Saturday, August 3, 2019

रवीश कुमार को रैमन मैगसेसे तपती दोपहर में ठंडी हवा का एक झोंका है



सत्येन्द्र पीएस
भारत में करीब हर साल किसी न किसी को रैमन मैगसेसे मिलता है. तमाम तारीफें होती हैं. तमाम आलोचनाएं होती हैं. इस बीच रवीश कुमार को भी रैमन मैगसेसे पुरस्कार मिल गया. स्वाभाविक है कि किसी भी व्यक्ति को एशिया का सबसे बड़ा सम्मान मिलना खुशी देता है.
भारतीय जनता पार्टी के सत्ता में आने के बाद से देश में अलग तरह का माहौल बना है. अखबारों, चैनलों और सोशल मीडिया में जो लोग लिखते, बोलते और दिखते हैं, स्वाभाविक है कि उनका भी एक पक्ष होता है. अपना पक्ष। संस्थान के एक कर्मचारी की हैसियत से भी उसकी अपनी प्रतिबद्धता होती है. उसकी अपनी सीमाएं होती हैं. लेकिन 2014 में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के सत्ता में आने के बाद से स्वतंत्र जनपक्षधरता, सरकार के खिलाफ बोलना राष्ट्रद्रोह और मोदी विरोध के रूप में देखा जाने लगा है.

इंटरनेट के प्रभावी होने के बाद आम लोगों के साथ पत्रकारों को भी स्वतंत्र अभिव्यक्ति का एक अवसर मिला. करीब 12 साल पहले ब्लॉग का दौर आया था. उन दिनों इंटरनेट के लिए टाइपिंग ही बहुत मुश्किल हुआ करती थी. लेकिन ब्लॉगों को लोग बड़ी तेजी से अपना रहे थे और अपनी भावनाएं सामने रख रहे थे। दरअसल रवीश कुमार का मेरा परिचय ब्लॉग के दौर से ही हुआ। रवीश ही नहीं, उस समय ब्लॉग चलाने वाले कई नाम थे, जिनसे अच्छा इंटरैक्शन बना. रवीश कुमार का नई सड़क, आर. अनुराधा और दिलीप मंडल का रिजेक्ट माल, अविनाश दास का मोहल्ला, रेयाज उल हक का हाशिया, यशवंत सिंह का भड़ास, अनिल पुसादकर का अमीर धरती-गरीब लोग, हाशिया, कबाड़खाना, उड़नतश्तरी, शब्दों का सफ़र सहित दर्जनों ब्लॉग का मैं नियमित पाठक बन गया और तमाम ब्लॉगरों से दोस्ताना रिश्ते बने. हाशिया का तो मैं सबसे बड़ा फैन था, या कहें कि वेबसाइट्स की मौजूदा बमबारी में हाशिया ही एक ब्लॉग बचा है, जो मुझे नियमित पाठक बनाए हुए है. इन सभी ब्लॉगरों के लिखने में कुछ अपनापन सा लगता था। ऐसा लगता कि यह लोग कुछ ऐसी बात लिख रहे हैं, जो मेरी बात है. अखबारों से इतर. दशकों से घिसे पिटे और दलीय प्रतिबद्धता से इतर लोगों के विचार सामने आने लगे. बेशक इनमें से कुछ पत्रकार थे और कुछ गैर पत्रकार. लेकिन जुड़ाव की एक ही डोर थी, जन पक्षधरता, अपनी दिलचस्पी के विषय. यह आम लोगों की बात लिखने वाले लोग थे. तमाम लोगों के बारे में बाद में पता चला कि यह लोग बड़े संस्थानों में स्थापित पत्रकार हैं. यह लोग अपने संस्थानों से इतर अपने ब्लॉगों में दे रहे थे.

