शायद तीन दशक पहले की बात आपको याद होगी, बाल ठाकरे के नेतृत्व में मुंबई में रहने वाले दक्षिण भारतीयों के खिलाफ एक नारा दिया गया था, लुंगी उठाओ-पुंगी बजाओ। अब उसी खानदान के कुलदीपक ने उत्तर भारतीयों के विरोध का ठेका लिया है। संकट सामने है कि आगामी लोकसभा चुनाव में किसे चुनें। अब देखिए वर्तमान राजनीति--
कांग्रेस की राजनीति
कांग्रेस इसलिए नवनिर्माण सेना को बढ़ावा दे रही है कि उसे शिव सेना से अगले चुनाव में मुकाबला करना है। अगर राज ठाकरे इस तरह की नंगई करके कुछ वोट काटने में सफल हो जाता है तो वह कांग्रेस के हित में रहेगा। यही वजह है कि कांग्रेस सरकार महाराष्ट्र में जंगलराज बरकरार रखने में मदद कर रही है। विलासराव देशमुख सरकार ने अगर गिरफ्तारी की भी, तो नाटक करने के लिए। हिंदी टीवी चैनलों पर मराठी बोलकर दिखाना पड़ा कि वे भी मराठियों के खैरख्वाह हैं।
भाजपा की राजनीति
यह पार्टी तो जैसे नंगी होने के लिए पैदा ही हुई है। सत्ता में रही तब अपने मुद्दे को छो़ड़कर नंगी हुई। सत्ता के बाहर रही तो और तरीकों से। राष्ट्रीय और हिंदूवादी पार्टी होने का दावा करने वाले ये लोग भी मुंबई में चल रही गुंडई के बारे में मौन साधे हुए हैं। शायद आडवाणी को प्रधानमंत्री बनने का लोभ इतना है कि वे राज ठाकरे और बाल ठाकरे दोनों को साधे रखना चाहते हैं। लेकिन इनको यह पता नहीं कि इस तरह के दोगलेपन को जनता पसंद नहीं करती।
लालू और मुलायम की राजनीति
ये केंद्र में सत्ता में बैठे हैं, लेकिन औकात नहीं है कि केंद्र सरकार की मुंबई में उत्तर प्रदेश और बिहार के लोगों को पिटवाने की नीति का विरोध कर सकें। खास बात यह है कि मुलायम के मुंबई प्रतिनिधि अबू आजमी भी अब उत्तर भारतीयों को संगठित करने में लग गए हैं। कोशिश यही कि इस पिटाई का राजनीतिक फायदा उठा लिया जाए। कांग्रेस की तुष्टिकरण में अमर सिंह तो पहले से ही सहयोगी बनकर बाटला हाउस के प्रवक्ता बनकर उभरे हैं।
अब सवाल उठता है कि ऐसी बुरी दशा में जनता जाए तो कहां जाए। राष्ट्रीयता का खामियाजा यूपी और बिहार वाले भुगत ही रहे हैं, जिसके कारण न तो इन राज्यों में सार्वजनिक इकाइयां हैं और न ही निजी। नौकरी के लिए ये दूसरे राज्यों में जाते हैं और यह समझते हैं कि पूरा भारत हमारा है, क्योंकि हम हिंदुस्तानी हैं।
सबकी अपनी अपनी सोच है, विचारों के इन्हीं प्रवाह में जीवन चलता रहता है ... अविरल धारा की तरह...
Wednesday, October 22, 2008
Sunday, October 19, 2008
नंगू
शाकाहार तो ठीक है भइया। ज्यादातर भारतीय इसका समथॆन करते हैं। लेकिन इस तरह का शाकाहार? अगर ऐसा ही किया तब तो सड़क पर धूमने वाली गाय और बकरियां हमें नंगा कर देंगी।
Monday, October 13, 2008
कुछ यूं मचा कर्नाटक में बवाल, सरकार जवाब दे, क्या किया उसने?
1) “…इन्द्रसभा की नृत्यांगना उर्वशी विष्णु की पुत्री थी, जो कि एक वेश्या थी…”।
2) “…गुरु वशिष्ठ एक वेश्या के पुत्र थे…”।
3) “…बाद में वशिष्ठ ने अपनी माँ से शादी की, इस प्रकार के नीच चरित्र का व्यक्ति भगवान राम का गुरु माना जाता है…” (पेज 48)।
4) “…जबकि कृष्ण खुद ही नर्क के अंधेरे में भटक रहा था, तब भला वह कैसे वह दूसरों को रोशनी दिखा सकता है। कृष्ण का चरित्र भी बहुत संदेहास्पद रहा था। हमें (यानी न्यूलाईफ़ संगठन को) इस झूठ का पर्दाफ़ाश करके लोगों को सच्चाई बताना ही होगी, जैसे कि खुद ब्रह्मा ने ही सीता का अपहरण किया था…” (पेज 50)।
5) “…ब्रह्मा, विष्णु और महेश खुद ही ईर्ष्या के मारे हुए थे, ऐसे में उन्हें भगवान मानना पाप के बराबर है। जब ये त्रिमूर्ति खुद ही गुस्सैल थी तब वह कैसे भक्तों का उद्धार कर सकती है, इन तीनों को भगवान कहना एक मजाक है…” (पेज 39)।
“न्यू लाईफ़ वॉइस” मिशनरी केन्द्र ने एक पुस्तक प्रकाशित की जिसका नाम रखा गया “सत्य दर्शिनी”, और इस बुकलेटनुमा पुस्तक को बड़े पैमाने पर गाँव-गाँव में वितरित किया गया। इस पुस्तक को पढ़ने के बाद लोग भड़क गये और यही इन दंगों का मुख्य कारण रहा.
