Monday, November 29, 2010

आप धन्य हैं मनमोहन!

आज मेरी पत्नी से बहुत देर तक मेरा सवाल-जवाब चला। उन्होंने पूछ दिया कि ये स्पेक्ट्रम घोटाला क्या है? मैंने उनसे कहा कि देश की संपत्ति की लूट की लूट का मामला है। उन्हें समझ में नहीं आया तो मैने सामान्य ढंग से समझाने की कोशिश की। मैने उनसे पूछा कि २ लाख में कितने शून्य लगते हैं तो उन्होंने बताया कि पांच। फिर मैने पूछा कि २ लाख करोड़ में कितने शून्य लगेंगे तो उन्होंने बहुत मेहनत कर बताया कि करोड़ के सात और लाख के पांच मिलाकर बारह शून्य लगेंगे। तब मैने उन्हें बताया कि २ के बाद बारह शून्य लगाने पर जितने रुपये बनते हैं उतने बाजार मूल्य का स्पेक्ट्रम कुछ कारोबारियों को हमारी सरकार ने करीब मुफ्त में दे दिया है।


हालांकि २ के बाद इतने शून्य लगाने के बाद ही वो चकरा गई थीं। लेकिन उन्होंने सवाल उठाया कि संचार विभाग के अलावा और विभागों में भी ऐसा है क्या? मैने फिर अपनी छोटी बुद्धि दौड़ाई और बताया कि इससे बड़ा घोटाला गैस ब्लॉक आवंटन में हुआ है और एक ही सेठ को सरकार ने औने पौने दाम देश की सारे गैस ब्लॉक दिए हैं। साथ ही देश में कोयला ब्लॉक के आवंटन में भी लूट है। इतनी ही बड़ी लूट लौह अयस्क ब्लॉक के मामले में हुई है। तब तक मेरी पत्नी को याद आया कि कर्नाटक के मुख्यमंत्री को हटाने की साजिश लौह अयस्क की लूट करने वाले लोग कर रहे हैं। येदियुरप्पा के ऊपर कुछ लाख रुपये के प्लाट उनके परिवार को दिए जाने के मामले को लेकर।


बहरहाल, बीच में नीरा राडिया की भी चर्चा हो गई। उनके बारे में भी बताना पड़ा कि वो लंदन में पढ़ी लिखी और पूंजीवाद को नज़दीक से समझने वाली महिला हैं। राडिया की पढ़ाई पूरी हुई, ठीक उसी समय हमारे मनमोहन सिंह बाजार को पूंजीवादी रास्ते पर लेकर आए। उस समय मनमोहन वित्त मंत्री थे। नीरा राडिया ने नजदीक से देखा था कि पूंजीवाद में एक जनसंपर्क एजेंसी की बड़ी भूमिका होती है और उन्होंने वैष्णवी कम्युनिकेशंस की नींव रख दी। बाद में वह टाटा समूह और मुकेश अंबानी समूह प्रमुख उद्योग घरानों के जनसंपर्क देखने लगीं और उन्होंने बहुत बड़ी पूंजी वाली जन संपर्क एजेंसी खड़ी कर ली। अब वह मीडिया और अपने अन्य संपर्कों के माध्यम से उद्योग जगत के पक्ष में माहौल बनाती हैं।
तो आखिर नीरा राडिया कैसे सामने आ गईं? दरअसल टू-जी स्पेक्ट्रम की लूट की जांच का फैसला सरकार ने किया। राडिया चूंकि उद्योगपतियों के लिए काम करती थीं, इसलिए उनके फोन टेप किए जाने लगे। जब फोन टेप में बड़ी-बड़ी मछलियों के नाम सामने आने लगे तो जांच एजेंसी ने उसे साल भर दबाए रखा लेकिन वह टेप लीक हो गई और खबरें मीडिया में आने लगीं।


