Friday, August 31, 2007

बन टांगिया मजदूरों की दुर्दशा


बन टांगिया मजदूरों की दुर्दशा
सरकारें देश भर में वृक्षारोपण के लिए करोडो रुपये खर्च करती है, लेकिन वन समाप्त होते जा रहे हैं. वनों को लगाने वाले बन टांगिया मजदूरों का आज बुरा हाल है जिन्होंने अंग्रेजों के ज़माने मे गोरखपुर मंडल को पेड लगाकर हरा भरा किया था. मंडल मे ३५ हजार से अधिक बन टांगिया मजदूर अपने ही देश मे निर्वासित जीवन जीने को विवश हैं. उन्हें राशनकार्ड, बेसिक शिक्षा,पानी जैसी मूलभूत सुविधाएं भी उपलब्ध नही हैं.आख़िर स्वतंत्र भारत में भी ये परतंत्र हैं.
घर के मारल बन मे गइली, बन में लागल आग.
बन बेचारा का करे , करमवे फूटल बाय.

ये अभिव्यक्ति एक बन टांगिया किसान की सहज अभिव्यक्ति है। महाराजगंज और गोरखपुर जिले के ४५१५ परिवारों के ३५ हजार बन टांगिया किसान दोनो जिलों के जंगलों मे आबाद हैं. नौ दशक पहले इनके पुरखों ने जंगल लगाने के लिए यहाँ डेरा डाला था. इस समय इनकी चौथी पीढ़ी चल रही है. सुविधाविहिन हालत मे घने जंगलों कि छाव मे इनकी तीन पीढी गुजर चुकी है. इनके गाव राजस्व गावं नही हैं इसलिये इन्हें सरकार की किसी योजना का लाभ नही मिलता है. हम स्वतंत्रता की ६० वी वर्षगांठ मना चुके , लेकिन अपने ही देश मे बन टांगिया मजदूरों की त्रासदी देख रहे हैं. आख़िर इसके लिए जिम्मेदार कौन है?
ये मजदूर अपने गावं मे पक्का या स्थाई निर्माण नही करा सकते, न तो हन्द्पम्प न पक्का चबूतरा -- फूस की झोपड़ी ही डाल सकते हैं. सरकारी स्कूल और स्वास्थ्य केंद्र के बारे मे तो सोचा भी नही जा सकता है. आज ये उन अधिकारों से भी वंचित हैं जो इन्हें देश का सामान्य नागरिक होने के नाते मिलना चाहिए. बैंक मे इनका खाता नही खुलता, तहसील से अधिवास प्रमाण पत्र नही मिलता,जाति प्रमाण पत्र भी नही मिलता जिससे इन्हें पिछड़े या अनुसूचित होने का लाभ मिल सके.
हालांकि राजनीतिक दलों ने वोट के लिए कुछ इलाक़ों मे इन्हें मतदाता सूची मे दर्ज करा दिया है, लेकिन कुछ इलाक़ों मे वे वोटर भी नही बन पाए हैं. इनके साथ एक समस्या ये भी है की बन टांगिया विभिन्न जातियों के हैं इसलिये इनका कोई वोटबैंक नही है और ना ही ये संगठित हैं.गोरखपुर के तिन्कोनिया रेंज मे ५ महाराजगंज के लक्ष्मीपुर, निचलोल ,मिठौरा ,कम्पिअरगंज ,फरेंदा,श्याम्दयूरवा व पनियारा विकासखंड मे बन टांगिया मजदूरों के गावं आबाद हैं. इसमे ५६% केवट व मल्लाह ,१५ % अनुसूचित जाति व १०% पिछडी जाति के लोग हैं. ये लोकसभा व विधान सभा मे तो वोट दे सकते हैं लेकिन अपनी ग्राम पंचायत नही चुन सकते हैं.
आख़िर ये कब गुलामी से मुक्त होंगे और कब मिलेगी इन्हें भारत की नागरिकता ? ७० साल के जयराम कहते हैं की उन्हें तो पता भी नही की देश और दुनिया की प्रगति क्या है ? जवान लड़के लडकियां मजदूरी करते हैं जिससे पेट की आग बुझ जाती है लेकिन दुखों का कोई अंत नही दिखाई देता लेकिन इनकी उमीदें अभी भी बरकरार हैं कि कही दो गज जमीन मिल जाये जिसे ये अपना कह सकें. अख़्तर "वामिक" ने सही ही कहा है :
ख्वाबों को अपनी आखों से कैसे जुदा करें?
जो जिंदगी से खौफजदा हो वो क्या करे?
सत्येंद्र प्रताप