http://sureshchiplunkar.blogspot.com
पर इसके बारे में जानकारी मिली। अगर यह सही है कि इस तरह की किताब बांटी गई, तो सवाल यह उठता है कि क्या यह भड़काऊ नहीं है जिससे मारकाट मच जाए???
ऐसे में सरकार ने क्या किया? क्या ऐसे संगठनों और मिशनरियों पर प्रतिबंध नहीं लगना चाहिए????
2) “…गुरु वशिष्ठ एक वेश्या के पुत्र थे…”।
3) “…बाद में वशिष्ठ ने अपनी माँ से शादी की, इस प्रकार के नीच चरित्र का व्यक्ति भगवान राम का गुरु माना जाता है…” (पेज 48)।
4) “…जबकि कृष्ण खुद ही नर्क के अंधेरे में भटक रहा था, तब भला वह कैसे वह दूसरों को रोशनी दिखा सकता है। कृष्ण का चरित्र भी बहुत संदेहास्पद रहा था। हमें (यानी न्यूलाईफ़ संगठन को) इस झूठ का पर्दाफ़ाश करके लोगों को सच्चाई बताना ही होगी, जैसे कि खुद ब्रह्मा ने ही सीता का अपहरण किया था…” (पेज 50)।
5) “…ब्रह्मा, विष्णु और महेश खुद ही ईर्ष्या के मारे हुए थे, ऐसे में उन्हें भगवान मानना पाप के बराबर है। जब ये त्रिमूर्ति खुद ही गुस्सैल थी तब वह कैसे भक्तों का उद्धार कर सकती है, इन तीनों को भगवान कहना एक मजाक है…” (पेज 39)।
“न्यू लाईफ़ वॉइस” मिशनरी केन्द्र ने एक पुस्तक प्रकाशित की जिसका नाम रखा गया “सत्य दर्शिनी”, और इस बुकलेटनुमा पुस्तक को बड़े पैमाने पर गाँव-गाँव में वितरित किया गया। इस पुस्तक को पढ़ने के बाद लोग भड़क गये और यही इन दंगों का मुख्य कारण रहा.
http://sureshchiplunkar.blogspot.com
पर इसके बारे में जानकारी मिली। अगर यह सही है कि इस तरह की किताब बांटी गई, तो सवाल यह उठता है कि क्या यह भड़काऊ नहीं है जिससे मारकाट मच जाए???
ऐसे में सरकार ने क्या किया? क्या ऐसे संगठनों और मिशनरियों पर प्रतिबंध नहीं लगना चाहिए????
Sunday, October 12, 2008
गंदी राजनीति के चलते खतरनाक बनता असम
आदिति फडणीस
असम में बोडो और मुस्लिम अल्पसंख्यकों के बीच संघर्ष में गत सप्ताह दर्जनों लोग मारे गए।
2006 में विधानसभा चुनाव के ठीक पहले भी असम में इसी तरह की मुठभेड़ हुई थी, लेकिन दो जनजाति समूहों के बीच। कबीलों, जनजातियों, जातीय और धार्मिक समुदायों में बंटा असम, अन्य राज्यों से ज्यादा हिंसा का शिकार होता है।
कहावत है कि आप अपने दोस्तों को चुन सकते हैं, लेकिन अपने संबंधियों को नहीं। असम का कुछ यही हाल है। बांग्लादेश से सटी एक सीमा की वजह से असम और बांग्लादेश के बीच पारिवारिक संबंध है। सीमा पर किसी तरह की रोक-टोक नहीं है।
अत: बोडो जाति के असामाजिक तत्व - जैसे कथित आतंकवादी परेश बरुआ- बांग्लादेश के दामाद की तरह सीमा पार कर आते जाते रहते हैं। बांग्लादेश भी उनको खुशी से दूध पिलाता है- क्या पता कब जरूरत पड़ जाए! 1960 से 1980 के दशक में असम में लगातार कांग्रेस का ही शासन रहा करता था।
राज्य के दिग्गज कांग्रेसी नेता, देवकांत बरुआ खुलेआम कहा करते थे कि जब तक अली (बांग्लादेशी मुसलमान), कुली (चाय के बागानों में काम करने वाले श्रमिक) और बंगाली (पश्चिम बंगाल से आए हुए हिंदू) कांग्रेस के साथ थे, कांग्रेस के हारने का कोई सवाल ही नहीं था। जब इन तीनों समुदायों- अली, कुली और बंगाली- के अनुपात की लगाम कांग्रेस के हाथ से निकल गई तो सामाजिक और आर्थिक विकृतियों का उभरकर आना स्वाभाविक था।
ऐसा कुछ होता चला गया 1980 के दशक से। बाहर से आए लोगों के खिलाफ आवाज उठाई अहोम गण परिषद ने। इसके बाद उत्तर प्रत्युत्तर में हिंसा असम की राजनीति का एक हिस्सा सा बन गई। कभी हिंदू मुस्लिम दंगे होते थे तो कभी बोडो-कुकी झगड़े। बांग्लादेश से भागे हिंदू भी असम आने लगे। असम के हिंदू इन्हें हिकारत की निगाह से देखते थे। तनाव स्वाभाविक था।
