आदिति फडणीस
असम में बोडो और मुस्लिम अल्पसंख्यकों के बीच संघर्ष में गत सप्ताह दर्जनों लोग मारे गए।
2006 में विधानसभा चुनाव के ठीक पहले भी असम में इसी तरह की मुठभेड़ हुई थी, लेकिन दो जनजाति समूहों के बीच। कबीलों, जनजातियों, जातीय और धार्मिक समुदायों में बंटा असम, अन्य राज्यों से ज्यादा हिंसा का शिकार होता है।
कहावत है कि आप अपने दोस्तों को चुन सकते हैं, लेकिन अपने संबंधियों को नहीं। असम का कुछ यही हाल है। बांग्लादेश से सटी एक सीमा की वजह से असम और बांग्लादेश के बीच पारिवारिक संबंध है। सीमा पर किसी तरह की रोक-टोक नहीं है।
अत: बोडो जाति के असामाजिक तत्व - जैसे कथित आतंकवादी परेश बरुआ- बांग्लादेश के दामाद की तरह सीमा पार कर आते जाते रहते हैं। बांग्लादेश भी उनको खुशी से दूध पिलाता है- क्या पता कब जरूरत पड़ जाए! 1960 से 1980 के दशक में असम में लगातार कांग्रेस का ही शासन रहा करता था।
राज्य के दिग्गज कांग्रेसी नेता, देवकांत बरुआ खुलेआम कहा करते थे कि जब तक अली (बांग्लादेशी मुसलमान), कुली (चाय के बागानों में काम करने वाले श्रमिक) और बंगाली (पश्चिम बंगाल से आए हुए हिंदू) कांग्रेस के साथ थे, कांग्रेस के हारने का कोई सवाल ही नहीं था। जब इन तीनों समुदायों- अली, कुली और बंगाली- के अनुपात की लगाम कांग्रेस के हाथ से निकल गई तो सामाजिक और आर्थिक विकृतियों का उभरकर आना स्वाभाविक था।
ऐसा कुछ होता चला गया 1980 के दशक से। बाहर से आए लोगों के खिलाफ आवाज उठाई अहोम गण परिषद ने। इसके बाद उत्तर प्रत्युत्तर में हिंसा असम की राजनीति का एक हिस्सा सा बन गई। कभी हिंदू मुस्लिम दंगे होते थे तो कभी बोडो-कुकी झगड़े। बांग्लादेश से भागे हिंदू भी असम आने लगे। असम के हिंदू इन्हें हिकारत की निगाह से देखते थे। तनाव स्वाभाविक था।
1980 और 84 के चुनाव किन परिस्थितियों में हुए, यह सर्वविदित है। भारत सरकार और आल असम स्टूडेंट्स यूनियन व अगप के बीच करार के बाद स्थिति संभल गई। अगप की सरकार भी बनी, लेकिन युवा आदर्शों को सत्ता के लालच ने निगल लिया। सरकार की लूटपाट से तंग आकर असम ने फिर कांग्रेस को चुना।
2001 में तरुण गोगोई मुख्यमंत्री बने और 2006 में कांग्रेस पुन: जीतकर आई। सरकार तो औपचारिक रूप से बन गई लेकिन राजनीतिक चुनौतियां बरकरार रहीं। लेफ्टीनेंट जनरल (अवकाश प्राप्त) एस. के. सिन्हा ने, जो असम के राज्यपाल थे, राज्य सरकार को कई बार चेताया कि यदि बाहरी लोगों को असम में आने से रोका नहीं गया तो असम का जनसांख्यिकीय चरित्र ही बदल जाएगा।
यही बात कही लेफ्टीनेंट जनरल (अवकाश प्राप्त) अजय सिंह ने, जो अब राज्यपाल हैं। तरुण गोगोई और राज्यपाल में तो सार्वजनिक झड़प हो गई। गोगोई ने राज्यपाल के इस कथन का खंडन किया कि रोज 6,000 लोग बांग्लादेश से भारत आते हैं और इन्हें रोकने का राज्य सरकार कोई प्रयास नहीं कर रही है।
