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Thursday, December 11, 2008
देखें पाकिस्तान की दुर्भावनाएं.. बन रही है भयावह स्थिति ?
Wednesday, December 3, 2008
आम भारतीय से दूर होता बड़े लोगों का मीडिया
ए. के. भट्टाचार्य
सरकार भारत पर मंडरा रहे किसी संकट का मुंहतोड़ जवाब देगी। यह बात पालानीअप्पन चिदंबरम ने सोमवार को उस समय कही थी जब वह गृह मंत्रालय की कमान संभाल रहे थे।
मुंबई पर हुए हमले के बाद उनका यह बयान काफी सुकून दिलाने वाला था। लेकिन गृहमंत्री आखिर कौन से भारत की बात कर रहे थे? जी हां, मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले का एक असर यह भी हुआ है कि इसने अमीरों के भारत और आम आदमी के भारत के बीच मौजूद खाई को और भी चौड़ा कर दिया।
इस बात से किसी को हैरत नहीं होनी चाहिए कि आज भी इस तरह की खाई अपने मुल्क में मौजूद है और वह दिनोंदिन चौड़ी होती जा रही है। हैरत अगर है तो उस अंदाज पर, जिसमें मीडिया ने इस हमले को पेश किया। उसने इस खाई को और भी गहरा व चौड़ा कर दिया। उसकी वजह से यह खाई खुलकर लोगों के सामने आ गई। जिस तरह से मीडिया ने इस त्रासदी को कवर किया, उसने हमारे सबसे बुरे सपनों में से एक को हकीकत में तब्दील कर दिया। मीडिया में कौन सी चीज कैसे दिखाई जानी है, इस बारे में फैसला करने में कहीं न कहीं खामी जरूर है। साथ ही, आज मीडिया का नजरिया वही कुछेक लोग तय कर रहे हैं, जो उसे चला रहे हैं।
यहां संकट की गंभीरता या फिर इस त्रासदी की व्यापकता पर सवाल नहीं उठाए जा रहे हैं। मुंबई पर हुए इस आतंकवादी हमले में कम से कम 200 लोगों की जान गई। 60 घंटे तक मुट्ठी भर आतंकवादियों ने बंदूक के दम पर हिंदुस्तान के हाई प्रोफाइल होटलों में से दो पर अपना कब्जा जमाए रखा। उन्होंने सैकड़ों की तादाद में लोगों को बंधक बनाकर रखा, जिनमें से कई को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा। इस पूरे घटनाक्रम को मीडिया ने अच्छे या कहें कि काफी अच्छे तरीके से पेश किया।
लेकिन असल दिक्कत है उस तरीके के साथ, जिससे उसी मीडिया ने भारतीय रेलवे के छत्रपति शिवाजी टर्मिनस (सीएसटी) की घटना की जानकारी दी थी। आखिर वहां भी तो आतंकवादियों ने कई मासूमों की जिंदगी की लौ वक्त से पहले ही बुझा दी। शुरुआत में तो टीवी चैनलों ने रेलवे स्टेशन पर हुई गोलीबारी के बारे में जानकारी दी थी, लेकिन जल्दी ही सभी के सभी टीवी चैनलों का ध्यान वहां से हट गया और उनके कैमरों के लेंस दोनों लक्जरी होटलों की तरफ टिक गए। अखबारों में भी छत्रपति शिवाजी टर्मिनस पर हुई घटना के बारे में खबरों को भूलेभटके ही जगह दी गई।
क्या अपनी मीडिया के लिए किसी रेलवे स्टेशन पर खड़े आम लोगों की जिंदगियों की कीमत पांच सितारा होटलों में जुटे अमीरों की जान से कम है? या क्या मीडिया को हिंदुस्तान के अमीरों की जिंदगी में ज्यादा दिलचस्पी होती है?
