Friday, November 9, 2007

भयानक संकटः यह आचरण का




लीजिए कविता झेलिए। मेरी लिखी हुई नहीं है इसलिए आपको अगर गाली देना हो तो "प्रताप राव कदम" को दें। हालांकि मुझे बहुत पसंद आई है।


जिन्हें इस खयाल से भी परहेज
उन्होंने ही कहा
धर्म का इस तरह इस्तेमाल गलत
दिन भर लगाते ग्राहकों को चूना,
उन्होंने भी दुकान पर लिखवाया,
ग्राहक हमारा भगवान है।
दहेज की मंडी में वह मंहगा बिका,
कहता था जो
प्रेम के खातिर कुछ भी करेगा।
जो कहते हैं
वे न इधर हैं न उधर
कामकाज औऱ घर
यह चतुराई है
नहीं उनका डर।

और आखिर में शानदार लाइनें देखिये जिसके कारण मैं इस कविता को आप तक पहुंचा रहा हूं।


शब्द निरर्थक
खोखल में से आ रही आवाज़
एक कहता कुछ, करता कुछ औऱ
दूसरा उससे कतई अलग नहीं
बिकने-खरीदने की पंसारी भाषा
चमक-दमक रैपर में लिपटी
भयानक संकटः यह आचरण का।

1 comment:

परमजीत सिहँ बाली said...

अच्छी रचना प्रेषित की है..