Tuesday, March 24, 2009

सफरनामा एक निवेश बैंक का

भूपेश भन्डारी

पिछले साल सितंबर महीने की 22 तारीख को अमेरिका के केंद्रीय बैंक, फेडरल रिजर्व ने गोल्डमैन सैक्स को बैंक होल्डिंग कंपनी बनने की इजाजत दे दी।

दरअसल, इस कवायद के बाद इसने फेडरल रिजर्व द्वारा दिए जा रहे बेलआउट पैकेज को लेने की पात्रता हासिल की। इसके बाद वित्तीय जगत में विलय और अधिग्रहण के मामलों का यह दिग्गज निवेश बैंक बचा तो रहेगा लेकिन अपनी मूल पहचान के साथ नहीं बल्कि एक सामान्य बैंक के तौर पर ही कायम रहेगा।

और इस तरह दुनिया के सबसे पुराने निवेश बैंक के अस्तित्व पर ही सवालिया निशान लग गए। सितंबर 2008 दुनिया के बड़े निवेश बैंकों के लिए बड़े बदलाव लेकर आया।

गोल्डमैन सैक्स और मॉर्गन स्टैनली सामान्य बैंक बन गए। जबकि लीमन ब्रदर्स तो दिवालिया ही हो गया और मेरिल लिंच, बैंक ऑफ अमेरिका के हाथों बिक गया।

लेकिन इन चारों में से कोई भी नाम गोल्डमैन सैक्स से बड़ा नहीं था। दुनियाभर में नामी गिरामी बिजनेस स्कूलों के छात्रों का सपना गोल्डमैन सैक्स में नौकरी करने का होता था तो बड़ी-बड़ी कंपनियां भी इसकी सलाह लेने के लिए लाइन लगा कर खड़ी रहती थीं।

वैसे, इसके अतीत की पड़ताल करने के लिए एक किताब से बेहतर कुछ और नहीं हो सकता जो इसकी शुरूआत से लेकर अब तक के बारे में सब कुछ बता सके। इसकी राह में आए उतार चढ़ावों का जिक्र कर सके तथा उन लोगों और सिद्धांतों के बारे में बता सके जिन्होंने इसकी सफलता में अहम भूमिका निभाई।

और किताब लिखने के लिए चार्ल्स डी एलिस से बेहतर शख्स और कोई नहीं हो सकता। दरअसल, उनका और गोल्डमैन सैक्स का साथ काफी पुराना है।

उन्होंने ग्रीनविच एसोसिएट्स नाम की कंसल्टेंसी सेवा की स्थापना की। ग्रीनविच पिछले तीस सालों से दुनिया की बड़ी-बड़ी कंपनियों के साथ काम कर चुकी हैं जिनमें से गोल्डमैन सैक्स भी एक हैं।

इस सबकी वजह से एलिस को न केवल गोल्डमैन सैक्स के अंदर की कई बातें मालूम होंगी बल्कि वह कई और बड़ी संस्थाओं से उसकी तुलना आसानी से कर सकते हैं। गोल्डमैन सैक्स की शुरुआत 1869 में जर्मनी से अमेरिका आए एक यहूदी मार्क्स गोल्डमैन ने की थी।

इसके तेरह साल बाद मार्क्स के दामाद सैमुअल सैक्स भी इसमें शामिल हुए और तब इसका नाम गोल्डमैन सैक्स किया गया। 1896 में इसे न्यू यॉर्क स्टॉक एक्सचेंज में शामिल होने का न्यौता मिला। 1929 की मंदी तक गोल्डमैन सैक्स के लिए सब कुछ बेहतर होता रहा। इसने धीरे-धीरे अपनी पहचान पुख्ता करनी शुरू कर दी।

बाजार में इसका काफी नाम होने लगा। 1906 में इसने सीयर्स, रीबॉक एंड कंपनी के आईपीओ का प्रबंधन किया। यह उस समय की एक बड़ी आर्थिक हलचलों में से एक थी।

लेकिन शेयर बाजार की टूट ने गोल्डमैन सैक्स की प्रतिष्ठा को धक्का पहुंचाया। लेकिन इसके बाद सिडनी वेनबर्ग ने इसकी कमान संभाली और नुकसान की भरपाई करने की शुरुआत की।

पोलैंड के एक शराब व्यवसायी के बेटे वेनबर्ग ने 1907 में गोल्डमैन सैक्स में काम की शुरुआत की थी। उस वक्त उनकी उम्र 16 साल की ही थी। उन्होंने एक सहायक के तौर पर काम शुरू किया।

वेनबर्ग 1930 में सीनियर पार्टनर बन गए और उन्होंने अपना ध्यान ट्रेडिंग से हटाकर निवेश बैंकिंग पर करना शुरू कर दिया। उनकी सरपरस्ती में गोल्डमैन सैक्स में निवेश के लिए एक शोध टीम बनाई गई।

