आपने ऐसी सूचीबद्घ कंपनियों के बारे में भी सुना होगा, जो दर्जी से समय पर सूट मंगवाने के लिए आईआईएम में शिक्षा प्राप्त महंगे रंगरूट रखते हैं। ऐसे मामलों की भी कमी नहीं हैं, जहां अध्यक्ष के लिए वीजा और पासपोर्ट का इंतजाम करने के लिए ट्रैवल एजेंटों, दूतावासों के कर्मचारियों और पासपोर्ट अधिकारियों पर समय और धन की बेशुमार बरबादी की जाती है। यह लागत भी अंतत: सार्वजनिक शेयरधारकों को ही उठानी पड़ता है। लेकिन, वरिष्ठï कॉरपोरेट नौकरशाहों (आईएएस अधिकारियों के समकक्ष) का कहना है कि केवल वही नहीं, बल्कि दूसरे लोग भी धन की बरबादी करते हैं क्योंकि खामियां तो पूरी व्यवस्था में हैं। यह कहना आसान है और संभवत: सुविधाजनक भी, लेकिन दोनों मामलों में बारीक अंतर है। कई लोग इस राय से सहमत होंगे कि निजी क्षेत्र के होने के नाते सूचीबद्घ कंपनियां वैध तरीके से अधिकारियों पर ज्यादा खर्च कर सकती हैं। फिर भी, सार्वजनिक धन का इस्तेमाल करने का मसला हमेशा प्रशासन से जुड़ा हुआ रहेगा, चाहे बात कॉरपोरेट प्रशासन की हो या फिर राज्य शासन की। यह कहना समान रूप से उचित है कि उच्च और निम्न वर्गों के बीच संघर्ष चलता रहता है। लेकिन, इसके साथ-साथ यह भी उतना ही सही है कि भारत निश्चित रूप से इस मामले में काफी पिछड़ा हुआ है। अधिकारों को लागू करने के मामले में 183 देशों की फेहरिस्त में हम 182वें पायदान पर हैं। यह सूची विश्व बैंक और अंतरराष्टï्रीय वित्त निगम ने संयुक्त रूप से प्रकाशित की है। यदि क्षतिपूर्ति से संबंधि किसी मुकदमे की पहली सुनवाई में 20 वर्षों का लंबा समय लग जाता है तो ऐसे में हैरानी नहीं होनी चाहिए कि किसी सूचीबद्घ कंपनी द्वारा फिल्मी सितारों और राजनीतिक हस्तियों के निजी दौरों के लिए कॉरपोरेट जेट का इंतजाम करने में होने वाले खर्च पर सवाल उठाने में कोई सक्षम नहीं होगा।बहरहाल मूल मसले पर आते हैं। दिलचस्प है कि कॉरपोरेट जगत की एक भव्य पार्टी पर जितना खर्च किया जाता है वह रकम मायावती के घर की साज-सज्जा से संबंधित पूरे बजट के लिए पर्याप्त होगी। वरिष्ठï कॉरपोरेट हस्तियों का जन्मदिन मनाने के लिए ऐसी ही भव्य दावतें दी जाती हैं। वरिष्ठï मीडिया पेशेवर इस तरह की दावतों को बड़ी बेपरवाही से कवर करते हैं, जबकि मायावती की ओर से दी जाने वाली पार्टियों की रिपोर्टिंग बारीकी से की जाती है। इसी तरह मीडिया में कंपनियों के मुख्य कार्याधिकारियों के वेतन-भत्तों और विनम्रता का बखान करते समय एक तरह का संतुलन रखा जाता है, लेकिन मायावती जैसी हस्तियों के मामले में इसकी कमी देखी जाती है। यह मायावती की अनुचित शैली का बचाव करने की कोशिश नहीं है, बल्कि केवल यह याद दिलाने के लिए है कि पत्थर वही फेंक सकता है जिसने पाप न किए हों। लेखक जेएसए, एडवोकेट्स ऐंड सॉलिसिटर्स के पार्टनर हैं और यह उनकी निजी राय है
सबकी अपनी अपनी सोच है, विचारों के इन्हीं प्रवाह में जीवन चलता रहता है ... अविरल धारा की तरह...
Tuesday, May 15, 2012
मायावती और शाहखर्ची
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