बहरहाल चर्चा में यह आ गया कि गैस घोटाला क्यों सामने नहीं आया? असल में मुकेश अंबानी ज्यादा चालाक निकले और उन्होंने अपनी डीलिंग सीधे सरकार से की और उस क्षेत्र में किसी प्रतिस्पर्धी को घुसने का मौका ही नहीं दिया। कुछ वैसे ही, जैसे वेदांता के अग्रवाल ने खनन कारोबार में किया था। जब खनन कारोबार में तमाम कारोबारी कमाई के लिए घुसने लगे औऱ घोटाला सामने आने की नौबत आई तो उन्होंने लंदन में घर बसा लिया। अग्रवाल को अब भारत में कमाई से खास मतलब भी नहीं है क्योंकि वेदांता विश्व की तीसरी बड़ी खनन कंपनी बन चुकी है। हालांकि उनका भारत में भी बहुत बड़ा कारोबार है।


मेरी समझ में इतना ही आया और यह मेरे निजी विचार हो सकते हैं। मनमोहन को मैने धन्यवाद भी दिया और खुद नए सिरे से समझने और समझाने की कोशिश की कि किस तरह से देश में धनकुबेरों की संख्या बढ़ रही है और वे वैश्विक धनकुबेरों की सूची में ऊंचा स्थान बनाते जा रहे हैं। इसी को कहते हैं शानदार विकास!

Friday, November 26, 2010

राहुल गांधी और चेहरे की राजनीति

बिहार चुनाव में राहुल गांधी के चुनावी दौरों का कोई असर नहीं पड़ा। जो लोग उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को लोकसभा में चुनावी जीत को राहुल के चेहरे की जीत मान रहे थे, शायद उन्हें निराशा हाथ लगी है।
हालांकि चमचागीरी की राजनीति करने वाले कांग्रेसियों को भी पता ही होगा कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को जीत क्यों मिली थी?
उत्तर प्रदेश में मंडल आयोग के बाद हुए ध्रुवीकरण में मुलायम सिंह यादव पिछड़े वर्ग के मसीहा बनकर उभरे थे। उसी में उनके एक डिप्टी मुलायम भी थे, बेनी प्रसाद वर्मा। लेकिन मुलायम सिंह भी जब लंबे समय तक जीत हासिल करते रहे तो उन्होंने उत्तर प्रदेश में आए बदलाव को यादवों और मुलायम परिवार की जीत मान ली और उनके डिप्टी ढक्कन साबित हो गए। शायद लोगों को अभी भी याद होगा कि जब मुलायम केंद्रीय मंत्री थे तो उन्होंने बेनी प्रसाद को संचार मंत्री जैसे महत्वपूर्ण विभाग की जिम्मेदारी दिलाई थी और उन्हें केबिनेट मंत्री का दर्जा हासिल हुआ।
बेनी प्रसाद वर्मा लंबे समय तक उत्तर प्रदेश की राजनीति में पृष्ठभूमि में पड़े रहे और पिछले लोकसभा चुनाव में उन्होंने अपनी पहचान बचाने के लिए कांग्रेस का सहारा लिया। उधर मुलायम सिंह की उत्तर प्रदेश में ऐसी छवि बनी, जैसे वे सिर्फ यादवों के नेता बन गए हों। परिणाम यह हुआ कि बेनी प्रसाद ने जनता की भावनाओं को समझा और कांग्रेस के साथ मिलकर इसका लाभ उठाया। मुलायम सिंह की तमाम परंपरागत बन चुकी सीटें (जो बेनी प्रसाद के प्रभाव से सपा को मिलती थीं) कांग्रेस को चली गईं। गोंडा और नेपाल बॉर्डर से सटी बेनी के प्रभाव वाली करीब १० सीटें कांग्रेस ने मुफ्त में हथिया लीं।
हां, रायबरेली-अमेठी औऱ उससे सटे इलाकों में जरूर नेहरू खानदान का फेस वैल्यू रहा।
इसे कांग्रेसियों ने कुछ इस तरह प्रचारित किया, जैसे कि राहुल गांधी का जादू चल गया। कहीं राहुल की छवि को मीडिया दूसरा रुख न दे दे, शायद इसी का ध्यान रखते हुए बेनी बाबू को मंत्री क्या संत्री बनाने के योग्य भी नहीं समझा गया।
बिहार क्या, अब पूरे देश में फेस वैल्यू है। लेकिन वह फेस कैसा हो? सवाल यह है। शायद जनता चाहती है कि यह फेस उनके बीच का हो, जो उनके दर्द-दुख और उनके विचारों को समझे। कांग्रेस और भाजपा दोनों ऐसी पार्टियां हैं जो जनाधार वाले नेताओं को बर्दाश्त नहीं कर सकतीं। जहां भाजपा में फेस बनाने के चक्कर में तमाम हवा-हवाई नेता लगे रहते हैं, कांग्रेस के लोग नेहरू खानदान के अलावा किसी को फेस मानते ही नहीं।
कुल मिलाकर देखें तो हवा-हवाई फेस वैल्यू बनाने वालों की हवा भी बिहार के मतदाताओं ने निकाल दी है।

