Wednesday, May 20, 2009

अदम गोंडवी की कुछ रचनाएं

वो जिसके हाथ में छाले हैं पैरों में बिवाई है

उसी के दम से रौनक आपके बंगले में आई है


इधर एक दिन की आमदनी का औसत है चवन्नी का

उधर लाखों में गांधी जी के चेलों की कमाई है


कोई भी सिरफिरा धमका के जब चाहे जिना कर ले

हमारा मुल्क इस माने में बुधुआ की लुगाई है


रोटी कितनी महँगी है ये वो औरत बताएगी

जिसने जिस्म गिरवी रख के ये क़ीमत चुकाई है

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काजू भुने प्लेट में विस्की गिलास में

उतरा है रामराज विधायक निवास में


पक्के समाजवादी हैं तस्कर हों या डकैत

इतना असर है खादी के उजले लिबास में


आजादी का वो जश्न मनायें तो किस तरह

जो आ गए फुटपाथ पर घर की तलाश में


पैसे से आप चाहें तो सरकार गिरा दें

संसद बदल गयी है यहाँ की नखास में


जनता के पास एक ही चारा है बगावत

यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में

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जिस्म क्या है रूह तक सब कुछ ख़ुलासा देखिये

आप भी इस भीड़ में घुस कर तमाशा देखिये


जो बदल सकती है इस पुलिया के मौसम का मिजाज़

उस युवा पीढ़ी के चेहरे की हताशा देखिये


जल रहा है देश यह बहला रही है क़ौम को

किस तरह अश्लील है कविता की भाषा देखिये


मतस्यगंधा फिर कोई होगी किसी ऋषि का शिकार

दूर तक फैला हुआ गहरा कुहासा देखिये.

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तुम्हारी फाइलों में गाँव का मौसम गुलाबी है

मगर ये आंकड़े झूठे हैं ये दावा किताबी है


उधर जम्हूरियत का ढोल पीते जा रहे हैं वो

इधर परदे के पीछे बर्बरीयत है ,नवाबी है


लगी है होड़ - सी देखो अमीरी औ गरीबी में

ये गांधीवाद के ढाँचे की बुनियादी खराबी है


तुम्हारी मेज़ चांदी की तुम्हारे जाम सोने के

यहाँ जुम्मन के घर में आज भी फूटी रक़ाबी है



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हिन्दू या मुस्लिम के अहसासात को मत छेड़िये

अपनी कुरसी के लिए जज्बात को मत छेड़िये


हममें कोई हूण, कोई शक, कोई मंगोल है

दफ़्न है जो बात, अब उस बात को मत छेड़िये


ग़र ग़लतियाँ बाबर की थीं; जुम्मन का घर फिर क्यों जले

ऐसे नाजुक वक्त में हालात को मत छेड़िये


हैं कहाँ हिटलर, हलाकू, जार या चंगेज़ ख़ाँ

मिट गये सब, क़ौम की औक़ात को मत छेड़िये


छेड़िये इक जंग, मिल-जुल कर गरीबी के ख़िलाफ़

दोस्त, मेरे मजहबी नग्मात को मत छेड़िये
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वेद में जिनका हवाला हाशिये पर भी नहीं
वे अभागे आस्‍था विश्‍वास लेकर क्‍या करें


लोकरंजन हो जहां शम्‍बूक-वध की आड़ में
उस व्‍यवस्‍था का घृणित इतिहास लेकर क्‍या करें


कितना प्रतिगामी रहा भोगे हुए क्षण का इतिहास
त्रासदी, कुंठा, घुटन, संत्रास लेकर क्‍या करें


बुद्धिजीवी के यहाँ सूखे का मतलब और है
ठूंठ में भी सेक्‍स का एहसास लेकर क्‍या करें


गर्म रोटी की महक पागल बना देती मुझे
पारलौकिक प्‍यार का मधुमास लेकर क्‍या करें

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मुक्तिकामी चेतना अभ्यर्थना इतिहास की
यह समझदारों की दुनिया है विरोधाभास की

आप कहते हैं इसे जिस देश का स्वर्णिम अतीत
वो कहानी है महज़ प्रतिरोध की ,संत्रास की

यक्ष प्रश्नों में उलझ कर रह गई बूढ़ी सदी
ये परीक्षा की घड़ी है क्या हमारे व्यास की?

इस व्यवस्था ने नई पीढ़ी को आखिर क्या दिया
सेक्स की रंगीनियाँ या गोलियाँ सल्फ़ास की

याद रखिये यूँ नहीं ढलते हैं कविता में विचार
होता है परिपाक धीमी आँच पर एहसास की.

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-रचनाकार: अदम गोंडवी




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Satyendra Pratap Singh
Senior Sub Editor,
Business Standard,
New Delhi

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