1980 और 84 के चुनाव किन परिस्थितियों में हुए, यह सर्वविदित है। भारत सरकार और आल असम स्टूडेंट्स यूनियन व अगप के बीच करार के बाद स्थिति संभल गई। अगप की सरकार भी बनी, लेकिन युवा आदर्शों को सत्ता के लालच ने निगल लिया। सरकार की लूटपाट से तंग आकर असम ने फिर कांग्रेस को चुना।
2001 में तरुण गोगोई मुख्यमंत्री बने और 2006 में कांग्रेस पुन: जीतकर आई। सरकार तो औपचारिक रूप से बन गई लेकिन राजनीतिक चुनौतियां बरकरार रहीं। लेफ्टीनेंट जनरल (अवकाश प्राप्त) एस. के. सिन्हा ने, जो असम के राज्यपाल थे, राज्य सरकार को कई बार चेताया कि यदि बाहरी लोगों को असम में आने से रोका नहीं गया तो असम का जनसांख्यिकीय चरित्र ही बदल जाएगा।
यही बात कही लेफ्टीनेंट जनरल (अवकाश प्राप्त) अजय सिंह ने, जो अब राज्यपाल हैं। तरुण गोगोई और राज्यपाल में तो सार्वजनिक झड़प हो गई। गोगोई ने राज्यपाल के इस कथन का खंडन किया कि रोज 6,000 लोग बांग्लादेश से भारत आते हैं और इन्हें रोकने का राज्य सरकार कोई प्रयास नहीं कर रही है।
2005 में तिनसुकिया जंगलों में फौज आतंकवादियों को ढूंढ रही थी। अचानक राज्य सरकार से आदेश मिला कि खोज को रोक दिया जाए। सेना ने 14 को मार गिराया था। सेनाध्यक्ष पशोपेश में पड़ गए। जब जंगल खाली करने का मौका था तो पीछे हटना क्या बुध्दिमानी थी? लेकिन सरकार अड़ी रही और सेना को ऑपरेशन अधूरा छोड़ना पड़ा। सच तो यह है कि चुनाव सामने था और सरकार नहीं चाहती थी कि किसी भी समुदाय के वोट वह खो दे।
तरुण गोगोई ने अपने कार्यकाल में ऐसा बहुत कुछ किया है, जिससे असम के निवासियों का विश्वास जीता जा सके। पुलिस के इंसपेक्टर जनरल की पदवी को ही रद्द कर दिया गया। जिस तरह मुफ्ती मोहम्मद सईद कश्मीर का चुनाव इस वायदे पर जीत गए कि स्पेशल टास्क फोर्स को वह राज्य से बाहर कर देंगे।
क्या सेना और पुलिस का मनोबल तब तोड़ना चाहिए, जब वे ऑपरेशन में सफलता हासिल कर रहे हों? बहरहाल दंगाइयों को लगा कि जब सैंया भए कोतवाल तब डर काहे का। लेफ्टी. जनरल सिन्हा की चेतावनी अब दिल्ली में सब को याद आ रही है।
राष्ट्रपति के. आर. नारायणन को एक पत्र में जनरल सिन्हा ने लिखा था कि बांग्लादेशी नागरिकों का असम में घर बनाना अब इतना प्रचलित हो गया है कि वह समय दूर नहीं, जब असम के बड़े हिस्सों से मांग होगी कि भारत सरकार को उन जिलों को बांग्लादेश के साथ विलय की अनुमति दे देनी चाहिए ।
भारत सरकार ने आईएमडीटी एक्ट के तहत गैर कानूनी बांग्लादेशी नागरिकों को स्वदेश भेजने के लिए एक तंत्र बनाया था। इसे संप्रग सरकार ने खारिज कर दिया है। असम अब कितने खतरनाक और संवेदनशील कगार पर खड़ा है, यह बहुत कम लोग समझते हैं।
भूटान, बांग्लादेश और बर्मा जैसे तीन देशों से सटी सीमा वाला असम भारत के लिए एक भयंकर जंजाल बन सकता है, यदि यहां की राजनीति पर नजर न रखी गई। जाति और कबीलों की राजनीति वैसे भी बहुत पेचीदा होती है। उसे धर्म का पुट मिल जाए तो पूरे भारत के लिए खतरा हो सकता है। प्रधानमंत्री जिस राज्य से चुने गए हैं, उसमें इस तरह की घटना वाकई शर्मनाक है।
courtesy: www.bshindi.com
असम में बोडो और मुस्लिम अल्पसंख्यकों के बीच संघर्ष में गत सप्ताह दर्जनों लोग मारे गए।
2006 में विधानसभा चुनाव के ठीक पहले भी असम में इसी तरह की मुठभेड़ हुई थी, लेकिन दो जनजाति समूहों के बीच। कबीलों, जनजातियों, जातीय और धार्मिक समुदायों में बंटा असम, अन्य राज्यों से ज्यादा हिंसा का शिकार होता है।