Monday, August 13, 2007

...यूं ही कभू लब खोलें हैं



आने वाली नसलें तुम पे रश्क करेंगी हमअसरों
जब उनको ये ध्यान आयेगा तुमने फिराक को देखा था .
इसे आप चाहें तो नार्सिसिया की इंतहां कह सकते हैं. जैसा मैने लोगों से सुना है अगर उस भरोसा कर सकूं तो मानना होगा वास्तव में फिराक साहब आत्ममुग्धता के बहुत हद तक शिकार थे भी. यूँ इसमें कितना सच है और कितना फ़साना, यह तो मैं नहीं जानता और इस पर कोई टिप्पणी भी नहीं करूंगा कि आत्ममुग्ध होना सही है या ग़लत, पर हाँ इस बात का मलाल मुझे जरूर है कि मैं फिराक को नहीं देख सका. हालांकि चाहता तो देख सकता था क्या? शायद हाँ, शायद नहीं.... ये अलग है कि फिराक उन थोड़े से लोगों मैं शामिल हैं जो अपने जीते जी किंवदंती बन गए,पर फिराक के बारे में मैं जान ही तब पाया जब उनका निधन हुआ। 1982 में जब फिराक साहब का निधन हुआ तब मैं छठे दर्जे में पढता था. सुबह-सुबह आकाशवाणी के प्रादेशिक समाचार में उनके निधन की खबर जानकर पिताजी बहुत दुखी हुए थे। यूँ रेडियो बहुत लोगों के मरने-जीने की बात किया करता था, पर उस पर पिताजी पर कोई फर्क पड़ते मैं नहीं देखता था. आखिर ऐसा क्या था कि वह फिराक साहब के निधन से दुखी हुए. मेरे बालमन में यह कुतूहल उठना स्वाभाविक था. पिताजी दुखी हुए इसका मतलब यह था कि फिराक साहब सिर्फ बडे नहीं, कुछ खास आदमी थे. पूछने पर पिताजी ने बातें तो तमाम बताएँ, पर मेरी समझ में कम ही आईं. लब्बो-लुआब जो मैं समझ पाया वह यह था कि फिराक गोरखपुरी एक बडे शायर थे और उर्दू व अन्ग्रेज़ी के बडे विद्वान भी थे. मूलतः वह गोरखपुर जिले की बांसगाँव तहसील के रहने वाले थे. बावजूद इसके पिताजी ने भी उन्हें देखा नहीं था. यूँ फिराक साहब का गुल-ए-नगमा पिताजी के पास था और उसके शेर वह अक्सर सुनाते रहते थे. बात-बात पर वह उससे उद्धरण देते थे और शायद इसीलिए फिराक को न जानते हुए भी उनके कई शेर मुझे तभी याद हो गए थे. इनमें एक शेर मुझे खासा पसंद था और वह है :
किसी का कौन हुआ यूँ तो उम्र भर फिर भी
ये हुस्न-ओ-इश्क सब तो धोका है मगर फिर भी.
ये अलग बात है कि तब इसके अर्थ की कोई परछाईं भी मेरी पकड़ में नहीं आने वाली थी. फिराक साहब और उनका गुल-ए-नगमा मुझे समझ में आना शुरू हुआ तब जब मैने दसवीं पर कर गया. जैसे-जैसे बड़ा होता गया फिराक साहब अपनी शायरी के जरिए मेरे भी ज्यादा अजीज होते गए. फिराक, उनकी शायरी, उनके क्रांतिकारी कारनामे और उनसे जुडे तमाम सच्चे-झूठे किस्से. खास तौर से कॉलेज के दिनों में तो हम लोगों ने फिराक के असल अशआर की जगह उनकी पैरोदियाँ ख़ूब बनाईं. पैरोडियों के बनाने में जैसा मनमानापन सभी करते हैं हमने भी किया.पर अब सोचते हैं तो लगता है कि जिन्दगी की जैसी गहरी समझ फिराक को थी, कम रचनाकारों को ही हो सकती है. कहने को लोग कुछ भी कहें, पर यही नार्सिसिया फिराक की शायरी जान भी है. जब वह कहते हैं :
क्या रिहाई क्या है हमीं में हर आलमचल पडे तो सेहरा है रूक गए तो ज़िंदा है। वैसे फिराक की यह नार्सिसिया ठहराव की नहीं है। यह मुक्ति, अपने से पर किसी और अस्तित्व के तलाश की और उससे जुडाव की ओर ले जाने की नार्सिसिया है. यह वह रास्ता है जो अस्तित्ववाद की ओर ले जाता है. वह शायद अस्ति की तलाश से उपजी बेचैनी ही है जो उन्हें यह कहने को मजबूर करती है:शामें किसी को मांगती हैं आज भी 'फिराक'गो ज़िंदगी में यूं तो मुझे कोई कमी नहीं अस्ति की खोज उनकी शायरी लक्ष्य है तो प्रेम शायद उसका रास्ता. ऐसा मुझे लगता है. कदम-कदम पर वह अपनी तासीर में अस्तित्ववाद की ओर बढते दिखाई देते हैं :तुम मुखातिब भी हो करीब भी हो