Wednesday, November 24, 2010

क्या भारत का कारोबारी जगत अपनाएगा बिहार मॉडल

२४ नवंबर २०१० को मेरी शादी के ५ साल पूरे हो गए। मन में पहले से था कि इस दिन कार्यालय के काम से छुट्टी लेकर जीवन का आनंद लिया जाए। बाधा यह पड़ गई कि सुबह से ही मैं टेलीविजन पर भिड़ गया बिहार का चुनाव देखने। पत्नी ने उसमें कोई खास सहयोग नहीं दिया, लेकिन परिणाम देखने में बहुत अच्छा लग रहा था, इसलिए रात तक टीवी पर यही खबर देखता रहा।

बिहार में हालत यह हो गई है कि विपक्ष ही नहीं रहा। सारी सीटें नीतीश-मोदी ने हथिया ली। लालू प्रसाद जैसे करिश्माई नेता को यह उम्मीद तो कतई नहीं थी, या कहें कि किसी को यह उम्मीद नहीं थी।
नीतीश कुमार ने जनता से सिर्फ एक बात कही थी कि ५ साल से जो सेवा की है, उसकी मजदूरी दे दो। बिहार में ज्यादातर मजदूर ही हैं... खासकर वे लोग, जो वोट देते हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि उन्होंने नीतीश को उनकी मजदूरी देकर खुश कर दिया। कारोबारी जगत भी खुश है। बिहार के चुनाव को एक मॉडल के रूप में देखा जा रहा है। जिस बिहार को कहा जाता था कि यह नहीं सुधर सकता, जाति-पाति से ऊपर नहीं उठ सकता, उसने कम से कम मजदूरी देने में तो पूरी दरियादिली दिखाई और सही कहें तो बिहार में नीतीश सरकार ने जितना काम किया था, उससे कहीं ज्यादा उन्हें मजदूरी मिली।

देश में अभी तक जाति की ही राजनीति चली है। कांग्रेस सरकार शुरू से कथित ऊंची जाति, दलित और मुसलमान के जातीय समीकरण से सत्ता में बनी रही। उसके बाद लालू प्रसाद के समय में वह वर्ग उभरकर सामने आया, जो कांग्रेस सरकार में सत्ता सुख से वंचित था और ऐसा हर राज्य में कमोबेश हुआ। कांग्रेस-भाजपा अभी भी उस वर्ग को अछूत मानती है, जिसका वोट लेकर मुलायम-लालू जैसे नेता सरकार में आए।