कहावत है कि आप अपने दोस्तों को चुन सकते हैं, लेकिन अपने संबंधियों को नहीं। असम का कुछ यही हाल है। बांग्लादेश से सटी एक सीमा की वजह से असम और बांग्लादेश के बीच पारिवारिक संबंध है। सीमा पर किसी तरह की रोक-टोक नहीं है।
अत: बोडो जाति के असामाजिक तत्व - जैसे कथित आतंकवादी परेश बरुआ- बांग्लादेश के दामाद की तरह सीमा पार कर आते जाते रहते हैं। बांग्लादेश भी उनको खुशी से दूध पिलाता है- क्या पता कब जरूरत पड़ जाए! 1960 से 1980 के दशक में असम में लगातार कांग्रेस का ही शासन रहा करता था।
राज्य के दिग्गज कांग्रेसी नेता, देवकांत बरुआ खुलेआम कहा करते थे कि जब तक अली (बांग्लादेशी मुसलमान), कुली (चाय के बागानों में काम करने वाले श्रमिक) और बंगाली (पश्चिम बंगाल से आए हुए हिंदू) कांग्रेस के साथ थे, कांग्रेस के हारने का कोई सवाल ही नहीं था। जब इन तीनों समुदायों- अली, कुली और बंगाली- के अनुपात की लगाम कांग्रेस के हाथ से निकल गई तो सामाजिक और आर्थिक विकृतियों का उभरकर आना स्वाभाविक था।
ऐसा कुछ होता चला गया 1980 के दशक से। बाहर से आए लोगों के खिलाफ आवाज उठाई अहोम गण परिषद ने। इसके बाद उत्तर प्रत्युत्तर में हिंसा असम की राजनीति का एक हिस्सा सा बन गई। कभी हिंदू मुस्लिम दंगे होते थे तो कभी बोडो-कुकी झगड़े। बांग्लादेश से भागे हिंदू भी असम आने लगे। असम के हिंदू इन्हें हिकारत की निगाह से देखते थे। तनाव स्वाभाविक था।
1980 और 84 के चुनाव किन परिस्थितियों में हुए, यह सर्वविदित है। भारत सरकार और आल असम स्टूडेंट्स यूनियन व अगप के बीच करार के बाद स्थिति संभल गई। अगप की सरकार भी बनी, लेकिन युवा आदर्शों को सत्ता के लालच ने निगल लिया। सरकार की लूटपाट से तंग आकर असम ने फिर कांग्रेस को चुना।
2001 में तरुण गोगोई मुख्यमंत्री बने और 2006 में कांग्रेस पुन: जीतकर आई। सरकार तो औपचारिक रूप से बन गई लेकिन राजनीतिक चुनौतियां बरकरार रहीं। लेफ्टीनेंट जनरल (अवकाश प्राप्त) एस. के. सिन्हा ने, जो असम के राज्यपाल थे, राज्य सरकार को कई बार चेताया कि यदि बाहरी लोगों को असम में आने से रोका नहीं गया तो असम का जनसांख्यिकीय चरित्र ही बदल जाएगा।
यही बात कही लेफ्टीनेंट जनरल (अवकाश प्राप्त) अजय सिंह ने, जो अब राज्यपाल हैं। तरुण गोगोई और राज्यपाल में तो सार्वजनिक झड़प हो गई। गोगोई ने राज्यपाल के इस कथन का खंडन किया कि रोज 6,000 लोग बांग्लादेश से भारत आते हैं और इन्हें रोकने का राज्य सरकार कोई प्रयास नहीं कर रही है।
2005 में तिनसुकिया जंगलों में फौज आतंकवादियों को ढूंढ रही थी। अचानक राज्य सरकार से आदेश मिला कि खोज को रोक दिया जाए। सेना ने 14 को मार गिराया था। सेनाध्यक्ष पशोपेश में पड़ गए। जब जंगल खाली करने का मौका था तो पीछे हटना क्या बुध्दिमानी थी? लेकिन सरकार अड़ी रही और सेना को ऑपरेशन अधूरा छोड़ना पड़ा। सच तो यह है कि चुनाव सामने था और सरकार नहीं चाहती थी कि किसी भी समुदाय के वोट वह खो दे।
तरुण गोगोई ने अपने कार्यकाल में ऐसा बहुत कुछ किया है, जिससे असम के निवासियों का विश्वास जीता जा सके। पुलिस के इंसपेक्टर जनरल की पदवी को ही रद्द कर दिया गया। जिस तरह मुफ्ती मोहम्मद सईद कश्मीर का चुनाव इस वायदे पर जीत गए कि स्पेशल टास्क फोर्स को वह राज्य से बाहर कर देंगे।
क्या सेना और पुलिस का मनोबल तब तोड़ना चाहिए, जब वे ऑपरेशन में सफलता हासिल कर रहे हों? बहरहाल दंगाइयों को लगा कि जब सैंया भए कोतवाल तब डर काहे का। लेफ्टी. जनरल सिन्हा की चेतावनी अब दिल्ली में सब को याद आ रही है।
