सबकी अपनी अपनी सोच है, विचारों के इन्हीं प्रवाह में जीवन चलता रहता है ... अविरल धारा की तरह...
Saturday, February 23, 2008
अप्पू मुझसे रूठ गया
भूपेंद्र सिंह
मेरे बचपन का साथी पीछे छूट गया,
मेरा अप्पू मुझसे रूठ गया।
कभी उन झूलों पर बसती थी जिंदगी,
खिलखिलाता था बचपन,
लेकिन आज फैली है खामोशी,
छाया है नीरसपन,
मेरा अप्पू अपनी मौत नहीं है मरा,
बड़ों की ख्वाहिशों ने उसे मारा है,
लेकिन क्या करें
अब तो बस अप्पू की यादों का सहारा है।
अप्पू घर महज एक एम्युजमेंट पाकॆ नहीं था। बल्कि एक सपना था, उन बच्चों का जो इसके साथ बड़े हुए। इसके साथ जिए। इसके झूले पर झूलकर जिंदगी को जिया। ये उन बच्चों का भी सपना था, जो यहां झूलना चाहते थे। अपना बचपन जीता चाहते थे। लेकिन जैसा हमेशा से होता आया है। बड़ों के अरमानों के आगे बच्चों की ख्वाहिशों की बलि दी जाती रही है। वहीं यहां भी हुआ। कुछ वकीलों और जजों की लाइब्रेरी और बैठने की जगह के लिए बच्चों के बचपन का आशियाना उजाड़ दिया गया। निदा फाजली ने ठीक ही कहा है।
बच्चों के छोटे हाथों में चांद सितारे छूने दो,
चार किताबें पढ़कर ये भी हम जैसे हो जाएंगे।
वकील और जज भी चार किताबें पढ़कर ये भूल गए हैं, कि वो भी कभी बच्चे थे। बचपन में जब उनसे कोई उनका खिलौना छीनता होगा, तो वो भी रोते होंगे। अगर आज वो बच्चे होते, तब उन्हें पता चलता कि बचपन की क्या अहमियत होती है। खिलौनों के छीन लिए जाने पर कैसा लगता है। आज सब बड़े हो गए हैं, उन्हें खेलने के लिए खिलौनों और झूले नहीं चाहिए। उन्हें चाहिए ऐशो आराम। ये उनकी आज की जरूरतें थी। अगर आज उनसे उनका ये ऐशो आराम छीन लिया जाए, तो सभी किस तरह भड़केंगे। हम सभी जानते हैं।
मैं बचपन से दिल्ली में रहा हूं। अप्पू घर के झूलों में झूला हूं। इसलिए जानता हूं कि पुराने साथी का बिछड़ना कैसा लगता है। कोई आपके सामने ही आपके बचपन के आशियाने को उजाड़ दे, तो कैसा लगता है। मैं जानता हूं। सबकुछ देख रहा हूं, फिर भी कुछ नहीं करता। क्या करूं कानूनी दावपेंचों में उलझना नहीं चाहता। इसलिए खामोश हूं, क्योंकि चार किताबें पढ़कर मैं भी बड़ों जैसा हो गया हूं। आगे पीछे का सोचने लगा हूं। बड़ों जैसा हो गया हूं।
Friday, February 1, 2008
२५ प्रतिशत शेयर सार्वजनिक किए जाने का प्रस्ताव आम निवेशकों के हित में
सत्येन्द्र प्रताप सिंह
वित्त मंत्रालय एक प्रस्ताव लाया है। बाजार में शेयर लाने से पहले कंपनियों पर कम से कम एक चौथाई शेयर सार्वजनिक करने की शर्त तय की जाए। मंत्रालय का मानना है कि संस्थागत निवेशकों, कर्मचारियों औऱ प्रवासी भारतीयों को शेयर बेचकर सार्वजनिक शेयर की खानापूर्ति नहीं होनी चाहिए।
यह सही है कि कंपनियां बाजार में उतरने के पहले कृत्रिम बढ़त बनाने की कोशिश करती हैं, जिससे आम निवेशकों की भीड़ को खींचा जा सके। इस कोशिश में तमाम बड़ी कंपनियां सेक्टरवाइज शेयर भी उतार देती हैं, यानी एक ही कंपनी के दो शेयर। होता यह है कि कंपनी अपने एक सेक्टर से पूंजी निकालती है और दूसरे में डाल देती है। खुद, कर्मचारियों के माध्यम से या संस्थागत निवेशकों के जरिए। बाद में ओवर सब्सक्रिप्शन देखकर जनता दौड़ती है उस कंपनी का शेयर खरीदने। इस तरह से कंपनी के आईपीओ का जलवा कायम हो जाता है। बाद में वह कंपनी धीरे-धीरे अपना पैसा खींचती है। शेयर गिरता है और आम निवेशक की तबाही शुरू हो जाती है।
अगर वित्त मंत्रालय का यह प्रस्ताव अमल में आता है तो स्वाभाविक है कि कंपनियों का गड़बड़झाला सामने आ जाएगा और वे आम निवेशकों के सामने नंगे हो जाएंगे। इससे सीधा फायदा बाजार में सीधे निवेश करने वाले निवेशकों को होगा और बाजार की घट-बढ़ चाल भी समझ में आएगी। जब कंपनी का कोई सीधा लाभ होगा या उसकी प्रगति होगी तभी शेयर के दाम बढ़ेंगे और सटोरियों, आम लोगों से पैसा लेकर निवेश करने वाले संस्थागत निवेशकों द्वारा उत्पन्न कृत्रिम बढ़त बनाने का दौर भी कम होगा।
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