इसने म्युनिसिपल बॉन्ड डिविजन भी बनाई और जोखिम से फायदा बनाने की रणनीति अख्तियार की। इसके बाद फोर्ड मोटर कंपनी ने 1956 में अपने आईपीओ के लिए इसको मुख्य सलाहकार बनाया।

1969 में वेनबर्ग की जगह गस लेवी ने ली। लेवी जाने माने ट्रेडर थे और उन्होंने गोल्डमैन सैक्स की ट्रेडिंग फ्रेंचाइजियों को फिर से खड़ा किया।

यह लेवी ही थे जिन्होंने गोल्डमैन सैक्स को नया कारोबारी मंत्र दिया। उनका मानना था कि अगर बड़े फायदे के लिए थोड़ा नुकसान भी उठा लिया जाए तो इसमें क्या बुराई है।

उनके इस सिद्धांत को 'लॉन्ग टर्म ग्रीडी' का नाम दिया गया। 1974 में गोल्डमैन सैक्स ने विलय और अधिग्रहण के लिए 'व्हाइट नाइट' के तौर पर एक नायाब कॉन्सेप्ट पेश किया।

इसने इलेक्ट्रिक स्टोरेज बैटरी के जबरन अधिग्रहण की कोशिश में लगी इंटरनेशनल निकेल और गोल्डमैन की प्रतिद्वंद्वी मॉर्गन स्टैनली की कोशिशों को परवान नहीं चढ़ने दिया। इस मामले को गोल्डमैन ने बेहतरीन ढंग से संभाला।

हालांकि,गोल्डमैन सैक्स को पता था कि इससे इलेक्ट्रिक स्टोरेज बैटरी की स्वतंत्रता तो नहीं रह पाएगी लेकिन उनको इतना जरूर लगा कि इससे इलेक्ट्रिक स्टोरेज बैटरी के शेयरधारकों को बेहतर कीमत मिल जाएगी।

इसके चलते गोल्डमैन ने 'व्हाइट नाइट' के तौर पर यूनाइटेड एयरक्राफ्ट को खरीदा और इंटरनेशनल निकेल को मजबूरी में ज्यादा कीमत देकर सौदे को पाटना पड़ा।

इस तरह गोल्डमैन के ग्राहक को ज्यादा पैसा मिला और सलाहकार के तौर पर गोल्डमैन का भी फायदा ही हुआ। सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि इससे यही संदेश गया कि मुश्किल हालात को संभालने में गोल्डमैन सैक्स से बेहतर कोई और नहीं।

इस किताब में 'रॉबर्ट मैक्सवेल, द क्लाइंट फ्रॉम हेल' वाला अध्याय सबसे ज्यादा बांधे रखता है। मैक्सवेल का जन्म चेकोस्लोवाकिया में हुआ था। कई सालों में उन्होंने लंदन के बाहर काफी बड़ा मीडिया साम्राज्य खड़ा कर लिया। मैक्सवेल काफी दिलचस्प शख्स थे।

छह फुट से भी ज्यादा लंबे मैक्सवेल 9 बच्चों के पिता थे और इतनी ही भाषाएं बोल सकते थे। यह 1991 की बात है जब वह अपनी याट में मृत पाए गए। आज तक यह पता नहीं लग पाया कि उन्होंने खुदकुशी की थी या फिर उनकी हत्या की गई थी।

उन्होंने 2.8 अरब डॉलर का कर्ज बैंकों से लिया हुआ था और दो सार्वजनिक कंपनियों में तकरीबन 50 करोड़ डॉलर की हेराफेरी की थी और लगभग 33,000 ब्रिटिश कामगारों की पेंशन भी हड़प ली।

मैक्सवेल से संबंध की कीमत गोल्डमैन सैक्स को चुकानी पड़ी और लंदन शहर के इतिहास में तब तक के सबसे बड़े 25.2 करोड़ डॉलर के निपटारा पैकेज पर सहमति बनी।

दरअसल, अपने ग्राहकों के लिए निवेश बैंकों और सिक्योरिटीज फर्म की भी जिम्मेदारी बनती है। वैसे, दुनिया के सबसे पुराने निवेश बैंक का इतिहास जानने के लिहाज से यह काफी बढ़िया किताब है।


पुस्तक समीक्षा

द पार्टनरशिप: ए हिस्ट्री ऑफ गोल्डमैन सैक्स

लेखक: चार्ल्स डी. एलिस

प्रकाशक: पेंग्विन
(एलन लेन )