तुमको देखूं कि तुमसे बात करूं या फिर जब वह कहते हैं :आज उन्हें मेहरबां पा करखुश हुए और जी में डर भी गए.द्वंद्व का यह आलम फिराक में हर तरफ है. तभी तो प्रेम का साफ-साफ जिक्र आने पर भी वह कहते हैं:मासूम है मुहब्बत लेकिन इसी के हाथों
ऐ जान-ए-इश्क मैने तेरा बुरा भी चाहाफिर वही फिराक यह भी कहते हैं :हम से क्या हो सका मुहब्बत मेंखैर तुमने तो बेवफाई की.व्यवहार में फिराक जो भी रहें हों, पर यकीनन शायरी में तो वह मुझे आत्ममुग्धता के शिकार नहीं, आत्मविश्लेषण और आत्मानुसंधान के आग्रही नजर आते हैं.लीजिए इस अलाहदा शायर की एक गजल आपके लिए भी :
अब अक्सर चुप-चुप से रहे हैं यूं ही कभू लब खोलें हैंपहले "फिराक" को देखा होता अब तो बहुत कम बोले हैं
दिन में हम को देखने वालो अपने अपने हैं ओकात
जाओ ना तुम इन खुश्क आंखों पर हम रातों को रो ले हैं
फितरत मेरी इश्क-ओ-मुहब्बत किस्मत मेरी तनहाई
कहने की नौबत ही ना आई हम भी कसू के हो ले हैं
बाग़ में वो ख्वाब-आवर आलम मौज-ए-सबा के इशारों पर
डाली डाली नौरस पत्ते सहस सहज जब डोले हैं
उफ़ वो लबों पर मौज-ए-तबस्सुम जैसे करवटें लें कौंधें
हाय वो आलम जुम्बिश-ए-मिज़गां जब फित्ने पर तोले हैं
इन रातों को हरीम-ए-नाज़ का इक आलम होए है नदीम
खल्वत में वो नर्म उंगलियां बंद-ए-काबा जब खोलें हैं
गम का फ़साना सुनाने वालो आख़िर-ए-शब् आराम करो
कल ये कहानी फिर छेडेंगे हम भी ज़रा अब सो ले हैं
हम लोग अब तो पराए से हैं कुछ तो बताओ हाल-ए-"फिराक"
अब तो तुम्हीं को प्यार करे हैं अब तो तुम्हीं से बोले
ईस्टदेव सांकृत्यायन

Friday, August 10, 2007

दोषी कौन?



काशी जीवंत शहर है, देश में कुछ भी होता है तो काशी मे प्रतिक्रिया जरूर होती है। खासकर इलेक्ट्रोनिक मीडिया के लिए तो खबरें मैनेज होती हैं, इसमे कोई दो राय नही है. लेकिन क्या मौत को भी मैनेज किया जा सकता है? क्या किसी टीवी के अदने से स्ट्रिंगर के कहने पर कोई मरने के लिए तैयार हो सकता है? ये भी बहस का विषय है कि आख़िर काशी में ही ज्यादातर ऐसी घटनाएं क्यों होती हैं?पिछले साल घूरेलाल सोनकर ने लंका थाने के सामने आत्मदाह कर लिया था. इतेफाक से उन दिनों मैं बनारस में ही कार्यरत था. उसके आत्मदाह करने की धमकी संध्याकालीन दैनिक 'सन्मार्ग' मे छपी थी. उसी को पढ़कर CNN-IBN मे काम करने वाला लड़का लंका थाने पंहुचा था. घूरेलाल ने अन्य अखबारों को भी विज्ञप्ति भेजी थी. घूरेलाल ने आग लगा ली. वो मर गया. किसी चैनल ने वो खबर नहीं ली, लेकिन अखबार मे पहले पन्ने पर जलते हुए आदमी कि तसबीर आयी. उस समय भी उंगलिया चैनल पर ही उठी थीं.बनारस मे खबरें मैनेज होती हैं, इसमे कोई दो राय नहीं. लेकिन सवाल ये उठता है कि इसके लिए जिम्मेदार कौन है? टीवी और अखबार के लोग अपनी नौकरी के लिए खबर कवर करते हैं. जहाँ तक टीवी चैनल की बात है, सारा कुछ कवर करने के बाद अगर खबर को चैनल वाले लेते हैं तो ५०० से १००० रुपये मिलते हैं. इतने कम पैसे के लिए कोई किसी की हत्या की जोखिम नहीं लेने वाला है. तमाम लोग हैं जो सिस्टम से परेशान हैं और उनकी कोई सुनने वाला नहीं है. वाराणसी मे विकलांगों द्वारा आत्महत्या की कोशिश इसी दुख का परिणाम है.स्टार न्यूज़ में वाराणसी में बतौर स्ट्रिंगर काम करने वाले शैलेष कहते हैं कि उन्होने विकलांगों की मंशा भांप ली थी और एसएसपी को फोन कर के जानकारी भी दी, लेकिन उसका खमियाजा उन्हें भुगतना पड़ा और एसएसपी ने स्टार न्यूज़ के खिलाफ ऍफ़आईआर करा दी. साथ ही उनका कहना था कि ये मामला अखबारों मे बहुत दिनों से चल रहा था और एलआइयू ने रिपोर्ट भी दीं थी, लेकिन प्रशासन अपना मुह छुपाने के लिए घटना को दूसरी ओर मोड़ रहा है. इस घटना के लिए सिर्फ दो चैनल के संवाददाता कैसे जिम्मेदार हो सकते हैं? जबकि घटनास्थल पर तो ज्यादा लोग मौजूद थे ही, पूरे शहर को जानकारी थी कि विकलांगों ने आत्महत्या की घोषणा कर रखी है.ये जरूर है कि इस घटना के बाद प्रिंट और इलेक्ट्रोनिक मीडिया की लडाई खुलकर सामने आ गई. अखबार मे खबर तो आई ही, सम्पादकीय भी लिखा गया जिसमे इलेक्ट्रोनिक मीडिया के लोगों को शैशवावस्था में बताया गया। प्रिंट मीडिया को परिपक्व बताया गया. लेकिन सम्पादकीय लिखने वाले शायद ये नही जानते कि इलेक्ट्रोनिक मीडिया के लिए काम करने वाले कई लोगों का एक दशक से भी अधिक का प्रिंट मीडिया का कैरियर रहा है!सारी बहस के बाद भी समस्या वही कि वहीं रह गई कि बनारस के नगर निगम द्वारा बेदखल किए गए विकलांगों का क्या होगा? जो मर गए उनका क्या होगा और रोजी रोटी के लिए वरसों से आंदोलन कर रहे उन विकलांगों का क्या होगा जो जिंदा बच गए हैं?सत्येंद्र प्रताप