अभी भी उदाहरण सामने है। महाराष्ट्र में चव्हाण के बदले चव्हाण खोजा गया। कर्नाटक में भाजपा लिंगायत के बदले लिंगायत खोज रही थी, लेकिन येदियुरप्पा ने इस्तीफा ही नहीं दिया। आंध्र प्रदेश में कांग्रेस ने रेड्डी के बदले रेड्डी खोज निकाला। ऐसे माहौल में अगर नीतीश कुमार २४३ में से २०६ सीटें जीतकर सत्ता में आते हैं तो निश्चित रूप से बिहार ने देश को एक नई दिशा दी है। यह प्रचंड बहुमत किसी जाति समूह के मत से नहीं मिल सकता, सबका मत नीतीश सरकार को मिला। वह भी मजदूरी के बदले।

मजदूरों से भरे बिहार ने नीतीश का दर्द समझा है कि अगर कोई मेहनत से काम करता है तो उसे मजदूरी दिल खोल कर दी जानी चाहिए। ऐसे में कारोबारियों को भी एक सीख मिली है कि अगर कोई मेहनत से काम करता है तो उसका हक जरूर मिलना चाहिए। देश के हर औद्योगिक क्षेत्र में मजदूरों में असंतोष है। नोएडा और गाजियाबाद में प्रबंधन से जुड़े लोगों की हत्या इसका उदाहरण है। तो ऐसी स्थिति में बिहार का मतदाता क्या संकेत दे रहा है.... क्या हर तिकड़म लगाकर, टैक्स की चोरी कर, सरकार में अपने प्यादे रखवाकर, बैलेंस सीट में गड़बड़ियां कर, सरकार से मिली भगत कर देश की संपत्ति को निजी संपत्ति बनाने में जुटे कारोबारी- एक तिमाही में तीन हजार करोड़ रुपये मुनाफा कमाने वाले कारोबारी जनता के इस संदेश को समझ पाएंगे? क्या वे बिहार के मजदूरी मॉडल को स्वीकार कर पाएंगे?

बहरहाल... बहुत दिन बाद राजनीति पर लिखने को मन में आया है। उम्मीद है कि अभी और कुछ भी जारी रहेगा...

Wednesday, November 17, 2010

मरने के लिए ही बने हैं मजदूर

पिछले तीन दिन से समाचार पत्र पढ़ते, टीवी चैनल देखते और नेताओं अधिकारियों के बयान सुनते मैं इसी निष्कर्ष पर पहुंचा कि मजदूर मरने के लिए बने हैं। उदारीकरण, औद्योगीकरण के शाइनिंग इंडिया में ही इसकी नींव रख दी गई और इसका कोई विकल्प अब नहीं है। कौन है जो शाइनिंग इंडिया के खिलाफ जा सकता है या जाने की हिम्मत रखता है। न तो कोई अधिकारी-नेता समस्या के समाधान का इच्छुक है, न ही वह इस मसले पर बात कर रहा है। समस्या के समाधान की योजना बनाना तो दूर की बात है।

आखिर लोग अन्य राज्यों से मजदूरी करने दिल्ली आते ही क्यों हैं? यही तो शाइनिंग इंडिया है। पूंजीपतियों को सुविधा देने के लिए देश भर में कुछ केंद्र बना दिए गए। वहां पर फैक्टरी या संयंत्र लगाने के लिए उद्योगपतियों को फ्री जमीन, मामूली ब्याज दर (कभी कभी तो शून्य दर पर) कर्ज मुहैया कराया जाता है। साथ ही यह सुविधा दी जाती है कि उस इलाके में अगर कारोबारी मजदूर का खून भी निचोड़ रहा है तो स्थानीय प्रशासन की कोई भूमिका नहीं होगी, न ही स्थानीय लोगों का कोई हस्तक्षेप होगा। बाहर से मजदूरी करने लोग आएंगे और वे दो जून की रोटी कमाने के लिए जितना भी खटाया जाए, खटेंगे।