कीमत: 995 रुपये
पृष्ठ: 729

http://hindi.business-standard.com/hin/storypage.php?autono=12555



भारतीय रेल : कुबेर का खजाना

रघु दयाल

हाल में भारतीय रेल की सुविधाओं में इजाफा और वित्तीय स्थिति में जो मजबूती देखी गई है, वह आज घर-घर और गली के नुक्कड़ों पर चर्चा का अहम विषय बनी हुई है।

सभी लोग यह जानना चाहते हैं कि आखिर रेल ने नुकसान से नफे की पटरी बदली कैसे? दिमाग में चल रहे कई सवालों के जवाब ढूंढ़ती किताब है- 'बैंकरप्टसी टु बिलियंस।'

इस किताब में लेखक ने सरल, सहज और व्यावहारिक तरीके से तमाम पहलुओं का जिक्र किया है, जो पढ़ने के लिहाज से भी बेहतर है। नाटकीय अंदाज के साथ लेखक ने अपनी किताब की शुरुआत रेल मंत्री लालू प्रसाद और उनके निर्वाचन क्षेत्र के कुछ लोगों के बीच दिलचस्प क्षेत्रीय संवाद से किया है।

इस संवाद में लालू प्रसाद की जमीनी सूझबूझ को उजागर किया गया, जिसकी मदद से वे लोगों की सोच पर काम करते हैं। मिसाल के तौर पर द्वितीय श्रेणी यात्री किरायों में टिकट पर 1 रुपये की छूट देने पर भारतीय रेल पर 250 करोड़ रुपये का बोझ पड़ेगा।

लालू प्रसाद की ओर से मूल मंत्र के रूप में 'न निजीकरण, न छंटनी और न ही किरायों में इजाफा' जैसी सिफारिशें उनकी राजनीतिक कुशाग्र बुध्दि के साथ इस सूझबूझ को दिखाती है कि महंगी दुधारू गाय का पूरा दोहन करना चाहिए।

इससे भारतीय रेल के लिए साफ संकेत मिलते हैं कि महंगी परिसंपत्तियों का अधिक से अधिक इस्तेमाल किया जाना चाहिए। इससे 'तेज, लंबी और भारी ट्रेनों' के दूसरे मंत्र को सामने आने का मौका मिला। इससे परिसंपत्तियों से जितनी ज्यादा हो सके उतनी कमाई की जा सके।

असलियत में तेज ट्रेनों से वक्त की बर्बादी कम होती है, जिसकी अहम वजह मार्ग और टर्मिनलों पर होने वाले देरी में कमी लाना है। भारी ट्रेनों का मतलब है स्थायी रास्तों और माल ढुलाई से अधिक कमाई करना।

रेलवे अकेले इससे माल भाड़े और यात्रियों की संख्या में वर्ष 2004 और 2008 के दौरान 9 प्रतिशत सालाना चक्रवृध्दि विकास दर कायम कर पाने में सफल रही। साथ ही साथ इससे परिसंपत्ति और श्रम उत्पादकता भी 1990 की दर के मुकाबले दोगुनी हो गई, जिसके फलस्वरूप इकाई लागत में कमी होने लगी।

कीमत के लिए 'बहुआयामी, अलग और बाजार अनुकूल ' तीन सूत्री मंत्र का इस्तेमाल किया गया। इनके और दूसरी रणनीतियों और बीच-बचावों के साथ वर्ष 2004-08 की अवधि में भारतीय रेल का परिचालन अनुपात 76 प्रतिशत के नीचे पहुंच गया और ऋण देने की क्षमता बढ़कर 22,000 करोड़ रुपये से अधिक हो गई, जिस पर विश्वास करना मुश्किल है।

बिना किराया या माल भाड़ा बढ़ाए अगर आय बढ़ने का दावा किया गया तो इसका मजाक उड़ना ही था। हालांकि रेल मंत्री लालू प्रसाद ने मुनाफे की ट्रेन चला ही दी और इन दावों को सच करके दिखाया।

अगर इस किताब का उप-शीर्षक 'किसने उबारी लालू की नैया?' होता तो और भी बढ़िया होता। इसमें बताया गया है कि कोई कैसे एक चतुर नेता बनता है। जो कभी भारतीय राजनीति के 'जोकर' माने जाते थे, आज वह भारत के उच्च प्रबंधन संस्थानों में 'प्रोफेसर लालू' बन गए हैं।

जैसे-जैसे उनके व्यक्तित्व का गुणगान बढ़ने लगा, भारतीय रेल संतुष्टि की स्थिति में आ गई। लेकिन इसे अभी यह समझना होगा कि उसके सामने अभी एक लंबा रास्ता तय करना बाकी है। भारतीय रेल को देश भर के माल ढुलाई के 50 प्रतिशत और यात्री पर्यटन के 30 प्रतिशत के अपने लक्ष्य को हासिल करना है।