राष्ट्रपति के. आर. नारायणन को एक पत्र में जनरल सिन्हा ने लिखा था कि बांग्लादेशी नागरिकों का असम में घर बनाना अब इतना प्रचलित हो गया है कि वह समय दूर नहीं, जब असम के बड़े हिस्सों से मांग होगी कि भारत सरकार को उन जिलों को बांग्लादेश के साथ विलय की अनुमति दे देनी चाहिए ।
भारत सरकार ने आईएमडीटी एक्ट के तहत गैर कानूनी बांग्लादेशी नागरिकों को स्वदेश भेजने के लिए एक तंत्र बनाया था। इसे संप्रग सरकार ने खारिज कर दिया है। असम अब कितने खतरनाक और संवेदनशील कगार पर खड़ा है, यह बहुत कम लोग समझते हैं।
भूटान, बांग्लादेश और बर्मा जैसे तीन देशों से सटी सीमा वाला असम भारत के लिए एक भयंकर जंजाल बन सकता है, यदि यहां की राजनीति पर नजर न रखी गई। जाति और कबीलों की राजनीति वैसे भी बहुत पेचीदा होती है। उसे धर्म का पुट मिल जाए तो पूरे भारत के लिए खतरा हो सकता है। प्रधानमंत्री जिस राज्य से चुने गए हैं, उसमें इस तरह की घटना वाकई शर्मनाक है।
courtesy: www.bshindi.com
Friday, October 10, 2008
एक खांटी अमेरिकी सीईओ की चिट्ठी
श्यामल मजूमदार / October 08, 2008
मेरे प्यारे पाठकों, अमेरिकी कॉर्पोरेट दुनिया के एक पोस्टर ब्वॉय के तौर पर मुझे हफ्ते के सातों दिन और दिन के चौबीसों घंटे खबरों में रहना काफी पसंद है।
लेकिन अगर आपको भी मेरी आंखों के नीचे काले धब्बे दिखाई देते हों, तो यह मेरी गलती नहीं है। दरअसल यह गलती है उन अखबारों की, जिनमें बड़ी-बड़ी कंपनियों के ऊंचे-ऊंचे ओहदेदारों की तस्वीर उनके मोटे-मोटे वेतन के साथ छपी होती है। हालांकि, मैंने अब इन बातों की तरफ ध्यान छोड़ दिया है।
मुझे पूरा भरोसा है कि कुछ अखबारों में हाल ही में छपा वह सर्वे पूरी तरह से झूठा और निराधार था। भाई साहब, वही सर्वेक्षण जिसमें 80 फीसदी अमेरिकियों ने यह कहा था कि कंपनियों के मुख्य कार्यकारी अधिकारियों को जरूरत से ज्यादा मोटा वेतन मिलता है। आखिरकार मैंने अपने वेतन को सबसे छुपाकर रखने की इतनी जबरदस्त कोशिश जो की है। लेकिन कुछ लोगों में दबी-छुपी बातों को खोद निकालने का कीड़ा होता है। इसलिए तो मुझे इस बात पर कोई हैरत नहीं हुई, जब उन लोगों ने जैक वेल्स के जीई से जुदा होने से जुड़े कई बड़े राजों को दुनिया के सामने खोल कर रख दिया था। वह भी ऐसे राज जिनके बारे में खुद कंपनी ने शुरुआत में कुछ कहने से इनकार कर दिया था।
अब तो आपको भी मालूम हो चला होगा कि अमेरिकी कॉर्पोरेट जगत में मगरमच्छ समझी जाने वाली उस कंपनी ने अपने पूर्व सीईओ को रुखसत करने के लिए उन्हें एक मोटा-ताजा रिटायरमेंट पैकेज दिया था। उस विदाई के तोहफे में कंपनी ने उन्हें न्यूयॉर्क के पॉश मैनहट्टन इलाके में एक फ्लैट, कई महंगे क्लबों की मेंबरशिप और यहां तक कि कॉर्पोरेट जेट में मुफ्त में सैर-सपाटा करने की इजाजत भी दी थी। हालांकि, सभी ऐसे नहीं होते। कुछ तो खुले तौर पर यह मान लेते हैं कि वे कंपनियों की सुविधाओं का जमकर इस्तेमाल करते हैं।
