Wednesday, October 28, 2009

ये कैसे माओवादी हैं जो राजधानी एक्सप्रेस में रोटी और कंबल लूटते हैं


-माओवादियों ने पहले सबको ट्रेन से उतर जाने को कहा
-वे ट्रेन को जलाना चाहते थे
-बाद में कुछ बच्चे और महिलाएं डर के मारे रोने लगे तो उन्होंने ट्रेन जलाने का विचार त्याग दिया
-उन्होंने पूरी ट्रेन में नारे लिखे और लिखा कि छत्रधर महतो संथालियों के मित्र हैं
-ट्रेन छोड़ने से पहले वे अपने साथ पेंट्री कार से खाना और कंबल लूट के ले गए



यह सब पढ़कर थोड़ा अफसोस हुआ। ब्लागों पर पढ़ते आ रहे थे कि ये बहुत धनी, अमीर लोग हैं। लेवी वसूलते हैं। करोडो़ की संपत्ति रखते हैं। ऐय्याशियां करते हैं। लेकिन खबरें कुछ ऐसी आईं कि दिल में दर्द हुआ। ये तो रोटी लूटते हैं। ओढ़ने के लिए कंबल लूटते हैं। यात्रियों और उनके सामान को सुरक्षित छोड़ देते हैं और अपनी बात कहकर जंगल में चले जाते हैं।
स्वतंत्रता के समय संथालों ने भी अंग्रेजों के शोषण के खिलाफ आवाज उठाई थी। मैनै अयोध्या सिंह की अंग्रेजों के समय हुए आदिवासी विद्रोह पर लिखी गई किताब में यह सब पढ़ा। उनके पास गोला बारूद नहीं था। जान देकर अपने तीर धनुष से लड़े थे। स्वतंत्र भारत में भी वे वैसे ही हैं। रोटी लूटते हैं, तीर धनुष, फरसा लेकर क्रांति लाने और शोषण के खिलाफ आवाज उठाने की कोशिश मात्र करते हैं। उनकी जिंदगी में आज भी सब कुछ वैसा ही है, जैसा १०० साल पहले था। उनकी जमीन अंग्रेजों और जमींदारों ने मिलकर छीनी। वहां से खनिजों का दोहन हुआ। आदिवासियों को जंगल में जाने के अधिकार से भी वंचित कर दिया गया।
मजे की बात है कि अखबार भी उनकी दयनीय हालत के बारे में लिखते-लिखते थक गए। पढ़ने वाले भी थक गए। अखबारों ने लिखना बंद कर दिया.. और सरकार ने उनके बारे में सोचना। अब जब उन्होंने राजधानी एक्सप्रेस को कब्जे में लिया, तब जाकर खबर बने। लेकिन उनकी समस्या पर कुछ नहीं लिखा गया। क्या उन्हें स्वतंत्र भारत में रोटी और कंबल लूटते और पुलिस की गोलियां खाते ही जिंदगी काटनी है??
बुधवार की सुबह से ही खबरें आ रही हैं कि दिल्ली की केंद्र सरकार उच्च स्तरीय बैठक कर रही है। चिदंबरम साब पहले ही सेना और अर्धसैनिक बलों के माध्यम से लड़ाई लड़ने की तैयारी कर चुके हैं।
अब यह देखना दिलचस्प होगा कि किस तरह से सरकार गरीबों पर गोलियां चलाकर गरीबी खत्म कर पाती है। और किस हद तक। सवाल यह भी है कि जिन आदिवासी इलाकों में आजतक सड़कें, रेल, पेयजल, स्वास्थ्य सुविधाएं, पुलिस व्यवस्था बहाल नहीं की जा सकी, वहां अब सरकार सेना को कैसे पहुंचाती है और इन इलाकों के लोगों के ऊपर गोलियां चलवाकर किस तरह से हिंसक आंदोलन को खत्म करती है।

12 comments:

अविरत यात्रा said...

satyendra ji baat to apne sahi kahi hai, lekin apke irade nek nahi lag rahe hai.

परमजीत सिहँ बाली said...

इस जानकारी को पढ़ कर तो लगता है कि उनका यह विरोध सिर्फ अपनी हालत की ओर ध्यान दिलाने का है।सरकार को उस ओर ध्यान देना चाहिए।मिल बैठ कर बातचीत करनी चाहिए।ताकि बिना खून खराबे के समस्या का समाधान हो सके।

P.N. Subramanian said...

परमजीत जी से हम सहमत हैं. वैसे उनको उकसाया भी जा रहा है कुछ खुदगर्ज लोगों के द्वारा जो अपनी रोटी सेंकना चाहते हैं.

Satyendra PS said...