2005 में तिनसुकिया जंगलों में फौज आतंकवादियों को ढूंढ रही थी। अचानक राज्य सरकार से आदेश मिला कि खोज को रोक दिया जाए। सेना ने 14 को मार गिराया था। सेनाध्यक्ष पशोपेश में पड़ गए। जब जंगल खाली करने का मौका था तो पीछे हटना क्या बुध्दिमानी थी? लेकिन सरकार अड़ी रही और सेना को ऑपरेशन अधूरा छोड़ना पड़ा। सच तो यह है कि चुनाव सामने था और सरकार नहीं चाहती थी कि किसी भी समुदाय के वोट वह खो दे।
तरुण गोगोई ने अपने कार्यकाल में ऐसा बहुत कुछ किया है, जिससे असम के निवासियों का विश्वास जीता जा सके। पुलिस के इंसपेक्टर जनरल की पदवी को ही रद्द कर दिया गया। जिस तरह मुफ्ती मोहम्मद सईद कश्मीर का चुनाव इस वायदे पर जीत गए कि स्पेशल टास्क फोर्स को वह राज्य से बाहर कर देंगे।
क्या सेना और पुलिस का मनोबल तब तोड़ना चाहिए, जब वे ऑपरेशन में सफलता हासिल कर रहे हों? बहरहाल दंगाइयों को लगा कि जब सैंया भए कोतवाल तब डर काहे का। लेफ्टी. जनरल सिन्हा की चेतावनी अब दिल्ली में सब को याद आ रही है।
राष्ट्रपति के. आर. नारायणन को एक पत्र में जनरल सिन्हा ने लिखा था कि बांग्लादेशी नागरिकों का असम में घर बनाना अब इतना प्रचलित हो गया है कि वह समय दूर नहीं, जब असम के बड़े हिस्सों से मांग होगी कि भारत सरकार को उन जिलों को बांग्लादेश के साथ विलय की अनुमति दे देनी चाहिए ।
भारत सरकार ने आईएमडीटी एक्ट के तहत गैर कानूनी बांग्लादेशी नागरिकों को स्वदेश भेजने के लिए एक तंत्र बनाया था। इसे संप्रग सरकार ने खारिज कर दिया है। असम अब कितने खतरनाक और संवेदनशील कगार पर खड़ा है, यह बहुत कम लोग समझते हैं।
भूटान, बांग्लादेश और बर्मा जैसे तीन देशों से सटी सीमा वाला असम भारत के लिए एक भयंकर जंजाल बन सकता है, यदि यहां की राजनीति पर नजर न रखी गई। जाति और कबीलों की राजनीति वैसे भी बहुत पेचीदा होती है। उसे धर्म का पुट मिल जाए तो पूरे भारत के लिए खतरा हो सकता है। प्रधानमंत्री जिस राज्य से चुने गए हैं, उसमें इस तरह की घटना वाकई शर्मनाक है।
courtesy: www.bshindi.com
3 comments:
आपको आती होगी शर्म, सेकुलरों को नहीं आती, यदि संघ 2+2=4 बोले तो सेकुलर उसे 5 कहेगा, मुसलमानों को पोसने का सबसे घृणित कार्य कांग्रेस पिछले 60 साल से कर रही है
बहुत ही दुखद पहलू है कि यहां एनकाउंटर पर राजनीति होती है। पुलिस के कामों को हमेशा संदेह की दृष्टि से देखा जाता है। लेकिन संदेह तभी उपजता है, जब उसमें वोटबैंक की राजनीति होती है। कश्मीर की राजनीति तो हो ही रही है, पूरे पूर्वोत्तर भारत को इस स्थिति में ला दिया गया है कि वह भी आने वाले दिनों में बाग्लादेश या चीन में शामिल होने को बेताब होगा और इसका पुरसाहाल कोई नहीं है।
सचमुच राष्ट्रीय सुर&ा से जुड़े मुद्दों पर राजनीति की जितनी भी निंदा की जाए कम होगी।
प्रधानमंत्री जिस राज्य से चुने गए हैं, उसमें इस तरह की घटना वाकई शर्मनाक है।
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