाएंगे, जिनके मुकाबले मायावती बेहतर नजर आएंगी। आपने सुना होगा कि एक सूचीबद्घ कंपनी के अध्यक्ष ऐसे हैं, जिनके लिए कारखाने के नजदीक उगने वाले एक विशेष फल लाने के वास्ते कॉरपोरेट हवाई जहाज उड़ान भरता है। ऐसी कई कहानियां प्रचलित हैं जो उन कॉरपोरेट जेट विमानों से संबंधित हैं जो स्थानीय बाजारों में उपलब्ध विशेष सूखे फलों के वास्ते दूसरे देशों के लिए उड़ान भरते हैं क्योंकि प्रवर्तक की पत्नी को वह बहुत पसंद है।
आपने ऐसी सूचीबद्घ कंपनियों के बारे में भी सुना होगा, जो दर्जी से समय पर सूट मंगवाने के लिए आईआईएम में शिक्षा प्राप्त महंगे रंगरूट रखते हैं। ऐसे मामलों की भी कमी नहीं हैं, जहां अध्यक्ष के लिए वीजा और पासपोर्ट का इंतजाम करने के लिए ट्रैवल एजेंटों, दूतावासों के कर्मचारियों और पासपोर्ट अधिकारियों पर समय और धन की बेशुमार बरबादी की जाती है। यह लागत भी अंतत: सार्वजनिक शेयरधारकों को ही उठानी पड़ता है। लेकिन, वरिष्ठï कॉरपोरेट नौकरशाहों (आईएएस अधिकारियों के समकक्ष) का कहना है कि केवल वही नहीं, बल्कि दूसरे लोग भी धन की बरबादी करते हैं क्योंकि खामियां तो पूरी व्यवस्था में हैं। यह कहना आसान है और संभवत: सुविधाजनक भी, लेकिन दोनों मामलों में बारीक अंतर है। कई लोग इस राय से सहमत होंगे कि निजी क्षेत्र के होने के नाते सूचीबद्घ कंपनियां वैध तरीके से अधिकारियों पर ज्यादा खर्च कर सकती हैं। फिर भी, सार्वजनिक धन का इस्तेमाल करने का मसला हमेशा प्रशासन से जुड़ा हुआ रहेगा, चाहे बात कॉरपोरेट प्रशासन की हो या फिर राज्य शासन की।
यह कहना समान रूप से उचित है कि उच्च और निम्न वर्गों के बीच संघर्ष चलता रहता है। लेकिन, इसके साथ-साथ यह भी उतना ही सही है कि भारत निश्चित रूप से इस मामले में काफी पिछड़ा हुआ है। अधिकारों को लागू करने के मामले में 183 देशों की फेहरिस्त में हम 182वें पायदान पर हैं। यह सूची विश्व बैंक और अंतरराष्टï्रीय वित्त निगम ने संयुक्त रूप से प्रकाशित की है। यदि क्षतिपूर्ति से संबंधि किसी मुकदमे की पहली सुनवाई में 20 वर्षों का लंबा समय लग जाता है तो ऐसे में हैरानी नहीं होनी चाहिए कि किसी सूचीबद्घ कंपनी द्वारा फिल्मी सितारों और राजनीतिक हस्तियों के निजी दौरों के लिए कॉरपोरेट जेट का इंतजाम करने में होने वाले खर्च पर सवाल उठाने में कोई सक्षम नहीं होगा।
बहरहाल मूल मसले पर आते हैं। दिलचस्प है कि कॉरपोरेट जगत की एक भव्य पार्टी पर जितना खर्च किया जाता है वह रकम मायावती के घर की साज-सज्जा से संबंधित पूरे बजट के लिए पर्याप्त होगी। वरिष्ठï कॉरपोरेट हस्तियों का जन्मदिन मनाने के लिए ऐसी ही भव्य दावतें दी जाती हैं। वरिष्ठï मीडिया पेशेवर इस तरह की दावतों को बड़ी बेपरवाही से कवर करते हैं, जबकि मायावती की ओर से दी जाने वाली पार्टियों की रिपोर्टिंग बारीकी से की जाती है। इसी तरह मीडिया में कंपनियों के मुख्य कार्याधिकारियों के वेतन-भत्तों और विनम्रता का बखान करते समय एक तरह का संतुलन रखा जाता है, लेकिन मायावती जैसी हस्तियों के मामले में इसकी कमी देखी जाती है।
यह मायावती की अनुचित शैली का बचाव करने की कोशिश नहीं है, बल्कि केवल यह याद दिलाने के लिए है कि पत्थर वही फेंक सकता है जिसने पाप न किए हों।
लेखक जेएसए, एडवोकेट्स ऐंड सॉलिसिटर्स के पार्टनर हैं और यह उनकी निजी राय है

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