रघु दयाल
हाल में भारतीय रेल की सुविधाओं में इजाफा और वित्तीय स्थिति में जो मजबूती देखी गई है, वह आज घर-घर और गली के नुक्कड़ों पर चर्चा का अहम विषय बनी हुई है।
सभी लोग यह जानना चाहते हैं कि आखिर रेल ने नुकसान से नफे की पटरी बदली कैसे? दिमाग में चल रहे कई सवालों के जवाब ढूंढ़ती किताब है- 'बैंकरप्टसी टु बिलियंस।'
इस किताब में लेखक ने सरल, सहज और व्यावहारिक तरीके से तमाम पहलुओं का जिक्र किया है, जो पढ़ने के लिहाज से भी बेहतर है। नाटकीय अंदाज के साथ लेखक ने अपनी किताब की शुरुआत रेल मंत्री लालू प्रसाद और उनके निर्वाचन क्षेत्र के कुछ लोगों के बीच दिलचस्प क्षेत्रीय संवाद से किया है।
इस संवाद में लालू प्रसाद की जमीनी सूझबूझ को उजागर किया गया, जिसकी मदद से वे लोगों की सोच पर काम करते हैं। मिसाल के तौर पर द्वितीय श्रेणी यात्री किरायों में टिकट पर 1 रुपये की छूट देने पर भारतीय रेल पर 250 करोड़ रुपये का बोझ पड़ेगा।
लालू प्रसाद की ओर से मूल मंत्र के रूप में 'न निजीकरण, न छंटनी और न ही किरायों में इजाफा' जैसी सिफारिशें उनकी राजनीतिक कुशाग्र बुध्दि के साथ इस सूझबूझ को दिखाती है कि महंगी दुधारू गाय का पूरा दोहन करना चाहिए।
इससे भारतीय रेल के लिए साफ संकेत मिलते हैं कि महंगी परिसंपत्तियों का अधिक से अधिक इस्तेमाल किया जाना चाहिए। इससे 'तेज, लंबी और भारी ट्रेनों' के दूसरे मंत्र को सामने आने का मौका मिला। इससे परिसंपत्तियों से जितनी ज्यादा हो सके उतनी कमाई की जा सके।
असलियत में तेज ट्रेनों से वक्त की बर्बादी कम होती है, जिसकी अहम वजह मार्ग और टर्मिनलों पर होने वाले देरी में कमी लाना है। भारी ट्रेनों का मतलब है स्थायी रास्तों और माल ढुलाई से अधिक कमाई करना।
रेलवे अकेले इससे माल भाड़े और यात्रियों की संख्या में वर्ष 2004 और 2008 के दौरान 9 प्रतिशत सालाना चक्रवृध्दि विकास दर कायम कर पाने में सफल रही। साथ ही साथ इससे परिसंपत्ति और श्रम उत्पादकता भी 1990 की दर के मुकाबले दोगुनी हो गई, जिसके फलस्वरूप इकाई लागत में कमी होने लगी।
कीमत के लिए 'बहुआयामी, अलग और बाजार अनुकूल ' तीन सूत्री मंत्र का इस्तेमाल किया गया। इनके और दूसरी रणनीतियों और बीच-बचावों के साथ वर्ष 2004-08 की अवधि में भारतीय रेल का परिचालन अनुपात 76 प्रतिशत के नीचे पहुंच गया और ऋण देने की क्षमता बढ़कर 22,000 करोड़ रुपये से अधिक हो गई, जिस पर विश्वास करना मुश्किल है।
बिना किराया या माल भाड़ा बढ़ाए अगर आय बढ़ने का दावा किया गया तो इसका मजाक उड़ना ही था। हालांकि रेल मंत्री लालू प्रसाद ने मुनाफे की ट्रेन चला ही दी और इन दावों को सच करके दिखाया।
अगर इस किताब का उप-शीर्षक 'किसने उबारी लालू की नैया?' होता तो और भी बढ़िया होता। इसमें बताया गया है कि कोई कैसे एक चतुर नेता बनता है। जो कभी भारतीय राजनीति के 'जोकर' माने जाते थे, आज वह भारत के उच्च प्रबंधन संस्थानों में 'प्रोफेसर लालू' बन गए हैं।
जैसे-जैसे उनके व्यक्तित्व का गुणगान बढ़ने लगा, भारतीय रेल संतुष्टि की स्थिति में आ गई। लेकिन इसे अभी यह समझना होगा कि उसके सामने अभी एक लंबा रास्ता तय करना बाकी है। भारतीय रेल को देश भर के माल ढुलाई के 50 प्रतिशत और यात्री पर्यटन के 30 प्रतिशत के अपने लक्ष्य को हासिल करना है।