जॉन केनेथ गैल्ब्रेथ ने बिल्कुल सही कहा था कि एक बड़ी कंपनी के सीईओ का वेतन अक्सर उसका खुद को दिया गया सबसे बेहतरीन तोहफा होता है। इस बात की सबसे अच्छी मिसाल हैं लीमन ब्रदर्स के मुखिया रिचर्ड फ्लूड। उन्होंने खुद की खुशी को कभी भी नजरअंदाज नहीं किया। उन्होंने अपनी कंपनी को आसमान की ऊंचाई से पाताल की गहराई तक पहुंचाने के लिए कंपनी से अपने काम के हर घंटे के लिए 17 हजार डॉलर लिए थे। साथ ही, उन्होंने अपने मातहतों का भी पूरा ध्यान रखा और उनके बीच जमकर महंगे शेयर बांटे। लेकिन सारा दोष अकेले उनके और उनकी टीम के सिर ही क्यों मढ़ा जाए? आपने टायको के पूर्व सीईओ की वह मशहूर कहानी तो सुनी ही होगी कि उन्होंने पूरे छह हजार डॉलर में अपने बाथरूम के पर्दे खरीदे और बिल कंपनी के नाम भिजवा दिया। अभी हाल ही में बैंक ऑफ अमेरिका ने मेरिल लिंच का अधिग्रहण कर लिया।लेकिन इसके करीब एक साल पहले इस कंपनी ने अपने तत्कालीन सीईओ स्टैनली ओ'नील को रुखसत करने के लिए जो पैकेज दिया था, उसकी कीमत आज 6।6 करोड़ डॉलर है। इसके अलावा भी कई मिसालें हैं।
मुझे तो सबसे ज्यादा जलन अभी हाल ही में ह्यूलिट पैकर्ड से निकाली गईं उनकी सीईओ कार्ली फियोरिना से होती है। इसलिए नहीं कि उन्हें कंपनी छोड़ने के लिए 4.2 करोड़ डॉलर मिले, बल्कि इसलिए क्योंकि उनका जिक्र आज कल अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव अभियानों में खूब हो रहा है। हालांकि, इस चर्चा की वजह बहुत अच्छी नहीं है। राष्ट्रपति के पद के लिए डेमोक्रेट उम्मीदवार बराक ओबामा ने अभी हाल ही में अपने एक नए विज्ञापन में अपने रिपब्लिकन प्रतिद्वंद्वी जॉन मैकेन और कंपनियों के बड़े अफसरों के लिए सोने के पैरासूटों को जोड़ा है। इस 30 सेकंड के विज्ञापन में फियोरिना पर खासा जोर दिया गया है। उन्हें इसमें हद से ज्यादा मोटा वेतन लेने के प्रतीक के रूप में दिखलाया है।
अगर ओबामा राष्ट्रपति बन गए तो उनका यह गुस्सा हम लोगों को काफी भारी पड़ सकता है। वह दुनिया को यह बताने में जुटे हुए हैं कि सभी अमेरिकी कंपनियों के सीईओ आज की तारीख में 1.05 करोड़ डॉलर का वेतन पा रहे हैं।साथ ही, वे यह भी बता रहे हैं कि हम एक औसत अमेरिकी कर्मचारी की तुलना में 344 गुना ज्यादा कमा रहे हैं। यह देखकर बहुत दुख होता है। इस तरह के खुलासे हमारी जिंदगियों को और मुश्किल ही बना देंगे। वैसे, हकीकत में इसकी उम्मीद कम ही है। सुना था कि बुश बेल-ऑउट प्लान में एक नया नियम जोड़ने के बारे में सोच रहे हैं। इस नए नियम के मुताबिक सरकारी मदद से बचाई गईं कंपनियों के लिए अपने बड़े अधिकारियों को विदाई का तोहफा देना नामुमकिन हो जाएगा।
चर्चा तो हमारे वेतन पर भी लगाम कसने की है। लेकिन इससे नाउम्मीद नहीं हूं। आखिरकार, सरकार का अपनी बातों पर खरा उतरने के मामले में ट्रैक रिकॉर्ड बहुत अच्छा नहीं है। मिसाल के लिए 1990 के दशक के शुरुआती सालों में कांग्रेस 10 लाख डॉलर से ज्यादा कमाने वाले कार्यकारी अधिकारियों के लिए टैक्स का फंदा और कड़ा कर दिया था। नतीजे उम्मीद के मुताबिक ही थे। हमने प्रोत्साहन और कामकाज पर आधारित वेतन लेना शुरू कर दिया, जो टैक्स के फंदे से बाहर था। इसी वजह से तो मेरे असल वेतन में पिछले कुछ सालों में थोड़ा-बहुत ही इजाफा हुआ है। लेकिन मेरी दूसरे तरीकों से होने वाली कमाई में जबरदस्त इजाफा हुआ है। इसलिए मुझे पूरा भरोसा है कि इस संकट से भी मैं निकल जाऊंगा। अगर कोई दूसरी तरकीब काम न आई तो वह अपना पूरा फॉर्मूला तो काम आएगा ही।