मुझे याद नहीं कि उस दौर में रवीश कुमार बड़े पत्रकार बन चुके थे या नहीं. पहली बाद संस्थागत जनपक्षधर पत्रकारिता का उनका चेहरा तब सामने आया, जब वह रवीश की रिपोर्ट लेकर आने लगे. उन गलियों, मोहल्लों, टोलों, कस्बों में जाकर रिपोर्ट लाते थे, जो टीवी चैनलों पर दुर्लभ हुआ करती थी। उनकी वही चीज सामने टीवी स्क्रीन पर आने लगी, जिसकी झलक ब्लॉगों में मिलती थी। वह कार्यक्रम कांग्रेस यानी मनमोहन सिंह के शासनकाल में शुरू हुआ था. कार्यक्रम सीधे तौर पर कांग्रेस की नाकामियों को उजागर करते थे. हालांकि वह लिंचिंग का दौर नहीं था. इस समय रवीश की सोशल मीडिया पर लिंचिंग करने वाले भी संभवतः उन कांग्रेस विरोधी खबरों की प्रशंसा में वाह-वाह करते रहे होंगे (हालांकि इसे कांग्रेस विरोधी के बजाय सत्ता विरोधी कहना ज्यादा उचित होगा). लेकिन जनता की याद्दाश्त बहुत कमजोर होती है. नई नई समस्याएं, नई नई सूचनाएं आती हैं और पुरानी को लोग भूलते चले जाते हैं. संभवतः रवीश का विरोध करने वाले तमाम लोगों को यह याद नहीं होगा कि वह एक दौर में कांग्रेस सरकर की आंख की किरकिरी थे.

रवीश की रिपोर्ट कार्यक्रम को बंद कर दिया गया. यह याद नहीं कि कांग्रेस के समय में बंद किय़ा गया या भाजपा के शासन में. लेकिन उस कार्यक्रम की ज्यादातर रिपोर्टें, जो मैंने देखी हैं, वह कांग्रेस सरकार के ही विरोध में हुआ करती थीं. रिपोर्ट बंद होने के बाद रवीश का एक लेख भी आया था कि उनका प्रिय कार्यक्रम बंद किया जा रहा है. उन्हें अब गंदे बजबजाते मोहल्लों, रोती बिलखती अपनी मुसीबत बताती महिलाओं के बीच जाने की जरूरत नहीं पड़ेगी. अब उन्हें मेकअप करके प्राइम टाइम में बैठना है.

रवीश कुमार ने प्राइम टाइम में क्या दिखाया, इसके बारे में मुझे बहुत जानकारी नहीं है. उसकी वजह यह है कि अपनी व्यस्तता या टीवी मोह खत्म होने की वजह से देखना संभव नहीं हो पाता था. हालांकि सूचना के तमाम माध्यमों के अलावा सोशल मीडिया के शेयर किए गए लिंक्स से यह देखने को मिल जाता था. उनमें कुछ ऐसी खबरें रहती थीं, जो सत्ता विरोधी होतीं. जन पक्षधरता वाली होतीं. हालांकि नरेंद्र मोदी सरकार के कार्यकाल के रवीश मोनोटोनस नजर आते हैं. चिढ़े-चिढ़े से. खीझे-खीझे से. ज्यादा संभव है कि सोशल मीडिया से लेकर ह्वाट्सऐप और तमाम संचार माध्यमों में गालियों और धमकियों ने उन्हें डराया हो, जिसके चलते वह भाजपा सरकार के खिलाफ सख्त होते चले गए हों और उनकी निराशा एकालाप बन गई हो.

स्वाभाविक है कि उनके संस्थान ने रवीश कुमार को संस्थान की ओर से बेहतर कर पाने का मौका मिला. बेहतर आवाज और शैली ने मदद की. रैमन मैगसेसे पाने के बाद भी और कई बार पहले भी रवीश ने स्वीकार किया है कि देश में हजारों की संख्या में ऐसे लोग हैं, जो बहुत बेहतर कर सकते हैं. लेकिन हर किसी को मौका नहीं मिल पाता है. रवीश में भी तमाम खामियां हैं. तमाम लोगों को वह एरोगेंट लगते हैं. व्यक्तिगत समस्याओं में लोगों की मदद न करने की भी शिकायतें होती हैं. इन सबके बावजूद पत्रकारिता के सूखे रेगिस्तान में रवीश एक हरे भरे वृक्ष नजर आते हैं. हालांकि बार बार यह खयाल भी आता है कि क्या लोगों को निष्पक्ष और भरोसे के काबिल पत्रकारिता की जरूरत है? यह भी संभव है कि समाचार माध्यम चलाने वाले बड़े कॉर्पोरेट्स ने सही खबरों व सूचनाओं के लिए अखबार और चैनल से इतर अपना अलग तंत्र विकसित कर लिया हो, क्योंकि सही खबर की जरूरत उन्हें आम आदमी से कहीं ज्यादा होती हैं. रवीश कुमार जैसे पत्रकारों की जरूरत आम आदमी को ज्यादा है, जो हर संचार माध्यम से जनता की आवाज आम लोगों के सामने रख सके.