परमजीत जी और सुब्रह्मण्यम जी
आप लोगों से मैं भी सहमत हूं। समस्या यह है कि चीजें स्थिर सी हो चुकी हैं। स्वतंत्रता के पहले जो अंग्रेजों के दलाल थे, सुख भोगते थे। आज वही सत्ता में हैं या सत्ता का दलाल बनकर सुख भोग रहे हैं। कोल संथाल आदि, जिनके पूर्वजों ने इस देश के लिए जान दिया था, आज उन्हें पेट के लिए रोटी लूटनी पड़ रही है। जब ६० साल से स्वतंत्र भारत की सरकार ने उनकी बात नहीं सुनी तो अब सुनेगी, ऐसा मुश्किल ही लगता है।
आपने सही कहा कि कुछ लोग उन्हें बरगला रहे हैं। वैसे तो इसकी उम्मीद कम ही है कि किसी के बरगलाने पर कोई जान देने को तैयार हो जाए। लेकिन यह सौ प्रतिशत सत्य है कि नक्सल प्रभावित सभी राज्यों में नक्सलियों के नाम पर गुंडों, अपराधियों और दबंगों ने लूट मचा रखी है। अपराधी लूट का हिस्सा पुलिस को देते हैं और हत्या लूट का पाप नक्सलवादियों, गरीबों पर मढ़ दिया जाता है। पुलिस वाले भी बयान जारी कर देते हैं कि नक्सलवादियों ने अपराध किया। ठीक वैसे ही, जैसे भारत में किसी भी विस्फोट पर पाकिस्तान और पाकिस्तान में किसी भी विस्फोट के बाद भारत का नाम लिया जाता है और उस पर कोई कार्रवाई नहीं होती।
तमाम मामले तो ऐसे भी हुए हैं कि नक्सलियों ने नक्सलवाद के नाम पर लेवी वसूलने वालों की हत्याएं की हैं। इस लूट में शामिल अधिकारियों को मारा है। सवाल यह है कि क्या नक्सलवाद के नाम पर इस तरह की वसूली और हत्या करने वाले गुंडों को भी नक्सलवादी ही रोकेंगे?

Gyan Dutt Pandey said...

ओह, इन अराजक तत्वों को ग्लोरीफाई करना उचित है?

Anonymous said...

मैं भी कभी ऐसा ही सोचता था जब तक की मुझे ज़मीनी हकीकत का पता नहीं था. जब आपके जंगल काट डाले जाएँ, आपके पास कहीं और बसने के संसाधन और कौशल न हो, आपकी ज़मीनें-जंगल सरकार और कोर्पोरेट कम्पनियाँ अधिग्रहित कर लें, आपको अपने ही जंगलों में जाने से रोक दिया जाए, आपके पिछडेपन और मासूमियत का फायदा दलाल, व्यापारी, सरकारी अधिकारी और वन/टिम्बर माफिया हर तरह से उठाए. और कोई भी आपकी बात सुनाने को राजी न हो.

तब हथियार उठाना गलत नहीं है, ऐसे में हथियार न उठाएं तो क्या सत्याग्रह करें या सविनय अवज्ञा आन्दोलन करें या धरने-अनशन पर बैठें?

ज्ञानजी आप इनकी स्थिति में होते तो क्या करते?

L.Goswami said...

ab inconvenienti से कुछ हद तक सहमत. रोजगार मिलाने के बाद ये घटनाएँ कम हो ही जाती ..पर अफ़सोस....

दिनेशराय द्विवेदी said...

सत्येन्द्र से सहमत हूँ।
@ज्ञानद्त्त जी,
क्या सरकार उन से अधिक अराजक नहीं है? सब जानते हैं आज सर्वोच्च न्यायालय और उच्चन्यायालयों का विकेन्द्रीकरण सख्त जरूरत है। एक एक पीठ में बीस बीस पच्चीस पच्चीस जज बैठ कर क्या करते हैं? वे संभागीय मुख्यालयों पर क्यों नहीं जा सकते. लेकिन पश्चिम उत्तर प्रदेश इस के लिए जल रहा है। इधर राजस्थान में दो दो-तीन तीन महिनों से अदालतें ठप्प हैं। मुख्यमंत्री की जुबान नहीं खुलती, दबी जुबान से कहता है कि विधि आयोग का क्या वह तो रिपोर्टें देता रहता है। फिर निगमों के चुनाव घोषणा के बाद बुला कर कहता है कि मैं क्या करूँ? अब आचार संहिता लागू हो गई है। कौन है अराजक? सरकारें? या वकील और उन के साथ लगी जनता या संथाली। आप खुद फैसला करें।

Satyendra PS said...

ज्ञानदत्त पाण्डेय जी,
किन अराजक तत्वों को ग्लोरीफाई करने की बात आप कर रहे हैं? भूखा आदमी कभी अराजक नहीं हो सकता। अराजक तो वे होते हैं जो राज को अपने पक्ष में मोड़ लेते हैं.. जैसे स्पेक्ट्रम बांटने में सरकार ने ८० हजार करोड़ रुपये फ्री में उद्योगपतियों को बांट डाले। पता नहीं कमीशन लिया या नहीं, मैं नेताओं पर आरोप नहीं लगाना चाहता, लेकिन यह सही है कि यूनीटेक ने सरकार को जितना पैसा दिया था, उसका दोगुना आधा स्पेक्ट्रम बहुराष्ट्रीय कंपनी को बेचकर कमा लिया। सरकार ने चीन से आने वाले केमिकल्स पर एंटी डंपिंग लगाकर लाखों छोटे कारोबारियों को बरबाद कर दिया, कुछ कंपनियों के फायदे के लिए। मेरी नजर में तो अराजक यही लोग हैं। भूखे पेट अराजकता भी फैलाना वश की बात नहीं होती।

Mishra Pankaj said...

अब क्या कहे सरकार दोषी है या जनता जिसने ट्रेन लूटा ?

Satyendra PS said...

पंकज जी,
रेल में यात्रा कर रहे १२०० उच्च मध्य वर्ग के लोगों को यूं ही छोड़ दिया। एक बच्चा रोया, तो ट्रेन को जलाना भी उचित नहीं समझा। अगर रोटी और कंबल लूटने को ट्रेन लूटना कहते हैं तो जो लोग देश लूट रहे हैं उन्हें क्या कहेंगे आप। शब्दों को इतना हल्का तो मत करिए।

Aditya Raj said...

aapka ye lekh sochne par vivash kar deta hai....