नम्रता और ईमानदारी के साथ इस बात को स्वीकार करने की जरूरत है कि पिछले पांच सालों में भारतीय रेल के परिणामों में जो तेजी, जो वृध्दि देखी गई है, हालांकि वह अभूतपूर्व है, उसमें कोई 'असली क्रांति' या फिर बुनियादी बदलाव शामिल नहीं हैं।
लालू ने रेल के दैनिक परिचालन कार्यों के साथ किसी भी तरह की राजनीतिक हस्तक्षेप को न तो बर्दाश्त किया और न ही उनके लिए कोई जगह छोड़ी। नींद में उंघने वाली गाय रूपी भारतीय रेल पर चली तो सिर्फ लालू की ही लाठी।
जिसके हाथ में संचालन की कमान है, जब उस व्यक्ति का कद बढ़ता है, तब संस्थान बहुत कुछ और भी हासिल कर सकता है। एक बेहतरीन वक्ता के पास देहाती शब्दावली की एक अमूल्य भेंट होती है। लालू के ऊपर सुधार के एक मुश्किल दौर की शुरुआत का दायित्व था।
हालांकि किसी के भी पास तर्क के लिए काफी जगह बचती है, मिसाल के तौर पर राजनीतिक आर्थिक दबावों या व्यावहारिक्ता के नाम पर अब भारतीय रेल अहम परिवर्तनों की अनदेखी नहीं कर सकती।
इन परिवर्तनों में विभागों में बुनियादी ढांचे में बदलाव से लेकर संस्थागत बदलाव शामिल हैं। इसे अपने पुराने ढर्रे वाले उन विभागों और संस्थानों से छुटकारा पाना होगा, जिनसे बमुश्किल कोई फायदा होता है या वे विस्तार और विकास की अपनी रफ्तार को बरकरार रख पाते हैं।
कोई कुछ भी कहे या तर्क दे, लेकिन वह कभी नियम विरुध्द, यात्री सेवाओं की अनुचित कीमतों और सैकड़ों धीमी रफ्तार वाली क्षेत्रीय यात्री ट्रेनों को जारी रखने को उचित नहीं ठहरा सकता। भारतीय रेल के सामने अपने खर्चों में कटौती करने और माल भाड़े और कुछ किरायों में कमी करने की कई संभावनाएं हैं।
लालू का जनसंपर्क भी बेहतरीन हैं। जितने अच्छे वे वक्ता है, उतना शायद ही कोई और हो। उनके अधिकारी तो रेल मंत्रालय को फायदे में पहुंचाने के लिए उनकी तारीफ करते नजर आते ही हैं, लेकिन लालू भी इस मामले में पीछे नहीं हैं। कई बार संसद के सामने लालू प्रसाद ने अपने कार्यकाल के दौरान यात्री किरायों और माल भाड़े की दरों के मामले में कई परिवर्तनों की अप्रासंगिक चर्चा की है।
जब भी कोई इतिहास की अनदेखी करता है तो वह पथभ्रष्ट हो जाता है। भारतीय रेल के चक्रीय विकास के दर्द को अपने दिलो-दिमाग में बैठा लेने की जरूरत है। भारतीय रेल के इतिहास में यह पहले भी देखा जा चुका है कि भारतीय रेल ने पीछे का मुंह ताका है, फिर भले ही उस समय उसने यात्रियों की संख्या और कमाई में इजाफा दर्ज किया हो। हम मार्च महीने का आधा समय बिता चुके हैं।
यात्रियों से हासिल हुई सकल राशि 93,159 करोड़ रुपये है और वर्ष 2009-10 के अंतरिम बजट में कुल कार्यशील खर्च के लिए 83,600 करोड़ रुपये तय किए गए हैं। इसके साथ परिचालन अनुपात 89.95 प्रतिशत है।
कुल मिलाकर अब जो हमारे सामने तस्वीर मौजूद है वह लालू के चार सालों के कार्यकाल के दौरान करोड़पति मंत्रालय बनने से पहले के भारतीय रेल के उस दशक की ओर इशारा करती है, जिस समय भारतीय रेल वित्तीय मुश्किलों का सामना करते हुए काफी कड़ी मेहनत कर रही थी और उसे इंतजार था तो अपने तारणहार का।
पुस्तक समीक्षा
बैंकरप्टसी टु बिलियंस हाऊ द इंडियन रेलवेज ट्रांसफॉम्ड
संपादन: सुधीर कुमार और शगुन मेहरोत्रा
प्रकाशक: ऑक्सफोर्ड
यूनिवर्सिटी प्रेस
कीमत: 495 रुपये
पृष्ठ: 206
http://hindi.business-standard.com/hin/storypage.php?autono=15990
1 comment:
बड़ी समय से आई पुस्तक है यह।
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