सत्येन्द्र प्रताप
नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित शीरीन ऐबादी ने आजदेह मोआवेनी के साथ मिलकर "आज का इरान - क्रान्ति और आशा की दास्तान" नामक पुस्तक मे इरान के चार शाशन कालों का वर्णन किया है . शीरीन ने ईरान में शासन के विभिन्न दौर देखे हैं।वास्तव में यह पुस्तव उनकी आत्मकथा है, जिसने महिला स्वतंत्रता के साथ ईरान के शाशकों द्वारा थोपे गए इस्लामी कानून के दंश को झेला है। विद्रोह का दौर और जनता की आशा के विपरीत चल रही सरकार औऱ ईराकी हमले के साथ-साथ पश्चिमी देशों के हस्तक्षेप का खेल, ईरान में चलता रहा है। कभी जिंदा रहने की घुटन तो कभी इस्लामी कानूनों के माध्यम से ही मानवाधिकारों के लिए संघर्ष का एक लंबा दौर देखा और विश्व के विभिन्न देशों के मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का सम्मान पाते हुए एबादी को विश्व का सबसे सम्मानपूर्ण ...नोबेल शान्ति पुरस्कार... मिला।
नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित शीरीन ऐबादी ने आजदेह मोआवेनी के साथ मिलकर "आज का इरान - क्रान्ति और आशा की दास्तान" नामक पुस्तक मे इरान के चार शाशन कालों का वर्णन किया है . शीरीन ने ईरान में शासन के विभिन्न दौर देखे हैं।वास्तव में यह पुस्तव उनकी आत्मकथा है, जिसने महिला स्वतंत्रता के साथ ईरान के शाशकों द्वारा थोपे गए इस्लामी कानून के दंश को झेला है। विद्रोह का दौर और जनता की आशा के विपरीत चल रही सरकार औऱ ईराकी हमले के साथ-साथ पश्चिमी देशों के हस्तक्षेप का खेल, ईरान में चलता रहा है। कभी जिंदा रहने की घुटन तो कभी इस्लामी कानूनों के माध्यम से ही मानवाधिकारों के लिए संघर्ष का एक लंबा दौर देखा और विश्व के विभिन्न देशों के मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का सम्मान पाते हुए एबादी को विश्व का सबसे सम्मानपूर्ण ...नोबेल शान्ति पुरस्कार... मिला।
किताब की शुरुआत उन्नीस अगस्त १९५३ से हुई है जब लोकप्रिय मुसादेघ की जनवादी सरकार का तख्ता पलट कर शाह के समर्थकों ने राष्ट्रीय रेडियो नेटवर्क पर कब्जा जमा लिया। एबादी का कहना है कि इसके पीछे अमेरिका की तेल राजनीति का हाथ था।एबादी ने धनी माता पिता और उनके खुले विचारों का लाभ उठाया और मात्र तेइस साल की उम्र में कानून की डिग्री पूरी करके जज बनने में सफल रहीं। उस दौर में शाह की सरकार के विरोध चल रहे थे और खुफिया पुलिस ...सावाक... का जनता के आम जीवन में जबर्दस्त हस्तक्षेप था। हर आदमी खुफिया पुलिस की नज़र में महसूस करता था।
सन उन्नीस सौ सत्तर के बाद शाह के शाशन का विरोध बढ़ता जा रहा था और लोग खुलकर सत्ता के विरोध में आने लगे थे । १९७८ की गर्मियों में शाह का विरोध इतना बढ़ा कि रमजान के अंत तक दस लाख लोग सड़कों पर उतर आए। विरोधियों का नेतृत्व करने वाले अयातु्ल्ला खोमैनी ने बयान दिया कि लोग सरकारी मंत्रालय में जाकर मंत्रियों को खदेड़ दें। एबादी कहती हैं कि एक जज होने के बावजूद जब वे विरोधियों के पक्ष में आईं तो कानून मंत्री ने गुस्से से कहा कि तुम्हे मालूम है कि आज तुम जिनका साथ दे रही हो वे कल अगर सत्ता में आते हैं तो तुम्हारी नौकरी छीन लेंगे? शीरीन ने कहा था कि ... मैं एक मुक्त ईरानी जिन्दगी जीना चाहूंगी, गुलाम बनाए वकील की नहीं...। हालात खराब होते देखकर १६ जनवरी १९७९ की सुबह शाह देश