आखिरकार, किस कर्मचारी को कितना वेतन मिलना चाहिए, यह फैसला कांग्रेस को नहीं, बल्कि कंपनी के निदेशक मंडल को करना चाहिए। साथ ही, बड़े अफसरों के वेतन पर लगाम कसना मुसीबतों को बुलावा दे सकता है। हमें खुद इतना यकीन इसलिए है कि खुद अमेरिकी वित्त मंत्री हेनरी पॉलसन अभी हाल तक गोल्डमैन सैक्स के सीईओ रहे थे।साथ ही, उन्हें भी कंपनी से स्टॉक ऑप्शंस मिले हैं, जिनकी कुल कीमत आज की तारीख में 50 करोड़ डॉलर है। वह अपने भाइयों को इतनी जल्दी नहीं भूल सकते। वैसे मैं एआईजी के पूर्व सीईओ रॉबर्ट विलियम्सटैड की पेश की गई मिसाल से जरूर परेशान हूं। उन्होंने पिछले हफ्ते अपने रास्ते जुदा करने के लिए कंपनी द्वारा पेशकश की गई 2.2 करोड़ डॉलर की रकम पर यह कहते हुए लात मार दी कि उन्हें कंपनी को खुद अपने पैरों पर खड़ा करने का मौका नहीं दिया गया। उन जैसे लोगों को खत्म होने दीजिए। मेरा तो बड़ी शिद्दत से यह मानना है कि लोगों की याददाश्त बड़ी छोटी होती है।
आपका अजीज
सीईओ,ए 2जेड इंक
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मेरे प्यारे पाठकों, अमेरिकी कॉर्पोरेट दुनिया के एक पोस्टर ब्वॉय के तौर पर मुझे हफ्ते के सातों दिन और दिन के चौबीसों घंटे खबरों में रहना काफी पसंद है।
लेकिन अगर आपको भी मेरी आंखों के नीचे काले धब्बे दिखाई देते हों, तो यह मेरी गलती नहीं है। दरअसल यह गलती है उन अखबारों की, जिनमें बड़ी-बड़ी कंपनियों के ऊंचे-ऊंचे ओहदेदारों की तस्वीर उनके मोटे-मोटे वेतन के साथ छपी होती है। हालांकि, मैंने अब इन बातों की तरफ ध्यान छोड़ दिया है।
मुझे पूरा भरोसा है कि कुछ अखबारों में हाल ही में छपा वह सर्वे पूरी तरह से झूठा और निराधार था। भाई साहब, वही सर्वेक्षण जिसमें 80 फीसदी अमेरिकियों ने यह कहा था कि कंपनियों के मुख्य कार्यकारी अधिकारियों को जरूरत से ज्यादा मोटा वेतन मिलता है। आखिरकार मैंने अपने वेतन को सबसे छुपाकर रखने की इतनी जबरदस्त कोशिश जो की है। लेकिन कुछ लोगों में दबी-छुपी बातों को खोद निकालने का कीड़ा होता है। इसलिए तो मुझे इस बात पर कोई हैरत नहीं हुई, जब उन लोगों ने जैक वेल्स के जीई से जुदा होने से जुड़े कई बड़े राजों को दुनिया के सामने खोल कर रख दिया था। वह भी ऐसे राज जिनके बारे में खुद कंपनी ने शुरुआत में कुछ कहने से इनकार कर दिया था।
अब तो आपको भी मालूम हो चला होगा कि अमेरिकी कॉर्पोरेट जगत में मगरमच्छ समझी जाने वाली उस कंपनी ने अपने पूर्व सीईओ को रुखसत करने के लिए उन्हें एक मोटा-ताजा रिटायरमेंट पैकेज दिया था। उस विदाई के तोहफे में कंपनी ने उन्हें न्यूयॉर्क के पॉश मैनहट्टन इलाके में एक फ्लैट, कई महंगे क्लबों की मेंबरशिप और यहां तक कि कॉर्पोरेट जेट में मुफ्त में सैर-सपाटा करने की इजाजत भी दी थी। हालांकि, सभी ऐसे नहीं होते। कुछ तो खुले तौर पर यह मान लेते हैं कि वे कंपनियों की सुविधाओं का जमकर इस्तेमाल करते हैं।
जॉन केनेथ गैल्ब्रेथ ने बिल्कुल सही कहा था कि एक बड़ी कंपनी के सीईओ का वेतन अक्सर उसका खुद को दिया गया सबसे बेहतरीन तोहफा होता है। इस बात की सबसे अच्छी मिसाल हैं लीमन ब्रदर्स के मुखिया रिचर्ड फ्लूड। उन्होंने खुद की खुशी को कभी भी नजरअंदाज नहीं किया। उन्होंने अपनी कंपनी को आसमान की ऊंचाई से पाताल की गहराई तक पहुंचाने के लिए कंपनी से अपने काम के हर घंटे के लिए 17 हजार डॉलर लिए थे। साथ ही, उन्होंने अपने मातहतों का भी पूरा ध्यान रखा और उनके बीच जमकर महंगे शेयर बांटे। लेकिन सारा दोष अकेले उनके और उनकी टीम के सिर ही क्यों मढ़ा जाए? आपने टायको के पूर्व सीईओ की वह मशहूर कहानी तो सुनी ही होगी कि उन्होंने पूरे छह हजार डॉलर में अपने बाथरूम के पर्दे खरीदे और बिल कंपनी के नाम भिजवा दिया। अभी हाल ही में बैंक ऑफ अमेरिका ने मेरिल लिंच का अधिग्रहण कर लिया।लेकिन इसके करीब एक साल पहले इस कंपनी ने अपने तत्कालीन सीईओ स्टैनली ओ'नील को रुखसत करने के लिए जो पैकेज दिया था, उसकी कीमत आज 6।6 करोड़ डॉलर है। इसके अलावा भी कई मिसालें हैं।