नम्रता और ईमानदारी के साथ इस बात को स्वीकार करने की जरूरत है कि पिछले पांच सालों में भारतीय रेल के परिणामों में जो तेजी, जो वृध्दि देखी गई है, हालांकि वह अभूतपूर्व है, उसमें कोई 'असली क्रांति' या फिर बुनियादी बदलाव शामिल नहीं हैं।

लालू ने रेल के दैनिक परिचालन कार्यों के साथ किसी भी तरह की राजनीतिक हस्तक्षेप को न तो बर्दाश्त किया और न ही उनके लिए कोई जगह छोड़ी। नींद में उंघने वाली गाय रूपी भारतीय रेल पर चली तो सिर्फ लालू की ही लाठी।

जिसके हाथ में संचालन की कमान है, जब उस व्यक्ति का कद बढ़ता है, तब संस्थान बहुत कुछ और भी हासिल कर सकता है। एक बेहतरीन वक्ता के पास देहाती शब्दावली की एक अमूल्य भेंट होती है। लालू के ऊपर सुधार के एक मुश्किल दौर की शुरुआत का दायित्व था।

हालांकि किसी के भी पास तर्क के लिए काफी जगह बचती है, मिसाल के तौर पर राजनीतिक आर्थिक दबावों या व्यावहारिक्ता के नाम पर अब भारतीय रेल अहम परिवर्तनों की अनदेखी नहीं कर सकती।

इन परिवर्तनों में विभागों में बुनियादी ढांचे में बदलाव से लेकर संस्थागत बदलाव शामिल हैं। इसे अपने पुराने ढर्रे वाले उन विभागों और संस्थानों से छुटकारा पाना होगा, जिनसे बमुश्किल कोई फायदा होता है या वे विस्तार और विकास की अपनी रफ्तार को बरकरार रख पाते हैं।

कोई कुछ भी कहे या तर्क दे, लेकिन वह कभी नियम विरुध्द, यात्री सेवाओं की अनुचित कीमतों और सैकड़ों धीमी रफ्तार वाली क्षेत्रीय यात्री ट्रेनों को जारी रखने को उचित नहीं ठहरा सकता। भारतीय रेल के सामने अपने खर्चों में कटौती करने और माल भाड़े और कुछ किरायों में कमी करने की कई संभावनाएं हैं।

लालू का जनसंपर्क भी बेहतरीन हैं। जितने अच्छे वे वक्ता है, उतना शायद ही कोई और हो। उनके अधिकारी तो रेल मंत्रालय को फायदे में पहुंचाने के लिए उनकी तारीफ करते नजर आते ही हैं, लेकिन लालू भी इस मामले में पीछे नहीं हैं। कई बार संसद के सामने लालू प्रसाद ने अपने कार्यकाल के दौरान यात्री किरायों और माल भाड़े की दरों के मामले में कई परिवर्तनों की अप्रासंगिक चर्चा की है।

जब भी कोई इतिहास की अनदेखी करता है तो वह पथभ्रष्ट हो जाता है। भारतीय रेल के चक्रीय विकास के दर्द को अपने दिलो-दिमाग में बैठा लेने की जरूरत है। भारतीय रेल के इतिहास में यह पहले भी देखा जा चुका है कि भारतीय रेल ने पीछे का मुंह ताका है, फिर भले ही उस समय उसने यात्रियों की संख्या और कमाई में इजाफा दर्ज किया हो। हम मार्च महीने का आधा समय बिता चुके हैं।

यात्रियों से हासिल हुई सकल राशि 93,159 करोड़ रुपये है और वर्ष 2009-10 के अंतरिम बजट में कुल कार्यशील खर्च के लिए 83,600 करोड़ रुपये तय किए गए हैं। इसके साथ परिचालन अनुपात 89.95 प्रतिशत है।

कुल मिलाकर अब जो हमारे सामने तस्वीर मौजूद है वह लालू के चार सालों के कार्यकाल के दौरान करोड़पति मंत्रालय बनने से पहले के भारतीय रेल के उस दशक की ओर इशारा करती है, जिस समय भारतीय रेल वित्तीय मुश्किलों का सामना करते हुए काफी कड़ी मेहनत कर रही थी और उसे इंतजार था तो अपने तारणहार का।


पुस्तक समीक्षा

बैंकरप्टसी टु बिलियंस हाऊ द इंडियन रेलवेज ट्रांसफॉम्ड

संपादन: सुधीर कुमार और शगुन मेहरोत्रा

प्रकाशक: ऑक्सफोर्ड

यूनिवर्सिटी प्रेस

कीमत: 495 रुपये

पृष्ठ: 206


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