के बाहर चले गए औऱ साथ में एक छोटे से बक्से में ईरान की मिट्टी भी ले गए। खुशियां मनाते ईरानियों के बीच शाह के चले जाने के सोलह दिन बाद १ फरवरी १९७९ को अयातुल्ला खोमैनी ने एयर फ्रांस से चलकर ईरान की धरती पर पांव रखा। क्रांति का पहला कड़वा स्वाद ईरान की महिलाओं ने उस समय चखा जब नए सत्ताधारियों ने स्कार्फ से सिर ढ़कने का आह्वान किया। यह चेतावनी थी कि क्रांति अपनी बहनों को खा सकती है(क्रांति के दौर में औरतें एक दूसरे को बहन कहकर पुकारती थीं)। शीरीन को भी कुछ ही दिनों में क्रांति का दंश झेलना पड़ा, क्योंकि सत्तासीन सरकार ईरान में महिला जजों को बर्दाश्त नहीं कर सकती थी। उन्हें न्याय की कुर्सी से हटाकर मंत्रालय में क्लर्क की भांति बैठा दिया गया। खोमैनी के शाशन में ही ईराक ने साम्राज्यवादी विस्तार का उद्देश्य लेकर इरान पर हमला किया और ईरान ने बचाव करने के लिए जंग छेड़ी। लंबे चले इस युद्ध में धर्म के नाम पर छोटे-छोटे बच्चों को भी युद्ध में झोंका गया। विदेशी हमला तो एक तरफ था, अपनी ही सरकार ने मुजाहिदीन ए खलग आरगेनाइजेशन(एम के ओ) के नाम से खोमैनी सरकार का विरोध कर रहे लोगों को कुचलने में अपनी पूरी ताकत झोंक दी। सरकार द्वारा एम के ओ के सदस्यों के संदेह में हजारों लोगों को मौत के घाट उतार दिया, हर तरह से कानून की धज्जियां उड़ाई जाती रहीं। शीरीन कहती हैं कि उस दौर में भी उन्होंने इस्लामी कानून के हवाले से ही ईरान की खोमैनी सरकार का विरोध किया। बिना मुकदमा चलाए शीरीन के नाबालिग भतीजे को एमकेओ का सदस्य बताकर फांसी पर चढ़ा दिया गया।जजों की कुर्सियों पर अनपढ़ धर्माधिकारियों का कब्जा हो चुका था।
इस बीच शीरीन, अपने खिलाफ चल रहे षड़यंत्रों और फंसाने की कोशिशों का भी जिक्र करती हैं जो पुस्तक को जीवंत औऱ पठनीय बनाता है। मानवाधिकारों की रक्षा करने की कोशिशों के दौरान उनके पास इस्लामी गणतंत्र के एजेंट भेजे जाते रहे। घुटन के माहौल और दमन के दौर के बीच तेईस मई १९९७ को इस्लामी गणतंत्र को दूसरा मौका देने के लिए इरानी जनता ने मतदान किया।राष्ट्रपति के चुनाव में मोहम्मद खातमी को चुनाव लड़ने के लिए किसी तरह मुल्लाओं ने स्वीकृति दे दी।ईरान की जनता ने शान्ति से इसे उत्सव के रुप में लिया औऱ अस्सी फीसदी लोगों ने खातमी के पक्ष में मतदान कर सुधारों की जरुऱत पर मुहर लगा दी। हालांकि खातमी सुधारवादी हैं लेकिन इसके बावजूद आम लोगों की आशाओं के मुताबिक सुधार कर पाने में सक्षम नहीं हैं।शीरीन का कहना है कि पहले की तुलना में आम लोगों का दमन कुछ कम जरुर हुआ है लेकिन तानाशाह परम्परावादी विभिन्न षड़यंत्रों के माध्यम सुधार की रफ्तार को पीछे ढ़केलने से नहीं चूकते। इस पुस्तक में बड़ी साफगोई से शीरीन ने न केवल निजी जीवन, बल्कि सत्ता के परिवर्तनों को नज़दीक से देखते हुए साफगोई से देश की हालात पेश करने की कोशिश की है। मीडिया के स्थानीयकरण के इस दौर में निकट पड़ोसी ईरान के बदलते दौर को देखने में ये किताब पाठकों के लिए सहायक साबित होगी। साथ ही आतंकवाद औऱ स्वतंत्रता पर इस्लामी रवैये और मुस्लिम कानूनों में मानवाधिकारों की रक्षा के अध्याय की पूरी जानकारी देती है।
पुस्तक परिचय
किताब- आज का ईरान , लेखिकाः शीरीन एबादी
किताब- आज का ईरान , लेखिकाः शीरीन एबादी
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