मुझे तो सबसे ज्यादा जलन अभी हाल ही में ह्यूलिट पैकर्ड से निकाली गईं उनकी सीईओ कार्ली फियोरिना से होती है। इसलिए नहीं कि उन्हें कंपनी छोड़ने के लिए 4.2 करोड़ डॉलर मिले, बल्कि इसलिए क्योंकि उनका जिक्र आज कल अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव अभियानों में खूब हो रहा है। हालांकि, इस चर्चा की वजह बहुत अच्छी नहीं है। राष्ट्रपति के पद के लिए डेमोक्रेट उम्मीदवार बराक ओबामा ने अभी हाल ही में अपने एक नए विज्ञापन में अपने रिपब्लिकन प्रतिद्वंद्वी जॉन मैकेन और कंपनियों के बड़े अफसरों के लिए सोने के पैरासूटों को जोड़ा है। इस 30 सेकंड के विज्ञापन में फियोरिना पर खासा जोर दिया गया है। उन्हें इसमें हद से ज्यादा मोटा वेतन लेने के प्रतीक के रूप में दिखलाया है।
अगर ओबामा राष्ट्रपति बन गए तो उनका यह गुस्सा हम लोगों को काफी भारी पड़ सकता है। वह दुनिया को यह बताने में जुटे हुए हैं कि सभी अमेरिकी कंपनियों के सीईओ आज की तारीख में 1.05 करोड़ डॉलर का वेतन पा रहे हैं।साथ ही, वे यह भी बता रहे हैं कि हम एक औसत अमेरिकी कर्मचारी की तुलना में 344 गुना ज्यादा कमा रहे हैं। यह देखकर बहुत दुख होता है। इस तरह के खुलासे हमारी जिंदगियों को और मुश्किल ही बना देंगे। वैसे, हकीकत में इसकी उम्मीद कम ही है। सुना था कि बुश बेल-ऑउट प्लान में एक नया नियम जोड़ने के बारे में सोच रहे हैं। इस नए नियम के मुताबिक सरकारी मदद से बचाई गईं कंपनियों के लिए अपने बड़े अधिकारियों को विदाई का तोहफा देना नामुमकिन हो जाएगा।
चर्चा तो हमारे वेतन पर भी लगाम कसने की है। लेकिन इससे नाउम्मीद नहीं हूं। आखिरकार, सरकार का अपनी बातों पर खरा उतरने के मामले में ट्रैक रिकॉर्ड बहुत अच्छा नहीं है। मिसाल के लिए 1990 के दशक के शुरुआती सालों में कांग्रेस 10 लाख डॉलर से ज्यादा कमाने वाले कार्यकारी अधिकारियों के लिए टैक्स का फंदा और कड़ा कर दिया था। नतीजे उम्मीद के मुताबिक ही थे। हमने प्रोत्साहन और कामकाज पर आधारित वेतन लेना शुरू कर दिया, जो टैक्स के फंदे से बाहर था। इसी वजह से तो मेरे असल वेतन में पिछले कुछ सालों में थोड़ा-बहुत ही इजाफा हुआ है। लेकिन मेरी दूसरे तरीकों से होने वाली कमाई में जबरदस्त इजाफा हुआ है। इसलिए मुझे पूरा भरोसा है कि इस संकट से भी मैं निकल जाऊंगा। अगर कोई दूसरी तरकीब काम न आई तो वह अपना पूरा फॉर्मूला तो काम आएगा ही।
आखिरकार, किस कर्मचारी को कितना वेतन मिलना चाहिए, यह फैसला कांग्रेस को नहीं, बल्कि कंपनी के निदेशक मंडल को करना चाहिए। साथ ही, बड़े अफसरों के वेतन पर लगाम कसना मुसीबतों को बुलावा दे सकता है। हमें खुद इतना यकीन इसलिए है कि खुद अमेरिकी वित्त मंत्री हेनरी पॉलसन अभी हाल तक गोल्डमैन सैक्स के सीईओ रहे थे।साथ ही, उन्हें भी कंपनी से स्टॉक ऑप्शंस मिले हैं, जिनकी कुल कीमत आज की तारीख में 50 करोड़ डॉलर है। वह अपने भाइयों को इतनी जल्दी नहीं भूल सकते। वैसे मैं एआईजी के पूर्व सीईओ रॉबर्ट विलियम्सटैड की पेश की गई मिसाल से जरूर परेशान हूं। उन्होंने पिछले हफ्ते अपने रास्ते जुदा करने के लिए कंपनी द्वारा पेशकश की गई 2.2 करोड़ डॉलर की रकम पर यह कहते हुए लात मार दी कि उन्हें कंपनी को खुद अपने पैरों पर खड़ा करने का मौका नहीं दिया गया। उन जैसे लोगों को खत्म होने दीजिए। मेरा तो बड़ी शिद्दत से यह मानना है कि लोगों की याददाश्त बड़ी छोटी होती है।
आपका अजीज
सीईओ,ए 2जेड इंक
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