इससे हुआ यही कि अन्य रोजगार केंद्रों से रोजगार छिन गए। उत्तर प्रदेश, बिहार और अन्य कुछ पिछड़े राज्यों में कुछ बचा ही नहीं। किसानों को बिचौलियों के हाथ बर्बाद करवा दिया गया, उत्पादन लागत से ज्यादा पर वह अपना उत्पाद बेच ही नहीं पाता। वह ८ रुपये किलो गेहूं बेचता है तो गरीब खरीदारों तक पहुंचते पहुंचते वह १६ रुपये किलो हो जाता है। विनिर्माण क्षेत्र पूरी तरह से कुछ शहरों तक केंद्रित कर दिए गए।

अगर शाइनिंग इंडिया में मजदूरों और कर्मचारियों की कोई जगह होती तो निश्चित रूप से रोजगार के तमाम केंद्र बनते, जिससे मजदूरों का विस्थापन नहीं होता। अगर मजदूरों का विस्थापन कराना और छोटे-छोटे रोजगार केंद्रों को बर्बाद करना ही था तो उस शाइनिंग इंडिया में सेज में कंपनियों को १० एकड़ जमीन देते वक्त सरकार २ एकड़ जमीन की व्यवस्था उसके कर्मचारियों के लिए भी कर देती, लेकिन ऐसा नहीं किया गया।

दिल्ली के लक्ष्मीनगर इलाके में बिल्डिंग ढहने की घटना इसकी बानगी है। दिल्ली में केंद्र सरकार और राज्य सरकार ने मिलकर १६०० से ज्यादा स्लम और अवैध कालोनियां विकसित करवाई हैं, जिससे वहां देश भर के मजदूर आकर बस सकें। इन कालोनियों में जनसंख्या विस्फोट की स्थिति है। दो कमरे का किराया सात से दस हजार रुपये महीने तक चल रहा है। स्लम एरिया में पहले बस चुके लोग अपने मकान में कहीं न कहीं से कमरे बढ़ाने की गुंजाइश में लगे हैं कि किसी तरह से १ कमरा बढ़ जाए तो उसका तीन हजार रुपये महीने किराया आने लगे।

इन १६०० अवैध और स्लम कालोनियों में वे लोग रहते हैं जिनकी मासिक कमाई तीस हजार रुपये तक है। उससे ऊपर जाने पर वे वैध कालोनियों में घुसने की कोशिश करते हैं, जहां दो कमरे का किराया बारह हजार रुपये महीने के ऊपर चला गया है। वैसे तो दिल्ली में पाकिस्तानी और बांग्लादेशियों के अलावा हर राज्य से आए लोग अवैध रूप से रहते हैं, क्योंकि सरकारों ने तो सिर्फ पाकिस्तानियों और बांग्लादेशियों को ही वैध रूप से बसाया है, बाकी वैध रूप से रहने वाले लोगों की संख्या कम ही है।

अवैध कालोनियों में रह रहे लोगों के पास विकल्प क्या है? क्या वे अपने नियोक्ता पर हमला करें, जो उन्हे इतना वेतन नहीं देता कि वे वैध इलाकों में रह सकें, या वे उस मकान मालिक पर हमला कर दें तो उन्हें अपने घर में रखता है, या वे खुद कहीं रेल के नीचे कट मरें।

बाहर से आने वाले मजदूरों के बिना भी दिल्ली में काम नहीं चलने वाला है। आखिर वे जो काम कर रहे हैं, उसे कौन करेगा? लेकिन उनके जीने का कोई इंतजाम नहीं है। अपने राज्य में रहें तो भूख से मरें और दिल्ली, मुंबई, बेंगलुरु जैसे रोजगार केंद्रों पर नौकरी करने जाएं तो अपने आशियाने के कब्रिस्तान में दफन हो जाएं। इस तरह से मरना ही उनकी नियति है और यही शाइनिंग इंडिया की चमकदार तस्वीर है।