विधि मंत्री वीरप्पा मोइली ने कृषि को समाज की संजीवनी कहा। नई सूचना है। लगता है संजीवनी खाकर ही किसान जिंदा रहते हैं, नहीं तो खेती करना इस समय ऐसा धंधा बन गया है कि किसानों का मरना तय था।
मजे की बात है कि कुछ इलाकों के किसान नहीं जानते थे कि संजीवनी कैसे उगाई जाए? यही कारण लगता है कि उन राज्यों में किसान आत्महत्या करने को मजबूर होते हैं। हालांकि जहां तक मैने देखा है- किसान को खेती से तभी मुनाफा होता है, जब वह दिखावे के लिए खेती करे और वास्तव में उसका धंधा कुछ और हो। वह ठेकेदारी हो सकता है, परिवार के किसी सदस्य का सरकारी नौकरी में होना हो सकता है। अन्यथा बड़े से बड़े खेतिहर भी अपने बच्चे को बेहतर स्कूल में पढ़ाने के लायक नहीं होते।
अब विधि मंत्री भी बेचारे क्या कर सकते हैं? क्या किसानों के लिए उनके पास कोई ऐसी व्यवस्था है कि वे किसानों को उनके उत्पाद का इतना मूल्य दिलाएं कि वे भी अपने बच्चे को एमिटी इंटरनेशनल, डीपीएस, डालमिया इंस्टीच्यूट के फीस अदा करने लायक बन सकें?
किसानों को राहत की भीख, कर्ज की भीख, छूट की भीख, गरीबों को दिए जाने वाले कार्ड की भीख, छूट देने की भीख आदि तो दिया जा रहा है, लेकिन किसानों को भी क्या कभी इतना पैसा मिल सकता है कि जिस तरह से कंपनियां अपने मुनाफे में हर तिमाही ३० प्रतिशत की बढ़ोतरी कम से कम दिखा देती हैं, वैसा ही हर सीजन में किसानों को भी अपने उत्पाद पर ३० प्रतिशत मुनाफा मिले और उन्हें भीख देने की नौबत न आए। वे भी गर्व से कह सकें कि हम अपना व्यवसाय करते हैं, भिखारी नहीं है। हमें खाद, बीज, राशन, तेल पर छूट नहीं चाहिए।
एक तर्क यह भी दिया जाता है कि किसानों को टैक्स नहीं देना होता है। यही तो कहना चाहते हैं कि मुनाफा दो और टैक्स भी लो। क्यों नहीं टैक्स देंगे? पहले लागत लगाने के बाद मुनाफा तो हो। अगर ३० प्रतिशत मुनाफा हो तो हर किसान १० प्रतिशत टैक्स तो खुशी-खुशी दे देगा।
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