या फिर क्या मीडिया इन होटलों में हो रही घटनाओं में इस कदर उलझा हुआ था कि वह दूसरी तरफ ध्यान ही नहीं दे पा रहा था? आप कह सकते हैं कि इन दोनों होटलों में हुई घटनाएं काफी ज्यादा अहम थीं, इसलिए सीएसटी की खबर को ज्यादा तव्वजो नहीं दी गई? आपकी बात में दम है, लेकिन इस घटना की तुलना पिछले साल या उससे पहले ही हुई आतंकवादी घटनाओं को मिले मीडिया कवरेज से कीजिए। यहां बिल्कुल साफ-साफ दिखता है कि मीडिया को उन लोगों की काफी चिंता रहती है, जो उच्च वर्ग से ताल्लुक रखते हैं।
जुलाई, 2006 में मुंबई में सात जगहों पर लोकल टे्रनों में बम धमाके हुए थे। उस हमले में भी उतने ही लोग मारे गए थे, जितने पिछले हफ्ते की आतंकी घटनाओं में मारे गए। लेकिन उन धमाकों को उस स्तर पर कवरेज नहीं मिला, जितना कि पिछले हफ्ते की आतंकवादी हमले को मिला था।
हालांकि, इन दोनों आतंकवादी घटनाओं में दो बड़े अंतर हैं। पहली बात तो यह है कि 2006 के हमले कुछ ही घंटों के दौरान हुए थे। वहीं, पिछले हफ्ते का हमला तीन दिनों तक चला था। दूसरी बात यह है कि ये दोनों हमले अलग-अलग तरह के थे। 2006 में एक अनजान और अनाम आतंकवादी ने लोकल टे्रनों में बम रखे थे, जो एक के बाद एक फटे। वहीं पिछले हफ्ते हाथों में बंदूक थामे आतंकवादियों ने अलग-अलग जगहों पर खुद ही लोगों को मौत के घाट उतारा था।
इन दोनों हमलों में कोई समानता ही नहीं थी। इसलिए हो सकता है कि अभूतपूर्व स्तर पर किए गए इस हमले को दिखाने के लिए तैयारी करने का मौका ही नहीं मिला हो। ऐसा है तो आप उस बाढ़ के बारे में क्या कहेंगे, जिनसे महज कुछ महीनों पहले ही बिहार के बड़े हिस्से को अपनी चपेट में ले लिया था? उन मासूम लोगों का क्या, जो हर रोज अलग-अलग आतंकवादी या उग्रवादी संगठनों के हमलों में मारे जाते हैं?
दिक्कत साफ तौर पर उस कवेरज को लेकर कतई नहीं है, जो पिछले हफ्ते मुंबई पर हुए आतंकवादी हमले को मिला था। असल दिक्कत यह है कि जब आम लोग ऐसे हमलों में मारे जाते हैं, तो उन्हें खबरों में इतनी जगह नहीं मिलती। इसी वजह से तो सवाल उठते हैं कि क्या मीडिया कवरेज का असल मकसद, ज्यादा से ज्यादा लोगों तक खबरों को पहुंचाने का होता है या फिर विज्ञापनदाताओं के सामने ज्यादा से ज्यादा अंक बटोरने का मिसाल के तौर पर बिहार में बाढ़ या फिर छत्तीसगढ क़े किसी गांव में नक्सलियों का हमला तो टीवी चैनलों को उतनी रेटिंग तो कतई नहीं देगा, जितना अमीर हिंदुस्तानियों पर हुआ आतंकवादी हमला दिला सकता है।
यह देखकर भी काफी दुख होता है कि आज मीडिया कवरेज का फैसला उन लोगों के विवेक पर होता है, जो उसके कंटेट के बारे में फैसला करते हैं। इसलिए जन परिवहन प्रणाली पर निशाना साधा जाता है क्योंकि इससे कारों के मालिकों पर बुरा असर पड़ता है। इसीलिए तो लक्जरी होटलों पर हुआ हमला, किसी रेलवे स्टेशनों पर हुए हमले से ज्यादा अहम हो जाता है। सबसे दिक्कत वाली बात यह है कि आज मीडिया और उसे चलाने वाले, दोनों उच्च वर्ग का हिस्सा बन चुके हैं।
इसीलिए तो उनकी चिंताएं उच्च वर्ग की चिंताओं के बारे में बताती हैं, आम हिंदुस्तानियों के बारे में नहीं। यह बात अपने-आप में किसी हमले से कमतर नहीं है।