Thursday, August 2, 2007

भोजन की ख़ुशी


पुरे देश से भुखमरी की खबरें आती रहती हैं , कालाहांडी पुराणी बात हो चली , महाराष्ट्र में किसान आत्महत्या कर रहे हैं , बुंदेलखंड में खेती का बुरा हाल है ऐसे में भूख क्यों ना बिके।
एक राष्ट्रीय हिंदी दैनिक के दिल्ली संस्करण में राधिफल निकला , लिखा था कि आज कुम्भ राशी वालों को बढ़िया भोजन मिलेगा । अब हालत यहाँ तक पहुच गई कि ज्योतिषियों को बताना पद रह है कि हिंदी अखबार पढने वालों में कुम्भ राशी वालों को खुश होने कि जरुरत है , क्योंकि आज उन्हें भरपेट बढ़िया खाना मिलने कि उम्मीद है । अबतक तो सरकारों पर ये आरोप लगते थे कि असंतुलित विकास के चलते महानगरों की ओर पलायन हो रह है । अब सरकार क्या करे जब देश के सारे भुखर राजधानी मे पहुच गए हैं । ज्योतिशियाँ कि समस्या ये है कि पहले तो तोते से कागज उठ्वाते थे जिसमे लिखा होता था कि आप करोड़पति बनने वाले हैं ,कचहरी के नजदीक का तोता मुकदमे जीतने की भविष्यवाणी करता था , लेकिन अब वो दिल्ली वालों को बतायेगा कि आज तुम्हे भरपेट भोजन मिल जायेगा ।
ये अलग बात है कि दिल्ली की मुख्यमंत्री शीला जीं भी उत्तर प्रदेश की हैं और हिंदी के राजेंद्र यादव भी बाहर के हैं । इन्हें बुरा लगता है कि लोग दिल्ली आते हैं और दिल्ली को भुक्ख्र र बनाते हैं । क्या करें , विदेशी भारत को भूखा नंगा देश कहते हैं , और दिल्ली वाले उत्तर प्रदेश और बिहार को, और उत्तर प्रदेश और बिहार वाले कुछ जिलों को। लेकिन भविष्य बताने वालों को तो अपनी दुकान बचने के लिए अब दिल्ली के हिंदी अखबारों मे यही बताना पड़ेगा कि आज तुम्हे भरपेट भोजन मिल जायेगा, तभी चलेगी दुकानदारी।
किसी शायर ने दिल्ली के लिए ही शायद खास लिखा था ....
मेरी खता मुआफ , मैं भूले से आ गया यहां ।
वरना मुझे भी है खबर, मेरा नही है ये जहाँ । ।
सत्येंद्र प्रताप